मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

ज्ञान भी सुपात्र को ही देना चाहिए

एक बहुत विद्वान ब्राह्मण थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। वे घूम-घूम कर लोगों में ज्ञान बांटा करते थे। एक बार इसी तरह विचरण करते हुए वह एक राजा के यहां जा पहुंचे। राजा ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। उन्हें अपने महल में ठहराया। रोज ही उनके सत्संग रूपी प्रकाश से राज्य की जनता अपना अज्ञान रूपी अंधकार मिटाती रही। इसी तरह कुछ दिन व्यतीत होने पर ब्राह्मणदेव ने अपनी यात्रा जारी करने की इच्छा जाहिर की। जाते समय राजा ने उनसे गुरुमंत्र देने को कहा। इस पर उन्होंने राजा से कहा कि सदा आलस्य रहित होकर, शान्ति, मित्रता, दया और धर्म से अपने राज्य का संचालन करते रहना। इस पर राजा ने प्रसन्न होकर उन्हें एक गांव भेंट करना चाहा पर ब्राह्मणदेव ने उसे लेने से इंकार कर दिया और अपनी राह चल पड़े।
चलते-चलते वे एक नदी किनारे आ पहुंचे। वहां का मल्लाह निपट मूर्ख था। उसे सिर्फ अपने पैसों से मतलब था। उसने आज तक किसी को भी बिना पैसा लिये पार नहीं उतारा था। पैसे के लिये वह लड़ाई-झगड़ा करने से भी बाज नहीं आता था। अब ब्राह्मण को उस पार जाना था सो उन्होंने नाविक से पूछा कि क्या भाई मुझे उस पार ले जाओगे ? नाविक ने कहा क्यों नहीं, किराया क्या दोगे? पंडितजी ने कहा मैं तुम्हें ऐसा उपाय बताउंगा जिससे तुम्हारे धन और धर्म दोनों की वृद्धि होगी। यह सुन कर मल्लाह ने उन्हें पार उतार दिया और उधर जा पैसे की मांग की। पंडितजी ने कहा कि तू पार उतारने के पहले ही यात्रियों से पैसा ले लिया कर, बाद में उनका मन बदल सकता है। यह धन की वृद्धि का उपाय है। नाविक ने सोचा कि इस सलाह के बाद ये पैसे भी देगा, सो उसने फिर किराया मांगा। पंडितजी ने कहा अभी तुझे धन की वृद्धि का उपाय बताया अब तू धर्म वृद्धि का उपाय भी जान ले, कैसा भी समय हो जगह हो कभी क्रोध मत करना इससे तेरा धर्म बढ़ेगा और तू सदा सुखी रहेगा। पर इस शिक्षा का मल्लाह पर कोई असर नहीं हुआ उसने कहा क्या यही तेरा किराया है? इससे काम नहीं चलनेवाला पैसे निकालो। पंडितजी ने कहा भाई मेरे पास तो शिक्षा ही है और कुछ तो है नहीं। मल्लाह चिल्लाया कि अरे भिखारी तेरे पास पैसे नहीं थे तो तू मेरी नाव में क्यूं चढ़ा, इतना कह उसने पंडितजी को नीचे गिरा पीटना शुरु कर दिया। इसी बीच नाविक की पत्नि आ गयी और उसने किसी तरह पंडितजी को छुड़ाया।
पंडितजी जाते-जाते सोच रहे थे कि इसी शिक्षा को सुनकर राजा मुझे गांव देने को तैयार था और उसी शिक्षा को सुन यह जाहिल मेरी जान के पीछे पड़ गया था।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

तालियाँ, पैसे कमाने का एक जरिया.

इस जगत में स्तुति गान की परंपरा रही है, चाहे देवलोक हो या पृथ्वी लोक। देवी-देवताओं, गुरुओं, राजा महाराजाओं, ज्ञानी गुणी जनों आदि की पूजा अर्चना, बड़ाई, स्वागत इत्यादि में तरह-तरह के कसीदे काढे जाते रहे हैं। ये सब कभी श्रद्धा कभी खुशी कभी भय या कभी मजबूरी में भी होता रहा है। आज तो अपनी जयजयकार करवाना, तालियां बजवाना अपने आप को महत्वपूर्ण होने, दिखाने का पैमाना बन गया है। इस काम को अंजाम देने वाले भी सब जगह उपलब्ध हैं। तभी तो लच्छू सबेरे तोताराम जी का गुणगान करता मिलता है तो दोपहर को गैंडामल जी की सभा में उनकी बड़ाई करते नहीं थकता और शाम को बैलचंद की प्रशंसा में दोहरा होता चला जाता है।

यह सब अभी शुरु नहीं हुआ है, यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। हमारे यहां अधिकांश शासकों के यहां चारण और भाट ये काम करते आये हैं। जिनमें से बहुतों ने मुश्किल समय में अपने फर्जानुसार देश की सेवा भी की है। पर यहां सिर्फ अपने आप को महत्वपूर्ण दिखाने के लिये की जानेवाली व्यवस्था की बात कर रहा हूं।
रोम के सम्राट नीरो ने अपनी सभा में काफी संख्या में ताली बजाने वालों को रोजी पर रखा हुआ था। जो सम्राट के मुखारविंद से निकली हर बात पर करतलध्वनी कर सभा को गुंजायमान कर देते थे।

ब्रिटेन में किराये के लोग बैले नर्तकों के प्रदर्शन पर तालियों की शुरुआत कर दर्शकों को एक तरह से मजबूर कर देते थे प्रशंसा के लिये। पर इस तरह के लोगों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। ब्रिटेन में ही एक थियेटर में ऐसी हरकत करने वाले के खिलाफ एक दर्शक ने 'दि टाईम्स' पत्र में शिकायत भी कर दी थी। पर उसका असर उल्टा ही हो गया, लोगों का ध्यान इस कमाई वाले धंधे की ओर गया और बहुत सारे लोगों ने यह काम शुरु कर दिया। जिसके लिये बाकायदा ईश्तिहारों और पत्र लेखन द्वारा इसका प्रचार शुरु हो गया।

इटली में भी यह धंधा खूब चल निकला। धीरे-धीरे इसकी दरें भी निश्चित होती चली गयीं। जिनमें अलग-अलग बातों और माहौल के लिये अलग-अलग किमतों का प्रावधान था। बीच-बीच में इसका विरोध भी होता रहा पर यह व्यवसाय दिन दूनी रात अठगुनी रफ्तार से बढता चला गया।

इन सब को छोड़ें, कभी ध्यान से अपने टी वी पर किसी ऐसे कार्यक्रम को देखें जिसमें लोग बहुत खुश, हंसते या तालियां बजाते नजर आते हों। कैमरे के बहुत छिपाने पर भी आप देख पायेंगे, कि यह पागलपन का दौरा सिर्फ सामने की एक दो कतारों पर ही पड़ता है, पीछे बैठे लोग निर्विकार बने रहते हैं। क्योंकि सिर्फ सामने वालों का ही जिम्मा है आप पर डोरे डालने का।

जाते-जाते :- पश्चिम जर्मनी के दूरदर्शन वालों ने एन शैला नामक एक महिला को दर्शकों के बीच बैठ कर हंसने के लिये अनुबंधित किया था। कहते हैं उसकी हंसी इतनी संक्रामक थी कि सारे श्रोता और दर्शक हंसने के लिये मजबूर हो जाते थे।
तो क्या ख्याल है--------------

रविवार, 21 दिसंबर 2008

आस्था अपनी अपनी, श्वान पुत्र की माँ का डर

गांव के बाहर एक घना वट वृक्ष था। जिसकी जड़ों में एक दो फुटिया पत्थर खड़ा था। उसी पत्थर और पेड़ की जड़ के बीच एक श्वान परिवार मजे से रहता आ रहा था।
एक दिन महिलाओं का सामान बेचने वाले एक व्यापारी ने थकान के कारण दोपहर को उस पेड़ के नीचे शरण ली और अपनी गठरी उसी पत्थर के सहारे टिका दी। सुस्ताने के बाद उसने अपना सामान उठाया और अपनी राह चला गया। उसकी गठरी शायद ढीली थी सो उसमें से थोड़ा सिंदुर उस पत्थर पर गिर गया। सबेरे कुछ गांव वालों ने रंगा पत्थर देखा तो उस पर कुछ फूल चढा दिये। इस तरह अब रोज उस पत्थर का जलाभिषेक होने लगा, फूल मालायें चढने लगीं, दिया-बत्ती होने लगी। लोग आ-आकर मिन्नतें मांगने लगे। दो चार की कामनायें समयानुसार प्राकृतिक रूप से पूरी हो गयीं तो उन्होंने इसे पत्थर का चमत्कार समझ उस जगह को और प्रसिद्ध कर दिया। अब लोग दूर-दूर से वहां अपनी कामना पूर्ती के लिये आने लग गये। एक दिन एक परिवार अपने बच्चे की बिमारी के ठीक हो जाने के बाद वहां चढावा चढा धूम-धाम से पूजा कर गया।
यह सब कर्म-कांड श्वान परिवार का सबसे छोटा सदस्य भी देखा करता था। दैव योग से एक दिन वह बिमार हो गया। तकलीफ जब ज्यादा बढ गयी तो उसने अपनी मां से कहा, मां तुम भी इन से मेरे ठीक होने की प्रार्थना करो, ये तो सब को ठीक कर देते हैं। मां ने बात अनसुनी कर दी। पर जब श्वान पुत्र बार-बार जिद करने लगा तो मजबूर हो कर मां को कहना पड़ा कि बेटा ये हमारी बात नहीं सुनेंगें। पुत्र चकित हो बोला कि जब ये इंसान के बच्चे को ठीक कर सकते हैं तो मुझे क्यों नहीं।
हार कर मां को कहना पड़ा, बेटा तुम्हारे पिता जी ने इसे इतनी बार धोया है कि अब तो मुझे यहाँ रहते हुए भी डर लगता है।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

विवाहों की भी श्रेणियां होती हैं।

#हिन्दी_ब्लागिंग 
तकरीबन संसार के सभी धर्मों और जातियों में, समाज में मर्यादा बनाये रखने के लिये, सदाचार की बढोतरी तथा व्यभिचार की रोक-थाम के लिये विवाह की प्रथा का चलन रहा है। हमारे वेदों में भी सारे आश्रमों में गृहस्थाश्रम को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। जिसमें प्रवेश विवाह के पश्चात ही मिल पाता है। इसके आठ प्रकार बताये गये हैं।

* ब्रह्म विवाह :- वर और कन्या ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपनी शिक्षा पूरी की हो। वे विद्वान और धार्मिक विचारों को मानने वाले हों। व्यवहार कुशल एवं सुशील हों और उनका विवाह आपसी सहमति से हुआ हो।

* देव विवाह :- यज्ञ और ऋत्विक कर्म करते हुए कन्यादान करना, देव विवाह कहलाता है।

* आर्य विवाह :- वर पक्ष से कुछ धन आदि लेकर कन्या का विवाह करना इस श्रेणी के अंतर्गत आता है। कभी-कभी इसका रूप विकृत हो जाता है, जब कन्या का पिता अपने स्वार्थ के लिये अपनी कन्या को बेच देता है। अनेकों जनजातियों में यह प्रथा प्राचीनकाल से चली आ रही है।

* प्राजापत्य विवाह :- इसमें विवाह बुद्धि व धर्म के अनुसार होता है। वर-वधू एक दूसरे के लिये आयु, रूप, गुण आदि में एक दूसरे के लिये सर्वथा उपयुक्त होते हैं। ऐसे विवाह ज्यादातर सफल होते हैं।

* असुर विवाह :- इस प्रकार के विवाह में आपसी सहमति से, एक दूसरे से लेन-देन होता है। आज के युग में जिसे दहेज कहा जाता है। दहेज की विभीषिका को आज सभी जानते हैं।

* राक्षस विवाह :- बलपूर्वक, लड़-झगड़ कर या हर कर कन्या से विवाह करना राक्षस विवाह कहलाता है। प्राचीन काल में भी इसकी स्वीकृति नहीं थी। आज तो यह कानूनी अपराध की श्रेणी में आता है।

*गंधर्व विवाह :- अनियम, असमय, परिस्थितिवश वर-कन्या का संयोग होना गंधर्व विवाह कहलाता है। प्राचीन काल में इसे कुछ हद तक सामाजिक मान्यता प्राप्त थी। आज भी ऐसे विवाह बहुतायद से होते हैं पर ऐसा करने वाले कुछ ही लोग समाज के सामने इसे स्वीकारने की हिम्मत दर्शा पाते हैं।

* पैशाच विवाह :- नशे में चूर, पागल या सोती हुई कन्या के साथ बलपूर्वक या उसकी अनभिज्ञता से संबंध स्थापित करना पैशाच विवाह कहलाता है। वैसे इसे विवाह नहीं व्यभिचार का नाम दिया जा सकता है।

इन आठों प्रकारों में ब्रह्म विवाह सर्वोत्तम, देव एवं प्राजापत्य मध्यम, आर्य, असुर व गंधर्व निम्न तथा राक्षस और पैशाच विवाहों को भ्रष्ट श्रेणियों में माना जाता है।

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

एक बिमारी, जिसे कोई बिमारी ही नहीं मानता

यह घातक तो नहीं पर तकलीफदेह जरूर है। कुछ लोग तो इसे बिमारी ही नहीं मानते। जी हां जुकाम, जिसके लिये यदि डाक्टर के पास जायें तो यह तीन दिन में ठीक हो जायेगा। पर यदि कुछ ना भी करें तो तो यह 72 घंटे में ठीक हो जाता है। आप कहेंगें कि यह क्या बात हुई, पर यह सच है कि थोड़े से विश्राम और कुछ घरेलू नुस्खे आजमा लें तो बिना दवाई के भी जुकाम से मुक्ति पायी जा सकती है। वैसे यह बात भी है कि जुकाम के लिये अभी तक कोई कारगर या रामबाण दवा इजाद नहीं हो पायी है।
इसके समान्य लक्षण इस तरह के हैं -
गले में हलकी सी खराश।
बेचैनी, अस्वस्थता महसूस होना, तनाव, आलस्य आदि।
नाक का बंद होना, गले में जकड़न या सूखापन।
पाचन का बिगड़ना।
इसका सबसे अच्छा इलाज है, शरीर को विश्राम देना। इससे इसके किटाणू खुद ब खुद शिथिल पड़ जाते हैं। इसके लिये रोजमर्रा के काम में कमी करें, काम करते-करते बीच में आराम करें, चलते समय शरीर को ढीला छोड़ दें। पेय पदार्थ खासकर फलों का रस अतिरिक्त मात्रा में लें। ये शरीर में रोग-प्रतिरोधी तत्वों को बढाने में सहायक होते हैं। शाम को हल्का भोजन लें तथा जल्दी सोने चले जायें। इसे दूर करने के लिये गोलियां या दवायें लाभ कम और हानि अधिक पहुंचाती है। इसके बदले घरेलू इलाज ज्यादा करगर होते हैं।
इसके लिये गर्म पानी में नींबू का रस और एक चम्मच शहद काफी राहत दिलाता है।
गले की खराश, नाक तथा मांसपेशियों के लिये अदरक मिला गर्म दूध लिया जा सकता है।
काड लिवर आयल का दिन में दो-तीन बार सेवन या लहसुन की कली को निगलने से भी आराम मिलता है।
विश्लेषणों से पाया गया है कि ये सारे पेय गले के 'म्यूकोसल' उतकों में रक्त संचार को बढाते हैं तथा गले की क्षारियता को स्वस्थ अम्लिय स्थिति में बदल कर खराश, जकड़न आदि को दूर करते हैं। जुकाम में शरीर में विटामिन ए की कमी हो जाती है, जिसे दूर करने में काड लिवर आयल बहुत लाभदायक होता है। इसमें विटामिन डी भी होता है जो हमें सूर्य किरणों से मिलता है, लेकिन जाड़ों में लोग ठंड से बचने के लिये ज्यादातर घरों में बंद रहते हैं। जिससे विटामिन डी की कमी हो जाती है। इसीलिये जुकाम अधिकतर जाड़ों में ही होता है। जुकाम में विटामिन सी की भी अहम भूमिका होती है। इसलिये जब जुकाम आता दिखे तब इसकी मात्रा बढा देनी चाहिये। यह हमें नीबूं या आंवले में प्रचूर मात्रा में मिल जाता है।
इस तरह उपयुक्त विश्राम और विटामिनों से शरीर की प्रतिरोधी क्षमता बढा कर जुकाम से मुक्ति पायी जा सकती है।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

तनाव मुक्ति के अचूक नुस्खे

कहने और होने में बहुत फर्क होता है। सभी जानते हैं कि तनाव सेहत के लिए ठीक नहीं होता, पर कोई क्या इसे जान-बूझ कर पालता है ? फिर भी कोशिश तो की जा सकती है इसे कम करने के लिये। क्या ख्याल है? कोशिश करने में क्या बुराई है। मेरे एक डाक्टर मित्र ने मुझे तनाव मुक्त होने के पांच गुर बताये हैं। आप भी आजमायें। फायदा ज्यादा नुक्सान कुछ नहीं।
1 :- तनाव में सांस की प्रक्रिया आधी रह जाती है। इसलिये दिमाग में आक्सीजन की कमी को दूर करने के लिये गहरी सांस लें।
2 :- तनाव के क्षणों में चेहरा सामान्य बनाए रखें। क्योंकि स्नायुतंत्रं की जकड़न से शरीर पर बुरा असर पड़ता है। थोड़ा मुस्कुराने की चेष्टा करें। भृकुटि तनने से 72 मांसपेशियों को काम करना पड़ता है। मुस्कुराने में सिर्फ 14 को। ऐसा करने से मष्तिष्क में रक्त संचार बढ़ता है। इसलिये ना चाहते हुए भी मुस्कुरायें। (मुन्ना भाई फिल्म का डीन याद आया?)
3 :- सर्वे में देखा गया है कि तनाव में शरीर खिंच जाता है, भृकुटि तन जाती है, गाल पर रेखायें खिंच जाती हैं। तनाव ग्रस्त इंसान कंधे झुका, सीने-गर्दन को अकड़ा, माथे पर हाथ रख, गुमसुम हो जाता है। इससे रक्त संचरण कम हो जाता है तथा तनाव और बढ़ जाता है। इससे बचने के लिये, करवट बदलिये, बैठने का ढ़ंग बदलिये। खड़े हैं तो बैठ जायें, बैठे हैं तो खड़े हो जायें या लेट जायें। कमर सीधी रखें। पेट को ढ़ीला छोड़ दें, आराम से सांस लें। इतने से ही राहत का एहसास होने लगेगा।
4 :- तनाव में अनजाने में ही जबड़े, गर्दन, कंधे और पेट की मांसपेशियों में खिंचाव आ जाता है जिससे शरीर में जकड़न आ जाती है। हर मनुष्य की यह जकड़न, गठान अलग-अलग होती है। इसे सामान्य रखने की कोशिश करनी चाहिये।
5 :- तनाव के क्षणों में कोई भी काम करने से पहले थोड़ा रुकें। क्या हो रहा है, इस पर थोड़ा सोचें। जल्दि या हड़बड़ी में निर्णय लेने से तनाव बढ़ सकता है। सबसे बड़ी बात, सकारात्मक सोच ही तनाव से मुक्ति दिलाने के लिये काफी है।
यह तो रही डाक्टर की सलाह। लगे हाथ मेरी भी सुन लें। आजमाया हुआ नुस्खा है। बचकाना पन भूल कर कार्टून देखें, समय हो तो कोई हास्य फिल्म, पूरी ना सही उसका कुछ ही हिस्सा देख लें। नहीं तो यह चुटकुला तो है ही। पंजाबी में लयबद्ध रूप में है, हिंदी में पढ़वाता हूं, पूराना है पर असरकारक है _____
बंता के घर रात को अनचाहा मेहमान आ गया। पति-पत्नि ने उसे भगाने की एक तरकीब निकाली। मेहमान को बाहर बैठा दोनों अंदर कमरे में जा जोर-जोर से लड़ने लगे। फिर पत्नि के पिटने और उसके जोर-जोर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। इसे सुन मेहमान उठ कर घर के बाहर चला गया। बंता ने झांक कर देखा तो मेहमान नदारद था। उसने पत्नि से कहा, देखा मेरा कारनामा, मैने खटिये को इतना पीटा, तुम्हें छुआ भी नहीं। पत्नि भी कहां कम थी बोली, मैं भी गला फाड़ कर चिल्लाई, रोई मैं भी नहीं। इतने में मेहमान ने कमरे में आते हुए कहा, मैं भी ऐसे ही बाहर बैठा था, गया मैं भी नहीं।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

एक गांव, जहां रहने पर अंधा होना पड़ता है।

एक ऐसा गांव जहां का हर निवासी दृष्टिहीन है। काफी पहले इस गांव के बारे में पढा था। पर विश्वास नही होता कि आज के युग में भी क्या ऐसा संभव है। इसीलिये सब से निवेदन है कि इस बारे में यदि और जानकारी हो तो बतायें।
इस गांव का नाम है 'टुलप्टिक। जो मेक्सिको के समुद्री इलाके में आबाद है। यहां हज़ार के आस-पास की आबादी है। यहां पैदा होने वाला बच्चा कुदरती तौर पर स्वस्थ होता है पर कुछ ही महीनों में उसे दिखना बंद हो जाता है। ऐसा सिर्फ मनुष्यों के साथ ही नहीं है यहां का हर जीव-जन्तु अंधा है। पर यह अंधत्व भी उनके जीवन की रवानी में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सका है।
गांव में एक ही सड़क के किनारे सब की खिड़की-दरवाजों रहित झोंपड़ियां खड़ी हैं। सुबह जंगल के पशु-पक्षियों की आवाजें उन्हें जगाती हैं। पुरुष खेतों में काम करते हैं और महिलायें घर-बार संभालना शुरु करती हैं। बच्चे भी इकठ्ठे हो कर खेलते हैं। शाम को दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद पुरुष एकसाथ मिल बैठ कर अपनी समस्यायें सुलझाते हैं। यानी आम गांवों की तरह चौपाल जमती है। इनका भोजन सिर्फ सेम, फल और मक्का है। इनके उपकरण भी पत्थर और लकडी के बने हुए हैं तथा इनका बिस्तर भी पत्थर का ही होता है।
1927 में मेक्सिको के विख्यात समाजशास्त्री डाक्टर ग्यारडो ने इस रहस्य का पर्दा उठाने के लिए वहां रहने का निश्चय किया। परन्तु 15-20 दिनों के बाद ही उन्हें अपनी आंखों में तकलीफ का आभास होने लगा और वे वहां से चले आये।
काफी खोज-बीन के बाद विज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस भयानक रोग का कारण "इनकरस्पास" नाम का एक किटाणु है और इसको फैलाने का काम वहां पायी जाने वाली एक खास तरह की मधुमक्खियां करती हैं।
अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्या लगाव या जुड़ाव है उन लोगों का उस जगह से जो इतना कष्ट सहने के बावजूद वे वहीं रह रहे हैं। सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि कैसे वे अपना निर्वाह करते होंगे। या तो यह बिमारी धीरे-धीरे पनपी होगी, नहीं तो काम-काज कैसे सीख पाये होंगे। घर, सड़क, खेत आदि कैसे बने होंगे। सैंकड़ों प्रश्न मुंह बाये खड़े हैं। फिर अंधेपन के हजार दुश्मन होते हैं उनसे कैसे अपनी रक्षा कर पाते होंगे। वहां की सरकार भी क्यों नहीं कोई कदम उठाती उन्हें इस त्रासदी से छुटकारा दिलाने के लिए।
यह जानकारी पूरानी है। इसीलिये मेरी फिर एक बार गुजारिश है कि इस बारे में कोई नवीनतम जानकारी हो तो अवश्य बतायें।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

जिन्हें पशुओं ने पाला

कोई पचास साल पहले की घटना होगी। लखनऊ स्टेशन की बात है। एक आठ-दस साल का लड़का अपने चारों हाथ-पैरों पर चलता हुआ, ड़रा-ड़रा, सहमा सा, कहीं से आकर एक रेल के डिब्बे में दुबक कर बैठ गया। उससे बात करने पर वह भेड़ियों की तरह की आवाज निकालता था। उसके शरीर के बाल तथा हाथ के पंजे भी जानवारों की तरह के थे। उसका सारा बदन भी खरोंचों से भरा हुआ था जैसे कि जंगल में झाड़ियों वगैरह में दौड़ता भागता रहा हो। उसके विषय में काफी खोज-बीन के बाद यह अंदाज लगाया गया कि वह बचपन से ही भेड़ियों के बीच रहता आया होगा। बाद में उसको धीरे-धीरे मनुष्यों की तरह का व्यवहार सिखाया गया और वह उसके बाद करीब 14-15 साल तक जीवित रहा। उसका नाम रामू रखा गया था। 

सन 1971 में रोम में एक पांच साल का बच्चा पाया गया था, जो चारों हाथ-पैरों से भड़ियों की तरह चलता था और वैसा ही व्यवहार करता था। विशेषज्ञों ने इसे उसका जानवरों के बीच हुए लालन-पालन को कारण माना।

इसी तरह का एक दस-बारह साल का बालक श्रीलंका के जंगलों में पाया गया था। वह भी चारों हाथ-पैरों की सहायता से चलता था और कुत्ते की तरह भोंकता था।

दूसरे विश्व युद्ध के पहले ग्रीस में माउंट ओलिम्पस पर एक 8-9 वर्ष की बालिका एक मरे हुए भालू के पास मिली। खोज करने पर पता चला कि वह पास के गांव से गायब हो गयी थी। उसका भरण-पोषण वह भालू ही करता रहा था।

एक घटना रूस के अजरबैज़ान इलाके के इरांगेल गांव की है। वहां की एक तीन-चार साल की बच्ची आंधी तूफान से भरी बर्फानी रात में अपने मां-बाप से बिछुड़ गयी थी। उस भूली भटकी बच्ची को एक भेड़िये ने शरण दी। उसने रात भर उस बच्ची को अपनी गोद में रख ठंड से उसकी रक्षा की। अगले दिन जब गांव वालों ने उसे ढ़ूंढ़ निकाला तो उसने बताया कि रात भर एक भेड़िया उसे चाटता रहा था। इसीसे बच्ची के शरीर में गर्मी बनी रह पायी थी।

इसी तरह एक बच्चे को बंदर उठा कर ले गये थे। कुछ वर्षों पश्चात जब वह मिला तो उसकी हरकतें भी बंदरों जैसी हो गयी थीं।

अभी भी कई बार अखबारों या टी.वी. वगैरह में पढ़ने-देखने में आ जाता है, कि विभिन्न नस्ल या जाति के जानवर ने दूसरे जानवर के बच्चे को अपना दूध वगैरह पिला कर बचाया। जो कि जानवरों में भी बिना भेद-भाव के ममत्व के होने का जीता जागता प्रमाण है।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

सुबह जिससे हुई लड़ाई, शाम को उसीने जान बचाई

शायद चौथी या पांचवीं क्लास में था मैं। बात तब की है, जब आज की तरह शिक्षा व्यवसाय का रूप नहीं ले पायी थी जिसकी वजह से गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल नहीं खुले हुए थे। इसलिये शिक्षण केन्द्र ज्यादातर घरों से दूर ही होते थे।

पिताजी उन दिनों कलकत्ता के पास कोन्नगर नामक स्थान में लक्ष्मीनारायण जूटमिल में कार्यरत थे। वहां काम करने वाले लोगों में हर प्रांत के लोग थे। पंजाबी, गुजराती, मारवाड़ी, बिहारी, मद्रासी (उन दिनों हर दक्षिणवाले को मद्रासी ही समझा जाता था), हिमाचली, नेपाली और बंगाली तो होने ही थे। पर वहां रहते, काम करते सब अपनी जाति भूल एक परिवार की तरह ही थे, एक-दूसरे की खुशी गम में शरीक होते हुए।

हमारे हिंदी भाषी स्कूल का नाम था रिसड़ा विद्यापीठ, जो रिसड़ा नामक जगह में हमारे घर से करीब पांच एक मील दूर था। हम सात-आठ बच्चे रिक्शों में वहां जाते-आते थे। उस समय के रिक्शे वालों की आत्मियता का जिक्र मैं अपनी एक पोस्ट शिबू रिक्शे वाला में कर चुका हूं। रिक्शे वाले समय के पाबंद हुआ करते थे।

जिस दिन का जिक्र कर रहा हूं , उस दिन स्कूल जाते हुए अपने एक सहपाठी हरजीत के साथ मेरी किसी बात पर अनबन हो गयी थी। कारण तो अब याद नहीं पर हम दोनों दिन भर एक दूसरे से मुंह फुलाये रहे थे। उस दिन किसी कारणवश स्कूल में जल्दी छुटटी हो गयी थी। आस-पास के तथा बड़े लड़के-लड़कियां तो चले गये। पर हमारे रिक्शेवालों ने तो अपने समय पर ही आना था, सो हम वहीं धमा-चौकड़ी मचाते रहे। स्कूल से लगा हुआ एक बागीचा और तलाब भी था। खेलते-खेलते ही सब कागज की नावें बना पानी में छोड़ने लग गये। तालाब का पानी तो ठहरा हुआ होता है सो नावें भी भरसक प्रयास के बावजूद किनारे पर ही मंडरा रही थीं। हम जहां खेल रहे थे वहां से कुछ हट कर एक पेड़ पानी में गिरा पड़ा था। उसका आधा तना पानी में और आधा जमीन पर था। अपनी नाव को औरों से आगे रखने की चाह में मैं उस तने पर चल, पानी के ऊपर पहुंच गया। वहां जा अभी अपनी कागजी नाव को पानी में छोड़ भी नहीं पाया था कि तने पर पानी के संयोग से उगी काई के कारण मेरा पैर फिसला और मैं पानी में जा पड़ा । पानी मेरे कद के हिसाब से ज्यादा था। पैर तले में नहीं लग पा रहे थे। मेरे लाख हाथ पांव मारने के बावजूद काई के कारण तना पकड़ में नहीं आ रहा था। उधर सारे जने अपने-अपने में मस्त थे पर पता नहीं कैसे हरजीत का ध्यान मेरी तरफ हुआ, वह तुरंत दौड़ा और तने पर आ अपने दोनों पैरों से तने को जकड़ अपना हाथ मेरी ओर बढा मुझे किनारे तक खींच लिया। मैं सिर से पांव तक तरबतर ड़र और ठंड से कांप रहा था। पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया था। सारे बच्चे और स्कूल का स्टाफ मुझे घेरे खड़े थे। कोई रुमाल से मेरा सर सुखा रहा था, कोई मेरे कपड़े, जूते, मौजे सुखाने की जुगत में था। और हम सब इस घटना से उतने विचलित नहीं थे जितना घर जा कर ड़ांट का ड़र था। पर एक बात आज भी याद है कि मैं और हरजीत ने तब तक आपस में बात नहीं करी थी सिर्फ छिपी नज़रों से एक दूसरे को देख लेते थे। पता नहीं क्या भाव थे दोनों की आंखों में।

कुछ ही देर में रिक्शेवाले भी आ गये। हम सब घर पहुंचे, पर हमसे भी पहले पहुंच चुकी थी मेरी ड़ुबकी की खबर। और यह अच्छा ही रहा माहौल में गुस्सा नहीं चिंता थी, जिसने हमें ड़ांट फटकार से बचा लिया था। एक बात और अच्छी हुई कि इस घटना के बाद मेरी किसी से भी लड़ाई नहीं हुई, कभी भी।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

छाया ग्रह केतु, ग्रहों की कहानी------ ९

समुद्रमंथन के समय छल से अमृतपान करने के कारण भगवान विष्णु के चक्र से कटने पर सिर राहु तथा धड़ केतु कहलाया। केतु राहु का ही कबन्ध है। राहु के साथ ही केतु भी ग्रह बन गया। पुराणों के अनुसार केतु बहुत से हैं। जिनमें धूमकेतु प्रधान है। यह छाया ग्रह है। व्यक्ति के जीवन के साथ-साथ यह समस्त सृष्टि को भी प्रभावित करता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह राहु की अपेक्षा सौम्य होता है और विशेष परिस्थितियों में यह व्यक्ति को यश के शिखर पर पहुंचा देता है। इसका मंडल ध्वजाकार माना जाता है। इसका वर्ण धूएं के समान है तथा मुख विकृत है। इसके दो हाथ हैं। एक हाथ में गदा तथा दूसरा वरमुद्रा धारण किये रहता है। इसका वाहन गीध है। कहीं-कहीं ये कपोत पर आसीन भी दिखाया जाता है। केतु की महादशा सात साल की होती है। किसी व्यक्ति की कुंडली में अशुभ स्थान पर रहने पर यह अनिष्टकारी हो जाता है। ऐसे केतु का प्रभाव व्यक्ति को रोगी बना देता है। केतु का सामान्य मंत्र :- “ऊँ कें केतवे नम:” है। इसका नित्य एक निश्चित संख्या में श्रद्धापूर्वक जाप करना चाहिये। जाप का समय रात्रि-काल है।
* केतु के साथ ही नवग्रहों की सक्षिंप्त जानकारी पूर्ण होती है। नवग्रहों का पुराणों में कैसा चित्रण है, उसकी यह एक हल्की सी झलक थी। कोई विद्वतापूर्ण लेख नहीं था। किसी भी तरह के पूजा-पाठ, हवन, जप वगैरह को विद्वानों के मार्ग-दर्शन में ही आरंभ और पूरा करना चाहिये।

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

दानव से ग्रह बना 'राहु'. ग्रहों की कहानी :- ८

समुद्र मंथन के बाद जब भगवान विष्णु मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु देवताओं का भेष बना कर उनके बीच आ बैठा। पर उसको सूर्य और चन्द्रमा ने पहचान लिया और उसकी पोल खोल दी। तत्क्षण विष्णु भगवान ने सुदर्शन चक्र द्वारा उसकी गरदन काट डाली। पर तब तक उसने अमृत का घूंट भर लिया था, जिसके संसर्ग से वह अमर हो गया। शरीर के दो टुकड़े हो जाने पर सिर राहु कहलाया और धड़ केतु के नाम से जाना जाने लगा। ब्रह्माजी ने उन्हें ग्रह बना दिया।राहु का मुख भयंकर है। ये सिर पर मुकुट, गले में माला तथा काले रंग के वस्त्र धारण करता है। इसके हाथों में क्रमश:- तलवार, ढ़ाल, त्रिशुल और वरमुद्रा है। इसका वाहन सिंह है। राहु ग्रह मंडलाकार होता है। ग्रहों के साथ ये भी ब्रह्माजी की सभा में बैठता है। पृथ्वी की छाया भी मंडलाकार होती है। राहु इसी छाया का भ्रमण करता है। ग्रह बनने के बाद भी वैर-भाव से राहु पुर्णिमा को चन्द्रमा और अमावस्या को सूर्य पर आक्रमण करता रहता है। इसे ही ग्रहण कहते हैं। इसका रथ अंधकार रूप है। इसे कवच से सजे काले रंग के आठ घोड़े खींचते हैं। इसकी महादशा 18 वर्ष की होती है। कुछ अपवादों को छोड़ कर यह क्लेशकारी ही सिद्ध होता है। यदि कुण्ड़ली में इसकी स्थिति प्रतिकूल या अशुभ हो तो यह शारीरिक व्याधियों, कार्यसिद्धी में बाधा तथा दुर्घटनाओं का कारण बनता है। इसकी शांति के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना श्रेयस्कर होता है।
इसका सामान्य मंत्र है :- “ ऊँ रां राहवे नम:”
इसका एक निश्चित संख्या में नित्य जप करना चाहिये। जप का समय रात्रिकाल है।
* अगला ग्रह :- केतु

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

आप तो जानते हैं इन नेताओं को

बहुत सारे नेताओं को ले जाती एक लग्जरी बस का एक गांव के पास एक्सीडेंट हो गया। मौका-ए-वारदात पर पुलिस के पहुंचते-पहुंचते ग्रामिणों ने सब को दफना दिया था। तहकिकात करते हुए जब इंस्पेक्टर ने गांव वालों से पूछा - क्यों भाई कोई भी जिंदा नहीं बचा था क्या? तो एक गांव वाला बोला, कुछ लोग बोल तो रहे थे कि हम जिंदा हैं। पर सरकार आप तो जानते ही हो कि ये नेता लोग कितना झूठ बोलते हैं। सो---------------------

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

दैत्यगुरु शुक्राचार्य, ग्रहों की कहानी :- 7

शुक्राचार्य दानवों के गुरु और पुरोहित हैं। ये योग के आचार्य भी हैं। इन्होंने असुरों के कल्याण के लिए ऐसे कठोर व्रत का अनुष्ठान किया था जैसा फिर कोई नहीं कर पाया। इस व्रत से देवाधिदेव शंकर भगवान प्रसन्न हुये और उन्होंने इन्हें वरदान स्वरूप मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की। जिससे देवताओं के साथ युद्ध में मारे गये दानवों को फिर जिला देना संभव हो गया था। प्रभू ने इन्हें धन का अध्यक्ष भी बना दिया, जिससे शुक्राचार् इस लोक और परलोक की सारी सम्पत्तियों के साथ-साथ औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी स्वामी बन गये।
ब्रह्माजी की प्रेरणा से शुक्राचार्य ग्रह बन कर तीनों लोकों के प्राणों की रक्षा करने लग गये। लोकों के लिये ये अनुकूल ग्रह हैं। वर्षा रोकने वाले ग्रहों को ये शांत कर देते हैं। इनका वर्ण श्वेत है तथा ये श्वेत कमल पर विराजमान हैं। इनके चारों हाथों में – दण्ड, रुद्राक्ष की माला, पात्र तथा वरदमुद्रा सुशोभित रहती है। इनका वाहन रथ है जिसमें अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं। रथ पर ध्वजायें फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड है। ये वृष तथा तुला रशि के स्वामी हैं । इनकी महादशा बीस साल की होती है।
इनका सामान्य मंत्र है :- “ ऊँ शुं शुक्राय नम:”। जप का समय सूर्योदय काल है। अनुष्ठान किसी विद्वान के सहयोग से ही करना चाहिये।

रविवार, 30 नवंबर 2008

ग्रहों की कहानी-----------6 :- बृहस्पति

देवगुरु बृहस्पति महर्षि अंगिरा के पुत्र और देवताओं के पुरोहित हैं। इन्होंने प्रभास तीर्थ में भगवान शंकरजी की कठोर तपस्या की थी जिससे प्रसन्न होकर प्रभू ने उन्हें देवगुरु का पद प्राप्त करने का वर दिया था। इनका वर्ण पीला है तथा ये पीले वस्त्र धारण करते हैं। ये कमल के आसन पर विराजमान हैं तथा इनके चार हाथों में क्रमश:- दंड, रुद्राक्ष की माला, पात्र और वरमुद्रा सुशोभित हैं। इनका वाहन रथ है जो सोने का बना हुआ है और सूर्य के समान प्रकाशमान है। उसमें वायुगति वाले पीले रंग के आठ घोड़े जुते हुए हैं। इनका आवास स्वर्ण निर्मित है। ये अपने भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें सम्पत्ति तथा बुद्धि प्रदान कर उन्हें सन्मार्ग पर चलाते हैं और विपत्तियों में उनकी रक्षा करते हैं। शरणागतवत्सलता इनमें कूट-कूट कर भरी है। इनकी तीन पत्नियां हैं। पहली पत्नी शुभा से सात कन्याएं उत्पन्न हुई हैं। दूसरी पत्नी तारा से सात पुत्र तथा एक कन्या है तथा तीसरी पत्नी ममता से दो पुत्र, भरद्वाज और कच हुए हैं। कच ने ही दैत्य गुरु शुक्राचार्य से मृतसंजीवनी विद्या सीख कर देवताओं की मदद की थी। बृहस्पति प्रत्येक राशि में एक-एक साल तक रहते हैं। वक्रगति होने पर अंतर आ जाता है। इनकी महादशा सोलह साल की होती है। ये मीन और धनु राशि के स्वामी हैं।
इनका सामान्य मंत्र है :- “ ऊँ बृं बृहस्पतये नम:”। एक निश्चित समय और संख्या में श्रद्धानुसार इसका जप करना चाहिये। जाप का समय संध्या काल है।
* पिछला ग्रह : बुध, अगला ग्रह : शुक्र

शनिवार, 29 नवंबर 2008

हमें नाज़ है अपने वीर जवानों पर

हमारे वीर जवानों ने फिर एक बार संकट से देश को उबारा। ये देश के सच्चे सपूत, जिस निड़रता, जिंदादिली और जज्बे से काम करते हैं, भूखे, प्यासे, उनींदे, खुद को मौत के मुंह में डाल दूसरों की जिंदगी की रक्षा करते हैं, जो खुद के परिवारों से दूर देशवासियों को चैन की नींद सुलाने की कठिन जिम्मेदारी निभाते हैं उनकी जितनी भी स्तुति की जाये कम है। पर विडंबना देखिये उन्हीं को जब आर्थिक सहूलियत देने की बात होती है तो हाय-तौबा मच जाती है।
सदन में एक दूसरे को फूटी आंखों ना सुहाने वाले नेतागण अपनी आर्थिक बढ़ोतरी पर तो बेशर्मों की तरह एक हो जाते हैं पर जब जवानों की भलाई की बात का मौका आता है तब अड़चने क्यों पेश आने लगती हैं। क्यों सेना के अधिकारियों को अपना विरोध प्रकट करना पड़ता है? क्यूं? क्यूं?

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

कहाँ मुंह छिपाए बैठे हैं

कहां हैं देवताओं के नाम वाली सेनाओं के सेनापति? लोग भी समझ लें कि सिर्फ नाम रख लेने से ही देवत्व नहीं आ जाता। क्यूं नहीं जागती इनकी गैरत? कहां मुंह छिपाये छिपे बैठे हैं निर्दोषों पर कहर बरपाने वाले? अपने ही देश के गरीब, निहत्थे, बेसहारा लोगों पर अपनी मर्दानगी दिखाने वालों को क्यूं सांप सूंघ गया है। बात तो तब होती कि आज सामने आकर ललकारते देश के दुश्मनों को। जतला देते कि हम सचमुच अपने राज्य के लोगों की चिंता करते हैं। पर नहीं उस खेल में और इस हकीकत में जमीन-आसमान का फर्क है। वहां जान लेने पर भी खुद पर आंच ना आने की गारंटी थी। यहां सीधे ऊपर जाने का रास्ता नजर आता है।

बुधवार, 26 नवंबर 2008

ग्रहों की कहानी--------५ :- बुध

बुध के पिता चन्द्रमा और मां तारा हैं। इनकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी इसलिए ब्रह्माजी ने इनका नाम बुध रखा। ये सभी शास्त्रों में पारंगत तथा अपने पिता चन्द्रमा की तरह कांतिमान हैं। इन्हें सब तरह से योग्य पा ब्रह्माजी ने इन्हें भूतल का स्वामी तथा ग्रह बना दिया था। इनका वर्ण कनेर के फूल की तरह पीला है तथा ये पीले रंग के ही वस्त्र धारण करते हैं। इन्होंने अपने चारों हाथों में तलवार, ढाल, गदा तथा वरमुद्रा धारण की हुई है। इनका रथ श्वेत और प्रकाश से दीप्त है, जिसमें वायु के समान गति वाले दस घोड़े जुते हुए हैं। इनका एक वाहन सिंह भी है। इनकी विद्या-बुद्धि से प्रभावित होकर महाराज मनु ने अपनी गुणवती कन्या इला का विवाह इनके साथ कर दिया। इनके संयोग से महाराज पुरूरवा की उत्पत्ति हुई। जिन्होंने चन्दवंश का विस्तार किया। बुध ग्रह के अधिदेवता भगवान विष्णु हैं। बुध, मिथुन और कन्या राशि के स्वामी हैं। इनकी महादशा 17 वर्ष की होती है। इनकी शांति के लिए प्रत्येक अमावस्या को व्रत रखना शुभ होता है। वैसे ये प्राय: मंगल ही करते हैं। इनका सामान्य मंत्र :- “ऊँ बुं बुधाय नम:” है। जिसका जाप एक निश्चत संख्या में रोज करने से शुभ फल प्राप्त होता है। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में विद्वानों का मार्ग दर्शन लेना उपयोगी रहता है।

* पिछला ग्रह : मंगल, अगला ग्रह : बृहस्पति।

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

ग्रहों की कहानी---------------४ :- मंगल

विभिन्न कल्पों में मंगल की उत्पत्ति की विभिन्न कथाएँ हैं। इनमें ज्यादा प्रचलित कथा इस प्रकार है। जब हिरण्यकशिपु का बड़ा भाई हिरण्याक्ष पृथ्वी को चुरा कर ले गया था तब भगवान ने वाराहावतार लिया और हिरण्याक्ष को मार कर पृथ्वी का उद्धार किया था। इस पर पृथ्वी ने प्रभू को पति रूप में पाने की इच्छा की। प्रभू ने उनकी मनोकामना पूरी की। इनके विवाह के फलस्वरूप मंगल की उत्पत्ति हुई। इनकी चार भुजाएँ हैं तथा शरीर के रोयें लाल रंग के हैं। इनके वस्त्रों का रंग भी लाल है। यह भेड़ के वाहन पर सवार हैं और इनके हाथों ने त्रिशूल, गदा, अभयमुद्रा तथा वरमुद्रा धारण की हुई है। पुराणों में इनकी बड़ी महिमा बताई गयी है। ये प्रसन्न हो जायें तो मनुष्य की हर इच्छा पूरी हो जाती है। इनके नाम का पाठ करने से ऋण से मुक्ति मिल जाती है। यदि इनकी गति वक्री ना हो तो यह हर राशि में एक-एक पक्ष बिताते हुए बारह राशियों को ड़ेढ़ वर्ष में पार करते हैं। इनको अशुभ ग्रह माना जाता है। इनकी महा दशा सात वर्षों तक रहती है। इनकी शान्ति के लिए शिव उपासना, मगलवार को व्रत और हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिए। ये मेष तथा वृश्चिक राशि के स्वामी हैं। इनका सामान्य मंत्र :- “ऊँ अं अंगारकाय नम:” है। इसके जाप का समय प्रात: काल का है। इसका एक निश्चित संख्या में, निश्चित समय में पाठ करना चाहिये। इस विषय में किसी विद्वान का सहयोग और परामर्श ले लेना चाहिये।
* अगला ग्रह :- बुध

सोमवार, 24 नवंबर 2008

ग्रहों की कहानी------------- ३ :- चंद्रदेव

श्रीमद्भागवत के अनुसार चन्द्रदेव महर्षि अत्रि और अनुसूया के पुत्र हैं। इनका वर्ण गौर है। इनके वस्त्र, अश्व और रथ श्वेत रंग के हैं। शंख के समान उज्जवल दस घोड़ों वाले अपने रथ पर ये कमल के आसन पर विराजमान हैं। इनके एक हाथ में गदा और दूसरा हाथ वरमुद्रा में है। इन्हें सर्वमय कहा गया है। ये सोलह कलाओं से युक्त हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इनके वंश में अवतार लिया था, इसीलिये वे भी सोलह कलाओं से युक्त थे।
ब्रह्माजी ने इन्हें बीज, औषधि, जल तथा ब्राह्मणों का राजा मनोनीत किया है। इनका विवाह दक्ष की सत्ताईस कन्याओं से हुआ है, जो सत्ताईस नक्षत्रों के रूप में जानी जाती हैं। इस तरह नक्षत्रों के साथ चन्द्रदेव परिक्रमा करते हुए सभी प्राणियों के पोषण के साथ-साथ पर्व, संधियों व मासों का विभाजन करते हैं। इनके पुत्र का नाम बुध है जो तारा से उत्पन्न हुआ है। इनकी महादशा दस वर्ष की होती है तथा ये कर्क राशि के स्वामी हैं। इन्हें नवग्रहों में दूसरा स्थान प्राप्त है। इनकी प्रतिकूलता से मनुष्य को मानसिक कष्टों का सामना करना पड़ता है। कहते हैं कि पूर्णिमा को तांबे के पात्र में मधुमिश्रित पकवान अर्पित करने पर ये तृप्त होते हैं। जिसके फलस्वरूप मानव सभी कष्टों से मुक्ति पा जाता है।
इनका सामान्य मंत्र :- "ऊँ सों सोमाय नम:" है। इसका एक निश्चित संख्या में संध्या समय जाप करना चाहिये।
* अगला ग्रह :- मंगल।

रविवार, 23 नवंबर 2008

ग्रहों की कहानी------------------- २ :- सूर्यदेव

जब ब्रह्माजी अण्ड का भेदन कर उत्पन्न हुए, तब उनके मुंह से ‘ऊँ’ महाशब्द उच्चरित हुआ। यह ओंकार परब्रह्म है और यही भगवान सूर्यदेव का शरीर है। ब्रह्माजी के चारों मुखों से चार वेद आविर्भूत हुए और ओंकार के तेज से मिल कर जो स्वरूप उत्पन्न हुआ वही सूर्यदेव हैं। यह सूर्यस्वरूप सृष्टि में सबसे पहले प्रकट हुआ इसलिए इसका नाम आदित्य पड़ा। सूर्यदेव का एक नाम सविता भी है। जिसका अर्थ होता है सृष्टि करने वाला। इन्हीं से जगत उत्पन्न हुआ है। यही सनातन परमात्मा हैं। नवग्रहों में सूर्य सर्वप्रमुख देवता हैं। इनकी दो भुजाएं हैं। वे कमल के आसन पर विराजमान हैं; उनके दोनों हाथों में कमल सुशोभित हैं। इनका वर्ण लाल है। सात घोड़ों वाले इनके रथ में एक ही चक्र है, जो ंवत्सर कहलाता है। इस रथ में बारह अरे हैं जो बारह महीनों के प्रतीक हैं, ऋतुरूप छ: नेमियां और चौमासे को इंगित करती तीन नाभियां हैं। चक्र, शक्ति, पाश और अंकुश इनके मुख्य अस्त्र हैं।
एक बार दैत्यों ने देवताओं को पराजित कर उनके सारे अधिकार छीन लिए। तब देवमाता अदिति ने इस विपत्ति से मुक्ति पने के लिये भगवान सूर्य की उपासना की, जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने अदिति के गर्भ से अवतार लिया और दैत्यों को पराजित कर सनातन वेदमार्ग की स्थापना की। इसलिये भी इन्हें आदित्य कहा जाता है।
भगवान सूर्य सिंह राशि के स्वामी हैं। इनकी महादशा छ: वर्ष की होती है। इनकी प्रसन्नता के लिए इन्हें नित्य सूर्यार्ध्य देना चाहिये। इनका सामान्य मंत्र है –“ ऊँ घृणि सूर्याय नम:” इसका एक निश्चित संख्या में रोज जप करना चाहिये।
अगला नवग्रह 'चन्द्रदेव'

शनिवार, 22 नवंबर 2008

ग्रहों की कहानी पुराणों की जुबानी : 1, शनी

शनि, भगवान सूर्य तथा छाया के पुत्र हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रूरता है, वह इनकी पत्नी के शाप के कारण है। ब्रह्मपुराण के अनुसार, बचपन से ही शनिदेव भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे। बड़े होने पर इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से किया गया। इनकी पत्नि सती-साध्वी और परम तेजस्विनी थीं। एक बार पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से वे इनके पास पहुचीं पर ये श्रीकृष्ण के ध्यान में मग्न थे। इन्हें बाह्य जगत की कोई सुधि ही नहीं थी। पत्नि प्रतिक्षा कर थक गयीं तब क्रोधित हो उसने इन्हें शाप दे दिया कि आज से तुम जिसे देखोगे वह नष्ट हो जाएगा। ध्यान टूटने पर जब शनिदेव ने उसे मनाया और समझाया तो पत्नि को अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ, किन्तु शाप के प्रतिकार की शक्ति उसमें ना थी। तभी से शनिदेव अपना सिर नीचा करके रहने लगे। क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि उनके द्वारा किसीका अनिष्ट हो।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार यह यदि रोहिणी-शकट भेदन कर दें तो पृथ्वी पर बाराह वर्ष का अकाल पड़ जाय और प्राणियों का बचना मुश्किल हो जाय। कहते हैं यह योग राजा दशरथ के समय में आने वाला था। जब ज्योतिषियों ने राजा को इस बारे में बताया तो प्रजा को बचाने के लिए दशरथ नक्षत्रमण्डल में पहुंच गये। वहां जाकर पहले उन्होंने शनिदेव को प्रणाम किया फिर पृथ्वी वासियों की भलाई के लिए क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध का आह्वान किया। शनिदेव उनकी कर्तव्यनिष्ठा से परम प्रसन्न हुए और वर मांगने को कहा। राजा दशरथ ने वर मांगा कि जब तक सूर्य, नक्षत्र आदि विद्यमान हैं, तबतक आप शटक-भेदन ना करें। शनिदेव ने उन्हें यह वर देकर संतुष्ट कर दिया।
शनि के अधिदेवता प्रजापति ब्रह्मा और प्रत्यधिदेवता यम हैं। इनका वर्ण इन्द्रनीलमणी के समान है। वाहन गीध तथा रथ लोहे का बना हुआ है। ये अपने हाथों में धनुष, बाण, त्रिशूल तथा वरमुद्रा धारण करते हैं। यह एक-एक राशि में तीस-तीस महीने रहते हैं। यह मकर व कुम्भ राशि के स्वामी हैं तथा इनकी महादशा 19 वर्ष की होती है। इनका सामान्य मंत्र है - "ऊँ शं शनैश्चराय नम:" इसका श्रद्धानुसार रोज एक निश्चित संख्या में जाप करना चाहिए।

गुरुवार, 20 नवंबर 2008

पेशोपेश में हूं, पप्पू बनूं या लल्लू

कल मतदान है और अभी तक तय नहीं कर पाया हूं कि पप्पू बनूं या लल्लू। जिस तरह हनुमानजी को उनकी शक्ति की याद दिलाई जाती थी, उसी तरह मुझ पर चहुं ओर से मत दो, मत दो के फर्ज बाण, विभिन्न माध्यमों से, छोड़े जा रहे हैं। कभी-कभी तो यही समझ में नहीं आता कि कहा क्या जा रहा है, मत दो या मत,दो। अजीब धर्म संकट है, मत दूं तो सदा की तरह लल्लू बनता हूं और मत,दूं तो पप्पू कहलाता हूं।

मेरे इलाके से पांच लोग 'उम्मीद' से हैं। एक थप्पड़, माफ कीजिएगा फिलहाल हाथ दिखा रहा है। जिसमे भाग्य रेखा ही नहीं है, लगता है कह रहा है, आईये ना हमारा भाग्य आप के ही हाथों में है। दूसरा अधखिला फूल लिए घूम रहा है, मानो कह रहा हो कि आप साथ देगें तो मेरी किस्मत का फूल भी खिल जाएगा। तीसरा हाथी पर सवार है। अब सीमित दृष्टि वाले इस विशालकाय जीव का क्या ठिकाना, पोरस की सेना ना बचा सकी अपने आप को तो मैं किस खेत का क्या हूं। एक का चिन्ह ऊंट है। जो कभी भी अपने मतलब के लिए कैसी भी करवट ले सकता है। और अंतिम, तिजोरी की पहचान वाला तो सबसे महान है जो गुहारे जा रहा है, कि कोई कुछ तो दे दो कि मैं बैठूं।

यह थी चिन्हों की बात। अब उनको धारण करने वालों पर नजर डालता हूं तो पाता हूं कि सारे के सारे अपनी आत्माओं की आवाज पर "जैसी बहे ब्यार पीठ पुनि तैसी किजे" की धुन पर नाचने वाले रहे हैं। सर्वशक्तिमान 'क' सारे प्रदेश को अपनी बपौती तथा जनता को अपना गुलाम समझते रहे हैं। जो जमीन, मकान, जगह पसंद आ गयी वह उनकी। जिधर भी बीस-पच्चिस सेकेंड टकटकी बांध देख लेते हैं वहां के मालिक को अपना भविष्य नजर आने लग जाता है। दल कपड़ों की तरह बदलते हैं। श्रीमान 'ख' अनगिनत पूजा समितियों तथा सर्वहारा संघ के अध्यक्ष हैं। उनके गुर्गे-चमचे यत्र-तत्र-सर्वत्र फैले रह कर लोगों को नेताजी के नाम को भूलने नहीं देते। उनके खौफ से धन की बरसात चेरापूंजी की याद दिलाती रहती है। पैसे गिने नहीं तौले जाते हैं। अब वह अपने कुलदीपक को इस लाईन का ककहरा सिखा रहे हैं। इनकी आत्मा बदलाव की हिमायती है। श्रीमान 'स' की मेधा सर्पेंनटाईन-लेन की तरह है। फूट डालने के इनके तरीकों को देख अंग्रेज भी चुल्लू भर पानी खोजने लग जायें। इंसान की हर कमजोरी इनकी ताकत है। यह अलग बात है कि समय, माहौल तथा परिस्थिति के अनुसार यह मोल्ड होते रहते हैं। और श्रीमान 'ह' के बारे में तो इतना ही कह सकता हूं कि "कल तक जिन्हें हिज्जे ना आते थे हमारे सामने, आज वो हमें पढ़ाने चले हैं, खुदा की शान है।"

इनके बीच फंसा मैं सोच रहा हूं कि क्या किया जाए। वोट रूपी लालीपाप को ले जाते वक्त उन सब की आंखों में कुटिल भावनायुक्त नकली सम्मान और लौटते वक्त उन्हीं आंखों और चेहरे पर फिर अपने लल्लू बनने के प्रमाण रूपी हंसी देखूं। या फिर, किस-किस को देखें, किस-किस को रोएं, चाय सुड़कते हुए, वन डे में अंग्रेजों को फिर धोएं। भले ही पप्पू बन कर।
अभी समय है। रुकता हूं फिर सोचता हूं। आप भी इस संकट काल में मुझे राह दिखा सकते हैं।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

एक रपट पड़ोसी देश से

दैनिक भास्कर अखबार में हर रविवार को जाहिदा हिना जी पकिस्तान से अपनी रपट लिखती हैं। उन्हीं के एक लेख के कुछ अंश दे रहा हूं। शायद जिससे बिना कुछ जाने इधर बैठे, उधर को स्वर्ग बता कर, अल्पसंख्यकों की भावनाओं से खेल, अपनी रोटी सेकने वालों को कुछ तो संकोच का एहसास हो।

जाहिदा जी के अनुसार पाकिस्तानी सरकार ने गरीब और बेसहारा महिलाओं को कुछ राहत देने के लिए उन्हें एक हजार रुपये देने का प्रावधान रखा है। उसके लिए एक पहचान पत्र की जरूरत होती है। इस पहचान पत्र की इतनी अहमियत है कि इसके बिना कोई वोट नहीं दे सकता है नही बैंक में एकाउंट ही खुल सकता है यहां तक कि रेल के टिकट के लिए भी इसकी जरूरत पड़ती है। फिर भी गांव देहात में औरतों के कार्ड़ नहीं बनाए जाते। पर हजार रुपये की घोषणा होने पर अब घर के मर्द ही महिलाओं को लेजा कर कार्ड बनवा रहे हैं। पर यहां भी औरतों की बदनसीबी आड़े आ रही है। सूबा-सरहद के एक छोटे से शहर लिंड़ी कौतल से खबर आयी है कि चरम पंथियों ने वार्निंग जारी की है कि औरतें सरकारी दफ्तर ना जाएं, क्योंकि यह गैर इस्लामी काम है और बेहयाई भी। घर के मर्दों को भी फरमान जारी हुआ है कि अपनी औरतों को घरों में रखें नहीं तो उनके खानदानों को इसकी सजा दी जाएगी। अब एक तरफ पेट की आग है तो दूसरी तरफ मौत का खौफ।

अभी कुछ दिनों पहले ब्लूचिस्तान में कुछ लड़कियों को जिंदा जला दिया गया था। मामला पकिस्तान के अपर हाऊस में उठाया गया तो वहां के सिनेटर ने हंगामा मचा दिया। उसके अनुसार औरतों को कत्ल करना बलूच परंपरा है और इसके खिलाफ आवाज उठाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। विड़ंबना यह रही कि उस सिनेटर को मिनिस्टर बना दिया गया है।

सिंध की परंपरा रही है कि दो खानदानों की दुश्मनी खत्म करने के लिए आपस में शादियां करवा दी जाती हैं। इसी को ध्यान में रख तस्लीम नाम की लड़की ने अपने डाक्टर बनने के सपने को तोड़ आपसी रंजिश खत्म करने के लिए दूसरे खानदान में अपनी मर्जी से शादी कर ली। पर उसकी कुर्बानी बेकार गयी। झगड़ा तो खत्म नहीं हुआ उल्टे उसकी जान ले ली गयी। मारने के पहले उस पर कुत्ते छोड़े गये, जिन्होंने उसे भभोंड़ कर रख दिया। फिर उसकी मुश्किल हल करने के लिए उसे गोली मार दी गयी। अब उसकी मां और घरवाले फरियाद करते घूम रहे हैं। पर कोई सुनवाई नहीं हो रही। जबकि इस घटना का गवाह एक पत्रकार भी है। वजह, जहां कत्ल हुआ वह सिंध के चीफ मिनिस्टर का इलाका है।

यह कुछ घटनाएं हैं जो प्रकाश में आ गयीं हैं। कितनी-कितनी बातें डर से या और बहुत से कारणों से दबा दी जाती हैं। एक आवाज थी, बेनजीर भुटटो की, जो महिलाओं को उनका हक दिलवा सकती थी। पर उसे भी खामोश कर दिया गया।

रविवार, 16 नवंबर 2008

मैं "मनाली" हूँ

मेरे परिवार हिमाचल में आपका स्वागत है। मेरे परिवार के सारे सदस्य बहुत सुंदर, शांत और आथित्य प्रेमी हैं। मेरे सबसे बड़े भाई शिमले को हिमाचल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। हम भाई बहन एक से बढ़ कर एक खूबियों के मालिक हैं। मैं और मेरा भाई कुल्लू दोनों जुड़वां हैं। एक राज की बात बताती हूं। कुल्लू थोड़े पूराने विचारों का है। इसीलिए उसकी सारी पूरानी बस्तियां, मंदिर, मोहल्ले वैसे के वैसे ही हैं। पर मेरे बार-बार टोकते रहने पर अब धीरे-धीरे बदलना शुरु कर रहा है। जिसके फलस्वरूप उसे एक फ्लाई-ओवर का पुरस्कार मिला है। इससे पीक सीजन में, अखाड़ा बाजार पर लगने वाले घंटों के जाम से यात्रियों को राहत भी मिल गयी है। उसकी बनिस्पत मैं आधुनिक विचारों की हूं। इसी कारण पर्यटक अब मेरे पास आना ज्यादा पसंद करते हैं। पर इस आधुनिकता का खामियाजा भी मुझे भुगतना पड़ा था ,सालों पहले, जब हिप्पी समुदाय के लोगों ने मेरे यहां जमावड़ा डाल, चरस गांजे का अड़्ड़ा बना कर दुनिया भर में मुझे बदनाम कर दिया था। बड़ी मुश्किलों के बाद धीरे-धीरे फिर मैंने अपना गौरव प्राप्त कर लिया है।
कुल्लू से मेरी दूरी 40 किमी की है। व्यास, जिसे नद होने का गौरव प्राप्त है, के दोनों किनारों पर बने सुंदर सड़क मार्ग यात्रियों को मुझ तक पहुंचाते हैं। व्यास के दोनों ओर सैकड़ों गांव बसे हुए हैं पर ठीक बीस किमी पर एक कस्बा पतली कुहल है, जो आस-पास के गांवों की जरूरतों को पूरा करता है। इसी के पास नग्गर नामक स्थान पर विश्व प्रसिद्ध रशियन चित्रकार ‘निकोलस रोरिक’ की आर्ट गैलरी है। रोरिक हिंदी फिल्म जगत की पहली सुपर-स्टार तथा पहले दादा साहब फाल्के पुरस्कार की विजेता देविका रानी के पति थे। पतली कुहल में सरकारी मछली पालन केन्द्र भी है। पर जैसे-जैसे लोगों की आवाजाही बढ़ रही है वैसे-वैसे मेरा प्राकृतिक सौंदर्य भी खतरे में पड़ता जा रहा है। मेरे माल रोड से पांच-सात किमी पहले से ही होटलों की कतारें शुरु हो जाती हैं। जिनकी सारी गंदगी व्यास को भी दुषित बना रही है। यह एक अलग विषय है। अभी आप अपना मूड और छुट्टियां खराब ना कर मेरी अच्छाईयों की तरफ ही ध्यान दें। जहां माल रोड खत्म होता है वहीं से एक सीधी चढ़ाई आप को हिडम्बा माता के मंदिर तक ले जाती है, घबड़ाने की बात नहीं है वहां तक आप अपनी गाड़ी से आराम से पहुंच सकते हैं। इस जगह पहले घना जंगल था पर उसे अब व्यवस्थित कर पुरातत्व विभाग को सौंप दिया गया है। इसकी विस्तृत चर्चा फिर कभी। नीचे मुख्य मार्ग, व्यास को पार कर दूसरे किनारे से आने वाले रास्ते से मिल लाहौल-स्पिति, जो एशिया का सबसे बड़ा बर्फिला रेगिस्तान है, की ओर बढ़ जाता है। इसी पर मेरे माल रोड से एक-ड़ेढ़ किमी की दूरी से एक सड़क उपर उठती चली जाती है महर्षि वशिष्ठ के आश्रम की ओर। यहां उनका प्राचीन मंदिर है। अब कुछ सालों पहले एक राम मंदिर का भी निर्माण हो गया है। यहां एक गर्म पानी का सोता भी है, जिसमें नहाने वालों के चर्म रोगों को मैंने ठीक होते देखा है। जो इस पानी में प्रचूर मात्रा में सल्फर की उपस्थिति से संभव है। पर यहां भी बढ़ती आबादी का दवाब साफ दिखाई पड़ने लगा है। यह सुंदर रमणीक स्थान अब दुकानों घरों से पट गया है। फिर भी प्रकृति ने अपना खजाना मुक्त हस्त से मुझ पर लुटाया है। अभी भी और जगहों की बनिस्पत आप मुझे निसर्ग के ज्यादा पास पाएंगें। बर्फीले पर्वत शिखर उनकी ढ़लानों पर सेवों के बागीचे, सीढ़ी नुमा खेत, खिलौने की तरह के घर और यहां के सीधे-साधे वाशिंदे आपको मोह ना लें तो कहिएगा। अभी भी यहां के हवा-पानी तथा लोगों के दिलों पर बाहरी सभ्यता की बुराईयां पूरी तरह से हावी नहीं हो पायी हैं। हम अपने नाम "देव भूमी" को अभी भी सार्थक करते हैं।
अपने बारे में तो कोई भी कहने से नहीं थकता। हो सकता है कि पढ़ने से आप बोर भी हो जायें। पर यह मेरा दावा है कि एक बार यदि आप मेरे पास आयेंगें तो फिर मुझे भूल नहीं पायेंगें। अब तो मुझ तक पहुंचने के लिए हर तरह की सुविधा भी उपलब्ध है। तो कब आ रहे हैं, मैं इंतजार में हूं।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

तब तक 'आतंक' शब्दकोष से बाहर नहीं आया था

अभी कुछ ऐसा घटा कि जिंदगी का सीरियल, एकता कपूरीय स्टाईल में, एक झटके में तीस-पैंतीस साल पीछे जा कुछ घटनाएं याद दिला गया। आज के माहौल को देख तो विश्वास भी नहीं होता कि वैसे दिन भी थे कभी।
यात्रा विवरण ना देकर सिर्फ उस समय घटे दो वाकयों का ही जिक्र कर रहा हूं। हमारा परिवार, पिताजी, मां, मैं तथा मेरा छोटा भाई काश्मीर के लिए दिल्ली से चार्टड़ बस से जा रहे थे। दोपहर में लंच के लिए एक जगह रुकना हुआ। खाने के बाद हम सब बस में सवार हो गये और बस चल दी। अचानक मां को अपने पर्स के ना होने का पता चला। बस रुकी, इधर-उधर देखने के बाद बस लौटाई गयी। करीब बीस मिनटों के बाद हम फिर उसी रेस्तरां में थे। हमें तो बिल्कुल भी आशा नहीं थी, पर्स वापस मिलने की। क्योंकी सीजन के दिन थे। बहुत सारी बसें आती-जाती रहती थीं। पर वहां पहुंचते ही सुखद आश्चर्य हुआ जब वहां के मैनेजर ने हमें देखते ही पर्स सामने ला कर रख दिया। हमारे पास उसे कहने के लिए शब्द नहीं थे। हम कुछ कहें उसके पहले ही वह बोल उठा, सर, घबड़ाने की बात नहीं थी, यदि आप महीने के बाद भी आते तो भी आपकी चीज आपको सुरक्षित मिल जाती।

दूसरी घटना तीसरे दिन काश्मीर में घटी। हम सब ऐसे ही लाल चौक के बाजार में घूम रहे थे कि पीछे दूर से एक काश्मीरी युवक चिल्लाता हुआ हमें कुछ ईशारा करते दौड़ता आता दिखा। उस समय तक आतंक शब्द शब्दकोष से बाहर नहीं आया था, सो डर तो नहीं घबड़ाहट जरूर हुई थी नयी और अंजानी जगह में। वैसी स्थिति में हम ठिठक कर खड़े हो गये। वह युवक हांफता हुआ हमारे नजदीक आया और अपनी जेब से एक वालेट निकाल पिताजी को देते हुए अपनी भाषा में पता नहीं क्या-क्या बोलने लगा। उसके हाव-भाव से कुछ-कुछ अंदाजा लग रहा था कि वह हमें पर्स देना चाह रहा है, सो पिताजी ने एक उचाट नजर पर्स पर डाल मना कर दिया कि यह मेरा नहीं है। पर युवक मानने को तैयार ही नहीं था। तब पिताजी ने अपनी जेबों को हाथ लगाया तो उन्हें खाली पा पर्स को हाथ में ले देखा तो वह उन्हीं का था। सबके चेहरे पर संतोष झलकता देख युवक भी मुस्कुरा उठा। पिताजी ने उसकी पीठ थपथपा कर उसे गले लगा लिया। दोनों जने अपनी-अपनी भाषा में, ना समझते हुए भी कुछ न कुछ बोले जा रहे थे। फिर पिताजी ने उसे कुछ देना चाहा पर वह युवक नोट देख कर ही बिदक कर हंसते हुए भाग खड़ा हुआ। हम चित्रलिखित से उसकी पीठ देखते खड़े रह गये।

आज जब सौ-पचास रुपयों के लिए खून-खराबा होते सुनते, देखते हैं तो सहसा विश्वास ही नहीं होता कि हमारे साथ कुछ वैसा घटित हुआ था। पहाड़ों पर अभी भी कुछ हद तक सच्चाई, इमानदारी, भलमानसता, भगवान का डर बचा हुआ है। पर जैसे-जैसे मैदानों से लोग 'येन-केन-प्रकारेण' अपना डेरा-डंडा लेकर वहां स्थापित होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे मैदानों की धूल वहां की अच्छाईयों को ढ़कती जा रही है।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

टिप्पणीयों को लेकर कटुता न फैले

24 अक्टूबर को मैने टिप्पणी माडरेशन पर अपनी व्यक्तिगत राय रखी थी। जिस पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आईं थी। उसी विषय पर कल सुरेश चिपलूनकर जी की पोस्ट आई। पर उस पर की गयी टिप्पणियों में थोड़ी कटुता का आभास मिल रहा था। मेरा तो इस पर फिर यही कहना है कि, 'मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना'। जितने लोग हैं उतने दिमाग हैं, उतनी ही राय हैं। सब को अपने विचार रखने का हक है। यदि हमें एक-दूसरे की राय अच्छी नहीं लगती, तो बजाय कटुता बढ़ाने के बात वहीं खत्म कर देना उचित है। एक सलाह दी गयी थी कि माडरेशन से एक अपमानजनक स्थिति बन जाती है और जैसा कि कुश ने कहा कि अपनी मेहनत बेकार जाती लगती है। तो इससे मैं पूरी तरह सहमत हूं। पर यदि सामने वाला अपने बारे में कुछ अच्छा भी नहीं सुनना चाहता तो हम ही क्यों जबरदस्ती अपना समय और दिमाग खराब करें। तो जैसा चल रहा है वैसा ही चलने दिया जाए। जब उनकी बात हमें ठीक नहीं लगती तो उनको भी पूरा हक है कि हमारी बात मानें या ना मानें।

रविवार, 9 नवंबर 2008

ये पत्नियां

संता की माँ और बीवी में पटती नहीं थी । एक दिन बात ज्यादा बढ गयी तो माँ ने पूछा, अच्छा बेटा बता , यदि मैं और तेरी ये डूबने लगे तो तू पहले किसे बचायेगा? संता को पेशोपेश में पडा देख उसकी बीवी बोली, ज्यादा सोचो मत, अपनी माँ को बचा लेना। मुझे बचाने वाले बहुत मिल जायेंगे।

एक कंपनी जिसके सारे उत्पाद मुफ्त हैं।

07/सितम्बर/1998 को एक गैराज में केवल चार कर्मचारियों के साथ शुरु हुई थी एक कंपनी। जिसके मालिकों को शुरुआती खर्चों को पूरा करने के लिए अपने रिश्तेदारों और दोस्तों का मुंह जोहना पड़ रहा था। आज सिर्फ़ दस सालों के भीतर वह दुनिया में इंटरनेट पर सबसे ज्यादा धन कमाने वाली कंपनी बन गयी है। वह भी तब जबकि इसके सारे उत्पाद मुफ्त में उपलब्ध हैं। यह सफलता की अनोखी मिसाल है। इसकी सिर्फ एक शाखा, इंटरनेट पर, इसे सिरमौर बनाने के लिए प्रयाप्त है। जबकी इसके पास ऐसी दर्जनों इकाईयां हैं। जी हां यह कंपनी है "गूगल"। जिसका अर्थ है दस का सौंवा भाग। इसी के कारण आज आप और हम एक दूसरे से जुड़ पा रहे हैं, जान व पहचान पा रहे हैं।
गूगल सर्च से शुरु हुई इसकी सेवाओं में अब तक पचीसों नाम जुड़ चुके हैं। जिसमें सबसे सफल ई मेल सेवा 'जी मेल' और सबसे लोकप्रिय ब्लागिंग सेवा 'ब्लागर' सम्मिलित हैं। इनके अलावा गूगल :- मैप्स, अर्थ, हेल्थ, न्यूज, 411, आई, इमेजेज, यू-ट्यूब, पिकासा, आरकुट, बुक सर्च, डेस्कटाप सर्च, फाईनेंस, पेटेंट, उत्पाद, मोबाइल के साथ-साथ इंटरनेट ब्राउजर क्रोम और अभी-अभी गूगल फोन और ना जाने क्या-क्या और सब के सब मुफ्त। है ना अचंभित करने वाली बात। इसकी एडसेंस नाम की अनोखी लाजवाब इंटरनेट विज्ञापन तकनीक ने तो इसे औरों से मीलों आगे कर दिया है। इस सब का श्रेय जाता है गूगल सर्च को जो इंटरनेट पर होने वाली 60 प्रतिशत खोजों के लिए जिम्मेवार है।
इन सारी उपलब्धियों के पीछे हैं, अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्व विद्यालय के स्नातक द्वय ,लैरी पेज और सर्गैई ब्रिन। जिनकी अथक मेहनत से आज दुनिया फायदा उठा रही है। पर इनके साथ-साथ, सन माइक्रोसिस्टम के संस्थापक 'एंडी बेक्टलशीम' को नहीं भुलाया जा सकता, जिनकी दूर दृष्टी ने प्रतिभाओं को पहचाना और उन्हें समय पर जरूरी आर्थिक सहयता उपलब्ध करवाई।

गुरुवार, 6 नवंबर 2008

पहचान असली शहद की, कुछ जानकारियों के साथ

शहद, एक हल्का पीलापन लिये हुए बादामी रंग का गाढ़ा तरल पदार्थ है। वैसे इसका रंग-रूप, इसके छत्ते के लगने वाली जगह और आस-पास के फूलों पर ज्यादा निर्भर करता है। यह एक पूर्ण तथा सुपाच्य खाद्य है। यह इतना निरापद है कि इसे नवजात शिशु को भी दिया जा सकता है। किसी भी घाव, चोट, खरोंच या किसी कीड़े के काटने पर इसे मल्हम की तरह लगा सकते हैं। आंखों में इसे किसी सलाई से सुरमे की तरह लगाया जा सकता है। थोड़ा लगता जरूर है, पर आंखों में चमक आ जाती है। उन्हें कमजोर होने से बचाता है। विश्वास के साथ इस लिए कह पा रहा हूं क्योंकि मैं खुद इसका उपयोग करता रहता हूं।
हमारे यहां जहां मुनाफे के लिए हर चीज में मिलावट होती है, वहां यह भी कहां बचा रह सकता है। भाई लोग शीरे को बिना हिचक इसमें मिला कर लोगों की सेहत से खिलवाड़ करते रहते हैं। इससे बचने के लिए असली शहद की पहचान कुछ ऐसे की जा सकती है -
1 :- असली शहद की एक बूंद को पानी से भरे गिलास में टपकायें। पूरी की पूरी बूंद तले तक जायेगी। जबकी             नकली शहद पानी से टकराते ही बिखर जायेगा।
2 :- रुई की बत्ती बना उसे शहद में डुबो कर जलायें, वह मोमबत्ती की तरह जलती रहेगी।
3 :- अखबार या कपड़े पर शहद की बूंद गिरा कर पोछ दें, सतह उसे सोखेगी नहीं। जबकी नकली, कपड़े या               कागज में जज्ब हो जायेगा।
4:- असली शहद पर मक्खी बैठ कर उड़ जायेगी जबकी नकली में वहीं फंस कर रह जाती है।
5 :- असली शहद कुत्ता नहीं खाता।
शहद हालांकि गुणों की खान है। फिर भी कुछ सावधानियां जरूर बरतनी चाहियें। जैसे इसे कभी गर्म कर ना खायें। गर्मी से पीड़ित मनुष्य के लिए भी यह हानीकारक होता है। इसके साथ बराबर मात्रा में घी, कमलगट्टा तथा वर्षा का पानी कभी भी नहीं लेना चाहिये। बस, तो ठंड आ रही है इस दिव्य पदार्थ का सेवन करें और सब से कहलवायें ," आप की उम्र का तो अंदाज ही नहीं लगता"

बुधवार, 5 नवंबर 2008

बी. आर. चोपडा पर भारी "बा"

प्रख्यात निर्माता निर्देशक बी आर चोपडा नही रहे। बहुत दिनों से खबरों में भी नही थे। पर यह देख कर दुःख हुआ की एक ऐसे इंसान, जिसकी कभी फिल्म संसार में तूती बोलती थी, उसकी मौत पर सब जगह खामोशी छाई रही। जले पर नमक तब पडा जब 'स्टार प्लस' का "न्यूज चैनल" अपने धारावाहिक के एक काल्पनिक पात्र " बा" की मौत का उसके पूरे इतिहास भूगोल के साथ बखान कराने में लगा हुआ था। पर सचमुच की मौत पर उसके पास समय की अत्यधिक कमी थी।
शर्म, हया, इंसानियत सब सिर्फ कहने के लिए ही बचे हैं। एक ही चीज प्रधान है , पैसा और सिर्फ पैसा

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

शहद, जिसकी तुलना अमृत से होती है

हमें शुक्रगुजार होना चाहिए उस छोटे से जीव का जिसने इतनी अमूल्य चीज से हमें अवगत कराया। यह अलग बात है कि मधुमक्खी की जिंदगी भर की मेहनत पर इंसान डाका डाल देता है अपनी भलाई के लिए।

हमारे ऋषि-मुनियों ने शहद की तुलना सदा अमृत से की है। यह एक तत्काल ऊर्जा प्रदान करने वाला पदार्थ है। प्राचीन ग्रन्थों में कहीं-कहीं मधुमक्खी की पूजा का भी वर्णन मिलता है। ठीक भी है। यह छोटा सा कीट इतनी मेहनत करता है कि हम सोच भी नहीं सकते। फूलों से मकरंद लेने के लिये मधुमक्खियां कभी-कभी आठ से दस मील का चक्कर भी लगा लेती हैं। आश्चर्य होता है प्रकृति प्रदत्त इनकी क्षमता पर। ये एक किलो शहद के लिये करीब-करीब पृथ्वी के तीन चक्करों के बराबर यात्रा कर लेती हैं। इनकी कार्य प्रणाली भी बहुत रोचक होती है। पहले मक्खियां फूलों का चुनाव करती हैं। फिर उसके मकरंद का स्वाद लेती हैं। पसंद आने पर उसे अपने पेट के पास एक थैली में जमा करती जाती हैं। थैली में मकरंद के पहुंचते ही शहद बनने की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। जिसे ला-ला कर ये अपने छत्ते में जमा करती जाती हैं। शहद की विषेशता है कि यह कभी भी खराब नहीं होता। वैज्ञानिकों ने मिश्र की ममीयों के पास पाये गये शहद को भी उपयोग के लायक पाया है।
भारत में इसका उपयोग प्राचीनकाल से होता आया है। रानी-महारानियां अपने सौंदर्य और यौवन को बनाए रखने के लिए शहद का उपयोग किया करती थीं। आजकल भी प्राय: हर सौंदर्य विशेषज्ञ इसके लेप का सुझाव देता है। त्वचा के लिए यह बहुत प्रभावशाली पाया गया है। आंखों की सफाई के लिए भी यह उपयोगी है। ब्रिटिश
मेडिकल जनरल की रिपोर्ट के अनुसार यह एक श्रेष्ठ जिवाणु-रोधी है। इसे किसी भी जख्म, चोट, खरोंच या जलने पर लगाया जा सकता है। इसके अलावा यह शरीर के गतिरोधों को दूर करता है। भूख बढ़ाता है। सांस की दुर्गंध दूर करता है। मुत्र संबंधी विकारों का नाश करता है। आंखों की रोशनी में वृद्धी करता है। शरीर की गरमी तथा बुढ़ापे को रोकने में मददगार है। कहते हैं कि रोज सबेरे गुनगुने पानी में एक चम्मच शहद और एक नींबू का रस लेने से मोटापा कम करने में मदद मिलती है।
हमें शुक्रगुजार होना चाहिए उस छोटे से जीव का जिसने इतनी अमूल्य चीज से हमें अवगत कराया। यह अलग बात है कि मधुमक्खी की जिंदगी भर की मेहनत पर इंसान डाका डाल देता है अपनी भलाई के लिए।

सोमवार, 3 नवंबर 2008

दियासलाई, है आग हमारे सिरे में

दियासलाई या माचिस, एक छोटी सी ड़िबिया। सब जगह आसानी से मिलने वाली, आग पाने का सबसे सस्ता तथा सुलभ साधन। इसका जन्म 1827 में, इंगलैंड के एक रासायनिक व्यापारी, ज़ान वाल्कर, द्वारा अनजाने में हो गया था। एक दिन वह एक रासायनिक घोल को एक लकड़ी के डंडे से मिला रहा था। काम हो जाने पर उसने लकड़ी को एक तरफ रख दिया। एक-दो दिन बाद उसे बेकार समझ उसे बाहर फेंका तो वह भक्क से जल उठा। वाल्कर अचंभित रह गया। पर उसने इसको लेकर प्रयोग शुरु कर दिए। जल्दी ही उसको सफलता भी मिल गयी। उसने छोटी-छोटी तीलियों पर रसायन लगा उन्हें कठोर सतह पर रगड़ कर आग उत्पन्न करना सीख लिया। फिर उसने इसे अपना व्यवसाय बना लिया। उसने तीलियों के साथ एक रेगमाल के टुकड़े को छोटी-छोटी ड़िबियों में रख बेचना शुरु कर दिया। इस काम में उसे काफी सफलता मिली। लोगों ने इस नयी खोज को बहुत पसंद किया। कुछ साल बाद 1831 में लंदन के एक व्यावसाई ने पीले फास्फोरस को डिबियों के किनारे लगा, रेगमाल रखने की परेशानी से मुक्ति दिलाई। पर ये तीलियां सुरक्षित नहीं थीं। जरा सी रगड़ से ही ये आग पकड़ लेती थीं। इसको "सेफ्टी मैच" का रूप, 1844 में स्वीडन के वैज्ञानिक ई. पाश्च ने दिया। उसने पीले फास्फोरस की जगह लाल फास्फोरस के घोल को डिबिया के बगल में लगाया। यही इसका आधुनिक स्वरुप था। समय के साथ-साथ इसमें महत्वपूर्ण परिवर्तन व संशोधन होते गये, जिससे यह निरापद होती चली गयी।
भारत में इसका आगमन पहले विश्व युद्ध के आस-पास हुआ था। उस समय इसे जापान तथा स्वीडन से आयात किया जाता था। यहां भी इसे बनाने के प्रयास होते रहे पर वह बाहर से आने वाली दियासलाईयों से मुकाबला नहीं कर पाते थे, क्योंकि सारा कच्चा सामान बाहर से ही आता था। सरकार की लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की नीतियों से इस काम में भी जान आयी।
इसके निर्माण की प्रक्रिया भी काफी जटिल है। पहले मशीनों द्वारा लकड़ी की पतली छाल से अंदर और बाहर की डिबिया बना कर उसके दोनों किनारों पर लाल सल्फर और कांच के चूर्ण के मिश्रण को सरेस की सहायता से लगा देते हैं। एक समान कटी लकड़ी की छोटी-छोटी तीलियों को एक विशेष मशीन में लगे सांचे में भर कर उनके सिरों को पोटाश, सल्फर, सरेस, पैराफीन आदि के घोल में डुबा कर सुखा लिया जाता है। फिर सिरों को आकार देकर डिबियों में भर दिया जाता है। इस तरह सारे संसार को भस्म करने की शक्ति रखने वाली अग्नि को आज का मानव जेब में ले घूमता रहता है।

रविवार, 2 नवंबर 2008

संता–बंता, वे नाम जो मुर्झाए चेहरों पर रौनक ला देते हैं

संता सपत्निक विदेश घुमने गये। देशाटन के दौरान वे इटली पहुंचे। वहां एक जगह गाईड ने एक कुआं दिखलाया। जिसमें सिक्का डालने से हर मुराद पूरी हो जाती थी। संता ने पहले सिक्का डाला और अपनी मन्नत मांगी। फिर उनकी बीवी कुँए पर गयी और जैसे ही सिक्का डालने लगी उसका पैर अचानक फिसला और वह कूएं में गिर पड़ी। यह देखते ही संता बोला, अरे इतनी जल्दी मन्नत पूरी हो जाती है। पता ना था।
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भारत आने के पहले बंता कनाडा में रहता था। इसी घटना के बाद उसने भारत में बसने का फैसला किया था। हुआ यह कि एक बार उसे दिल का दौरा पड़ गया। एम्बुलेंस उसे घर ले आयी। रास्ते भर वह हरि ओम का जाप करता रहा। उसके घर पहुंचते ही उसकी बीवी ने एम्बुलेंस वालों को फटकारा कि आप इन्हें सीधे हास्पिटल क्यों नहीं ले गये।एम्बुलेंस वाले बोले, मैडम यू सी, पूरा रास्टे सर hurry home, hurry home बोलटा आया हाय।
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बंता तो बंता उसका बेटा भी टू मच है। एक दिन सबेरे उठ कर अपनी मां से बोला, मम्मी-मम्मी, रात को कमाल हो गया। जैसे ही मैने टायलेट का दरवाजा खोला, लाईट अपने-आप जल गयी। मम्मी चिल्लाई, अरे बेवकूफ, तुने कहीं फ्रिज में ही तो ----------------------------------------

शनिवार, 1 नवंबर 2008

पूजा और बिल्ली बंधने का सम्बन्ध

आज सतीश पंचम जी की पोस्ट पर प्रदीप जी की कहानी उजास के बारे में पढ़ा जिसमें हमारी कुप्रथाओं की ओर इशारा किया गया था। यह परंपराएं कैसे अस्तित्व में आयीं, कैसे प्रचलित हुईं यह एक शोध का विषय है। कुछ प्रथाओं को तो हमारे ऋषी-मुनियों ने लोगों की भलाई के लिये एक अलग रूप में पेश किया होगा। संक्षेप में जैसे सबसे ज्यादा आक्सीजन प्रदान करने वाले पीपल के वृक्ष की रक्षा के लिये उसे देव-वृक्ष का रूप दिया गया होगा। पानी तथा हवा को साफ रखने के लिये उन्हें देवता का नाम दे दिया गया होगा। इत्यादि, इत्यादि। इन्हीं के साथ कुछ कुप्रथाएं भी चलन में आ गयीं होगीं। इसी सिलसिले में एक कहानी याद आ गयी। कैसी लगी बतलाईयेगा।
एक गुरुकुल में बहुत सारे शिष्य शिक्षा ग्रहण करते थे। वहां सारा काम निश्चित और व्यवस्थित तरीके से किया जाता था। सुबह उठना, आश्रम की साफ-सफाई, नित्य कर्म, पूजा-अर्चना, पढ़ाई सब कुछ नियमबद्ध रूप से। पर कुछ दिनों से आश्रम में ही रहने वाली एक बिल्ली ठीक पूजा के बाद होने वाली आरती में आकर उत्पात मचाने लग गयी थी। उसे बहुत हटाया गया, भगाया गया पर वह मानती ही नहीं थी। अंत में तंग आ कर गुरु जी ने उसे पूजा के समय बांधने और पूजा के बाद खोल देने का आदेश अपने शिष्यों को दे दिया। बिल्ली को वहां खाने पीने को भरपूर मिलता था सो वह भी वहां से गयी नहीं।
समय बीतता गया। क्रम चलता रहा। एक दिन गुरु जी का देहावसान हो गया। उनकी जगह नये आचार्य आये। उन्होंने सारी व्यवस्था देखी, सारी दिनचर्या का जायजा लिया और वहां का संचालन संभाल लिया। दूसरे दिन पूजा के समय बिल्ली को बांधने के लिए खोजा गया तो बिल्ली नदारद। आश्रम में हड़कंप मच गया। वर्षों से चली आ रही परंपरा के अनुसार बिल्ली का बंधना जरूरी था, नहीं तो पूजा पूरी नहीं होनी थी। बिना तथ्य जाने लकीर के फकीरों को चारों ओर दौड़ा दिया गया बिल्ली को खोजने----------------------------------
इसके बाद मुझे नहीं पता कि बिल्ली मिली कि नहीं। हां इसका पता लगाऊंगा कि बिल्ली ना मिलने की एवज में उन्होंने कहीं कुत्ता तो नहीं!!!!!!!

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

डर, कैसे कैसे

अंधेरी, सुनसान रात। आकाश मेघाच्छन। किसी भी समय बरसात शुरू हो सकती थी। बियाबान पड़ा हाई-वे। दूर-दूर तक रोशनी का नामो निशान नहीं। ऐसे में विशाल अपनी बाईक दौड़ाते हुए घर की तरफ चला जा रहा था। बाईक की रोशनी जितनी दूर जाती थी, बस वहीं तक दिखाई पड़ता था, बाकी सब अंधेरे की जादूई चादर में गुम था।
इतने में बूंदा-बांदी शुरु हो गयी। कुछ दूर आगे एक मोड़ पर एक टपरे जैसी दुकान पर गाड़ी रोक कर विशाल ने अपना रेन कोट निकाल कर पहना और दुकान से एक पैकट सिगरेट ले जैसे ही गाड़ी स्टार्ट कर चलने को हुआ, पता नहीं कहां से एक मानवाकृति निकल कर आई और विनम्र स्वर में लिफ़्ट देने की याचना करने लगी। विकास ने नजरें उठा कर देखा, सामने एक उंचे-पूरे कद का, काला रेन कोट पहने, जिसका आधा चेहरा हैट के नीचे छिपा हुआ था, एक आदमी खड़ा था। उसको हां कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। पर बिना कारण और इंसानियत के नाते ना भी नहीं कह पा रहा था। मन मार कर उसने उस को पीछे बैठा लिया। पर अब गाड़ी से भी तेज विशाल का मन दौड़ रहा था। उसने लिफ़्ट तो दे दी थी पर चित्रपट की तरह अनेकों ख्याल उसके दिमाग में कौंध रहे थे। अखबारों की कतरने आंखों के सामने घूम रहीं थीं। अभी पिछले हफ्ते ही इसी सड़क पर एक कार को रोक नव दम्पत्ति की हत्या कर गाड़ी वगैरह लूट ली गयी थी। तीन दिन पहले की ही बात थी एक मोटर साईकिल सवार घायल अवस्था में सड़क पर पाया गया था। वह तो अच्छा हुआ एक बस वाले की नज़र उस पर पड़ गयी तो उसकी जान बच गयी। इसी तरह आये दिन लूट-पाट की खबरें आती रहती थीं। प्रशासन चौकसी बरतने का सिर्फ आश्वासन देता था, क्योंकी विशाल को अभी तक सिर्फ आठ-दस वाहन ही आते जाते दिखे थे। पुलिस गस्त नदारद थी।
शहर अभी भी पांच-सात किलो मीटर दूर था। अचानक विशाल को अपने पीछे कुछ हरकत महसूस हुई। इसके तो देवता कूच कर गये। तभी पीछे वाले ने गाड़ी रोकने को कहा। विशाल समझ गया कि अंत समय आ गया है। बीवी, बच्चों, रिश्तेदारों के रोते कल्पते उदास चेहरे उसकी आंखों के सामने घूम गये। पर मरता क्या ना करता। उसने एक किनारे गाड़ी खड़ी कर दी। बाईक के रुकते ही पीछे वाला विशाल के पास आया और अपने रेन कोट का बटन खोल अंदर हाथ डाल कुछ निकालने लगा। विशाल किसी चाकू या पिस्तौल को निकलते देखने की आशंका से कांपने लगा। तभी पीछेवाले आदमी ने एक सिगरेट का पैकट विशाल के आगे कर दिया और बोला, सर क्षमा किजिएगा, बहुत देर से तलब लगी हुई थी। बैठे-बैठे निकाल नहीं पा रहा था। सच कहूं तो मैंने लिफ़्ट तो ले ली थी पर इस सुनसान रास्ते में मैं बहुत डरा हुआ था कि पता नहीं चलाने वला कौन है, कैसा है, तरह तरह की बातें दिमाग में आ रहीं थीं। पर मेरा जाना भी बहुत जरूरी था। बड़ी देर बाद अपने को संयत कर पाया हूं। यह सब सुन विशाल की भी जान में जान आयी। दोनो ने सिगरेट सुलगायीं, अब दोनों काफी हल्कापन महसूस कर रहे थे।
बरसात भी थम चुकी थी। दूर शहर की बत्तियां भी नज़र आने लग गयीं थीं।

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

न्याय, परम पिता का

परम पिता की नज़रों में तो सब बराबर हैं ! ना ऊँच-नीच, ना धर्म-अधर्म, ना जात-पात ! ना रंग-भेद ! फिर हमने क्यों कहीं दीवारें खड़ी कर दीं ! कहीं खाइयां खोद दीं ! कहाँ से ले आए हम इतना भेद-भाव, अहम्, द्वेष 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
सावन-भादों की एक शाम। आकाश में घने बादल गहराते हुए रौशनी को विदा करने पर आमदा थे। दामिनी एक सिरे से दूसरे सिरे तक लपलपाती हुई माहौल को और भी डरावना बना रही थी। जैसे कभी भी कहीं भी गिर कर तहस-नहस मचा देगी। हवा तूफान का रूप ले चुकी थी।

ऐसे में उस सुनसान इलाके में, एक जर्जर अवस्था में पहुंच चुके खंडहर में, एक आदमी ने दौड़ते हुए आकर शरण ली। तभी दो सहमे हुए मुसाफिरों ने भी बचते बचाते वहां आ कर जरा चैन की सांस भरी। फिर एक व्यापारी अपने सामान को संभालता हुआ आ पहुंचा। धीरे-धीरे वहां सात-आठ लोग अपनी जान बचाने की खातिर इकट्ठा हो गये। बरसात शुरु हो गयी थी। लग रहा था जैसे प्रलय आ गयी हो। इतने में एक फटे हाल बच्चा अपने सूकर के साथ अंदर आ गया। उसके आते ही मौसम ने प्रचंड रूप धारण कर लिया। बादलों की कान फोड़ने वाली आवाज के साथ-साथ ऐसा लगने लगा जैसे बिजली जमीन को छू-छू कर जा रही हो। सबको लगने लगा कि अपने पालतू समेत उस बच्चे के आने से ही प्रकृति का कहर बढ़ा है। यदि यह इस जगह रहेगा तो ऊपर वाले के कोप से बिजली जरूर यहीं गिरेगी। इस पर सबने एक जुट हो, उस डरे, सहमे बच्चे को जबर्दस्ती धक्के दे कर बाहर निकाल दिया। डरते-रोते हुए बच्चे ने कुछ दूर एक घने पेड़ के नीचे शरण ली।

उसके वहां पहुंचते ही जैसे आसमान फट पड़ा हो, बादलों की गड़गड़ाहट से कान बहरे हो गये। बिजली इतनी जोर से कौंधी कि नजर आना बंद हो गया। एक पल बाद जब कुछ दिखाई पड़ने लगा, तब तक उस खंडहर का नामोनिशान मिट चुका था। प्रकृति भी धीरे-धीरे शांत होने लगी थी। बच्चा अपने पालतू के साथ अपने घर की ओर दौड़ा चला जा रहा था !

बुधवार, 29 अक्टूबर 2008

हसाईंयां, पूंछ वाली

उपदेश :- जिंदगी में खुश रहना है तो सदा खुदा और बीवी से डर कर रहना चाहिए।
सार :- खुदा को भी कभी किसीने देखा है?
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विज्ञापन :- कैंसर का इलाज़ हमसे करवाएं।
खुलासा :- इसका इलाज़ तो असली डाक्टरों के पास भी नहीं है। पर हम सस्ते में मारते हैं।
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तलाश :- बाबा, कोई ऐसा वशीकरण-मंत्र दो, जिससे मैं अपनी झगड़ालू बीवी को बस में कर सकुं। बच्चा, ऐसा कोई मंत्र मेरे पास होता तो मैं साधू ही क्यों बनता।
सच्चाई :- वैरागी बनने का कारण आस-पास भी हो सकता है।

सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

अनदेखे 'अपनों' को दीप-पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं

इस विधा यानि ब्लागिंग से आप सब से जो स्नेह, अपनापन, हौसला मिला है, उससे मन अभिभूत है। यह कैसी अजीब बात है कि जब तक एक बार रोज सबके नाम ना देख लिए जाएं तो कुछ खाली-खाली सा लगता है। तीन चार दिनों तक किसी की उपस्थिति न दिखे तो मन बरबस उसकी ओर लगा रहता है। ये जो "अनदेखे अपनों" से लगाव है उसे क्या नाम दिया जाए? इन रिश्तों को कैसे प्रभासित किया जाए? आज तक samajh में naheen aa paayaa है। in तीन सालों में apnii kuupamandukataa ke kaaran bahut kam logon से aamane-saamane milanaa ho paayaa है। sabhii se milane की ichchhaa मन me hone ke baawajuud किसी न किसी kaaran से waisaa sambhaw nahiin ho sakaa। khair yah aapasii स्नेह aise ही banaa rahe yahii kaamanaa है।
इस दीपोत्सव पर आप सभी को सपरिवार मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं।

आने वाले दिन और बेहतर हों। सभी जने सदा सुखी, स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें।

यही प्रभू से प्रार्थना है।

रविवार, 26 अक्टूबर 2008

कैसी रही

एक गडेरिया अपना रेवड़ चरा रहा था कि एक बड़ी सी गाड़ी उसके पास आ कर रुकी। उसमें से कीमती कपड़े पहने हुए एक युवक उतरा और गड़ेरिये के पास आ बोला, कि मैं यदि तुम्हारे रेवड़ में कितनी भेड़ें हैं , बतला दूं तो क्या तुम मुझे एक भेड़ दोगे? गड़ेरिए के मान जाने पर युवक ने अपना लैप टाप निकाला, सैटेलाईट से कनेक्शन जोड़ा, उस जगह को स्कैन किया, जटिल आंकड़ों को जोड़ा घटाया, फिर गड़ेरिये को बताया कि तुम्हारे पास 1352 भेड़ें हैं। गड़ेरिए के सही है, कहने पर युवक ने अपनी पसंद का जानवार उठा कर अपनी गाड़ी में रख लिया। तब चरवाहे ने कहा कि यदि मैं बता दूं कि तुम्हारा पेशा क्या है, तो क्या तुम मेरा जानवर वापस कर दोगे? युवक ने भी उसकी बात मान ली। इस पर चरवाहे ने कहा कि तुम प्रबंधन सलाहकार हो। युवक आश्चर्यचकित हो बोला, अरे! तुम्हें कैसे पता चला? चरवाहे ने जवाब दिया, यह तो बहुत आसान था। तुम बिना बुलाए मेरे पास आए। बिना मेरे मांगे अपनी सलाह दी, ऐसे सवाल का जवाब दिया जिसका उत्तर मुझे मालुम था, और इस सब की कीमत भी ली, जब की तुम मेरे काम के बारे में कुछ भी नहीं जानते।
"लाओ मेरा कुत्ता वापस करो"
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तीन पागलों को उनके चेक-अप के लिए एक खाली पड़े स्विमिंग पूल के पास ले जाकर डाक्टर ने कहा, कूदो। दो पागल तुरंत कूद गये और चोट खा बैठे। तीसरे की तरफ देख कर डाक्टर ने कहा, अरे वाह, तुम तो ठीक हो गये हो। अच्छा बताओ तुम क्यों नहीं कूदे?
उसने जवाब दिया "मुझे तैरना कहां आता है"

शनिवार, 25 अक्टूबर 2008

''स्वयंप्रभा'', रामायण का एक उपेक्षित पात्र

थके-हारे, निश्चित समय में सीता माता को ना खोज पाने के भय से व्याकुल, वानर समूह को उचित मार्गदर्शन दे, लंका का पता बताने वाली सिद्ध तपस्विनी "स्वयंप्रभा" को वाल्मीकि रामायण के बाद कोई विशेष महत्व नहीं मिल पाया। हो सकता है, श्री राम से इस पात्र का सीधा संबंध ना होना इस बात का कारण हो।

#हिन्दी_ब्लागिंग 
शबरी की तरह ही स्वयंप्रभा भी श्री राम की प्रतीक्षा, एकांत और प्रशांत वातावरण में संयत जीवन जीते हुए कर रही थी। परन्तु ये शबरी से ज्यादा सुलझी और पहुंची हुई तपस्विनी थीं। इनका उल्लेख किष्किंधा कांड के अंत में तब आता है, जब हनुमान, अंगद, जामवंत आदि सीताजी की खोज में निकलते हैं। काफी भटकने के बाद भी सीताजी का कोई सुराग नहीं मिल पाता है। सुग्रीव द्वारा दिया गया समय भी स्माप्ति पर आ जाता है। थके-हारे दल की भूख प्यास के कारण बुरी हालत होती है। सारे जने एक जगह निढ़ाल हो बैठ जाते हैं। तभी हनुमानजी को एक अंधेरी गुफा में से भीगे पंखों वाले पक्षी बाहर आते दिखते हैं। जिससे हनुमानजी समझ जाते हैं कि गुफा के अंदर कोई जलाशय है। गुफा बिल्कुल अंधेरी और बहुत ही डरावनी थी। सारे जने एक दूसरे का हाथ पकड़ कर अंदर प्रविष्ट होते हैं। वहां हाथ को हाथ नहीं सूझता था। बहुत दूर चलने पर अचानक प्रकाश दिखाई पड़ता है। वे सब अपने आप को एक बहुत रमणीय, बिल्कुल स्वर्ग जैसी जगह में पाते हैं। पूरा समूह आश्चर्य चकित सा खड़ा रह जाता है। चारों ओर फैली हरियाली, फलों से लदे वृक्ष, ठंडे पानी के सोते, हल्की ब्यार सब की थकान दूर कर देती है। इतने में सामने से प्रकाश में लिपटी, एक धीर-गंभीर साध्वी, आती दिखाई पड़ती है। जो वल्कल, जटा आदि धारण करने के बावजूद आध्यात्मिक आभा से आप्लावित लगती है। हनुमानजी आगे बढ़ कर प्रणाम कर अपने आने का अभिप्राय बतलाते हैं, और उस रहस्य-लोक के बारे में जानने की अपनी जिज्ञासा भी नहीं छिपा पाते हैं। साध्वी, जो कि स्वयंप्रभा हैं, करुणा से मंजुल स्वर में सबका स्वागत करती हैं तथा वहां उपलब्ध सामग्री से अपनी भूख-प्यास शांत करने को कहती हैं। उसके बाद शांत चित्त से बैठ कर वह सारी बात बताती हैं।

यह सारा उपवन देवताओं के अभियंता मय ने बनाया था। इसके पूर्ण होने पर मय ने इसे देवराज इंद्र को समर्पित कर दिया। उनके कहने पर, इसके बदले कुछ लेने के लिए जब मय ने अपनी प्रेयसी हेमा से विवाह की बात कही तो देवराज क्रुद्ध हो गये, क्योंकि हेमा एक देव-कन्या थी और मय एक दानव। इंद्र ने मय को निष्कासित कर दिया, पर उपवन की देख-भाल का भार हेमा को सौंप दिया। हेमा के बाद इसकी जिम्मेदारी स्वयंप्रभा पर आ गयी।

इतना बताने के बाद, उनके वानर समूह के जंगलों में भटकने का कारण पूछने पर हनुमानजी उन्हें सारी राम कथा सुनाने के साथ-साथ समय अवधी की बात भी बताते हैं कि यदि एक माह स्माप्त होने के पहले सीता माता का पता नहीं मिला तो हम सब की मृत्यु निश्चित है। स्वयंप्रभा उन्हें कहती हैं कि घबड़ायें नहीं, आप सब अपने गंतव्य तक पहुंच गये हैं। इतना कह कर वे सबको अपनी आंखें बंद करने को कहती हैं। अगले पल ही सब अपने-आप को सागर तट पर पाते हैं। स्वयंप्रभा सीताजी के लंका में होने की बात बता वापस अपनी गुफा में चली जाती हैं। आगे की कथा तो जगजाहिर है।

यह सारा प्रसंग अपने-आप में रोचक तो है ही, साथ ही साथ कहानी का महत्वपूर्ण मोड़ भी साबित होता है। पर पता नहीं, स्वयंप्रभा जैसा इतना महत्वपूर्ण पात्र उपेक्षित क्यूं रह गया।

हाय, कितने गरीब हैं हम

अखिल भारतीय जेम्स एंड ज्वैलरी ट्रेड फेडरेशन के सर्वे की मानें तो दीवाली से पहले अक्टूबर के दौरान सिर्फ बीस दिनों में पांच टन सोने की बिक्री हुई इस गरीब देश में। जो पिछले आंकड़ों से 66 फीसदी ज्यादा है। इस साल दुकानों में पहुंचने वाले ग्राहकों की संख्या में भी 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। और यह सब तब है जबकि सोने की कीमतों में पिछले पांच सालों की तुलना में 160 प्रतिशत उछाल आ चुका है।

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2008

टिप्पणीयों को खुले दिल से स्वीकार करें

टिप्पणी देना और पाना किसे अच्छा नहीं लगता। हरेक को अपनी पोस्ट की प्रशंसा पा खुशी होती है। उत्साहित हो वह भी किसी और को भी प्रोत्साहित करना चाहता है। इसी उमंग में किसी अच्छे लेख की प्रशंसा में जब अपने विचार व्यक्त करता है तो वे, टिप्पणी माडरेशन सक्षम किया होने की वजह से, तुरंत प्रकाशित नहीं होते। ऐसा लगता है कि किसी के घर गये हों और चौकीदार अंदर जाने से यह कह कर रोक दे कि पूछ कर आता हूं कि अंदर आने दूं कि नहीं।
ऐसा क्यूं है। क्या लिखने वाला सिर्फ अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है, अपनी जरा सी आलोचना उसे पसंद नहीं। क्या यह डर है कि मैंने जो लिखा है उससे बहुत से लोग नाराज हो जायेंगे और उल्टी-सीधी बातें लिख मारेंगे, या और कुछ। यह तो सर्वविदित है कि सब को खुश नहीं किया जा सकता, मुंड़े-मुंड़े मत्रिभिन्ना, और जो लिखा गया है वह वैसा लिखने वाले को ठीक लगा इसलिये लिखा गया, यह पूर्णतया अपने विचार हैं। तो पढ़ने वाले को भी पूरी आजादी होनी चाहिए कि वह भी अपने विचारों से सबको अवगत करा सके, सबको यानी सबको। ऐसा मुझे लगता है।
अक्सर कहा जाता है कि ब्लागर परिवार में संदेशों का आदान-प्रदान होते रहना चाहिये। किसी को प्रोत्साहित करना बहुत अच्छी बात है। नवागत की झिझक मिटती है, हौसला बढ़ता है। पर सिर्फ टिप्पणी देनी है इसलिए टिप्पणी दे देने से लगता है कि सिर्फ औपचारिकता पूरी कर दी गयी हो। पर टिप्पणी निष्पक्ष होनी चाहिए। जरूरी तो नहीं कि कटु आलोचना कर द्वेष पैदा किया जाए। पर लेख के बारे में अपने विचार बिना ठेस पहुंचाए कहे जाएं तो सामने वाले को और अच्छा लिखने में मदद मिलेगी, ऐसा मेरा सोचना है। अपने बारे में सिर्फ अच्छे ही अच्छे कमेंट पा कर अपनी गल्तियों की तरफ ध्यान नहीं जाता। इसलिए दरवाजे हर्रक के लिए खुले होने चाहियें। सबका स्वागत होना चाहिए। ऐसा नहीं कि मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू।
मैंने अपने विचार रखे हैं, अन्यथा ना लिजियेगा।

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

सनकी, कैसे कैसे

दुनिया का इतिहास तरह-तरह के सनकियों से भरा पड़ा है। आईये दो-एक का जायजा लें।

मुहम्मद बिन तुगलक को पता नहीं क्या सूझी, अच्छी भली अपनी राजधानी दिल्ली को छोड़ कर वहां से 600 मील दूर दौलताबाद में नयी राजधानी बसाने की सनक ने करीब तीस हज़ार परिवारों को बेसहारा भटकने के लिए मजबूर कर दिया था। वह जानता था कि उसके इस कदम से लोग खुश नहीं हैं, ऐसे लोग आने से इंकार ना कर दें, इसलिए उसने दिल्ली के घरों-दुकानों में आग लगवा कर नष्ट करवा दिया। सैकड़ों लोग मौत के मुंह में चले गये। जले पर नमक तब छिड़का गया, जब 15 वर्ष बाद फिर प्रजा सहित राजधानी को उठवा कर वापस दिल्ली ले आया गया।
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रूस का ईवान चतुर्थ तो तुगलक से भी एक कदम आगे निकला। उसने अपने परिवार, नौकरों-चाकरों, सैनिकों और खजाने के साथ अपनी राजधानी मास्को छोड़ दी, और एक बीहड़, सुनसान इलाके की ओर रवाना हो गया। कुछ दिनों बाद उसने वहां से संदेश भेजा कि राज्य की परिस्थितियों से दुखी होकर वह अपनी गद्दी का अधिकार छोड़ रहा है। सबको लगा कि वह गद्दी छोड़ रहा है। पर असल में वह देखना चाहता था कि उसके राज्य छोड़ने से कौन-कौन खुश होता है। पर उसकी यह चाल उसके मंत्री व अधिकारी समझ गये थे। वे सब मिल कर उसके पास गये और उससे प्रार्थना की कि वह राज-पाट ना छोड़े, क्योंकि वही एकमात्र इस लायक है, जो यह भार संभाल सके। इवान खुश हो गया और वापस आ गया। परन्तु आते ही उसने प्रार्थना करने वाले मंत्रियों के सर यह कह कर कटवा डाले कि वे राज्य भार कुछ समय तक संभालने में भी समर्थ नहीं हैं।
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हंगरी की कौन्टेस एलिजाबेथ बाथोरी अत्यंत रूपवती थी और चाहती थी कि उसका रूप सदा वैसा ही बना रहे। कुछ तांत्रिकों ने उसे विश्वास दिला दिया था कि यदि वह कुवांरी कन्याओं का रक्त पियेगी व उनके रक्त से स्नान करेगी तो उसका रूप-रंग कभी खत्म नहीं होगा। उसकी शादी एक अधिकारी से हुई थी। पर धीरे-धीरे उसने अपनी पहुंच शाही दरबार तक बना ली थी। वह एक तानाशाह किस्म की औरत थी। दरबार में प्राप्त अपनी शक्तियों का उसने खूब दुरुपयोग किया। कहा जाता है कि अपने पागलपन में उसने करीब 600 से अधिक कुंवारी लड़कियों का रक्त पिया और उनके रक्त से स्नान किया। लेकिन एक दिन उसके खून पीने का रहस्य खुल गया। उसको कठोर दंड दिया गया। जहां छिप कर वह खून पीती थी उसी जगह उसे कैद कर रखा गया। वहीं एक दिन उसकी मौत हो गयी।

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2008

कमजोर केन्द्र का नतीजा

वर्षों पहले, ताऊ ने भी अपना वर्चस्व बनाने के लिए ऐसी ही हरकत की थी। अपने भड़काउ भाषणों के द्वारा महाराष्ट्र की जनता को दो फाड़ कर वहां अपना एकाधिकार जमाने की। पर उस समय दिल्ली में एक मजबूत सरकार के हाथों में देश की बागडोर थी, एक निडर और दबंग महिला के नेतृत्व में। एक सिर्फ एक घुड़की मिली थी और तथाकथित शेर अपनी मांद में दुबक गया था। हिम्मत नहीं हुई थी कि कोई जवाब भी दे पाता। पर आज मामला बिल्कुल उल्टा है। कोई भी आता है आंख दिखा कर चला जाता है। सरकार को अपनी ही भसूड़ी पड़ी हुई है। अपने आप को बचाएं या देश को देखें। हिमाकत इतनी बढ़ गयी है, छुटभैइयों तक की, कि चोरी भी करते हैं फिर सीनाजोरी भी दिखाते हैं। महाराष्ट्र सरकार की तो छोड़ीए केन्द्र ही हिम्मत नहीं जुटा पा रहा कोई सख्त कदम उठाने का। एक कमजोर, हताश, हिचकोले खाते नेतृत्व से आशा करना भी बेवकूफी ही है।

यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे बिहार, यू.पी. के निवासियों के धैर्य और संयम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। इनकी चुप्पी इनकी कमजोरी नहीं समझदारी है। प्रभू से यही प्रार्थना है कि इनकी बनाए रखे और उनकी लौटा दे।

सोमवार, 20 अक्टूबर 2008

बिना शीर्षक के

ठंड़ के दिन थे। एक गिद्ध पहाड़ की चोटी पर बैठा गुनगुनी धूप का आनंद ले रहा था। इतने में उधर से यमराज गुजरे। वहां गिद्ध को बैठा देख उनकी भृकुटी में बल पड़ गये। उन्होंने कुछ कहा नहीं, बस अपने रस्ते चले गये। पर इधर गिद्ध महाराज के तो देवता ही कूच कर गये। सही भी था जिसको साक्षात यमराज ही टेढ़ी नज़र से देख गये हों, उसका तो भगवान ही मालिक है। गिद्ध बेचारा डर के मारे कांपे जा रहा था, उसे आज अपना अंत साफ दिखाई पड़ रहा था। इतने में उधर से नारद मुनि निकले। गिद्ध की ऐसी बुरी दशा देख उन्होंने उससे पूछा, गिद्ध राज, क्या हुआ ऐसे क्यूं कांप रहे हो। गिद्ध की तो आवाज ही नहीं निकल रही थी। बड़ी मुश्किल से उसने सारी बात नारद जी को बताई। नारद जी बोले तुम डरो मत। यमराज तो धर्मराज हैं, बिना बात वे किसी को भी दंडित नहीं करते। फिर भी तुम सुरक्षा की दृष्टि से यहां से सौ योजन दूर मलय पर्वत पर चले जाओ, वहां एक गुफा है, उसके अंदर जा कर बैठ जाना। मैं यमराज जी से तुम्हारे बारे में बात करता हूं।
इस तरह गिद्ध को सुरक्षित जगह भेज नारद जी यमराज जी के पास गये और उनसे पूछा, महाराज, उस बेचारे गिद्ध से क्या भूल हो गयी, जो आप उस पर क्रुद्ध हो गये। यमराज जी बोले, नहीं तो, मैं क्रोधित नहीं इस बात को लेकर आश्चर्यचकित था, कि उस गिद्ध की मौत तो सौ योजन दूर मलय पर्वत की गुफा में होनी है। वह यहां कैसे बैठा हुआ है।

रविवार, 19 अक्टूबर 2008

उसे अपनी माँ से विवाह करना पड़ा था, दुनिया की दर्दनाक कहानियों में से एक

कहते हैं कि विधि का लेख मिटाए नहीं मिटता। कितनों ने कितनी तरह की कोशीशें की पर हुआ वही जो निर्धारित था। राजा लायस और उसकी पत्नी जोकास्टा। इन्होंने भी प्रारब्ध को चुन्नौती दी थी, जिससे जन्म हुआ संसार की सबसे दर्दनाक कथा का।

यूनान में एक राज्य था थीबिज। इसके राजा लायस तथा रानी जोकास्टा के कोई संतान नहीं थी। कफी मिन्नतों और प्रार्थनाओं के बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई थी। पर खुशियां ज्यादा दिन नहीं टिक सकीं। एक भविष्यवक्ता ने भविष्वाणी की कि उनका पुत्र, पित्रहंता होगा और अपनी ही मां से विवाह करेगा। यह जान दोनो आतंकित हो गये और अपने नवजात शिशु के हाथ पैर बंधवा कर उसे सिथेरन पर्वत पर फिंकवा दिया। पर बच्चे की मृत्यु नहीं लिखी हुई थी। जिस आदमी को यह काम सौंपा गया था, वह यह अमानवीय कार्य ना कर सका। उसने पहाड़ पर शिशु को पड़ोसी राज्य, कोरिंथ, के चरवाहे को दे बच्चे की जान बचा दी। उस चरवाहे ने अपने राजा 
पोलिबस, जिसकी कोई संतान नहीं थी, को खुश करने के लिए बच्चे को उसे सौंप दिया। रस्सी से बंधे होने के कारण शिशु के पांव सूज कर कुछ टेढे हो गये थे, जिनको देख कर पोलिबस के मुंह से निकला “ईडिपस” याने सूजे पैरोंवाला और यही नाम पड़ गया बच्चे का।     

समय बीतता गया। ईडिपस जवान हो गया। होनी ने अपना रंग दिखाया। एक समारोह में एक अतिथी ने उसका यह कह कर मजाक उड़ाया कि वह कोई राजकुमार नहीं है। वह तो कहीं पड़ा मिला था। ईडिपस के मन में शक घर कर गया। एक दिन बिना किसी को बताए वह अपोलो के विश्वप्रसिद्ध भविष्य वक्ता से मिलने निकल पड़ा। मंदिर की पुजारिन ने उसे स्पष्ट उत्तर तो दिया नहीं पर एक चेतावनी जरूर दी कि वह अपने पिता की खोज ना करे नहीं तो वह तुम्हारे हाथों मारा जाएगा और तुम अपनी ही मां से शादी करोगे।

ईडिपस यह सुन बहुत डर गया। उसने निर्णय लिया कि वह वापस कोरिंथ नहीं जाएगा। जब इसी उधेड़बुन में वह चला जा रहा था उसी समय सामने से लेयस अपने रथ पर सवार हो उधर से गुजर रहा था। लेयस का अंगरक्षक रास्ते से सबको हटाता जा रहा था। ईडिपस के मार्ग ना देने पर, अंगरक्षक से उसकी तकरार हो गयी, जिससे खुद को अपमानित महसूस कर ईडिपस ने उसकी हत्या कर दी। यह देख लेयस ने क्रोधित हो उस पर वार कर दिया, लड़ाई में लेयस मारा गया। अनजाने में ही सही ईडिपस के हाथों उसके पिता की हत्या हो ही गयी। इसके बाद भटकते-भटकते वह थीबिज जा पहुंचा। वहां जाने पर उसे मालुम पड़ा कि वहां के राजा की मौत हो चुकी है। जिसका फायदा उठा कर स्फिंक्स नामक एक दैत्य वहां के लोगों को परेशान करता रहता है। उसने एक शर्त रखी हुई थी कि जब तक कोई मेरी पहेली का जवाब नहीं देगा तब तक मैं यहां से नहीं जाऊंगा। उसकी उपस्थिति का मतलब था मौत, अकाल और सूखा। राज्य की ओर से घोषणा की गयी थी कि इस मुसीबत से जो छुटकारा दिलवाएगा उसे ही यहां का राजा बना दिया जाएगा तथा उसीके साथ मृत राजा की रानी की शादी भी कर दी जाएगी। ईडिपस ने यह घोषणा सुनी, उसने वापस तो लौटना नहीं था, एक अलग राज्य पा जाने का अवसर मिलते देख उसने पहेली का उत्तर देने की इच्छा जाहिर कर दी। उसे स्फिंक्स के पास पहूंचा दिया गया। डरावना स्फिंक्स उसे घूर रहा था पर इसने बिना डरे उससे सवाल पूछने को कहा। स्फिंक्स ने पूछा कि वह कौन सा प्राणी है जो सुबह चार पैरों से चलता है, दोपहर में दो पैरों से और शाम को तीन पांवों पर चलता है और वह सबसे ज्यादा शक्तिशाली अपने कम पांवों के समय होता है। ईडिपस ने बिना हिचके जवाब दिया कि वह प्राणी इंसान है। जो अपने शैशव काल में चार पैरों पर, जवानी यानि दोपहर में दो पैरों पर और बुढ़ापे में लकड़ी की सहायता से यानी तीन पैरों से चलता है। इतना सुनना था कि स्फिंक्स वहां से गायब हो गया। थीबिज की जनता ने राहत की सांस ली। घोषणा के अनुसार ईडिपस को वहां का राजा बना दिया गया और रानी जोकास्टा से उसका विवाह कर दिया गया।

होनी का खेल चलता रहा। दिन बीतते गये। ईडिपस सफलता पूर्वक थीबिज पर राज्य करता रहा। प्रजा खुशहाल थी। पूरे राज्य में सुख-शांति व समृद्धि का वातावरण था। यद्यपि रानी जोकास्टा ईडिपस से उम्र में काफी बड़ी थी फिर भी दोनों में अगाध प्रेम था। इनकी चार संतानें हुयीं। बच्चे जब जवान हो गये तो समय ने विपरीत करवट ली। राज्य में महामारी फैल गयी। लोग कीड़े-मकोंड़ों की तरह मरने लगे। तभी देववाणी हुई कि इस सब का कारण राजा लेयस का हत्यारा है। दुखी व परेशान जनता अपने राजा के पास पहुंची। ईडिपस ने वादा किया कि वह शीघ्र ही लेयस के हत्यारे को खोज निकालेगा। उसने राज्य के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता टाइरसीज को आमंत्रित कर समस्या का निदान करने को कहा। टाइरसीज ने कहा, राजन कुछ चीजों का पता ना लगना ही अच्छा होता है। सच्चाई आप सह नहीं पायेंगें। पर ईडिपस ना माना उसने कहा प्रजा की भलाई के लिए मैं कुछ भी सहने को तैयार हूं । जब टाइरसीज फिर भी चुप रहा और ईडिपस के सारे निवेदन बेकार गये तो ईडिपस को गुस्सा आ गया और उसने टाइरसीज और उसकी विद्या को ही ठोंग करार दे दिया। इससे टाइरसीज भी आवेश में आ गया। उसने कहा कि आप सुनना ही चाहते हैं तो सुनें, आप ही राजा लेयस के हत्यारे हैं। वर्षों पहले आपने मार्ग ना छोड़ने के कारण जिसका वध किया था वही राजा लेयस आपके पिता थे। ईडैपस को सब याद आ गया। उसने चिंतित हो रानी से पूछ-ताछ की तो उसने विस्तार से अपनी बीती जिंदगी की सारी बातें बताईं कि राजा की मौत अपने ही बेटे के हाथों होनी थी। पर आप चिंता ना करें हमारा एक ही बेटा था जिसे राजा ने उसके पैदा होते ही मरवा दिया था। जोकास्टा ने ईडिपस को आश्वस्त करने के लिए उस आदमी को बुलवाया जिसे शिशु को मारने की जिम्मेदारी दी गयी थी। पर इस बार वह झूठ नहीं बोल पाया और उसने सारी बात सच-सच बता दी। रानी जोकास्टा सच जान पाप और शर्म से मर्माहत हो गयी। इतने कटु सत्य को वह सहन नहीं कर पायी। उसने उसी वक्त आत्महत्या कर ली। ईडिपस देर तक रानी जोकास्टा के शव पर यह कह कर रोता रहा कि तुमने तो अपने दुखों का अंत कर लिया, लेकिन मेरी सजा के लिए मौत भी कम है। उसी समय ईडिपस ने अपनी आंखें फोड़ लीं और महल से निकल गया। कुछ ही समय में उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया क्योंकि वह भी उसी पाप की उत्पत्ति था, जो भाग्यवश अनजाने में हो गया था।

शायद यह दुनिया की सबसे दर्दनाक कहानी है।

शनिवार, 18 अक्टूबर 2008

हंसाईयां

एक बार, एक नाई और एक जाट में बहस हो गयी। बतों-बातों में नाई ने कह दिया, जाट रे जाट तेरे सर पर खाट। जाट को इसका कोई उत्तर नहीं सूझा। वह चुप-चाप घर आ गया। रात भर वह सोचता रहा पर ऐसी कोई तुकबंदी उससे नहीं बन पायी। दूसरे दिन फिर दोनों का आमना-सामना हुआ। नाई जाट को देख व्यंग पूर्वक मुस्कुराने लगा तो जाट को ताव आ गया। उसने नाई से कहा, नाई रे नाई तेरे सर पर कोल्हू। नाई बोला, तुक नहीं मिला, तुक नहीं मिला। जाट ने जवाब दिया, तुक नहीं मिला तो क्या हुआ, खाट से भारी तो है।
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कूड़ा बिनने वाले संता और बंता को एक दिन कूडेदान में तीन बम मिल गये। आपस में सलाह कर वे बमों को थाने में जमा कराने चल पड़े। रास्ते में बंता ने पूछा कि यार इनमें से कोई फट गया तो?संता ने कुछ देर सोच कर जवाब दिया, कह देंगें कि दो ही मिले थे।
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पांच सितारा होटल में काम करते संता को कामचलाउ अंग्रेजी सिखाने के लिए बास ने उसे कोचिंग क्लास में भेजने का इंतजाम करवा दिया। एक महीने बाद उन्होंने अपने सहयोगियों को बताया कि कल मैंने संता की प्रोग्रेस की जानकारी के लिए उससे कहा कि अंग्रेजी की वर्णमाला सुनाओ, तो संता पूछने लगा कि सर बड़ी A B C D सुनाऊं या छोटी। यह सुन सारे जनों को हंसता देख बंता भी हंसने लगा। सारे जनों के जाने के बाद बंते ने बास से पूछा, सर फिर संते ने बड़ी A B C D सुनाई कि छोटी वाली।

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2008

'उपहार' जिसे लेने में अमेरीका हिचकता रहा

ऐसा ही हुआ था। अमेरीका अपनी स्वाधीनता की शताब्दी बड़े धूमधाम से मना रहा था। उनकी खुशी में खुद को शामिल करते हुए और अपनी मैत्री को मजबूत करने के लिए फ्रांस ने एक बेहतरीन तोहफा पेश करने की पेशकश की। परन्तु अमेरीका उसे स्वीकारने से हिचकिचाता रहा। कारण था उस तोहफे की स्थापना पर आनेवाला एक लाख डालर का खर्च। तोहफा था, स्वातंत्र्य प्रतिमा "Statue of Liberty"
इस प्रतिमा को फ्रांसीसी शिल्पकार फ्रैडरिक आगस्ट बार्थोल्डी ने बनाया था। इस पर लागत आयी थी करीब 2,50,000 डालर। जिसकी व्यवस्था फ्रांसीसी जनता ने स्वेच्छा से चंदा देकर की थी। फ्रांस ने इसके गढ़ने का खर्च उठाया था, पर इसकी स्थापना की जिम्मेदारी अमेरीकियों पर थी। न्यूयार्क के गवर्नर ने इस मैत्री प्रतीक को गले का फंदा ही कह दिया था। वहीं एक प्रमुख दैनिक ने इसे ऊल-जलूल रचना करार दिया तो एक दूसरे पत्र ने तो इसको बेच कर कुछ रकम कमाने की नसीहत ही दे डाली थी। अर्से तक यह प्रतिमा, जो आज अमेरीका का गौरव है, उपेक्षित सी पेरिस में ही पड़ी रही। लेकिन जोजेफ पुलित्जर ने, जो न्यूयार्क वर्ल्ड के प्रकाशक थे, इस कलात्मक प्रतिमा को अमेरीका लाने के उद्देश्य से एक कोष की स्थापना की, जिसमें देखते ही देखते लाखों डालर जमा हो गये। इसी बीच अमेरीकी कांग्रेस ने इसकी स्थापना के लिए बेडलोज टापू के उपयोग की स्वीकृति भी दे दी। जिसे सन 1960 में 'लिबर्टी आइलैंड' का नाम दिया गया।
सारी बाधाएं दूर होने पर May 1885 में, प्रतिमा को विखंडित कर, 214 बक्सों में बंद कर, इसेरो नामक जहाज में लाद कर बेडलोज टापू पर लाया गया और 4 जुलाई 1886 को अपने स्थान पर स्थापित कर दिया गया। 151 फीट ऊंची, तांबे की सवा तीन इंच मोटी चादर से बनी इस प्रतिमा का कुल वजन 4,50,000 पौंड है। इसकी दहिनी भुजा की लंबाई 42 फीट है, जो 29 फीट 2 इंच बड़ी मशाल थामे हुए है। इसके बायें हाथ में 23 फीट की एक चौकोर पट्टिका है, जिस पर 4 जुलाई 1886 अंकित है। अपने आधार स्तंभ, जिसकी ऊंचाई 149 फीट है, को लेकर इस प्रतिमा की कुल ऊंचाई 300 फीट है।
सन 1924 में इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया। आज इसे देखने के लिए दुनिया के कोने-कोने से भीड़ उमड़ती है और कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब बैट्री पार्क से यात्रियों को ले जाने वाले स्टीमर को कुछ आराम मिल पाता हो।

बुधवार, 15 अक्टूबर 2008

नोबेल फाउंडेशन ने ग्यारह बार अनदेखी की थी नेहरूजी की

यह तो सभी जानते हैं कि पुर्वाग्रहों के चलते, शांति पुरस्कार के लिए, नोबेल फाउंडेशन ने गांधीजी की अनदेखी की थी। बाद में नोबेल समिति ने अपनी भूल मान भी ली थी। हालांकि सारी कार्यवाही गोपनीय होती है। लेकिन अभी इस समिति ने 1901 से 1956 तक का पूरा ब्योरा सार्वजनिक किया है, जिससे पता चलता है कि इस फाउंडेशन ने भारत के पहले प्रधान मंत्री के नाम को भी गंभीरता से नहीं लिया। वह भी एक-दो बार नहीं, पूरे ग्यारह बार उनके नाम को खारिज किया गया।
1950 में नेहरुजी के नाम से दो प्रस्ताव भेजे गये थे। उन्हें अपनी गुटनिरपेक्ष विदेश नीति और अहिंसा के सिद्धांतो के पालन करने के कारण नामांकित किया गया था। पर उस समय राल्फ बुंचे को फिलीस्तीन में मध्यस्थता करने के उपलक्ष्य में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। 1951 में नेहरूजी को तीन नामांकन हासिल हुए थे। पर उस बार फ्रांसीसी ट्रेड यूनियन नेता लियोन जोहाक्स को चुन लिया गया था। 1953 में भी नेहरुजी का नाम बेल्जियम के सांसदों की ओर से प्रस्तावित किया गया था, लेकिन इस वर्ष यह पुरस्कार, द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिकी सेनाओं का नेतृत्व करनेवाले जार्ज सी. मार्शल के हक में चला गया। 1954 में फिर नेहरुजी को दो नामांकन प्राप्त हुए, पर फिर कहीं ना कहीं तकदीर आड़े आयी और इस बार यह पुरस्कार किसी इंसान को नहीं, बल्कि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय के पक्ष में चला गया। अंतिम बार नेहरुजी का नाम 1955 में भी प्रस्तावित किया गया था। परन्तु इस बार यह खिताब किसी को भी ना देकर इसकी राशि पुरस्कार संबंधी विशेष कोष में जमा कर दी गयी थी।
ऐसा तो नहीं था कि गोरे-काले का भेद भाव या फिर एक ऐसे देश, जो वर्षों गोरों का गुलाम रहा हो, का प्रतिनिधित्व करनेवाले इंसान को यह पुरस्कार देना उन्हें नागवार गुजरा हो।

सोमवार, 13 अक्टूबर 2008

हसने का कोई समय होता है क्या?

बंताजी ने अपने घर के ऊपर का हिस्सा एक फौजी को किराए पर दे दिया। फौजी ठहरा फौजी। रोज आधी रात को अपने भारी-भरकम जूतों के साथ धम-धम करता सीढ़ियां चढ़े, अपने कमरे में जा, अपने जूतों को खोल एक को इधर फेंके दूसरे को उधर, रात को भारी जूतों की आवाज से बंता परिवार परेशान। एक दिन हिम्मत कर बंताजी ने फौजी को कहा कि आप रात को अपने जूते फेंकें नहीं, आवाज से बच्चे डर जाते हैं। फौजी ने कहा कि आज से आवाज नहीं होगी, आप आराम से सोयें। रात को फौजी लौटा, कमरे में जा उसने एक जूता उतार कर फेंका तो उसे सबेरे की बात याद आ गयी। उसने दूसरा जूता धीरे से उतार कर रखा और सो गया। सबेरे उठ उसने बंताजी से पूछा, क्योंजी रात ठीक से नींद आई? बंताजी बोले कहांजी हम तो रात भर दूसरे जूते के गिरने का इंतजार करते रह गये।
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चर्च में पादरी शराब की बुराईयों को उदाहरण दे कर समझा रहा था, यदि शराब पैर से भी छू जाए तो नरक जाना पड़ता है। डेविड बताओ क्या समझे?फ़ादर, ऐसी चीज को जो पैर लगायेगा, वह नरक में जायेगा।
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संता गंभीर अपराध में पकड़ा गया। उसने वकील से कहा कि चाहे लाखों रुपये लग जायें, मुझे सजा नहीं होनी चाहिये। वकील ने सांत्वना दी, इतने रुपये रहते मैं सजा नहीं होने दूंगा। सचमुच संता के पास जबतक एक भी पैसा रहा, वकील ने सजा नहीं होने दी।

आस्था ने चमत्कार दिखाया

आज के मशीनी युग में आस्था, विश्वास, चमत्कार जैसी बातें दकियानुसी लगती हैं। पर कभी-कभी कुछ ऐसा हो जाता है, जिसे आस्थावान चमत्कार, पर भोतिकवादी संयोग कह कर संतुष्ट हो जाते हैं। बिना लाग-लपेट के एक सच्ची घटना बता रहा हूं। अब इसे चाहे संयोग माने चाहे आस्था का चमत्कार।
राजस्थान के मेंहदीपुर जिले में हनुमानजी के बाल रूप की पूजा “बालाजी महाराज” के रूप में होती है। मान्यता है कि दुनिया भर की अलाओं-बलाओं का निवारण यहां होता है। वह भी स्वयं बालाजी द्वारा। किसी पण्डे, पुजारी या झाड़-फूंक करनेवाले की कोई भूमिका यहां नहीं होती। हजारों मरीज ठीक हो कर जाते हैं यहां से, जिनमें डाक्टर, इंजिनियर, वकील, सरकारी अफसर, अमीर-गरीब सभी शामिल हैं।
यहां बिना टिप्पणी, एक घटना का जिक्र करना चाहता हूं। बात सात-आठ साल पहले दिल्ली की है। मेरी एक दूर के रिश्ते की मामीजी हैं, वह फरिदाबाद में रहती हैं। उनकी हनुमानजी में अटूट श्रद्धा है। बहुत कम लोगों में ऐसी आस्था देखी है मैंने। एक बार उन्हीं के जोर देने के कारण मुझे, मेंहदीपुर जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मैं, मेरे दो कजिन, मामीजी तथा उनका पुत्र, पांचो जने मंदिर की संगत के साथ, हनुमानजी के दर्शन करने वहां गये थे। वहां का दस्तूर है कि मंदिर पहुंचते ही सबसे पहले बालाजी की मुर्ती के सामने, जिसे दरबार कहते हैं, अपनी हाजिरी लगवानी होती है। उसी तरह लौटते समय उनकी इजाजत लेने का नियम है। इजाजत लेते समय प्रभू से प्रार्थना करनी पड़ती है कि वे अपना गण हमारे साथ भेजें ,जिससे हम सहीसलामत अपने घर वापस पहुंच सकें। हो सकता है कि वर्षों पहले जब वहां घना जंगल हुआ करता था, तो ऐसी प्रार्थना , यत्रियों को अतिरिक्त मनोबल प्रदान करती हो। अब तो सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं। बसों, गाड़ियों की भरमार है। फ़िर भी प्रथा चली आ रही है।
पूजा-अर्चना कर दूसरे दिन दोपहर बाद साढे तीन बजे हमने दिल्ली के लिए बस पकड़ी। जिसने करीब दस बजे हमें दिल्ली के, धौला कुआं बस टर्मिनल पर उतार दिया। यहां से हमें जनकपुरी जो मुश्किल से आठ-दस किमी है, जाना था और मामीजी को फरिदाबाद, जो दिल्ली यू.पी. के बार्डर पर स्थित है, जहां जाने के लिए उस समय उन्हें तीन बार वाहन बदलना पड़ना था। धौला कूआं से आश्रम, आश्रम से फरिदाबाद मोड़ तथा वहां से उनके घर तक। क्योंकि उस समय फरिदाबाद के लिए अंतिम बस जा चुकी थी। आम समय में ही उतनी दूर जाने में ड़ेढ एक घंटा लग जाता है। रात गहराते देख हमने बहुत जोर लगाया कि रात आप जनकपुरी में ही रुक जाएं, पर उन्होंने हमारी एक ना सुनी। उसी समय उन्हें पहले पड़ाव की बस मिली और वे दोनो मां बेटा उसमें चले गये। हमे करीब आधे घंटे के बाद बस मिली। हम तकरीबन सवा ग्यारह बजे घर पहुंच गये। अभी बैठे कुछ ही देर हुए थी कि फरिदाबद से मामीजी के घर पहुंचने का फोन आ गया। इतनी जल्दि उनके पहुंचने का सुन जहां मन चिंता मुक्त हुआ वहीं आश्चर्य से ही भर गया।
सुबह उन्होंने विस्तार से जो जानकारी दी वह मैं संक्षेप में आप को बता रहा हूं। धौला कूआं से जब वह आश्रम वाले स्टाप पर उतरीं तो वहां बिल्कुल सुनसान था। फरिदाबाद की तरफ़ जानेवाली बस के स्टाप पर भी कोई नहीं था। आंच मिनट बाद पता नहीं कहां से एक लड़का आया, हमें वहां खड़े देख, उसके पूछने पर, जब हमने अपनी बात बताई तो उसने कहा कि फरिदाबाद की बस तो जा चुकी है पर आप घबड़ायें नहीं कुछ ना कुछ इंतजाम हो जायेगा। थोड़ी देर बाद पता नहीं कहां से एक थ्री व्हिलर लेकर आया और बोला कि वैसे तो इन वाहनों का बार्डर पार करना मना है, पर आपको यह फरिदाबाद मोड़ तक छोड़ आयेगा। इसके पहले की उसे हम धन्यवाद के दो शब्द कह पाते, वह अंधेरे में गायब हो गया। रात को मन थोड़ा घबरा रहा था, पर मुझे अपने बालाजी पर पूर्ण विश्वास था, सो तनिक भी डर नहीं लग रहा था। स्कूटर ने जब हमें मोड़ पर उतारा, ग्यारह के ऊपर बज चुके थे और वहां भी सन्नाटा छाया हुआ था। उसी समय वहां से एक टेम्पो निकल रहा था, हमें खड़े देख हमारा गंत्व्य पूछ बोला, कि उधर तो नहीं जा रहा हूं, पर इतनी रात में आप परेशान होंगी सो आपको घर पहुंचा कर चला जाऊंगा। इसतरह बालाजी की कृपा से मैं आपलोगों के साथ-साथ ही घर पहुंच गयी।
अब सोचता हूं कि क्या वह सब संयोग था? उस भद्र महिला का कैसा अटूट विश्वास था, जिसने उनका मनोबल बनाये रखा? या सचमुच अदृष्य शक्तियां होती हैं जो अपने पर पूरी आस्था रखनेवालों का सदा साथ देती हैं। क्या कोई जवाब है इसका?

शनिवार, 11 अक्टूबर 2008

शिबु रिक्शेवाला

आजकल जब स्कूल जाते बच्चों को रिक्शे पर लदे हुए देखता हूं तो अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं। तब रिक्शे में लदा नहीं बैठा जाता था। हां यदि मां-बाप के साथ छोटे बच्चे होते थे तब तो एक ही रिक्शे से काम चल जाता था। परन्तु बड़े बच्चों के लिए अलग से रिक्शा किया जाता था। यही अघोषित परंपरा थी। शायद ही कभी दो की जगह तीन सवारियां किसी रिक्शे पर दिखाई पड़ती थीं। अपने वाहन बहुत कम होते थे। रिक्शों का चलन आम था। उन्हीं दिनों मैं और मेरा हम-उम्र सहपाठी मंजीत सिंह, दोनो करीब दस-ग्यारह साल के, एक रिक्शे में स्कूल जाया करते थे। स्कूल कोई सात-आठ किमी दूर था। स्कूलों में भी आजकल जैसी अफरातफरी का माहौल नहीं हुआ करता था। सही मायनों में शिक्षा देने की परंपरा अभी जीवित थी। गर्मियों में बच्चों का ध्यान रखते हुए स्कूल सुबह के हो जाते थे, सात से ग्यारह। बाकी महिनों में वही दस से चार का समय रहता था। स्कूल की तरह ही रिक्शेवाले भी वर्षों वर्ष एक ही रहते थे, लाने-ले-जाने के लिए। इससे बच्चे भी उन्हें परिवार का ही अंग समझने लगते थे। उनसे जिद्द, मनुहार आम बात होती थी। आपको बात बतानी थी, अपने रिक्शेवाले की। वह उड़िसा का रहनेवाला था, जितना याद पड़ता है, उम्र ज्यादा नहीं थी, कोई पच्चिस-छब्बीस साल का होगा। उसको सब शिबु कह कर पुकारते थे। नाम तो शायद उसका शिव रहा होगा, पर जैसा कि बंगला या उड़िया उच्चारणों में होता है, वह शिवो और शिवो से शिबु हो गया होगा। जैसा अब समझ में आता है। उसके हम पर स्नेह के कारण शायद उसका नाम मुझे अभी तक याद है। जैसा कि होता है, एक ही दिशा से स्कूल की तरफ कयी रिक्शा वाले अपनी-अपनी बच्चा सवारियों के साथ आते थे। कयी बार अपने रिक्शे से किसी और रिक्शे को आगे होते देख बाल सुलभ इर्ष्या के कारण हम शिबु को और तेज चलने के लिए उकसाते थे और इस तरह रोज ही ‘रेस-रेस खेल’ हो जाता था। स्कूल आने-जाने के दो रास्ते थे। एक प्रमुख सड़क से तथा दूसरा घुमावदार, कुछ लंबा। शिबु अक्सर हमें लंबे रास्ते से वापस लाया करता था। उस रास्ते पर एक बड़ा बाग हुआ करता था। बाग में एक खूब बड़ी फिसलन-पट्टी भी थी। हमारे हंसने-खेलने के लिए वह अक्सर वहां घंटे-आध-घंटे के लिए रुक जाता था। जब तक हम वहां धमा-चौकड़ी मचाते थे तब तक वह पीपल के पेड़ के पत्ते में पीपल का सफेद दूध इकट्ठा करता रहता था। एक-एक बूंद से अच्छा खासा द्रव्य इकट्ठा कर वह दोने को हमें पकड़ा देता था उसी के साथ पत्ते की नाल को मोड़ एक रिंग नुमा गोला भी थमा देता था। उसने हमें बताया हुआ था कि उस से बुलबुले कैसे बनाये जाते हैं। आजकल साबुन के घोल से जैसे बनाते हैं वैसे ही। उन दिनों यह सब सामान्य लगता था। पर आज के परिवेश को देखते हुए जब सोचता हूं तो अचंभा होता है। क्या जरूरत थी शिबु को सिर्फ हमारी खुशी के लिए लंबा चक्कर काटने की? अपना समय खराब कर धैर्य पूर्वक पीपल का रस इकट्ठा करने की? हमें हंसता खुश होता देखने की? हमारी खुशी के लिए अपना पसीना बहा रोज रेस लगाने की? खूद गीले होने की परवाह ना कर बरसातों में हमें भरसक सूखा रखने की? जबकी इसके बदले नाही उसे अलग से पैसा मिलता था नाही और कोई लाभ। कभी देर-सबेर की कोयी शिकायत नहीं। क्या ऐसी बात थी कि उसके रहते हमारे घरवालों को कभी हमारी चिंता नहीं रहती थी। शायद उसके इसी स्नेह से हम रोज स्कूल जाने के लिए भी उत्साहित रहते थे। आज वह पता नहीं कहां होगा। पर जहां भी होगा, खुश रह कर खुशियां बांट रहा होगा, क्योंकि दूसरों को खुश रखने वालों के पास दुख नहीं फटका करता।

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008

पौराणिक काल में यदि पशु-पक्षी संरक्षण जैसी कोई संस्था होती तो ?

दूसरी ओर बेचारे असुर पैदल, दौड़ते-भागते रह कर ही युद्ध लड़ने को मजबूर थे। उनमें कोई बड़ा ओहदेदार हुआ तो उसे स्वचालित रथ वगैरह मिल जाते थे। अब यदि आज जैसी कोई संस्था होती तो सारे पशु-पक्षियों को भार मुक्त कर दिया जाता ! लड़ाईयां बराबरी पर लड़ी जातीं । सभी जानते हैं कि अधिकतम बार असुर, सुरों पर भारी पड़ते रहते थे ! तब देवताओं की तो बोलती बंद होती और असुरों की तूती का शोर मचा होता। किस्से-कहानियां, कथाएं-ग्रंथ सब, प्रथानुसार विजेता का ही स्तुति गान करते और हम सब भी अपने उन्हीं पूर्वजों का गुण-गान कर गौरवान्वित होते रहते..........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
जरा सोचिए, यदि एनिमल वेलफेयर एसोसिएशन या पशु-पक्षी संरक्षण समिति जैसी संस्थाएं पौराणिक काल में ही अस्तित्व में आ जातीं तो इस संसार की तो छोड़िए हमारे देश का परिदृष्य कैसा होता ? हमारे दोनों महान ग्रंथों की कथाएं कैसी होतीं ? वे लिखे भी जा पाते या नहीं ? इनके लेखकों को अभिव्यक्ति की कितनी भी आजादी होती पर क्या वे स्वतंत्र रूप से कुछ रच भी पाते ? जरा सोचिए ! यदि ऐसा हो गया होता तो आज हम क्या पढ़ रहे होते ? पता नहीं पढ़ भी रहे होते कि नहीं !

रामायण काल की बात करें तो शायद आज हम राक्षसराज रावण की पूजा कर रहे होते। क्योंकि महर्षि वाल्मिकी हिरण जैसे मासूम जीव का वध करवा नहीं पाते ! जब हिरण वध के लिए राम आश्रम छोड़ते ही नहीं तो सीता हरण हो ही नहीं पाता ! और जब सीता हरण ही नहीं होता तो फिर युद्ध किस बात का ? यदि युद्ध का कोई और बहाना खोजा जाता तो रामजी  सेना कहाँ से लाते ? वानर, भालुओं की सेना तो बनने नहीं दी जाती। हनुमानजी किसी भी तरह साथ हो भी लेते तो उन बेचारे को तो तरह-तरह के आरोपों से परेशान कर दिया जाता ! सोच कर देखिए, उत्तरांचल के लोग संजीवनी के लिए द्रोणगिरी पर्वत हटाने के कारण उनसे आज तक खफा हैं। वैसा कुछ होता तो क्या होता ! लंका की अशोक वाटिका में हजारों पेड़-पौधों के तहस नहस करने का हिसाब साफ़ करने के लिए पता नहीं कितनी सफाई देनी पड़ती ! मान लीजिए यदि किसी भी तरह यदि सेना बन भी जाती तो सेतु-बंध के नाम पर सागर किनारे की पहाड़ियों के पत्थर सागर में डाल कर वहां की भूमि का समतलीकरण कर दिया गया ! हजारों-लाखों वृक्ष, पेड़ उखड़ने से वहाँ के पर्यावरण पर जो असर पड़ा, इतने सारे वृक्ष, पेड़, पौधे, पर्वत शिलाओं को सागर में फेंकने से जो प्रकृति का संतुलन बिगड़ा, उसका तो जांच आयोग के सामने जवाब देना मुश्किल हो जाता कि इसका जवाबदार कौन है ? क्या लगता है कि इन सब पचड़ों के बीच युद्ध हो पाता ? और अगर वह महासमर ना होता तो कल्पना की ही जा सकती है रावण के साम्राज्य की।
  
उधर यदि बात करें श्री कृष्ण जी की तो उन्होंने तो बचपन में ही अनगिनत खतरनाक लुप्तप्राय जीवों को दूसरे लोक भेजने में अहम् भूमिका निभाई थी। यदि उनको संरक्षण मिल गया होता तो आज हमारे यहां दानवी शक्तियों का ही बोल-बाला होता। हमारे धर्म-ग्रन्थों की तस्वीर तो कुछ अलग होती ही, शायद धरा पर असुरों का ही राज होता। क्योंकि सारे देवी-देवताओं ने अपने वाहनों के रूप में पशु-पक्षियों को ही प्रमुखता दे रखी है। तीनों महाशक्तियों को देखिए, शिवजी के परिवार में, बैल शंकरजी का वाहन है, मां पार्वती का वाहन सिंह है, कार्तिकेयजी मोर पर सवार हैं तो गणेशजी को चूहा पसंद है। विष्णुजी का भार गरुड़जी उठाते हैं तो मां लक्ष्मी की सवारी उल्लू है। ब्रह्माजी तथा मां सरस्वती हंस पर आते-जाते हैं। इंद्र को हाथी प्यारा है तो सूर्यदेव ने सात-सात घोड़े अपने रथ में जोड़ रखे हैं। कहां तक गिनायेंगे।

दूसरी ओर बेचारे असुर पैदल, दौड़ते-भागते रह कर ही युद्ध लड़ने को मजबूर थे। उनमें कोई बड़ा ओहदेदार हुआ तो उसे स्वचालित रथ वगैरह मिल जाते थे। अब यदि आज जैसी कोई संस्था होती तो सारे पशु-पक्षियों को भार मुक्त कर दिया जाता ! लड़ाईयां बराबरी पर लड़ी जातीं । सभी जानते हैं कि अधिकतम बार असुर, सुरों पर भारी पड़ते रहते थे ! तब देवताओं की तो बोलती बंद होती और असुरों की तूती का शोर मचा होता। किस्से-कहानियां, कथाएं-ग्रंथ सब, प्रथानुसार विजेता का ही स्तुति गान करते और हम सब भी अपने उन्हीं पूर्वजों का गुण-गान कर गौरवान्वित होते रहते ! 

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...