गुरुवार, 13 नवंबर 2008

तब तक 'आतंक' शब्दकोष से बाहर नहीं आया था

अभी कुछ ऐसा घटा कि जिंदगी का सीरियल, एकता कपूरीय स्टाईल में, एक झटके में तीस-पैंतीस साल पीछे जा कुछ घटनाएं याद दिला गया। आज के माहौल को देख तो विश्वास भी नहीं होता कि वैसे दिन भी थे कभी।
यात्रा विवरण ना देकर सिर्फ उस समय घटे दो वाकयों का ही जिक्र कर रहा हूं। हमारा परिवार, पिताजी, मां, मैं तथा मेरा छोटा भाई काश्मीर के लिए दिल्ली से चार्टड़ बस से जा रहे थे। दोपहर में लंच के लिए एक जगह रुकना हुआ। खाने के बाद हम सब बस में सवार हो गये और बस चल दी। अचानक मां को अपने पर्स के ना होने का पता चला। बस रुकी, इधर-उधर देखने के बाद बस लौटाई गयी। करीब बीस मिनटों के बाद हम फिर उसी रेस्तरां में थे। हमें तो बिल्कुल भी आशा नहीं थी, पर्स वापस मिलने की। क्योंकी सीजन के दिन थे। बहुत सारी बसें आती-जाती रहती थीं। पर वहां पहुंचते ही सुखद आश्चर्य हुआ जब वहां के मैनेजर ने हमें देखते ही पर्स सामने ला कर रख दिया। हमारे पास उसे कहने के लिए शब्द नहीं थे। हम कुछ कहें उसके पहले ही वह बोल उठा, सर, घबड़ाने की बात नहीं थी, यदि आप महीने के बाद भी आते तो भी आपकी चीज आपको सुरक्षित मिल जाती।

दूसरी घटना तीसरे दिन काश्मीर में घटी। हम सब ऐसे ही लाल चौक के बाजार में घूम रहे थे कि पीछे दूर से एक काश्मीरी युवक चिल्लाता हुआ हमें कुछ ईशारा करते दौड़ता आता दिखा। उस समय तक आतंक शब्द शब्दकोष से बाहर नहीं आया था, सो डर तो नहीं घबड़ाहट जरूर हुई थी नयी और अंजानी जगह में। वैसी स्थिति में हम ठिठक कर खड़े हो गये। वह युवक हांफता हुआ हमारे नजदीक आया और अपनी जेब से एक वालेट निकाल पिताजी को देते हुए अपनी भाषा में पता नहीं क्या-क्या बोलने लगा। उसके हाव-भाव से कुछ-कुछ अंदाजा लग रहा था कि वह हमें पर्स देना चाह रहा है, सो पिताजी ने एक उचाट नजर पर्स पर डाल मना कर दिया कि यह मेरा नहीं है। पर युवक मानने को तैयार ही नहीं था। तब पिताजी ने अपनी जेबों को हाथ लगाया तो उन्हें खाली पा पर्स को हाथ में ले देखा तो वह उन्हीं का था। सबके चेहरे पर संतोष झलकता देख युवक भी मुस्कुरा उठा। पिताजी ने उसकी पीठ थपथपा कर उसे गले लगा लिया। दोनों जने अपनी-अपनी भाषा में, ना समझते हुए भी कुछ न कुछ बोले जा रहे थे। फिर पिताजी ने उसे कुछ देना चाहा पर वह युवक नोट देख कर ही बिदक कर हंसते हुए भाग खड़ा हुआ। हम चित्रलिखित से उसकी पीठ देखते खड़े रह गये।

आज जब सौ-पचास रुपयों के लिए खून-खराबा होते सुनते, देखते हैं तो सहसा विश्वास ही नहीं होता कि हमारे साथ कुछ वैसा घटित हुआ था। पहाड़ों पर अभी भी कुछ हद तक सच्चाई, इमानदारी, भलमानसता, भगवान का डर बचा हुआ है। पर जैसे-जैसे मैदानों से लोग 'येन-केन-प्रकारेण' अपना डेरा-डंडा लेकर वहां स्थापित होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे मैदानों की धूल वहां की अच्छाईयों को ढ़कती जा रही है।

6 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

नीचे लिखा नोट तो चुनावी लगता है. :)

निश्चित ही आज भी इमानदारी बाकी है, मानवता बाकी है-उसी से दुनिया चल रही है. संस्मरण पढ़कर अच्छा लगा.

राज भाटिय़ा ने कहा…

लोग तो आज भी वेसे ही होगे, क्योकि आम जनता तो नही बदलती, चाहे वो मुसलमान हो या हिन्दु, लेकिन इस राजनीति ने यह गन्दगी फ़ेला दी है.
धन्यवाद

अभिषेक मिश्र ने कहा…

साफ़-स्वस्छ गंगा भी तो मैदानों में ही आ कर गन्दी हो जा रही है. फ़िर भी माहौल इतना कैसे बदल गया सोचने वाली बात है!

Smart Indian ने कहा…

सही कहा आपने. मैंने कुछ काल उस राज्य में बिताया है और वे मीठी यादें आज भी साथ हैं.

36solutions ने कहा…

बहुत सुखद स्‍मृति को बांटने के लिए धन्‍यवाद बडे भाई, इसी मानवता नें तो दुनियां को बचा के रखा है ।

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

har ek ko alag sa dikhna he chahiye. bheed ka hissa kyon bane
narayan narayan

विशिष्ट पोस्ट

ठेका, चाय की दुकान का

यह शै ऐसी है कि इसकी दुकान का नाम दूसरी आम दुकानों की तरह तो रखा नहीं जा सकता, इसलिए बड़े-बड़े अक्षरों में  ठेका देसी या अंग्रेजी शराब लिख उसक...