मंगलवार, 28 अगस्त 2012

ऐसे सबक हम क्यों नहीं लेना चाहते?



 ऐसा ही एक करीबी देश है जापान। जिसके लोगों की देश भक्ती, मेहनत, लगन तथा तरक्की का कोई सानी नहीं है। काश हम उससे कोई सबक ले पाते।  

 अभी कुछ दिनों पहले चर्चा थी कि दिल्ली की तर्ज पर छत्तीसगढ के सरकारी महकमों में भी पांच दिनों के सप्ताह में काम-काज होगा। इस बात पर क्या पक्ष, क्या विपक्ष, सभी सम्बंधित भाई लोगों ने बिना देर लगाए तुरंत एक मत से सहमति दे दी। पर जब उस दिन की भरपाई करने के लिए कार्यकारी समय को कुछ बढाने की बात आई तो सबको कुछ ना कुछ तकलीफ होनी शुरु हो गयी। ऐसा पहले भी पूरे देश में  बहुत बार देखा गया है, चाहे पक्ष-विपक्ष में ईंट कुत्ते का बैर हो पर लाभ लेने के समय सब एकजुटता के प्रतीक बन जाते हैं। 

हम दूसरों की नकल करने में भी पीछे नहीं रहते। और हमारा आदर्श है अमेरिका या योरोप के धनाढ्य देश। पर उतनी दूर ना जा कर काश कभी हम अपने अडोस-पडोस के देशों की खूबियों को भी देख पाते। ऐसा ही एक करीबी देश है जापान। जिसके लोगों की देश भक्ती, मेहनत, लगन तथा तरक्की का कोई सानी नहीं है। काश हम उससे कोई सबक ले पाते।  

बात है दूसरे विश्वयुद्ध की। जो लाया था जापान के लिए तबाही और सिर्फ़ तबाही। हिरोशिमा तथा नागासाकी जैसे शहर तबाह हो गये थे। सारे देश की व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। किसी भी संस्था के पास अपने कर्मचारियों के लिये पूरा काम न था। इसलिए एक निर्णय के तहत काम के घंटे 8 से घटा कर 6 कर दिए गये तथा साप्ताहिक अवकाश भी एक की जगह दो दिनों का कर दिया गया। नतीजा क्या हुआ: अगले दिन ही सारे कर्मचारी अपनी बांहों पर काली पट्टी लगा काम पर हाजिर हो गये। ऐसा विरोध ना देखा गया ना सुना गया। उनकी मांगें थीं कि देश पर विप्पतियों का पहाड टूट पडा है तो हम घर मे कैसे बैठ सकते हैं। इस दुर्दशा को दूर करने के लिए काम के घंटे घटाने की बजाय बढा कर दस घंटे तथा छुट्टीयां पूरी तरह समाप्त कर दी जाएं। हम सब को मिल कर अपने देश को फिर सर्वोच्च बनाना है। यही भावना है जिससे आज फिर जापान गर्व से सिर उठा कर खड़ा है। 

और हम ??? 

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

रहिमन जिह्वा बावरी कहिगै सरग पाताल


आज जब देश का एक बहुत बडा तबका रोज-रोज की मंहगाई से त्रस्त हो किसी तरह दो जून की रोटी की जुगाड में लगा हुआ है, सारा देश इस बला से जूझ रहा है, ऐसे में एक जिम्मेदार मंत्री का मंहगाई के पक्ष में बयान आना आम जन के जले पर नमक छिडकने के समान है। लगता है कि सत्ता मिलने पर जब धन और बल का इफरात मात्रा में जुगाड होने लगता है तो दिमाग और जबान का संतुलन बिगडना शुरु हो जाता है। 

पिछले दिनों महंगाई को लेकर केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने फरमाया  है कि खाद्यानों, दाल और सब्जियों के दाम बढ़ने से उन्हें खुशी होती है, क्योंकि इससे किसानों को फायदा होता है उनकी इस बेतुकी  दलील से तो प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह भी सहमत नहीं लगते क्योंकि  15 अगस्त के अपने भाषण में प्रधान मंत्री बढती मंहगाई पर भी  चिंता जता चुके हैं।  महंगाई विश्व-व्यापी है इसे तुरंत खत्म नहीं किया  जा सकता। मगर इस तरह के बयान देकर इस मुद्दे की गंभीरता को खत्म करने और लोगों का ध्यान बटाने के ओछे प्रयास पता नहीं कैसे दिमागों की उपज हैं।  कभी कोई गरीबी की रेखा का तमाशा बनाता है, तो कभी कोई महंगाई का। यदि मंहगाई से इतना ही फायदा होता है तो माननीय मंत्री महोदय बताएंगे कि किसान आत्महत्या करने पर क्यों मजबूर हो रहे हैं? यदि क्षणांश के लिए मान भी लिया जाए की कुछ किसानों को  ज़रा सा फ़ायदा हो भी गया हो तो बाकी अधनंगे , फटेहाल गरीबों-मजदूरों का क्या? इसका क्या जवाब है भले आदमी के पास?  ऐसे लोगों की क्या इंसानों में गिनती नही होती? या फिर उन्हें भूख नहीं सताती?  

यह बात भी  किसी से छिपी नहीं है कि मंहगाई के साथ-साथ खेती की लागत भी लगातार बढ़ती जा रही है और इसमे काम आने वाली  जिंसों की बढी हुई कीमतें किसानों को कोई लाभ नहीं पहुंचा पाती। फिर  हाड तोड मेहनत से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं की कमाई का बडा हिस्सा तो बिचौलियों के हवाले हो जाता है। ऐसे में वर्मा जी का बयान सरकार और जनता दोनों की परेशानी ही बढ़ाने वाला है। विडंबना तो यह है कि इस तरह के अनर्गल बयान के बाद अफसोस जताना तो दूर, बेनी बाबू ने अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी का नाम आगे कर एक नई बहस छेड़ दी है । लगता है अपने बयान रूपी बांस को उल्टे बरेली जाते देख अपने बचाव के लिए चापलूसी का रास्ता अख्तियार कर लेने में ही  भलाई नज़र आई होगी। 

बुधवार, 15 अगस्त 2012

लो, मन गया एक और राष्ट्रीय पर्व

वर्षों तक लोग स्वंय-स्फुर्त हो घरों से निकल आते थे, पूरे साल जैसे इस दिन का इंतजार रहता था। अब लोग इससे जुडे समारोहों में खुद नहीं आते उन्हें बरबस वहां लाया जाता है। दुःख होता है यह देख कर कि  अब इस पर्व को मनाया नहीं बस किसी तरह  निपटाया जाता है।

15 अगस्त, वह पावन दिवस जब 65 साल पहले देशवासियों ने एकजुट हो आजादी पाई थी। कितनी खुशी, उत्साह और उमंग थी तब। वर्षों तक लोग स्वंय-स्फुर्त हो घरों से निकल आते थे, पूरे साल जैसे इस दिन का इंतजार रहता था। पर धीरे-धीरे आदर्श, चरित्र, देश प्रेम की भावना का छरण होने के साथ-साथ यह पर्व महज एक अवकाश दिवस के रूप मे परिवर्तित होने पर मजबूर हो गया। इस कारण और इसी के साथ आम जनता का अपने तथाकथित नेताओं से भी मोह भंग होता चला गया।

अब लोग इससे जुडे समारोहों में खुद नहीं आते उन्हें बरबस वहां लाया जाता है। अब इस पर्व को मनाया नहीं निपटाया जाता है। आज हाल यह है कि संस्थाओं में, दफ्तरों में और किसी दिन जाओ न जाओ आज जाना बहुत जरूरी होता है, अपने-आप को देश-भक्त सिद्ध करने के लिए। खासकर विद्यालयों, महाविद्यालयों में जा कर देखें, पाएंगे मन मार कर आए हुए लोगों का जमावड़ा, कागज का तिरंगा थामे बच्चों को भेड़-बकरियों की तरह घेर-घार कर संभाल रही शिक्षिकाएं, साल में दो-तीन बार निकलती गांधीजी की तस्वीर, नियत समय के बाद आ अपनी अहमियत जताते खास लोग। फिर मशीनी तौर पर सब कुछ जैसा होता आ रहा है वैसा ही निपटता चला जाना। झंडोत्तोलन, वंदन, वितरण, फिर दो शब्दों के लिए चार वक्ता, जिनमे से तीन आँग्ल भाषा का उपयोग कर उपस्थित जन-समूह को धन्य करते हैं और लो हो गया सब का फ़र्ज पूरा। कमोबेश यही हाल सब जगह हैं। 

आजादी के शुरु के वर्षों में सारे भारतवासियों में एक जोश था, उमंग थी, जुनून था। प्रभात फ़ेरियां, जनसेवा के कार्य और देश-भक्ति की भावना लोगों में कूट-कूट कर भरी हुई थी। चरित्रवान, ओजस्वी, देश के लिए कुछ कर गुजरने वाले नेताओं से लोगों को प्रेरणा मिलती थी।  यह परंपरा कुछ वर्षों तक तो चली फिर धीरे-धीरे सारी बातें गौण होती चली गयीं। अब वह भावना, वह उत्साह कहीं नही दिखता। लोग नौकरी के ड़र से या और किसी मजबूरी से, गलियाते हुए, खानापूर्ती के लिए इन समारोहों में सम्मिलित होते हैं। ऐसे दिन, वे चाहे गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस स्कूल के बच्चों तक सिमट कर रह गये हैं या फिर हम पुराने रेकार्डों को धो-पौंछ कर, निशानी के तौर पर कुछ घंटों के लिए बजा अपने फ़र्ज की इतिश्री कर लेते हैं। क्या करें जब चारों ओर हताशा, निराशा, वैमनस्य, खून-खराबा, भ्रष्टाचार इस कदर हावी हों तो यह भी कहने में संकोच होता है कि आईए हम सब मिल कर बेहतर भारत के लिए कोई संकल्प लें। फिर भी प्रकृति के नियमानुसार कि जो आरंभ होता है वह खत्म भी होता है तो एक बेहतर समय की आस में सबको इस दिवस की ढेरों शुभकामनाएं।
क्योंकि आखिर इस दिवस ने किसी का क्या बिगाड़ा है, इसने तो हमें भरपूर खुश होने का मौका दिया ही है।


मंगलवार, 14 अगस्त 2012

माँ-बाप के मन में छुपा डर


 बदलते समय, बदलती मान्यताओं, सफलता लिए अंधाधुन्ध दौड़, रिश्तों  में आती ठंडक से  बुढाते, समय के साथ अक्षम होते माँ-बाप के मन के किसी कोने में  कोई डर तो नहीं घर कर रहा ?  

मेरे बच्चे जब तुम हमें एक दिन बूढा और कमज़ोर देखोगे, तब संयम रखना और हमें समझने की कोशिश करना।
अगर हम से खाना खाते वक्त कपड़े गंदे हो जाएं, अगर हम खुद कपड़े न पहन सकें तो जरा याद करना जब बचपन में तुम हमारे हाथ से खाते और कपड़े पहनते थे।
अगर हम तुमसे बात करते वक्त एक ही बात बार बार दोहराएं तो गुस्सा खाकर हमें मत टोकना, धैर्य से हमें सुनना, याद करना, कैसे बचपन में कोई कहानी या लोरी तब तक तुम्हे सुनाते थे जब तक तुम सो नहीं जाते थे।
अगर कभी किसी कारणवश हम न नहाना चाहें तो हमें गंदगी या आलस का हवाला देते हुए मत झिड़कना, क्योंकि यह उम्र का तकाजा होगा। याद करना बचपन में तु्म नहाने से बचने के लिए कितने बहाने बनाते थे और हमें तुम्हारे पीछे भागते रहना पड़ता था।
अगर आज हमें कंप्यूटर या आधुनिक उपकरण चलाने नहीं आते तो हम पर झल्लाना नहीं नाहीं शर्मिंदा होना, समझना कि इन नयी चीजों से हम वाकिफ नहीं हैं और याद करना कि तुम्हे कैसे एक-एक अक्षर हाथ पकड-पकड कर सिखाया था।
अगर हम कोई बात करते करते कुछ भूल जाएं तो हमें याद करने के लिए मौका देना, हम याद न कर पाएं तो खीझना मत। हमारे लिए बात से ज़्यादा अहम है बस तुम्हारे साथ होना और ये अहसास कि तुम हमें सुन रहे हो समझ रहे हो।
अगर हम कभी कुछ न खाना चाहें तो जबरदस्ती मत करना, हम जानते हैं कि हमें कब खाना है और कब नहीं खाना।
अगर चलते हुए हमारी टांगे थक जाएं और लाठी के बिना हम चल न सकें तो अपना हाथ आगे बढ़ाना, ठीक वैसे ही जब तुम पहली बार चलना सीखते वक्त लड़खड़ाए थे और हमने तुम्हे थामा था।

एक दिन तुम महसूस करोगे कि हमने अपनी गलतियों के बावजूद तुम्हारे लिए सदा सर्वेश्रेष्ठ ही सोचा, उसे मुमकिन बनाने की हर संभव कोशिश की। हमारे पास आने पर क्रोध, शर्म या दुख की भावना मन में कभी मत लाना, हमे समझने और वैसे ही मदद करने की कोशिश करना जैसे कि तुम्हारे बचपन में हम किया करते थे।
हमे अपनी बाकी की ज़िंदगी प्यार और गरिमा से जीने के लिए तुम्हारे साथ की जरूरत है। हमारा साथ दो, हम भी तुम्हे मुस्कुराहट और असीम प्यार से जवाब देंगे, जो हमारे दिल में तुम्हारे लिए हमेशा से रहा है।
बच्चे, हम तुमसे प्यार करते हैं।

पापा-मम्मी

सोमवार, 6 अगस्त 2012

प्रकृति को नमस्कार है

कभी किसी पहाड, समुद्र, रेगिस्तान या बीहड वनों में सूर्योदय  या सूर्यास्त  देखें। उन्मुक्त विचरते जीव-जंतुओं को निहारें, कल-कल करती नदियों, ऊंचाई से गिरते झरनों का संगीत सुनें। हजारों तरह के फल-फूल, लता-कंद प्रदान करने वाली धरती, जीवन दाई शीतल-मंद-सुगंध वाले समीर को महसूस करें. घुलमिल जाने दें अपने आप को उसमें.  अपने  अस्तित्व को भूला  उसके आँचल में समा जाने दें अपने-आप को, तब उसकी विशालता और अपनी   छुद्रता का एहसास हो पाएगा । प्रकृति एक अजूबा है। इसमें इतने गूढ रहस्य समाए हैं कि उनको खोजने में सदियों का समय भी कम पड सकता है।  

दुनिया के हर देश, हर कोने में कहीं ना कहीं इसने अपनी धरोहर सजा के रखी हुई हैं। ऐसी ही एक अनोखी झील है बर्मा में। जहां साल के एक दिन सूर्य के विशिष्ट कोण से निकली रश्मियों, झील के जल,  साथ की चट्टानों और उस पर की लता-गुल्म-झाड़ियों से एक अद्भुत, आश्चर्यचकित कर देने वाला दृष्य आकार लेता है। जिसे देख कर सहसा उस महाशक्ति को नमन करने को मजबूर होना पडता है। बहुत बार यह नज़ारा प्रदर्शित हो चुका है पर बहुतों ने अभी इसे देखा नहीं है, इसलिए एक बार फिर - 

सर घुमा कर देखने पर यह  अद्भुत करिश्मा सामने आता है.  प्रकृति को नमस्कार है . इसे बचाने में सदा 
सहयोग करते रहें. यह बची रहेगी तभी हमारा जीवन भी सुरक्षित रह पाएगा. इसके सहारे हम हैं,  हमारे सहारे यह नहीं.    
   

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक. रक्षा-बंधन



 इस पर्व ने जात-पात, धर्म-अधर्म, ऊंच-नीच से सदा अपने को अलग रखा। इसीलिए आज भी यह उतने ही उत्साह, प्रेम, स्नेह से याद रखा जाता है और  अनेकानेक झंझावतों के बावजूद मनता चला आ रहा है। 

रक्षा-बंधन यानि राखी का त्योहार। भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक। एक दूसरे की सुरक्षा तथा मंगलकामना की अदीन इच्छा का गवाह। हमारे ग्रंथों में भी इससे संबंधित ढेरों कथाएं मिलती हैं।

देवासुर संग्राम वर्षों से चल रहा था। कोई भी पक्ष हार मानने को तैयार नहीं था। पर धीरे-धीरे देवताओं की  शक्ति क्षीण होती चली जा रही थी। देवराज इंद्र चिंतातुर रहने लगे थे। ऐसा देख इंद्राणी ने यज्ञ-पूजन कर मंत्र-पूरित रक्षा-सूत्र  उनकी कलाई में बांधा था। देवताओं की विजय हुई थी। वही शायद पहला रक्षा-बंधन  था।

कहते हैं मृत्यु के देवता यम और उनकी बहन यमुना में अगाध स्नेह था। पर कार्य की अधिकता के कारण यम को बहन से मिलने का समय नहीं मिल पाता था। तब यमुना ने उनसे वचन लिया था कि साल में एक बार चाहे वे कहीं भी हों उससे मिलने जरूर आएंगे। यम उस वचन को निभाते चले आ रहे हैं। और वह दिन है सावन की पूर्णिमा  का यानि आज का।

महाभारत के दौरान श्री कृष्ण जी की ऊंगली में चोट लगने से द्रौपदी ने अपने वसन से कपडा फाड उनकी चोट पर बांधा था। तभी श्री कृष्ण ने उन्हें अभय का वरदान दिया था। 

यह सिर्फ भाई का बहन को रक्षा का आश्वासन देने का प्रतीक ही नहीं है। इसका अर्थ और भी व्यापक रूप में है। समय गवाह रहा है कि पेडों को बचाने के लिए लोगों ने उन्हें भी रक्षा-सूत्र  बांधा है। पुरोहित अपने यजमान को राखी बांध उसकी कुशलता की कामना करता है। सभासद और मंत्री दल अपने राजा को राखी बांधते रहे हैं।  

ऐसी ही अनेक घटनाएं एवं कथाएं इस पवित्र और स्नेहिल त्योहार से जुडी हुई हैं, चाहे वह सिकंदर की बात हो या फिर हुमायूं की। इस पर्व ने जात-पात, धर्म-अधर्म, ऊंच-नीच से सदा अपने को अलग रखा है । इसीलिए आज भी यह उतने ही उत्साह, प्रेम, स्नेह से याद रखा जाता है और ऐसी ही अनेकों कहानियों, विश्वासों, श्रद्धाओं के साथ, अनेकानेक झंझावतों के बावजूद मनता चला आ रहा है। 

सभी भाई-बहनों को रक्षा-बंधन की ढेरों शुभकामनाएं।

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