गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

प्रश्नवाचक चिह्न (?) कहाँ से आया

जब बिल्ली किसी खोज में, जिज्ञासा में या अंचभित सी अवस्था में होती है तो उसकी पूंछ प्रश्नवाचक चिह्न जैसा आकार ले लेती है। कहते हैं कि उसी से प्रेरित हो कर यह चिह्न अस्तित्व में आया .........     

किसी भी भाषा के लेखन में शब्दों के मायाजाल का संसार तो जरुरी है ही पर उसके साथ-साथ अल्प विराम, पूर्ण विराम,  प्रश्न चिह्न, विस्मयादिबोधक चिह्न का उचित प्रयोग भी अत्यंत आवश्यक होता है। इन छोट-छोटे चिह्नों के न होने से   न शब्द ही अपना जादू बिखेर पाते हैं नही पढने वाला कुछ ढंग से ग्रहण कर पाता है। इसीलिए आवश्यकतानुसार ये चिह्न अस्तित्व में आते गए और लेखन की सुंदरता में इजाफा होता गया। अब जैसे प्रश्नवाचक चिह्न को ही लें, इसके बिना वाक्य के अर्थ का अनर्थ हो जाना तय है। यह एक ऐसा चिह्न है जिसे संसार भर में मान्यता मिली हुई है। पर इसके अस्तित्व में आने को लेकर कई तरह की भ्रांतियां भी हैं। जिसमें एक तो बड़ी ही रोचक है, इसके अनुसार यह चिह्न बिल्ली की पूंछ से प्रेरित हो बनाया गया है। जब बिल्ली किसी खोज में, जिज्ञासा में या अंचभित सी अवस्था में होती है तो उसकी पूंछ प्रश्नवाचक चिह्न जैसा आकार ले लेती है। कहते हैं कि उसी से प्रेरित हो कर यह चिह्न अस्तित्व में आया। पता नहीं वे लोग सांप के फन से क्यों नहीं प्रेरित हुए !     


एक और धारणा के अनुसार इस चिह्न की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द quaestio से हुई है।  जिसका अर्थ प्रश्न होता है। जो समय के साथ बदलते-बदलते qo हो गया और फिर इसे और आसानी से लिखने की वजह से एक अक्षर में ढाल कर आज जैसा रूप मिल गया।  


पर सबसे सटीक धारणा भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार यह है कि इंग्लैण्ड के यॉर्क के निवासी अलक़ुइन, जिसने ढेरों किताबें लिखी थीं और जिसे आगे चल कर संत की उपाधि भी मिली, द्वारा इस चिह्न की ईजाद की गयी थी। उस समय किताबों में सिर्फ "डॉट" का प्रयोग विराम चिह्न के रूप में किया जाता था जो कि पुस्तक का पूरा प्रभाव देने में असहाय सिद्ध होता था। अलक़ुइन ने उसमें थोड़ा सुधार कर उसके ऊपर एक टेढ़ी से आकृति बना दी, जो ऐसी लगती थी जैसे आकाश से बिजली गिर रही हो। वर्षों बाद जब विराम चिह्नों को व्यवस्थित किया गया तो अलक़ुइन के इस चिह्न को थोड़ा सुधार  कर प्रश्नवाचक चिह्न के रूप में मान्यता दे दी गयी। इसे इतना पसंद किया गया कि अरबी लिपि में भी, जो दाएं से बांए लिखी जाती है, इसे स्थान प्राप्त हो गया। ऐसी मान्यता है कि इससे मिलते-जुलते चिह्न का सर्वप्रथम उपयोग सीरियक भाषा में किया गया था। इक्कसवीं सदी आते-आते यह करोड़ों-अरबों लोगों का पसंदीदा चिह्न बन गया।      

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

यह है देश का सबसे पुराना रेलवे स्टेशन

रोयापुरम, तब 
भारत में पहली बार रेल 16 अप्रैल 1853 के दिन चली थी। इसके बाद धीरे-धीरे इसे अपनी सुविधा के अनुसार अंग्रेजों ने देश भर में इसका विस्तार किया। इसके साथ ही रेलवे स्टेशनों की भी आवश्यकता महसूस होनी ही थी। सो उनका भी निर्माण शुरू हो गया। उस समय उन्हें बड़े भव्य रूप में बनाया जाता था, जिसके फलस्वरूप आज हमारे पास हावड़ा, शिवाजी टर्मिनस तथा चेन्नई सेन्ट्रल जैसे विशाल तथा कलात्मक स्टेशन मौजूद हैं। पर सबसे पुराने यानी पहले स्टेशन को, जो अभी भी कार्यरत हो, खोजा जाए तो रोयापुरम स्टेशन का नाम सामने आता है, (बंबई और थाणे के स्टेशन अब काम में नहीं लिए जाते हैं) इसे दक्षिण भारत के पहले रेलवे स्टेशन होने का गौरव भी प्राप्त है।

रोयापुरम, अब 

यह चेन्नई-अराकोणम सेक्शन में स्थित है। इसका निर्माण 28 जून 1856 में संपन्न हुआ था। कुछ ही दिनों बाद 1 जुलाई 1856 से यहां से गाड़ियों का चलना भी आंरभ हो गया था। शुरू में यहां से दो गाड़ियां चलाई गयीं जो रोयापुरम से अम्बुर और तिरुवल्लुर के लिए चलती थीं।  एग्मोर स्थान्तरित होने के पहले 1922 तक यह मद्रास और महराठा रेलवे का हेड ऑफिस भी रहा। रख-रखाव के अभाव में इसका अधिकाँश भाग खंडहर में बदल गया था जिसका जीर्णोद्धार 2005 में जा कर संभव हो पाया। आज देश के 800 स्मारकों की धरोहर में इसका भी स्थान है।      

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

आम का नाम लंगडा क्यों ?

फिर एक बार फलों के राजा आम का मौसम आ गया है। सैंकड़ों प्रजातियों के साथ दुनिया में बहुतायद में उगाया जाने वाला फल। इसीलिए शायद इसका नाम आम पड़ा हो। पर सुगंध, मिठास, स्वाद तथा अपने दैवीय रस के कारण ख़ास मुकाम हासिल कर फ़लों का राजा कहलाता है। क्या बच्चा क्या बूढ़ा, क्या युवक क्या जवान, शायद ही कोई ऐसा हो जो इसे पसंद न करता हो। तरह-तरह के नाम हैं इसके - हापुस, अल्फांसो, चौसा, हिमसागर, सिंदुरी, सफ़ेदा, गुलाबखास, दशहरी इत्यादि-इत्यादि, प्रत्येक की अपनी सुगंध, अपना स्वाद। हरेक अपने आप में लाजवाब। पर बनारस का एक कलमी आम सब पर भारी पडता है। यह खुद जितना स्वादिष्ट होता है उतना ही अजीब नाम है इसका #लंगडाआम। यह आमों का सरताज है। इसका राज फ़ैला हुआ है बनारस के रामनगर के इलाके में। इसका नाम ऐसा क्यों पडा इसकी भी एक कहानी है। 

बनारस के राम नगर के शिव मंदिर में एक सरल चित्त पुजारी पूsoरी श्रद्धा-भक्ती से शिवजी की पूजा अर्चना किया करते थे। एक दिन कहीं से घूमते हुये एक साधू महाराज वहां पहुंचे और कुछ दिन मंदिर मे रुकने की इच्छा प्रगट की। पूजारी ने सहर्ष उनके रुकने की व्यवस्था कर दी। साधू महराज के पास आम के दो पौधे थे जिन्हें उन्होंने
मंदिर के प्रांगण में रोप दिया। उनकी देख-रेख में पौधे बड़े होने लगे और समयानुसार उनमें मंजरी लगी जिसे साधू महराज ने शिवजी को अर्पित कर दिया। रमता साधू शायद इसी दिन के इंतजार मे था, उन्होंने पुजारीजी से अपने प्रस्थान की मंशा जाहिर की और उन्हें हिदायत दी कि इन पौधों की तुम पुत्रवत रक्षा करना, इनके फ़लों को पहले प्रभू को अर्पण कर फ़िर फ़ल के टुकडे कर प्रसाद के रूप में वितरण करना, पर ध्यान रहे किसी को भी साबुत फ़ल, इसकी कलम या टहनी अन्यत्र लगाने को नहीं देनी है। पुजारी से वचन ले साधू महाराज रवाना हो गये। समय के साथ पौधे वृक्ष बने उनमें फ़लों की भरमार होने लगी। जो कोई भी उस फ़ल को चखता वह और पाने के लिये लालायित हो उठता पर पुजारी किसी भी दवाब में न आ साधू महाराज के निर्देशानुसार कार्य करते रहे। फ़लों की शोहरत काशी नरेश तक भी पहुंची, उन्होंने प्रसाद चखा और उसके दैवी स्वाद से अभिभूत रह गये। उन्होंने पुजारी को आम की कलम अपने माली को देने का आदेश दिया। पुजारीजी धर्मसंकट मे पड गये। उन्होंने दूसरे दिन खुद दरबार में हाजिर होने की आज्ञा मांगी।सारा दिन वह परेशान रहे। रात को उन्हें आभास हुआ जैसे खुद शंकर भगवान उन्हें कह रहे हों कि काशी नरेश हमारे ही प्रतिनिधी हैं उनकी इच्छा का सम्मान करो। दूसरे दिन पुजारीजी ने टोकरा भर आम राजा को भेंट किये। उनकी आज्ञानुसार माली ने उन फ़लों की अनेक कलमें लगायीं। जिससे धीरे-धीरे वहं आमों का बाग बन गया। आज वही बाग बनारस हिंदु विश्वविद्यालय को घेरे हुये है। यह तो हुई आम की उत्पत्ती की कहानी। अब इसके अजीबोगरीब नाम की बात। 

शिव मंदिर के पुजारीजी के पैरों में तकलीफ़ रहा करती थी, जिससे वह लंगडा कर चला करते थे। इसलिये उन आमों को लंगडे बाबा के आमों के नाम से जाना जाता था। समय के साथ-साथ बाबा शब्द हटता चला गया और आम की यह जाति लंगडा आम के नाम से विश्व-विख्यात होती चली गयी।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

गुड फ्राईडे यानी होली फ्राईडे

आज सुबह-सुबह  एक बडी अजीब सा वाकया हुआ। गुड फ्रायडे की छुट्टी थी। एक सज्जन का फोन आ गया। छूटते ही बोले, सर हैप्पी गुडफ्राईडे । मुझसे कुछ बोलते नहीं बना पडा, पर फिर धीरे से कहा भाई कहा तो गुड फ्राईडे  ही जाता है, लेकिन है यह एक  दुखद दिवस। इसी दिन ईसा मसीह को मृत्यु दंड दिया गया था। किसी क्रिश्चियन  दोस्त को बधाई मत दे बैठना।

वैसे यह सवाल बच्चों को तो क्या बड़ों को भी उलझन में डाल  देता है की जब इस दिन इतनी दुखद घटना घटी थी तो इसे "गुड" क्यों कहा जाता है?  ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें सिर्फ छुट्टी या मौज-मस्ती से मतलब होता है, उन्हें उस दिन विशेष के इतिहास या उसकी प्रासंगिकता से कोई मतलब नहीं होता। बहुतेरे लोगों से इस दिन के बारे में पूछने पर इक्के-दुक्के को छोड कोई ठीक जवाब नहीं दे पाता, उल्टा उनका भी यही प्रश्न था कि फिर इसे गुड क्यों कहा जाता है।


प्रार्थना-रत लोग 
इसका यही उत्तर है कि यहां  "गुड" का अर्थ "HOLY" यानी पावन के अर्थ में लिया जाता है. क्योंकि  इस दिन यीशु ने सच्चाई का साथ देने और लोगों की भलाई के लिए, पापों में डूबी मानव जाति की मुक्ति के लिए उसमें सत्य, अहिंसा, त्याग और प्रेम की भावना जगाने के लिए अपने  प्राण त्यागे थे।  उनके अनुयायी उपवास रख पूरे दिन प्रार्थना करते हैं और यीशु को दी गई यातनाओं को याद कर उनके वचनों पर अमल करने का संकल्प लेते हैं।

वैसे भी शुक्रवार का दिन बाइबिल में अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं से जुडा हुआ है जैसे उसके अनुसार सृष्टि पर पहले मानव का जन्म शुक्रवार को हुआ। प्रभु की आज्ञाओं का उल्लंघन करने पर आदम व हव्वा को शुक्रवार के दिन ही अदन से बाहर निकाला गया। ईसा शुक्रवार को ही गिरफ्तार हुए, जैतून पर्वत पर अंतिम प्रार्थना प्रभु ने शुक्रवार को ही की और उन पर मुकदमा भी शुक्रवार के दिन ही चलाया गया।              

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