शनिवार, 30 मार्च 2013

अब्राहम लिंकन ने गीता शायद ही पढी होगी,


पर क्या हर इंसान इतना मजबूत बन सकता है?   शायद हां।   इसी  "हां"  को समझाने के लिए भगवान ने इस धरा पर गीता का संदेश दिया था। क्योंकि वे जानते थे कि इस "हां"  से आम-जन को परिचित करवाने के लिए, उसकी क्षमता को सामने लाने के लिए उसे मार्गदर्शन की जरूरत पड़ेगी।


अब्राहम लिंकन ने गीता तो नहीं पढी होगी पर उनका जीवन पूरी तरह एक कर्म-योगी का ही रहा। वर्षों-वर्ष असफलताओं के थपेड़े खाने के बावजूद वह इंसान अपने कर्म-पथ से नहीं हटा।  अंत में तकदीर को ही झुकना पड़ा उसके सामने।

अब्राहम लिंकन 28-30 सालों तक लगातार असफल होते रहे। जिस काम में हाथ ड़ाला वहीं असफलता हाथ आई। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। लोगों के लिए मिसाल पेश की और असफलता को कभी भी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। लगे रहे अपने कर्म को पूरा करने में, जिसका फल भी मिला। दुनिया के सर्वोच्च पद के रूप में। 

उनकी असफलताओं पर नज़र डालें तो हैरानी होती है कि कैसे उन्होंने तनाव को अपने पर हावी नहीं होने दिया होगा। 20-22 साल की आयु में घर की आर्थिक स्थिति संभालने के लिए उन्होंने व्यापार करने की सोची, पर कुछ ही समय में घाटे के कारण सब कुछ बंद करना पड़ा। कुछ दिन इधर-उधर हाथ-पैर मारने के बाद फिर एक बार अपना कारोबार शुरु किया पर फिर असफलता का मुंह देखना पडा।  26 साल की उम्र में जिसे चाहते थे और विवाह करने जा रहे थे, उसी लड़की की मौत हो गयी। इससे उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। पर फिर उन्होंने अपने आप को संभाला और स्पीकर के पद के लिए चुनाव लड़ा पर वहां भी हार का सामना करना पड़ा। 31 साल की उम्र में फिर चुनाव में हार ने पीछा नहीं छोड़ा। 34 साल में कांग्रेस से चुनाव जीतने पर खुशी की एक झलक मिली पर वह भी अगले चुनाव में हार की गमी में बदल गयी।

46 वर्षीय लिंकन ने हार नहीं मानी पर हार भी कहां उनका पीछा छोड़ रही थी फिर सिनेट के चुनाव में पराजय ने अपनी माला उनके गले में डाल दी। अगले साल उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए खड़े हुए पर हार का भूत पीछे लगा ही रहा। अगले दो सालों में फिर सिनेट पद की जोर आजमाईश में सफलता दूर खड़ी मुस्काती रही। पर कब तक भगवान परीक्षा लेता रहता, कब तक असफलता मुंह चिढाती रहती, कब तक जीत आंख-मिचौनी खेलती। दृढ प्रतिज्ञ लिंकन के भाग्य ने पलटा खाया और 51 वर्ष की उम्र में उन्हें राष्ट्रपति के पद के लिए चुन लिया गया। ऐसा नहीं था कि वह वहां चैन की सांस ले पाते हों वहां भी लोग उनकी बुराईयां करते थे। वहां भी उनकी आलोचना होती थी। पर लिंकन ने तनाव-मुक्त रहना सीख लिया था। उन्होंने कहा था कि कोई भी व्यक्ति इतना अच्छा नहीं होता कि वह राष्ट्रपति बने, परंतु किसी ना किसी को तो राष्ट्रपति बनना ही होता है।

तो यह तो लिंकन ही थे जो इतनी असफलताओं का भार उठा सके। पर क्या हर इंसान इतना मजबूत बन सकता है?   शायद हां।   इसी  "हां"  को समझाने के लिए भगवान ने इस धरा पर गीता का संदेश दिया था। क्योंकि वे जानते थे कि इस "हां"  से आम-जन को परिचित करवाने के लिए, उसकी क्षमता को सामने लाने के लिए उसे मार्गदर्शन की जरूरत पड़ेगी।


गुरुवार, 28 मार्च 2013

लौटना गब्बर का फिर रामगढ़

वह तो हफ्ते दस दिन में मंदिर, गुरुद्वारे के लंगर से चार-पांच दिन का बटोर लाता हूँ तो ज़िंदा हूं, तुमसे तो वह भी नहीं होगा. हमारे विगत को जानते हुए कोइ हमारा स्मार्ट कार्ड या आधार कार्ड भी नहीं बनाएगा. तुमने जो किया है उससे बुढापे की पेंशन भी मिलने से रही। इसलिए पर्वों-त्योहारों खासकर होली को तो  भूल ही  जाओ जिसने हमारी यह गत बना दी थी

रामगढ़ की एतिहासिक लड़ाई के बाद सब कुछ मटियामेट हो चुका था. ना  डाकुओं का दबदबा रहा, ना वो हुंकार, आदमी ही ना रहे तो गिनती क्या पूछनी. ले दे कर सिर्फ सांभा बचा था, वह भी चट्टान के ऊपर किसी तरह छिपा रह गया था, इसलिए। 

वर्षों बाद जेल काट तथा बुढापा ओढ़ गब्बर वापस आया था रामगढ़। मन में एक आशा थी कि शायद छूटा हुआ  लूट का माल हासिल हो ही जाए. पर वह भौंचक था यहाँ आ कर। बीते सालों में रामगढ़ खुशहाल हो चुका था. अब वहाँ तांगे नहीं तिपहिया और टैंपो चलने लग गए थे. सड़कें भी पक्की हो गयीं थीन. बिजली आ चुकी थी. लालाटेंने इतिहास बन चुकी थीं। बीरू-बसंती के प्यार को विवाह के गठबंधन में बदलने में सहयोगी उस समय की बिना पाइप की पानी की टंकी में अब पाइप और पानी दोनों उपलब्ध हो गए थे. पुलिस का थाना बन गया था. एक डिग्री कालेज भी खुल गया था जिससे किसी अहमद को अपनी जान पर खेल शहर जा पढाई नहीं करनी पड़ती थी. और यह सब ठाकुर के वहाँ से चुनाव जीतने का नतीजा था. 

बात हो रही थी गब्बर के लौटने की, समय की मार अपने समय के आतंक गब्बर को आज कोइ पहचानने वाला ही नहीं था. एक्के-दुक्के लोगों ने तो भिखारी समझ उसके हाथ में एक-दो रुपये तक पकड़ा दिए थे। उसने उनको भी अपनी खैनी की पोटली के साथ अपनी कमीज की जेब में ठूंस लिया। उसे तो एक ही चिंता सता रही थी कि पुलिया, जिसे जय ने उड़ा दिया था, के बगैर वह खाई कैसे पार करेगा। पर कमजोर होती आँखों के बावजूद उसे उस सूखे नाले पर एक पक्का मजबूत पुल दिखाई पड़ गया, दिल जल उठा गब्बर का, यह पुल उस समय होता तो..................... खैर धीरे-धीरे चल वह अपने पुराने अड्डे के पास पहुंचा तो वहाँ का नक्शा भी कुछ-कुछ बदला हुआ मिला. लोगों ने प्लाट काट-काट कर घर बनाने की तैयारियां कर रखी थीं। फिलहाल वक्त आशिकों ने उस महफूज जगह को अपना आशियाना बना डाला था। एक्का-दुक्का जोड़े तो इस भरी दुपहरिया में भी चट्टानों के पीछे दुबके नजर आ रहे थे। गब्बर जिसके नाम से पचास-पचास कोस दूर रोते बच्चे दर कर चुप हो जाते थे उसी गब्बर की नाक के नीचे आज के छोकरे प्रेम का राग अलाप रहे थे. 

थका-हारा, लस्त-पस्त गब्बर वहीं एक पत्थर पर बैठ जेब से खैनी निकाल हाथ पर रगड़ रहा था तभी उसे एक चट्टान के पीछे से एक सिर नमूदार होते दिखा। माथे पर हाथ रख आँखे मिचमिचा कर ध्यान से देखा तो खुशी से चीख उठा "अरे सांभा!!!" उधर सांभा जो और भी  सूख कर बेंत की तरह हो चुका था, अपने उस्ताद को सामने पा एक साथ परेशान, चितित और चिढ गया. कारण भी था, वह अपने पेट को भरने का इंतजाम तो ठीक से कर नहीं पाता था, ऊपर से यह आ गया था. पर किया भी क्या जा सकता था। मन मार कर, गुस्सा दबा कुशल-क्षेम पूछी फिर सबेरे मांग कर लाई रोटियों में से चार उसके सामने एक प्याज के साथ रख दीं। भूखे गब्बर ने झट से उनका सफाया कर डाला। किसी तरह शाम ढली, रात बीती, सुबह हुई। आदतानुसार गब्बर ने ऐसे ही पूछ लिया "होली कब है, कब है होली" .इतना सुनते ही सांभा के तनबदन में आग लग गयी ऐसा लगा जैसे नेपोलियन को किसी ने वाटरलू याद दिला दिया हो। वह तो इसके आने से वैसे ही परेशान हो रात भर सो नहीं पाया था, ऊपर से फिर वही सवाल. वह फूट पडा, उस्ताद होली, दिवाली सब भूल जाओ. मंहगाई का कोइ इल्म है तुम्हें? अपनी टेंट में दो दाने दाल और पाँव भर आटा खरीदने को भी कुछ नहीं है। यहाँ ना कुछ खाने को है ना पकाने को।  इधर जो लौंडे-लफाडिए आते हैं एक दो बार उन्हें डरा - धमका कर कुछ एंठने की कोशिश की तो उलटा वे मुझे ही हड़का गये। वह तो हफ्ते दस दिन में मंदिर, गुरुद्वारे के लंगर से चार-पांच दिन का बटोर लाता हूँ तो ज़िंदा हूं, तुमसे तो वह भी नहीं होगा. हमारे विगत को जानते हुए कोइ हमारा स्मार्ट कार्ड या आधार कार्ड भी नहीं बनाएगा. तुमने जो किया है उससे बुढापे की पेंशन भी मिलने से रही। इसलिए पर्वों-त्योहारों खासकर होली को तो  भूल ही  जाओ जिसने हमारी यह गत बना दी थी, और यह सोचो कि  आज खाओगे क्या और कैसे ?

इतनी डांट तो गब्बर ने अपनी पूरी जिन्दगी में भी कभी नहीं खाई थी। वह सांभा जो उसके डर के मारे कभी पहाडी से नीचे नहीं उतरता था आज उसे  नसीहत दे रहा था.  सब समय का फेर है। पर यह भी सच है कि तभी से  गब्बर सब भूल-भाल कर अब सिर्फ भोजन जुगाड़  चिंतन  में जुटा हुआ है. 







            

मंगलवार, 26 मार्च 2013

पुल का नाम एक गिलहरी पर

यहाँ गिलहरी की एक छोटी सी समाधी मजदूरों ने पुल की मुंड़ेर पर बना दी थी, इसीलिए इस पुल का नाम गिलहरी का पुल पड़ गया। आस-पास के लोग कभी-कभी इस पर दिया-बत्ती कर जाते हैं।


 हजारोँ-हजार साल पहले, रामायण काल में जब राम जी की सेना लंका पर चढ़ाई के लिए सेतु बना रही थी, तब कहते हैं की एक छोटी सी गिलहरी ने भी अपनी तरफ से जितना बन पडा था योगदान कर प्रभू का स्नेह प्राप्त किया था। शायद उस गिलहरी की  वंश परंपरा अभी तक चली आ रही है। क्योंकि फिर उसी देश में, फिर एक गिलहरी , फिर एक पुल के निर्माण में सक्रीय रही। प्यार भी उसे भरपूर मिला पर अफ़सोस जिन्दगी नहीं मिल पाई।  
     
अंग्रेजों के जमाने की बात है। दिल्ली – कलकत्ता मार्ग पर इटावा शहर के नौरंगाबाद इलाके के एक नाले पर पुल बन रहा था। सैकड़ों मजदूरों के साथ-साथ बहुत सारे सर्वेक्षक, ओवरसियर, इंजिनीयर तथा सुपरवाईजर अपने-अपने काम पर जुटे कड़ी मेहनत कर रहे थे। इसी सब के बीच पता नहीं कहां से एक गिलहरी वहां आ गयी और मजदुरों के कलेवे से गिरे अन्न-कणों को अपना भोजन बनाने लगी। शुरु-शुरु में तो वह काफी ड़री-ड़री और सावधान रहती थी, जरा सा भी किसी के पास आने या आवाज होने पर तुरंत भाग जाती थी, पर धीरे-धीरे वह वहां के वातावरण से हिलमिल गयी। अब वह काम में लगे मजदुरों के पास दौड़ती घूमती रहने लगी। उसकी हरकतों और तरह-तरह की आवाजों से काम करने वालों का तनाव दूर हो मनोरंजन भी होने लगा। वे भी काम की एकरसता से आने वाली सुस्ती से मुक्त हो काम करने लगे। फिर वह दिन भी आ गया जब पुल बन कर तैयार हो गया। उस दिन उससे जुड़े सारे लोग बहुत खुश थे। तभी एक महिला मजदूर सावित्री की नजर पुल की मुंडेर  पर निश्चेष्ट पड़ी उस गिलहरी पर पड़ी, जिसने महिनों उन सब का दिल बहलाया था। उसे हिला-ड़ुला कर देखा गया पर उस नन्हें जीव के प्राण पखेरु उड़ चुके थे। यह विड़ंबना ही थी कि जिस दिन पुल बन कर तैयार हुआ उसी दिन उस गिलहरी ने अपने प्राण त्याग दिये। उपस्थित सारे लोग उदासी से घिर गये। कुछ मजदुरों ने वहीं उस गिलहरी की समाधी बना दी। जो आज भी देखी जा सकती है।

यह छोटी सी समाधी पुल की मुंड़ेर पर बनी हुई है, इसीलिए इस पुल का नाम गिलहरी का पुल पड़ गया। आस-पास के लोग कभी-कभी इस पर दिया-बत्ती कर जाते हैं।

रविवार, 17 मार्च 2013

कुछ बातों की कल्पना भी मुश्किल होती है !!!


बचपन मे एक कहानी पढी थी। एक किसान के घर एक नेवला था जो बिल्कुल घर के सदस्य की तरह था। किसान दम्पति भी उसे अपने बेटे की तरह रखते थे। एक बार किसान की पत्नी अपने नवजात शिशु को नेवले की निगरानी  में छोड पानी लेने बाहर चली जाती है। इसी बीच घर में एक विषैला सांप आ जाता है पर इसके पहले कि वह बच्चे को कोई हानि पहुंचा पाता नेवले ने अपनी जान पर खेल उसे मार डाला। फिर अपनी मालकिन को आता देख वह दौडता हुआ उसके पैरों में लोटने लगता है पर महिला उसके मुंह में लगे सांप के खून को अपने बच्चे का रक्त समझ पानी का घडा उस पर पटक उसे मार डालती है।

कहानी पढ नेवले के प्रति सहानुभुति तो जागती ही है पर उस महिला की बाकि जिंदगी कैसे पश्चाताप की अग्नि में जल कर बीती होगी, कैसे चुपचाप तडपती होगी अपराध बोध से, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। 

वैसी ही एक कहानी फिर नजरों के सामने से गुजरी। गुजरात के महान लेखक श्री केशुभाई देसाई की कहानी “धारिया”। पति की मृत्यु के पश्चात भीषण गरीबी की हालत में मेहनत-मजदूरी कर मां अपने एकलौते बेटे को पढाती है। उच्च शिक्षा के लिए शहर भेजती है। लडका वहीं रह कर अपनी मां के सपनों को पूरा करने की कोशिश करता है। समय बीतता है। एक बार वह छुट्टियों में घर आता है। संयोगवश उसकी नजर मां के उभरते पेडू पर पड जाती है। दिमाग में शक का राक्षस घर बनाता है और वह गडांसे से मां का सर धड से अलग कर पुलिस में आत्मसमर्पण कर देता है। पोस्ट-मार्टम की रिपोर्ट से पता चलता है कि मां को गर्भ नहीं, पेट का कैंसर था। बेटे को बडा आदमी बनने में कोई बाधा ना आये, उसकी पढाई ना छूटे इसलिए वह पैसे बचाने के लिए अपनी जान को दांव पर लगा, बिमारी का ईलाज नहीं करवाती,  पर !!!!! 

बेटा क्या जी पाएगा? क्या होगा इस घोर अपराध का प्रायश्चित? क्या होगा उस जिंदा लाश का?

शनिवार, 16 मार्च 2013

साईयाँ भी जाको रख लेता है, उसका .........


भारत दास वैष्णव।
हमारे संस्थान में कार्यरत एक सज्जन। प्रभू की गाय। ज्यादातर "फिजिकली प्रेजेंट, माइंडली एबसेंट" अपने में मग्न। संस्थान में तो सभी के कृपापात्र हैं। पर अभी दो-तीन दिन पहले ही पता चला कि उपरवाला भी उन पर खास मेहरबान है (तभी तो पहलवान हैं) इसके साथ ही यह भी सत्य सामने आया कि कहावतें यूँही नहीं बनी उनके पीछे भी ठोस कारण हुआ करते थे। जैसे बंगाली भाषा में एक कहावत है कि  "जिस दिन तकदीर खराब हो उस दिन यदि ऊंट पर भी बैठे हों तो कुत्ता काट लेगा।"  
  
हुआ यह कि अपने भारत दास जी (भरत नहीं) अपने में खोये, मग्न चले जाते हुए सडक विभाजक पर बिना देखे-सुने सायकल समेत दूसरी तरफ अवतरित हो गये। उधर से एक युवक जो बैठा तो अपनी बाइक पर था पर सवार हवा पर था, आंधी की तरह उड़ा आ रहा था।  इन्हें अचानक सामने पा ब्रेक लगाने की गलती कर बैठा, फलस्वरुप वह कहीं गया उसकी गाडी कहीं गयी। गनीमत रही कि उसका रंग ही रतनारा हुआ, कोई अंग भंग नहीं हुआ अलबत्ता उसके कपडे जरूर "डिजायनर और हवादार" हो गये। पर बात यहीं ख़त्म नहीं हुई, उस दिन तो उसका राहू, शनि पर सवार था। वह अभागा  पीछे एक पुलिस की गाडी को "ओवरटेक" कर भागा आ रहा था। उसके गिरने पर पीछे आती पुलिस कर्मियों को मौका मिला, उसे धर दबोचा और दो-चार  हाथ लगा दिए।

इधर इतना सब होने के बावजूद जिसके कारण यह सब हुआ वह भारत दास जी "ओह, ओह, बेचारा" कहते हुए निरपेक्ष भाव से अपने रास्ते चल दिए। उन्हें पता ही नहीं चला कि वह आज प्रभू कृपा से चोट-ग्रस्त होने से बाल-बाल तो बचे ही, पिटने से भी बच गये हैं। 



शुक्रवार, 8 मार्च 2013

पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता?

कब तक मुगालते में रहोगी? अरे, अब तो जागो, आधा विश्व  हो तुम !!!  

क्या सचमुच पुरुष केंद्रित समाज महिलाओं को दिल से बराबरी का हकदार मानता है? वैसे ऐसे समाज, जो खुद आबादी का आधा ही हिस्सा है उसे किसने हक दिया महिलाओं के लिए साल में एक दिन निश्चित करने का? आज जरूरत है सोच बदलने की। इस तरह की मानसिकता की जड पर प्रहार करने की। सबसे बडी बात महिलाओं को खुद अपना हक हासिल करने की चाह पैदा करने की। यह इतना आसान नहीं है, हजारों सालों की मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोडने के लिए अद्मय, दुर्धष संकल्प और जीवट की जरूरत है। उन प्रलोभनों को ठुकराने के हौसले की जरूरत है जो आए दिन पुरुष उन्हें परोस कर अपना मतलब साधते रहते हैं।

 यह क्या पुरुषों की ही सोच नहीं है कि महिलाओं को लुभाने के लिए साल में एक दिन, आठ मार्च, महिला दिवस जैसा नामकरण कर उनको समर्पित कर दिया है। कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों? क्या वे कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है? यदि ऐसा नहीं है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता? पर सभी खुश हैं। विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं।

आश्चर्य होता है, दुनिया के आधे हिस्से के हिस्सेदारों के लिए, उन्हें बचाने के लिए, उन्हें पहचान देने के लिए, उनके हक की याद दिलाने के लिए, उन्हें जागरूक बनाने के लिए, उन्हें उन्हींका अस्तित्व बोध कराने के लिए एक दिन, 365 दिनों में सिर्फ एक दिन निश्चित किया गया है। इस दिन वे तथाकथित समाज सेविकाएं भी कुछ ज्यादा मुखर हो जाती हैं, मीडिया में कवरेज इत्यादि पाने के लिए, जो खुद किसी महिला का सरेआम हक मार कर बैठी होती हैं। पर समाज ने, समाज में  उन्हें इतना चौंधिया दिया होता है कि वे अपने कर्मों के अंधेरे को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं। दोष उनका भी नहीं होता, आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। फिर उपर से विडंबना यह कि वह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगे। जरूरत है महिलाओं को अपनी शक्ति को आंकने की. अपने बल को पहचानने की, अपनी क्षमता को पूरी तौर से उपयोग में लाने की। अपने सोए हुए जमीर को जगाने की।
कब तक मुगालते में रहोगी? अरे, अब तो जागो, आधा विश्व  हो तुम !!!  

बुधवार, 6 मार्च 2013

नियामत हैं आँखे, सम्भाल कर रखें

आंखें, इंसान को सौंदर्यबोध कराने के लिए प्रकृतिप्रदत्त एक अजूबा अंग। सोच के ही सिहरन होती है कि यदि ये ना होतीं तो दुनिया कितनी बेनूर होती। पर जब यह अनमोल चीज हमारे पास है तो हम इसकी कीमत ना जान इसकी उपेक्षा करते रहते हैं।       

आज प्रदूषण, कम्प्यूटर, टी.वी., सेलफोन, धूल-मिट्टी, तनाव और भी ना जाने क्या-क्या, यह सब धीरे-धीरे हमारी आंखों के दुश्मन बनते चले जा रहे हैं। पहले जरा से साफ पानी के छीटों से ही ये अपने आप को दुरुस्त रख
लेती थीं। पर लगातार इनकी अनदेखी अब इन पर भारी पड़ने लगी है। काम में मशगूल हो, "जंक फूड़" खा, विपरीत परिस्थितियों में देर तक काम कर लोग अंधत्व को न्यौता देने लग गये हैं। लगातार कम्प्यूटर आदि पर काम करने से आंखों के गोलकों पर भारी दवाब पड़ता है जिससे छोटी-छोटी नाजुक शिरायें क्षतिग्रस्त हो जाती हैं इससे खून का दौरा बाधित हो नुक्सान पहुंचाता है और मजे की बात यह कि इतना सब घट रहा होता है पर हमें इसका पता भी  नहीं चलता। आज के व्यस्तता पूर्ण समय में हम  काम में ड़ूब कर पलकें झपकाना ही भूल जाते हैं जो की आंखों की बिमारी का एक बड़ा कारण है। इससे आंखों में सूखापन बढ जाता है जो इनकी सफाई और तरलता बनाए रखने में बाधा उत्पन्न करता है। डाक्टरों के अनुसार रोज कम से कम 15 मिनट का आंखों का व्यायाम और थोड़ी सी देख-भाल कर इन्हें छोटी-मोटी बिमारियों से दूर रखा जा सकता है। उम्र के साथ-साथ सफेद मोतीया उतरना एक  आम बात है, जिसका इलाज आजकल बहुत आसान भी हो गया है। पर     ग्लौकोमा   जिसे आम भाषा में काला मोतिया कहा जाता है वह अभी भी आंखों का सबसे बडा दुश्मन है। गुप-चुप रूप में बढने वाला यह रोग बच्चों को भी हो सकता है।  
 
आंखों के अंदर एक तरल पदार्थ का निर्माण व निकास लगातार होता रहता है। यह प्रक्रिया आखों में  एक निश्चित दबाव बनाए रखती है, पर जब किसी कारणवश इस तरल पदार्थ के निकास में अवरोध उत्पन्न होता है तो आखों का दवाब  बढ़ जाता है जिससे ऑप्टिक नर्व को स्थायी नुकसान पहुँच सकता है। ऑप्टिक नर्व के कारण ही हम किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने में सक्षम हो पाते हैं। आखों के दबाव के बढ़ने के कारण ऑप्टिक नर्व के क्षीण होने को ही  ग्लौकोमा या काला मोतिया कहा जाता है। यह रोग आखों की रोशनी को पूर्णतया समाप्त कर सकता है और अंधापन ला सकता है। इसकी रोक-थाम शुरुआती दौर में हो सकती है पर इसका पता ज्यादातर तभी चलता है जब काफी हानि हो चुकी होती है और आँख  दृष्टिविहीन हो चुकी होती है। इसकी भयावता का पता इसी से लगाया जा सकता है कि खुद डाक्टरों तक को खुद  के इससे पीडित होने का भी  पता नहीं चल पाता। वैसे आखों में लाली, अत्यधिक पीड़ा, सिरदर्द, उल्टी आना, रोशनी में अचानक कमी या रंगीन
गोले दिखना आदि  ग्लौकोमा  की गंभीर स्थिति के लक्षण हैं। इसलिए ऐसे लक्षणों के दिखते ही या फिर 45 की उम्र पार
करने के बाद नियमित रूप से आखों की जांच करवाते रहना चाहिए। अगर चश्मे का नम्बर बार-बार बदल रहा हो, रात में अंधेरे में देखने में दिक्कत हो रही हो, जब सीधे देखने पर आखों के किनारे से न दिखायी दे रहा हो, आखों और सिर में दर्द रहता हो तो इन बातों को  नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। 

वैसे भी आंखों की कुछ देख-भाल खुद भी करते रहना चाहिए। कंप्यूटर पर काम करते समय 15-20 मिनटों के बाद कुछ देर के लिए विश्राम जरूर लें। रोज 15 मिनट का आंखों का व्यायाम काफी है इन्हें सुरक्षित रखने के लिए।

* एक बड़ी सी घड़ी की कल्पना करें। फिर आंखें बंद कर उसके हर अंक पर नजर ड़ालें,  तीन सेकेंड़ रुकें फिर घड़ी के मध्य में आ जाएं। इस तरह सारा चक्कर पूरा कर आंखों पर बिना जरा सा भी दवाब ड़ाले हथेलियां रख पांच बार घड़ी की दिशा में और पांच बार विपरीत दिशा में आंखें घुमाएं। फिर हाथ हटा जल्दी-जल्दी बीस बार पलकें झपकाएं।

* हाथ में एक पेंसिल ले बांह पूरी खोल लें, सांस खीचें पेंसिल पर नज़र जमा उसे धीरे-धीरे अपनी ओर ला नाक से छुआएं, सांस छोड़ते हुए फिर पेंसिल को दूर ले जाएं। ऐसा पांच बार करें।

* आंखों के गढ्ढों के ऊपर सावधानी से उंगलियों से दवाब डालें, पांच सेकेंड रूकें फिर दवाब हटा लें ऐसा पांच मिनट तक करें।

* जब भी बाहर से आएं या घर पर भी हों तो साफ पानी से दिन में चार-पांच बार आंखों पर छीटें मारें। ठंड़े पानी की पट्टी रखने से भी बहुत आराम मिलता है। पर सब कुछ ठीक होने पर भी साल में एक बार डाक्टर से जांच जरूर करवा लेनी चाहिए।  क्योंकि आँख है तभी जहान  है.

शनिवार, 2 मार्च 2013

कलकत्ते का राजभवन

इसको देखने के लिए आम जनता को अनुमति नहीं होने के कारण देश की यह भव्य इमारत उतनी मशहूर नहीं हो सकी है जितनी प्रसिद्धि दिल्ली के राज भवन को प्राप्त है। पर इससे इसकी भव्यता, सुंदरता या कलात्मकता को कम कर के नहीं आंका जा सकता। 

 दिल्ली के राजधानी बनने के पहले अंग्रेजों ने कलकत्ते को अपनी राजधानी बना रखा था। आज भी उनके द्वारा बनाई गयी सरकारी इमारतें, रिहायशी भवन, पुल, सडकें अपनी मजबूती और भव्यता की कहानी आप कह रहे हैं। इन्हीं वास्तु-कला के भव्य, विशाल, अनुपम नमूनों के कारण आज भी कलकत्ता, जो अब कोलकाता हो गया है, को महलों के नगर के रूप में जाना जाता है। अपनी सुंदरता के कारण इसे पूर्व का पीटर्सबर्ग भी कहा जाता रहा है। उस समय यह देश का सबसे बडा, सुंदर, धनी और सुरुचिपूर्ण शहर था।   
आजादी के पहले की बात है। बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज था। पर वहां का गवर्नर जनरल रहता तो था एक आलीशान बंगले में पर वह था किराए का। अंग्रजों का मानना था कि उन्हें इस देश में सदा के लिए रहना है सो गवर्नर जनरल के लिए एक महल की आवश्यकता महसूस होने लगी। उसी को पूरा करने के लिए विशाल पैमाने पर एक भव्य इमारत का निर्माण कैप्टन चार्ल्स वाट की देखरेख में 1799 में शुरु किया गया जो 1803 में जा कर पूरा हुआ। उस समय 27 एकड में 84000 स्क्वा. फुट पर बने इस महल पर आज के हिसाब से करीब चार मिलियन पाउंड का खर्च आया था। इस तब तक के सबसे सुंदर भवन के खिताब वाले महल के प्रतिष्ठापन पर 800 अतिथि आमंत्रित किए गये थे।  

पर तब से अब तक इसका नाम परिस्थितियों वश कई बार बदला जा चुका है। निर्माण के बाद इसे गवर्मेंट हाउस का नाम दिया गया था। फिर जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बाद में राज-काज ब्रिटिश हुकुमत को 1858 में सौंपा तो इसे वायसराय निवास बना दिया गया। फिर जब राजधानी कलकत्ते से दिल्ली चली गयी तो फिर यह महलनुमा इमारत बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर का आवस बनी और आखिरकार आजादी के बाद से अब तक और प्रदेशों की तरह यह बंगाल के गवर्नर के निवास "राज भवन" के रूप में विख्यात है। 

शहर के बीचोबीच "मैदान यानि ईडेन गार्डेन" और "राइटर्स बिल्डिंग" के पास, कोलकाता के दिल धर्मतल्ला यानि एस्प्लैनेड से मुश्किल से पैदल दस मिनट की दूरी पर बने इस भवन में प्रवेश के छह रास्ते हैं। जिन पर उत्तर-दक्षिण दिशा में एक-एक तथा पूर्व और पश्चिम दिशा में दो-दो विशाल "गेट" बने हुए हैं। पूर्व और पश्चिम के गेटों पर विशाल मेहराबों पर शेर की मुर्तियां बनी हुई हैं। बाकि छोटे गेटों पर स्फिंक्स की मूर्तियां स्थापित हैं। बाहर से भवन का सबसे सुंदर रूप उत्तरी दरवाजे से दिखता है जो कि अंदर जाने का प्रमुख द्वार भी है। इसका केंद्रीय भवन जो एक सुंदर गुंबद से आच्छादित है, चारों  ओर से गोलाकार निर्माणों से घिरा है। जिसमें दफ्तर तथा रिहायशी जगहें शामिल हैं। उस समय भी जब वातावरण इतना दुषित नहीं होता था तब भी इसमें प्राकृतिक हवा के आवागमन का पूरा ख्याल रखा गया है। तीन मंजिला भवन के उपर जाने के लिए चार कोनों में चार सीढियां बनी हुई हैं।      

करीब साठ कमरों वाले इस भवन को सुंदर और भव्य बनाने के लिए हर संभव कोशिश की गयी है। यहां की कलाकृतियां, मुर्तियां, चित्र, पेंटिंग्स, फर्निचर, बागीचे उनका रख-रखाव हर चीज अनमोल, भव्य और अनूठी है। जगह-जगह से अनुठी वस्तुएं ला कर यहां संग्रहित की गयी हैं। कलकत्ते की पहली स्वचालित सीढी भी सर्वप्रथम यहीं लगाई गयी थी। इसको देखने के लिए आम जनता को अनुमति नहीं होने के कारण देश की यह भव्य इमारत उतनी मशहूर नहीं हो सकी है जितनी प्रसिद्धि दिल्ली के राज भवन को प्राप्त है। पर इससे इसकी भव्यता, सुंदरता या कलात्मकता को कम कर के नहीं आंका जा सकता। यह बंगाल का ही नहीं देश का भी गौरव है।  काश इसे आम जनता भी निहार पाती !!!

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