बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

कारूं का खजाना ¡ एक बतकही, कारूं पर



भानुमति का पिटारा, छज्जू का चौबारा जैसी अपनी विशेषताओं के लिए मुहावरों और लोकोक्तियों के अति प्रसिद्ध पात्रों की श्रृंखला की तीसरी कड़ी कारूं का  खजाना ! कौन था यह कारूं ? जो कहीं भी बेहिसाब दौलत का जिक्र आते ही सामने आ खड़ा होता है ! जिसके बारे में यह प्रचलित था कि वह यूनानी राजा ''मिडास'' का वंशज है। क्या यह कोई काल्पनिक पात्र था या वास्तव में इसका वजूद था ................!

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कभी-कभी समय के साथ-साथ कल्पित कथा-कहानियां या उसके पात्र हमसे इतने घुल-मिल जाते हैं कि हम उन्हें वास्तविक समझने लगने लगते हैं और इसके उलट कभी-कभी वास्तविक घटनाएं, पात्र और उनके द्वारा किए गए मानवेत्तर कार्य इतने लोकप्रिय हो जाते हैं कि लोकोक्तियां या मुहावरे बन, वास्तविकता और कल्पना की सीमा को ही ख़त्म कर देते हैं ! ऐसा ही एक पात्र है कारूं ! बेहिसाब दौलत का जब कहीं भी जिक्र होता है तो कारूं के खजाने का मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है ! भारत में यह मुहावरा फ़ारसी से आया है। जहां कारूं का उल्लेख कारून के रूप में मिलता है। अंग्रेजी में यही कारून, क्रोशस के रूप में उल्लेखित है ! जहां ''एज़ रिच एज़ क्रोशस'' वाक्य मशहूर है। कौन था यह शख्स ? क्या यह कोई काल्पनिक पात्र था या वास्तव में इसका वजूद था ? इतिहास के सागर में यदि गोता मारा जाए तो यह सच सामने आता है कि यह नाम कोई कोरी कल्पना नहीं है। कभी इस नाम का एक बहुत ही धनी राजा हुआ था पर वह जितना ऐश्वर्यवान था उतना ही महाकंजूस तथा घमंडी भी था।   
कारूं 
ईसा से 560 से 547 वर्ष पूर्व एशिया माइनर यानी आज की टर्की में लीडियन साम्राज्य के राजा क्रोशस का शासन था, जिसकी राजधानी सार्डिस थी। उसके बारे में यह प्रचलित था कि वह यूनानी राजा ''मिडास'' का वंशज है। हो सकता है यह धारणा उसके स्वर्ण के प्रति अत्यधिक मोह के कारण बनी हो ! उसके राज्य में ढेरों सोने की खदानों के अलावा राज्य में से हो कर बहती नदियों में भी प्रचुरता से स्वर्ण कणों की उपलब्धता थी। लीडिया की धरती उस समय सोने का पर्याय बन गयी थी। उसकी समृद्धि, धन-वैभव, विशाल व असाधारण खजाने की ख्याति देश-विदेश में चारों ओर फैली हुई थी। पर इतनी अकूत संपत्ति का स्वामी होने के बावजूद वह पर्ले दर्जे का घमंडी व कंजूस था। पर इसके बावजूद उसने दुनिया को एक अनोखी देन भी दी थी और वह है टकसाल ! क्रोशस से पहले सिक्के ठोक-पीट कर बनाए जाते थे पर उसने सोने को ढाल कर इलेक्ट्रम नामक स्वर्णमुद्रा की ईजाद की जिसकी गुणवत्ता बनाए रखने पर बड़ी कड़ाई से ध्यान रखा गया। इसके अलावा वह पहला एशियाई राजा था जिसने यूनान पर अपना अधिकार स्थापित किया। 
ढली हुई स्वर्णमुद्रा 
सदियाँ बीत गयीं उस रहस्यमय खजाने पर समय की धूल जमती चली गई ! वह अप्रतिम खजाने का क्या हश्र हुआ यह सवाल अभी तक सुलझ नहीं पाया है। ऐसा माना जाता है कि वह विशाल धन भंडार किसी शाप की वजह से तुर्की के उसाक प्रांत में जमींदोज हो गया है और जो कोई भी उसको हासिल करने की कोशिश करेगा उसकी या तो मौत हो जाएगी या बहुत नुकसान झेलना पडेगा ! पर दुनिया में साहसियों, हठधर्मियों और सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास न करने वालों की बड़ी-पूरी जमात है ! ऐसे ही लोग समय-समय पर उस खजाने को हथियाने की कोशिश करते रहे हैं ! बहुतों को बहुत कुछ हासिल भी हुआ, पर वे उसका उपयोग कुछ दिनों तक ही कर पाए और किसी न किसी हादसे का शिकार हो गए ! 
इसके बावजूद भी बीच-बीच में तुर्की के आस-पास लालचवश या जरुरत के लिए हुए खनन इत्यादि में तरह-तरह के आभूषण, सोने-चांदी के पात्र, स्वर्णमुद्राएँ और सोने से भरे बर्तन मिलने की ख़बरें आती रहती हैं, पर साथ ही प्राप्तकर्ता के साथ हुए हादसों का जिक्र भी होता है ! इससे यह धारणा और भी पुख्ता होती जाती है कि यह खजाना शापित है ! खजाना तो है इसका प्रमाण है यहां से प्राप्त अमूल्य वस्तुओं में से करीब 363 वे नायाब और अमूल्य कलाकृतियां जो टर्की के म्यूजियम में सुरक्षित रखी हुए हैं ! वास्तविकता चाहे जो हो पर जब तक यह कायनात रहेगी, कारूं के खजाने की चर्चा और लोकोक्ति भी जीवित रहेगी। 

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

जीवन को जीएं, काटें नहीं

पिछले पंद्रह-बीस सालों में लोगों की जीवनचर्या में बहुत परिवर्तन आया है। कुछ को तो समस्याएं घेरती हैं तो कुछ खुद समस्याओं से जा लिपटते हैं। हमारा शरीर भी एक मशीन ही है जिसे हर यंत्र की तरह उचित रख-रखाव की जरुरत पडती है पर विडंबना ही है कि इस सबसे ज्यादा जरूरी और कीमती यंत्र की ही सबसे ज्यादा उपेक्षा की जाती है। 


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अपनी दिनभर की दिनचर्या में रोज ही ऐसे कई युवा मिल जाते हैं जो निढाल, निस्तेज, सुस्त नजर आते हैं। जैसे जबरदस्ती शरीर को ढो रहे हों। अधिकांश नवयुवकों को किसी ना किसी व्याधि से ग्रस्त दवा फांकते देखना बडा अजीब लगता है। आज के प्रतिस्पर्द्धात्मक समय में हर तीसरा व्यक्ति किसी न किसी समस्या से जुझता हुआ किसी यंत्र की कसी हुई तार की तरह हर वक्त तना रहता है। जिसके फलस्वरूप देखने में बिमारी ना लगने वाली, सर दर्द, कमर दर्द, अनिद्रा, अपच, कब्ज जैसी व्याधियां उसे अपने चंगुल में फंसाती चली जाती हैं, जिससे अच्छा भला युवा उम्रदराज लगने लगता है। सदियों से हमारे यहां प्रभू से प्रार्थना की जाती रही है कि "हे प्रभू हमें सौ साल की उम्र प्राप्त हो।" पर यदि 30-35 साल के बाद ही रो-धो कर, दवाएं फांक कर, ज्यादातर समय बिस्तर पर गुजार कर जीना पडे तो ऐसे जीवन से क्या फायदा।

      

निश्चिंतता 
पिछले पंद्रह-बीस सालों में लोगों की जीवनचर्या में बहुत परिवर्तन आया है। कुछ को तो समस्याएं घेरती हैं तो कुछ खुद समस्याओं से जा लिपटते हैं। हमारा शरीर भी एक मशीन ही है जिसे हर यंत्र की तरह उचित रख-रखाव की जरुरत पडती है पर विडंबना ही है कि इस सबसे ज्यादा जरूरी और कीमती यंत्र की ही सबसे ज्यादा उपेक्षा की जाती है। अनियमित दिनचर्या, कुछ भी खाने-पीने का शौक, लापरवाही, मौज-मस्ती युक्त अपना रख-रखाव इस मशीन को भी बाध्य कर देता है अपने से ही विद्रोह के लिए। युवावस्था में यदि थोडी सी भी "केयर" अपने तन-बदन की कर ली जाए तो यह एक लम्बे अरसे तक मनुष्य का साथ निभाता है। लोग भूल जाते हैं कि मौज-मस्ती भी तभी तक रास आती है जब तक शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न रहता है। 

पर इस नैराश्य पूर्ण स्थिति में भी आप अपने चारों ओर देखें तो आपको ऐसे अनेक लोग दिख जाएंगे जो अपने कर्मों से, अपने आचरण से, अपने अनुभवों से हमारा मार्ग-दर्शन कर सकते हैं। जिन्हें देख जिंदगी को खुशहाल बनाने के तौर-तरीकों को समझा जा सकता है, उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। ऐसे ही एक शख्स हैं मेरे मामा जी। जो 85 साल के होने के बावजूद किसी 35 साल के युवा से कम नहीं हैं। आज देश-प्रदेश के लोगों के बीच बहुचर्चित शतायु मैराथन धावक फौजा सिंह के प्रांत पंजाब के एक कस्बे फगवाडा के पास के गांव हदियाबाद के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्में श्री प्यारे लाल सुंधीर बचपन से ही सामान्य कद-काठी के इंसान रहे। पर लाख विषमताओं, हजारों अडचनों, सैंकडों परेशानियों के बावजूद उन्होंने अनियमितता का सहारा नहीं लिया। यहां तक कि छोटी उम्र में ही जीवनसाथी की असमय मृत्यु के बाद भी उन्होंने अपने को संभाले रखा और अपने बच्चों को सही तालीम दिलवा कर उन्हें जीवन पथ पर अग्रसर और स्थापित किया। आज जब वे हर तरह से सम्पन्न हैं, घर में हर आधुनिक सुविधा उपलब्ध है फिर भी इस उम्र में में भी उन्हें खाली बैठना ग्वारा नहीं है। आज भी सिर्फ व्यस्त रहने के लिए उन्होंने अपने व्यवसाय को तिलांजली नहीं दी है।  घर में कार होने के बावजूद अपनी सेहत की खातिर इस उम्र में भी रोज 10 से 15 की.मी. सायकिल पर चलना उनका शौक है। किसी भी तरह की चिंता, फिक्र, तनाव को वे पास नहीं फटकने देते। इसी वजह से बिना किसी का साथ ढूंढे अपनी बिटिया के पास नार्वे तक हर ढेढ दो साल बाद चक्कर लगाने से नहीं घबराते। वहा भी घर पर नहीं रुकते, आस-पास के दूसरे देशों को देखना, घूमना भी उनका शगल है, फिर चाहे किसी का साथ मिले या ना मिले। अपना देश तो इनका घूमा हुआ ही है वह भी अकेले. हमारे यहां तो उनका हर साल आना हमारी जरूरत है। उनके 10-15 दिनों का प्रवास हमें एक नई शक्ति प्रदान कर जाता है।  यह सब उन लोगों के लिए सबक है जो बचपन के खान-पान की कमी, अपनी उम्र, किसी का सहारा ना होने या अपनी जीवन में ना टाली जा सकने वाली मुसीबतों को अपने द्वारा पैदा की गयीं मुसीबतों का जिम्मेदार मानते हैं। सीधी  सी बात है जिसमे जीने की उद्दाम इच्छा हो उसके लिए कोइ बाधा कोइ मायने नहीं रखती।    

सोचिए जब होनी को टाला नहीं जा सकता तो फिर परेशान क्यों ? जब जो होना है, हो कर ही रहना है तो फिर नैराश्य क्यों ? जब भविष्य अपने वश में नहीं है तो उसके लिए वर्तमान में चिंता क्यों ?

जरा सोचिए, मैं भी सोचता हूं ! कठिन जरूर है पर मुश्किल बिल्कुल नहीं !

शनिवार, 8 फ़रवरी 2020

पार्ले-जी के बिस्कुट की वह क्यूट सी बच्ची

स्पर्द्धा में टिके रहने के लिए अपने ''पारले ग्लूको'' के नाम और उस समय के कवर पर की ''गाय और ग्वालन'' की तस्वीर को बदल एक विशेष पीले रंग के कवर. लाल रंग के लोगो व एक लड़की की फोटो के साथ एक नए पैकिंग को पेटेंट करवा उसे 1982 में बाजार में उतारा।  इतना सम्मान पाने वाली किस बच्ची की फोटो है यह.........? 

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पतानहीं कैसे यह बात चली और एक बहस शुरू हो गयी, पारले बिस्कुट के रैपर पर छपी बच्ची की पहचान को ले कर ! अधिकतर गूगल ज्ञानियों का दावा था कि यह फोटो सुधा कृष्णमूर्ति जी के पिताजी द्वारा खींची गयी, बचपन की फोटो है, जब वह चार साल की थीं !  कई इसे नीरू देशपांडे की तथा कुछ गुंजन गंडानिया की बता रहे थे। अक्सर कई चीजों को ले कर क्षण भर के लिए ऐसी जिज्ञासाएं उठती रहती हैं और कुछ देर बाद ही वह भूला भी दी जाती हैं ! पर इस बार सोचा कि गहरे पानी पैठ ही लिया जाए।

सन 1929 में एक रेशम के व्यापारी मोहनलाल चौहान ने मुंबई के पास इर्ले और पार्ले नामक गांवों के क्षेत्र में टॉफी, कैंडी व मिठाई इत्यादि बनाने के लिए एक छोटे से कारखाने ''पारले एग्रो उत्पादन'' की शुरुआत की तथा स्वदेशी आंदोलन से प्रभावित हो कर खुद कन्फेक्शनरी बनाने की कला सीख अपने परिवार के सदस्यों के साथ काम शुरू कर दिया। सारा परिवार अपने काम में इतना मशगूल हो गया कि अपने संस्थान को कोई नाम देना ही याद ना रहा ! कुछ समय उपरांत नजदीकी स्टेशन, विले पार्ले, जो खुद पास के गांव पार्ले के नाम पर आधारित था, के नाम पर ही अपना नामकरण  कर दिया गया। इनका पहला उत्पाद नारंगी कैंडी थी। कारखाने की स्थापना के करीब दस साल बाद पारले कम्पनी ने 1939 में अपना पहला बिस्कुट निकाला था। जिसके बाद से यह भारत की सबसे बड़ी खाद्य उत्पाद कंपनियों से एक हो गयी थी। यह बात है, दूसरे विश्व युद्व की। कम कीमत और उच्च गुणवत्ता के कारण इसकी मांग उस समय इतनी बढ़ गयी कि आपूर्ति करना मुश्किल हो गया था। 
वैसे तो पारले कंपनी और भी बहुत सारी चीजें बनाती हैं जैसे कि सॉस, टॉफी, केक पर इसका सर्वोपरि बिकने वाला उत्पाद बिस्कुट ही है। जिसे गरीब हो या आमिर, चाहे बच्चा हो या बूढ़ा, हर कोई खाता-पसंद करता है। शायद ही देश में ऐसा कोई हो जिसने पारले का बिस्कुट कभी ना कभी, कहीं ना कहीं ना खाया हो। 
जैसा की होना ही था, इसकी प्रसिद्धि और कमाई देख अन्य निर्माता भी इस क्षेत्र में उतरे, जिनमें ब्रिटानिया प्रमुख था। उसने अपना ग्लूकोज बिस्कुट ब्रिटानिया-डी के नाम से बाजार में उतारा। मजबूरन पार्ले ने स्पर्द्धा में टिके रहने के लिए अपने ''पारले ग्लूको'' के नाम और उस समय के कवर पर की ''गाय और ग्वालन'' की तस्वीर को बदल एक विशेष पीले रंग के कवर. लाल रंग के लोगो व एक लड़की की फोटो के साथ एक नए पैकिंग को पेटेंट करवा उसे 1982 में बाजार में उतारा। पहले के पारले-जी यानी पारले ग्लूकोज को बदल नया नारा दिया पारले जीनियस। खर्च में कटौती के लिए वैक्स पेपर को प्लास्टिक के रैपर से बदल  दिया गया। जो भी हो इसकी लोकप्रियता अभी भी बरकरार है। सर्वे को देखा जाए तो पारले-जी की बिक्री दुनिया के चौथे सबसे बड़े बिस्कुट उपभोक्ता मुल्क चीन से भी ज्यादा है। भारत से बाहर यह यूरोप, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आदि में भी उपलब्ध है। पारले-जी अकेला ऐसा बिस्कुट है जो कि गांवों से लेकर शहरों तक में एक ही रेट से बिकता है और दोनों जगह ही इसकी लोकप्रियता एक समान है।

अब रैपर पर छपी मासूम सी सुंदर बच्ची की बात, जिस पर बहस और यह लेख शुरू हुआ था ! तो यह जान लें कि यह फोटो किसी मॉडल या सेलिब्रेटी की नहीं बल्कि एक ऐनिमेटड पिक्चर है जिसका निर्माण 1979 में किया गया था। यह बात पारले कंपनी के ग्रुप प्रोडक्ट मैनेजर रहे मंयक शाह ने साफ़ की कि पारले के पैकिट पर दिखायी देने वाली लडकी एक काल्पनिक लडकी का चित्र है। जिसे एवरेस्ट क्रियेटिव कंपनी के चित्रकार मगनलाल दहिया ने 1960 के दशक में इस तस्वीर को पारले कंपनी के लिए बनाया था। उसके बाद ये बिस्कुटों पर नजर आने लगी थी। उनके अनुसार इससे संबंधित सारी अफवाहें बेबुनियाद हैं। तो यह है उस रैपर पर छपी क्यूट सी बच्ची के फोटो की हकीकत !  

सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

उस दिन कुछ भी हो सकता था, एक संस्मरण

भयंकर और डरावना दृश्य था !आगे-आगे एक इंसान को घसीटते ले जाती गाडी और पीछे कुछ भी कर गुजरने पर उतारू, डंडे-लाठी उठाए चीखते-चिल्लाते-आक्रोषित लोगों का सागर ! लगातार बजते हार्न को सुन दरबान के साथ जैसे ही उन्होंने गेट से बाहर देखा, पलक झपकते ही उन्हें सारा माजरा समझ में आ गया ! उन्होंने तुरंत पूरा गेट खुलवाया और गाडी अंदर आते ही हतबुद्धि दरबान के साथ मिल उसे तुरंत बंद करवा दिया। गाडी को रोकते ही दुबे ने जोर से कहा, माँ जी लोग, जल्दी से कहीं भी जा कर छिप जाइये और इतना कह खुद भागता चला गया, क्योंकि वह जानता था कि यदि कहीं भीड़ के हाथ पड़ गया तो उसका क्या हश्र होगा ............! 

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घटना काफी पुरानी है पर जेहन में गहराई तक पैबस्त है ! अखबार इत्यादि में यदा-कदा वैसी दुर्घटनाओं का जिक्र देख वह दिन जैसे फिर आँखों के सामने साकार हो उठता है ! सन तो ठीक-ठीक याद नहीं पर शायद 64-65 के वर्षांत का अपराह्न था, क्योंकि उस दिन मील के बाहर की एक टीम के साथ क्रिकेट का मैच चल रहा था और हम जीत की कगार पर थे। तभी अचानक एक भीषण शोर की आवाज उठी, देखा तो सैंकड़ों की बेकाबू भीड़ क्लब वाले गेट की तरफ से घुसी चली आ रही है। कैसे-क्यूँ-क्या हुआ, कुछ पता नहीं, आज तक ऐसा कभी कुछ घटा नहीं था ! अफरा-तफरी मच गयी ! जिसके जहां सींग समाए जा दुबका ! कौन कहां गया कुछ पता नहीं ! हम चार-पांच बच्चे ऊपर दूसरे माले पर जा, रेलिंग से लटक कर नीचे ताकने लगे ! नीचे कोहराम मचा हुआ था ! नरमुंड ही नरमुंड ! सारा पार्क उजाड़ दिया गया था ! लोग बढे ही चले आ रहे थे ! करीब आधे घंटे के तांडव के बाद पुलिस पहुंची ! लाठी-चार्ज हुआ ! भगदड़ मची ! सबको खदेड़ने के बाद करीब चार-पांच बोरी चप्पलें-जूते और तक़रीबन दस-पंद्रह सायकिलें जब्त की गयीं। पार्क का यह हाल था जैसे कोई हाथी उसे रौंद गया हो ! 

मील के अधिकारी वर्ग और कामगारों के बीच सदा तनाव भरा रिश्ता रहा है ! संस्थान के अपने कामगारों की भलाई के लाख प्रयासों के बावजूद कुछ मतलब-परस्त मजदूर नेता सिर्फ अपनी रोटी सेंकने के लिए, कामगारों में स्टाफ के प्रति जहर उगल नफरत की दिवार बनाए रखते थे। ऐसे लोग दोनों तरफ के हितैषी बन अपना उल्लू सीधा करने में अत्यंत दक्ष होते थे। इसी नफ़रत, द्वेष, रोष के कारण उस दिन एक छोटी सी घटना ने विकराल रूप ले लिया था।  

क्यों ऐसी अनहोनी घटी ! उस दिन सुबह। मंजू भाभी (डागाजी की पुत्रवधु) भंडारी तथा राजगढ़िया आंटी तथा मेरी माता जी, सुबह किसी काम से मील की अम्बैसडर कार में बाहर गयीं हुई थीं। मील का सबसे विश्वसनीय-भरोसेमंद-दक्ष ड्राइवर दुबे भइया थे। जाहिर है वही गाडी चला रहे थे। लौटते समय कांकिनाड़ा के संकरे बाज़ार से गुजरते हुए एक नौसिखिए, लापरवाह, बेखबर सायकिल सवार बालक को कार छू गयी ! घबड़ाहट और डर के मारे वह सायकिल समेत गिर पड़ा ! हालांकि उसे कोई चोट नहीं लगी थी पर हल्ला मच गया कि मील की गाडी ने बच्चे का एक्सीडेंट कर दिया है। पहले दुबे ने सोचा कि उतर कर देखें बच्चे को, पर बढ़ते हुजूम, गाडी में महिलाओं की उपस्थिति और आक्रोषित आवाजों को देख-सुन उसने गाडी आगे बढ़ा दी ! इससे लोग और भड़क गए और एक ''हीरो'' उछल कर गाडी के बोनट पर चढ़ने की कोशिश में फिसल कर गाडी के अगले बाएं चक्के में जा फंसा ! गाडी की महिलाएं इस हादसे से अनजान थीं और बार-बार दुबे को गाडी रोकने को कह रहीं थीं, पर दुबे को तो हकीकत समझ में आ चुकी थी, उसको अपने से ज्यादा माँ समान महिलाओं की चिंता थी ! इसीलिए कभी आँख भी ना उठाने वाले युवक को मजबूरन जोर से कहना पड़ा, ''माँ जी, आपलोग चुपचाप बैठिए, गाडी अंदर जा कर ही रुकेगी !'' इधर हर राह चलते की नजर जब गाडी से घिसटती मानव देह पर पड़ती तो पहले तो वह एकबारगी सन्न रह जाता पर अगले ही पल भीड़ का अंग बन, रोको, मारो, मारो चिल्लाते गाडी के पीछे दौड़ने लगता ! देखते-देखते सैंकड़ों की संख्या में गुस्साए लोग जो हाथ लगा ले, गाडी के पीछे लग गए ! भयंकर और डरावना दृश्य था। आगे-आगे एक इंसान को घसीटते ले जाती गाडी और पीछे कुछ भी कर गुजरने पर उतारू, डंडे-लाठी उठाए चीखते-चिल्लाते-आक्रोषित लोगों का सागर !   

दुबे के लिए तो यह जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा की घडी थी ! बहुत बड़ा भार था उसके ऊपर ! चार संभ्रांत महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी ! करीब तीन पहियों पर दौड़ रही गाडी का संचालन ! परिस्थितिवश ही सही एक इंसान की मौत का खौफ ! इतने तनाव के बावजूद संयत रहना, दिलो-दिमाग पर काबू रखना बहुत बड़ी बात थी ! उसका सिर्फ एक ही लक्ष्य था, किसी भी तरह गाडी को मील परिसर में पहुंचा देना इसके लिए उसने एक तरह से अपनी जान की बाजी लगा दी थी। डेढ़-दो की.मी. की दूरी जैसे ख़त्म ही नहीं हो रही थी। 

मैनेजर गेट के लिए जैसे ही गाडी बायीं तरफ मुड़ी दुबे ने हार्न बजाना शुरू कर दिया। संयोगवश वहां दरबान के अलावा एक और सज्जन भी मौजूद थे ! लगातार बजते हार्न को सुन दरबान के साथ जैसे ही उन्होंने गेट से बाहर देखा, पलक झपकते ही उन्हें सारा माजरा समझ में आ गया ! उन्होंने तुरंत पूरा गेट खुलवाया और गाडी अंदर आते ही हतबुद्धि दरबान के साथ मिल उसे तुरंत बंद करवा दिया। गाडी को रोकते ही दुबे ने जोर से कहा, माँ जी लोग, जल्दी से कहीं भी जा कर छिप जाइये और इतना कह खुद भागता चला गया, क्योंकि वह जानता था की यदि कहीं भीड़ के हाथ पड़ गया तो उसका क्या हश्र होगा ! गाडी में आगे मेरी माताजी बैठीं थीं वह जैसे ही उतरीं उनका पैर लाश से जा टकराया, वे तो जैसे होश ही गंवा बैठीं ! बाकियों का भी क्या हुआ, क्या हुआ करते जब वास्तविकता से सामना हुआ तो सारी जैसे जड़ हो गयीं ! तभी उन सज्जन ने, जिनका नाम याद आते-आते भी नहीं आ रहा है, तुरंत सब को झिंझोड़ कर अपने साथ ले जा एक जगह बंद कर दिया, इस हिदायत के साथ कि कोई बाहर झांकेगा भी नहीं। 

तब तक गेट पीटना आरंभ हो चुका था ! तभी दो चार अति उत्साहित जनों ने गेट के ऊपर से आ उसे खोल दिया ! फिर क्या था टिडडी दल की तरह लोग सब तरफ छा गए ! ''दुबे को बाहर निकालो ! उसे हमारे हवाले करो ! उसे छोड़ेंगे नहीं ! साहब लोगों का जुलुम नहीं सहा जाएगा !'' जैसी आवाजें कानफोड़ू शोर बन गयीं थीं ! जैसे बाढ़ अपने किनारों को तहस-नहस कर चारों ओर कहर बरपा देती है उसी तरह हजारों बेकाबू लोग घुसे चले आ रहे थे ! सारा गुस्सा पेड़-पौधों, फूलों-क्यारियों पर उतारा जा रहा था।

अंदर आने वालों की संख्या भले ही हजारों में थी पर उसमें 95 प्रतिशत से भी ज्यादा वे तमाशबीन लोग थे जिन्होंने मील के इस हिस्से के कभी दर्शन नहीं किए थे। मील के अंदर, वह भी रिहायशी इलाके में आना उनके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी, जिसका ख्वाब भी उन्होंने कभी नहीं देखा था। इसीलिए बाग़-बगीचे को ही नुक्सान पहुंचा वह भी इतनी बड़ी बेतरतीब-बेकाबू भीड़ के कारण ! इसके अलावा कोई तोड़-फोड़, पथराव या आगजनी की हरकत को अंजाम नहीं दिया गया।  यहां तक कि गेट पर ही खड़ी गाडी को भी कुछ डेंटों के अलावा ज्यादा नहीं छेड़ा गया।   

कुछ ही देर बाद पुलिस का आगमन हुआ ! लोगों को गेट के बाहर निकाला गया ! दुबे को जीप में उनको दिखाते हुए कि गिरफ्तार कर लिया गया है, थाने ले जाया गया ! केस चला, गलती ना पाए जाने से दुबे बरी हुए ! उन्हें मामला ठंडा होने तक गांव भेज दिया गया ! पीड़ितों को हर्जाना मिला और एक दुर्घटना पैबस्त हो गयी जेहन में, कभी-कभी यादों में उभर आने के लिए ! पर यह सोच कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि यदि उस दिन प्रभु का साथ न होता, गाडी बाजार में ही रोक ली जाती, कार का इंजन रास्ते में ही बंद या खराब हो जाता, चक्के जाम ही हो जाते, दुबे आपा खो संतुलन बिगाड़ बैठता, वो सज्जन गेट पर ना होते, आपाधापी में गेट बंद ही ना हो पाता...तो ..तो...... ?

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