शनिवार, 30 अप्रैल 2011

मंदार पर्वत, जिससे समुद्र-मंथन हुआ था. कहाँ है वह ?

मंदार पर्वत, वही जिसे मथानी बना कर समुद्र-मंथन किया गया था।
कहां है वह ? क्या उसका अस्तित्व है ?

यदि उस मूक साधक को देखना चाहते हैं तो आपको बिहार के बांका जिले के बौंसी गांव तक जाना पड़ेगा। यह करीब सात सौ फुट ऊंची पहाड़ी भागलपुर से 30-35 मील दूर स्थित है। जहां रेल या बस किसी से भी सुविधापूर्वक जाया जा सकता है। बौंसी से इसकी दूरी करीब पांच मील की है।

जब समुद्र मंथन किया गया तो मंदार पर्वत को मथनी और उस पर वासुकी नाग को समेट कर रस्सी का काम लिया गया था। पर्वत पर अभी भी धार दार लकीरें दिखती हैं जो एक दूसरे से करीब छह फुट की दूरी पर बनी हुई हैं और ऐसा लगता है कि किसी गाड़ी के टायर के निशान हों। ये लकीरें किसी भी तरह मानव निर्मित नहीं लगतीं। जन विश्वास है कि समुद्र मंथन के दौरान वासुकी के शरीर की रगड़ से यह निशान बने हैं। मंथन के बाद जो हुआ वह अलग कहानी है। पर अभी भी पर्वत के ऊपर शंख-कुंड़ में एक विशाल शंख की आकृति स्थित है कहते हैं शिवजी ने इसी महाशंख से विष पान किया था।

पुराणों के अनुसार एक बार विष्णुजी के कान के मैल से मधु और कैटभ नाम के दो भाईयों का जन्म हुआ। पर धीरे-धीरे इनका उत्पात इतना बढ गया कि सारे देवता इनसे भय खाने लगे। हद से गुजरने के बाद आखिर इन्हें खत्म करने के लिए विष्णुजी को इनसे युद्ध करना पड़ा। इसमें भी मधु का अंत करने में विष्णुजी परेशान हो गये हजारों साल के युद्ध के बाद अंत में उन्होंने उसका सिर काट उसे मंदार पर्वत के नीचे दबा दिया। पर उसकी वीरता से प्रसन्न हो कर उसके सिर की आकृति पर्वत पर बना दी गयी। जो अब यहां आने वालों के लिए दर्शनीय स्थल बन चुकी है।

वैसे तो यहां अनगिनत सरोवर और मंदिर हैं, सबकी अपनी-अपनी कहानी भी है पर पर्वत के नीचे बने जल-कुंड़ का अपना महत्व है इसके पानी को रोगों से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है।

यहां से करीब 70-80 कि.मी. की दूरी पर वासुकीनाथ का मंदिर भी श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र है। कभी मौका मिले तो समुद्र मंथन की इस मथानी को जरुर देखने जाएं।

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

व्याधि, रोग, ज़रा और मौत भेद-भाव नहीं करते

इस धरा का यह शाश्वत सत्य है कि यहां जो भी जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है। बच्चा जब भी जन्म लेता है तो यह अनिश्चित होता है कि वह बड़ा बन कर क्या बनेगा या क्या करेगा पर जन्म के साथ ही यह निश्चित हो जाता है कि वह एक दिन यहां से प्रस्थान जरूर करेगा। प्रकृति के इस अटूट नियम से कोई भी परे नहीं रह पाया है। चाहे वह साधू हो, सन्यासी हो, महापुरुष हो, भगवान का अनन्य भक्त हो या खुद भगवान का ही अंश क्यों ना हो। यहां आए हो तो जाना पहली शर्त है। श्री राम , श्री कृष्ण, ईसा मसीह, पैगम्बर, बुद्ध, महावीर जैसे अवतारों को भी अपना समय पूर्ण होने पर धरा छोड़नी पड़ी थी तो इंसान की क्या औकात है।

मृत्यु तो खैर अटल है ही, आदि-व्याधि से भी कोई बिरला ही बच पाता है। प्रकृति प्रदत्त ये हमारे 'परिक्षक' या 'उपदेशक' किसी में किसी प्रकार का भेद-भाव नहीं करते। ये नहीं देखते कि उनका लक्ष्य स्त्री है या पुरुष, अमीर है या गरीब, ढोंगी है या साधू, जन है या महाजन। बुढापा, व्याधि, बिमारी और मौत ये नाहीं किसी का पक्षपात करते हैं नाही किसी पर दया। यह किस रूप में आएंगे यह भी कोई ना जानता है ना बतला सकता है।

पांडवों को क्या पता था कि उनका अंत किन परिस्थितियों में होगा, सुकरात - मीरा को जहर का सेवन करना पड़ा था, रामकृष्ण परमहंस जैसे सत्य पुरुष को भी भयंकर बिमारी ने अपनी चपेट में ले लिया था। महर्षी रमण, महायोगी अरविंद डायबिटीज से जुझते रहे। जवाहर लाल नेहरु की मृत्यु लकवे के कारण हुई, स्वामी श्रद्धानंद, महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी को गोलियों का शिकार होना पड़ा। हाल ही में सांई बाबा को एकाधिक रोगों से ग्रसित रहने के कारण शरीर त्यागना पड़ा। ये तो कुछ नाम हैं पर असंख्य महापुरुषों ने अपने जीवन में असाध्य रोगों का सामना किया और बहुतों ने अपनी अंतिम सांस अत्यंत कष्ट भोगते हुए ली।

कोई भी नहीं जानता कि किसका अंत किस रूप में आएगा और कब। यही एक बात यदि भगवान ने अपने पास ना रखी होती तो आज लोग उसका अस्तित्व ही नकार देते। खासकर वे जो भोली-भाली जनता की कमजोरियों का फायदा उठा अपने आप को भगवान निरूपित करने में नहीं झिझकते।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

तैयार रहें नमक के नाम पर जेब ढीली करने के लिए

कुछ साल पहले तक कहा जाता था कि हमारे यहां गरीब आदमी कुछ ना हो तो नमक के साथ ही रोटी खा पेट भर लेता है। पर इस सबसे सस्ते खाद्य पर भी व्यवसायियों की गिद्ध दृष्टि पड़ ही गयी। तरह-तरह की बिमारियों का भय दिखा, उल्टे-सीधे व्यक्तव्य बता, संत्री-मंत्रियों की मिली-भगत ने इस गरीब से गरीब और अमीर से अमीर सब के भोजन के इस अविभाज्य अंग को एकदम आम से खास बना दिया था। बहाना यह था कि गले का रोग घेंघा ना हो इसलिए आयोडीन का सेवन जरूरी है। ड़रना हमारी फितरत है, कोई भी कभी भी आ कर हमें ड़रा जाता है। हम ड़र गये और शुरु हो गया कारूं के खजाने का खेल। मैदान में आ ड़टीं करोड़ों-अरबों का वारा - न्यारा करने वाली कम्पनियां, और तो और विदेशी भी आ जुटे बीमारी से हमें बचाने के 'नेक' काम' में। देखते-देखते 1-2 रुपये में मिलने वाली जींस की कीमत हो गयी 12 से 15 रुपये। वह भी उस चीज को मिलाने के झांसे में जो गर्म होते ही भोजन का साथ छोड़ देता है। इसके अलावा वैज्ञानिकों ने चेताया भी है कि रक्त-चाप जैसी बिमारियों में इसी आयोडीन युक्त नमक का हाथ है। बहुत से देशों में यह 'बैन' भी हो चुका है। पर हम उस चीज की कीमत चुकाते आ रहे हैं जो की है ही नहीं।

इतनी लम्बी-चौड़ी बात इसलिए कही कि आप तैयार रहें अगले आक्रमण के लिए। अभी सुगबुगाहट चल रही है कि एक बार फिर जनता को ड़राया जाए उनके शरीर में लोहे की कमी को लेकर। खासकर औरतों में पाए जाने वाली एनिमिया की बिमारी के ड़र का प्रचार कर के। सुनने में आ रहा है कि अब लौह मिश्रित नमक को बाजार में लाने की तैयारी है, जिससे रक्ताल्पता से छुटकारा दिलाया जा सके। और लीजिए नमक 50 रुपये की सीमा छूता ही है। क्योंकि इसके बिना कोई भी रसोई पूरी होती नहीं सो बच के कहां जाएंगें ?

यह कुचक्र ठीक वैसा ही है जैसे अभी कुछ दिनों पहले एक तथाकथित गोरेपन की नयी क्रीम बाजार में निर्माता कम्पनी ने यह कह कर फेंकी है कि मर्दों को गोरा करने के लिए दूसरे फार्मूले की जरुरत होती है। यह दूसरी बात है कि यह ख्याल पहले ब्रांड की गिरती साख के बाद आया। इसके बाद वृद्धों और बच्चों के लिए लाए जा सकने वाले 'प्रोड़क्ट' का रास्ता साफ हो जाता है।

मुद्दा यह है कि हमें अब तरह-तरह की विशेषता वाले नमकों का स्वागत करने के लिए तैयार रहना चाहिए। कोई बड़ी बात नहीं है कि कुछ दिनों में उपरी मिली भगत हमें ड़रा-धमका कर विटामिन 'बी-काम्पलेक्स' जैसी चीजें भी नमक में ही देना शुरु कर दें। और हम ड़रे-ड़रे अपनी जेब ढीली करते रहें।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

क्या रावण सचमुच निंदा का पात्र है ?

महर्षि वाल्मिकी एक कवि तथा कथाकार के साथ-साथ इतिहासकार भी थे। राम और रावण उनके समकालीन थे। इसलिए उनके द्वारा रचित महाकाव्य ''रामायण'' यथार्थ के ज्यादा करीब माना जाता है। बाकी जितनों ने भी राम कथा की रचना की है, उस पर समकालीन माहौल, सोच तथा जनता की भावनाओं का प्रभाव अपनी छाप छोड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तुलसीदास कृत राम चरित मानस है। तुलसी दास जी के आराध्य श्रीराम रहे हैं, तो उनके चरित्र का महिमामंडित होना स्वाभाविक है। परन्तु वाल्मिकी जी राम और रावण के समकालीन थे सो उन्होंने राम के साथ-साथ रावण का भी अद्भुत रूप से चरित्र चित्रण किया है। उनके अनुसार ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य और पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की चार संतानों में रावण अग्रज था। इस प्रर वह ब्रह्मा जी का वंशज था। 

महर्षि कश्यप की पत्नियां, अदिति जो देवताओं की जननी थीं और दिति, जिन्होंने दानवों को जन्म दिया था, आपस में बहनें थीं। इस प्रकार सुर और असुर सौतेले भाई थे। विचारों, परिवेश तथा माहौल इत्यादि के अलग होने के कारण उनका कभी भी मतैक्य नहीं हो पाया ! जिससे सदा उनकी आपस में अनबन बनी रहती थी। जिसके फलस्वरूप युद्ध होते रहते थे। जिनमें ज्यादातर दैत्यों की पराजय होती थी। दैत्यों के पराभव को देख कर रावण ने दीर्घ तथा कठोर तप कर ब्रह्मा जी से तरह-तरह के वरदान प्राप्त कर लिए थे एवं उन्हीं के प्रभाव से शक्तिशाली हो अपने नाना की नगरी लंका पर फिर से अधिकार कर लिया था। उसने लंका को स्वर्ग से भी सुंदर, अभेद्य तथा सुरक्षित बना दिया था। उसके राज में नागरिक सुखी, संपन्न तथा खुशहाल थे। लंका के वैभव का यह हाल था कि जब हनुमानजी सीताजी की खोज में वहां गये तो उन जैसा ज्ञानी भी वहां का वैभव और सौंदर्य देख ठगा सा रह गया था। 

वाल्मिकी रामायण में रावण एक वीर, धर्मात्मा, ज्ञानी, नीति तथा राजनीति शास्त्र का ज्ञाता, वैज्ञानिक, ज्योतिषाचार्य, रणनीति में निपुण, स्वाभिमानी, परम शिव भक्त तथा महान योद्धा निरुपित है। उसका एक ही दुर्गुण था, अभिमान ! अपनी शक्ति का अहम ही अंतत: उसके विनाश का कारण बना ! यदि निष्पक्ष रूप से कथा का विवेचन किया जाए तो साफ देखा जा सकता है कि रावण का चरित्र उस तरह का नहीं था जैसा कालांतर में लोगों में बन गया या बना दिया गया था ! श्रीराम ने लंका की तरफ बढ़ते हुए तेरह सालों में अनगिनत राक्षसों का वध किया, पर कभी भी आवेश में या क्रोधावश रावण ने राम से युद्ध करने की कोशिश नहीं की ! जब देवताओं ने देखा कि कोई भी उपाय रावण को उत्तेजित नहीं कर पा रहा है, तो उन्होंने शूर्पणखा कांड की रचना कर डाली ! उस अभागिन, मंद बुद्धि राक्षस कन्या को अपने भाई के समूचे परिवार के नाश का कारण बना दिया गया ! 

उसको बदसूरत किया जाना, रावण को खुली चुन्नौती थी ! पर रावण ने फिर भी धैर्य नहीं खोया ! उस समय यदि वह चाहता तो अपने इन्द्र को भी जीतनेवाले बेटे तथा महाबली भाई कुम्भकर्ण के साथ अपनी दिग्विजयी सेना को भेज दोनो भाईयों को मरवा सकता था। हालांकि राम-लक्ष्मण ने खर दूषण का वध किया था, पर उस राक्षसी सेना और रावण की सेना में जमीन आसमान का फर्क था ! जब हनुमान जी तथा और वानर वीरों के रहते निर्णायक युद्ध के दौरान इन दोनों पर घोर संकट आ सकता था, तो उस समय तो दोनो भाई अकेले ही थे ! 

पर रावण यह भी जानता था कि ये दोनो भाई साधारण मानव नहीं हैं ! युद्ध की स्थिति में लंका को और उसके निवासियों को भी बहुत खतरा था। इसलिए रावण ने युद्ध टालने के लिए सीता हरण की योजना बनाई ! उसकी सोच थी कि सीता जी के वियोग में यदि राम प्राण त्याग देते हैं तो लक्ष्मण का जिंदा रहना भी नामुमकिन होगा और ऐसे में विपदा टल जाएगी ! उसने सीता जी के हरण के पश्चात उन्हें अपने महल में ना रख, अशोक वाटिका में महिला निरिक्षकों की निगरानी में ही रखा और कभी भी उनके पास अकेला बात करने नहीं गया ! वैसे भी सीता हरण उसकी मजबूरी थी ! एक विश्व विजेता की बहन का सरेआम अपमान हुआ और वह चुप्पी साध कर बैठा रहता तो क्या इज्जत रह जाती उसकी ! इसके अलावा सिर्फ दो मानवों को मारने के लिए यदि वह अपनी सेना भेजता तो यह भी किसी तरह उसकी ख्याति के लायक बात नहीं थी ! यह काम भी उसके अपमान का सबब बनता ! 

पर रावण की योजना उस समय विफल हो गई, जब हनुमान जी ने राम-सुग्रीव की मैत्री का गठबंधन करवा दिया। उसके बाद अलंघ्य सागर ने भी राम की सेना को मार्ग दे दिया। फिर भी वह महान योद्धा विचलित नहीं हुआ ! एक-एक कर अपने प्रियजनों की मृत्यु के बावजूद उसने बदले की भावना के वश सीता जी को क्षति पहुंचाने का उपक्रम कभी नहीं किया ! विभिन्न कथाकारों ने रावण को कामी, क्रोधी, दंभी तथा निरंकुश शासक निरुपित किया है। पर ध्यान देने की बात है कि जिसमें इतने अवगुण हों, वह क्या कभी देवताओं द्वारा पोषित उनके कोष के रक्षक कुबेर को परास्त कर अपनी लंका वापस ले सकता था ? शिव जी के महाबली गण नंदी को परास्त करना क्या किसी कामी-क्रोधी का काम हो सकता था ? शिव जी को प्रसन्न कर उनका चंद्रहास खड़्ग लेना क्या किसी अधर्मी के वश की बात थी ? देवासुर संग्राम में जब मेघनाद ने इंद्र को पराजित किया, उस समय युद्ध में भगवान विष्णु और शिव जी ने भी भाग लिया था ! वे भी क्या रावण को रोक पाए थे ? ऐसा महाबली क्या भोग विलास में लिप्त रहनेवाला हो सकता है ? 

युद्ध के दौरान दोनों पक्षों ने शक्ति की पूजा की थी ! माँ ने दोनों को दर्शन दिए थे ! पर राम को वरदान मिला, विजयी भव का, और रावण को कल्याण हो ! रावण का कल्याण असुर योनी से मुक्ति में ही था ! सबसे बड़ी बात, यदि रावण बुराइयों का पुतला होता तो क्या सर्वज्ञ साक्षात विष्णु के अवतार, अपने ही अंश लक्ष्मण को रावण से ज्ञान लेने भेजते ? 

हमारे ऋषि-मुनियों ने सदा अहंकार से दूर रहने की सीख व चेतावनी दी है ! यह किसी भी रूप में हो सकता है, शक्ति का, रूप का, धन का, यहां तक की भक्ति का भी ! ऐसा जब-जब हुआ है, उसका फल अभिमानी को भुगतना ही पड़ा है। फिर वह चाहे इंद्र हो, नारद हो, कोई महर्षि हो या रावण हो ! पर शायद रावण के साथ ही ऐसा हुआ है कि प्रायश्चित के बावजूद, सदियां गुजर जाने के बाद भी बदनामी ने उसका पीछा नहीं छोड़ा ! आज भी उसे बुराईयों का पर्याय माना जाता है ! 
पर क्या यह उचित है ??

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

यहाँ रावण की पूजा के बिना कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता

मध्य प्रदेश के विदिशा जिले में एक गांव है “रावण”।
है ना आश्चर्य की बात ? यह नाम कैसे प्रचलन में आया यह तो कोई नहीं बता पाता पर करीब 600-650 सालों से यह गांव इसी नाम से जाता है। रामायण में रावण को कान्यकुब्ज ब्राह्मण बताया गया है, इस गांव की आबादी का करीब 80 प्रतिशत कान्यकुब्ज ब्राह्मण ही हैं, जो अपने इस देव की अत्यंत, अटूट श्रद्धा से पूजा-अर्चना करते हैं।

ग्राम मेँ प्रवेश करते ही तालाब के किनारे यह प्रतिमा लेटी हुई अवस्था मे है जो सफेद-लाल पत्थर से निर्मित है। अद्भुत कारीगरी वाली इस मुर्ती में रावण बहुत सौम्य, सुंदर और गरिमा-मय दर्शाया गया है। दस शीश, बीस हाथ जिनमें आयुध पकड़े हुए हैं, विशाल उदर वाली यह मुर्ती सदा फूल, अक्षत तथा रोली से सजी-संवरी रखी जाती है। किसी भी समारोह, उत्सव या शुभ कार्य का प्रारंभ इसकी पूला अर्चना के बिना शुरु नहीं किया जाता। इस गांव के अलावा आस-पास के गांवों में भी किसी के घर शादी-ब्याह हो तो वधू के गृहप्रवेश के पहले और बारात चलने के पूर्व रावण की पूजा जरूर की जाती है। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के अलावा भी जो लोग हैं वे भी अपना कोई भी शुभ कार्य रावण की पूजा करे बगैर नहीं शुरु करते।

अभी आजादी के बाद यहां भी दशहरे के दिन शाम को रावण के पुतले का दहन शुरु हो गया है पर सारे ग्राम वासी उस दिन सुबह पूरे विधि-विधान से पहले इस रावण की मूर्ती की पूजा करते हैं फिर शामको पुतला दहन किया जाता है। इसके अलावा रामनवमी, होली, दिवाली पर भी इस प्रतिमा की पूजा अर्चना जरूर की जाती है।
है ना अपना देश और इसकी मान्यताएं अद्भुत और विचित्र ?

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

महावीर जयंती पर विशेष

भगवान महावीर की दृष्टि मे साधु :-

केवल सिर मुड़ाने से कोई श्रमण नहीं हो जाता। सिर्फ हरिनाम जपने से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। जंगल में रहने मात्र से ही कोई ऋषी नहीं बन जाता। कुश या चीवर धारण कर लेने से ही कोई तपस्वी नहीं बन जाता।

बल्कि इंसान समता से श्रमण बनता है। ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण बनता है। ज्ञान से ऋषि बनता है और तप करने से ही तपस्वी बन पाता है। ये गुण ही हैं जो मनुष्य को साधु बनाते हैं और अवगुण उसी को असाधु बना देते हैं।

साधु ममत्वरहित, निरहंकारी, निस्संग, गौरवत्यागी, चर-अचर और स्थावर जीवों के प्रति समदृष्टि रखने वाला होता है। वह लाभ-हानि, सुख-दुख, जीवन-मरण, निंदा-प्रशंसा, मान-अपमान मे समभाव बनाए रखता है। वह ख्याति, दंड़, भय, हास्य, शोक जैसे बंधनों से मुक्त होता है। उस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, दु:शैया, कष्ट-सुख जैसे लौकिक, दैहिक कष्टों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसे लोक-परलोक की चिंता नहीं व्यापती। वह कभी भी हर्ष,विषाद या प्रमाद नहीं करता।

भगवान की सीख है कि हे मनुष्य सदा प्रबुद्ध और शांत रह कर ग्राम और नगर में विचरण कर सबको शांति का मार्ग दिखला। कभी भी प्रमाद ना कर। किसी भी तरह का वेष धारण मत कर। भावों की शुद्धि के लिए बाह्यपरिग्रह का त्याग कर अपना जीवन प्राणी-मात्र की सेवा में लगाए रख।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

१९९७ में इंद्रकुमार गुजराल और २०११ में मनमोहन सिंह, वर्षों का फासला पर ब्यान बिलकुल एक जैसे !!!

एक अजब संयोग - आज पुराने पन्ने पलटते हुए एक विचित्र जानकारी हाथ लगी, आप भी पढ कर देखें और माने कि इतिहास अपने को दोहराता है। साल 1997, अगस्त के अंतिम सप्ताह मे संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया गया था। नेता तो हर काल मे नेता ही होता है। उस समय भी हर नेता ने लंबे-चौड़े भाषण दिए खुद को पाक-साफ बताया और कहा कि देश की यह चिंताजनक हालत रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार है इससे हमें मुक्ति पानी है। उस समय देश के प्रधान मंत्री थे इंद्र कुमार गुजराल साहब। उन्होंने क्या कहा था, जरा गौर फरमाएं - "देश में भ्रष्टाचार है, लेकिन मैं विवश हूँ और शर्मिंदा हूँ। लोकसभा अध्यक्ष श्री संगमा ने कहा कि "मुझे शर्म आती है कि हमारा देश रिश्वतखोरी में डूबा हुआ है।" इसके जवाब में श्री चंद्रशेखर ने जोरदार शब्दों में कहा था "जब प्रधान मंत्री और लोकसभा अध्यक्ष कहते हैं कि हम विवश हैं और हमें देश की हालत पर शर्म आती है तो उन्हें पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है।" अजीब संयोग है, बिल्कुल ऐसे ही हालात और वैसे ही ब्यान आज भी दिए जा रहे हैं। उस समय चंद्रशेखर जी ने स्पष्ट कहा था कि जब सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठे इंसान, जिसके हाथ में कानून और सुरक्षा की जिम्मेदारी है, वही यदि अपने को पाक-साफ सिद्ध करने के लिए भ्रष्टाचारियों के सामने खुद को विवश बता, आंसू बहा जनता की हमदर्दी हासिल करना चाहे तो जनता का मनोबल तो गिरेगा ही देश की अस्मिता को भी ठेस पहुंचेगी।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

कीड़े-मकोड़े ही नहीं पक्षी भी जहरीले होते हैं.

जनविश्वास है कि कीडे-मकोडे ही जहरीले होते हैं। पर खोजों से पता चला है कि कुछ पक्षी भी जहरीले होते हैं। उन्हीं मे से एक है
“पिटोहुई”।




आस्ट्रेलिया के न्यूगिनी के जंगलों मे पाया जाने वाला लाल-काले रंग का यह पक्षी अपने जहरीलेपन के कारण जाना जाता है। वहां के स्थानीय लोग इस एस्लेकयाट यानि कड़वी चिड़िया के नाम से जानते हैं। इस करीब सौ ग्राम वजन तथा दस इंच की लंबाई वाले पक्षी की चोंच और पैर बहुत मजबूत होते हैं। इसकी खोज अचानक ही हो गयी थी। अपने किसी मिशन पर गये पक्षी वैज्ञानिक ड़बैचर के जाल में यह अकस्मात ही फंस गया था। उन्होंने जब इस पर ध्यान देना शुरु किया तो इसने उनकी उंगली को अपनी चोंच से घायल कर दिया, उंगली से खून निकलता देख उन्होंने उंगली को मुंह में जैसे ही रखा तो उन्हें लगा जैसे मुंह मे आग लग गयी हो। उनका शरीर घमौरियों से भर गया और शरीर में जलन सी होने लगी।

पक्षी की इस विषेशता का पता स्थानीय लोगों को है इसीसे वे इस में कोई रुची नहीं लेते हैं। पर अपने इसी गुण की खातिर यह पक्षी बहुत सारी विपदाओं से बचा भी रहता है। वैसे इसके दुश्मन कम नहीं हैं। सांपों और बाजों का यह प्रिय आहार है।


इसी तरह का एक पक्षी “इफ्राटा” है, जिसका रंग नारंगी-कालापन लिए होता है। इन पक्षियों का आहार छोटे कीड़े, चींटियां, केंचुए इत्यादि हैं। इनकी प्रजाति न्यूगिनी मे ही पाई जाती है। वहां भी विपरीत परिस्थितियों के कारण इनकी संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है।

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

नेता अड़ा हुआ था कि उसका खर्च सरकार देगी

बाबा आमटे की भ्रष्टाचार विरोधी सभा से एक साथ एक ही कार मे वापस जाते हुए, एक नेता, एक अभिनेता और एक व्यापारी की एक्सीडेंट में मौत हो गयी। पर कुछ देर बाद अभिनेता को होश आ गया। वह जब थोड़ा ठीक महसूस करने लगा तो लोग पूछनै लगे कि क्या हो गया था कैसे सब हुआ। अभिनेता बोला कैसे हुआ यह तो ठीक से मालुम नहीं है पर ऊपर जो हुआ वह पूरी तरह याद है। लोगों के पूरी बात बताने के आग्रह को देख अभिनेता ने कहना शुरु किया कि जैसे ही हम ऊपर पहुंचे तो वहां एक भव्य, विशाल द्वार के सामने अपने को खड़ा पाया वहां द्वारपाल ने हमें बताया कि कहीं कुछ गड़बड़ी के कारण उनका निर्णय नहीं हो पा रहा है। सो उन्हें कुछ समय की लीज मिल सकती है। इसके लिए उन्हें एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएं जमा करानी होंगी। मैंने अपने क्रेडिट कार्ड़ से तुरंत पेमेंट कर दी और वापस आ गया। लोगों ने पूछा कि आपके साथ के नेताजी और वह व्यापारी महोदय क्यों नहीं आए? अभिनेता ने जवाब दिया, व्यापारी तो मोल-भाव में जुटा था कि रकम ज्यादा है इसे कम करो और नेताजी कह रहे थे कि उनका खर्चा सरकार उठाएगी ।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

होना छत्तीसगढ़ के रायपुर के गैस-कार्डों का सत्यापन, जैसे दिखा हो बुरा सपना

सभी जानते हैं कि रसोई गैस का गलत तरीकों से इस्तेमाल किया जाता रहा है। जिससे त्योहारों जैसे मौकों पर इसकी किल्लत हो जाती है। वैसे यह भी हो सकता है कि यह किल्लत कालाबाजारी के कारण कृत्रिम रूप से बनाई जाती रही हो। इसमें भी कोई बड़ी बात नहीं है। इसी बीमारी को खत्म करने के लिए एक अच्छी मंशा के साथ छत्तीसगढ की राजधानी रायपुर में रसोई गैस धारकों के कार्ड़ों के सत्यापन के लिए एक अभियान चलाया गया। जिससे असली उपभोक्ताओं की तस्वीर सामने आ सके और नकली कार्ड़ निरस्त किए जा सकें। पर पता नहीं क्यों इसके लिए जो तरीका अख्तियार किया गया वह पूरी तरह अव्यवहारिक था। इसके तहत उपभोक्ता को तरह-तरह के कागजों के साथ एक निश्चित जगह पर आ कर अपनी सत्यता को स्थापित करना था। उस पर तुक्का यह कि उसे ड़रा भी दिया गया था कि सत्यापन ना करवाने पर कार्ड़ निरस्त कर दिया जाएगा। बस शहर में हड़कंप मच गया। सीधा साधा 'मैंगोमैन' भिड़ गया कागजों को इक्कठा करने, बनवाने के चक्करों में, अपना काम-काज छोड़, दिन की तन्ख्वाह को दांव पर लगा अपनी सच्चाई पर मोहर लगवाने। विडंबना थी कि ये वही लोग थे जिन्होंने इस मुए कार्ड़ को बनवाने के लिए भी ना जाने कैसे-कैसे धक्के खाए थे। इन सब को यह भी पता था कि यह उनके साथ गलत हो रहा है क्योंकि कालाबाजारी वे नहीं करते। इसका सारा खेल शुरु तथा खत्म गैस एजेंसियों से ही होता है। पर करें क्या मजबूर जो ठहरे। क्या प्रशासन को पता नहीं है कि शहर के किसी भी कोने से 150-200 रुपये देकर बिना कार्ड़ के गैस टंकी आसानी से मिल जाती है। शहर के अंदर या बाहर के ढाबों पर घरेलू गैस की टंकियों से ही भोज्य पदार्थ बनाए जाते हैं। वह भी असली उपभोक्ता की जेब काट कर। वहां गैस टंकियों से भरा ट्रक पहले दिन गैस टंकी देता जाता है दूसरे दिन वही टंकी वापस ले नयी छोड़ जाता है। कुछ हल्की हुई पहले वाली को कार्ड़ धारी के मत्थे मढ दिया जाता है, जो जागरूकता के अभाव में जो मिल गया उसे ही मुकद्दर समझ, अंजाने में ही सही, अन्याय का शिकार बनता रहता है। पेट्रोल की बढती कीमतों के कारण यही गैस बहुतों की रसोई नहीं उनकी गाड़ियां चलाती है। शादी-ब्याहों में कितने जने पूछ-परख करते हैं कि यह गैस कहां से आई? कहानियों में वर्णित है कि पुराने समय में आश्रमों में पढने वाले धनाढ्य परिवार के बच्चों को मारा-पीटा या धमकाया नहीं जाता था। उसे डराने के लिए उसके पास बैठे गरीब परिवार के बच्चे को बिना उसकी गलती के दंड़ित किया जाता था जिससे डर के मारे वह धनीपुत्र डर जाए और आगे गलती ना करे। वैसा ही कुछ इस बार गैस कार्डों के सत्यापन को ले कर किया गया। होना तो यह चाहिए था कि काला बाजारी करने वाली गैस एजेंसियों पर कार्रवाही की जाती। एजेंसियों और अफसरों की मिली-भगत पर नजर रखी जाती, पर हुआ उल्टा। उसी मध्यम वर्ग पर गाज गिरी जो इस मुए कार्ड़ को बनवाते समय भी दसियों तरह की परेशानियों से दो-चार हो चुका था। उसी को फिर बली का बकरा बनाया गया, लंबी-लंबी लाइनों में लगने क बाद भी सत्यापन होगा कि नहीं की उहापोह में अपना रक्त-चाप बढवाने के साथ-साथ। यह सब ठीक वैसा ही था जैसे चोरी होने के बाद चोर को ढूंढने-पकड़ने की बजाए जिसके घर चोरी हुई हो उसी को हड़काया जाना शुरु कर दिया जाए। बताओ, तुम्हारा दरवाजा बंद था या खुला, आल्मारी में ताला लगा था कि नहीं, यदि नहीं तो क्यों नहीं लगाया था, घर किसका है, सामान खरीद कर लाए थे या कैसे मिला था, इतना सामान रखते ही क्यों थे इत्यादि-इत्यादि। उधर चोर की ना तो तलाश हो रही है नाहीं उसकी फिक्र है । ऐसी सोच है कि इतना सब करने पर वह अपने-आप सुधर जाएगा। फिलहाल तो सब स्थगित है। आने वाले दिनों में अब ऊंट पर नजर रहेगी। पर यह स्थगन किसी और दिशा की तरफ तो इशारा नहीं कर रहा ?

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

युद्ध से जरूर हटे थे पर ना वे भगोड़े थे नाहीं कायर

युद्ध से भागना या पीठ दिखाना कायरता की निशानी मानी जाती है। पर यदि उस दिन पराजय सामने नजर आ रही हो, हार ना टाली जा सकने वाली हो तो क्या उस समय मैदान छोड़ देना कायरता या बेवकूफी कहलाएगी या अक्लमंदी? निश्चित रूप से यह अक्लमंदी कहलाएगी। परिस्थितियों को पूरी तौर से अपने खिलाफ होता देख, युद्ध भूमि से और तैयारी करने के लिए कुछ समय के लिए हट जाने में कोई लज्जा या संकोच की बात नहीं होती बल्कि यह चतुराई है। इस बात के पूर्ण पक्षधर थे वीर शिवाजी। जब-जब उन्हें अपना पक्ष कमजोर होता दिखा उन्होंने मोर्चे से खुद को अलग कर लिया और फिर पूरी तैयारी से वापस आकर जीत हासिल की। चाहे वह पन्हालगढ की लड़ाई हो चाहे औरंगजेब की जेल हो चाहे महावत खां के साथ युद्ध हो। वैसे उसी औरंगजेब को भी बीजापुर के युद्ध में मैदान छोड़ना पड़ा था। हुमायूं को बार-बार शेरशाह से लड़ाई के दौरान बचना पड़ा था। भागने में अंग्रेज भी पीछे नहीं रहे पर उन्होंने तैयारी कर फिर-फिर वापसी की। स्वतंत्रता की लड़ाई में वीर सावरकर अंग्रजों के चंगुल से पानी के जहाज के संड़ास के 'पोर्ट-होल' से निकल भागे थे। सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों को धोखा दे देश से बाहर चले गये थे। माओत्से तुंग च्यांगकाई शेक की सेना से लड़ने में असफल रहने पर लगातार महिनों लुकते-छिपते रहे थे। चीन के आक्रमण करने पर दलाई लामा भारत चले आए थे। इंसानों की तो क्या कहें खुद भगवान श्री कृष्ण को भी इस चतुराई का सहारा लेना पड़ा था जब मथुरा पर जरासंध के बार-बार आक्रमण करने के कारण वे मथुरा छोड़ द्वारका चले गये थे। इसी से उनका एक नाम 'रणछोड़' भी है। मुहम्मद पैगंबर भी मक्का छोड़ मदीना चले गये थे। पर वह दिन भी गर्व से हिजरी संवत मान कर याद किया जाता है। लड़ाई में हार-जीत तो चलती ही रहती है। लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त होना निश्चित रूप से बहादूरी होती है पर यदि उससे विजय प्राप्त ना हो तो देश को लाभ नहीं पहुंचता। समय विपरीत जान मैदान छोड़ देना कायरता कि श्रेणी में नहीं आता। समय को अपने पक्ष में करने के लिए उठाया गया ऐसा कदम बुद्धिमत्ता पूर्ण होता है। कायरता युद्ध से भाग कर फिर युद्ध ना करने में है। ये सारे महापुरुष भले ही एक समय युद्ध से निकल गये हों पर मौका मिलते ही इन्होंने अपने दुश्मनों को हरा कर ही चैन की सांस ली थी।

रविवार, 10 अप्रैल 2011

माँ दुर्गा के नौ रूप

नवरात्र के दिनों में माँ दुर्गा की आराधना तथा पूजन नौ दिनों तक किया जाता है। पंडितों और विद्वानों को तो ज्ञात ही होगा, पर ज्यादातर भक्तजनों को शायद यह न मालुम हो कि इन नौ दिनों में माँ के नौ रूपों की पूजा की जाती है। जिनके नाम निम्नानुसार है - पहला दिन - माँ शैलपुत्री, दूसरा दिन - माँ ब्रह्मचारिणी, तीसरा दिन - माँ चंद्रघंटा, चौथा दिन - माँ कुष्मांडा, पांचवां दिन - माँ स्कंदमाता, छठा दिन - माँ कात्यायनी, सातवां दिन - माँ कालरात्री, आठवां दिन - माँ महागौरां तथा नौवां दिन - माँ सिद्धीदात्री के नाम समर्पित होता है।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

रहस्य का आवरण लपेटे "बिल्ली"

दुनिया के सैकड़ों-हजारों जीव- जंतुओं मे दो ऐसे प्राणी हैं जो अपने इर्द-गिर्द सदा रहस्य और ड़र का कोहरा लपेटे रहते हैं। पहला है बिल्ली और दूसरा सांप। वैसे इस मामले में बिल्ली सांप से कहीं आगे है। इसी की जाति के शेर, बाघ, तेंदुए आदि जानवर ड़र जरूर पैदा करते हैं पर रहस्यात्मक वातावरण नहीं बनाते। पर अफ्रीकी मूल के इस प्राणी, "बिल्ली" को लेकर विश्व भर के देशों में अनेकों किस्से, कहानियां और अंधविश्वास प्रचलित हैं। जहां जापान मे इसे सम्मान दिया जाता है क्योंकि किसी समय इसने वहां चूहों के आतंक को खत्म कर खाद्यान संकट का निवारण किया था। वहीं दूसरी ओर इसाई धर्म में इसे बुरी आत्माओं का साथी समझ नफ़रत की जाती रही है। फ्रांस मे तो इसे कभी जादूगरनी तक मान लिया गया था। हमारे यहां भी इसको लेकर तरह-तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। एक ओर तो इसके रोने की आवाज को अशुभ माना जाता है। आज के युग मे भी यदि यह रास्ता काट जाए तो अच्छे-अच्छे पढे-लिखे लोगों को ठिठकते देखा जा सकता है। रात के अंधेरे में आग के शोलों कि तरह दिप-दिप करती आंखों के साथ यदि काली बिल्ली मिल जाए तो देवता भी कूच करने मे देर नहीं लगाते। संयोग वश यदि किसी के हाथों इसकी मौत हो जाए तो सोने की बिल्ली बना दान करने से ही पाप मुक्ति मानी जाती है। दूसरी ओर दिवाली के दिन इसका घर में दिखाई देना शुभ माना जाता है।दुनिया भर की ड़रावनी फिल्मों मे रहस्य और ड़र के कोहरे को घना करने मे सदा इसकी सहायता ली जाती रही है। यह हर तरह के खाद्य को खाने वाली है पर इसका चूहे और दूध के प्रति लगाव अप्रतिम है। इसे पालतू तो बनाया जा सकता है पर वफादारी की गारंटी शायद नहीं ली जा सकती।सांपों को लेकर भी तरह-तरह की भ्रान्तियां मौकापरस्तों द्वारा फैलाई जाती रही हैं। जैसे इच्छाधारी नाग-नागिन की विचित्र कथाएं। जिन पर फिल्में बना-बना कर निर्माता अपनी इच्छायें पूरी कर चुके हैं। एक और विश्वास बहुत प्रचलित है, नाग की आंखों मे कैमरा होना, जिससे वह अपना अहित करने वाले को खोज कर बदला लेता है। चाहे वह दुनिया के किसी भी कोने मे हो। सपेरों और तांत्रिकों द्वारा एक और बात फैलाई हुई है कि सांप आवश्यक अनुष्ठान करने पर अपने द्वारा काटे गये इंसान के पास आ अपना विष वापस चूस लेता है।पर सच्चाई तो यह है कि दूध ना पीने वाला यह जीव दुनिया के सबसे खतरनाक प्राणी, इंसान, से ड़रता है। चोट करने या गलती से छेड़-छाड़ हो जाने पर ही यह पलट कर वार करता है। उल्टे यह चूहे जैसे जीव-जंतुओं को खा कर खेती की रक्षा ही करता है। जिससे इसे किसान मित्र भी कहा जाता है। दुनिया के दूसरे प्रणियों की तरह ये भी प्रकृति की देन हैं। जरूरत है उल्टी सीधी अफवाहों से लोगों को अवगत करा अंधविश्वासों की दुनिया से बाहर लाने की।

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अवमानना संविधान की

आज CAA के नियमों को लेकर जैसा बवाल मचा हुआ है, उसका मुख्य कारण उसके नियम नहीं हैं बल्कि हिन्दू विरोधी नेताओं की शंका है, जिसके तहत उन्हें लग...