शनिवार, 29 अक्तूबर 2022

शिव वाहन नंदी

जिस तरह गायों में कामधेनु श्रेष्ठ मानी जाती हैं वैसे ही बैलों में नंदी को श्रेष्ठ माना गया है। आम तौर पर बल और शक्ति के प्रतीक, शांत और खामोश रहने वाले बैल का चरित्र उत्तम और समर्पण भाव वाला माना जाता है। पर मोह-माया और भौतिक इच्छाओं से परे रहने वाला यह प्राणी जब क्रोधित होता है तो शेर से भिड़ने में भी नहीं कतराता ! शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ अर्थात परिश्रम का साक्षात प्रतीक है...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

जितने विलक्षण हमारे देवाधिदेव शिव जी हैं, उतना ही अनोखा उनका परिवार भी है ! फिर वो चाहे मूषक हो ! चाहे सिंह हो ! मयूर हो या फिर शिव जी के प्रमुख गण नंदी ही क्यों ना हो ! परिवार का हर सदस्य अपने आप में अद्वितीय है ! हो भी क्यों ना ! देवों के भी देव का सानिध्य, उनकी कृपा, उनका सदा का साथ यूं ही तो नहीं मिल जाता ! इन सब के साथ अपनी-अपनी अद्भुत कथाएं भी जुडी हुई हैं ! इनमें सब से शक्तिशाली गण नंदी जी हैं ! संस्कृत में 'नन्दि' का अर्थ प्रसन्नता या आनन्द है। नंदी को शक्ति-संपन्नता और कर्मठता का प्रतीक माना जाता है ! इनके प्रादुर्भाव की कथा भी बहुत अनोखी है !

शिवपुराण की एक कथा के अनुसार जब शिलाद मुनि ने योग और तप के लिए ब्रह्मचर्य का व्रत अपना लिया तो उनके पितर अपना वंश समाप्त होते देख चिंतित हो गए ! आपसी परामर्श के बाद, वंश वृद्धि के लिए उन्होंने शिलाद मुनि को इंद्र देव से वरदान स्वरुप पुत्र की कामना करने को कहा। अपने पितरों की आज्ञानुसार शिलाद मुनि ने संतान की कामना के लिए इंद्र देव को प्रसन्न कर ऐसे पुत्र का वरदान तो मांगा, साथ ही यह शर्त भी जोड़ दी कि वह बालक जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त हो। इस पर इंद्र देव ने अपनी असमर्थता जाहिर कर उन्हें भगवान शिव के पास जाने की सलाह दी। इंद्रदेव की आज्ञा के अनुसार  शिलाद मुनि ने भगवान शंकर की कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने शिलाद के पुत्र के रूप में अपने अंश के प्रकट होने का वरदान दिया। इसके कुछ समय के पश्चात ही हल जोतते हुए शिलाद मुनि को धरती से एक बालक की प्राप्ति हुई, जिसे शिव जी का वरदान मान उन्होंने उसका नाम नंदी रखा।   
जब नंदी कुछ बड़े हुए तब मित्र और वरुण नाम के दो ऋषि शिलाद मुनि के आश्रम आए ! उन्होंने नंदी के अल्पायु होने की बात बताई ! इससे शिलाद चिंतित हो गए ! उनकी चिंता का कारण जान नंदी हंसने लगे और कहा कि शिव जी की कृपा से आपने मुझे प्राप्त किया था, वही मेरी रक्षा करेंगे। इसके बाद नंदी ने भुवन नदी के किनारे शिव जी की कठिन तपस्या की। उनकी कठोर तपस्या और भक्तिभाव से प्रभु द्रवित हो गए और वर मांगने को कहा ! नंदी ने उम्र भर उनके सानिध्य में रहने की इच्छा जाहिर की। उनके समर्पण से शिवजी प्रसन्न हुए और उन्होंने नंदी जी को मृत्यु भय के साथ ही अन्य विभीषिकाओं से भी मुक्ति प्रदान कर माता पार्वती की सम्मति से गणों के अधिपति के रूप में अभिषेक कर नंदीश्वर का पद प्रदान कर उन्हें अपना वाहन और कैलाश पर अपने निवास का द्वारपाल नियुक्त कर दिया। 


एक बार शिव पार्वती के विहार के समय ऋषि भृगु उनके दर्शन करने आए तो नंदी जी ने बिना उनके क्रोध से डरे, निर्विकार रूप से उन्हें बाहर ही रोक दिया क्योंकि शिव-पार्वती जी की ऐसी ही आज्ञा थी। इससे ऋषि भृगु भी उनसे काफी प्रभावित हो गए ! इसी तरह जब रावण अपने अहम के चलते कैलाश पर्वत को उठाने की हिमाकत की थी तब भी नंदी ने क्रुद्ध होकर रावण को ऐसा जकड़ा कि लाख कोशिशों के बावजूद वह छूट नहीं पाया ! उसे मुक्ति तभी मिली जब उसने शिव जी की आराधना कर नंदी जी से क्षमा मांग अपनी गलती स्वीकार कर ली ! एक और कथा के अनुसार जब देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन हुआ था, उस वक्त भगवान शिव ने हलाहल विष पीकर इस संसार को बचाया था ! उस समय विष की कुछ बूंदे जमीन पर गिर गई थीं, जिसे नंदी ने बिना अपनी  परवाह किए जगत की रक्षा हेतु जीभ चाट लिया था ! नंदी का ये समर्पण देखकर भगवान शिव ने उन्हें अपने सबसे बड़े भक्त की उपाधि दी और ये आशीर्वाद दिया कि उनके दर्शन से पहले लोग नंदी के दर्शन करेंगे। 
                                           
कुछ समय पश्चात नंदी जी का विवाह मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ सम्पन्न करवा दिया गया ! उसी समय भगवान शिव ने उनको वरदान दिया कि जहां भी नंदी का निवास होगा, उसी स्थान पर मैं भी निवास करूंगा ! यही कारण है कि हर शिव मंदिर में नंदी की स्थापना की जाती है। जहां भी देवों के देव महादेव पूजे जाते हैं या उनका मंदिर होता है वहां नंदी का होना अवश्यम्भावी है। शिव की मूर्ति के सामने या मंदिर के बाहर शिव के वाहन नंदी की मूर्ति सदैव स्थापित होती है, जिसके नेत्र सदैव अपने इष्ट को देखते हुए उनका स्मरण करते रहते हैं। जिसका अर्थ है कि भक्ति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्राणी को क्रोध, अहम, दुर्गुणों को पराजित करने का सामर्थ्य होना चाहिए। नंदी पवित्रता, विवेक, बुद्धि और ज्ञान के प्रतीक माने जाते हैं।


जिस तरह गायों में कामधेनु श्रेष्ठ मानी जाती हैं वैसे ही बैलों में नंदी को श्रेष्ठ माना गया है। आम तौर पर बल और शक्ति के प्रतीक, शांत और खामोश रहने वाले बैल का चरित्र उत्तम और समर्पण भाव वाला माना जाता है। पर मोह-माया और भौतिक इच्छाओं से परे रहने वाला यह प्राणी जब क्रोधित होता है तो शेर से भिड़ने में भी नहीं कतराता ! शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ अर्थात परिश्रम का साक्षात प्रतीक है।

नंदी जी का इस जगत को एक संदेश यह भी है कि जिस तरह वह भगवान शिव के वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है। जैसे नंदी की दृष्टि शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी दृष्टि भी आत्मा की ओर ही होनी चाहिए। हर व्यक्ति को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखनी चाहिए ! तभी जीवन की सार्थकता है। 

@संदर्भ तथा चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2022

मरतबान, बरनी या इमर्तवान

मर्तबान, मृद्भांडों के परिवार का सदस्य है। जिसका एक भाई-बंद भांड या कुल्हड़ कहलाता है ! भांड शब्द आजकल बहुत कम सुनाई पड़ता है ! जबकि गाँवों-कस्बों की भाषा अभी भी इसका चलन है। बंगाल जैसे प्रांत में अभी भी चाय वगैरह के कुल्हड़ों को भांड ही कहा जाता है ! चीनी मिटटी की बनी चाय की केतलियों की याद तो अभी भी बहुत से लोग भूले नहीं होंगे ! मिट्टी इत्यादि से बने ऐसे बर्तन पर्यावरण के साथ-साथ मानवोपयोगी भी होते हैं ! इनमें रखी वस्तुएं ना जल्दी खराब होती हैं नाहीं उनमें कोई रासायनिक परिवर्तन होता है ! इसके अलावा मिट्टी की एक अलग तासीर सी भी इनमें शामिल हो जाती है ..............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

मरतबान, मर्तबान, बरनी या इमर्तवान ! अचार, घी, आदि रखने का चीनी मिट्टी या सादी मिट्टी आदि का चौड़े मुँह एवं हत्थे या बिना हत्थे का ढक्कनदार रोगन किया हुआ बर्तन ! किसी समय यह हर रसोई का एक अहम हिस्सा हुआ करता था ! बदलते फैशन और पश्चिम के अंधानुकरण से भले ही यह शहरी रसोइयों से दूर हो गया हो पर गांव-देहात या कस्बों में इसका प्रचलन बदस्तूर जारी रहा। होम्योपैथी, आयुर्वेद तथा यूनानी हकीमों के यहां आज भी भूरे और सफ़ेद रंग के मर्तबान या बरनियों को उपयोग में आता देखा जा सकता है। वैसे इस बहुपयोगी पात्र ने फिर वापसी की है और इस बार ज्यादा तड़क-भड़क, रंग-बिरंगे, चटकीले, आकर्षक और शिल्पयुक्त विभिन्न आकारों और आकृतियों में अवतरित हो, घरों की साज-सज्जा में चार चाँद लगा रहा है ! आजकल आधे फुट से लेकर चार-पाँच फुट तक के सजावट के काम आने वाले विभिन्न आकार के इन मर्तबानों का प्रयोग गुलदस्ते की तरह भी किया जा रहा है, जिनमें सजे फूलों से इनकी सुंदरता और भी बढ़ जाती है। 



मर्तबान नगर, भारत की पूर्वी सीमा से सटे हुए बर्मा राज्य के पेगू प्रदेश के इस शहर में बहुत पहले से चीनी मिट्टी के पात्र बनाए जाते रहे थे, जहां से इनका निर्यात होता था। इस नगर के नाम पर ही इन पात्रों को विदेश में 'मर्तबान' कहा जाने लगा । माले, चीन, तिब्बत, जापान, कोरिआ और ओमान जैसी जगहों में भी इनको बनाने का चलन रहा है। मध्य काल में भारत में ये उपलब्ध होने लग गए थे। विदेशी यात्री इब्नबतूता ने अपनी भारत यात्रा के विवरण में इनका वर्णन किया है। मर्तबान शब्द को यूँ तो अरबी मूल का माना जाता है और इसकी व्युत्पत्ति "मथाबान" से बताई जाती है !      


मर्तबानमृद्भांडों के परिवार का सदस्य है। जिसका एक भाई-बंद भांड या कुल्हड़ कहलाता है ! भांड शब्द आजकल बहुत कम सुनाई पड़ता है ! जबकि गाँवों-कस्बों की भाषा अभी भी इसका चलन है। बंगाल जैसे प्रांत में अभी भी चाय वगैरह के कुल्हड़ों को भांड ही कहा जाता है ! चीनी मिटटी की बनी चाय की केतलियों की याद तो अभी भी बहुत से लोग भूले नहीं होंगे ! मिट्टी इत्यादि से बने ऐसे बर्तन पर्यावरण के साथ-साथ मानवोपयोगी भी होते हैं ! इनमें रखी वस्तुएं ना जल्दी खराब होती हैं नाहीं उनमें कोई रासायनिक परिवर्तन होता है ! इसके अलावा मिट्टी की एक अलग तासीर सी भी इनमें शामिल हो जाती है ! वर्षों पहले जब आधुनिक मशीनें नहीं थीं तब से गृहणियां इन्हीं बर्तनों में अचार-मुरब्बा-घी वगैरह सुरक्षित रखती आ रही हैं।
                                


समय के साथ-साथ हमारे यहां अब इनका प्रयोग विदेश टोटके, फेंग्शुई जैसी विधाओं में भी होने लगा है ! उसके अनुसार पीले और लाल रंग के मर्तबान सबसे प्रभावशाली होते हैं और इनका सही उपयोग घर व कार्यालय में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने, आपसी संबंधों को मधुर बनाने तथा सुख-शान्ति के लिए प्रभावशाली साबित होता है। प्राचीन चीनी वास्तुकला में भी ये अत्यंत उपयोगी माने जाते रहे हैं। जरूरत है सिर्फ सही चयन और उनके उचित उपयोग की।

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

कोलकाता की रसगुल्ले वाली चाय

कुछ सालों पहले एक उद्यमी ने सौ विभिन्न स्वादों में रसगुल्ले बनाए थे ! उत्सुकतावश कुछ दिन तो बहुत हो-हल्ला रहा फिर धीरे-धीरे उनके प्रति लोगों का रुझान कम होता चला गया ! कुछ लोग समोसे में आलू की जगह मटर, चने, काजू इत्यादि का इस्तेमाल करते हैं पर जो सनातन बात आलू भरे समोसे की होती है वह दूसरी चीजों से नहीं बन पाती ! वही बात रसगुल्ले की भी है ! जो बात कोमल, मुलायम, दूधिया रसगुल्ले के स्वाद में है वह और कहाँ..........!

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जितनी विविधता हमारे रहन-सहन में है उतनी ही हमारे खान-पान में भी है ! वैसे तो आज हर चीज हर जगह उपलब्ध है फिर भी किसी-किसी व्यंजन विशेष का अपने प्रदेश में स्वाद कुछ और ही होता है ! इस खासियत को बचाए रखने के साथ-साथ उसमें और भी बढ़ोत्तरी के लिए खान-पान की दुनिया में तरह-तरह के प्रयोग चलते ही रहते हैं ! जिससे भोजन प्रेमियों को कुछ और नया जायका या स्वाद मिल सके ! इन्हीं प्रयोगों के चलते कभी-कभी अचानक कुछ ऐसा बन जाता है जिसकी विशेषता व नवीनता उसे रातोंरात भोजन प्रेमियों का चहेता बना देती है ! जैसा वर्षों पहले रसगुल्ले की ईजाद पर हुआ था ! कभी कभी खाद्य निर्माता पुरानी चीजों के साथ भी प्रयोग करते रहते हैं जो कमोबेश लोकप्रिय भी हो जाती हैं ! उदाहरण स्वरूप समोसे को लिया जा सकता है जिसमें आलू की जगह तरह-तरह की अन्य सामग्रियों को भर उसे नया स्वाद देने की कोशिश की जाती रहती है ! 
इसी संदर्भ में, आजकल कोलकाता में रसगुल्ले वाली चाय ''वायरल'' हो रही है ! हालांकि दोनों का कोई मेल नहीं है फिर भी जो चल जाए वही सफल ! यह अलग बात है कि ऐसे प्रयोग धूमकेतु ही सिद्ध होते हैं फिर भी जब तक हैं, तो हैं ! अब बात आती है कि इसकी ईजाद कैसे हुई ! तो एक बंगाली भद्रलोक, जिनकी अपनी एक अच्छी-खासी चाय की दूकान कोलकाता के साउथ सिटी मॉल के पास है, कहीं जा रहे थे तो एक जगह गर्मागर्म रसगुल्ले बनते देखे ! ज्ञातव्य है कि रसगुल्ला गर्म और ठंडा दोनों स्थितियों में स्वादिष्ट लगता है ! तो वे सज्जन अपने को रोक नहीं सके और रसगुल्ले का सेवन करते हुए चाय भी ले ली  ! टेस्ट अच्छा लगा,  तभी उनके दिमाग में इस ''फ्युजन'' का विचार आया ! दूसरे दिन अपनी दूकान में उन्होंने अपने मित्रों को अपना आयडिआ पेश किया जो ''वायरल'' हो गया ! बंगाल के भद्र लोगों का प्यार रसगुल्ला और चाय ! एक साथ !
कुछ एक उत्पादों को छोड़ दिया जाए, जैसे राजभोग, तो इस तरह के प्रयोग मूल वस्तु के सामने ज्यादा दिन नहीं टिकते ! कुछ सालों पहले एक उद्यमी ने सौ विभिन्न स्वादों में रसगुल्ले बनाए थे ! भले आदमी ने एक में तो मिर्ची का स्वाद भी डाल दिया था ! उत्सुकतावश कुछ दिन तो बहुत हो-हल्ला रहा फिर धीरे-धीरे उनके प्रति लोगों का रुझान कम होता चला गया ! कुछ लोग समोसे में आलू की जगह मटर, चने, काजू इत्यादि का इस्तेमाल करते हैं पर जो सनातन बात आलू भरे समोसे की होती है वह दूसरी चीजों से नहीं बन पाती ! वही बात रसगुल्ले की भी है ! जो बात कोमल, मुलायम, दूधिया रसगुल्ले के स्वर्गिक स्वाद में है, वह और कहाँ ! फिर भी स्वाद बदलने के लिए कुछ दिन, कुछ और सही !  

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

बाबिया, एक शाकाहारी मगरमच्छ

मंदिर के पदाधिकारियों के अनुसार वर्षों पहले भी इस झील में एक मगरमच्छ रहता था।  जिसे बाबिया कह कर पुकारा जाता था। 1942 में उसे एक ब्रिटिश अधिकारी मार कर अपने साथ ले गया था ! पर कुछ ही दिनों बाद उसकी सांप के काटने से मौत हो गयी थी ! इस घटना के बाद आश्चर्यजनक रूप से झील में एक और मादा मगर दिखाई पड़ने लगी ! भक्तों ने उसका नाम भी बाबिया रख दिया ! वह यही बाबिया थी, जिसने भक्तों तथा मंदिर द्वारा प्रदत्त प्रसाद पर ही अपनी तक़रीबन दो तिहाई जिंदगी  गुजार दी ! पर जाते-जाते भी वह यह संदेश दे गई कि कदाचार से सदाचार, आचरण बदलते ही जीव वंदनीय हो जाता है ...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

मगरमच्छ, वह भी शाकाहारी ! सहसा विश्वास ही नहीं होता ! यह ठीक वैसा ही लगता है जैसे कोई कहे कि शेर घास खा कर जिंदा है ! ज्यादातर पानी में रहने वाले, इस डरावने उभयचर का नाम सुनते ही डर से रोंगटे खड़े हो जाते हैं ! जिस प्राणी से पानी में शेर और हाथी जैसे ताकतवर जानवर भी सामना करने से कतराएं ! जिसके खूंखार दांत एक झटके में किसी के भी टुकड़े-टुकड़े कर सकने में सक्षम हों ! जो पानी में रहने वाले जीवों का काल हो ! वह शाकाहारी .....! पर हमारा संसार भरा पड़ा है, विस्मित करने वाले  आश्चर्यजनक, अविश्वसनीय, हैरतंगेज कारनामों से ! इस जगत में क्या कुछ नहीं हो सकता !

बाबिया 

केरल के कासरगोड जिले के माजेश्वरम नामक स्थान में  स्थित आनंदपद्मनाभ स्वामी मंदिर ! ऐसी मान्यता है कि पद्मनाभस्वामी जी का पूजास्थल तिरुवंतपुरम में जरूर है पर उनका मूलस्थान यह मंदिर है। इसी की एक गुफा में प्रभु अंतर्ध्यान हुए थे ! इसी की झील में एक मादा मगरमच्छ रहा करती थी, नाम था बाबिया ! लोक मत है कि बाबिया इस मंदिर और इसकी गुफा की रखवाली  पिछले सत्तर साल से करती आ रही थी। मंदिर प्रशासन के अनुसार वह पूर्णतया शाकाहारी थी और सिर्फ मंदिर का प्रसाद ही खाती थी। यहां तक कि उसने झील में रहने वाले किसी अन्य प्राणी को किसी भी तरह का कभी भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया ! इतने सालों में किसी ने भी उसे मछली तक खाते नहीं देखा ! 

आनंदपद्मनाभ मंदिरऔर झील 

प्रसाद ग्रहण

अद्भुत 
मंदिर के पदाधिकारियों के अनुसार वर्षों पहले भी इस झील में एक मगरमच्छ रहता था।  जिसे बाबिया कह कर पुकारा जाता था। 1942 में उसे एक ब्रिटिश अधिकारी मार कर अपने साथ ले गया था ! पर कुछ ही दिनों बाद उस अधिकारी की सांप के काटने से मौत हो गयी थी ! इस घटना के बाद आश्चर्यजनक रूप से झील में फिर एक मादा मगर दिखाई पड़ने लगी ! भक्तों ने उसका नाम भी बाबिया रख दिया ! यह वही बाबिया थी, जिसने भक्तों तथा मंदिर द्वारा प्रदत्त प्रसाद पर ही अपनी तकरीबन दो तिहाई जिंदगी  गुजार दी ! प्रत्यक्ष दर्शियों के अनुसार सुबह और शाम की पूजा के बाद आरतियों की घंटियों के साथ ही वह भोजन ग्रहण करने के लिए झील के किनारे आ जाती थी, पर कभी भी उसने किसी को नुक्सान तो दूर की बात डराने तक की कोशिश नहीं की ! यही कारण है कि उसको देखने के लिए लोगों की भीड़ लगी रहती थी ! अब तो यह माना जाने लगा था कि उसकी एक झलक देखे बिना इस मंदिर की यात्रा अधूरी है ! 


उमड़ते लोग 
मंदिर प्रशासन के अनुसार करीब अस्सी साल की बाबिया की पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में उसकी मौत बढ़ती उम्र से संबंधित कारणों से हुई बताई गई है। इधर कुछ समय से वह बीमार चल रही थी और  09 अक्टूबर 2022, रविवार को उसकी इहलीला समाप्त हो गई ! पर जाते-जाते भी वह यह संदेश दे गई कि कदाचार से सदाचार, आचरण बदलते ही जीव वंदनीय हो जाता है ! कुछ ही समय में उसकी मौत की खबर चारों ओर फैल गई ! लाखों लोगों का हुजूम मंदिर की ओर उमड़ पड़ा ! मंदिर प्रशासन ने उस दिन मंदिर बंद रख उसके मृत शरीर को फ्रीजर में रखवा दिया, जिससे लोग उसके अंतिम दर्शन कर सकें ! दो दिन बाद पूरे विधि-विधान से उसका दाह संस्कार किया गया और मंदिर की बाहरी दिवार के साथ उसकी समाधि बना दी गई ! जहां बाद में उसका स्मारक बनाने पर भी विचार चल रहा है ! इसके साथ ही लोगों का विश्वास है मंदिर की रखवाली के लिए बाबिया की जगह कोई और जरूर आएगा, जैसे बाबिया आई थी ! 

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2022

लेपाक्षी मंदिर का हवा में झूलता खंबा

कुर्मासेलम की पहाडियों पर बना कछुए के आकार का यह पूजास्थल पुरातन काल से अपने खंभों की विशेषता के कारण आज तक लोगों की उत्सुकता का व‍िषय बना हुआ है। बड़े अचंभे की बात है कि 70 खंभों पर बने इस मंदिर का एक खंभा जमीन को छूता ही नहीं है बल्कि उससे करीब आधा इंच ऊपर हवा में झूलता रहता है। यही वजह है कि इस मंदिर को हैंगिंग टेंपल के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के ये अनोखे खंभे आकाश स्तंभ के नाम से भी जाने जाते हैं...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग

हमारा देश में धर्म की अपनी महत्ता है ! सो यहां मंदिरों को तो होना ही है ! वह भी इतने कि गिनती कम पड़ जाए ! उस पर ऐसी कलात्मकता, विशालता, भव्यता कि देखने वाले को अपनी ही आँखों पर विश्वास ना हो ! कुछ की कारीगरी ऐसी है कि यकीन ही नहीं होता कि ये इंसानों के द्वारा बनाए गए होंगे ! कुछ इतने दुर्गम कि वहां पहुँचने में अच्छे-अच्छे जीवटधारी हिम्मत नहीं कर पाते ! कुछ अपने आप में ऐसे रहस्य समेटे हैं, जिनका पार पाना आज की मानव बुद्धि के वश में नहीं लगता ! एक ऐसा ही विलक्षण मंदिर आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में, बेंगलुरु शहर से करीब 120 किमी दूर स्थित है, जो भगवान शिव के वीरभद्र स्वरूप और रामायण के श्रीराम-जटायु प्रसंग से संबंधित है ! दुनिया भर के वैज्ञानिक अब तक इसके खंबों के रहस्य को सुलझाने में नाकामयाब रहे हैं ! 

जमीन से करीब आधा इंच उठा हुआ स्तंभ 
दक्षिण भारत का लेपाक्षी मंदिर ! कुर्मासेलम की पहाडियों पर बना कछुए के आकार का यह पूजास्थल पुरातन काल से अपने खंभों की विशेषता के कारण आज तक लोगों की उत्सुकता का व‍िषय बना हुआ है। बड़े अचंभे की बात है कि 70 खंभों पर बने इस मंदिर का एक खंभा जमीन को छूता ही नहीं है बल्कि उससे करीब आधा इंच ऊपर हवा में झूलता रहता है। यही वजह है कि इस मंदिर को हैंगिंग टेंपल के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के ये अनोखे खंभे आकाश स्तंभ के नाम से भी जाने जाते हैं। 

                                      

इस मंदिर का जिक्र रामायण में भी मिलता है ! यही वह जगह है जहां रावण से युद्ध के दौरान जटायु घायल हो गिर गए थे ! जब श्री राम सीता जी को खोजते यहां पहुंचे तो उन्होंने घायल जटायु को गोद में ले सहारा देते हुए कहा था, पक्षी उठो-पक्षी उठो ! तेलगु भाषा में इसका अनुवाद लेपाक्षी होता है, इसीलिए इस जगह का नाम लेपाक्षी पड़ा। इसी जगह जटायु जी ने श्रीराम को सारी घटना बता परलोक गमन किया था ! 

मंदिर के न‍िर्माण को लेकर अलग-अलग मत हैं। इस धाम में मौजूद एक स्वयंभू शिवलिंग भी है जिसे शिव के रौद्र रूप यानी वीरभद्र का प्रतीक माना जाता है। यह श‍िवलिंग 15वीं शताब्दी तक खुले आसमान के नीचे ऐसे ही विराजमान था। लेकिन 1538 में दो भाइयों विरुपन्ना और वीरन्ना ने मंदिर का न‍िर्माण क‍िया था जो कि विजयनगर राजा के यहां खजांची थे। वहीं पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार लेपाक्षी मंदिर परिसर में स्थित वीरभद्र मंदिर का निर्माण ऋषि अगस्‍त्‍य ने करवाया था।

                                

लेपाक्षी मंदिर को लेकर एक और कहानी मिलती है। इसके मुताबिक एक बार वैष्णव यानी विष्णु और शिव भक्तों के बीच अपने इष्ट देव् के सर्वश्रेष्ठ होने की बहस शुरू हो गई। जो कि सद‍ियों तक चलती रही। जिसे रोकने के लिए ही अगस्‍त्‍य मुनि ने इस स्‍थान पर तप क‍िया और अपने तपोबल के प्रभाव से उन्होंने सभी भक्‍तों को यह भान करा कि विष्णु और शिव एक दूसरे के पूरक हैं, बहस का खात्मा करवाया ! मंदिर के पास ही विष्णु जी के एक अद्भुत रूप रघुनाथेश्वर की प्रतिमा भी स्थित है ! जिसमें विष्णु जी को भगवान शंकर की पीठ पर रघुनाथ स्वामी के रूप में आसन सजाए दिखाया गया है ! इसीलिए वे रघुनाथेश्‍वर कहलाए जाते हैं !

                                     
मंदिर परिसर में एक ही पत्थर को तराश कर बनाई गई एक विशाल नागलिंग प्रतिमा भी स्थापित है जिसे देश की सबसे बड़ी नागलिंग प्रतिमा माना जाता है। काले ग्रेनाइट पत्थर से बनी इस प्रतिमा में शिवलिंग के ऊपर सात फन वाले नाग को उकेरा गया है। उसी के दूसरी तरफ पैर का निशान बना हुआ है प्रचलित मान्यता के अनुसार यह माता सीता के पैर की छाप है। कहते हैं कि जब रावण माता सीता को पुष्पक विमान में लंका ले जा रहा था और जटायु घायल होकर यहाँ गिर गए थे तब माता सीता ने श्रीराम को संदेश देने के लिए अपने पैर की एक छाप यहाँ छोड़ी थी।

                                         
मंदिर का कोई भी हिस्सा, कोना या जगह ऐसी नहीं है जहां आकर्षक कलाकारी, भित्तिचित्र या कोई प्रतिमा ना बनाई गई हो ! हर जगह रामायण से लेकर महाभारत काल की घटनाओं, विष्णु जी के सभी अवतारों, देवी-देवताओं, नर्तक, अप्सराएं, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों के चित्रों को विस्तृत रूप से और कलात्मक बारीकी से उकेरा गया है, जो अनायास ही दर्शकों का मन मोह उसे ठिठकने पर मजबूर कर देता है।

चरण चिन्ह 
मंदिर का निर्माण पूरे होने की तिथि को लेकर विभिन्न मत हैं जैसे कि कोई इसे 1518 ईसवीं में बना हुआ मानता हैं तो कोई इसे 1583 ईसवीं का बताता है। पर ऐसा अनुमान है कि मंदिर का निर्माण 1520 ईसवीं से लेकर 1585 ईसवीं के बीच में पूरा हो गया था। यहां देश के किसी भी हिस्से से वायु, रेल या सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है ! 

बुधवार, 5 अक्तूबर 2022

रावण का मरना भी असंभव है

आज देश भर में दशहरे के दिन, भले ही सांकेतिक रूप से ही सही, रावण को मारने, उसके पुतले का दहन करने का जिम्मा कौन लेता है या किसको दिया जाता है ! रावण को अग्नि के हवाले करने और करवाने वालों ने क्या कभी अपने गिरेबान में झाँक कर देखा है ! इस दिन पार्कों में, चौराहों पर, कालोनियों में या मैदानों में जो रावण के पुतले फूंके जाते हैं, उनको फूंकने में अगुवाई करने वाले अधिकांश तो खुद बुराइयों के पुतले होते हैं ! उनकी तो खुद की लंकाऐं होती हैं, काम-क्रोध-मद-लोभ जैसी बुराइयों से भरपूर ! तो बुराई ही बुराई पर क्योंकर विजय पाती होगी ...................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
दशहरा, देश के बड़े त्योहारों में से एक। बुराई पर अच्छाई की प्रतीतात्मक जीत को दर्शाने का माध्यम। रामलीला का मंचन, धूम-धड़ाका, आतिशबाजी, हाट-मेला-बाज़ार, भीड़-भाड़, लोगों का रेला, मौज-मस्ती,
उत्साही बच्चे। ऊँचे से ऊँचे पुतले बनाने की होड़, दिन ब दिन बढ़ते आयोजन ! इन सब के चलते छुटभइए नेताओं को भी अपनी दूकान सजाने-चलाने के लिए मिलते अवसर ! 

एक समय था, जब दशहरे पर सार्वजनिक पुतला दहन, वह भी कहीं-कहीं आयोजित होता था। पर समय के साथ, आपसी होड़ और मतलबपरस्ती के तहत अब जैसे गणेशोत्सव, दुर्गा पूजा, होली-दिवाली मिलन, इन सबके कार्यक्रम हर गली-मौहल्ले में होने लगे हैं, उसी क्रम में अब दशहरे में पुतला दहन का भी आयोजन जगह-जगह होने लगा है ! एक ही कॉलोनी में आपसी स्पर्द्धा, अहम और वैमनस्य के चलते दो-तीन पुतले खड़े कर दिए जाते हैं ! जगह न हो तो छोटे-छोटे पार्कों में भी खतरा मोल ले, तीन-तीन पुतलों का दहन किया जाने लगा है ! इसी बहाने कुछ लोगों को अपना वर्चस्व, पहुंच व तथाकथित प्रभुत्व दिखाने तथा भविष्य का मंच तैयार करने का अवसर हाथ लग जाता है ! 
रावण को मारने के लिए राम का होना जरुरी है और राम ऐसे ही कोई नहीं बन जाता ! उसके लिए उसमें प्रबल शक्ति का होना तो अवश्यंभावी है ही, साथ ही उसे कर्त्वयनिष्ठ, सत्यनिष्ठ, दृढ़निश्चयी, करुणामय, ज्ञानी, वचन पालक, संयमी, ईर्ष्या मुक्त, विवेकी, निरपेक्ष, शरणागत वत्सल, दयालु, समदर्शी, काम-क्रोध-मोह विहीन होना भी बहुत जरुरी है
समय में कितना बदलाव आ गया है, अब भीड़ के लिए दशहरे का दिन रावण के नाम रहता है ! उसके पुतलों की भव्यता आकर्षण का केंद्र बन जाती है ! बड़ी रामलीलाओं में रावण का किरदार निभाने के लिए खास और जाने-माने चेहरों को चुना जाता है ! रावण के पुतले को अग्नि के सुपुर्द करने का जिम्मा भी किसी बड़ी हस्ती को ही दिया जाता है ! जितनी बड़ी रामलीला कमेटी उतना ही बड़ा आदमी ! जितना बड़ा आदमी उतनी ही बड़ी कमेटी की प्रतिष्ठा !
अत्यंत खेद के साथ यह कहना और सहना पड़ता है ! बहुत कटु है ! पर सच्चाई यही है कि इस दिन प्रभू राम तो जैसे गौण हो जाते हैं ! किसी भी बड़े आयोजन को देख लें ! श्रीराम पक्ष के कुछ किरदारों की आरती-तिलक की ओपचारिकता पूरी होते ही सब का ध्यान पधारे हुए विशिष्ट जनों पर सिमट कर रह जाता है ! जितनी आव-भगत उन में से हरेक की होती है उतनी तो पूरे राम-दल की भी नहीं होती ! फिर होड़ सी लग जाती है रावण के पुतले पर तीरों की बौछार करवाने में ! यह सब देख ऊपर बैठा रावण भी हाथ जोड़ कर कहता होगा, हे प्रभू, उस समय तो अपने कर्मों के कारण आपने मेरा वध किया था, वह सम्मानजनक अंत था मेरा ! तब  मुझे उतनी तकलीफ नहीं हुई थी पर इस अपमानजनक स्थिति से हर साल दो-चार होने में बहुत कष्ट होता है ! किसी तरह मुझे निजात दिलवाइए इन अज्ञानी-मूढ़ों के चंगुल से !
देश भर में दशहरे के दिन, भले ही सांकेतिक रूप से ही सही, रावण को मारने, उसके पुतले का दहन करने का जिम्मा कौन किसको देता है यह सब अपनी मिलीभगत और स्वार्थसिद्धि पर निर्भर करता है ! आज पार्कों में, चौराहों पर, कालोनियों में या मैदानों में जो रावण के पुतले फूंके जाते हैं, उनको फूंकने में अगुवाई करने वाले अधिकांश तो खुद बुराइयों के पुतले होते हैं ! उन्होंने कभी अपने गिरेबाँ में झांक कर देखा है ! उनकी तो खुद की अपनी लंकाऐं होती हैं, काम-क्रोध-मद-लोभ जैसी बुराइयों से भरपूर ! ऐसा करते हुए उन्हें जरा सी भी ग्लानि नहीं होती ! ऐसे में बुराई ही बुराई पर क्योंकर विजय पाएगी ? 
आज बुराई पर अच्छाई की विजय निश्चित करने के लिए किसीको उसके गुणों का आकलन कर के नहीं बल्कि उसकी हैसियत देख कर चुना जाता है। आज रावण दहन के लिए उसे ''धनुष'' थमाया जाता है जो अपने क्षेत्र में येन-केन-प्रकारेण अगुआ हो ! फिर चाहे वह राजनीतिज्ञ हो, चाहे कलाकार हो, चाहे व्यापारी हो या फिर अपने इलाके का प्रमुख ही हो, जैसे किसी कॉलोनी या हाऊसिंग सोसायटी का प्रेजिडेंट ! अगुआ होना ही उसकी लियाकत है भले ही कर्मों से वह दुर्योधन ही क्यों न हो ! 
रावण अपने आप में ज्ञानी-ध्यानी, सबसे बड़ा शिव भगत, पुरातत्ववेता, ज्योतिष का जानकार, विद्वान, युद्ध-विशारद के साथ-साथ महाबली योद्धा था ! उससे बड़ा महा पंडित उस युग में कोई दूसरा नहीं था ! ऐसा नहीं होता तो क्या श्रीराम उसे अपने यज्ञ का पुरोहित बनाते ! उस पर राम जो सारे जगत के पालनहार हैं, नियोजक हैं, सर्व शक्तिमान हैं, सारे चराचर के स्वामी हैं, उन्हें भी उस रावण पर विजय पाने में ढाई महीने लग गए थे ! तब जा कर कहीं उसका वध हुआ था ! रावण को मारने के लिए राम का होना जरुरी है और राम ऐसे ही कोई नहीं बन जाता ! उसके लिए उसमें प्रबल शक्ति का होना तो अवश्यंभावी है ही, साथ ही उसे कर्त्वयनिष्ठ, सत्यनिष्ठ, दृढ़निश्चयी, करुणामय, ज्ञानी, वचन पालक, संयमी, ईर्ष्या मुक्त, विवेकी, निरपेक्ष, शरणागत वत्सल, दयालु, समदर्शी, काम-क्रोध-मोह विहीन होना भी बहुत जरुरी है ! क्या आज एक ही इंसान में इतने गुणों  होना संभव है ?    
नहीं ! 
तो रावण का मरना भी असंभव है !     

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