मंगलवार, 11 अक्टूबर 2022

लेपाक्षी मंदिर का हवा में झूलता खंबा

कुर्मासेलम की पहाडियों पर बना कछुए के आकार का यह पूजास्थल पुरातन काल से अपने खंभों की विशेषता के कारण आज तक लोगों की उत्सुकता का व‍िषय बना हुआ है। बड़े अचंभे की बात है कि 70 खंभों पर बने इस मंदिर का एक खंभा जमीन को छूता ही नहीं है बल्कि उससे करीब आधा इंच ऊपर हवा में झूलता रहता है। यही वजह है कि इस मंदिर को हैंगिंग टेंपल के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के ये अनोखे खंभे आकाश स्तंभ के नाम से भी जाने जाते हैं...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग

हमारा देश में धर्म की अपनी महत्ता है ! सो यहां मंदिरों को तो होना ही है ! वह भी इतने कि गिनती कम पड़ जाए ! उस पर ऐसी कलात्मकता, विशालता, भव्यता कि देखने वाले को अपनी ही आँखों पर विश्वास ना हो ! कुछ की कारीगरी ऐसी है कि यकीन ही नहीं होता कि ये इंसानों के द्वारा बनाए गए होंगे ! कुछ इतने दुर्गम कि वहां पहुँचने में अच्छे-अच्छे जीवटधारी हिम्मत नहीं कर पाते ! कुछ अपने आप में ऐसे रहस्य समेटे हैं, जिनका पार पाना आज की मानव बुद्धि के वश में नहीं लगता ! एक ऐसा ही विलक्षण मंदिर आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में, बेंगलुरु शहर से करीब 120 किमी दूर स्थित है, जो भगवान शिव के वीरभद्र स्वरूप और रामायण के श्रीराम-जटायु प्रसंग से संबंधित है ! दुनिया भर के वैज्ञानिक अब तक इसके खंबों के रहस्य को सुलझाने में नाकामयाब रहे हैं ! 

जमीन से करीब आधा इंच उठा हुआ स्तंभ 
दक्षिण भारत का लेपाक्षी मंदिर ! कुर्मासेलम की पहाडियों पर बना कछुए के आकार का यह पूजास्थल पुरातन काल से अपने खंभों की विशेषता के कारण आज तक लोगों की उत्सुकता का व‍िषय बना हुआ है। बड़े अचंभे की बात है कि 70 खंभों पर बने इस मंदिर का एक खंभा जमीन को छूता ही नहीं है बल्कि उससे करीब आधा इंच ऊपर हवा में झूलता रहता है। यही वजह है कि इस मंदिर को हैंगिंग टेंपल के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर के ये अनोखे खंभे आकाश स्तंभ के नाम से भी जाने जाते हैं। 

                                      

इस मंदिर का जिक्र रामायण में भी मिलता है ! यही वह जगह है जहां रावण से युद्ध के दौरान जटायु घायल हो गिर गए थे ! जब श्री राम सीता जी को खोजते यहां पहुंचे तो उन्होंने घायल जटायु को गोद में ले सहारा देते हुए कहा था, पक्षी उठो-पक्षी उठो ! तेलगु भाषा में इसका अनुवाद लेपाक्षी होता है, इसीलिए इस जगह का नाम लेपाक्षी पड़ा। इसी जगह जटायु जी ने श्रीराम को सारी घटना बता परलोक गमन किया था ! 

मंदिर के न‍िर्माण को लेकर अलग-अलग मत हैं। इस धाम में मौजूद एक स्वयंभू शिवलिंग भी है जिसे शिव के रौद्र रूप यानी वीरभद्र का प्रतीक माना जाता है। यह श‍िवलिंग 15वीं शताब्दी तक खुले आसमान के नीचे ऐसे ही विराजमान था। लेकिन 1538 में दो भाइयों विरुपन्ना और वीरन्ना ने मंदिर का न‍िर्माण क‍िया था जो कि विजयनगर राजा के यहां खजांची थे। वहीं पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार लेपाक्षी मंदिर परिसर में स्थित वीरभद्र मंदिर का निर्माण ऋषि अगस्‍त्‍य ने करवाया था।

                                

लेपाक्षी मंदिर को लेकर एक और कहानी मिलती है। इसके मुताबिक एक बार वैष्णव यानी विष्णु और शिव भक्तों के बीच अपने इष्ट देव् के सर्वश्रेष्ठ होने की बहस शुरू हो गई। जो कि सद‍ियों तक चलती रही। जिसे रोकने के लिए ही अगस्‍त्‍य मुनि ने इस स्‍थान पर तप क‍िया और अपने तपोबल के प्रभाव से उन्होंने सभी भक्‍तों को यह भान करा कि विष्णु और शिव एक दूसरे के पूरक हैं, बहस का खात्मा करवाया ! मंदिर के पास ही विष्णु जी के एक अद्भुत रूप रघुनाथेश्वर की प्रतिमा भी स्थित है ! जिसमें विष्णु जी को भगवान शंकर की पीठ पर रघुनाथ स्वामी के रूप में आसन सजाए दिखाया गया है ! इसीलिए वे रघुनाथेश्‍वर कहलाए जाते हैं !

                                     
मंदिर परिसर में एक ही पत्थर को तराश कर बनाई गई एक विशाल नागलिंग प्रतिमा भी स्थापित है जिसे देश की सबसे बड़ी नागलिंग प्रतिमा माना जाता है। काले ग्रेनाइट पत्थर से बनी इस प्रतिमा में शिवलिंग के ऊपर सात फन वाले नाग को उकेरा गया है। उसी के दूसरी तरफ पैर का निशान बना हुआ है प्रचलित मान्यता के अनुसार यह माता सीता के पैर की छाप है। कहते हैं कि जब रावण माता सीता को पुष्पक विमान में लंका ले जा रहा था और जटायु घायल होकर यहाँ गिर गए थे तब माता सीता ने श्रीराम को संदेश देने के लिए अपने पैर की एक छाप यहाँ छोड़ी थी।

                                         
मंदिर का कोई भी हिस्सा, कोना या जगह ऐसी नहीं है जहां आकर्षक कलाकारी, भित्तिचित्र या कोई प्रतिमा ना बनाई गई हो ! हर जगह रामायण से लेकर महाभारत काल की घटनाओं, विष्णु जी के सभी अवतारों, देवी-देवताओं, नर्तक, अप्सराएं, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों के चित्रों को विस्तृत रूप से और कलात्मक बारीकी से उकेरा गया है, जो अनायास ही दर्शकों का मन मोह उसे ठिठकने पर मजबूर कर देता है।

चरण चिन्ह 
मंदिर का निर्माण पूरे होने की तिथि को लेकर विभिन्न मत हैं जैसे कि कोई इसे 1518 ईसवीं में बना हुआ मानता हैं तो कोई इसे 1583 ईसवीं का बताता है। पर ऐसा अनुमान है कि मंदिर का निर्माण 1520 ईसवीं से लेकर 1585 ईसवीं के बीच में पूरा हो गया था। यहां देश के किसी भी हिस्से से वायु, रेल या सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचा जा सकता है ! 

10 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

सनातन धर्म की महिमा को प्रकाशित करते मन्दिर की अति रोचक जानकारी

Gajendra Bhatt "हृदयेश" ने कहा…

अद्भुत है यह सब। हम अभी तक इस मन्दिर को देखने नहीं जा सके हैं, किन्तु सुना अवश्य था इसके विषय में। यह सुन्दर विवरण यहाँ उपलब्ध कराने के लिए आपका बहुत आभार!

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अनीता जी,
ऐसी हजारों-हजार जगहें हमारे देश में, जिनके बारे में हमें ही नहीं पता, दोष किसको दें , ..........!

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

गजेंद्र जी,
इच्छा तो मेरी भी है, देखें कब संयोग बनता है !

Gajendra Bhatt "हृदयेश" ने कहा…

माता बुला लेंगी कभी न कभी!

अनीता सैनी ने कहा…

बहुत अच्छा लगा सर पढ़कर ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ सराहनीय लेख।
सादर नमस्कार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अनीता जी
सदा स्वागत है, आपका

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सही बात गजेंद्र जी, बिना उसकी इच्छा के कहाँ कुछ संभव है

संजय भास्‍कर ने कहा…

ज्ञानवर्धक जानकारी के साथ सराहनीय लेख।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

संजय जी
बहुत-बहुत धन्यवाद ! आने वाले शुभ पर्वों की हार्दिक शुभकामनाएं

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