रविवार, 27 अप्रैल 2014

धर्मतल्ला के सिनेमाघर

उस समय कलकत्ते में लगभग सौ सिनेमा हॉल थे।  इलाके के हिसाब से उनमें फिल्मेँ लगा करती थीं। बहुत कम ऐसा होता था कि ये हॉल चली आ रही परंपरा को छोड़ किसी दूसरी भाषा की फिल्म लगा लेँ। जैसे श्याम बाजार के इलाके में एक-दो   (दर्पणा,  मित्रा और  टाकी शो हाउस) को छोड़ कर सब में बांग्ला भाषा की फिल्में ही लगा करती थीं।  धर्मतल्ला में भी हिंदी और अंग्रेजी फिल्मोँ के बंधे-बधाए हॉल हुआ करते थे।

बंगाल का दिल कोलकाता और कोलकाता की जान धर्मतल्ला, जिसे चौरंगी और एस्प्लेनेड के नाम से भी जाना जाता है। इस जगह से मेरी अनगिनत यादें जुडी हुई हैं. जिनमे ज्यादातर सिनेमा से संबंधित हैं। स्कूल से कालेज और फिर नौकरी, इस सफर में और इसके बाद भी कभी किसी व्यसन की लत नहीं पङी पर सिनेमा जरूर एक शौक रहा। इसीलिए मौका मिलते ही सिनेमा का चौका लग जाता था। इस चौके में किसी तरह का भेद-भाव नहीं था, फिल्म हिंदी की हो अँग्रेज़ी की या बंगला भाषा की सब अपने को प्रिय थीं। उन दिनों फिल्म जगत के दिग्गज निर्माता-निर्देशक सक्रीय भी थे। वैसे यह शौक मुझे विरासत में मिला था।  :-) 

पहली-पहली नौकरी का स्वाद उस समय के कलकत्ते के पास आगरपाड़ा और सोदपुर कस्बों के बीच स्थित कमरहट्टी नाम की जगह में कमरहट्टी जूट मिल मे चखने को मिला. यहां से धर्मतल्ला पहुँचने में मुश्किल से 45 - 50 मिनट लगते थे। पांच बजे अवकाश मिलते ही जरा सा फ्रेश हो टैक्सी या बस जो भी मिले ले कर हॉल मे हाजीरी लग जाती थी. कब  कहाँ जाना है ये तो पहले से ही तय रहता ही था। 

उस समय सिंगल स्क्रीन सिनेमा घर ही हुआ करते थे. जिनमें कईयों की  क्षमता हजार से ऊपर दर्शकों को समोने की थी। उस पर भी छुट्टियों के दिन या किसी ख्यातनाम हीरो की फिल्म लगने पर पांच-सात रुपये की टिकट पचास-साठ रुपये मे मिलनी मुश्किल होती थी। ज्यादातर अपरान्ह 3, 6, 9 बजे से शो शुरू होते थे। हिंदी फिल्मों के पहले डॉक्यूमेंटरी या न्यूज-रील दिखाने का चलन था और इंग्लिश पिक्चर उन दिनों इंटरवल के बाद शुरु होती थीं इस काऱण अपन कभी क्लास में लेट नहीं होते थे। वैसे तो उस समय कलकत्ते में लगभग सौ सिनेमा हॉल थे।  इलाके के हिसाब से उनमें फिल्मेँ लगा करती थीं। बहुत कम ऐसा होता था कि ये हॉल चली आ रही परंपरा को छोड़ किसी दूसरी भाषा की फिल्म लगा लेँ। जैसे श्याम बाजार के इलाके में एक-दो (दर्पणा, मित्रा और टाकी शो हाउस) को छोड़ कर सब में बांग्ला भाषा की फिल्में ही लगती थीं.  धर्मतल्ला में भी हिंदी और अंग्रेजी फिल्मोँ के बंधे-बधाए हॉल हुआ करते थे।  

धर्मतल्ला तो जैसे पिक्चर हॉल का ग़ढ़ हुआ करता था. वहाँ डेढ़-दो किलोमीटर के दायरे में सब मिला कर करीब 17-18 सिनेमा हॉल थे. जिनमें मेट्रो, लाइट-हाउस, न्यू एंपायर, एलिट, ग्लोब, टायगर, मिनर्वा, चैप्लिन इँग्लिश फिल्मों और ज्योति, हिंद, पैराडाइज, ओरिएंट, रॉक्सी, सोसायटी, जनता, लोटस, न्युसिनेमा, ओपरा आदि हिंदी फ़िल्में दर्शकों को मुहैय्या करवाते थे। इनमें कुछ ऐसे हॉल थे जो अपनी विशेषताओं के काऱण दर्शकोँ मेँ कुछ ज्यादा लोक-प्रिय थे।         

मेट्रो :-  चौरंगी के बीचो-बीच स्थित एक बेहतरीन सिनेमा घर. इस की कई खासियतें थीं. इसकी कुर्सियां इतनी आरामदेह थीं कि वे सोफे को भी मात देती थीं। हॉल में प्रवेश द्वार से अंदर जाने पर सीटों की कतार शुरु होने के पहले करीब 50x8 फिट की जगह खाली रहती थी, जिससे फिल्म शुरु होने के बाद आने वालों को मार्ग-दर्शक द्वारा स्थान दिखाये जाने के पहले धक्का-मुक्की का सामना नहीं करना पड़ता था। पूरे हॉल में एक इंच मोटा कालीन बिछा होता था, जो आराम का एहसास देने के साथ-साथ पद-चाप की ध्वनि भी नहीं होने देता था।इसके स्क्रीन का काला बॉर्डर जरूरत के हिसाब  छोटा बडा होता रहता था, जो आंखों पर अंधेरे-उजाले के खेल के प्रभाव को कुछ हद तक कम करता था। उसे विज्ञापनों और खबरों पर 35 मी.मी. और सिनेमा स्कोप पर अलग-अलग जरूरत के अनुसार यह फिट किया जाता था.

लाइट हाउस :-  अपने समय के इस सबसे बड़े सिनेमा घर की बनावट बड़ी अनोखी थी. इसका पिछला हिस्सा नीचा था तथा फ्लोर जैसे-जैसे पर्दे की ओर बढ़ता था ऊंचा होता जाता था पर पीछे बैठने वाले को कभी भी सामने की कतार में बैठे दर्शक के सिर से अड़चन नहीँ होती थी।  उन दिनों भी आज जैसी ही व्यवस्था थी कि बिना शो का टिकट लिए कोई किसी हाल का टॉयलेट काम में नहीं ला सकता था।  पर लाइट-हाउस में यह सुविधा थी कि बिना पिक्चर का टिकट लिए भी इसके वाश-रूम का उपयोग किया जा सकता था। इसलिए कई जरुरतमंदों के लिए यह एक वरदान स्वरूप था, खासकर महिलाओँ के लिए। यह ध्यान देने की बात है कि उन दिनों के कलकत्ते में महिलाओं की तो छोड़िए पुरुषों तक के लिए इक्की-दुक्की जगहों को छोड़ टॉयलेट की सुविधा उपलब्ध नहीं थी।

न्यू-अंपायर  :- यह लाइट हाउस का जुड़वां भाई था।  दोनों एक ही कंपनी की मिल्कियत थे।  ये अंदर से भी आपस में जुड़े हुए थे। पर इसका निर्माण थियेटर के आयोजन के लिए किया गया था।  इसलिए इसमे बैठने की व्यवस्था भी सिनेमा हॉल के ठीक विपरीत थी यानी स्टेज के पास आराम दायक सोफे जिनकी टिकट दर  सबसे ज्यादा होती थी और पीछे की सीटों की कम यहां तक कि बालकनी की सबसे कम। इसीलिए इसमें बालकनी की टिकट, आरामदायक कुर्सियों के ना होने पर भी,  पहले बुक हो जाती थी।

ग्लोब 
ग्लोब  :-  न्यूमार्केट के किनारे लिंडसे स्ट्रीट पर स्थित इस हॉल की खासियत इसके स्क्रीन को पुरी तरह ढकने वाला पीले सिल्क का विशाल पर्दा हुआ करता था, जो हर शो की शुरुआत और खात्मे पर संगीत की मधुर ध्वनि के साथ धीरे-धीरे  उठ और गिर कर दर्शकों को मंत्र-नुग्ध कर देता था. इसकी सीटें भी बहुत आरामदायक और सोफेनुमा थीँ।

पैराडाइज   :-  बेंटिक स्ट्रीट पर इंकम-टैक्स की इमारत से लगे हुए इस हॉल में सबसे पहले  "बैक-पुश" कुर्सियां लगी थीं। यह राज कपूर का पसंदीदा हॉल था।  उनकी "जिस देश में गंगा बहती है" तक की सारी फिल्में इसी में रीलीज होती रही थीं।  उसके बाद किसी विवाद के बाद उन्होंने इसके बदले इसी के पास बने ओरिएंट सिनेमा घर को अपनी फिल्में देना आरंभ कर दिया था.

ज्योति 

ज्योति :-  शहर  का या यूं कहें बंगाल का पहला छवि-गृह जिसमें पहली बार 70 मी.मी. का "डीप कर्व्ड" स्क्रीन लगाया गया था।  उस समय यह हॉल अपने पर्दे और ध्वनि सिस्टम के कारण एक अजूबा था लोगों के लिए। सामने परदे के पास वाले दर्शक तो पूरा दृश्य देखने के लिए गरदन ही घुमाते रह जाते थे। इसमें फ़िल्म देखने का असली आनंद ऊपर बालकनी मे बैठ कर ही लिया जा सकता था।  कलकत्ता वासी इसके बड़े पर्दे पर   "शोले" देख  अभिभूत हो गये थे।

रॉक्सी :-  एक बड़ा, भव्य और बेहतरीन सिनेमा-घर।  यही वह हॉल था जिसमें अशोक कुमार की "किस्मत" फिल्म ने लगातार तीन साल चल कर कीर्तिमान बनाया था।

चैप्लिन 
चैप्लिन  :-    मशहूर फनकार चार्ली चैप्लिन को प्रदेश की आदरांजली स्वरूप  शहर  के सबसे पुराने इस हॉल की एक विशेष बात यह भी थी कि अपने जमाने के सुप्रसिद्ध, बंगाली फिल्मों के सर्वमान्य महानायक उत्तम कुमार के पिताश्री यहां प्रोजक्टर आपरेटर का काम संभालते थे। इसकी
 बलि भी काल के हाथों चढ़ चुकी है।

समय बदला उसकी मार से ये बेहतरीन एकल स्क्रीन मनोंरंजन गृह भी अछूते नही रह पाए. अधिकांश को बदल कर मॉल या मल्टीप्लेक्स का रूप दे दिया गया है।  जो बचे भी हैं वे भी अपने वजूद के लिए संघर्ष-रत हैं। किसी ने अपनी सीटें आधी कर दी हैं, तो कोई इसके साथ-साथ कमाई के लिए कुछ और उपाय करने मे जुटा है। पर आधुनिकता की इस आंधी से उपजे अंधकार में देश के बाकि हिस्सों के सिनेमा घरोँ की तरह इनका भविष्य भी धुंधला ही दिखाई पड़ रहा है।   
                  

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

एक ऐसा विवाह जिसने पंजाब का इतिहास बदल दिया

कभी-कभी जाने-अनजाने वैभव प्रदर्शन भी घातक सिद्ध हो जाता है। यही हुआ था वर्ष 1837 में, महिना था मार्च का। उस समय महाराजा रणजीत सिंह की अथक मेहनत और चातुर्य से पंजाब सुख-समृद्धी से लबरेज था. जमीन सोना उगल रही थी, धन-धान्य की प्रचुरता थी, जन-जीवन खुशहाल था। हालांकि देश में अंग्रेजों का वर्चस्व बढ़ रहा था पर पंजाब में रंणजीत सिंह जी के शौर्य के कारण उन की हिम्मत पस्त थी सो मजबूरन उन्हें वहाँ दोस्ती का नाटक करना पड़ रहा था।  

नौनिहाल सिंह 
पर समय को कुछ और ही मंजूर था. उन्हीं दिनों महाराजा ने अपने पुत्र खड़गसिंह के सपुत्र नौनिहाल सिंह का विवाह अपने ही एक जागीरदार शामसिंह अटारीवाला की पुत्री से करवाना निश्चित कर दिया। अपने समय का यह सर्वाधिक चर्चित विवाह था। इसमें पूरे देश से लगभग पांच लाख मेहमानों को न्यौता दिया गया था।  जिसमें अंग्रेजों के कई स प्रतिनिधी भी शामिल थे। जिनकी अगवानी के लिए दूल्हे के पिता और चाचा के साथ-साथ अनेकों परिजन बेशकीमती कपड़ों, बहुमूल्य हीरे-जवाहरातों और जेवरों को अपने वस्त्रों और पगड़ियों पर धारण कर सदा तत्पर रहते थे। खुद महाराजा रणजीत सिंह बेशकीमती वस्त्र धारण कर सारी व्यवस्था पर नजर रख रहे थे। उन्होंने अपनी बांह पर विश्व प्रसिद्ध हीरा कोहेनूर धारण कर रखा था। अतिथियों की आँखें इतना वैभव देख चौंधियायी जा रही थीं। वहाँ आने वाले हर मेहमान  को पांच-पांच हजार की थैली से नवाजा जा रहा था. इनके ठहरने की जगह की व्यवस्था तो और भी अनुपम थी। साक्षात इंद्रलोक को जमीन पर उतार दिया गया था।  

जब बारात अटारी की और चली तो वह नजारा भी अद्भुत था. हाथी पर सवार नौनिहाल सिंह के वस्त्रों, गले और पगड़ी पर बेशकीमती जवाहरात टंके हुए थे। ख़ास मेहमानों को भी हाथियों पर बैठाया गया था।  उनके पीछे तरह-तरह के वाहन थे जिसके बाद पैदल चलने वालों का अपार समूह था। उस दिन तो जैसे सारा लाहौर ही सडकों पर उतर आया था। क्या घराती, क्या बराती सभी ग़रीबों को दान देने में पीछे नहीं हटना चाह रहे थे।  

उधर लड़की वालों ने भी बरात के स्वागत का शानदार आयोजन कर रखा था। रास्ते कालीनों से अटे पड़े थे। सारा आकाश तोपों और बंदूकों की आवाज से कंपायमान था। नर्तकियां अपनी कला का प्रदर्शन कर रही थीं। बरात के पहुंचते ही महाराजा की सौ स्वर्ण मुद्राओं और पांच घोड़ों की भेंट दे मिलनी की गयी। दूल्हे के पिता खड़गसिंह की इक्यावन  स्वर्ण मुद्राओं और एक घोड़े की भेंट से तथा परिवार के अन्य सदस्यों की ग्यारह स्वर्ण मुद्राओं और एक-एक घोड़े की भेंट दे मिलनी की गयी.  दूल्हे-दुल्हन के बैठने की जगह पूरी तौर से स्वर्ण-रजत निर्मित थी. रात भर जश्न चलता रहा।  दूसरे दिन होली का त्यौहार था, किसी भी मेहमान को जाने नहीं दिया गया, पूरे उल्लास से सबने मिल कर त्यौहार मनाया।  फिर सब को भारी-भरकम भेंट दे विदा किया गया।

यहीं से विरोधियों और खासकर अंग्रेजों के दिलों में ईर्ष्या की भावना पैदा हुई।  इतना वैभव, इतना ऐश्वर्य, इतनी समृद्धि देख उनकी आँखें फटी की फटी रह गयीं।  अंग्रेज सेनाध्यक्ष के मन में पाप और लालच घर कर गया. दोस्ती धरी की धरी रह गयी. शादी के डेढ़ साल के अंदर महाराजा रणजीत सिंह का स्वर्गवास हो गया. दुर्भाग्य यहीं ख़त्म नहीं हुआ, षडयंत्र के तहत उन्हीं के वजीर ध्यान सिंह द्वारा दो साल के अंदर ही उनके बड़े बेटे खड़गसिंह और उसके कुछ दिनों बाद ही नौनिहाल सिंह की भी ह्त्या कर दी गयी। यहीं से जो भाग्य ने जो पल्टी खाई तो पंजाब, रणजीत सिंह जी के छोटे बेटे दिलीप सिंह के सत्ता में आते-आते पूरी तरह से ब्रितानिया सरकार की झोली में जा गिरा।                

शनिवार, 19 अप्रैल 2014

रति में ज्यादा सुख किसे प्राप्त होता है? नर को या नारी को ?

स्त्री-पुरुष के आपसी संयोग में किसे ज्यादा सुख की अनुभूति होती है, ऐसा प्रश्न धर्मराज युधिष्ठिर के मन में कैसे आया, इसका जवाब तो खुद उनके पास भी नहीं था  !!!

प्रकृति द्वारा स्त्री-पुरुष की रचना इस लिए की गयी है कि इस धरा पर इनके प्रजनन के फलस्वरूप सदा जीवन बना रहे. इसके लिए दोनों में लगाव को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यही लगाव दोनों को करीब लाता है, इसमें उन्हें जो सुख मिलता है उसे पाने के लिए प्रजनन के समय मर्मांतक पीड़ा के बावजूद इससे कोई मुंह नहीं मोड़ता। पर इसमें ज्यादा आनंद की अनुभूति किसे होती है यह प्रश्न सदियों से सर उठाता रहा है. यह  विषय बड़ा नाजुक है। पर जिज्ञासा तो जिज्ञासा है ! 

यह बात किसी आम इंसान को नहीं धर्मराज युधिष्ठिर के मष्तिष्क को भी मथती रहती थी. तभी तो महाभारत के भीष्म पर्व में, जब महामहिम भीष्म शरशय्या पर अपनी मृत्यु का इंतज़ार कर रहे थे तब उनसे ज्ञान पाने के लिए तमाम राजकुमार अपने-अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त कर रहे थे तब अचानक युधिष्ठिर ने यह प्रश्न उनके सामने रख दिया की आपसी संयोग में ज्यादा सुख किसे प्राप्त होता है? नर को या नारी को ? सवाल सुन एक बार तो भीष्म पितामह भी चौंक गए की युधिष्ठिर जैसे नीतिवान, ज्ञानी, संयमी इंसान की यह कैसी जिज्ञासा !!  पर प्रश्न तो प्रश्न था उत्तर तो देना ही था।  तब उन्होंने इससे संबंधित एक कथा सब को सुनाई।  

प्राचीन काल में भंगस्वर नामक एक बड़ा प्रतापी राजा था, पर संतान न होने के कारण सदा चिंतित रहता था. एक बार अपने गुरु के कहने पर उसने पुत्र प्राप्ति के लिए अग्निस्तुत यज्ञ किया, इस यज्ञ के विधान स्वरूप इसकी हवि सिर्फ अग्नी देव को ही दी जाती थी. यज्ञ सफल रहा और उसके फलस्वरूप राजा को सौ पुत्रों की प्राप्ति हुई।  पर यज्ञ में खुद को हिस्सा न मिलने के कारण देव राज इंद्र नाराज हो गए और उसने राजा को दंड देने की ठान ली।  कुछ दिनों बाद एक बार राजा शिकार के लिए जंगल में गया और रास्ता भटक गया. चलते-चलते थकान और प्यास के मारे बुरे हाल राजा को एक झील दिखाई दी, राजा ने आव देखा न ताव और झील के पानी में कूद पड़ा. वह झील मायावी थी और उसमें डुबकी लगाने वाला पुरुष नारी और नारी पुरुष बन जाता था। जब राजा पानी के बाहर आया तो उसने अपने आप को एक नारी के रूप में पाया। यह देख उसकी शर्मिंदगी की हद न रही. इस रूप में अपने राज्य में तो वह कतई नहीं जा सकता था सो इस महान दुःख के बावजूद कि उसे अपने बच्चों से अलग रहना पडेगा  उसने वन में रहने का ही निश्चय कर लिया। उसने अपने बच्चों और रानियों को सारी घटना का ब्योरा बताते हुए अपना संदेश घोड़े के माध्यम से अपने राज्य भिजवा दिया।

कुछ दिनों बाद उसकी भेंट एक तपस्वी से हुई और दोनों साथ-साथ रहने लगे। समय के साथ इनके भी सौ पुत्र हुए पर इस बार बिना किसी यज्ञ के।  पर इतने बच्चों का लालन-पालन जंगल में करना बहुत कठिन था सो महिला बने राजा ने अपने इन पुत्रों को साथ ले अपने राज्य जा कर अपने पुरुष योनी से उत्पन्न पुत्रों का सबसे परिचय करवाया और इन सौ भाइयों का भी वहीं रहने का प्रबंध कर वापस जंगल लौट आया।  पर राजा की यह खुशी भी इंद्र को बर्दास्त नहीं हुई. उसने सोचा कि मैंने राजा को दंड दे दुखी करने का सोचा था पर यहां तो इसके सुख का भंडार ही भरता जा रहा है. उसने क्रोधित हो राजा के राज्य में जा उसके पहले के पुत्रो को भड़का कर उन दो सौ राजकुमारों में युद्ध करवा उन सब को मरवा डाला।  जब राजा को इस सब का पता चला तो वह बड़ा दुखी हुआ और इंद्र से इस नाराजगी का कारण जानना चाहा।  इंद्र ने कहा तुमने अपने यज्ञ में मेरा हिस्सा न दे जो अनादर किया था, यह उसी का फल है।
राजा ने उससे क्षमा याचना की. इंद्र ने खुश हो कहा मैं तुम्हारे सौ पुत्रों को जीवित कर सकता हूँ, बताओ कौन से सौ पुत्रों का जीवन तुम्हें चाहिए ?
राजा ने कुछ देर सोचा और फिर कहा की माँ  के रूप में मैंने जिन्हें जन्म दिया है, उनका जीवन लौटा दें।  इंद्र ने पूछा ऐसा क्यों ? तो राजा ने जवाब दिया कि माँ की ममता अपने बच्चों पर अधिक होती है इसलिए।
इंद्र ने खुश हो उसके सारे पुत्रों को जीवन दान दे कर कहा कि मैं तुम्हारा पुरुषत्व भी लौटा देता हूँ.
पर राजा ने उनकी बात नहीं मानी और कहा देव, आपसी संयोग में पुरुष की बजाए नारी को अधिक सुख प्राप्त होता है इसलिए मैं नारी ही बना रहना चाहता हूँ।

पूरी कहानी सुना भीष्म पितामह ने, युधिष्ठिर जो सारे राजकुमारों के साथ सर झुकाए खड़े थे की ओर देखा और कहा, लगता है तुम्हारी जिज्ञासा का शमन हो चुका होगा, पर ऐसे प्रश्न का विचार तुम्हारे मन में कैसे आया ? इस बात का जवाब शायद युधिष्ठिर के पास नहीं था।   

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

गुड़ फ्राइडे यानी पावन शुक्रवार

ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें सिर्फ छुट्टी या मौज-मस्ती से मतलब होता है, उन्हें उस दिन विशेष के इतिहास या उसकी प्रासंगिकता से कोई मतलब नहीं होता।

आज  गुड़फ्रायडे की छुट्टी थी। सुबह-सुबह एक सज्जन का फोन आ गया। छूटते ही बोले, सर हैप्पी गुडफ्रायडे । मुझसे कुछ बोलते नहीं बन पडा! पर फिर धीरे से कहा, भाई कहा तो गुड फ्रायडे ही जाता है, लेकिन है यह एक  दुखद दिवस। इसी दिन ईसा मसीह को मृत्यु दंड दिया गया था। किसी क्रिश्चियन को बधाई मत दे बैठना।


वैसे यह सवाल बच्चों को तो क्या बड़ों को भी उलझन में डाल  देता है की जब इस दिन इतनी दुखद घटना घटी थी तो इसे "गुड" क्यों कहा जाता है?  ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें सिर्फ छुट्टी या मौज-मस्ती से मतलब होता है, उन्हें उस दिन विशेष के इतिहास या उसकी प्रासंगिकता से कोई मतलब नहीं होता। अब इसी दिन को लें, पिछले दिन की बधाई को याद रख, दूसरे दिन काम पर जा बहुतेरे लोगों से इस दिन के बारे में पूछने पर इक्के-दुक्के को छोड कोई ठीक जवाब नहीं दे पाया। उल्टा उनका भी यही प्रश्न था कि फिर इसे गुड क्यों कहा जाता है। इसका यही उत्तर है कि यहाँ "गुड" का अर्थ  "HOLY" यानी पावन के अर्थ में लिया जाता है. क्योंकि  इस दिन यीशु ने सच्चाई का साथ देने और लोगों की भलाई के लिए, पापों में डूबी मानव जाति की मुक्ति के लिए उसमें सत्य, अहिंसा, त्याग और प्रेम की भावना जगाने के लिए अपने  प्राण त्यागे थे।  उनके के अनुयायी उपवास रख पूरे दिन प्रार्थना करते हैं और यीशु को दी गई यातनाओं को याद कर उनके वचनों पर अमल करने का संकल्प लेते हैं।

शुक्रवार का दिन बाइबिल में अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं से जुडा हुआ है जैसे सृष्टि पर पहले मानव का जन्म शुक्रवार को हुआ। प्रभु की आज्ञाओं का उल्लंघन करने पर आदम व हव्वा को शुक्रवार के दिन ही अदन से बाहर निकाला गया। ईसा शुक्रवार को ही गिरफ्तार हुए, जैतून पर्वत पर अंतिम प्रार्थना प्रभु ने शुक्रवार को ही की और उन पर मुकदमा भी शुक्रवार के दिन ही चलाया गया।

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

सेल्फी, खुद की खुद खींची गयी तस्वीर

सेल्फी तब अत्यंत लोकप्रिय हो गयी जब जोहानसबर्ग में नेल्सन मंडेला मेमोरियल के कार्यक्रम में श्रंद्धाजली देते वक्त अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के द्वारा डेनिश और ब्रिटिश प्रधान मंत्रियों के साथ मुस्कुराते हुए अपनी सेल्फी लेते हुए की फ़ोटो छप गयीं। 

समय और सुविधा के साथ लोगों में तरह-तरह के शौक पनप जाते हैं. जैसे इन दिनों "सेल्फी" का शौक सल्फी के नशे की तरह लोगों पर छाता जा रहा है। जिसके पास भी ज़रा ढंग का मोबाईल कैमरा है वही इस शौक की गिरफ्त में आ अपनी फ़ोटो 'अपलोड' करने पर तुला हुआ है। वैसे अपनी फ़ोटो लेने के प्रयास कैमरे की ईजाद के साथ ही शुरू हो चुके होंगे। जाने-अनजाने बहुतों ने खुद अपनी फ़ोटो खींचने की कोशिश जरूर की होगी; हाँ परिणामों के बारे में नहीं कहा जा सकता कि हर बार ठीक-ठाक ही मिलते हों।  
रॉबर्ट कॉर्नेलियस
खोज-बीन से पता चला है कि दुनिया की अब तक की सबसे पुरानी सेल्फी अमेरिका के एक फोटोग्राफर रॉबर्ट कॉर्नेलियस ने बड़ी मेहनत से 1839 में ली थी। समझा जा सकता है कि उस समय सीमित साधनों के चलते  उसे कितनी मुश्किलातों का सामना करना पड़ा होगा।     
है क्या यह सेल्फी ? यह उस फ़ोटो को कहते हैं जिसे कोई व्यक्ति खुद अपनी तस्वीर अपने डिजिटल कैमरे या मोबाईल फोन के कैमरे से खींच कर किसी सोशल साइट पर चस्पा करता है। इसके लिए या तो कैमरे को अपने सामने हाथ फैला कर या फिर आईने को माध्यम बना फ़ोटो ली जाती है।  इसमें खुद के अलावा किसी और को भी शामिल किया जा सकता है। वैसे तो यह विधा पुरानी है तथा महिला और पुरुषों में सामान रूप से चली आ रही थी पर अचानक यह पिछले दिनों खबरों में छा कर तब अत्यंत लोकप्रिय और व्यापक हो उठी जब जोहानसबर्ग में नेल्सन मंडेला मेमोरियल के कार्यक्रम में श्रंद्धाजली देते वक्त अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा के द्वारा डेनिश और ब्रिटिश प्रधान मंत्रियों के साथ मुस्कुराते हुए अपनी सेल्फी लेते हुए की फ़ोटो छप गयीं। इसके बावजूद की इस काम की दुनिया भर में आलोचना हुई, सेल्फी रातों-रात दुनिया भर में मशहूर हो गयी।  
24 साल पहले खींची फ़ोटो जो अब सेल्फी कहलाती है 
वैसे तो फेस-बुक या माय स्पेस जैसी साइटों पर, सोशल मीडिया की लोकप्रियता के साथ-साथ लोगों ने अपनी फ़ोटो डालना शुरू कर दिया था जिसमें खुद के द्वारा खींची गयी फ़ोटो का भी अच्छा-खासा प्रतिशत हुआ करता था पर उन्हें "सेल्फी" की संज्ञा  2005 में  एक फोटोग्राफर जिम क्राउस ने दी. टाइम पत्रिका के अनुसार 2012 के अंत तक आते-आते तो इसने एक जनून का रूप ले लिया था. जिसके चलते ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी ने इसे अपने में स्थान देते हुए इसे साल का सबसे लोक-प्रिय शब्द घोषित कर दिया। इसकी ख्याति का इसी से अंदाज लग सकता है कि अब यह दुनिया की सीमा लांघ कर अंतरिक्ष में जा एक नया नाम "स्पेस सेल्फी" भी पा चुका है, जो अंतरिक्ष में जाने वाले यात्रियों द्वारा खींची गयी अपनी फ़ोटो को दिया गया है।   
यदि आपने अभी तक ऐसी कोई कोशिश नहीं की है तो आज ही ऐसा उपक्रम कर डालें और उससे मिलाने वाली वाह-वाही का आनंद लें।         

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

जेबें यानी "पॉकेट्स", कैसे प्रचलन में आईं

जेबें यानी "पॉकेट्स"  कैसे  और  कब  इसकी जरूरत  महसूस  की गयी होगी और कैसे यह चलन में आईं होगीं, यह एक खोज का विषय है।  आज के परिधानों की कल्पना बिना जेबों के की ही नहीं जा सकती। पर सबसे   पहले कब इंसान ने इसे बनाया होगा?  वैसे तो किसी एक इंसान को इसका श्रेय नहीं जाता पर  जेबों को आज का रूप देने में अमेरिका के   जेम्स एल. पॉकेट का बहुत बड़ा हाथ है।    

शुरुआती दौर के बाद जब इंसान का परिवार बना होगा, उसने रहने का कोई स्थाई प्रबंध भी कर लिया होगा और तब तक अधोवस्त्रों का चलन भी शुरू हो चुका होगा। तब उसे भोजन के लिए शिकार के साथ-साथ और भी कुछ वस्तुओं को अपने निवास पर ले जाने की जरूरत पड़ी होगी, जिन्हें वह कमर में यहाँ-वहाँ खोंस लेता होगा। धीरे-धीरे परिस्थितियों के तहत शरीर ढकने के उपायों की इजाद हुई होगी। पर कपड़ों के साथ सिली जेबें नहीं बनी होंगीं। उसके पहले कोई छोटी-बड़ी थैली-नुमा चीज बनी होगी जिसे हाथ में लटकाया जाता होगा या कमर में बाँध लिया जाता होगा। हो सकता है इसका ख्याल उसे कंगारू के बच्चे को अपनी माँ की प्रकृति-प्रदत्त जेब में बैठा देख कर आया हो। पर सुरक्षा की दृष्टि से ऐसी छोटी थैलियां या "पॉउच" असुरक्षित ही होते थे इन पर उठाईगिरे आसानी से हाथ साफ कर जाते थे. इससे बचने के लिए उन थैलियों को कपड़ों के अंदर सीना शुरू किया गया पर वह बाजार-हाट में व्यवहारिक नहीं हो पाया। कई भुलक्कड़ इसे जहां-तहां रख कर भूल भी जाते थे। पर धीरे-धीरे जरुरत और सहूलियत को सामने रख आज की जेबों के पितामह का जन्म संभव हुआ जिसका सुधारा रूप हमारे सामने है।      

जो भी रहा हो जरूरत के अनुसार और समय के साथ-साथ कपड़ों के अंदर-बाहर जेबों का अस्तित्व चलन में आया। आज की तरह पहले इंसान के पास इतना ताम-झाम नहीं होता था, घर से बाहर निकलने पर कुछ पैसे और घर की चाबियाँ यही उसके साथ होता था जिसके लिए एक दो जेबें काफी थीं, हाँ महिलाओं को जरूर कुछ ज्यादा जगह की जरूरत होती थी इसलिए उनकी जेबें कुछ बड़े आकार की बनाई जाती थीं जिन्हें सुरक्षा की दृष्टि से उनके अंतरंग वस्त्रों में जोड़ा जाता था। 

समय बदलता गया. वस्त्रों के आकार-प्रकार-डिजाइन भी उसके साथ ढलते गए। उसके साथ ही तरह-तरह की जेबें भी बनती चली गयीं। पहले कलाई घड़ियों का चलन न होने से घड़ी के लिए एक अलग जेब होती थी। चश्मे के लिए, ट्रेन के टिकट के लिए, सिक्कों के लिए, अलग तरह की जेबें बनाई गयीं।  कुछ बड़े कागज-पत्रों के लिए अलग जेब बनी जो "कार्गो पॉकेट" कहलाई, जो जींस में नजर आती है।  कपड़ों के साथ -साथ जेबें भी उनके अनुसार बनाने लगीं।  कमीज, जैकेट, कोट, पैंट, जींस सब की अपनी तरह की जेबें होने लगी।

हालांकि इसने एक कुख्यात वर्ग "पाकेटमार" को भी पलने-बढ़ने में सहायता की है, लोगों की सिर-दर्दी बढ़ाई है. फिर भी सोचिए यह न होती तो और कितनी मुश्किलें सर उठाने लगती। अब तो इसका दायरा इतना बढ़ गया है कि लोग हर चीज में जेब खोजते हैं, चाहे छोटे पर्स हो, बड़े बैग हों, अटैची हों, बक्से हों, और तो और अब तो तैराकी के वस्त्रों और जूतों तक में जेबें लगनी शुरू हो चुकी हैं।

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