सोमवार, 31 मई 2021

अजीब और विवादास्पद नियम, क्रिकेट के

मान लीजिए एक बल्लेबाज बॉल को कवर, प्वाइंट, मिडविकेट या स्क्वायर लेग जैसी किसी एक जगह धकेल कर एक रन चुराने के लिए दूसरी तरफ दौड़ता है ! उधर फील्डर ने तेजी से बॉल विकेटों पर फेंकी ! बॉल से बचने के लिए बल्लेबाज पॉपिंग क्रीज से पहले जोर से कूदा और बिना जमीन छुए ऊपर ही ऊपर विकेटों को पार कर गया ! तब बॉल विकेटों में लगी तो क्या बल्लेबाज आउट होगा या नॉट आउट ?

#हिन्दी_ब्लागिंग    

क्रिकेट ! दुनिया भर में ना सही पर अनेक देशों का लोकप्रिय खेल ! खासकर हमारे देश का ! पर दुनिया की हर चीज की तरह इसमें तरह-तरह के बदलाव आते रहे हैं ! 1877 में टेस्ट के रूप में पदार्पण के पश्चात आज के तीनों प्रारूपों में ढलने तक इसके नियम-कायदों में अनगिनत बदलावों-सुधारों के बावजूद अभी भी कुछ नियम ऐसे हैं जो अजीबोगरीब और विवादास्पद हैं। 2019 का पिछला इग्लैंड और न्यूजीलैंड का वर्ल्डकप इसका जीता-जागता उदाहरण है ! जब ज्यादा बाउंड्री लगाने वाली टीम को विजेता घोषित कर दिया गया था ! 

ज्यादातर बल्लेबाजी को ध्यान में रख उसके लाभ और सहूलियत के लिए बने ऐसे ही कई नियम-कायदे अभी भी चलन में हैं, जो विवाद का विषय तो बन ही चुके हैं, उन पर कई वरिष्ठ खिलाड़ी और कोच भी अपनी असहमति जता चुके हैं ! आज ऐसे ही कुछ नियमों की खोजखबर !

* एक अजीब सा नियम है कि बॉल यदि विकेटों में लग भी जाए पर बेल्स ना गिरें तो बैट्समैन को आउट नहीं माना जाता ! क्यूं भाई ! बॉलर का उद्देश्य है बॉल को विकेट से टकरवाना ! पहले इतने यंत्र या गैजेट्स नहीं होते थे और मानवीय चूक से बचने के लिए विकेटों पर बेल्स लगाई जाती थीं जिनके गिरने पर पुख्ता तौर पर पता चल सके कि बॉल ने बैट्समैन को परास्त कर  विकेट को छू लिया है। इसमें मुख्य बात थी बाल का विकेट को छूना ना कि बेल का गिरना ! पर यह रूल आज भी वैसे ही कायम है, जबकि आज के जमाने में अत्याधुनिक एलईडी लाइट वाले स्टम्प्स प्रयोग में आते हैं, जिनमें बॉल छूते ही लाल रंग की लाइट जल जाती है ! ऐसे में बेल्स वाला नियम हास्यास्पद ही लगता है।

* ऐसा ही एक अजीब नियम है लेगबाई का ! बॉलर अपनी पूरी कुशलता से बेहतरीन बॉल फेंकता है ! बैट्समैन कोशिश कर भी उसे छू तक नहीं पाता ! पर बॉल जरा सा उसके पैड, जूते या शरीर को छू कर सीमा रेखा के पार चली जाती है तो चार रनों का इनाम मिलता है बल्लेबाज को ! बेचारा बॉलर..... !

* इसी तरह की कोई बॉल बाउंसर के रूप में बैट्समैन को डराती हुई उसे और विकेटकीपर को छकाती हुई सीमा रेखा पर कर जाती है तो बैटिंग करने वाली टीम को चार रन मिल हैं ! जबकि बैट्समैन उस बॉल पर पूरी तरह परास्त हो चुका होता है ! इस नियम ने कई मैचों का परिणाम  बदल कर रख दिया है ! इस पर भी गौर करने की जरुरत है।   

* एक ऐसा ही अजीब सा नियम नो बॉल का है ! खासकर इस खेल के 20 बॉलीय संस्करण में ! यदि किसी बॉलर से नो बॉल हो गई तो बैट्समैन को फ्री हिट मिलती है।  जिसमें वह सिर्फ रन आउट ही हो सकता है, सोचने की बात है कि बॉलर, नो बॉल का खामियाजा तो उस बॉल पर दे ही चुका है ! फिर अतिरिक्त बॉल पर और पेनल्टी क्यों ! वह भी बल्लेबाज के आउट ना होने की कीमत पर !  

* इसी तरह का एक नियम 20-20 के मैचों में पूरी तौर से बल्लेबाज के हित को ध्यान में रख कर बनाया गया है, जो खेल के पहले छह ओवर के पॉवर प्ले में फील्डिंग की सजावट पर प्रतिबंध लगाता है। खेल है ! सबको बराबर का मौका मिलना चाहिए ! बैट्समैन को अतिरिक्त सुविधा क्यों ! और बॉलर से क्या दुश्मनी है !

मान लीजिए एक बल्लेबाज बॉल को कवर, प्वाइंट, मिडविकेट या स्क्वायर लेग जैसी किसी एक जगह धकेल कर एक रन चुराने के लिए दूसरी तरफ दौड़ा ! उधर फील्डर ने तेजी से बॉल विकेटों पर फेंकी ! बॉल से बचने के लिए बल्लेबाज पॉपिंग क्रीज से पहले जोर से कूदा और बिना जमीन छुए ऊपर ही ऊपर विकेटों को पार कर गया ! तब बॉल विकेटों में लगी तो क्या बल्लेबाज आउट होगा या नॉट आउट ?जब आपने 22 गज की पिच को एक रन का मानक मान लिया है और बैट्समैन पॉपिंग क्रीज को पूरा पार कर लेता है तो बैट का जमीन को छूना अनिवार्य क्यों ! मुद्दा तो 22 गज को पार करना है, वह हो गया तो फिर भले ही बैट हवा में हो, दूरी तो पूरी कर ही ली गई ना ! शुरूआती दिनों में उपकरणों की अनुपस्थिति में बैट और जमीन के सम्पर्क का मामला समझ में आता है पर आज जब एक-एक मिलीमीटर का हिसाब दिखने-मिलने लगा है तो इस बेतुके नियम को भी आउट कर देना चाहिए ! 

* जबसे क्रिकेट में हेल्मेट का उपयोग होने लगा है तब से खेल में बैट्समैन की बादशाहत सी हो गई है। पर उसी हेल्मेट को खिलाड़ी का एक अंग ही माना जाता है यदि अंपायर को लगता है कि बॉल के विकेटों पर जाने में हेल्मेट बाधक था तो वह बैट्समैन को आउट दे सकता है ! कहते जरूर हैं LBW पर खेल में पूरे शरीर को ही बाधक BBW (body before wicket) मान कर ही निर्णय दिया जाता है।

* शायद बहुत से क्रिकेट प्रेमियों को पता ना हो कि अंपायर बैट्समैन को तब तक आउट घोषित नहीं कर सकता जब तक विपक्षी टीम अपील ना करे ! आज के हो-हल्ले वाले आक्रामक खेल के जमाने में यह नियम बचकाना सा लगता है।   

* आज बैट्समैन की सुरक्षा के लिए तरह-तरह के उपकरण खेल में इस्तेमाल होते हैं ! नजदीकी फिल्डर को भी हेल्मेट पहनने की इजाजत है पर यह जान कर आश्चर्य होता है कि कोई भी फील्डर तेज गति से आती बॉल से अपने हाथों को बचाने के लिए ग्लव्स नहीं पहन सकता ! यदि वह ऐसा करता पाया जाता है तो विपक्षी टीम को पांच रनों से नवाजा जा सकता है ! ऐसा क्यूँ भई ! बैट्समैन की चोट, चोट है बाकियों की.......!

* आजकल वैसे तो रनर का चलन बहुत कम हो गया है, पर उसके लिए भी एक नियम है कि रनर को उतना ही जिरह-बख्तर, यानी बैट्समैन के बराबर के उपकरण धारण करने होंगे, जिनसे समानता बनी रहे ! पर यदि बैट्समैन का वजन 100 किलो हो और उतने भार का कोई अन्य खिलाड़ी ना हो तो ! 

* प्रसंगवश एक अनोखी और सबसे धीमी हैट्रिक की बात। घटना है 1988-89 में ऑस्ट्रेलिया और वेस्ट इंडीज के बीच हुए दूसरे टेस्ट मैच की। जिसमें मर्व ह्यूज को बड़े अजीबोगरीब तरीके से अपनी हैट्रिक पूरी करने का मौका मिला था। ह्यूज ने अपने छत्तीसवें ओवर की अंतिम बॉल पर एक विकेट लिया। फिर जब उसे दोबारा बॉलिंग का अवसर मिला तब तक वेस्ट इंडीज का आखिरी विकेट ही बचा था, जिसे ह्यूज ने अपने सैंतीसवें ओवर की पहली बॉल पर आउट कर दिया। फिर दूसरी पारी के अपने पहले ओवर की पहली बॉल पर उसे फिर विकेट मिला ! इस तरह दो पारियों और तीन ओवरों में दुनिया की यह अनोखी हैट्रिक पूरी हुई। क्या अजीब नहीं लगता कि ऐसे मामलों पर कोई ठोस नियम लागू नहीं होते !        

इन सब के अलावा भी कई विवादित नियम हैं, जैसे फेक फिल्डिंग नियम ! बॉल को विकेट पर जाने से रोकने के लिए बैट का उपयोग क्योंकि एक बैट्समैन का मुख्य उद्देश्य अपना विकेट बचाना ही होता है ! टोपी, रुमाल भी विकेट पर गिर जाए तो आउट, इत्यादि, इत्यादि ! जिन्हें आज के समयानुसार बदले या सुधारने की  जरुरत है ! 

बुधवार, 26 मई 2021

चैनलिया घालमेल

देश में पहला प्राइवेट टीवी न्यूज चैनल ला खबरों को रोचक बनाने का श्रेय पूरी तौर से जाता है प्रणय रॉय को ! यही वो शख्स है जिसने भारत में होने वाले चुनावों और उनके परिणामों को टीवी पर सबसे पहले लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाई। अपार सफलता पाने के बाद इन्होंने 1988 में जिस NDTV नाम के अपने प्रोडक्शन हाउस की स्थापना की थी, वह अब एक बड़े मीडिया घराने में बदल गया है और इतना ताकतवर हो चुका है कि उसके उद्घोषक या संचालक बिना किसी हिचक या संकोच के सरकार, उसके सदस्यों, उसके वरिष्ठ प्रवक्ताओं की सरे-आम, दिन-रात छीछालेदर करने से बाज नहीं आते ! ऐसा क्यूँ ..................!

#हिन्दी_ब्लागिंग  

भारत में टीवी का उद्भव, प्रयोगात्मक तौर पर ''टेलीविजन इंडिया'' के नाम से 1959 के सितम्बर महीने की 15 तारीख को हुआ था ! जिसे 1975 में ''दूरदर्शन'' का नाम दिया गया। बेहतरीन गुणवत्ता, जबरदस्त लोकप्रियता, लोगों के प्रेम व उत्सुकता के बावजूद इसका सही उपयोग नहीं हो पाया। कारण ! वही सरकारी नियंत्रण, लाल फीताशाही, अदूरदर्शी सरकारी हाकिम, बंधा-बंधाया रवैया और अनगिनत बदिशें ! जिन्होंने कभी इसे उबरने ही नहीं दिया ! इसीलिए दूरदर्शन को देश भर के शहरों तक पहुँचने और रंगीन होने में 21 साल लग गए ! फिर भी वह जैसा भी था, अच्छा था। सदा सरकारी नियंत्रण में रहने के बावजूद उसने विरोधी दलों और उनके नेताओं पर अनर्गल कुछ नहीं कहा। जो भी टिपण्णी होती थी, सब मर्यादित। भाषा का संयम सदा बरकरार। पर फिर एक सुनामी आई तथाकथित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ! जिसके तहत तरह-तरह के चैनल उग आए ! जिन्होंने अपना अस्तित्व बनाए व बचाए रखने के लिए या अपने पर हुए अहसानों का बदला चुकाने के लिए किसी ना किसी छाते के नीचे शरण ले ली ! फिर ना कोई मर्यादा रही ! ना किसी का सम्मान ! ना हीं कोई गरिमा ! 

दूरदर्शन के समय में ही एक शख्स ने इस विधा की असीमित ताकत, क्षमता, पहुंच व सम्मोहिनी शक्ति को पहचाना और उसे एक अलग दिशा दे डाली। जिसकी बदौलत देश में पहले प्राइवेट टीवी न्यूज चैनल का पदार्पण हुआ। इसका श्रेय पूरी तौर से जाता है प्रणय रॉय को जिन्होंने दूरदर्शन की एक ही शैली-पद्यति-ढाँचे में ढली, दूरदर्शन की खबरों से बाहर निकल कर उन्हें रोचक बना ''वर्ल्ड दिस वीक'' और ''न्यूज टुनाइट'' के नाम से पेश करना शुरू किया। कहना ना होगा कि इस प्रयोग को दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया। यही वो शख्स है जिसने भारत में होने वाले चुनावों और उनके परिणामों को टीवी पर सबसे पहले तथ्यों से परिपूर्ण, रोचक और लोकप्रिय बनाने में अहम भूमिका निभाई। अपार सफलता पाने के बाद इन्होंने 1988 में जिस NDTV नाम के अपने प्रोडक्शन हाउस की स्थापना की थी, वह अब एक बड़े मीडिया हाउस में बदल चुका है और इतना ताकतवर हो चुका है कि उसके उद्घोषक या संचालक बिना किसी हिचक के सरकार, उसके सदस्यों, उसके वरिष्ठ प्रवक्ताओं की सरे-आम, दिन-रात छीछालेदर करने से बाज नहीं आते ! ऐसा कैसे और क्यूँ हो गया !

जाहिर है यह सब बिना किसी के संरक्षण के कतई संभव नहीं है ! इसके लिए जरा पीछे मुड़ कर देखने से ही सब साफ़ हो जाता है ! प्रणय रॉय की तत्कालीन सरकार से बहुत घनिष्टता थी। इसीलिए NDTV की शुरुआत तत्कालीन प्रधानमंत्री के निवास से हुई थी और उसने अपना 25वां जन्मदिन राष्ट्रपति भवन में मनाया था ! इसी से प्रणय रॉय की पहुंच, उनकी साख, उनके दबदबे का अंदाजा लगाया जा सकता है। लाजिमी है कि जिसकी बदौलत इतनी इज्जत-शोहरत-कामयाबी-दौलत मिली हो उसका वफादार रहा जाए ! और यह वफादारी यह मीडिया हॉउस आँख बंद कर निभा रहा है !

यदि एक नजर इससे जुड़े लोगों पर डाल ली जाए तो बात और भी साफ़ हो जाती है ! शुरू से ही देखें तो प्रणय रॉय का विवाह, CPI(M) के पूर्व प्रमुख प्रकाश कारत की पत्नी वृंदा कारत की बहन राधिका रॉय के साथ हुआ है।  

प्रणय रॉय, अरुंधति रॉय के चचेरे भाई (cousin) हैं। प्रणय के बंगाली पिता ने क्रिश्चियन धर्म अपना कर एक आयरिश महिला से विवाह किया था और एक ब्रिटिश कंपनी में ही कार्यरत थे। 

NDTV में कार्यरत बरखा दत्त ने जम्मू-कश्मीर की पीडीपी पार्टी के सदस्य हसीब अहमद द्राबू के साथ दूसरा निकाह किया है जबकि उनकी पहली शादी भी कश्मीर के ही एक युवक मीर से हुई थी। 

NDTV की निधि राजदान जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्य मंत्री उमर अब्दुल्ला की बहुत ख़ास दोस्त हैं। 

NDTV की ही सोनिया सिंह की शादी, आरपीएन सिंह, जो कांग्रेस से जुड़े हैं और यूपीए के मंत्रिमंडल के सदस्य भी रह चुके हैं, के साथ हुई है !
 
राजदीप सरदेसाई, जो पहले NDTV में हुआ करते थे, का विवाह सागरिका घोष के साथ सम्पन्न हुआ है, जो पहले CNN में कार्यरत थीं ! ये वही सागरिका घोष हैं जिनके पिता भास्कर घोष को दूरदर्शन में कांग्रेस की सरकार द्वारा डायटेक्टर जनरल का पद दिया गया था ! जिन पर बाद में NDTV को आर्थिक लाभ पहुंचाने का इल्जाम भी लगा था ! जो उनके दामाद के मालिक की कंपनी थी !

NDTV ने उन विष्णु सोम को अपने यहां एक बड़ी जिम्मेदारी सौंपी, जिनके पिता हिमाचल सोम को कांग्रेस सरकार ने इटली का राजदूत बनाया था और जिनकी माताश्री रेबा सोम ने नेहरूजी और कांग्रेस की विरदावली में अनेक पुस्तकें लिख डाली थीं। 

इन सब के देखने-समझने के बाद NDTV  की कार्यप्रणाली या उसके उद्देश्य या उसकी विचारधारा के बारे में कुछ कहने-सुनने की जरुरत रह जाती है क्या  ? 

शनिवार, 22 मई 2021

उपनाम यानी सरनेम

जिस उपनाम को इंसान की सही शिनाख्त, उसकी सहूलियत, उसकी ठोस पहचान के लिए प्रयोग में लाया गया था ! समय के साथ उसी पर समाज को तोड़ने, उसे विभाजित करने, ऊँच-नीच में दरार, जाति-वर्ग की दिवार खड़ी करने का आरोप लगने लग गया ! आज मांग उठने लगी है कि अवाम अपने नाम के साथ लगने वाले उपनाम को खारिज कर दे ! उससे मुक्ति पा ले ! उसको अपने से दूर कर दे  ! जिससे समाज में समरसता आ सके...............!

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एक होता है नाम ! जो किसी भी व्यक्ति की प्रमुख पहचान होता है। दूसरा होता है उपनाम, किसी नाम के साथ जुड़ा वह शब्द जो उस नाम की जाति या किसी विशेषता को व्यक्त करता है। आज देश-विदेश में कहीं भी देखा जाए तो हर इंसान के नाम के साथ एक उपनाम, का होना आम बात हो गई है। इसकी जरुरत क्यों पड़ी ! यह भी जिज्ञासा का प्रश्न है ! इसका जवाब तो यही लगता है कि मनुष्यों की बढ़ती आबादी और उनका किसी भी कारण, कहीं भी होने वाला स्थानांतरण ही इसका मुख्य कारण होगा। क्योंकि जब जनसंख्या कम थी, तब लोगो की पहचान उनके नाम से या ज्यादा से ज्यादा पिता का नाम जोड़कर हो जाती थी। लेकिन जब आबादी बढ़ी और एक ही नाम के कई व्यक्ति होने लगे या फिर कोई इंसान अपनी जगह छोड़ किसी दूसरे स्थान पर जा कर रहने लगा तो सबकी अलग-अलग पहचान के लिए नाम को कुछ ख़ास बनाना जरुरी हो गया ! तब उपनाम की रचना हुई। जो आगे चल कर हमारी जाति, धर्म या समुदाय का भी प्रतिनिधित्व करने लगा।  

जिस उपनाम को इंसान की सही शिनाख्त, उसकी सहूलियत के लिए, उसकी ठोस पहचान के लिए बनाया गया था ! समय के साथ उसी पर समाज को तोड़ने, उसे विभाजित करने, ऊँच-नीच में दरार डालने, जाति-वर्ग की दिवार खड़ी करने का आरोप लगने लग गया 

दुनिया की तो छोड़ें ! आज हमारे देश में ही वंश, गोत्र , जातियों, उपजातियों, कर्मों, जगहों, पूर्वजों, उपाधियों और ना जाने किस-किस से जुड़े अनगिनत उपनाम चलन में हैं। जबकि हमारे ग्रंथों इत्यादि में नाम के साथ सिर्फ वंश का जुड़ा होना पाया जाता रहा है, जैसे सूर्यवंश, चन्द्रवंश या मौर्यवंश इत्यादि ! वैसे एक उपनाम (तखल्लुस) और भी होता है जिसे ज्यादातर कवि, शायर, लेखक या कलाकार अपनी रचनाओं में अपने नाम के साथ जोड़ लेते हैं ! पर इसमें आदमी की सही पहचान छिप जाती है ! कई बार तो यह असली नाम पर भी भारी पड़  जाता है।  

उपनामों की शुरुआत कब और कैसे हुई यह एक वृहद खोज का विषय है ! एक अंदाज सा लगाया जा सकता है कि जब समय के गुजरने के साथ ही इंसान को भी अपनी जीविका या अन्य उद्देश्यों के लिए दुनिया भर में स्थानांतरित होना पड़ता रहा होगा और काल-परिस्थियों-मजबूरियों से उसका कायाकल्प भी होता चला गया होगा ! ऐसे में उसे अपनी सही और ठोस पहचान बनाए रखने के लिए किसी विशेषण की जरुरत महसूस हुई होगी ! जिसके तहत विभिन्न विशेषताओं वाले उपनामों का प्रादुर्भाव हुआ होगा ! पर बढ़ती आबादी, अंतर्जातीय संबंधों, अलग-अलग परिवेशों, परिस्थियों या मजबूरियों से नाम-उपनाम भी बदलते चले गए होंगे। उनमें भी घाल-मेल हो गया होगा ! जिसके परिणाम स्वरूप आज कई उपनाम ऐसे मिलते हैं जो किसी भी मजहब के मानने वाले के हो सकते हैं, जैसे; पटेल, शाह, राठौर, राणा, सिंह इत्यादि ! 

पर जिस उपनाम को इंसान की सही शिनाख्त, उसकी सहूलियत के लिए, उसकी ठोस पहचान के लिए बनाया गया था ! समय के साथ उसी पर समाज को तोड़ने, उसे विभाजित करने, ऊँच-नीच में दरार डालने, जाति-वर्ग की दिवार खड़ी करने का आरोप लगने लग गया ! आज मांग उठने लगी है कि अवाम अपने नाम के साथ लगने वाले उपनाम को खारिज कर दे ! उससे मुक्ति पा ले ! उसको अपने से दूर कर दे ! जिससे एक समान समाज का निर्माण हो सके !   

बुधवार, 19 मई 2021

तैयार रहिए, हवा खरीदने के लिए

''24 दिसंबर 2015 की पोस्ट जो आज सही साबित हो रही है "

कुछ सालों पहले बोतल बंद पानी का चलन शुरू हुआ था, जो अब करोड़ों-अरबों का खेल बन चुका है। डरा-डरा कर पानी को दूध से भी मंहगा कर दिया गया है। वही खेल अब हवा को माध्यम बना खेला जाएगा। तरह-तरह की "जगहों" के नाम से हवा की बोतलों की कीमतें निर्धारित होंगी ! डरे और आशंकित लोग बिना सोचे-समझे-परखे, सेहत के नाम पर कुछ भी सूँघते नज़र आऐंगे। पानी में तो फिर भी बोतल में कुछ भरना पड़ता है, पर इसमें तो हरड़-फिटकरी के बिना ही तिजोरी भरने का मौका मिल जाएगा ! लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब बच्चों के बैग में पानी की बोतल के साथ ही हवा की बोतल भी दिखने लग जाएगी.............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

इंसान को प्रकृति ने पांच नेमतें मुफ्त में दे रखीं हैं। धरती, पानी, अग्नि, वायु और आकाश। जिनके बिना जीवन का अस्तित्व ही नहीं बचता। जैसी की कहावत है, माले मुफ्त दिले बेरहम, हमने इन पंचतत्वों की कदर तो की ही नहीं उलटा उनका बेरहमी से शोषण जरूर किया ! धरती का दोहन तो सदियों से हम करते आ रहे हैं, जिसकी अब अति हो चुकी है। दूसरा जल, यह जानते हुए भी कि इसके बिना जीवन नामुमकिन है, उसको जहर बना कर रख दिया गया है। बची थी हवा तो उसका हाल भी बेहाल होता जा रहा है। विडंबना यह है कि हालात को सुधारने के बजाए अभी भी हम अपने कुकर्मों से बाज नहीं आ रहे हैं !

खबर आ गयी है कि चीन में शुद्ध हवा को डिब्बों में भर कर बेचने का उपक्रम शुरू हो चुका है। वैसे जापान में बहुत पहले से आक्सीजन बूथ लग चुके हैं। पर उनमें और अब में फर्क है। तो अब लगता नहीं है कि हमारे "समझदार" रहनुमा शहरों पर छाई जानलेवा दूषित वायु को साफ़ करने के लिए कोई सख्त और सार्थक कदम उठाएंगे। क्योंकि निकट भविष्य में कौडियों को ठोस सोने में बदलने के मौके हाथ लगने वाले हैं। जिसे रसूखदार कभी भी हाथ से जाने नहीं देंगें। क्योंकि सब जानते हैं कि जरुरत हो न हो, अपने आप को आम जनता से अलग दिखलवाने की चाहत रखने वाले हमारे देश में भरे पड़े हैं। कुछ सालों पहले जब बोतल बंद पानी का चलन शुरू हुआ था तो घर-बाहर-होटल-रेस्त्रां में इस तरह का पानी पीना "स्टेटस सिंबल" बन गया था। जो अब करोड़ों-अरबों का खेल बन चुका है। डरा-डरा कर पानी को दूध से भी मंहगा कर दिया गया है। कारण भी है दूध की उपलब्धता सिमित है और हर एक के लिए आवश्यक भी नहीं है, इसलिए आमदनी की गुंजायश कम थी। पर पानी तो जीवन का पर्याय है और अथाह है। सिर्फ साफ़ बोतल और ढक्कन लगा होना चाहिए फिर कौन देखता है कि उसमें भरा गया द्रव्य कहां से लिया गया है। वही खेल अब हवा के माध्यम से खेला जाएगा। तरह-तरह की "जगहों" के नाम से हवा की बोतलों की कीमतें निर्धारित होंगी ! डरे और आशंकित लोग बिना सोचे-समझे-परखे सेहत के नाम पर कुछ भी सूँघते नज़र आऐंगे। पानी में तो फिर भी बोतल में कुछ भरना पड़ता है, पर इसमें तो हरड़-फिटकरी के बिना ही तिजोरी भरने का मौका मिल जाएगा ! लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब बच्चों के बैग में पानी की बोतल के साथ ही हवा की बोतल भी दिखने लग जाएगी।

बात है डर की ! इंसान की प्रजाति सदा से ही डरपोक या कहिए आशंकित रहती आई है। अब तो डर हमारी 'जींस' में पैबस्त हो चुका है। इसी भावना का फायदा उठाया जाता रहा है और उठाया जाता रहेगा। सुबह होते ही  विभिन्न मिडिया के डराने का व्यापार शुरू हो जाता है। अरे क्या खा रहे हो, यह खाओ और स्वस्थ रहो ! ओह हो ! क्या पी रहे हो इसमें जीवाणु हो सकते हैं ! ये डब्बे वाला पियो ! अरे, ये कैसा कपड़ा पहन लिया, ये पहनो ! आज जिम नहीं गए ! हमारे यंत्र घर में ही लगा लो ! ये बच्चों-लड़कियों जैसा क्या लगा लेते हो, अपनी चमड़ी का ख्याल रखो ! आज फलाने को याद किया, तुम्हारे ग्रह ढीले हैं! कल ढिमकाने के दर्शन जरूर करने हैं ! आज प्रदूषण की मात्रा जानलेवा है ! ऐसा करोगे तो वैसा हो जाएगा, वैसा करोगे तो ऐसा ही रह जाएगा। यानी जब तक आदमी सो नहीं जाता यह सब नाटक चलता ही रहता है। आज कल हवा से डराने का मौसम चल रहा है ! हो सकता है कि भविष्य में शुरू किए जाने या होने वाले व्यवसाय के लिए हवा बाँधी जा रही हो  !!! 

सोमवार, 17 मई 2021

एक था बुधिया, द मैराथन रनर

अब वह मैराथन दौडना तो दूर, अपने साथियों के बराबर भी नहीं दौड पाता। उसने नेशनल लेवल तो क्या कोई राज्य स्तरीय अथवा जिला स्तरीय प्रतियोगिता भी नहीं जीती है। हालांकि दावे तो ओलम्पिक और मैराथन जीतने के हुआ करते थे ! बेवक्त, बेवजह का स्टारडम, ख्याति, परिवार की उसे दूसरों से अलग व विशेष बनाने की सनक, अति अपेक्षा और लालच के चलते, मैराथन दौडने वाला बुधिया, स्कूल स्तर की प्रतिस्पर्धाओं में भी सामान्य  बच्चों से पिछडता चला गया....................!!

#हिन्दी_ब्लागिंग   

याद है आपको, वह पांच साल का बच्चा, बुधिया ! जिसने ओडिसा में 2006 के मई महीने की तपती दोपहरी में लगातार सात घंटे दो मिनट दौड़ कर पुरी से भुवनेश्वर तक की 65 किलोमीटर की दूरी को नाप कर दुनिया का सबसे कम उम्र का मैराथन धावक बनने का गौरव हासिल कर, सब को आश्चर्यचकित कर रख दिया था ! जिसका उत्साहवर्धन करने और मनोबल बनाए रखने के लिए रिजर्व पुलिस बल के दो सौ जवान भी उसके साथ दौड़े थे। जो रातों-रात हर अखबार और टेलीविजन चैनल की सुर्खियों में छा दुनिया भर में मशहूर हो गया था ! जबकि उस समय उसकी उम्र चार वर्ष से कुछ ही ज्यादा थी ! इस हैरतंगेज कारनामे के लिए उसका नाम ''लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्डस" में  भी शामिल किया गया था। बुधिया ने महज 5 साल की उम्र में 48 मैराथन पूरे कर लिए थे ! नन्हें बुधिया के चर्चा में आते ही विभिन्न संस्थाओं ने उसके लिए ढेरों कोष बनाने की घोषणाएं भी की थीं। उसके नाम के साथ Budhiya Born to Run ! Budhiya the Wonder Boy जैसे तरह-तरह के विशेषण जुड़ने लग गए थे ! पर फिर क्या हुआ ? कहां गुम हो गया, वह नन्हा मैराथन धावक ?

 


बुधिया सिंह ! एक अत्यन्त गरीब परिवार का बेटा ! गरीबी इतनी कि दूसरों के घर काम करती, उसकी माँ सुकांति सिंह ने अपने इस बच्चे को सिर्फ आठ सौ रूपए में एक परिवार को बेच दिया ! पर फिर भाग्य को कुछ तरस आया और एक दिन खेलते हुए इस बच्चे पर दौड़ाक और जुडो कोच बिरंची दास की नजर पड़ी ! उन्होंने प्रतिभा को भांप लिया और बुधिया को गोद ले अपने निरक्षण में दौड़ने का प्रसिक्षण देने लगे। पर भाग्य का फेर ! बुधिया का कुछ नाम होते ही उसकी माँ ने, जिसने चंद रुपयों के लिए उसे बेच डाला था, कोच बिरंची दास पर ना केवल गलत व अनर्गल आरोप लगाये बल्कि बुधिया को बंधक बनाने तक के मुकदमे भी दर्ज करा दिए ! इसी तनातनी के बीच बिरंची दास की रहस्यमय तरीके से हत्या कर दी गई ! इसके साथ ही बुधिया के दुर्दिन फिर शुरू हो गए !

कोच बिरंची दास के साथ बुधिया 



हालांकि उसकी प्रतिभा के चलते सरकार ने उसे भुवनेश्वर के SAI होस्टल मे रख, लंबी दूरी का धावक बनाने का प्रयास विधिवत रूप से शुरू किया भी था ! मगर इस सब से उचाट बुधिया हाॅस्टल से ही भाग निकला ! अपनी माँ की महत्वाकांक्षा और लालच के चलते एक विलक्षण प्रतिभा का वो हश्र हुआ, जो नही होना चाहिये था ! यह एक कटु सत्य है कि जो बच्चे अपने बचपन में ही अनायास मिली ख्याति, प्रसिद्धि और स्टारडम का स्वाद चख लेते हैं, आगे चल कर असफलता उनकी नियति बन जाती है ! हमारे आस-पास ऐसे लाखों उदाहरण मौजूद हैं ! इसमें उन मूर्ख अभिभावकों का भी बहुत बड़ा हाथ  होता है जो अपने अधूरे सपनों को अपने मासूम बच्चों की मार्फ़त पूरा करने की भूल किए जाते हैं ! जिंदगी की दौड़ में अपने बच्चे के पिछड़ जाने के बेफिजूल डर से वे अपने बच्चों से उनका बचपन, मासूमियत, भोलापन छीन बेवजह पैसा लुटा उसे सफल बनाने पर तुले रहते हैं ! वे भूल जाते हैं कि पौधा प्राकृतिक रूप से ही बड़ा हो पेड़ बनता है ! ज्यादा खाद-पानी उसे नष्ट भी कर सकते हैं ! पर नहीं ! सबके सब अपने बच्चों को बिना उनकी लियाकत या रुझान जाने, नायक, गायक, खिलाड़ी बनाने पर आमादा रहते हैं ! एक अँधी दौड चल रही है ! एक छलावा भ्रमित किए हुए है ! यही बुधिया के साथ हुआ !

बुधिया सिंह, अब 
आज वो वंडर ब्वाॅय बुधिया सिंह जवान हो चुका है। उस पर एक फिल्म भी बन चुकी है ! पर अब वह मैराथन दौडना तो दूर, अपने साथियों के बराबर भी नहीं दौड पाता। उसने नेशनल लेवल तो क्या, कोई राज्य स्तरीय अथवा जिला स्तरीय प्रतियोगिता भी नहीं जीती है । हालांकि दावे तो ओलम्पिक और मैराथन जीतने के हुआ करते थे ! जबकि उसे हर सहूलियत, विधिवत प्रशिक्षण और सरकारी मदद भी मिली पर फिर भी वह जीवन मे कुछ खास नही कर पाया ! बेवक्त, बेवजह का स्टारडम, ख्याति, परिवार की अति अपेक्षा, उसे दूसरों से अलग व विशेष बनाने की सनक और लालच के चलते, मैराथन दौडने वाला बुधिया, स्कूल स्तर की प्रतिस्पर्धाओं मे भी सामान्य बच्चो से पिछडता चला गया । उसका कैरियर बनने से पहले ही ढह कर रह गया !
यह एक बानगी, एक चेतावनी, एक नसीहत भी है उन अभिभावकों के लिए, जो अपने अधूरे सपनों, अपनी ख्वाहिशों को मूर्त रूप  देने के लिए, वक्त से पहले ही अपने बच्चों को क्षणिक प्रसिद्धि और बिना मतलब की ख्याति दिलाने हेतु अपने बच्चों के भविष्य को अँधकारमय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते ! ऐसे अभिभावकों से इतना ही कहा जा सकता है कि वे अपने बच्चों को नैसर्गिक तौर पर ही खेलने-कूदने-बढ़ने-फलने-फूलने दें ! उनसे उनका बचपन ना छीने ! उनके कोमल कंधों पर अपनी आकंक्षाओं को ना लादें ! वे जो चाहते हैं, करने दें ! आप सिर्फ उनका हौसला बढ़ाइए ! मीडिया पर छाए, बेवकूफ बनाते विज्ञापनों, तरह-तरह के उटपटांग सीरियलों के झांसे में ना आ कर, उन्हें प्राकृतिक तौर पर सीखने-समझने का मौका दीजिए ! 

शनिवार, 15 मई 2021

बाबूजी मैं आपसे बहुत प्यार करता था, पर.......

मेरी जिंदगी भर एक ही कामना रही कि आपसे कह सकूँ कि बाबूजी मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ ! पर कभी भी कह नहीं पाया ! जबकि आप अपने रुतबे को कभी घर नहीं लाए। सदा गंभीर रहते हुए भी सरल, निश्छल, प्रेमल बने रहे ! पर पता नहीं दोष किसका रहा ! मेरी झिझक का, मेरे संकोच का या आज से बिल्कुल विपरीत उस समय का जब पिता के सामने पड़ने के लिए भी काफी हिम्मत की जरुरत होती थी। सारे काम, जरूरतें, संवाद माँ के जरिए ही संपन्न होते थे.................!!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
बाबूजी सादर प्रणाम ! 14 मई, आपका जन्मदिन ! पर वर्षों तक ना कभी आपने बताया और ना हीं मनाया ! वह तो भला हो कनिष्ठा पूनम का, जिसने देर से ही सही इस दिशा में पहल की ! अलबत्ता अपना ना सही पर आपने दूसरों का मनाया और मनवाया भी ! पर उन लोगों ने भी कभी जरुरत नहीं समझी, सिर्फ शुभकामना देने तक की ! सिर्फ अपना मतलब सिद्ध करते रहे ! आप जान कर भी अनजान रहे ! कैसा समय हुआ करता था ! कितनी दूरी होती थी इस पीढ़ी के बीच ! प्यार-स्नेह-ममता-लगाव सब कुछ तो था ! पर जताया नहीं जाता था कभी, पता नहीं क्यूँ ? 
मेरी जिंदगी भर एक ही कामना रही कि आपसे कह सकूँ कि बाबूजी मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ ! आप मेरे आदर्श है ! पर कभी भी कह नहीं पाया ! जबकि आप अपने रुतबे को कभी घर नहीं लाए। सदा गंभीर रहते हुए भी सरल, निश्छल, प्रेमल बने रहे ! पर पता नहीं दोष किसका रहा ! मेरी झिझक का, मेरे संकोच का या आज से बिल्कुल विपरीत उस समय का जब पिता के सामने पड़ने के लिए भी काफी हिम्मत की जरुरत होती थी। सारे काम, जरूरतें, संवाद माँ के जरिए ही संपन्न होते थे ! क्या आज की पीढ़ी सोच भी सकती है वैसे हालात के बारे में !  
जब एकांत में आपकी बेपनाह याद आती है ! जब आपसे एकतरफा बात करता हूँ ! तब लाख कोशिशों के बाद भी आँखें किसी भी तरह काबू में नहीं रहतीं 
हर बच्चे के लिए उसका पिता ही सर्वश्रेष्ठ व उसका आदर्श  होता है ! पर आप तो सबसे अलग थे ! मैंने जबसे होश संभाला तब से आपको अपनी नहीं सिर्फ दूसरों की फ़िक्र और उनकी बेहतरी में ही लीन देखा ! यहां तक कि छोटी सी उम्र से ही अपने पालकों को भी पालते रहे ता-उम्र आप ! अपने भाई बहन का तो बहुत से लोग जीवन संवारते हैं, पर आपने तो उनके साथ ही माँ के परिवार को भी सहारा दिया ! वह भी बिना किसी अपेक्षा के या कोई अहसान जताए या चेहरे पर शिकन लाए ! यह जानते हुए भी कि बहुत से लोग आपका अनुचित फ़ायदा उठा रहे हैं, आप अपने कर्तव्य पूर्ती में लगे रहे ! आखिर वह दिन भी आ ही गया जब आपको भी आराम की जरुरत महसूस होने लगी ! तब मतलब पूर्ती का स्रोत सूखता देख कइयों ने अपना पल्ला झाड़ रुख बदल लिया ! पर आप नहीं बदले ! जितना भी बन पड़ता था, दूसरों की सहायता करते रहे ! कहने-सुनाने को तो मेरे पास अनगिनत बातें हैं, इतनी कि पन्नों के ढेर लग जाएं पर स्मृतियाँ शेष ना हों !
जब भी पुरानी यादें मुखर होती हैं, तो बहुत से ऐसे वाकये भी याद आते हैं जब आप मुझसे नाराज हुए ! पर सही मायनों में बताऊँ तो आज तक समझ नहीं पाया कि जिस बात को मैं सोच भी नहीं सकता वैसा कैसे और क्यूँ हुआ ! सब गैर-इरादतन होता चला गया ! किसी दुष्ट ग्रह की वक्र दृष्टि और कुछ विघ्नसंतोषी लोगों का षड्यंत्र, कुछ का कुछ करवाता चला गया ! याद आता है तो बहुत दुःख और अजीब सा लगता है, अपने को सही साबित ना कर पाना और दूसरों के कुचक्र को ना तोड़ सकना ! पर जब कुछ-कुछ कोहरा छंटने लगा था तभी आप भी मुझे छोड़ गए !  

आज जब एकांत में आपकी बेपनाह याद आती है ! जब आपसे एकतरफा बात करता हूँ ! तब आँखें फिर किसी भी तरह काबू में नहीं रहतीं !  बाबूजी मैं (हम सब) आपसे बहुत प्यार करता था, हूँ और रहूंगा........! 

मंगलवार, 11 मई 2021

कण्वाश्रम, बाल भरत की क्रीड़ास्थली

चारों ओर सघन, सुनसान पर सुरम्य अरण्य से घिरे इस स्थल का मुख्य आकर्षण, सुन्दर चित्रों से सुसज्जित चार दीवारी से घिरा भरत स्मारक है जिसका निर्माण 1956 में हुआ बतलाते हैं। इस गोल इमारत के निचले हिस्से में भरत से संबंधित चित्रावली है ! ऊपर पहले खंड में देवताओं के वैद्य धन्वन्तरि जी की बहुत सुंदर प्रतिमा स्थापित है ! मूर्ति का चेहरा और आँखें इतनी सजीव हैं कि लगता है अभी सचल हो उठेंगी। उस के ऊपर कण्व ऋषि की प्रतिमा है पर वहां जाने का रास्ता नहीं है...............!

#हिन्दी-ब्लागिंग 

ऋषि विश्वामित्र और अप्सरा मेनका की पुत्री शकुंतला की कथा का वर्णन महाभारत में भी आता है ! पर इसको अमर किया महाकवि कालिदास के संस्कृत नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम ने ! इसकी कथा तो तक़रीबन सभी को ज्ञात ही है कि कैसे दुष्यंत-शकुंतला का गंधर्व विवाह हुआ, और कैसे शकुंतला को दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण कण्वाश्रम में ही रहना पड़ा था ! जहां उनके पुत्र भरत का जन्म हुआ ! भरत के बल के बारे में ऐसा माना जाता है कि वह बाल्यकाल में वन में सिंह जैसे हिंस्र जानवरों के बीच निर्भय-निडर हो उनके साथ खेला करते थे ! खेल ही खेल में अनेक जंगली जानवरों को पकड़कर उन्हें पेड़ों से बांध देते थे या फिर उनकी सवारी करने लगते थे। इसी कारण ऋषि कण्व के आश्रम के निवासियों ने उनका नाम सर्वदमन रख दिया था। जो आगे चल कर एक महान प्रतापी सम्राट बने ! उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा।


कण्व वैदिक काल के महान ऋषि थे। माना जाता है कि उनका आश्रम आज के उत्तराखंड के गढ़वाल जिले के कोटद्वार भाबर क्षेत्र में एक पहाड़ी की तराई में मालिनी नदी के किनारे स्थित था। जहां सामान्य शिक्षा में उत्तीर्ण उन छात्रों को, अलग-अलग निकायों में विभिन्न तरह की, उच्च शिक्षा उपलब्ध कराई जाती थी, जो अपने क्षेत्र में पारंगत होना चाहते थे। कण्वाश्रम में चारों वेदों, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, आयुर्वेद, शिक्षा तथा कर्मकाण्ड इन छ: वेदांगों के अध्ययन-अध्यापन का प्रबन्ध था। यहां ऋषि कण्व के साथ ही ऋषि कश्यप भी विद्या दान किया करते थे।  




यज्ञ स्थान 
आज यह कोई धार्मिक स्थल या दैवी स्थान भले ही न हो ! पर आज भी यह हमारे समृद्ध इतिहास, हमारे राष्ट्र की आत्मा को जरूर संभाले-समेटे पड़ा है। कण्वाश्रम उत्तराखंड के कोटद्वार शहर से 14 कि.मी. की दूरी पर हेमकूट और मणिकूट पर्वतों की गोद में स्थित है। ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण पर कुछ-कुछ उपेक्षित इस पर्यटन स्थल पर काफी ध्यान देने की जरुरत है !





विचार-विमर्श 
हजारों वर्ष पहले घटनाक्रम का आज कोई ठोस प्रमाण तो है नहीं ! जनश्रुति और ग्रंथों के विवरण के अनुसार ही इस जगह को कण्वाश्रम माना जाता है। पर यह अति मतवपूर्ण, विशाल भू-भाग भी अब वर्चस्व के लिए आपसी खींच-तान, ढुल-मुल राजनितिक रवैये और अवाम की उदासीनता के कारण दो हिस्सों में बंट कर रह गया है ! कोटद्वार से आते वक्त मालिनी नदी के पुल को पार करते ही सामने ऊपर करीब तीस फुट की ऊंचाई पर स्थित समतल भूभाग को लेकर एक पक्ष का दावा है कि यहीं दुष्यंत-शकुंतला विवाह संपन्न हुआ था। वहां एक छोटा सा पिंजरेनुमा मंदिर बना हुआ है, जिसमें दुष्यंत-शकुंतला हार पहने खड़े हैं। दो ऋषियों कण्व व कश्यप की प्रतिमाओं के साथ बाल भरत की मूर्ति भी है जो शेर के दांत गिनते दिखाए गए हैं ! चारों ओर बियाबान और सुनसान परिसर में उसी के कुछ ऊपर इस जगह के केयर टेकर महंत जी का निवास स्थान है। जिनका इस जगह को लेकर अपना दावा है ! 


धन्वन्तरी जी की सजीव सी प्रतिमा 

ऊपर चढ़ने का घुमावदार पथ 

मालिनी नदी के पुल को पार कर दाहिनी ओर करीब पौन किमी दूर, बेतरतीब सड़क द्वारा एक विशाल और कुछ-कुछ व्यवस्थित क्षेत्र, जहां बहुत कुछ निर्माणाधीन है तक पहुंचा जाता है ! इसी स्थल को वास्तविक कण्वाश्रम बताया जाता है ! मान्यता के अनुसार यहीं भरत का लालन-पालन हुआ और उनका बचपन बीता ! यहां के महंत, जो गुरूजी कहलाते हैं, उनके अनुसार कभी-कभी, कुछ-कुछ सरकारी सहायता मिल तो जाती है पर वह ऊँट के मुंह में जीरा ही साबित हो पाती है ! दैनिक खर्चे ही पूरे नहीं हो पाते ! इसलिए उन्होंने हर आने वाले पर्यटक से दस रूपए की राशि लेनी शुरू कर दी है ! वैसे यहां आने वालों के लिए मुफ्त में भोजन की भी व्यवस्था है। वर्तमान में गढ़वाल मंडल विकास निगम, कण्वाश्रम विकास समिति तथा शासकीय प्रयासों से इस स्थल की देख-रेख होती है।

कार पार्किंग से भरत स्मारक जाने का मार्ग 
                                
 रॉकेट के बेस जैसा विचित्र पेड़ का तना 

चारों ओर सघन, सुनसान पर सुरम्य अरण्य से घिरे इस स्थल का मुख्य आकर्षण, सुन्दर चित्रों से सुसज्जित चार दीवारी से घिरा भरत स्मारक है ! जिसका निर्माण 1956 में हुआ बतलाते हैं। इस गोल इमारत के निचले हिस्से में भरत से संबंधित चित्रावली है ! ऊपर पहले खंड में देवताओं के वैद्य धन्वन्तरि जी की बहुत सुंदर प्रतिमा स्थापित है ! मूर्ति का चेहरा और आँखें इतनी सजीव हैं कि लगता है अभी सचल हो उठेंगी। उस के ऊपर कण्व ऋषि की प्रतिमा है, पर वहां जाने का रास्ता नहीं है। 

ध्यान कक्ष 
                                    

भ्रमण पर आईं स्कूली बालिकाऐं 
इसके अलावा कण्व ऋषि, भरत की मूर्तियों के साथ-साथ पुरातात्विक महत्त्व की अनेक मूर्तियाँ संरक्षित हैं। इसके साथ ही एक ध्यान केंद्र जिसे जबरदस्ती एक तंग सुरंग से गुजरने के बाद बनाया गया है ! वहीँ भोजन कक्ष, दवाखाना, ध्यान कक्ष, यज्ञ स्थान, पर्यटकों के रात्रि निवास के लिए अलग-अलग शुल्क धारी कुछ कमरे भी उपलब्ध हैं। पर लोगों की आवाजाही बहुत कम है और इस जगह को लोकप्रिय बनाने की अति जरुरत है जिसके लिए धन और जन दोनों की बहुत आवश्यकता है। वैसे हमारे रहते ही वहां किसी स्थानीय स्कूल की अनेक बालिकाएं अपनी शिक्षिकाओं के साथ पहुंची ! उनका उत्साह और जोश देखते ही बनता था ! जरुरत है ऐसी जगहों और उनसे जुडी कथाओं को जन-जन तक पहुंचाने की ! उनके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करवाने की ताकि हमारे गौरवशाली इतिहास की पूरी और सच्ची जानकारी आज की पीढ़ी तक भी पहुँच सके।

रविवार, 9 मई 2021

गांव से माँ का आना

अधिकतर संतान द्वारा बूढ़े माँ-बाप की बेकद्री, अवहेलना, बेइज्जती इत्यादि को मुद्दा बना कर कथाएं गढ़ी जाती रही हैं ! होते होंगे ऐसे नाशुक्रे लोग ! पर कुछ ऐसे भी होते हैं जो आज की विषम परिस्थितियों में, जीविकोपार्जन की मजबूरियों के चलते चाह कर भी संयुक्त परिवार में नहीं रह सकते ! अलग रहने को मजबूर होते हैं ! ऐसी ही एक कल्पना है यह ! जहां ऐसा नहीं है कि अलग रहते हुए बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उसका आना-जाना अच्छा नहीं लगता ! वे तो उन्हें बेहद प्यार करते हैं ! उन्हें सदा माँ के सानिध्य की जरूरत रहती है ! पर फिर भी वे चाहते हैं कि माँ  इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दी वापस चली जाए  उतना ही अच्छा ! पर क्यूँ ...........?

(मातृदिवस पर एक पुरानी रचना का पुन: प्रकाशन)

#हिन्दी_ब्लागिंग 
गांव से माँ आई है। गर्मी पूरे यौवन पर है। गांव शहर में बहुत फर्क है। पर माँ को यह कहां मालुम है। माँ तो शहर आई है, अपने बेटे, बहू और पोते-पोतियों के पास, प्यार, ममता, स्नेह की गठरी बांधे। माँ को सभी बहुत चाहते हैं पर इस चाहत में भी चिंता छिपी है कि कहीं उन्हें किसी चीज से परेशानी ना हो। खाने-पीने-रहने की कोई कमी नहीं है, दोनों जगह न यहां, न वहां गांव में। पर जहां गांव में लाख कमियों के बावजूद पानी की कोई कमी नहीं है, वहीं शहर में पानी मिनटों के हिसाब से आता है और बूदों के हिसाब से खर्च किया जाता है ! यही बात दोनों जगहों की चिंता का वायस है। भेजते समय वहां गांव के बेटे-बहू को चिंता थी कि कैसे शहर में माँ तारतम्य बैठा पाएगी ! शहर में बेटा-बहू इसलिए परेशान कि यहां कैसे माँ बिना पानी-बिजली के रह पाएगी ! पर माँ तो आई है प्रेम लुटाने ! उसे नहीं मालुम शहर-गांव का भेद। 

पहले ही दिन मां नहाने गयीं। उनके खुद के और उनके बांके बिहारी के स्नान में ही सारे पानी का काम तमाम हो गया। बाकी सारे परिवार को गीले कपडे से मुंह-हाथ पोंछ कर रह जाना पडा। माँ तो गांव से आई है। जीवन में बहुत से उतार-चढाव देखे हैं पर पानी की तंगी !!! यह कैसी जगह है ! यह कैसा शहर है ! जहां लोगों को पानी जैसी चीज नहीं मिलती। जब उन्हें बताया गया कि यहां पानी बिकता है तो उनकी आंखें इतनी बडी-बडी हो गयीं कि उनमें पानी आ गया।

माँ तो गांव से आई हैं उन्हें नहीं मालुम कि अब शहरों में नदी-तालाब नहीं होते जहां इफरात पानी विद्यमान रहता था कभी। अब तो उसे तरह-तरह से इकट्ठा कर, तरह-तरह का रूप दे तरह-तरह से लोगों से पैसे वसूलने का जरिया बना लिया गया है। माँ को कहां मालुम कि कुदरत की इस अनोखी देन का मनुष्यों ने बेरहमी से दोहन कर इसे अब देशों की आपसी रंजिश तक का वायस बना दिया है। उसे क्या मालुम कि संसार के वैज्ञानिकों को अब नागरिकों की भूख की नहीं प्यास की चिंता बेचैन किए दे रही है। मां तो गांव से आई है उसे नहीं पता कि लोग अब इसे ताले-चाबी में महफूज रखने को विवश हो गये हैं। 

माँ जहां से आई है जहां अभी भी कुछ हद तक इंसानियत, भाईचारा, सौहाद्र बचा हुआ है। उसे नहीं मालुम कि शहर में लोगों की आंख तक का पानी खत्म हो चुका है। इस सूखे ने इंसान के दिलो-दिमाग को इंसानियत, मनुषत्व, नैतिकता जैसे सद्गुणों से विहीन कर उसे पशुओं के समकक्ष ला खडा कर दिया है।

माँ तो गांव से आई है जहां अपने पराए का भेद नहीं होता। बडे-बूढों के संरक्षण में लोग अपने बच्चों को महफूज समझते हैं ! पर शहर के विवेकविहीन समाज में कोई कब तथाकथित अपनों की ही वहिशियाना हवस का शिकार हो जाए कोई नहीं जानता।

ऐसा नहीं है कि बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उन्हें उनका आना-रहना अच्छा नहीं लगता। उन्हें भी मां के सानिध्य की सदा जरूरत रहती है पर वे चाहते हैं कि माँ  इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दी वापस चली जाए  उतना ही अच्छा........!!

शनिवार, 8 मई 2021

...........तो फिर कोरोना का कोई दोष नहीं है

कभी अपने शरीर की  पुकार को सुनने की चेष्टा करें ! उसकी आवाज को समझने की कोशिश करें ! ध्यान रखें कि विश्व में आपके रहने की एकमात्र जगह आपका शरीर ही है ! वही नहीं रहा तो आप भी कहीं के नहीं रहोगे ! अगर आप उसका दस प्रतिशत भी ध्यान रखेंगे, तो उसमें इतनी क्षमता है कि वह आपका सौ प्रतिशत ख्याल रख सके। जिससे आपका वजूद है, जिसकी  वजह से आप दुनिया भर के सुख भोग पा रहे हैं, जिंदगी जी रहे हैं, नाते-रिश्ते निभा पा रहे हैं, तरह-तरह के अनुभव ले पा रहे हैं, उसके साथ ज्यादती ना करें  ! यदि आपने अपने पिछले अनुभवों  से भी कोई सबक नहीं लिया है, तो फिर यदि कुछ होता है तो इसमें कोरोना का कोई दोष नहीं है................!!  

#हिन्दी_ब्लागिंग 
दुश्मन यदि जाना-पहचाना हो, उसके तौर-तरीके, शक्ति, आक्रमण शैली आदि का पहले से कुछ आभास हो तो खुद का बचाव तो संभव होता ही है, जीत भी मिल सकती है ! पर दुश्मन पूरी तरह अनजान हो तो यह एक तरह से हमारे ग्रंथों में वर्णित मायावी युद्धों की तरह हो जाता है ! जिससे पार पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है ! यदि पार पा भी लिया जाए तो उसमें इतना समय और जान-माल का नुक्सान होता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज कोरोना वैसे ही मायावी, छल-छद्म से भरपूर खतरनाक दुश्मन की तरह हमारे सामने है। जब तक उसकी कमजोरियों का पता नहीं चल जाता तब तक हमें सौ प्रतिशत सावधान रहने की जरुरत है। पर ऐसा हो नहीं पा रहा ! युवा पीढ़ी के एक बड़े हिस्से की जीवनशैली में आए बदलावों, उनकी लापरवाहियों और कुछ-कुछ गैर जिम्मेदाराना रवैये से हालात काबू में नहीं आ पा रहे हैं ! कारण भी साफ़ हैं ! 

* यदि आप देर रात जागने के आदी हैं ! रात डेढ़-दो बजे के पहले आप को नींद नहीं आती हो ! 
* घर के खाने की बजाय आप रात को एक-डेढ़ बजे मैगी, पास्ता और नूडल्स का सेवन करते हों ! 
* आपकी सुबह दोपहर 11-12 बजे होती हो !
* खाने-नाश्ते का कोई निश्चित समय ना हो ! 
* देर रात चाय कॉफी की लत हो ! 
* आपके 10 x 8 के बंद कमरे में कोई हो न हो फिर भी आपका 45'' टीवी 16-16 घंटे विकिरण फैलाए रखता हो ! 
* आपका मोबाइल सिर्फ नहाते समय आपसे अलग होता हो ! वैज्ञानिकों के अनुसार यह एक नई बिमारी का कारण भी बनने जा रहा है !
* साफ़-सफाई का ध्यान ना रख पाते हों !
* गैर जरुरी चीजों यथा सौंदर्य प्रसाधनों, खिलौनों या विभिन्न कंपनियों की छूट के लालच में आप ऑनलाइन खरीदी करने से खुद को रोक नहीं पाते हों !
* दोस्तों की पार्टियों में जाने से रुक ना पाते हों !
* बिना मतलब बिना काम रात-विरात गाडी में घूमने निकल जाते हों ! 

तो समझ लीजिए कि आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कोरोना क्या किसी भी बिमारी को रोकने में सक्षम नहीं होगी ! छोटे-मोटे रोगों के लिए भी आप एक सॉफ्ट टारगेट हैं ! कभी अपने शरीर की  पुकार को समझने की चेष्टा करें ! उसकी आवाज को सुनने की कोशिश करें ! ध्यान रखें कि विश्व में आपके रहने की एकमात्र जगह आपका शरीर ही है ! वही नहीं रहा तो आप भी कहीं के नहीं रहोगे ! उसका आप दस प्रतिशत ध्यान रखेंगे तो उसमें इतनी क्षमता है कि वह आपका सौ प्रतिशत ख्याल रख सके ! जिससे आपका वजूद है जिसकी  वजह से आप दुनिया भर के सुख भोग पा रहे हैं, जिंदगी जी रहे हैं, नाते-रिश्ते निभा पा रहे हैं, तरह-तरह के अनुभव ले पा रहे हैं  उसके साथ ज्यादती ना करें ! यह साबित भी हो चुका है कि अपनी क्षति से हुए नुक्सान की शरीर खुद भरपाई कर सकता है। हल्की-फुल्की कसरत या टहलने से ही रक्तचाप काबू में आ जाता है ! खान-पान सुधरते ही लोग स्वस्थ महसूस करने लगते हैं ! जंकफूड छोड़ते ही पाचन ठीक होने लगता है ! धूम्रपान से दूरी बनाते ही फेफड़े अपनी पूरी ताकत से काम करने लग जाते हैं ! पुरानी आदतें और आरामपरस्ती छूटना आसान काम नहीं है पर यह नामुमकिन भी नहीं है ! सिर्फ दृढ इच्छाशक्ति की जरुरत है ! वह भी अपने भले के लिए !

परंतु यह सब जानने-बूझने के बावजूद यदि आप अपने ही शरीर का ख्याल रखने में कोताही बरतते हैं ! उस पर बदस्तूर ज्यादतियां करने से बाज नहीं आते हैं ! आप बिमारी की गिरफ्त में आ ठीक हो जाते हैं पर ठीक होने के बावजूद अपनी पुरानी आदतों को नहीं छोड़ पाते हैं ! ऐसा कर आप अपने शरीर के प्रति अन्याय तो करते ही हैं साथ ही खुद और अपने परिवार के भी गुनहगार साबित होते हैं ! यदि ऐसा ही रहा तो यह निश्चित मानिए कि आपका शरीर आपके ही विरुद्ध विद्रोह करेगा !  क्योंकि यदि -  

* आपका देर से सोने और उठने का समय अभी भी वैसा ही है ! 
* नहाने-खाने का कोई समय व ठिकाना नहीं है ! 
* सुबह सूर्य कब निकलता है आपको नहीं पता, ना हीं आप उसका कोई फायदा उठाते हैं ! 
* वैसे ही आप दिन भर फोन से चिपके रहते हैं ! 
* टीवी फिर वैसे ही चलता रहता है ! 
* भोजन के समय नाश्ता, शाम चाय के समय भोजन और देर रात कुछ भी उटपटांग अभी भी खाते हैं !
* बाहर से विभिन्न जगहों और जरिये से सामान बदस्तूर अभी भी घर में वैसे ही आ रहा होता है !  
* आपकी दिनचर्या, आपकी लतें, आपके शौक सब पहले की तरह वैसे के वैसे ही हैं ! 
 
जिंदगी की अधिकांश अव्यवस्था का मुख्य कारण सोने-जागने का अनियमित होना ही है ! ऐसे लोगों की दिनचर्या और स्वास्थय तक़रीबन सदा बिगड़ा ही रहता है ! क्योंकि देर रात जागने खर्च हुई ऊर्जा की भरपाई के लिए शरीर कुछ खाने की इच्छा जागृत करता है और उस समय खाया जाने वाले पदार्थ कैसे हो सकते हैं यह कोई भी बता सकता है ! फिर देर से उठने पर जो हड़बड़ाहट रहती है, वह तन-बदन का भरपूर नुक्सान करने से बाज नहीं आती ! 
 
यदि ऐसा है और पिछली बिमारी से भी आपने कोई सबक नहीं लिया है, तो फिर यदि कुछ होता है तो इसमें कोरोना का कोई दोष नहीं है................!!  

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