सोमवार, 30 दिसंबर 2019

नव-वर्ष अनंत, नव-वर्ष कथा अनंता

आने वाले साल के 366 दिन सब के लिए सुख-शांति और निरोगिता ले कर आएं। सभी को आने वाले समय की शुभकामनाएं !
नए साल पर अमेरिका के न्यूयार्क में टाइम्स स्क्वायर पर 1907 से चले आ रहे दुनिया के सबसे बड़े और मंहगे नव-वर्ष के जश्न पर, जहां एक युगल पर कम से कम 1200 डॉलर का खर्च बैठने के बावजूद,  इस ''बॉल ड्रॉप'' आयोजन को देखने लाखों लोग इकट्ठा हो जाते हैं। कुछ लोग तो टॉयलेट्स की कमी को ध्यान में रख ''डायपर्स'' पहन कर ही इस उत्सव में शरीक होते हैं...............!

#हिन्दी_ब्लागिंग
देखते-देखते सर्वमान्य क्रिश्चियन कैलेंडर की दौड़ का समय तक़रीबन पूरा हो गया। एक-दो दिन बाद उसने अपना ''बैटन'' अपने उत्तराधिकारी को पकड़ा देना है। यह दौड़ अनादिकाल से चली आ रही है, अनवरत ! पर ऐसा भी नहीं है कि समय यूँही रीतता, बीतता, खर्च हो जाता हो ! या सिर्फ कैलेंडर, संवत, नाम, अंक आदि ही आते-जाते-बदलते रहते हों ! इस सतत चलने वाली प्रक्रिया के साथ संसार के कुछ अनूठे प्रसंग भी जुड़ते चले जाते हैं, जिनकी जानकारी अपने आप में अनोखी और मजेदार भी है -
1, प्रशांत महासागर में स्थित रिपब्लिक ऑफ किरीबाती नामक द्वीप को यह सौभाग्य प्राप्त है कि वहां दुनिया में सबसे पहले नव-वर्ष का स्वागत किया जाता है।

2, कहते हैं कि करीब चार हजार साल पहले मेसोपोटामिया में पहली बार नए साल का उत्सव मनाया गया था।

3, कई देशों में अलग-अलग नव-वर्ष की शुरुआत मानी जाती है। पर क्रिश्चियन नव-वर्ष की मान्यता सबसे अधिक है और यह तक़रीबन सारे संसार में मान्य है।

4, हमारा नया साल अंग्रेजी माह के मार्च - अप्रैल में पड़ता है। ग्रंथों के अनुसार जिस दिन सृष्टि का चक्र प्रथम बार विधाता ने प्रवर्तित किया, उस दिन चैत्र शुदी 1, रविवार था। उसी दिन से हमारे यहां नए साल की शुरुआत होती है। जब कहीं धूल-धक्कड़ नहीं, गंदगी-कीच नहीं, बाहर-भीतर जमीन-आसमान सब जगह स्नानोपरांत जैसी शुद्धता। शायद इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने किसान को भी सबसे ज्यादा सुहाते इस मौसम से कल गणना की शुरूआत की होगी। भारत मे सभी शासकीय और अशासकीय कार्य तथा वित्त वर्ष भी अप्रैल (चैत्र) मास से प्रारम्भ होता है। 
5, सम्राट जूलियस सीजर ने 46 ईसा पूर्व एक जनवरी को साल का पहला दिन घोषित किया था।

6, प्राचीन योरोप में दो विपरीत दिशाओं के सर वाले भगवान जानुज को खुशहाली का प्रतीक माना जाता था। इन्हीं के नाम पर जनवरी माह का नामकरण किया गया था।
 
7, इथोपिया में साल में तेरह महीने होते हैं। इसलिए वहां अभी 2006 ही चल रहा है। वे अपना नव-वर्ष 11 सेप्टेम्बर को मनाते हैं।

8, जापान और कोरिया जैसे कुछ एशियन देशों में बच्चे के जन्म होते ही उसको एक साल का माना जाता है।

9, नए साल पर अमेरिका के न्यूयार्क में टाइम्स स्क्वायर पर 1907 से चले आ रहे दुनिया के सबसे बड़े और मंहगे नव-वर्ष के जश्न पर, जहां एक युगल पर कम से कम 1200 डॉलर का खर्च बैठने के बावजूद,  इस ''बॉल ड्रॉप'' आयोजन को देखने लाखों लोग इकट्ठा हो जाते हैं। जबकि तक़रीबन दो करोड़ अमेरिकन इस उत्सव को अपने घरों में बैठ कर देखते हैं, जबकि संसार भर में इसमें रूचि लेने वाले तो अनगिनत हैं।

10, दसियों लाख लोगों की भीड़ को संभालने के लिए हजारों पुलिस तथा सैंकड़ों सफाई कर्मी मुस्तैद रहते हैं। टाइम्स स्क्वायर को पूरी तरह साफ़ करने में 15-16 घंटे का समय लग जाता है।

11, टॉयलेट्स की कमी को ध्यान में रख कुछ लोग तो ''डायपर्स'' पहन कर ही इस उत्सव में शरीक होते हैं।

12, अमेरिका के समोया द्वोप में सबसे आखिर में नए साल का आगाज हो पाता है।

अब इस बदलती तारीखों के बारे में तो यही कहा जा सकता है कि नव-वर्ष अनंत, नव-वर्ष कथा अनंता ! आने वाले साल के 366 दिन सब के लिए सुख-शांति और निरोगिता ले कर आएं। सभी को आने वाले समय की शुभकामनाएं।

@संदर्भ अंतरजाल 

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

25 दिसंबर को ही तुलसी पूजन दिवस ??

हमारे त्यौहार किसी ना किसी प्रयोजन से जुड़े होते हैं, उनका कुछ ना कुछ महत्व भी जरूर होता है और उनका उल्लेख हमारे वेद-शास्त्रों में भी जरूर मिलता है। लेकिन 25 दिसंबर को तुलसी पूजन दिवस की कोई कथा या जिक्र कहीं नहीं मिलता ! इसलिए ऐसी आशंका उठनी स्वाभाविक है कि सिर्फ विरोध करने की खातिर कोई ऐसा दिवस तो नहीं गढ़ दिया गया है ..............! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
आज क्रिसमिस के त्यौहार के साथ ही सोशल मीडिया पर जहां-तहां तुलसी दिवस होने का भी उल्लेख किया जा  रहा है। हमारे त्यौहार किसी ना किसी प्रयोजन से जुड़े होते हैं, उनका कुछ ना कुछ महत्व भी जरूर होता है और उनका उल्लेख हमारे वेद-शास्त्रों में भी जरूर मिलता है। लेकिन 25 दिसंबर को तुलसी पूजन दिवस की कोई कथा या जिक्र कहीं नहीं मिलता। इसका कारण भी है कि यह प्रथा विवादित आसाराम बापू द्वारा 2014 में ही शुरू की गयी है !

ऐसा क्यों है यह समझना भी कोई बड़ी बात नहीं है ! पर क्या ऐसा कर के हम खुद को या अपने त्योहारों को कमतर तो नहीं कर रहे ! सभी जानते हैं कि हमारे त्योहारों के समय की गणना विक्रमी संवत के अनुसार होती है जो ईसवी संवत से बिल्कुल अलग है। चूँकि दुनिया में क्रिश्चियन कैलेण्डर चलन में है इसीलिए हमारे तीज-त्योहारों का समय हर वर्ष अलग-अलग होता है, तो फिर यह कैसे संभव है कि तुलसी दिवस हर बार 25 दिसंबर को ही पड़े ! इसलिए ऐसी आशंका उठनी स्वाभाविक है कि तुलसी जैसे बहुउपयोगी, गुणकारी, लोगों की भावना और आस्था से गहराई तक जुड़े इस पौधे की आड में सिर्फ किसी अन्य उत्सव का विरोध करने की खातिर कोई ऐसा दिवस गढ़ दिया गया हो !

मानव सदा से ही उत्सव प्रिय रहा है। पर्व, त्यौहार, उत्सव आनंद और खुशहाली का प्रतीक होते हैं, फिर वे चाहे किसी भी धर्म-समाज या पंथ के हों। आज के तनाव भरे समय में इंसान सकून  के दो पल मिलते ही अपने तनाव को भुलाना चाहता है। इसलिए जब कभी, जैसा भी मौका मिलता है वह लपक लेता है। यह स्वयं-स्फूर्त भावना है, खासकर आजकी युवा पीढ़ी की, जो बिना किसी भेदभाव के उत्पन्न होती है। यह भी सही है कि कहीं-कहीं अतिरेक भी हो जाता है। शायद इसी कारण कुछ लोगों को विदेशी त्योहारों को अपनाने पर अपने त्योहारों की अवहेलना होते नजर आती है। पर क्या हमारी परंपराऐं, संस्कृति, आस्था इतनी कमजोर हैं ?

विडंबना देखिए कि आज तकरीबन हर भारतीय की ख्वाहिश होती है कि वे खुद या उनके बच्चे विदेश जा कर अपना जीवन निर्वाह करें ! इसमें कोई बुराई भी नहीं है पर जब वहां जा कर उनकी हर अच्छी-बुरी बात या चलन का अनुसरण करना है तो उनके त्योहारों का यहां रह कर विरोध क्यों ? ध्यान सिर्फ इतना रखना है कि उसकी अच्छाईयों को ही ग्रहण करें ना कि समय के साथ उसके साथ जुड गयीं बुराईयों को भी आंख बंद कर अपना लें। 

हमारा सनातन धर्म अपने नाम के अनुसार सनातनी है। कितने उतार-चढ़ाव आए ! कितनी ही विपरीत परिस्थितियां रहीं ! कितने ही अलग-अलग मतावलंबियों ने इसके विरुद्ध प्रचार कर इसे बदनाम करने, ख़त्म करने का कुप्रयास किया ! सैंकड़ों हजारों वर्षों तक अन्य धर्मावलंबी शासकों ने हम पर राज किया ! कुछ लोग उनके बहकावे में आए भी, पर इस महान वैदिक धर्म को मिटा नहीं सके। तो फिर वसुधैव कुटुंबकंम की सोच रखने वाली हमारी सोच आज इतनी संकुचित कैसे हो गयी ? हम क्यों इतने शंकित रहने लगे इसके अस्तित्व को ले कर ? क्यों देश, समाज, व्यक्ति के प्रति हमारा दृष्टिकोण इतना संकीर्ण हो गया ? सोचने की और ध्यान देने की बात है !  

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

हौसला और उत्साह हो तो कोई भी सपना अधूरा नहीं रहता

फ़ुटबाल में तो वह माहिर था पर उसे क्रिकेट खेलना ज्यादा भाता था; कारण, फ़ुटबाल में क्लास से कुछ ही घंटों की मुक्ति मिलती थी, वहीं क्रिकेट में दिन भर की मोहलत तो मिलती ही थी साथ में अच्छा खेलने पर एक-दो दिनों के लिए मास्साब की डांट से भी छुटकारा मिल जाता था। यह रहस्योघाटन बड़े होने पर खुद उसने ही किया था  ! कौन है वह ? जो क्रिकेट पिच पर कभी भी रन आउट नहीं हुआ !अपनी फिटनेस के कारण कभी भी खेल से बाहर नहीं हुआ ! जिसके रनों और विकेटों का रेकार्ड तोड़ना अभी भी दूभर बना हुआ है...............! 
   
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डीएवी सीनियर सेकेंडरी स्कूल चंडीगढ़ में पढ़ने वाला एक लड़का, जिसे स्कूल के नाम से ही बुखार चढ़ जाता था। उसका दिमाग सदा क्लास में न जाने और पढ़ाई से बचने के बहाने ढूंढा करता था। उस जमाने में सामान्यता हर अभिभावक यही चाहता था कि उसके बच्चे पढ़ाई में ही ध्यान दें जिससे उनका भविष्य सुरक्षित हो सके ! पर यहां लाख समझाने का भी कोई असर नहीं हो  रहा था। वैसे पढ़ाई में वह चाहे जैसा भी था, पर खेलों में सदा अव्वल रहने वाला वह किशोर स्कूल में फ़ुटबाल और क्रिकेट दोनों खेला करता था। फ़ुटबाल में तो वह माहिर था पर उसे क्रिकेट खेलना ज्यादा भाता था; कारण फ़ुटबाल में क्लास से कुछ घंटों की ही मुक्ति मिलती थी, वहीं क्रिकेट में दिन भर की मोहलत तो मिलती ही थी साथ में अच्छा खेलने पर एक-दो दिनों के लिए मास्साब की डांट से भी छुटकारा मिल जाता था। यह रहस्योघाटन बड़े होने पर खुद उसने किया।
   
अब जब यह पक्का हो गया कि क्रिकेट खेलने में ही ज्यादा भलाई है, तो उसने इस खेल में नियमित भाग लेना शुरू कर दिया। उसके खेल से उसकी उम्र को देखते हुए उसके सीनियर्स भी काफी प्रभावित थे। प्रोत्साहन मिलने पर उस युवक की प्रतिभा को पंख लग गए। उसने बॉलिंग और बैंटिंग दोनों में हाथ आजमाए और महारत हासिल कर ली। भाग्य की देवी मुस्कुराई और उसका चयन हरियाणा की टीम में हो गया। अपने पहले ही मैच में छह विकेट ले उसने अपनी टीम को पंजाब पर विजय दिलाई। यह तो शुरुआत थी, इसके बाद जम्मू-कश्मीर वाले मैच में आठ विकेट पैंतीस रन फिर बंगाल के विरुद्ध सात विकेट और बीस रन, फिर दिल्ली के खिलाफ 193 की नाबाद पारी ने उसे लोगों की नज़रों में ला खड़ा किया। अब उसका एकमात्र लक्ष्य देश के लिए खेलना था। जिसमें हौसला और उत्साह होता है उसका कोई भी सपना अधूरा नहीं रहता। सो उसने भी अपनी क़ाबलियत के दम पर 1978 में भारत की टेस्ट टीम में स्थान बना कर अपना पहला मैच पकिस्तान के साथ खेल ही लिया ! फिर उसके बाद कभी पीछे मुड कर नहीं देखा।  उसकी ख्याति देश की सीमा फलांग विदेशों में जा पहुंची।
  
हरियाणा तूफान के नाम से पहचाने जाने वाले इस क्रिकेटर को क्रिकेट पिच पर कभी भी रन आउट होते हुए नहीं देखा गया। अपनी फिटनेस पर इसका इतना ध्यान था कि सेहत की वजह से यह कभी भी खेल से बाहर नहीं हुआ। इसका पांच हजार रन और चार सौ से ऊपर विकेटों का रेकार्ड अभी तक कोई भी आलराउंडर छू तक नहीं पाया है। आज उसके नाम को दुनिया के क्रिकेट में उच्च एवं सम्मानीय दर्जा प्राप्त है। भारत के क्रिकेट के इतिहास में इस शख्स ने वह कारनामा कर दिखाया जिसको किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था। 


क्या क्रिकेट टीम के कप्तान और कोच रहे, अर्जुन पुरस्कार, पद्मश्री, पद्मभूषण, विज्डन, आईसीसी क्रिकेट हॉल ऑफ फेम, भारतीय सेना का लेफ्टिनेंट कर्नल का पद फिर एनडीटीवी द्वारा भारत में 25 सबसे महान वैश्विक जीवित महापुरूष का खिताब पाने वाले इस इंसान का नाम बताना अभी भी जरुरी है ? यदि है; तो वे हैं कपिल देव रामलाल निखंज।  


संदर्भ, श्री रघुरामन, दैनिक भास्कर

बुधवार, 11 दिसंबर 2019

प्याज बिना स्वाद कहां रे !

इस लिहाज से प्याज को सब्जी रूपी ''बाबा'' भी कहा जा सकता है। जैसे आजकल के फर्जी बाबे, लोगों की मति फेर, उनको अपने वाग्जाल में उलझा कहीं का नहीं छोड़ते; ठीक वैसे ही यह ''प्याजिबाबा'' भी लोगों को स्वाद के मायाजाल में उलझा कर उनका आर्थिक शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है। और इधर हम हैं कि सौ-पचास रुपये के लिए अपनी कोमलांगी, रसप्रिया जिह्वा को उसके सुख से विमुख करने को कतई राजी नहीं हैं...................!   

#हिन्दी_ब्लागिंग 
ज्ञानी, गुणी, विवेकशील लोग कह गए हैं कि क्या स्साला खाने के लिए जीता है; अरे ! सिर्फ थोड़ा-बहुत जीने के लिए खा लिया कर ! अब उनको क्या बताएं कि दोनों अवस्थाओं में खाना तो खाना ही पडेगा और खाना तभी हितकर होगा जब रसना को रस आएगा। अब यह तीन इंची इंद्रिय बस देखने-कहने को ही छोटी है, कारनामे इसके बड़े-बड़े होते हैं। ये चाहे तो महाभारत करवा दे ! यह चाहे तो घास-पात को अनमोल बनवा दे। बोले तो, पूरी की पूरी मानवजाति इसके इशारों पर नाचती है। भले ही इसके लिए कुछ भी, कोई भी कीमत चुकानी पड़े। 
पढ़े-लिखे को फारसी क्या ! अब देख लीजिए, प्याज बिना खुद को छिलवाए लोगों के आंसू निकलवा रहा है कि नहीं ! किसके कारण ? सिर्फ जीभ के कारण ! जी हाँ, वही प्याज जिसके सेवन के लिए ऋषि-मुनियों ने बहुत पहले ही मनाही कर दी थी। क्योंकि शायद उन्हें इसका अंदाज हो गया था कि यह नामुराद, जिसका ना तो कोई ईमान है ना हीं धर्म ! एक ना एक दिन लोगों की मुसीबत का कारण बनेगा। आज देख लीजिए ! कुछ ही दिनों पहले जिसको कोई दो रुपये किलो तक लेने को तैयार नहीं था ! किसान जिसकी उपज को नष्ट करने पर मजबूर हो गए थे, उसी शैतान की आंत की जुर्रत कुछ ही दिनों में सात सौ गुना उछाल मार आज दो सौ का आंकड़ा छूने की हो रही है। कारण सिर्फ इंसान की वही तीन इंची इंद्री, जिसे बिना प्याज भोजन, भोजन नहीं लगता। वही प्याज जिसे छीलो तो परत दर परत सिर्फ छिलका ही हाथ आता है, यानी निल बटे सन्नाटा ! पर वही सन्नाटा आज ज्वालामुखी का शोर साबित हो रहा है। 
ठीक है कि इसमें कुछ गुण भी जरूर हैं, तो गुण तो रावण में भी थे ! उनको नजरंदाज कर यदि लोग बिना प्याज के खाना बनाने लग जाएं तो इसे दो दिनों में अपनी औकात नजर आ जाए ! पर नहीं ! इसने लोगों की मति ऐसे मार रखी है कि इसके चहेते इसको हासिल करने के लिए सरकार तक उलटने को तैयार हो जाते हैं। इस लिहाज से प्याज को सब्जी रूपी ''बाबा'' भी कहा जा सकता है। जैसे आजकल के फर्जी बाबे, लोगों की मति फेर, उनको अपने वाग्जाल में उलझा कहीं का नहीं छोड़ते; ठीक वैसे ही यह प्याजिबाबा भी लोगों को स्वाद के मायाजाल में उलझा कर उनका आर्थिक शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है। और इधर हम हैं कि सौ-पचास रुपये के लिए अपनी कोमलांगी को उसके सुख से विमुख करने को कतई राजी नहीं हैं। देखना है कि यह कांदा और कितने कांड करेगा ! अभी तो आलम यह है कि ''उठाए जा उनके सितम और जिए जा, यूँ ही मुस्कुराए जा और पैसे खर्च किए जा ! (आंसू पिए जा !) 

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

"फैंटम" के निवास की याद दिलाती, देहरादून की गुच्चुपानी गुफा

किसी किले जैसी दुर्गम बनावट वाली गहरी प्राकृतिक गुफा में दस मीटर की ऊंचाई से एक झरना गिरते हुए एक अद्भुत दृश्य की रचना करता है। इसे देख कर बचपन में पढ़ी कॉमिक्स में ''फैंटम'' और उसके निवास की याद आ जाती है, बीहड़ का वैसा ही रहस्यमयी वातावरण, उसी से मिलती-जुलती गुफा, वैसा ही झरना..............! 

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गुच्चुपानी ! नाम सुन कर ऐसा लगता है जैसे गुपचुप यानी पानीपुरी के चटपटे पानी की बात हो रही हो। पर यह नाम है देहरादून के प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट का। मसूरी मार्ग पर देहरादून चिड़िया घर के पास, शहर से सात-आठ की.मी. की दूरी पर स्थित इस 650 मीटर, किले जैसी बनावट वाली गहरी प्राकृतिक गुफा में दस मीटर की ऊंचाई से एक झरना गिरते हुए एक अद्भुत दृश्य की रचना करता है। इसे देख कर बचपन में पढ़ी कॉमिक्स में ''फैंटम'' और उसके निवास की याद आ जाती है। इस जगह प्रकृति का एक अनोखा कारनामा भी घटित होता है जिसके तहत पानी की एक लहर उठती है और फिर गायब हो कुछ दूर जा कर फिर दिखने लगती है शायद इसी वजह से इसका नाम गुपचुप पानी पड़ा होगा जो समय के साथ बदल गुच्चुपानी हो गया होगा।



अंग्रेजों के समय में लुटेरे शासन से बचने के लिए इस जगह को खुद और अपने लूट के सामान को छिपाने के काम में लाते थे। इसके रास्तों का खतरनाक और बीहड़ होने के कारण वे पुलिस से बच निकलने में कामयाब हो जाते थे। इसीलिए इसे गुच्चुपानी के अलावा रॉबर्स केव यानी डाकुओं की गुफा के नाम से भी जाना जाता है। यह आज भी उतनी ही रहस्यमय है जितनी तब थी पर अब यह एक पर्यटन स्थल का रूप ले चुकी है जहां सैंकड़ों लोग रोज तफरीह करने आते हैं।





गाड़ियों के स्टैंड के पास पानी की धारा के साथ ही सीढ़ियों के साथ एक चबूतरा सा बना हुआ है जिसके आगे पानी में जूते ले जाने की मनाही है। वहीं से पानी में होते हुए करीब सौ मीटर की दूरी पर गुफा का प्रवेश मार्ग है। दूर से यह अहसास होता है कि सामने की पहाड़ियां जुडी हुई हैं, जबकि ऐसा नहीं है। उन्हीं के बीच से निकल उस झरने के अद्भुत दृश्य के दर्शन होते हैं। पानी में चलते हुए सावधानी आवश्यक है। छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े, फिसलन और जलीय जंतुओं का ध्यान रख कर बिना जल्दीबाजी के आगे बढ़ना ही ठीक रहता है। 



धीरे-धीरे यहां भी व्यवसायिकता अपने पैर पसारने लगी है जिसके तहत खाने-पीने की दुकानों के साथ-साथ किराए पर स्लीपर और कपडे भी मिलने लगे हैं। और तो और गीले कपडे बदलने के लिए ''बूथ'' जैसी जगहें भी किराए पर दी जाने लगी हैं। डर यही है कि कहीं सहस्त्र धारा की तरह ही इस जगह का प्राकृतिक सौंदर्य भी कहीं नष्ट ना कर दिया जाए।        

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

कहनी है इक बात हमें इस देश के पहरेदारों से

खालसा पंथ में दिक्षित लोग जात-पांत के भेदभाव से दूर, आत्मज्ञानी, सरल चित्त, समाजसेवी होने के साथ-साथ किसी के बहकावे में ना आने वाले हैं ! वे जानते हैं कि हिंदू-सिख एक ही माँ की संतानें हैं ! एक ही शरीर के अंग हैं ! एक ही परिवार के सदस्य हैं ! सो यहां किसी की दाल गल नहीं रही थी ! पर भारत को  खंड-खंड करने का स्वप्न देखने वाले लोग भी जानते हैं कि धर्म के नाम पर हम कुछ जल्दी ही भावुक हो जाते हैं...........................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
हिंदुस्तान ! हिंदुओं के रहने का स्थान। संपंन्न, शांतिप्रिय, जो है उसी में खुश रहने वाले लोगों का देश। कई आए, कई गए ! कुछ अपना मतलब सिद्ध कर लौट गए कुछ यहीं के हो कर रह गए। दुनिया में मंदी का दौर आया तो बाहर के देशों के लोगों की गिद्ध दृष्टि इस सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश पर पड़ी। बहुतेरे आए पर अंग्रेजों ने अपनी कुटिलता से बाकी अतिक्रमणकारियों को हाशिए पर धकेल दिया। पर सिर्फ चार हजार अंग्रेजों के द्वारा इतनी बड़ी आबादी पर काबू पाना आसान नहीं था। इसीलिए षड़यन्त्र पूर्वक धर्म के नाम पर फूट फैला कर आपसी नफरत को जन्म दिया ! फिर एक से दूसरे को बचाने के नाम पर संरक्षण देने के बहाने उन्हें वश में किया ! अपनी शर्तें रखीं और धीरे-धीरे अपने शिकजे को जकड़ते चले गए। यहां तक की जाते-जाते भी उसी के सहारे देश के दो टुकड़े तो कर ही गए साथ ही अपनी कुटिल बुद्धि से देश को और भी गारत करने के लिए जाति, भाषा, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब जैसे मुद्दों द्वारा फूट डाल राज करने की नीतियां हमारे राजनेताओं को विरासत में दे गए। जिससे उपजे विद्वेष का परिणाम आज सबके सामने है।

कभी सोच के देखा जाए तो ऐसा क्या हुआ जो देश की आजादी के बाद से ही हिंदुओं, खासकर ब्राह्मणों के खिलाफ दलित मोर्चा खोला गया ! उसके पहले हजार साल तक ऐसी बात क्यों नहीं उठी ? क्या इन्हीं तीस-चालीस सालों में ही ब्राह्मणों के द्वारा ज्यादतियां हुईं ? जबकी इन्हीं ब्राह्मणों की वजह से ही ईसाईयों या मुस्लिमों द्वारा धर्मांतरण सफल नहीं हो पाया था ! नहीं तो किसी भी विधर्मी शासक ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जब यह देखा गया कि बाकी हिंदू जब तक ब्राह्मणों के संपर्क में रहेंगे तब तक उनको बहकाया नहीं जा सकता, तो इसीलिए जात-पांत का चक्रव्यूह रचा गया, पैसों का लालच और सम्मान की हड्डी फेंकी गयी ! यह दांव कुछ हद तक सफल रहा और समाज में विद्वेष की खाई गहरा गयी। वैसे सच तो यह है कि ब्राह्मण या मनुवाढ तो सिर्फ बहाना ही है, असल में हिंदुओं को बांट-काट कर किसी भी तरह सत्ता हासिल करना मकसद है।  

विडंबना ही रही कि पहले हिंदू मुस्लिम के बीच द्वेष के बीज बोए गए। फिर द्रविड़-आर्य का खेल खेला गया। उन्हें एक-दूसरे का दुश्मन जैसा बना दिया गया। पर इससे कइयों का मकसद सिद्ध नहीं हो पाया। सत्ता पाने की लालसा में कुकुरमुत्तों की तरह नए-नए छत्रप उगते गए और समाज को जाति, भाषा, क्षेत्र के हिसाब से बांट कर अपना उल्लू सीधा करते चले गए। गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा से त्रस्त लोगों को कभी मनु, कभी हिंदू, कभी ब्राह्मण, कभी दलित जैसे निरर्थक जुमलों में उलझाए रखने में ही उनकी बादशाहत जो कायम रहने वाली थी। और चूँकि ब्राह्मण समाज की नींव की तरह थे सो पहले उन्हीं पर हमला किया गया। उन पर इल्जाम लगाने वाले तथाकथित समाजसेवी और अपने आप को बुद्धिजीवी कहलाने वालों को क्यों दलितों के मसिहाओं की कारस्तानियां नजर नहीं आतीं ? क्या किसी एक भी दलित नेता के किसी सर्वहारा परिवार को सहारा दिया है ? परिवार को तो जाने दें किसी बच्चे के भविष्य को संवारने का जिम्मा लिया है ?

अब तक पडोसी या घर के ही कुटिल लोगों की लाख कोशिशों के बावजूद हिंदुओं और सिखों में दरार नहीं डाली जा सकी थी। इसके कुछ मुख्य कारण भी थे ! जैसे सिख धर्म का इतिहास अभी नया-नया होने के कारण उसके बारे में जानने और बताने वाले बहुत से लोग समाज को सही जानकारी देते आए थे। गुरु साहिबान की वाणियों में ऋषि-मुनियों की बातें समाहित थीं। ऐसे सैंकड़ों हिंदू घर थे जिन्होंने अपने एक पुत्र को खालसा पंथ की दीक्षा दिलवाई थी। फिर इस पंथ में दिक्षित लोग जात-पांत के भेदभाव से दूर, आत्मज्ञानी, सरल चित्त, समाजसेवी होने के साथ-साथ किसी के बहकावे में ना आने वाले थे। वे जानते थे कि हिंदू-सिख एक ही माँ की संतानें हैं ! एक ही शरीर के अंग हैं ! एक ही परिवार के सदस्य हैं ! इन्हीं सच्चाइयों के कारण यहां किसी की दाल गल नहीं रही थी। पर विरोधी ताकतें भी चुप नहीं बैठीं थीं ! धीरे-धीरे उन्होंने जहर उगलना जारी रखा ! जिसके तहत दोनों धर्मों को जुदा जताने की साजिश शुरू हो गयी। नयी सिख पीढ़ी को इतिहास की गलत जानकारी दे बहकाने की कोशिश की जाने लगी। बार-बार यह फैलाया जाता रहा कि सिखों ने हिंदुओं की रक्षा की ! पर ज्ञातव्य है कि खालसा पंथ की स्थापना के समय ब्राह्मण, क्षत्रिय ही आगे आए थे। यह खुला सत्य है कि हर  परिवार ने अपना एक बेटा खालसा फौज के लिए दिया था। एक ओर जहां मराठे मुगलों से लड़ रहे थे वहीं राजपूतों और ब्राह्मणों ने भी मुग़ल साम्राज्य की नाक में दम कर रखा था। जब पहली खालसा फौज बनी तो उसका नेतृत्व भाई प्राग दास जी, जो एक ब्राह्मण थे, उनके हाथों में था। उनके बाद उनके बेटे भाई मोहन दास जी ने कमान सम्हाली। उनके अलावा सती दास जी, मति दास जी, दयाल दास जी जैसे ब्राह्मण वीरों ने गुरु जी की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे डाली। इतना ही नहीं गुरु जी को शस्त्रों की शिक्षा देने वाले भी पंडित कृपा दत्त जी जैसा योद्धा पंजाब में दुसरा नहीं हुआ। एक बैरागी ब्राह्मण लक्ष्मण दास और उनके किशोर पुत्र अजय ने सरहिंद में गुरु परिवार की रक्षा के लिए दुश्मनों से लोहा लिया और चप्पड़ चिड़ी की लड़ाई में विजय प्राप्त की। यही लक्ष्मण दास आगे चल कर बंदा बहादुर कहलाए।

कहने का तात्पर्य यही है कि भारत को खंड-खंड करने का स्वप्न देखने वालों से हमें होशियार रहने की जरुरत है। किसी के प्रलोभन, दरियादिली या झूठी सहानुभूति से भ्रमित न होकर अपने देश और समाज के लिए ही अपने आप को सजग रखना है। फिर चाहे वह पाकिस्तान द्वारा किसी धर्मस्थली तक जाने की इजाजत दे बहलाने की मंशा हो या फिर चीन द्वारा उसके यहां बेहतर व्यापार का प्रलोभन ! क्योंकि वे लोग भी जानते हैं कि धर्म के नाम पर हम कुछ जल्दी ही भावुक हो जाते हैं। 

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून का अप्रतिम, बेजोड़ भवन

हमारे घटते प्राकृतिक संसाधनों, बढ़ते प्रदूषण, कम होती हरियाली और बढ़ते कंक्रीट के जंगलों का मुख्य कारण बेलगाम बढ़ती आबादी ही है। लोग बढ़ेंगे तो उनके लिए जगह भी चाहिए ! रोटी-पानी भी चाहिए ! गाडी-घोडा भी चाहिए ! और यह सब चाहिए तो फिर उपरोक्त कमियां तो सामने आएंगी ही ! पहले बड़े शहरों में ही दवाब नजर आता था, पर अब तो देश के छोटे शहर-कस्बे भी अछूते नहीं बचे हैं। मैदानों को तो छोड़ें, पर्वतीय इलाके भी अपनी नैसर्गिक सुंदरता खोने लगे हैं................!  

#हिन्दी_ब्लागिंग 
पिछले दिनों चिर लंबित लाखामंडल की यात्रा का मौका बन पाया तो ''बेस'' देहरादून को ही ठहराया। जब वहां रुकना था तो लाजिमी था कि शहर को भी देखा-परखा जाए ! पर कभी अपने सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध यह अर्ध-पहाड़ी शहर भी व्यावसायिकता के बाज़ार के लौह शिकंजों में जकड़ता जा रहा है। हर वह दर्शनीय स्थल जिसे देखने की अभिलाषा लिए पर्यटक यहां पहुंचते हैं उन्हें घोर निराशा ही होती है ! फिर चाहे वह सहस्त्र धारा हो, चाहे गुच्चूपानी हो या प्रकाशेश्वर मंदिर ! हर जगह अतिक्रमण और गंदगी का बोलबाला ! शहर के मर्म-स्थल घंटाघर या पल्टन बाजार की भीड़-भाड़, प्रदूषण, अफरा-तफरी, बेकाबू यातायात का जिक्र नाहीं किया जाए तो भला ! ऐसे में भी अभी वहां एक-दो जगहें ऐसी हैं, जहां जा कर दिल को सकून मिलता है। जिनमें एक धर्मस्थली, टपकेश्वर महादेव मंदिर और दूसरी कर्मस्थली, वन विभाग का रिसर्च इंस्टीट्यूट प्रमुख हैं। आज पहले FRI याने भारतीय वन अनुसंधान संस्थान की बात -



चांदबाग, आज जहां दून स्कुल है, वहां 1878 में अंग्रेजों द्वारा स्थापित ब्रिटिश इंपीरियल फॉरेस्ट स्कूल को 1906 में इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट का रूप प्रदान किया गया था। फिर 1923 में आज के विशाल भूखंड पर सी.जी. ब्लूमफील्ड द्वारा निर्मित एक नई ईमारत में 1929 में इसका स्थानांतरण कर दिया गया। जिसका उद्घाटन उस समय के वायसराय लॉर्ड इरविन द्वारा किया गया था। शहर के ह्रदय-स्थल से करीब सात की.मी. की दूरी पर देहरादून-चकराता मार्ग पर यह ग्रीको-रोमन वास्तुकला की शैली वाला भव्य, सुंदर, शानदार, अप्रतिम, बेजोड़ भवन अपना सर उठाए बिना प्रयास ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इसमें एक बॉटनिकल म्यूजियम भी है तरह-तरह के पेड़-पौधों की जानकारी प्रदान करता है। इसके लिए अलग से प्रवेश शुल्क लिया जाता है।



2000 एकड़ में फैला एफ.आर.आई. में 7 संग्रहालय और तिब्बत से लेकर सिंगापुर तक के तरह-तरह के पेड़-पौधे यहां पर संग्रहित हैं। इसका मुख्य भवन राष्ट्रीय विरासत घोषित किया जा चुका है। सबसे बड़े ईंटों से बने इस भवन का नाम एक बार गिनीज बुक में भी दर्ज हो चुका है। वन शोध के क्षेत्र में प्रसिद्ध, एशिया में अपनी तरह के इकलौते संस्थान के रूप में यह दुनिया भर में प्रख्यात है। इसीलिए इसे देहरादून की पहचान और गौरव के रूप में देखा जाता है। देहरादून आने वाला शायद ही कोई पर्यटक हो जो इसे देखने ना आता हो। हर रोज यहां सैंकड़ों दर्शकों का तांता लगा रहता है। उनकी सुविधा के लिए एक कैंटीन तथा उत्तराखंड के लिबासों की बिक्री के लिए एक छोटा सा शो रूम भी यहां उपलब्ध है।     

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