शनिवार, 27 नवंबर 2021

जिसे भी हम पूजते हैं, उसकी ऐसी की तैसी कर डालते हैं

कभी ध्यान गया है किसी मंदिर में लगे किसी अभागे वृक्ष की तरफ ? उसके तने या जड़ के पास अपनी मन्नत पूरी करने के लिए दीया जला-जला कर उसकी लकड़ी को कोयला कर, हमें लगता है कि वृक्ष महाराज हमारी मनोकामनाएं जरूर पूरी करेंगें ! कोई कसर नहीं छोड़ते हम, अपनी आयु बढ़ाने के लिए उसकी जड़ों में अखाद्य पदार्थ डाल-डाल कर उसको असमय मृत्यु की ओर ढकेलने में.............!

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हम एक धार्मिक देश के वाशिंदे हैं। हम बहुत भीरू हैं ! इसी भीरुता के कारण हम अपने बचाव के लिए तरह-तरह के टोने-टोटके करते रहते हैं ! हमें जिससे डर लगता है, हम उसकी पूजा करना शुरु कर देते हैं ! हमने अपनी रक्षा के लिए पत्थर से लेकर वृक्ष, जानवर और काल्पनिक शक्तियों को अपना संबल बना रखा है ! पर जैसे-जैसे हमारी सुरक्षात्मक भावना पुख्ता होती जाती है, हम अपने आराध्यों की ऐसी की तैसी करने से बाज नहीं आते !

पूजा-अर्चना कर ली, कार्य सिद्ध हो गया तो फिर तुम कौन तो मैं कौन
घर से ही शुरु करें ! जब तक मतलब निकलना होता है, हमें अपने माँ-बाप से ज्यादा प्यारा और कोई नहीं होता ! पर जैसे ही, उन्हीं कि बदौलत, अपने पैरों पर खड़े होने की कुव्वत आ जाती है, तो उनके लिए वृद्धाश्रम की खोज शुरु हो जाती है !
हमारे यहां यह बात काफी ज्यादा प्रचलित है कि जहां नारी का सम्मान होता है, वहां देवता वास करते हैं ! देख लीजिए जहां देवता वास करते हैं, वहां नारी का क्या हाल है ! अरे देवता ही जब नारी की कद्र नहीं कर पाए, तो हम तो गल्तियों के पुतले, इंसान हैं ! कभी सुना है कि देवताओं ने अपना मतलब सिद्ध हो जाने पर किसी देवी को इंद्र का सिंहासन सौंप दिया हो ? 
हम नदियों को देवी या माँ का दर्जा देते आए हैं ! पर क्या हमने किसी एक भी नदी के पानी को पीने लायक छोड़ा है ! कहीं पीना पड़ जाता है, तो वह मजबूरी वश ही होता है ! प्रकृति द्वारा मुफ्त में प्रदान इस जीवनदाई द्रव्य की हमने कभी कद्र नहीं की ! उसी का परिणाम है जो उस पर हजारों रूपए खर्चने पड़ रहे हैं ! जल देवता कहते-कहते हमारा मुंह नहीं थकता ! पर आज जैसी इस देवता की दुर्दशा कर दी गई है, तो लगता है जैसे इसके भी देवता कूच कर चुके हैं !
यही हाल वायुदेव का है ! आम इंसान की तो क्या ही कहें, खुद उनकी भी सांस हमारे यहां आ कर फूलने लगती है ! पर हमें और हमारे तथाकथित नेताओं को कोई परवाह नहीं है ! ना हीं चिंता है ! एक आश्वासन देते नहीं थकता दूसरा अपनी करनियों से बाज नहीं आता ! 
गाय को सदा माँ के समकक्ष माना गया है ! उसकी नेमतों का तो कोई सानी ही नहीं है ! ना हीं उसके उपकारों का कोई बदला है ! पर क्या कभी उनके जिस्म को निचोड़ने के अलावा उनकी सेहत का ख्याल रखा है, किसी ने ? जगह-जगह घूमती, कूड़ा खाती मरियल सी गायें, शायद ही दुनिया में कहीं और दिखती हों !
पेड़-पौधों,  लता-गुल्मों की तो बात ही ना की जाए तो बेहतर है ! जीवन देने वाली इस प्रकृति की नेमत की कैसी पूजा आज कल हो रही है जग जाहिर है ! कभी ध्यान गया है किसी मंदिर में लगे किसी अभागे वृक्ष की तरफ ? उसके तने या जड़ के पास अपनी मन्नत पूरी करने के लिए दीया जला-जला कर उसकी लकड़ी को कोयला कर, हमें लगता है कि वृक्ष महाराज हमारी मनोकामनाएं जरूर पूरी करेंगें ! कोई कसर नहीं छोड़ते हम, अपनी आयु बढ़ाने के लिए उसकी जड़ों में अखाद्य पदार्थ डाल-डाल कर उसको असमय मृत्यु की ओर ढकेलने में ! 

समय-समय पर देव प्रतिमाओं की तो और भी बुरी गत हमारे द्वारा बना दी जाती है ! पूजा-अर्चना के बाद मूर्ति और उसमें इस्तमाल हुई सामग्री, किसी पेड़-पार्क या झाड़ियों में पड़ी अपनी दुर्गत पर आँसू भी नहीं बहा पाते ! किसी बड़े-विशाल पूजा समारोह के बाद नदी-नालों, झीलों-तालाबों की हालत देख लीजिए, हमारे भक्तिभाव की सारी पोल खुल कर रह जाती है !   

यानी कि हम इतने खुदगर्ज हैं कि मतलब निकल जाने के बाद किसी भी पूज्य की ऐसी की तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ते ! पूजा-अर्चना कर ली, कार्य सिद्ध हो गया तो फिर तुम कौन तो मैं कौन !  

गुरुवार, 18 नवंबर 2021

लौटना गब्बर का फिर रामगढ़

धीरे-धीरे चल कर गब्बर अपने पुराने अड्डे के पास पहुंचा तो वहाँ का नक्शा भी बिलकुल बदला हुआ मिला ! लोगों ने प्लॉट काट-काट कर घर बनाने की तैयारियां कर रखी थीं ! फिलहाल वक्त, आशिकों ने उस महफूज जगह को अपना आशियाना बना डाला था। इक्का-दुक्का जोड़े तो इस भरी दुपहरिया में भी चट्टानों के पीछे दुबके नजर आ रहे थे ! गब्बर, जिसके नाम से पचास-पचास कोस दूर रोते बच्चे डरा कर चुप करवा दिए जाते था, उसी गब्बर की नाक के नीचे आज के छोकरे प्रेम का राग अलाप रहे थे....... !

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रामगढ़ की एतिहासिक लड़ाई के बाद सब कुछ मटियामेट हो चुका था। अब ना डाकुओं का दबदबा रहा, ना वो हुंकार कि कितने थे ? आदमी ही ना रहे तो गिनती क्या पूछनी ! ले दे कर सिर्फ सांभा बचा था, वह भी चट्टान के ऊपर किसी तरह छिपा रह गया था, इसलिए ! 

वर्षों बाद जेल काट तथा बुढ़ापा ओढ़, गब्बर वापस आया था रामगढ़। मन में एक आशा थी कि शायद छूटा हुआ  लूट का माल हासिल हो ही जाए ! पर वह भौंचक सा रह गया था यहाँ आ कर ! बीते सालों में रामगढ़ खुशहाल हो चुका था ! अब वहाँ तांगे नहीं, तिपहिया और टैंपो चलने लग गए थे। सड़कें भी पक्की हो गई थीं ! बिजली आ चुकी थी। लालटेनें इतिहास का हिस्सा बन चुकी थीं। बीरू-बसंती के प्यार को विवाह के गठबंधन में बदलने में सहयोगी उस समय की बिना पाइप की पानी की टंकी में अब पाइप और पानी दोनों उपलब्ध हो गए थे ! पुलिस का थाना बन गया था। एक डिग्री कालेज भी खुल गया था, जिससे अब किसी अहमद को अपनी जान पर खेल, शहर जा पढाई नहीं करनी पड़ती थी ! यह सारा बदलाव यहां से ठाकुर के चुनाव जीतने का नतीजा था। 

बात हो रही थी गब्बर के लौटने की ! समय की मार, अपने समय के आतंक गब्बर को आज कोई पहचानने वाला ही नहीं था ! इक्के-दुक्के लोगों ने तो भिखारी समझ उसके हाथ में एक-दो रुपये तक पकड़ा दिए थे ! उसने उनको भी अपनी खैनी की पोटली के साथ अपनी कमीज की जेब में ठूंस लिया। उसे तो एक ही चिंता सता रही थी कि पुलिया, जिसे जय ने उड़ा दिया था, के बगैर वह खाई कैसे पार करेगा। पर कमजोर होती आँखों के बावजूद उसे उस सूखे नाले पर एक पक्का मजबूत पुल दिखाई पड़ गया ! दिल जल उठा गब्बर का, यह पुल उस समय होता तो...........! 

खैर धीरे-धीरे चल कर गब्बर अपने पुराने अड्डे के पास पहुंचा तो वहाँ का नक्शा भी बिलकुल बदला हुआ मिला ! लोगों ने प्लॉट काट-काट कर घर बनाने की तैयारियां कर रखी थीं ! फिलहाल वक्त, आशिकों ने उस महफूज जगह को अपना आशियाना बना डाला था। इक्का-दुक्का जोड़े तो इस भरी दुपहरिया में भी चट्टानों के पीछे दुबके नजर आ रहे थे ! गब्बर, जिसके नाम से पचास-पचास कोस दूर रोते बच्चे डरा कर चुप करवा दिए जाते था, उसी गब्बर की नाक के नीचे आज के छोकरे प्रेम का राग अलाप रहे थे ! 

थका-हारा, लस्त-पस्त गब्बर वहीं एक पत्थर पर बैठ जेब से खैनी निकाल हाथ पर रगड़ रहा था। तभी उसे एक चट्टान के पीछे से एक सिर नमूदार होते दिखा। माथे पर हाथ रख आँखे मिचमिचा कर ध्यान से देखा तो खुशी से चीख उठा "अरे सांभा !!!" उधर सांभा जो और भी सूख कर बेंत की तरह हो चुका था, अपने उस्ताद को सामने पा एक साथ परेशान, चिंतित और चिढ़ गया ! कारण भी जायज था ! वह अपने पेट को भरने का इंतजाम तो ठीक से कर नहीं पाता था, ऊपर से यह आ गया था ! पर किया भी क्या जा सकता था ! मन मार कर, गुस्सा दबा, कुशल-क्षेम पूछी ! फिर सबेरे मांग कर लाई रोटियों में से चार उसके सामने एक प्याज के साथ रख दीं ! भूखे गब्बर ने झट से उनका सफाया कर डाला। 

किसी तरह शाम ढली, रात बीती, सुबह हुई ! आदतानुसार गब्बर ने ऐसे ही पूछ लिया "होली कब है, कब है होली ?'' इतना सुनना था कि सांभा के तनबदन में आग सी लग गई  ! ऐसा लगा जैसे नेपोलियन को किसी ने वाटरलू याद दिला दिया हो ! एक तो वह तो इसके आने से वैसे ही परेशान हो रात भर सो नहीं पाया था ! ऊपर से फिर वही सवाल ! वह फूट पडा ! उस्ताद, होली, दिवाली सब भूल जाओ ! मंहगाई का कोई इल्म भी है तुम्हें ? अपनी टेंट में दो दाने दाल और पाव भर आटा खरीदने को भी कुछ नहीं है ! यहाँ ना कुछ खाने को है ना पकाने को !  एक-दो बार, इधर जो लौंडे-लफाड़िए आते हैं  उन्हें डरा-धमका कर कुछ ऐंठने की कोशिश की तो उलटा वे मुझे ही हड़का गए ! वह तो हफ्ते दस दिन में मंदिर, गुरुद्वारे के लंगर से चार-पांच दिन का बटोर लाता हूँ, तो जिंदा हूँ ! तुमसे तो वह भी नहीं होगा ! हमारे विगत को जानते हुए कोई हमारा हमारा स्मार्ट कार्ड या आधार कार्ड भी नहीं बनाएगा ! तुमने जो किया है, उससे बुढापे की पेंशन भी मिलने से रही ! इसलिए पर्वों-त्योहारों खासकर होली को तो  भूल ही जाओ, जिसने हमारी यह गत बना दी थी ! यह सोचो कि आज खाओगे क्या और कैसे ?

इतनी डांट तो गब्बर ने अपनी पूरी जिन्दगी में भी कभी किसी से नहीं खाई थी ! वह सांभा जो उसके डर के मारे कभी पहाड़ी से नीचे नहीं उतरता था, आज उसे नसीहत दे रहा था ! सब समय का फेर है ! पर यह भी सच है कि तभी से  गब्बर सब भूल-भाल कर अब सिर्फ भोजन जुगाड़-चिंतन  में जुटा हुआ है ! 

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी ! ऐसा क्यों ?

ऐसा भी हो सकता है कि पेमेंट को ले कर मामला फंस गया हो ! वहां ग्रामीण भाई कुछ नगद और कुछ राशन वगैरह दे कर आयोजन करवाना चाहते हों, पर राधा के सचिव ने पूरा कैश लेना चाहा हो ! बात बनते ना देख उसने इतने तेल की डिमांड रख दी हो, जो पूरे गांव के भी बस की बात ना हो ! वैसे किस तेल की फर्माईश की गई थी, इसका भी पता नहीं चल पाया है......!

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कुछ अजीब सा नहीं लगता ! नाच और तेल का आपस में क्या संबंध ! फिर यह कैसी शर्त ! नौ मन तेल तो नहीं, पर दिमाग का तेल निकालने के बाद कुछ ऐसा समझ में आया कि हो सकता है कि ये राधा जी कोई बड़ी जानी-मानी डांसिंग स्टार होंगी और किसी अप्रख्यात जगह से उन्हें बुलावा आया होगा। शायद उस जगह अभी तक बिजली नहीं पहुंची हो और वहां सारा कार्यक्रम मशाल वगैरह की रोशनी में संम्पन्न होना हो। इस बात का पता राधा एण्ड पार्टी को वेन्यू पहुंच कर लगा हो और अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल किसी चीज ना पा कर आर्टिस्टों का मूड उखड़ गया हो ! किसी भी तरह के बखेड़े से बचने के लिए ऐसी शर्त रख दी गई हो, जिसे तत्काल पूरा कर पाना गांव वालों के बस की बात ना हो ! पर फिर यह सवाल उठता है कि नौ मन तेल ही क्यूं ? राउंड फिगर में दस या पंद्रह मन क्यों नहीं ? तो हो सकता है कि यह आंकड़ा काफी दर-मोलाई के बाद फिक्स हुआ हो !

ऐसा भी हो सकता है कि पेमेंट को ले कर मामला फंस गया हो। वहां ग्रामीण भाई कुछ नगद और कुछ राशन वगैरह दे कर आयोजन करवाना चाहते हों पर राधा के सचिव वगैरह ने पूरा कैश लेना चाहा हो। बात बनते ना देख उसने इतने तेल की डिमांड रख दी हो, जो पूरे गांव के भी बस की बात ना हो !

ऐसे में मुहावरे का लब्बो-लुआब यही निकलता है कि एक ख्यातनाम ड़ांसिंग स्टार अपने आरकेस्ट्रा के साथ किसी छोटे से गांव में अपना प्रोग्राम देने पहुंचीं। उन दिनों मैनेजमेंट गुरु जैसी कोई चीज तो होती नहीं थी सो गांव वालों ने अपने हिसाब से प्रबंध कर लिया था और यह व्यवस्था "राधा एण्ड कंपनी" को रास नहीं आई। पर उन लोगों ने गांव वालों को डायरेक्ट मना करने की बजाय अपनी एण्ड-बैण्ड शर्त रख दी होगी। जो उस हालात और वहां के लोगों के लिये पूरा करना नामुमकिन होगा। इस तरह वे जनता के आक्रोश और अपनी बदनामी दोनों से बचने में सफल हो गए होंगे।

वैसे किस तेल की फर्माईश की गई थी, इसका भी पता नहीं चल पाया है ! पर इस घटना के बाद इस तरह के समारोह करवाने वाले अन्य व्यवस्थाओं के साथ-साथ नौ-दस मन तेल का भी इंतजाम कर रखने लग गए होंगे ! क्योंकि फिर कभी राधा जी और तेल के नए आंकड़ों की खबर सुनने में नहीं आई है !
इस बारे में नई जानकारियों का स्वागत है ! 

गुरुवार, 11 नवंबर 2021

मूल से अधिक प्यारा ब्याज, ऐसा क्यों

जो लोग अपने बच्चों के बचपन के क्रिया-कलापों को पास से देखने से किसी भी कारणवश वंचित रह जाते हैं, उनके लिए अपने नाती-पोते-पोतियों की गतिविधियों को देख पाना किसी दैवीय वरदान से कम नहीं होता ! यही वह अलौकिक सुख है, जिसकी खातिर उनका प्रेम, उनका स्नेह, उनका वात्सल्य, सब अपनी इस पीढ़ी पर न्योछावर हो जाता है ! फिर से जीवन के प्रति लगाव महसूस होने लगता है। शायद प्रकृति के अस्तित्व को बनाए रखने, मानव  जाति को बचाए रखने, कायनात को चलाए रखने के लिए ही परम पिता ने इस मोह की माया को रचा हो............!    

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किसी इंसान के दादा-दादी बनने पर उनके अपने नाती-पोते-पोतियों से स्नेह-अनुराग को लेकर, ज्यादातर उत्तर भारत में प्रचलित एक कहावत है कि ''मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है।'' इसका कतई यह मतलब नहीं है कि उसे अपने बच्चों से लगाव नहीं होता ! पर काम का बोझ, पारिवारिक दायित्व व जिम्मेदारियां, जीवन में कुछ कर गुजरने की ख्वाहिशें, चाहते हुए भी, उसे इतना समय ही नहीं देतीं कि वह प्रभु-प्रदत्त इस नियामत के बढ़ने-फलने-फूलने का पूरा आनंद उठा सके। पर अपनी इस तीसरी पीढ़ी तक पहुंचते-पहुंचते वह काफी हद तक दायित्वमुक्त हो चुका होता है। काफी कुछ हासिल कर चुका होता है ! पहले की तरह जीवन में आपाधापी नहीं रह जाती ! सो अफरात समय भी उपलब्ध रहता है। इसी से जब वह प्रभु की इस अद्भुत, अप्रतिम, सर्वोत्तम कृति को शिशु रूप में अठखेलियां करते देखता है, जो वह अपने समय में नहीं देख पाया थाा, तो वह अचंभित, मुग्ध व चित्रलिखित सा हो मोह में बंध कर रह जाता है। 

सुबह जब वह चेहरे पर मुस्कान लिए, डगमगा के चलती हुई, अपनी भाषा में कुछ बतियाती आती है तो लगता है जैसे प्रभु की कृपा साक्षात सामने आ खड़ी हुई हो 

कहा जाता है कि बच्चे प्रभु का रूप होते हैं ! पर प्रभु को भी इस धरा को, प्रकृति को, सृष्टि को बचाने के लिए कई युक्तियों तथा नाना प्रकार के हथकंडों का सहारा लेना पड़ा था ! पर निश्छल व मासूम शैशव, चाहे वह किसी भी प्रजाति का हो, छल-बल, ईर्ष्या-द्वेष, तेरा-मेरा सबसे परे होता है, इसीलिए वह सबसे अलग होता है, सर्वोपरि होता है। भगवान को तो फिर भी इंसान को चिंतामुक्त करने में कुछ समय लग जाता होगा, पर घर में कैसा भी वातावरण हो, तनाव हो, शिशु की एक किलकारी सबको उसी क्षण तनावमुक्त कर देती है। गोद में आते ही उसकी एक मुस्कान बड़े से बड़े अवसाद को तिरोहित करने की क्षमता रखती है। उसकी बाल सुलभ हरकतें, अठखेलियां, जिज्ञासु तथा बड़ों की नक़ल करने की प्रवृति, किसी को भी मंत्रमुग्ध करने के लिए काफी होती हैं। उसकी अपने आस-पास की चीजों से तालमेल बैठाने की सफल-असफल कोशिशें कठोर से कठोर चहरे पर भी मुस्कान की रेख खिंच देने में कामयाब रहती हैं। 

इसीलिए वे या वैसे लोग जो अपने बच्चों के बचपन के क्रिया-कलापों को पास से देखने से किसी भी कारणवश वंचित रह गए थे, उनके लिए तो अपने पौत्र-पौत्रियों की गतिविधियों को देख पाना किसी दैवीय वरदान से कम नहीं होता ! यही वह अलौकिक सुख है जिसकी खातिर उनका प्रेम, उनका स्नेह, उनका वात्सल्य, सब अपनी इस पीढ़ी पर न्योछावर हो जाता है। फिर से जीवन के प्रति लगाव महसूस होने लगता है। शायद प्रकृति के अस्तित्व को बनाए रखने, मानव  जाति को बचाए रखने, कायनात को चलाए रखने के लिए ही माया ने इस मोह को रचा हो !   

मैं भी उसी श्रेणी से संबद्धित हूँ, इसीलिए यह कह पा रहा हूँ ! अपनी डेढ़ वर्ष की पौत्री की बाल चेष्टाओं, उसकी गतिविधियों, उसकी मासूमियत भरी हरकतें देख यह अहसास होता है कि जिंदगी की जद्दोजहद में क्या कुछ खो दिया था ! किस नियामत से वंचित रह गया था ! उपलब्धियों की चाहत में कितना कुछ अनुपलब्ध रह गया था ! पर आज दिल की गहराइयों से प्रभु का शुक्रगुजार हूँ कि समय रहते उन्होंने मुझे इस दैवीय सुख से परिचित करवा दिया ! सुबह जब वह चेहरे पर मुस्कान लिए, डगमगा के चलती हुई, अपनी भाषा में कुछ बतियाती आती है तो लगता है जैसे प्रभु की कृपा साक्षात सामने आ खड़ी हुई हो ! पर इसके साथ ही कभी-कभी एक अजीब सी ,बेचैनी, एक अलग सा भाव, कुछ खो जाने का डर भी महसूसने लगता हूँ ! क्योंकि यह तुतलाती जुबां, डगमगाती चाल, अठखेलियां, मासूम हरकतें समय के चंगुल से कहाँ बच पाएंगी ! फिर वही पाठ्यक्रमों का बोझ, स्कूलों की थकान भरी बंदिशें, दुनियावी प्रतिस्पर्द्धा और ना जाने क्या-क्या हावी होती चले जाएंगे ! पर कुछ किया भी तो नहीं जा सकता जग की इस रीत के विपरीत...............!! 

जी तो करता है कि इसकी मासूमियत, निश्छलता, भोलापन यूँ ही बने रहें ! इसी तरह अपनी तोतली भाषा में हमसे बतियाती रहे ! इसी तरह सुबह डगमगाती हुई आ गोद में चढने की जिद करती रहे ! यूँ ही इसकी किलकारियों से घर गुंजायमान रहे ! पर समय.....! किसका वश चल पाया है उस पर ! इसीलिए कोशिश करता हूँ कि इन पलों को बाँध के रख लूँ ! या फिर जितना ज्यादा हो सके, समेटता ही चला जाऊं, समेटता ही चला जाऊं, और सहेज के रख लूँ दिलो-दिमाग के किसी बहुत ही सुरक्षित कोने में, धरोहर बना कर ! 

शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

नरक चतुर्दशी, नरकासुर वध

समर के दौरान प्रभु लीला के तहत एक बाण श्री कृष्ण जी की बांह को छू गया ! जिससे क्रुद्ध हो सत्यभामा ने, जो खुद भी युद्ध में पारंगत थीं, अस्त्र उठा कर नरकासुर पर प्रहार कर उसका वध कर डाला ! लेकिन मरते हुए, नरकासुर ने अपनी माँ से वरदान मांगा कि संसार उसे दुर्भाव से नहीं बल्कि खुशी से याद करे और हर साल उसकी मृत्यु के दिन पर उत्सव मनाया जाए। उसी वरदान के तहत दिवाली के एक दिन पहले नरक चतुर्दशी का समारोह मनाया जाता है..............!

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इंसान के लिए जो बात या घटना अप्रत्याशित, असंभावित या आकस्मिक होती है वही बात जगत रचयिता के विधि लेखन का पूर्वनियोजित हिस्सा होती है ! हमारी पृथ्वी की गोलाई की तरह ही यहां पर घटने वाली हर बातें, विषय, घटनाएं, वाकये सब सुनियोजित हो किसी ना किसी तरह, गोल-गोल एक दूसरे से जुड़े होते हैं। इंसान जिस घटना पर अवाक रह जाता है वह वर्षों पहले नियंता द्वारा रची जा चुकी होती है !

अब नरकासुर की ही बात लें, जिसे ब्रह्मा जी द्वारा वरदान मिला हुआ था कि उसका अंत उसकी माँ के ही हाथों होगा ! अब अपने बच्चे को कौन माँ मार सकती है ! इसी से निश्चिंत हो नरकासुर यानी भौमासुर ने सत्ता और ताकत के नशे में चूर हो, सभी राजाओं और देवताओं को तो पराजित किया ही, इंद्र को हरा कर अमरावती पर भी अपना कब्जा कर लिया। उसने देवताओं की माता अदिती की बालियां चुराने और 16000 राजकुमारियों का अपहरण करने तक की धृष्टता कर डाली ! उस समय वह प्राग्ज्योतिष यानी कामरूप नगर का राजा था ! इस जगह ब्रह्मा जी ने नक्षत्रों का निर्माण किया था, इसीलिए यह प्राक् (प्राचीन या पूर्व) और ज्योतिष (नक्षत्र) कहलाती थी, जो आज असम के गुवाहाटी के नाम से जानी जाती है। 

कथा लेखक को तो अपनी कहानी का हर पहलू ज्ञात होता है पर पढ़ने-सुनने वाले को उसके उतार-चढ़ाव का कुछ भी अंदाजा नहीं होता ! जब नरकासुर को उसकी तपस्या के एवज में वरदान दिया गया था, तभी साथ ही उसके अंत की भी व्यवस्था कर दी गई थी ! पर कथानक इतना सीधा-सपाट नहीं था ! पेच ओ खम से भरा हुआ था ! कई तरह के उतार-चढ़ाव थे ! तरह-तरह की विषम परिस्थितियों का समावेश था। कथा में माँ-बेटे के संघर्ष के द्वारा इंसान को समझाने की कोशिश है कि पृथ्वी ही हमारी माता है ! वही हमारा पोषण करती है ! हमें जीवनयापन में सहयोग करती है ! इसलिए हमें उस पर अपना अधिकार या स्वामित्व नहीं जताना चाहिए ! बल्कि उसके आदर-सम्मान के साथ ही उसके संरक्षण की जिम्मेदारी भी मानवता की ही बनती है !     

नरकासुर कोई मामूली या साधारण राक्षस नहीं था। वह श्री विष्णु और भू देवी का पुत्र था। पुराणों में विवरण है कि एक बार राक्षस हिरण्याक्ष ने पृथ्वी देवी का अपहरण कर उन्हें समुद्र तल में ले जा कर कैद कर लिया था। तब विष्णु जी ने वराह का अवतार ले उनका उद्धार किया था ! सागर तल से ऊपर आने के दौरान उन दोनों के संयोग से भौमासुर का जन्म हुआ था ! देवी ने तभी से विष्णु जी को अपना पति मान लिया था ! समय के साथ पृथ्वी देवी के एक अवतार ने सत्यभामा के रूप में राजा सत्राजित के घर जन्म लिया। स्यमंतक मणि को ले कर काफी जद्दोजहद हुई ! इसी के लिए श्री कृष्ण को जामवंत जी की बेटी जामवंती से विवाह भी करना पड़ा ! पर अंततोगत्वा उनका विवाह सत्यभामा से भी हुआ, जो होना ही था !

इधर जब नरकासुर का अत्याचार बहुत बढ़ गया तो देवता व ऋषि-मुनियों ने भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जा उनसे नराकासुर से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की ! चूँकि नरकासुर को अपनी माँ के हाथों ही मरना था, इसलिए प्रभु ने अपनी पत्नी सत्यभामा को भी, जो पृथ्वी का अवतार थीं, युद्ध में साथ ले लिया ! समर के दौरान प्रभु लीला के तहत एक बाण श्री कृष्ण जी की बांह को छू गया ! जिससे क्रुद्ध हो सत्यभामा ने, जो खुद भी युद्ध में पारंगत थीं, अस्त्र उठा कर नरकासुर पर प्रहार कर उसका वध कर डाला ! लेकिन मरते हुए, नरकासुर ने अपनी माँ से वरदान मांगा कि संसार उसे दुर्भाव से नहीं बल्कि खुशी से याद करे और हर साल उसकी मृत्यु के दिन पर उत्सव मनाया जाए। उसी वरदान के तहत दिवाली के एक दिन पहले नरक चतुर्दशी का समारोह मनाया जाता है !
उत्तर भारत में नरक चतुर्दशी को "छोटी दिवाली" के रूप में मनाया जाता है, लेकिन दक्षिण भारत में नरक चतुर्दशी, दीपावली पर्व का मुख्य त्योहार है। पर जहां उत्तर भारतीय अवाम, सीता जी के साथ श्री राम की वापसी का जश्न मनाता है, वहीं दक्षिण भारतीय नागरिक नरकासुर वध के उपलक्ष्य में उत्सव मनाते हैं। बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न और मनाने की  शैली एक होने के बावजूद दिन अलग-अलग होते हैं !

श्रीकृष्ण जी ने कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को नरकासुर का वध कर देवताओं व संतों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई थी ! उसी की खुशी में दूसरे दिन अर्थात कार्तिक मास की अमावस्या को लोगों ने अपने घरों में दीए जलाए, आतिशबाजी की, खुशियां मनाईं ! तभी से नरक चतुर्दशी पर दीपावली का त्योहार मनाया जाने लगा। 

सोमवार, 1 नवंबर 2021

मैं छत्तीसगढ हूं

 मेरे नाम में आंकड़े जरूर  "36"  के हैं पर प्रेम से भरे मेरे मन की यही इच्छा है कि मैं सारे देश में एक ऐसे आदर्श प्रदेश के रूप में जाना जाऊं,  जहां किसी के साथ भेद-भाव नहीं बरता जाता हो, जहां किसी को अपने परिवार को पालने में बेकार की जद्दोजहद नहीं करनी पडती हो, जहां के लोग सारे देशवासियों को अपने परिवार का सदस्य समझें।  जहां कोई भूखा न सोता हो, जहां तन ढकने के लिए कपडे और सर छुपाने के लिए छत सब को मुहैय्या हो। मेरा यह सपना दुर्लभ भी नहीं है। यहां के रहवासी हर बात में सक्षम हैं। यूंही उन्हें  #छत्तीसगढ़िया_सबले_बढ़िया का खिताब हासिल नहीं हुआ है .....................................


#हिन्दी_ब्लागिंग
 

मैं #छत्तीसगढ हूं ! आज एक नवम्बर है । 21 साल के एक ऐसे सक्षम, कर्मठ, स्वाबलंबी, युवा की जन्मतिथि ! जो सदा कुछ कर गुजरने, सपनों को हकीकत में बदलने तथा देश के प्रति समर्पित रहने को प्रतिबद्ध है ! आज सुबह से ही आपकी शुभकामनाएं, प्रेम भरे संदेश और भावनाओं से पगी बधाईयां पा कर अभिभूत हूं। मुझे याद रहे ना रहे पर आप सब को हमेशा मेरा जन्मदिन याद रहता है ! यह मेरा सौभाग्य है। किसी देश या राज्य के लिए 20-21 साल समय का बहुत बड़ा काल-खंड नहीं होता। पर मुझे संवारने-संभालने, मेरे रख-रखाव, मुझे दिशा देने वालों ने इतने कम समय में ही मेरी पहचान देश में ही नहीं, विदेशों में भी बना कर एक मिसाल कायम कर दी है। मुझे इससे कोई मतलब नहीं है कि मेरी बागडोर किस पार्टी के हाथ में है ! मेरी यही कामना रहती है, जो भी यहां की जनता की इच्छा से राज संभालता है उसका लक्ष्य एक ही होना चाहिए कि छत्तीसगढ के वासी अमन-चैन के साथ, एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बन, बिना किसी डर, भय, चिंता या अभाव के अपना जीवन यापन कर सकें। मेरा सारा प्रेम, लगाव, जुडाव सिर्फ और सिर्फ यहां के बाशिंदों के साथ ही है। 
मैं 


वन-संपदा, खनिज, धन-धान्य से परिपूर्ण मेरी रत्नगर्भा धरती का इतिहास दक्षिण-कौशल के नाम से रामायण और महाभारत काल में भी जाना जाता रहा है। वैसे यहां एक लंबे समय तक कल्चुरी राज्यवंश का आधिपत्य रहा है। पर मध्य प्रदेश परिवार से जुडे रहने के कारण मेरी स्वतंत्र छवि नहीं बन पाई थी और देश के दूसरे हिस्सों के लोग मेरे बारे में बहुत कम जानकारी रखते थे। आप को भी याद ही होगा जब मुझे मध्य प्रदेश से अलग अपनी पहचान मिली थी तो देश के दूसरे भाग में रहने वाले लोगों को मेरे बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी ! जिसके कारण देश के विभिन्न हिस्सों में मेरे प्रति कई तरह की भ्रांतियां पनपी हुई थीं ! दूसरे प्रांतों के लोग मुझे एक पिछड़ा प्रदेश और यहां के आदिवासियों के बारे में अधकचरी जानकारी रखते थे । इस धारणा को बदलने में समय तो लगा, मेहनत करनी पड़ी, जितने भी साधन उपलब्ध थे उनका उचित प्रयोग किया गया, धीरे-धीरे तस्वीर बदलने लगी जिसका उल्लेख यहां से बाहर जाने वालों से या बाहर से यहां घूमने आने वाले लोगों की जुबानी देशवासियों में होने लगा।अब यहां से बाहर जाने वालों से या बाहर से यहां घूमने आने वाले लोगों को मुझे देखने-समझने का मौका मिलता है तो उनकी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं। उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि परिपक्वता के द्वार पर खड़ा मैं, इतने कम समय में, सीमित साधनों के और ढेरों अडचनों के बावजूद इतनी तरक्की कर पाया हूं। वे मुझे देश के सैंकडों शहरों से बीस पाते हैं। मुझे संवारने-संभालने, मेरे रख-रखाव, मुझे दिशा देने वालों ने इतने कम समय में ही मेरी पहचान देश ही नहीं विदेशों में भी बना कर एक मिसाल कायम कर दी है।


इतना सब होने के बावजूद कईयों की जिज्ञासा होती है मेरी पहचान बनने के पहले का इतिहास जानने की ! मैं क्या था ? कैसा था ? कौन था ? तो उन सब को नम्रता पूर्वक यही कहना चाहता हूं कि जैसा था वैसा हूं ! यहीं था ! यहीं हूं। फिर भी सभी की उत्सुकता शांत करने के लिए कुछ जानकारी बांट ही लेता हूं। सैंकडों सालों से मेरा विवरण इतिहास में मिलता रहा है। मुझे दक्षिणी कोसल के रूप में जाना जाता रहा है। रामायण काल में मैं माता कौशल्या की भूमि के रूप में ख्यात था। मेरा परम सौभाग्य है कि मैं किसी भी तरह ही सही, प्रभू राम के नाम से जुडा रह पाया। कालांतर से नाम बदलते रहे, अभी की वर्तमान संज्ञा "छत्तीसगढ" के बारे में विद्वानों की अलग-अलग राय है। कुछ लोग इसका कारण उन 36 किलों को मानते हैं जो मेरे अलग-अलग हिस्सों में कभी रहे थे, पर आज उनके अवशेष नहीं मिलते। कुछ जानकारों का मानना है कि यह नाम कल्चुरी राजवंश के चेडीसगढ़ का ही अपभ्रंश है।



भारतीय गणराज्य में 31 अक्टूबर 1999 तक मैं मध्य प्रदेश के ही एक हिस्से के रूप में जाना जाता था। पर अपने लोगों के हित में, उनके समग्र विकास हेतु मुझे  अलग राज्य का दर्जा प्राप्त हो गया। इस मुद्दे पर मंथन तो 1970 से ही शुरु हो गया था ! पर गंभीर रूप से इस पर विचार 1990 के दशक में ही शुरु हो पाया ! जिसका प्रचार 1996 और 1998 के चुनावों में अपने शिखर पर रहा ! जिसके चलते अगस्त 2000 में मेरे निर्माण का रास्ता साफ हो सका। इस ऐतिहासिक घटना का सबसे उज्जवल पक्ष यह था कि इस मांग और निर्माण के तहत किसी भी प्रकार के दंगे-फसाद, विरोधी रैलियों या उपद्रव इत्यादि के लिए कोई जगह नहीं थी। हर काम शांति, सद्भावना, आपसी समझ और गौरव पूर्ण तरीके से संपन्न हुआ। इसका सारा श्रेय यहां के अमन-पसंद, भोले-भाले, शांति-प्रिय लोगों को जाता है जिन पर मुझे गर्व है। 



आज मेरे सारे कार्यों का संचालन मेरी "राजधानी रायपुर" से संचालित होता है। समय के साथ इस शहर में तो बदलाव आया ही है पर राजधानी होने के कारण बढ़ती, लोगों की आवाजाही, नए कार्यालय, मंत्रिमंडलों के काम-काज की अधिकता इत्यादि को देखते हुए नए रायपुर का निर्माण भी किया गया है। अभी की राजधानी रायपुर से करीब बीस की. मी. की दूरी पर यह मलेशिया के "हाई-टेक" शहर पुत्रजया की तरह निर्माणाधीन है। जिसके पूर्ण होने पर मैं गांधीनगर, चंडीगढ़ और भुवनेश्वर जैसे व्यवस्थित और पूरी तरह प्लान किए गए शहरों की श्रेणी में शामिल हो जाऊंगा।



मुझे कभी भी ना तो राजनीति से कोई खास लगाव रहा है नाहीं ऐसे दलों से। मेरा सारा प्रेम, लगाव, जुडाव सिर्फ और सिर्फ यहां के बाशिंदों के साथ ही है। कोई भी राजनीतिक दल आए, मेरी बागडोर किसी भी पार्टी के हाथ में हो उसका लक्ष्य एक ही होना चाहिए कि छत्तीसगढ के वासी अमन-चैन के साथ, एक दूसरे के सुख-दुख के साथी बन, यहां बिना किसी डर, भय, चिंता या अभाव के अपना जीवन यापन कर सकें। मेरे नाम में आंकड़े जरूर "36" के हैं पर प्रेम भरे मेरे मन की यही इच्छा है  कि मैं सारे देश में एक ऐसे आदर्श प्रदेश के रूप में जाना जाऊं, जो देश के किसी भी कोने से आने वाले देशवासी का स्वागत खुले मन और बढे हाथों से करने को तत्पर रहता है। जहां किसी के साथ भेद-भाव ना बरता जाता, जहां किसी को अपने परिवार को पालने में बेकार की जद्दोजहद नहीं करनी पडती, जहां के लोग सारे देशवासियों को अपने परिवार का समझ, हर समय, हर तरह की सहायता प्रदान करने को तत्पर रहते हैं। जहां कोई भूखा नहीं सोता, जहां तन ढकने के लिए कपडे और सर छुपाने के लिए छत मुहैय्या करवाने में वहां के जन-प्रतिनिधि सदा तत्पर रहते हैं। मेरा यह सपना कोई बहुत दुर्लभ भी नहीं है क्योंकि यहां के रहवासी हर बात में सक्षम हैं। यूंही उन्हें "छत्तीसगढिया सबसे बढिया" का खिताब हासिल नहीं हुआ है।  



मेरे साथ ही भारत में अन्य दो राज्यों, उत्तराखंड तथा झारखंड भी अस्तित्व में आए हैं और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हैं। मेरी तरफ से आप उनको भी अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करें, मुझे अच्छा लगेगा।  फिर एक बार आप सबको धन्यवाद देते हुए मेरी एक ही इच्छा है कि मेरे प्रदेश वासियों के साथ ही मेरे देशवासी भी असहिष्णुता छोड़ एक साथ प्रेम, प्यार और भाईचारे के साथ रहें।  हमारा देश उन्नति करे, विश्व में हम सिरमौर हों।
जयहिंद। जय छत्तीसगढ़ !  

@सभी चित्र अंतर्जाल से साभार  

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