सोमवार, 24 मार्च 2014

रबर के छोटे-छोटे छल्ले, रबर बैंड

रंग-बिरंगे रबर बैंड 
रबर बैंड, एक छोटा सा गोल महीन रबर का टुकड़ा। जो छोटा होते हुए भी रोजमर्रा के छोटे-छोटे कामों में बेहद उपयोगी है. चाहे महिलाओं को अपने खुले, बिखरते बालों को बचाना हो, चाहे व्यवस्थित कागजों को संभालना हो, चाहे किसी पोलिथिन के लिफाफे का मुंह बंद करना हो या फिर छोटी-मोटी चीजों को एकजुट रखना हो, इससे बेहतर और कोई चीज मुफीद नहीं है।  यह सब तो इसकी छोटी-मोटी उपादेयताएं हुईं। बावजूद इसके कि इसकी हमें आदत पड चुकी है, यह सर्वसुलभ है, फिर भी यह उपेक्षित ही है। इसके बारे में हमें जानकारी बहुत कम है.

इसका सबसे बड़ा उपभोक्ता अमेरिका का डाक विभाग है। जहां इसकी सालाना खपत टनों का आंकड़ा पार कर जाती है। इसके अलावा यह दुनिया भर की न्यूज पेपर इंडस्ट्री, डाक विभागों, फूलों के व्यवसाय, वनस्पति उद्योग की ख़ास जरूरत बन चुका है।  दुनिया भर में इसकी मांग भारी-भरकम रूप से दिन-दूनी-रात-चौगुनी की रफ्तार से बढती ही जा रही है।  

इसको बनाने के लिए अधिकतर प्राकृतिक रबर का ही उपयोग किया जाता है क्योंकि इसमें सिंथेटिक रबर से ज्यादा लचीलापन होता है। छल्ले या बैंड बनाने के रबर को कई चरणों से गुजरना पड़ता है।  इस दौरान रबर को ख़ास गोल नालियों में भर उसे गर्म और शुद्ध कर मशीनों से एकसार कर फिर आवश्यकतानुसार अलग-अलग नाप, माप और आकार में काट लिया जाता है।  फिर इन पर लम्बाई, चौड़ाई और मोटाई के हिसाब से  पहचान के लिए अलग-अलग नम्बर डाल दिए जाते हैं, जिससे इनकी खरीदी-बिक्री में आसानी रहती है।  

जाने-अनजाने, पहला रबर बैंड बनाने का श्रेय इंग्लैण्ड के थॉमस हैनकॉक को जाता है जिसने एक रबर की बोतल को छोटे-छोटे छल्लों के रूप में काट कर उनका उपयोग "गार्टर" और कमरबंद के रूप में किया था। यह बात 1943 की है।  पर इस नन्हीं सी चीज की उपयोगिता को देख लोग इसकी ओर आकृष्ट होते चले गए. इसकी उपयोगिता और लोकप्रियता को देखते हुए इंग्लैण्ड के ही स्टेफन पेरी ने समय को भांपते हुए 17 मार्च 1945 में  इसका पेटेंट करवा इसे लोकप्रियता की नयी उंचाईयों पर पहुंचा दिया। 

इस तरह अमेरिकन चार्ल्स गुडइयर की रबर की खोज और इंग्लैण्ड के थॉमस, पेरी के प्रयास और मेहनत के फलस्वरूप दुनिया को यह अनूठी और बहूउपयोगी वस्तु सर्वसुलभ  हो सकी।                

रविवार, 9 मार्च 2014

"शांति" का उच्चारण तीन बार क्यों करते हैं ?

एक परिक्रमा खुद की भी होती है जो घर इत्यादि में पूजा की समाप्ति पर एक जगह खड़े होकर घूमते हुए की जाती है जो याद दिलाती है कि हमारे भीतर भी  वही प्रभू, वही शक्ति, वही परम सत्य विराजमान हैं जिनकी प्रतिमा की हम अभी-अभी पूजा-अर्चना किए हैं।      

आज शाम टहलने निकला तो रास्ते में पंडित रामजी मिल गए। उनके साथ बतियाते हुए भोले नाथ के मंदिर प्रांगण में पहुँच गया।  वहां कुछ लोग शिवलिंग की प्रदक्षिणा कर रहे थे तो वैसे ही राम जी से पूछ लिया कि हम प्रदक्षिणा क्यों करते हैं ?

राम जी ने बताया कि जिस तरह सूर्य को केंद्र में रख सारे ग्रह उसका चक्कर लगाते हैं जिससे सूर्य की ऊर्जा उन्हें मिलती रहे, उसी तरह हम प्रभू यानी सर्वोच्च सत्ता, जो सारे विश्व का केंद्र है, वही कर्ता है, वही सारी गतिविधियों का संचालक है, उसी की कृपा से हम अपने नित्य प्रति के कार्य पूर्ण कर पाते हैं, उसी से हमारा जीवन है. फिर प्रभू समदर्शी हैं अपने सारे जीवों पर एक समान दया भाव रखते हैं इसका अर्थ है कि हम सभी उनसे समान दूरी पर स्थित हैं और उनकी कृपा बिना भेद-भाव के सब पर बराबर बरसती है। परिक्रमा करना भी उनकी पूजा अर्चना का एक हिस्सा है जो उनके प्रति अपनी कृतज्ञतायापन का एक भाव है, उन्हें अपने प्रेम-पाश में बांधने की एक अबोध कामना है। केवल प्रभू  ही नहीं जिनका भी हम आदर करते हैं, जो बिना किसी कामना के हमें लाभान्वित करते हैं, उनके प्रति आभार व्यक्त करने के लिए हम उनकी परिक्रमा करते हैं, चाहे वे हमारे माता-पिता हों, गुरुजन हों, अग्नि हो या वृक्ष हों। एक परिक्रमा खुद की भी होती है जो घर इत्यादि में पूजा की समाप्ति पर एक जगह खड़े होकर घूमते हुए की जाती है जो याद दिलाती है कि हमारे भीतर भी  वही प्रभू, वही शक्ति, वही परम सत्य विराजमान हैं जिनकी प्रतिमा की हम अभी-अभी पूजा-अर्चना किए हैं।        

मैंने फिर पूछा कि परिक्रमा प्रतिमा को दाहिने रख कर यानी घड़ी की सूई की चाल के अनुसार ही क्यों की जाती है ?  यह सुन कर वहाँ बैठे एक सज्जन बोले कि इससे आपस में लोग भिड़ने से बचे रहते हैं नहीं तो कोई दाएं से चलेगा और कोई बांए से आएगा तो मार्ग अवरुद्ध होने लगेगा।  
पंडित जी मुस्कुरा कर बोले, ऐसा नहीं है. हमारे यहाँ दाएं भाग को ज्यादा पवित्र और सकारात्मक माना जाता है, इसीलिए जो हमारी सदा रक्षा करते हैं, हर ऊँच-नीच से बचाते हैं, सदा हमारा ध्यान रखते हैं उन प्रभू को हम अपनी दाईं और रख अपने आप को सदा सकारात्मक रहने की याद दिलाते हुए, उनकी परिक्रमा करते हैं।

मैंने पंडित जी से फिर पूछा कि पूजा समाप्ति पर हम "शांति" का उच्चारण तीन बार क्यों करते हैं ?
पंडित जी बोले, शांति एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। यह सब जगह सदा विद्यमान रहती है। जब तक इसे हमारे या हमारे क्रिया-कलापों द्वारा भंग ना किया जाए। इसका यह भी अर्थ है कि हमारी गति-विधियों से ही शांति का क्षय होता है पर जैसे ही यह सब ख़त्म होता है शांति पुन: बहाल हो जाती है। यह जहां भी होती है वहां सदा खुशियों का डेरा रहता है। इसीलिए शांति की प्राप्ति के लिए हम प्रार्थना करते हैं. जिससे हमारी मुसीबतों, दुखों, तकलीफों का अंत होता है और मन को शांति मिलती है। जीवन में कुछ ऐसी  प्राकृतिक आपदाएं होती हैं जिन पर किसी का वश नहीं चलता, जैसे भूकंप, बाढ़ इत्यादि। कुछ ऐसी विपदाएं होती हैं जो हमारे द्वारा या हमारी गलतियों से घटती हैं जैसे प्रदूषण, दुर्घटना, जुर्म इत्यादि।  सारी रुकावटें, दुःख और परेशानियों का कारण तीन स्रोत, आदि-दैविक, आदि-भौतिक, आध्यात्मिक हैं। इसलिए हम प्रभू से प्रार्थना करते हैं कि वे हमारे दुखों, तकलीफों, तथा जीवन में आने वाली अड़चनों का शमन करें। चूँकि ये मुसीबतें तीन ओर से आती हैं इसलिए शांति का उच्चारण भी तीन बार किया जाता है।
शाम गहरा गयी थी पंडित जी को मंदिर का अपना कार्य पूरा करना था, इधर घर पर मेरा इंतजार भी शुरू हो चुका था  इसलिए उनसे आज्ञा और नई जानकारियां ले मैं भी घर की ओर रवाना हो गया।


शनिवार, 8 मार्च 2014

कब तक मुगालते में रहोगी? अरे, अब तो जागो, आधा विश्व हो तुम !!!

आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। फिर उपर से विडंबना यह कि वह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगे।

क्या सचमुच पुरुष केंद्रित समाज महिलाओं को दिल से बराबरी का हकदार मानता है? वैसे ऐसे समाज, जो खुद आबादी का आधा ही हिस्सा है उसे किसने हक दिया महिलाओं के लिए साल में एक दिन निश्चित करने का? आज जरूरत है सोच बदलने की। इस तरह की मानसिकता की जड पर प्रहार करने की। सबसे बडी बात महिलाओं को खुद अपना हक हासिल करने की चाह पैदा करने की। यह इतना आसान नहीं है, हजारों सालों की मानसिक गुलामी की जंजीरों को तोडने के लिए अद्मय, दुर्धष संकल्प और जीवट की जरूरत है। उन प्रलोभनों को ठुकराने के हौसले की जरूरत है जो आए दिन पुरुष उन्हें परोस कर अपना मतलब साधते रहते हैं।


 यह क्या पुरुषों की ही सोच नहीं है कि महिलाओं को लुभाने के लिए साल में एक दिन, आठ मार्च, महिला दिवस जैसा नामकरण कर उनको समर्पित कर दिया है। कोई पूछने वाला नहीं है कि क्यों भाई संसार की आधी आबादी के लिए ऐसा क्यों? क्या वे कोई विलुप्तप्राय प्रजाति है? यदि ऐसा नहीं है तो पुरुषों के नाम क्यों नहीं कोई दिन निश्चित किया जाता? पर सभी खुश हैं। विडंबना है कि वे तो और भी आह्लादित हैं जिनके नाम पर ऐसा दिन मनाया जा रहा होता है और इसे मनाने में तथाकथित सभ्रांत घरानों की महिलाएं बढ-चढ कर हिस्सा लेती हैं।
आश्चर्य होता है, दुनिया के आधे हिस्से के हिस्सेदारों के लिए, उन्हें बचाने के लिए, उन्हें पहचान देने के लिए, उनके हक की याद दिलाने के लिए, उन्हें जागरूक बनाने के लिए, उन्हें उन्हींका अस्तित्व बोध कराने के लिए एक दिन, 365 दिनों में सिर्फ एक दिन निश्चित किया गया है। इस दिन वे तथाकथित समाज सेविकाएं भी कुछ ज्यादा मुखर हो जाती हैं, मीडिया में कवरेज इत्यादि पाने के लिए, जो खुद किसी महिला का सरेआम हक मार कर बैठी होती हैं। पर समाज ने, समाज में  उन्हें इतना चौंधिया दिया होता है कि वे अपने कर्मों के अंधेरे को न कभी देख पाती हैं और न कभी महसूस ही कर पाती हैं। दोष उनका भी नहीं होता, आबादी का दूसरा हिस्सा इतना कुटिल है कि वह सब अपनी इच्छानुसार करता और करवाता है। फिर उपर से विडंबना यह कि वह एहसास भी नहीं होने देता कि तुम चाहे कितना भी चीख-चिल्ला लो, हम तुम्हें उतना ही देगें जितना हम चाहेंगे। जरूरत है महिलाओं को अपनी शक्ति को आंकने की. अपने बल को पहचानने की, अपनी क्षमता को पूरी तौर से उपयोग में लाने की। अपने सोए हुए जमीर को जगाने की।
कब तक मुगालते में रहोगी? अरे, अब तो जागो, आधा विश्व  हो तुम !!!  

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