गुरुवार, 24 जून 2021

बूँदों की सरगम और मानसून के साज पर राग पावस

नन्ही - नन्हीं बूँदों के अलौकिक संगीत के बीच सतरंगी  पुष्पों से श्रृंगार किए, धानी चुनरी ओढ़े, दूब के मखमली गलीचे पर जब प्रकृति, इंद्रधनुषी किरणों के साथ हौले से पग धरती है तो नभ के अमृत - रस से सराबोर हुए पृथ्वी के कण - कण का मन - मयूर नाचने - गाने को बाध्य सा हो जाता है। बसंत यदि ऋतु-राज है तो वर्षा ऋतु-साम्राज्ञी है ! उसी महारानी का अद्भुत श्रृंगार  'मानसून' कहलाता है ! इसके क्रियान्वयन के लिए उन ख़ास हवाओं जरुरत पड़ती है, जो हिंद व अरब महासागर से उठ, हमारे देश को दक्षिण-पश्चिम दिशा से घेर, जमीन की तरफ पानी लेकर आती हैं ! उन्हीं हवाओं को "मानसून" के नाम से जाना जाता है।  ऐसा न हो कि प्रकृति का यह अनुपम, अनमोल तोहफा, राग पावस और बूँदों की सरगम की मधुर ध्वनि किसी कंप्यूटर की डिस्क में ही सिमट कर रह जाए...............!!

#हिन्दी_ब्लागिंग    

इस बार देश में भले ही पिछले सालों जैसी झुलसा देने वाली उतनी लंबी गर्मी न पडी हो, देश के अधिकांश भागों में मानसून ने भी कुछ पहले ही दस्तक दे दी थी। पर दिल्ली समेत कुछ इलाकों में गर्मी ने विदा होने के पहले जून के अंतिम सप्ताह में अपना असली रूप कुछ न कुछ दिखाया जरूर है। हालांकि उसका रौद्र रूप अपने चरम पर नहीं रहा, नाही उतनी पानी की किल्लत हुई पर एक बार तो उसने अपनी उपस्थिति जाहिर कर ही दी। समयानुसार प्रकृति ने फिर करवट बदली है ! कुछ देर से ही सही सकून देने वाली पावस ऋतु के कदमों में बंधी पायल की सुमधुर रिम-झिम ध्वनि सुनाई पड़ने लगी है। धीरे-धीरे सारा देश इस मधुर ध्वनि के आगोश में खो जाने वाला है। इस बार कुछ देर से ही सही पर आकाश से बरसने वाली इस अमृत रूपी बरसात से जल्द ही सिर्फ हमारा देश ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्ला देश भी तृप्त और खुशहाल होने वाले हैं। जून से सितंबर तक होने वाली इस बरसात को जो हवाएं, हिंद और अरब महासागर से उठ, अपने देश को दक्षिण-पश्चिम दिशा से घेर, जमीन की तरफ पानी लेकर आती हैं उन्हीं हवाओं को "मानसून" के नाम से जाना जाता है। मानसून नाम अरबी भाषा के ''मावसिम'' शब्द से आया है।

                                  

इन दिनों की राह तो जैसे सारी कायनात देख रही होती है ! मौसम का यह खुशनुमा बदलाव समस्त चराचर को अभिभूत कर रख देता है। आकाश में जहां सिर्फ आग उगलते सूर्य का राज होता था वहीं अब जल से भरे कारे-कजरारे मेघों का आधिपत्य हो जाता है। उनसे झरती नन्ही-नन्हीं बूँदों के अलौकिक संगीत के बीच जब सतरंगी पुष्पों से श्रृंगार किए, धानी चुनरी ओढ़े, दूब के मखमली गलीचे पर जब प्रकृति, इंद्रधनुषी किरणों के साथ हौले से पग धरती है तो नभ के अमृत-रस से सराबोर हुए पृथ्वी के कण-कण का मन-मयूर नाचने-गाने को बाध्य सा हो जाता है। बसंत यदि ऋतु-राज है तो वर्षा ऋतु-साम्राज्ञी है। प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों से लेकर आज तक शायद ही कोई कवि या रचनाकार हुआ होगा जो इसके प्रेम-पाश से बच सका हो। 


भारत में इसका आगाज तक़रीबन एक जून से हो जाता है, पर इसकी आहट मई के अंतिम हफ्ते से ही सुनाई देने लग जाती है। हमारा मौसम विभाग देश भर के विभिन्न भागों से तापमान, हवा के रुख, बर्फ़बारी, वायुमंडल के दवाब इत्यादि आंकड़ों को ध्यान में रख कई तथ्यों का अध्ययन कर आने वाले मौसम की भविष्यवाणी करता है। पर आंकड़ों में जरा सी चूक आकलन में काफी हेर-फेर ला देती है ! फिर भी इस विभाग की उपयोगिता और उसकी कर्मठता पर सवाल खड़े नहीं किए जा सकते। सवाल तो खड़े होने चाहिए हम पर ! जिनकी  गलतियों का खामियाजा भुगत कर पर्यावरण दूषित हो रहा है ! ''ग्लोबल वार्मिंग'' बढ़ रही है ! यह डर की बात तो है ही और ऐसा लग भी रहा है कि मानसून, जो सदियों से भारत पर सहृदय, दयाल और मेहरबान रहता आया है, वह आने वाले वक्त में अपना समय और दिशा बदल सकता है। उससे हमारे विशाल कृषि प्रधान देश को कितनी समस्याओं का सामना करना पडेगा उसका अंदाज लगाना भी मुश्किल है ! ऐसा न हो कि प्रकृति का यह अनुपम, अनमोल तोहफा, राग पावस और बूँदों की सरगम की मधुर ध्वनि किसी कंप्यूटर की डिस्क में ही सिमट कर रह जाए !    
@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

गुरुवार, 17 जून 2021

 

क्या आप भी बिस्कुट को चाय में डुबो कर खाते हैं

कोई चाहे कुछ भी कहे ! पर बिस्कुट को चाय में भिगो कर खाने का मजा कुछ और ही है ! पर  इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है, जो बिस्कुट के आकार-प्रकार, चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। जहां ग्लूकोज़ बिस्कुट, केक-रस्क या बेकरी के उत्पादों के भिगोने का समय अलग होता है, वहीं "मैरी, थिन-अरारोट या क्रीमक्रैकर'' जैसे बिस्कुटों का कुछ अलग। यह पूरा मामला स्वाद का है ! यदि बिस्कुट पूरा ना भीगे तो उसमें वह लज्जत नहीं आ पाती जिसका रसास्वादन करने को जीभ लालायित रहती है और कहीं ज्यादा भीग जाए तो फिर वह प्याले में डुबकी लगाने से बाज नहीं आता.........!!

हमारी कई ऐसी नैसर्गिक खूबियां हैं, जो बेहतरीन कला होने के बावजूद किसी इनीज-मिनीज-गिनीज रेकॉर्ड में दर्ज नहीं हो पाई हैं। ऐसा नहीं होने का कारण यह भी है कि इस ओर हमने कभी कोई कोशिश या दावा ही नहीं किया है ! ऐसी ही एक नायाब कला है, बिस्कुट को चाय में डुबो, बिना गिराए मुंह तक ले आ कर खाने की ! सुनने-दिखने में बेहद मामूली सा यह काम उतना आसान नहीं है, जितना लगता है। इस सारी प्रक्रिया में बेहद तन्मयता, एकाग्रता, विशेषज्ञता और कारीगरी की जरुरत होती है। यह अपने आप में एक विज्ञान है ! इसके पीछे पूरा एक गणित काम करता है ! हम ऐवंई नहीं गणित में जगतगुरु बन गए थे ! पर चूँकि हमारे यहां और हमारे लिए यह एक आम बात है तथा हम इसे बिना किसी विशेष प्रयास के सरलता से अंजाम दे देते हैं, इसलिए इसे बच्चों का खेल समझ इसकी पेचीदगी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। पर अपने-आप को मॉडर्न समझने वाले या नीम-विदेशी इसे चाहे कितनी भी हिकारत की नज़र से देखें, उससे इस विज्ञान की अहमियत कम नहीं हो जाती।


तक़रीबन हर नई तकनीक, विधा, खोज, शहरों से गांवों की तरफ जाती है। पर मुझे लगता है, चाय-बिस्कुट की यह कला गांवों से शहर की ओर आई होगी। अंग्रेजों ने 1826 में हमसे चाय का इंट्रो करवाया ! उसके करीब 66 वर्षों बाद 1892 में हमने बिस्कुट का स्वाद चखा। पर इन ''नेमतों'' को गांव-देहात पहुँचने में काफी वक्त लग गया ! यह और बात है कि चाय पहले पहुँच लोगों के ऐसे मुंह लगी कि सर पर चढ़ कर बैठ गई। अब गांव में काम पर जाने के पहले रोटी चाय के साथ खाई जाने लगी ! हो सकता है रोटी को चाय में डुबो कर खाने में उसका स्वाद और नरमाई ज्यादा स्वादिष्ट लगने के कारण अत्यधिक लोकप्रिय हो गई हो और सालों बाद जब गांव और शहर के फासले मिटने लगे, दूरियां कम हो गईं तब यह कला रोटी से बिस्कुट तक आ शहरों तक आ गई !


वैसे इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है ! जो बिस्कुट के आकार-प्रकार, चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। जहां ग्लूकोज़ बिस्कुट, केक-रस्क या ''बेकरी'' के उत्पादों को भिगोने का समय अलग होता है, वहीं "मैरी, थिन-अरारोट या क्रीम-क्रैकर जैसे बिस्कुटों का कुछ अलग। यह नैसर्गिक कला हमें विरासत में मिलती चली आई है। पहले बिस्कुटों की इतनी विभिन्न श्रेणियाँ नही होती थीं । परन्तु तरह-तरह के बिस्कुट, केक, रस्क या टोस्ट के बाजार में आ जाने के बावजूद हमें कोई दिक्कत पेश नहीं आई है। हमारी प्राकृतिक सूझ-बूझ ने सब के साथ अपनी "टाइमिंग" सेट कर ली है। 

यह पूरा मामला स्वाद का है ! यदि बिस्कुट पूरा ना भीगे तो उसमें वह लज्जत नहीं आ पाती जिसका रसास्वादन करने को जीभ लालायित रहती है और कहीं ज्यादा भीग जाए तो फिर वह प्याले में डुबकी लगाने से बाज नहीं आता। यह सारा काम सेकेण्ड के छोटे से हिस्से में पूरा करना होता है। यदि बिस्कुट चाय के प्याले में गिर गया तो समझिए कि आपकी चाय की ऐसी की तैसी हो गयी। उसका पूरा स्वाद बदल जाता है। और बिस्कुट की तो बात ही छोड़ें, वह तो प्याले में गोता लगा, किसी और ही गति को प्यारा हो चुका होता है। पर हमारे यहां ऐसे हादसे नहीं के बराबर ही होते हैं। इक्का-दुक्का होता भी है तो, ट्रेनिंग के दौरान बच्चों से या चाय पीते वक्त ध्यान कहीं और होने से हो जाता है ! अब चूंकि विदेशी हमारी इस विधा को समझ नहीं पाए और उनकी नक़ल में उनके पिच्छलग्गु हमारे तथाकथित विकसित देशवासी, इस कला को अपना नहीं पाए, इसीलिए उन सबने इस उच्च कोटि की विधा को फूहड व कमतर आंकने या अंकवाने का दुष्प्रचार चला रखा है। पर कुछ भी हो, कोई कुछ भी कहे ! कितना भी भरमाए ! हमें अपनी यह विरासत जिंदा रखनी है ! इस कला को पोषित करते रहना है ! इसे कला जगत में इसका अपेक्षित सम्मान दिलवाना है, बिस्कुट को भिगो कर ही खाना है ! 

@ जरुरी सलाह - यदि कभी गलती से बिस्कुट कप में गिर जाए तो उसे कभी भी बचाने या निकालने की कोशिश ना करें ! आज तक इसमें कभी सफलता नहीं मिल पाई है।
@ सभी चित्र अंतर्जाल से  

क्या आप भी बिस्कुट को चाय में डुबो कर खाते हैं

कोई चाहे कुछ भी कहे ! पर बिस्कुट को चाय में भिगो कर खाने का मजा कुछ और ही है ! पर  इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है, जो बिस्कुट के आकार-प्रकार, चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। जहां ग्लूकोज़ बिस्कुट, केक-रस्क या बेकरी के उत्पादों के भिगोने का समय अलग होता है, वहीं "मैरी, थिन-अरारोट या क्रीमक्रैकर'' जैसे बिस्कुटों का कुछ अलग। यह पूरा मामला स्वाद का है ! यदि बिस्कुट पूरा ना भीगे तो उसमें वह लज्जत नहीं आ पाती जिसका रसास्वादन करने को जीभ लालायित रहती है और कहीं ज्यादा भीग जाए तो फिर वह प्याले में डुबकी लगाने से बाज नहीं आता.........!!

हमारी कई ऐसी नैसर्गिक खूबियां हैं, जो बेहतरीन कला होने के बावजूद किसी इनीज-मिनीज-गिनीज रेकॉर्ड में दर्ज नहीं हो पाई हैं। ऐसा नहीं होने का कारण यह भी है कि इस ओर हमने कभी कोई कोशिश या दावा ही नहीं किया है ! ऐसी ही एक नायाब कला है, बिस्कुट को चाय में डुबो, बिना गिराए मुंह तक ले आ कर खाने की ! सुनने-दिखने में बेहद मामूली सा यह काम उतना आसान नहीं है, जितना लगता है। इस सारी प्रक्रिया में बेहद तन्मयता, एकाग्रता, विशेषज्ञता और कारीगरी की जरुरत होती है। यह अपने आप में एक विज्ञान है ! इसके पीछे पूरा एक गणित काम करता है ! हम ऐवंई नहीं गणित में जगतगुरु बन गए थे ! पर चूँकि हमारे यहां और हमारे लिए यह एक आम बात है तथा हम इसे बिना किसी विशेष प्रयास के सरलता से अंजाम दे देते हैं, इसलिए इसे बच्चों का खेल समझ इसकी पेचीदगी की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। पर अपने-आप को मॉडर्न समझने वाले या नीम-विदेशी इसे चाहे कितनी भी हिकारत की नज़र से देखें, उससे इस विज्ञान की अहमियत कम नहीं हो जाती।


तक़रीबन हर नई तकनीक, विधा, खोज, शहरों से गांवों की तरफ जाती है। पर मुझे लगता है, चाय-बिस्कुट की यह कला गांवों से शहर की ओर आई होगी। अंग्रेजों ने 1826 में हमसे चाय का इंट्रो करवाया ! उसके करीब 66 वर्षों बाद 1892 में हमने बिस्कुट का स्वाद चखा। पर इन ''नेमतों'' को गांव-देहात पहुँचने में काफी वक्त लग गया ! यह और बात है कि चाय पहले पहुँच लोगों के ऐसे मुंह लगी कि सर पर चढ़ कर बैठ गई। अब गांव में काम पर जाने के पहले रोटी चाय के साथ खाई जाने लगी ! हो सकता है रोटी को चाय में डुबो कर खाने में उसका स्वाद और नरमाई ज्यादा स्वादिष्ट लगने के कारण अत्यधिक लोकप्रिय हो गई हो और सालों बाद जब गांव और शहर के फासले मिटने लगे, दूरियां कम हो गईं तब यह कला रोटी से बिस्कुट तक आ शहरों तक आ गई !


वैसे इस काम में "टाइमिंग" बहुत मायने रखती है ! जो बिस्कुट के आकार-प्रकार, चाय (दूध या कॉफी) की गर्माहट, कप की मुंह से दूरी आदि से तालमेल बिठा कर तय होती है। जहां ग्लूकोज़ बिस्कुट, केक-रस्क या ''बेकरी'' के उत्पादों को भिगोने का समय अलग होता है, वहीं "मैरी, थिन-अरारोट या क्रीम-क्रैकर जैसे बिस्कुटों का कुछ अलग। यह नैसर्गिक कला हमें विरासत में मिलती चली आई है। पहले बिस्कुटों की इतनी विभिन्न श्रेणियाँ नही होती थीं । परन्तु तरह-तरह के बिस्कुट, केक, रस्क या टोस्ट के बाजार में आ जाने के बावजूद हमें कोई दिक्कत पेश नहीं आई है। हमारी प्राकृतिक सूझ-बूझ ने सब के साथ अपनी "टाइमिंग" सेट कर ली है। 

यह पूरा मामला स्वाद का है ! यदि बिस्कुट पूरा ना भीगे तो उसमें वह लज्जत नहीं आ पाती जिसका रसास्वादन करने को जीभ लालायित रहती है और कहीं ज्यादा भीग जाए तो फिर वह प्याले में डुबकी लगाने से बाज नहीं आता। यह सारा काम सेकेण्ड के छोटे से हिस्से में पूरा करना होता है। यदि बिस्कुट चाय के प्याले में गिर गया तो समझिए कि आपकी चाय की ऐसी की तैसी हो गयी। उसका पूरा स्वाद बदल जाता है। और बिस्कुट की तो बात ही छोड़ें, वह तो प्याले में गोता लगा, किसी और ही गति को प्यारा हो चुका होता है। पर हमारे यहां ऐसे हादसे नहीं के बराबर ही होते हैं। इक्का-दुक्का होता भी है तो, ट्रेनिंग के दौरान बच्चों से या चाय पीते वक्त ध्यान कहीं और होने से हो जाता है ! अब चूंकि विदेशी हमारी इस विधा को समझ नहीं पाए और उनकी नक़ल में उनके पिच्छलग्गु हमारे तथाकथित विकसित देशवासी, इस कला को अपना नहीं पाए, इसीलिए उन सबने इस उच्च कोटि की विधा को फूहड व कमतर आंकने या अंकवाने का दुष्प्रचार चला रखा है। पर कुछ भी हो, कोई कुछ भी कहे ! कितना भी भरमाए ! हमें अपनी यह विरासत जिंदा रखनी है ! इस कला को पोषित करते रहना है ! इसे कला जगत में इसका अपेक्षित सम्मान दिलवाना है, बिस्कुट को भिगो कर ही खाना है ! 

@ जरुरी सलाह - यदि कभी गलती से बिस्कुट कप में गिर जाए तो उसे कभी भी बचाने या निकालने की कोशिश ना करें ! आज तक इसमें कभी सफलता नहीं मिल पाई है।
@ सभी चित्र अंतर्जाल से  

मंगलवार, 15 जून 2021

मेरी शेव को तो आपकी भाभी तक नोटिस नहीं करतीं

हमें लगता है कि मुझे देख लोग क्या कहेंगे ! अरे कौन से लोग ? दुनिया में कौन है जो पूरी तरह से देवता का रूप ले कर पैदा हुआ है ? हरेक इंसान में कोई ना कोई कमी होती है ! यह जो निर्माता से पैसा लेकर, मीडिया पर अवतरित हो, हमें उल्टी-सीधी चीजें बेचने की कोशिश करते हैं, वे खुद तरह-तरह की पच्चीसों बिमारियों-व्याधियों से घिरे हुए हैं। दुनिया में गोरों की संख्या से कहीं ज्यादा काले, पीले, गेहुएं रंग वालों की आबादी है। एक अच्छी खासी तादाद नाटे लोगों की है। करोंड़ों लोगों का वजन जिंदगी भर पचास का आंकड़ा नहीं छू पाता ! लाखों लोग मोटापे की वजह से ढंग से हिल-ड़ुल नहीं पाते ! गंजेपन से तंग-हार कर उसे फैशन ही बना दिया गया है ........................!!

#हिन्दी_ब्लागिंग      

मेरे  मित्र त्यागराजनजी बहुत सीधे, दुनियादारी से परे एक सरल ह्रदय और खुशदिल इंसान हैं। किसी पर भी शक, शुबहा, अविश्वास करना तो उन्होंने जैसे सीखा ही नहीं है। अक्सर अपने-अपने काम से लौटने के बाद हम संध्या समय चाय-बिस्कुट के साथ अपने सुख-दुख बांटते हुए दुनिया जहान को समेटते रहते हैं। पर कल जब वह आए तो कुछ अनमने से लग रहे थे ! जैसे कुछ बोलना चाहते हों पर झिझक रहे हों ! मैंने पूछा कि क्या बात है ? कुछ परेशान से लग रहे हैं ! वे बोले, नहीं ऐसी कोई बात नहीं है ! मैंने कहा, कुछ तो है, जो आप मूड़ में नहीं हैं। वे धीरे से मुस्कुराए और बोले, कोई गंभीर बात नहीं है, बस ऐसे ही कुछ उल्टे-सीधे, बेतुके से विचार बेवजह भरमाए हुए हैं। सुनोगे तो आप बोलोगे कि पता नहीं आज कैसी बच्चों जैसी बातें कर रहा हूं ! मैंने कहा, अरे, त्यागराजन जी हमारे बीच ऐसी औपचारिकता कहां से आ गई ! जो भी है खुल कर कहिए ! क्या बात है। 

थोड़ा सा प्रकृतिस्ठ हो वे बोले, टी.वी. में दिन भर इतने सारे विज्ञापन आते रहते हैं, तरह-तरह के दावों के साथ ! जिनमें से अधिकतर गले से नहीं उतरते ! जबकि उनमें से अधिकांश को कोई सेलेब्रिटी या समाज के शिखर पर बैठी बड़ी-बड़ी हस्तियां पेश करती हैं। अपने दावों का सच तो प्रस्तुत करने वाले भी जानते ही होंगे ! फिर उनकी क्या मजबूरी है जो आम आदमी को गलत संदेश दे उसे भ्रमित करते रहते हैं ! ना उन्हें पैसे की कमी है, ना हीं शोहरत की ! फिर क्यूं वे ऐसा करते हैं ? अब जैसे मैं एक क्रीम शाहरूख के समझाने से वर्षों से लगा रहा हूँ ! पर मेरा रंग वैसे का वैसा ही सांवला है। मुझे लगा कि इतना बड़ा हीरो है, झूठ थोड़े ही बोलेगा मेरी स्किन में ही कोई गड़बड़ी होगी ! 

क्या कभी आपने परफ्यूम लगाए किसी ऐंड़-बैंड़ छोकरे के पीछे बदहवास सी कन्याओं को दौड़ते देखा है ? अरे, महिलाएं बेवकूफ नहीं होतीं, उनमें पुरुषों से ज्यादा शऊर, सलीका व मर्यादा होती है ! अच्छे-बुरे की पहचान युवकों से ज्यादा होती है  

मैं अपनी हंसी दबा कर बोला, क्या महाराज, आप भी किसकी बातों में आ गए ! अरे, वहां सब पैसों का खेल है ! उनकी कीमत चुकाओ और कुछ भी करवा या बुलवा लो ! उसकी बातों में सच्चाई होती तो उस क्रीम के निर्माता अपनी फैक्टरी अफ्रीका में लगाए बैठे होते, जहां चौबिसों घंटे बारहों महीने लगातार उत्पादन कर भी वे वहां की जरूरत पूरी नहीं कर पाते, पर करोंड़ों कमा रहे होते। 

त्यागराजन जी कुछ उत्साहित हो बोले, वही तो ! मैं समझ तो रहा था, पर ड़ाउट क्लियर करना चाहता था। जैसे मैं एक बहु-विज्ञापित ब्लेड़ से दाढी बनाते आ रहा हूं ! शेव करने के बाद बाहर किसी कन्या की तो बात ही छोड़िए, आपकी भाभी तक ने भी कभी नोटिस नहीं किया कि मैंने शेव बनाई भी है कि नहीं ! पर उधर इस ब्लेड के विज्ञापन में शेव बनने की देर है, कन्या हाजिर। वैसे आप तो मुझे जानते ही हैं कि यदि ऐसा कोई हादसा मेरे शेव करने पर होता तो मैं तो शेव बनाना ही बंद कर देता।  

मैं बोला, यह सब बाजार की तिकड़में हैं ! जिनमें रत्ती भर भी सच्चाई नहीं होने पर भी लोग बेवकूफ बनते रहते हैं। इनका निशाना खासकर युवा वर्ग होता है। आप ही एक बात बताईए, आप अपने काम के सिलसिले में इतना घूमते हैं ! हर छोटे-बड़े शहर में आपका आना-जाना होता है, पर क्या कभी आपने परफ्यूम लगाए किसी ऐंड़-बैंड़ छोकरे के पीछे बदहवास सी कन्याओं को दौड़ते देखा है ? अरे, महिलाएं बेवकूफ नहीं होतीं, उनमें पुरुषों से ज्यादा शऊर, सलीका व मर्यादा होती है ! अच्छे-बुरे की पहचान भी युवकों से कहीं ज्यादा होती है ! मुझे तो आश्चर्य है कि महिलाओं की प्रगति की बात करने वाले किसी भी संगठन ने ऐसे घटिया विज्ञापनों और उनके बनाने वालों पर तुरंत कार्यवाही क्यों नहीं की ! 

अच्छा एक बात बताईए ! आप भाभीजी के साथ साड़ी वगैरह तो लेने गये होंगे ? कभी किसी भी दुकान में विक्रेता को इन विज्ञापनों की तरह लटके-झटकों के साथ साड़ी बेचते देखा है ? कभी किसी बीमा एंजेंट को बस या ट्रेन में बीमा पालिसी बेचते देखा है ? किसी भी पैथी की दवा खा कर कोई शतायू हो सका है ? किसी पेय को पी कर किसी बच्चे को ताड़ सा लंबा, बलवान या कुशाग्र बनते देखा है ? किसी भी डिटर्जेंट से नए कपडे जैसी सफाई हो पाती है ? सारे कीट नाशक, साबुन, हैण्ड वाश अपने 99.9 वाले दावे से कानून से क्यूँ और कैसे बचे रह जाते हैं ? यह सब सिर्फ बाजार के इंसान के दिलो-दिमाग में घर किए बैठे किसी अनहोनी के डर का फायदा उठा अपने अस्तित्व को बचाए रखने की तिकड़में भर हैं !  

हमें सदा अपनी कमजोरियां दिखती हैं ! इसीलिए हम अपनी खूबियों को नजरंदाज करते रहते हैं। हमें लगता है कि मैं ऐसा हूं तो लोग क्या कहेंगे ! अरे कौन से लोग ? किसे फुरसत है किसी को देखने, आंकने की ! वैसे भी दुनिया में कौन ऐसा है जो पूरी तरह से देवता का रूप ले कर पैदा हुआ हो बिना किसी खामी के ? हरेक इंसान में कोई ना कोई कमी होती ही है ! यह जो निर्माता से पैसा लेकर, मीडिया पर अवतरित हो, उल्टी-सीधी चीजें हमें बेचने की कोशिश करते हैं, वे खुद तरह-तरह की पच्चीसों बिमारियों-व्याधियों से घिरे हुए हैं ! दुनिया में गोरों की संख्या से कहीं ज्यादा काले, पीले, गेहुएं रंग वालों की तादाद है। एक अच्छी खासी तादाद नाटे लोगों की है। करोंड़ों लोगों का वजन जिंदगी भर पचास का आंकड़ा नहीं छू पाता। लाखों लोग मोटापे की वजह से ढंग से हिल-ड़ुल नहीं पाते ! गंजेपन से तंग-हार कर उसे फैशन ही बना दिया गया है........! 

अब आप जरा अपनी ओर देखिए ! इस उम्र में आज भी आप पांच-सात कि.मी. चलने के बावजूद थकान महसूस नहीं करते ! किसी शारीरिक व्याधि से कोसों दूर हैं। छूट-पुट समस्या को छोड़ दें तो दवा-दारु और उसके खर्चों से बचे हुए हैं ! अपने सारे काम बिना सहायक के पूरे करने में सक्षम हैं ! यह भी तो भगवान की अनमोल देन है आपको ! आप जो हैं खुद में एक मिसाल हैं, अपने लिए ! इन टंटों में ना पड़ मस्त रहिए ! खुश और बिंदास होकर प्रभू द्वारा दी गई जिंदगी का आनंद लीजिए। 

मेरे इतने लंबे भाषण से त्यागराजनजी को कुछ-कुछ रिलैक्स होता देख मैंने अंदर की ओर आवाज लगाई कि क्या हुआ भाई, आज चाय अभी तक नहीं आई ? तभी श्रीमतीजी चाय की ट्रे लिए नमूदार हो गयीं। चाय का पहला घूंट लेते ही त्यागराजनजी बोल पड़े, भाभीजी यह टीवी पर दिखने वाली वही ताजगी वाली चाय है ना, जिसमें पांच-पांच जड़ी-बूटियां पड़ी होती हैं ?

बहुत रोकते, रोकते भी मेरा ठहाका निकल ही गया ! 


@करीब ग्यारह साल पुरानी रचना, आज भी सामयिक 

शनिवार, 12 जून 2021

कुछ समस्याओं का हल, सिर्फ नजरंदाजगी

आज देश की राजनीती में सक्रिय अधिकांश लोग, अपना क्षेत्र छोड़ किसी दूसरे प्रदेश में चले जाएं तो उनको कोई पहचाने ही ना ! उन लोगों को भी यह सच्चाई अच्छी तरह पता है, इसीलिये वे लाइमलाईट में, लोगों के जेहन में बने रहने के लिए, कुछ भी करने-बोलने में हिचकते नहीं ! अपनी दुकान चलाते रहने के लिए वे कुछ भी बेचने को तैयार रहते हैं ! भले ही इसके लिए कितनी भी लानत-मलानत क्यों ना हो जाए..............!!

#हिन्दी_ब्लागिंग
यदि कोई दिग्भ्रमित व्यक्ति आदतन अनर्गल बकवास करता है तो उस पर बिल्कुल ध्यान ना दे नजरंदाज कर देना चाहिए ! Just ignore ! सिर्फ इतना करते ही उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। इसके विपरीत उस पर तवज्जो या उसके कहे पर ध्यान देते ही, हाशिए पर समेट दिए गए ऐसे लोगों का मकसद पूरा हो जाता है ! अनगिनत बार यह देखा जा चुका है कि ऐसे घाघ कुछ भी बकवासी वायदा करते समय ये अच्छी तरह जानते हैं कि वैसा कुछ कभी होने वाला नहीं है ! पर यह जरूर सुनिश्चित कर लेते हैं कि उस समय वे विदेशी कवरेज में जरूर हों ! खुद को चर्चित बनाने के पीछे उनके एक भय और आशंका का भी बहुत बड़ा हाथ होता है, उन्हें अच्छी तरह मालुम है कि एक हरिबोल के बाद ना उनकी कोई औकात रहेगी नाहीं उनका कोई नामलेवा ! इसीलिए बिन पानी की मछली की तरह तड़फड़ाते रहते हैं !
इनको ख़त्म करने का सरल सा उपाय है, इनकी उपेक्षा ! जैसे सर्दी जुकाम का कोई इलाज नहीं है, पर उस पर ध्यान ना दे, सिर्फ शरीर को आराम देने से उसके कीटाणु नष्ट हो जाते हैं ठीक उसी तरह इनके क्रिया-कलापों-बतौलेबाजी को अनदेखा-अनसुना कर इनसे छुटकारा पाया जा सकता है
एक बार गायक सोनू निगम ने खुद को जांचने के लिए, अपनी लोकप्रियता का आंकलन करने के लिए, बिना किसी को अपनी पहचान बताए, सडक किनारे बैठ चार-पांच घंटे अपने गाने गाए तो राहचलतों द्वारा इस दौरान उन्हें सिर्फ 13 रुपये मिले थे। उन्होंने खुद स्वीकार किया कि यदि कोई तामझाम न हो, किसी का हाथ न हो, गाॅड फादर न हो, हो-हल्ला ना हो तो लोग ध्यान ही नहीं देते, पहचानते ही नहीं !

आज देश की राजनीती में सक्रिय अधिकांश लोग, अपना क्षेत्र छोड़ किसी दूसरे प्रदेश में चले जाएं तो उनको कोई पहचाने ही ना ! उन लोगों को भी यह सच्चाई अच्छी तरह पता है, इसीलिये वे लाइमलाईट में, लोगों के जेहन में बने रहने के लिए, कुछ भी करने-बोलने में हिचकते नहीं ! अपनी दुकान चलाते रहने के लिए वे कुछ भी बेचने को तैयार रहते हैं ! भले ही इसके लिए कितनी भी लानत-मलानत क्यों ना हो जाए ! इनको देश, समाज या देशवासियों से कोई मतलब नहीं होता इनका ध्येय सिर्फ खुद का हित होता है ! इनकी सत्तालोलुपता इनसे कुछ भी करवाने में सफल रहती है ! इनको ख़त्म करने का सरल सा उपाय है, इनकी पूरी तरह उपेक्षा ! जैसे सर्दी-जुकाम का कोई इलाज नहीं है, पर उस पर ध्यानं ना दे सिर्फ शरीर को आराम देने से उस रोग के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, ठीक उसी तरह इन जरासीमों के क्रियाकलाप और बतौलेबाजी को पूरी तरह नजरंदाज कर इनके मंसूबों पर पानी फेरा जा सकता है। बाकी ऊपर बैठा ''वो'' तो सब देख ही रहा है ! हमें तो उसके देर से ही सही पर होने वाले न्याय का इन्तजार है।

शुक्रवार, 11 जून 2021

दिल को देखो, चेहरा ना देखो

तक़रीबन सभी प्रमुख दलों के सर्वोच्च पदों पर कुछ लुभावने, आकर्षक व सुंदर मुखड़ों का वर्चस्व रहता है ! कुछ सुप्रीमो, प्रभु प्रदत्त अपनी इस नेमत को मानव कौशल की छेनी-हथोड़ी से सुधरवाने की कोशिश करते हैं। पर यदि उनका खुद का सांचा और समय का गणित उसमें बाधा खड़ी करता है तो वे अपने धन-बल व साख से खुद के चहुंओर आकर्षक व सुंदर चेहरों की बाड़ लगा लेते हैं। ऐसों का अपने प्रवचनों के दौरान जब कभी मुंह खुलता है, तो सहसा उन पुरानी हवेलियों और महलों की छतों इत्यादि में पानी की निकासी के लिए बनी, भव्य और नक्काशीदार नालियों की याद आ जाती है जो खुद तो बनावट में सुंदर व आकर्षक होती हैं, पर उनमें से निकलने वाला पानी गंदगी और दुर्गन्धयुक्त होता है.............!!

#हिन्दी_ब्लागिंग    

चेहरे के बारे में किशोर कुमार कहते-कहते चले गए कि इस लुटेरे से बच कर रहो, दिल की बात सुनो ! उनके पहले और बाद में भी बहुत से लोगों ने चेहरों से सावधान रहने को बहुत कुछ कहा है ! पर हम सदा चेहरे की लुनाई, उसकी सुंदरता, उसकी मनमोहकता पर रीझ उस पर फ़िदा होते रहे हैं। समाज के हर क्षेत्र में लियाकत के साथ-साथ सुंदर व आकर्षक चेहरा सफलता के मापदंडों में प्रमुख भूमिका निभाता रहा है !राजनीती को ही देख लें ! तक़रीबन सभी प्रमुख दलों के सर्वोच्च पदों पर लुभावने, आकर्षक व सुंदर मुखड़ों का वर्चस्व रहता है ! यदि कुछ सुप्रीमो खुद इस कसौटी पर कहीं नहीं ठहरते तो वे प्रभु प्रदत्त अपनी इस नेमत को मानव कौशल की छेनी-हथोड़ी से सुधरवाने की कोशिश करते हैं। पर यदि उनका खुद का सांचा और समय का गणित उसमें बाधा खड़ी करता है तो वे अपने धन-बल व साख से खुद के चहुंओर आकर्षक व सुंदर चेहरों की बाड़ लगा लेते हैं। भले ही मुंह खोलते ही उनकी औकात सामने आ जाती हो ! पर उनके ग्लैमर से चूंधियाई हुई आम जनता की तालियों की आवाज, परिणाम आने तक ही सही, पार्टी में जान सी फूँक देती है !  

इनके दल या उसके प्रमुख पर इनके क्रिया-कलापों की वजह से भले ही देश-विदेश में लानत-मलानत हो रही हो ! पर ये बिना किसी हिचक या शर्म के दूसरे की राई बराबर चूक को पहाड़ सा दर्शाते, सिद्ध करते मीडिया पर आ बतौलेबाजी करने लगते हैं

हमारा देश त्योहारों का देश है और हम, उत्सव प्रियः मानवा:। धीरे-धीरे हमारे चुनाव भी एक तरह के उत्सव में बदल गए हैं। अब उत्सव है तो मौज-मस्ती-हंसी-ठिठोली "इज ए मस्ट" ! सो इस त्यौहार के आते ही लुभावने-सलोने चेहरों की मांग बढ़ जाती है। जो ज्यादातर "शो या लोकप्रिय बिजनेस" से ताल्लुक रखते हैं। इनमें इक्के -दुक्के को छोड़ अधिकतर ऐसे होते हैं जिन्हें देश-समाज-गरीब-गुरबों की कोई चिंता नहीं होती ! उन्हें तो उनकी खुदगर्जी और राजनितिक दल की मज़बूरी इस स्टेज पर ले आती है ! वे तो अपने अस्ताचलगामी समय को भांप कर, लोगों में अपनी पहचान और अपने अतीत की यादों को बचाए रखने के लिए, जिस किसी भी पार्टी की तरफ से ज्यादा लुभावना प्रस्ताव मिलता है, उसी के हिमायती बन उसकी खिदमत और तीमारदारी में जुट उसके कहेनुसार "डॉयलाग डिलीवरी" कर अवाम और समाज को बरगलाने में लग जाते हैं ! 

ऐसे बहुत से मतलबपरस्त हैं, जो कभी इधर कभी उधर मंडराते हुए, अपने हितों को साधते रहते हैं ! कुछ ऐसे भी होते हैं जो अचानक मिल गई सत्ता, ताकत, लोकप्रियता को संभाल नहीं पाते ! फिर उनको किसी का लिहाज नहीं रहता। ना उम्र का ! ना पद का ! नाहीं देश की गरिमा या मान-सम्मान का ! ऐसों का प्रवचनों के दौरान जब कभी मुंह खुलता है, तो सहसा उन पुरानी हवेलियों और महलों की छतों इत्यादि में पानी की निकासी के लिए बनी, भव्य और नक्काशीदार नालियों की याद आ जाती है जो खुद तो बनावट में सुंदर व आकर्षक होती हैं, पर उनमें से निकलने वाला पानी गंदगी और दुर्गन्धयुक्त होता है ! ऐसे मतलबपरस्त लोग अपने आकाओं की नाकामयाबियों पर पर्दा डालने, उनको छिपाने के लिए दूसरों पर अनवरत विष-वमन करते रहते हैं। जो इनका एकमात्र और एक सूत्रीय कार्यक्रम रहता है ! जिसके लिए इनकी औकात से ज्यादा भुगतान इन्हें किया जाता है। इनके दल या उसके प्रमुख पर इनके क्रिया-कलापों की वजह से भले ही देश-विदेश में लानत-मलानत हो रही हो ! पर ये बिना किसी हिचक या शर्म के दूसरे की राई बराबर चूक को पहाड़ सा दर्शाते, सिद्ध करते मीडिया पर आ बतौलेबाजी करने लगते हैं। 

आजकल हर चीज पराकाष्ठा को प्राप्त हो चुकी है। नफ़रत, द्वेष, ईर्ष्या की कोई हद नहीं रही है। आज जो ज्यादा अंतहीन बकवास कर सकता हो, स्तरहीन भाषा का इस्तेमाल कर सकता हो, निम्न कोटि के शब्दों का प्रयोग कर सकता हो, वही ज्यादातर पार्टीयों के प्रमुख प्रवक्ता का पद हासिल कर पाता है ! बशर्ते चेहरा लुभावना हो ! विपक्ष में ऐसे लोगों की भरमार है ! उनमें से कुछ पूर्वाग्रही और कुंठित लोगों को सिर्फ बाल की खाल निकालने, बात का बतंगड़ बनाने, सच पर झूठ का मुलम्मा चढ़ाने और दूसरे को किसी भी तरह दोषी ठहराने का काम सौंपा गया है ! इनको अपने इतिहास, अपने आकाओं की गलतियों और अपनी पार्टी की गलत नीतियों से कोई मतलब नहीं होता ! ये सिर्फ इन्तजार करते हैं कि सामने वाला कभी भी, कहीं भी कुछ भी बोले और ये अपनी सर्पजिह्वा से वैमनस्य फैलाना शुरू करें ! सोशल मीडिया पर तो छुद्र कोटि के ऐसे निम्न सोच वाले लोग बैठे हैं जो हर बात को ''शिट और पी'' (इन्हीं शब्दों का उपयोग कर) के समकक्ष बनाने में कोई गुरेज नहीं करते ! पता नहीं कैसी मानसिकता और सोच है ! ये इंसान हैं या कौवे, जिसका ध्यान सिर्फ गंदगी पर रहता है !

यह जरुरी नहीं कि हर किसी की विचारधारा एक हो ! इतना बड़ा देश है ! अथाह आबादी है ! सबकी अपनी-अपनी निष्ठा है ! अपनी-अपनी सोच है ! किसी की पसंद-नापसंद उसका अपना व्यक्तिगत मामला है। अच्छी बात है, विविधता होनी भी चाहिए। पर जब देश की बात हो, देश के प्रधान की बात हो, तब वह इंसान या व्यक्तिगत बात नहीं रह जाती। वह देश के मान-सम्मान, विदेशों में उसकी साख की बात बन जाती है। कोई व्यक्ति विशेष का विरोध करे, बात समझ में आती है। पर अपने स्वार्थ, अपने हित, अपनी महत्वकांक्षा की पूर्ती के लिए देश के गरिमामय पद की बदनामी की जाए, उस पर लांछन लगाए जाऐं, उसकी हर बात को गलत सिद्ध किया जाए, यह तो किसी भी तरह बर्दास्त करने की बात नहीं है ! कहा भी गया है की भय के बिना प्रीत नहीं होती ! तो आज उसी भय की सख्त जरुरत है ! यह भी सही है कि हमारे देश की रीती रही है कि यदि किसी के गलत काम का सौ लोग विरोध करते हैं तो दस उसके पक्ष में भी आ खड़े होते हैं ! उन्हीं दस की शह पर वह और कुकर्म करता जाता है ! तो आज उस कुकर्म करने वाले के साथ ही उन दस लोगों को भी सबक सिखाने की सख्त जरुरत है ! इसके लिए चाहे कुछ भी करना पड़े ! वृक्ष को स्वस्थ रख पर्यावरण बचाना है तो पहले दीमकों और कीड़ों का नाश तो करना ही पडेगा !

सोमवार, 7 जून 2021

श्रीकृष्ण जी की लीला का अंतिम दिन , 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व

कुरुक्षेत् युद्ध के 35 साल बीत चुके थे। समय निर्बाध गति से चलता रहा। समृद्धि, सम्पदा और वैभव के साथ-साथ धीरे-धीरे यदुवंशी युवाओं में उच्श्रृंखलता, बेअदबी, निरंकुशता भी घर करने लगी थी ! वे सभी सुरा-भोग-विलास में लिप्त रहने लगे थे। चारों ओर अपराध, अमानवीयता और पाप का साया गहराने लगा था। बुजुर्गों और गुरुओं का अपमान, असम्मान, आपसी निंदा, द्वेष जैसी भावनाओं की दिन-रात बढ़ोत्तरी होने लगी थी। क्या ऐसा प्रभु ने  ही गांधारी और ऋषियों के वचन को पूरा करने के लिए किया था या फिर लीला रूपी माया को समेटने का समय आ गया था...............!! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 

श्रीकृष्ण को मालुम था कि वे जहां जा रहे हैं वहां क्या होने वाला है ! उनका सामना अपने पूरे कुल और सारे पुत्रों की मृत्यु के शोक में डूबी, रौद्र रूपेण उस माँ से होने जा रहा था, जो श्रीकृष्ण को ही इन सब घटनाओं और युद्ध का उत्तरदाई मानती रहीं ! वह कुछ भी कर सकती थी ! पर फिर भी वे सांत्वना देने के लिए गांधारी के कक्ष की ओर निर्विकार रूप से बढे जा रहे थे ! फिर जो होना था वही हुआ ! क्योंकि विधि के विधान में पक्षपात नहीं होता ! उसमें सब बराबर होते हैं ! आप कितने बड़े महापुरुष, धर्मात्मा, राजाधिराज, प्रभु के अंश या अवतार ही क्यों ना हों ! अपने कर्मों का फल सभी को भोगना पड़ता है ! 

भगवान श्रीकृष्ण जब गांधारी के सामने पहुंचे, तो गांधारी का अपने क्रोध पर वश नहीं रहा ! बिना कुछ सोचे-समझे उन्होंने श्रीकृष्ण को श्राप दे डाला ! “अगर मैंने प्रभु की सच्चे मन से पूजा तथा निस्वार्थ भाव से अपने पति की सेवा की है, तो जैसे मेरे सामने मेरे कुल का हश्र हुआ है, उसी तरह तुम्हारे वंश का भी नाश हो जाएगा !'' सब सुन कर भी कृष्ण शांत रहे ! फिर बड़ी ही विनम्रता से बोले, मैं आपके दुःख को समझता हूँ ! यदि मेरे वंश के नाश से आपको शांति मिलती है, तो ऐसा ही होगा ! पर आपने व्यर्थ मुझे श्राप दे कर अपना तपोबल नष्ट किया ! विधि के विधानानुसार ऐसा होना तो पहले से ही निश्चित था ! तब कुछ क्रोध शांत होने पर गांधारी को भी पछतावा हुआ और श्री कृष्ण से उन्होंने क्षमा याचना की ! पर जो होना था वह तो हो ही चुका था !  

पांडवों और राज्य की व्यवस्था करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण द्वारका आकर रहने लगे। द्वारका नगरी बहुत शांत और खुशहाल थी। कुरुक्षेत् युद्ध के 35 साल बीत चुके थे। समय निर्बाध गति से चलता रहा।समृद्धि, सम्पदा और वैभव के साथ-साथ धीरे-धीरे यदुवंशी युवाओं में उच्श्रृंखलता, बेअदबी, निरंकुशता भी घर करने लगी थी ! वे सभी सुरा-भोग-विलास में लिप्त रहने लगे थे। चारों ओर अपराध, अमानवीयता और पाप का साया गहराने लगा था। बुजुर्गों और गुरुओं का अपमान, असम्मान, आपसी निंदा, द्वेष जैसी भावनाओं की दिन-रात बढ़ोत्तरी होने लगी थी। ऐसा क्या प्रभु ने गांधारी और ऋषियों के वचन को पूरा करने के लिए किया था ! या फिर लीला रूपी माया को समेटने का समय आ गया था !  

ऐसे में ही एक बार ऋषि विश्वामित्र, दुर्वासा, वशिष्ठ और नारद भगवान श्रीकृष्ण से मिलने द्वारका आए थे। उनको देख यदु किशोरों को शरारत सूझी और उन्होंने कृष्ण के पुत्र सांब को एक स्त्री का वेष धारण करवा, ऋषियों के पास ले जा कर कहा कि ये युवती गर्भवती है, कृपया बताएं कि उसके गर्भ से बालक जन्म लेगा या बालिका ! ऋषियों ने तत्काल सब समझ लिया और क्रोधित होकर सांब को श्राप दिया कि वह लोहे के मूसल को जन्म देगा और उसी मूसल से यादव कुल और साम्राज्य का नाश हो जाएगा। 

श्राप सुन सांब अत्यंत भयभीत हो गया ! उसने ऋषियों से क्षमा मांगी पर कोई लाभ नहीं हुआ ! तब सांब ने यह सारी घटना जा कर अपने नाना उग्रसेन को बताई ! वे भी चिंता में पड़ गए, फिर भी उन्होंने कहा कि यदि ऐसा होता है तो उस मूसल को पीस कर चूर्ण बनाकर प्रभास नदी में प्रवाहित कर दो ! शायद इस तरह उस श्राप से छुटकारा मिल जाए। इसके साथ ही सुरा और नशीली वस्तुओं का इस्तेमाल तुरंत बंद करो ! सांब ने सब कुछ उग्रसेन के कहे अनुसार ही किया। परन्तु होनी को कहां टाला जा सकता है ! सागर की लहरों ने उस लोहे के चूर्ण को वापस किनारे पर फेंक दिया, जिससे कुछ समय पश्चात तलवार की तरह की तेज झाड़ियाँ उग उग आईं ! इस घटना के बाद से ही द्वारका के लोगों को विभिन्न अशुभ संकेतों का अनुभव भी होने लगा !

ये सब देख-सुन कर भगवान कृष्ण परेशान रहने लगे थे ! इसीलिए उन्होंने अपनी प्रजा से प्रभास क्षेत्र तीर्थ यात्रा कर अपने पापों से मुक्ति पाने को कहा। सभी ने ऐसा किया तो सही ! परंतु वहां पहुँच अपनी कुटेवों से फिर भी छुटकारा न पा सके ! वहां भी सभी मदिरा के नशे में चूर होकर, भोग-विलास में लिप्त हो गए ! एक दिन मदिरा के नशे में चूर सात्याकि, कृतवर्मा के पास पहुंचा और अश्वत्थामा को मारने की साजिश रचने और पांडव सेना के सोते हुए सिपाहियों की हत्या करने के लिए उसकी आलोचना करने लगा। वहीं कृतवर्मा ने भी सात्याकि पर आरोप मढ़ने शुरू कर दिए। बहस बढ़ती गई और इसी दौरान सत्याकि के हाथ से कृतवर्मा की हत्या हो गई। कृतवर्मा की हत्या करने के अपराध में अन्य यादवों ने मिलकर सात्यकि को मौत के घाट उतार दिया। मदिरा के नशे में चूर सभी ने घास को अपने हाथ में उठा लिया और सभी के हाथ में मौजूद वो घास लोहे की छड़ बन गई। जिससे सभी लोग आपस में ही भिड़ गए और एक-दूसरे को मारने लगे। वभ्रु, दारुक और श्रीकृष्ण के अलावा अन्य सभी लोग मारे गए। 
उधर मूसल के चूर्ण का कुछ अंश एक मछली ने निगल लिया था, जो उसके पेट में जाकर धातु का एक टुकड़ा बन गया था। वह मछली एक मछुआरे के हाथ लगी जिसने उसे जरा नामक शिकारी को बेच दिया। जरा ने मछली के शरीर से निकले धातु के टुकड़े को नुकीला तथा जहर में बुझा, शिकार की खातिर अपने तीर के अग्रभाग में लगा लिया। एक दिन कृष्ण सारी घटनाओं से व्यथित हो सरोवर किनारे पीपल के वृक्ष के नीचे पैर पर पैर रखे ध्यानावस्था में बैठे थे। दिन का तीसरा पहर हो चला था। अचानक पैर के अंगूठे में तीव्र आघात के साथ दर्द व जलन की लहर उठी ! महसूस हुआ, जैसे सैंकड़ों बिच्छुओं के दंश आ लगे हों ! कुछ समझें, इसके पहले ही एक मानवाकृति हाथ जोड़े, आँखों में आंसू लिए, मृग के धोखे में तीर मारने हेतु क्षमायाचना करती, सामने आ खड़ी हुई ! क्षमा तो करना ही था ! पिछले जन्म में रामावतार में इसके बाली रूप को मारने का प्रतिकार तो होना ही था ! कर्मफल और विधि का विधान सबके लिए एक हैं ! आज सोमनाथ के निकट करीब पांच किमी की दुरी पर स्थित इस जगह को भालका तीर्थ के नाम से जाना जाता है। 
सब साफ हो चला था। गांधारी बुआ के श्राप का 36वां साल आ चुका था। समय बहुत कम था। सागर भी द्वारका को लीलने के लिए आतुर बैठा था ! श्रीकृष्ण ने आबालवृद्ध, महिला, अशक्त सबको द्वारका से ले जाने के लिए अर्जुन को तुरंत बुलवाने हेतु जरा और दारुकी को अर्जुन के नाम संदेश दे तुरंत रवाना किया। । तभी उन्होंने देखा सागर किनारे दाऊ अधलेटे पड़े हैं और उनकी नाक से एक शुभ्र सर्प, जो धीरे-धीरे वृहदाकार होता जा रहा था, सागर में समा रहा है ! आदिशेष भी अपने प्रभु की अगवानी हेतु बैकुंठ की ओर प्रयाण कर रहे थे ! तभी सभी देवी-देवता, अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि ने आ कर श्रीकृष्ण की आराधना की और प्रभु सब के साथ अपने धाम को लौट गए। कुछ पलों के लिए समय भी ठहर गया ! उसी दिन द्वापर युग का समापन हुआ और कलियुग का पदार्पण ! वह दिन था, 18 फरवरी 3102  ईसा पूर्व !!  

जब तक अर्जुन आए, सब कुछ घट चुका था ! दुखी मन, रोते-कलपते अर्जुन ने से श्रीकृष्ण और बलदेव की अंत्येष्टि व अन्य कार्य किसी तरह पूरे किए ! पार्थिव शरीरों को अग्नि दी ! पर क्या प्रभु  सारा शरीर पार्थिव था ? 
अति आश्चर्य की बात थी कि चिता की अग्नि में दोनों का बाकी सारा शरीर तो  भस्मीभूत हो  गया था, पर श्रीकृष्ण का ह्रदय स्थल जलता हुआ वैसे ही बचा हुआ था ! जन्म से लेकर अब तक एक सौ छब्बीस सालों में जिस दिल ने दिन-रात विपदाएं, मुसीबतें, लांछन, श्राप, द्वेष,बैर झेला हो, उसका पत्थर हो जाना स्वाभाविक ही था ! इसीलिए मांसपेशियों के आग पकड़ने के बावजूद वह भस्म नहीं हो पा रहा था ! या फिर यह भी प्रभु की लीला का एक अंग था, जगत की रक्षा हेतु ! समय कम था, सो भस्मी के साथ ही उस पिंड को उसी अवस्था में नदी में विसर्जित कर, अर्जुन बचे हुए द्वारका वासियों, जिनमें श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ के अलावा श्रीकृष्ण जी की सोलह हजार रानियां, कुछ महिलाएं, वृद्ध और बालक ही शेष रह गए थे, को अपने साथ ले इन्द्रप्रस्थ के लिए रवाना हो गए। 

इधर शरीर के उस हिस्से ने दैवेच्छा से बहते-बहते एक काष्ठपिण्ड का रूप ले लिया। जिसे राजा इन्द्रद्युम्न ने प्रभु के आदेशानुसार भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में स्थापित किया। आज भी जब शास्त्रोक्त विधि से जगन्नाथ धाम, पुरी में नई मूर्तियों का निर्माण होता है तो प्राणप्रतिष्ठा के समय बहुत गुप्त रूप से एक पवित्र क्रिया संपन्न की जाती है, जिसका ब्यौरा एक-दो मुख्य पुजारियों को छोड़ किसी को भी ज्ञात नहीं है ! वे पुजारी भी इसे गुप्त रखने के लिए वचनबद्ध हैं ! क्या है वह गोपनीय, पवित्र प्रक्रिया ? क्या प्रभु का दिल आज भी हमारी रक्षा हेतु धड़क रहा है.........?

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 
संदर्भ - विभिन्न ग्रंथ, पुस्तकें, कथाएं व उपकथाएं 

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