रविवार, 31 जनवरी 2021

ऐसा भी होने लगा है

अब ! आप तो स्तब्ध !! कहीं और से भी कुछ इंतजाम नहीं हो सकता ! फोन पर चिल्लाने का भी कोई फायदा नहीं ! हालांकि आपके पैसे वापस मिल जाएंगें ! आप कहीं कम्प्लेन भी दर्ज करवा देंगे ! पर उस समय सर पर आई मुसीबत का क्या ! अच्छे-खासे माहौल-मूड का सत्यानाश ! हार -थक कर वही ब्रेड-बटर, नमकीन और ड्राई फ्रूट ! ये कोई कल्पना नहीं है ! ऐसा होने लगा है आजकल........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

कोरोना काल के बाद धीरे-धीरे सप्ताह का हर दिन, अपना महत्व पहले की तरह फिर पाने लगा है। आज रविवार है, तकरीबन साल भर पहले के रविवारों की तरह छुट्टी का दिन ! आप मस्ती के मूड में हैं ! आपने तफरीह के तौर पर या किसी और कारण से अपने इष्ट-मित्र, बंधु-बांधव या प्रियजनों के साथ रात के खाने का प्रोग्राम बना लिया है ! अब पहले की तरह घर पर भोजन बनाने का चलन तो रहा नहीं, सो आपने भी किसी ''ईटरी'' को अपने पसंदीदा भोजन का ऑर्डर दे दिया है और उसने भी तयशुदा समय पर सब चीजें पहुँचाने का आश्वासन दे आपको निश्चित कर दिया है ! सब आपके चाहेनुसार हो रहा है। 

  

शाम विदाई लेने लगी है और उसका पल्लू थामे आहिस्ता-आहिस्ता रात का पदार्पण भी शुरू हो चला है।मेहमानों की आवक होने लगी है।  हंसी-ख़ुशी का माहौल है। समय कैसे खिसक रहा है पता ही नहीं चल रहा। ऐसे में अचानक आपके फोन में घुरघुराहट होती है, आप फोन उठाते हैं, उधर से आपके डिलीवरी ब्वाय की आवाज आती है - सर ! फ़लाने-फ़लाने कारण से आपके ऑर्डर की डिलवरी नहीं हो पाएगी ! आय एम वेरी-वेरी सॉरी !!   

                                  

अब ! आप तो स्तब्ध !! कहीं और से भी कुछ इंतजाम नहीं हो सकता ! फोन पर चिल्लाने का भी कोई फायदा नहीं ! हालांकि आपके पैसे वापस मिल जाएंगें ! आप कहीं कम्प्लेन भी दर्ज करवा देंगे ! पर उस समय सर पर आई मुसीबत का क्या ! अच्छे-खासे माहौल-मूड का सत्यानाश ! हार-थक कर वही ब्रेड-बटर, नमकीन और ड्राई फ्रूट ! ये कोई कल्पना नहीं है ! ऐसा होने लगा है आजकल ! खाने का ऑर्डर कर निश्चिन्त बैठे लोगों को ऐन मौके पर मैसेज मिलता है कि आपका ऑर्डर नहीं पहुँच पा रहा है ! देखिए भुग्तभोगी क्या कह रहे हैं -  

1)  मिस्टर वर्मा, जनकपुरी, को जब खाना पहुँचना था उस समय फोन आता है कि सर, आपका ऑर्डर नहीं पहुंचा पा रहा हूँ, क्योंकि मेरी बाइक का टायर पंक्चर हो गया है ! जबकि वर्मा जी अपने ऐप पर लोकेशन फाइंडर में गाडी को चलते हुए देख रहे हैं ! शिकायत करने पर उन्हें पैसे तो मिल जाते हैं पर पैसों से पेट को क्या मतलब !  

2) मिस्टर सक्सेना, गुरुगाम, को ऐन वक्त पर पता चलता है कि उनके खाने की डिलीवरी नहीं हो सकती क्योंकि डिलीवरी ब्वॉय के पास रेस्त्रां से सामान उठाने के पैसे नहीं थे ! क्योंकि ऑनलाइन पेमेंट ना होने पर सामान ले जाने वाले को पैसे दे कर सामान ले जाना होता है और वह पैसे ग्राहक से लेता है। लो कर लो बात ! ढूँढो फ्रिज में क्या बचा पड़ा है !

3)  शर्मा जी तो सकते में आ गए जब उनको सामान पहुंचाने वाले लड़के ने उनसे पेट्रोल के लिए पैसे मांग लिए ! जब उन्होंने कहा कि मैं तो पेमेंट कर चुका हूँ तो उसने एक उपाय भी सुझा दिया। वह कहने लगा कि मैं कंपनी को फोन कर देता हूँ कि आपका खाना गिर गया है, इस तरह आपको पूरा रिफंड मिल जाएगा और उसका आधा आप मुझे दे दीजिएगा ! गजब की स्कीम; खाना भी खाइए और पैसे भी पाइए ! 

कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर एक डिलीवरी ब्वॉय की हरकत वायरल हुई थी जिसमें वह आर्डर के सामान को खोल उससे अपनी भूख मिटा रहा था ! खाना छीन लिए जाने की बातें भी होने लगीं हैं। ऑर्डर से कुछ कम या ''टुकि'' हुई खाद्य सामग्री की शिकायतें भी आम हो चली हैं। अब इन सब बातों में कितनी सच्चाई है, कितना झूठ और कितनी धूर्तता यह सब खोज का विषय है ! पर यदि आप घर पर बाहर से खाना मंगाने का प्लान बना रहे हैं तो ऐसा कर बिल्कुल निश्चिन्त ना हो जाएं ! उसके साथ प्लान ''बी'' भी तैयार रखें ! क्योंकि आजकल कुछ भी हो सकता है ! हर बात संभव है ! 


हालांकि इस काम को कर रहे युवक बहुत मेहनती, नम्र, कर्तव्यपरायण व ईमानदार होते हैं। उन पर महानगरों की भीड़-भाड़, जाम रहने वाली सड़कों पर अपनी राह बना, ग्राहक का सामान, नियत और तय समय पर पहुँचाने का भारी तनाव रहता है। उस पर अल सुबह, देर रात, ठंड-गर्मी बरसात हर स्थिति में चलायमान रहना होता है। तिस पर ट्रैफिक पुलिस, ग्राहक और नियोक्ता की नाराजगी का भय भी बना रहता है। ऐसे में कुछ ना कुछ भूल-चूक हो ही जाती है। इन सब बातों का, उन की मजबूरी का, उनके हालातों का हम सब को भी ध्यान  रखना और समझना चाहिए। 


@संदर्भ व आभार HT City      

शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

किसान आंदोलन या उसकी आड़ में कुछ और

शाम की भड़काऊ वार्ता का सीधा अर्थ था कि जमावड़े की मंशा हंगामा मचाने की है और यह बात सभी को मालुम थी, ऐसे लोगों पर तुरंत कार्यवाही होनी चाहिए थी ! दूसरे दिन और कहीं ना सही लाल किले की सुदृढ़ व्यूह रचना जरूर की जानी चाहिए थी ! क्यों ट्रैक्टर पर तिरंगे के होने भर से शान्ति भंग नहीं होगी, ऐसा विश्वास कर लिया गया ! क्या कोर्ट में पहले जो धार्मिक पुस्तकों पर हाथ रख सच के सिवा और कुछ ना कहने की कसमें खाते थे तो उन पर विश्वास किया जाता था.......!!   

#हिन्दी_ब्लागिंग 

गणतंत्र दिवस पर जो कुछ भी हुआ वो बेहद दुखद, कष्टकारक व अपमानजनक था ! आम आदमी अवाक और तिलमिला कर रह गया ! खासकर लाल किले की अस्मिता पर कुछ सिरफिरों के हुड़दंग को देख ! इसके साथ ही यह भी तय हो गया कि आदतानुसार कुछ निर्लज्ज लोग शाम को विभिन्न चैनलों पर आ विष्ठावामन करने लग जाएंगे ! ऐसा ही हुआ भी, आरोपों-प्रत्यारोपों का घिनौना दौर चलना ही था, सो चला ! पर इसके साथ ही कुछ सवाल भी सर उठा खड़े हो गए ! जब घटनोपरांत हर चैनल विभिन्न तथाकथित किसान नेताओं की एक दिन पहले की शाम की भड़काऊ वार्ता को उजागर करने लगा ! जिसका सीधा अर्थ था कि जमावड़े की मंशा हंगामा मचाने की है ! यह बात सभी को मालुम भी थी, तो समय रहते क्यों नहीं ऐसे लोगों पर तुरंत कार्यवाही हुई ! दूसरे दिन और कहीं ना सही लाल किले की सुदृढ़ व्यूह रचना तो जरूर की जानी चाहिए थी ! क्यों ट्रैक्टर पर तिरंगे के होने भर से शान्ति भंग नहीं होगी, ऐसा विश्वास कर लिया गया ! क्या कोर्ट में पहले जो धार्मिक पुस्तकों पर हाथ रख, सच के सिवा और कुछ ना कहने की कसमें खाते थे तो उन पर विश्वास किया जाता था ! 

अब जब किले पर तथाकथित झंडा टांगने वाले उस सिरफिरे का नाम, पता सब मालुम है तो उसे तुरंत गिरफ्तार किया जाना चाहिए ! यदि सभी मानते हैं कि उसने देश के गौरव क साथ खिलवाड़ किया है तो उसके परिवार का हुक्का-पानी बंद किया जाना चाहिए ! सरे-राह उनको धिक्कारा जाना चाहिए ! कुछ तो होना चाहिए जिससे न्याय-व्यवस्था की मर्यादा बनी रहे ! कुछ तो डर-भय होना चाहिए, जिससे कुछ भी गलत करते समय उसकी सजा के खौफ का ख्याल आ अपराधी के रौंगटे खड़े हो जाएं ! कब तक हम घर फूँक कर तमाशा देखते रहेंगे ! कब तक किसी राज्य का सीएम देश के प्रधान मंत्री को गाली देता रहेगा ! कब तक केंद्र के फरमानों की अवमानना होती रहेगी ! कब तक पूर्वाग्रही प्रवक्ता देश हित को किनारे कर स्वहित में अमर्यादित हो विषवमन करते रहेंगे ! क्योंकि ऐसी ही बातों से ओछे नेताओं और उनके पालित गुर्गों की हौसला अफजाई होती है ! उन्हें पता रहता है कि आका के रहते हमारा कुछ नहीं बिगड़ने वाला ! 

क्यों नहीं टिकैत, योगेंद्र, दर्शन पाल और उन जैसे अन्य लोगों पर नकेल कसी गई ! क्यों नहीं अन्य शर्तों के साथ यह जोड़ा गया कि अमन-चैन, जन-धन की हानि होने पर उन जैसे नेताओं की जिम्मेदारी होगी और उसकी भरपाई उन्हीं से होगी     

यह भी एक कारण है कि राजधानी की छवि गणतंत्र दिवस के दिन धूमिल हुई ! जब पुलिस को किसान का रूप धारण किए हुए एक-एक इंसान का कच्चा चिठ्ठा मालूम था, तो क्यों उन पर विश्वास किया गया ! टिकैत, योगेंद्र, दर्शन पाल और उन जैसे अन्य कुख्यात लोगों पर तुरंत नकेल कसी जानी चाहिए थी ! शुरू में ही अन्य शर्तों के साथ यह जोड़ देना चाहिए था कि किसी भी तरह अमन-चैन, जन-धन की हानि होने पर उन जैसे नेताओं की जिम्मेदारी होगी और उसकी भरपाई भी उन्हीं से होगी ! जिस गांधी के अनशन को अपने से जोड़ ये छद्म आंदोलनकारी खुद को गौरवान्वित करने की कोशिश करते हैं तब वे यह भूल जाते हैं कि गांधी जी ने हर आंदोलन की अगुवाई खुद की थी ! हर अभियान में खुद सबसे आगे रहते थे ! इनकी तरह दूसरों को आगे कर खुद बिल में नहीं दुबक जाते थे। हर परिणाम का जिम्मा खुद लेते थे ! दूसरों पर आरोप मढ़ किनारा करने की कोशिश नहीं करते थे।   

वैसे यह सोच कर आश्चर्य भी होता है कि बिना आजमाए, बिना उसका अंजाम जाने सिर्फ आशंका के चलते जो लोग इतने बड़े देश की शक्तिशाली सरकार का विरोध इतने बड़े पैमाने पर कर सकते हैं तो ये ही लोग भविष्य में यदि कुछ हुआ भी, तो क्या उस समय अपने विरोधी को दिन में तारे नहीं दिखा सकते ! तब क्यों नहीं आंदोलन हो सकता ! तब क्यों नहीं इनकी एकता काम आ सकती ! तब क्यों नहीं अपनी सुरक्षा की जा सकती ! तब तो अवाम भी इनके साथ कंधे से कंधा मिला खडा हो जाएगा ! इससे तो यही धारणा  बनती है कि अपने विदेशी आकाओं के निर्देशानुसार वर्षों से देश को खोखला बनाने वाली देश विरोधी ताकतों को अपने मनसूबों के लिए  फिर एक मौका मिल गया है ! जो देश की तरक्की व खुशहाली बर्दास्त नहीं कर सकते ! 

                                  
 कहते हैं कि ईश्वर जो करता है, अच्छा ही करता है ! किसान आंदोलन के नाम पर हुए इस हुड़दंग से कइयों के चेहरे बेनकाब हो गए हैं ! ये तो शीशे की तरह पहले ही साफ़ था कि इन कानूनों की आड़ ले कर लुटे-पिटे, हारे-थके, हाशिए पर सिमटा दिए गए कुछ दल बाहरी ताकतों की शह पर अपने अस्तित्व के लिए आखिरी लड़ाई जरूर लड़ेंगे ! वार्ता के बार-बार असफल करवाए जा रहे प्रयास इसके गवाह हैं। अब तक अवाम की जो थोड़ी-बहुत सहानुभूति आंदोलन के साथ थी. वह भी इनकी इस हिमाकत से तिरोहित हो चुकी है। अब तो हर आम नागरिक की ख्वाहिश यही है कि जब इनका असली सूरत ए हाल सबके सामने आ चुका है तो इनकी हर उद्दंडता का माकूल व कठोर जवाब दिया जाए। 

शनिवार, 23 जनवरी 2021

शारीरिक शक्ति दौड़ में विजयी बनाती है, पर अनुभव सिखाता है कि कैसे दौड़ना है

सोशल मीडिया पर तो इसकी भरमार दिखती है, आज हमारे बेटे ने यह किया ! आज तो बेटू ने कमाल ही कर दिया ! मैं जो आज तक नहीं कर पाया, बेटेराम ने चुटकियों में कर डाला ! इस बात में दादियां, माएं, बुआएं भी पीछे नहीं हैं, उनकी बातों में ज्यादातर मोबाइल फोन का जिक्र रहता है कि हमें तो कुछ नहीं पता हम तो छुटकू के सहारे ही हैं ! बच्चों को खुश करने के लिए कही गई ऐसी सब बातों को सच मान बच्चा अपने को तीसमारखां समझने लगता है ! उसके मन में यह बातें गहरे तक पैठ जाती हैं कि बड़ों को कुछ नहीं आता ! उन्हें कुछ नहीं पता ! मैं ज्यादा बुद्धिमान हूँ..........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 

अभी देश में एजिज्म यानी बुजुर्गों के प्रति बढ़ती युवाओं की असहिष्णुता, चर्चा का विषय बनी हुई है। उन्हें कमतर आंकना ! आधुनिक तकनीक के साथ जल्द सामंजस्य ना बैठा पाने के कारण मंदबुद्धि समझना ! शारीरिक अक्षमता के कारण कुछ कर ना पाना ! हारी-बिमारी पर होने वाले खर्च से आर्थिक बोझ बढ़ने से होने वाली परेशानियों को इसका कारण माना जा सकता है।   

इसके अलावा उम्रदराज लोगों को हेय समझने का एक और कारण संतति मोह भी लगता है। बच्चे सभी को प्यारे होते हैं। पर कुछ लोग उनके लाड-दुलार में अति कर जाते हैं। हम में से बहुतों की आदत होती है कि अपने बच्चों की उलटी-सीधी, सही-गलत, छोटी-बड़ी हर बात को सार्वजनिक तौर पर बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर उसे अनोखा सिद्ध करने की ! सोशल मीडिया पर तो इसकी भरमार दिखती है। जिसे देखो वह अपने नौनिहालों के लिए कसीदे गढ़ रहा होता है, आज हमारे बेटे ने यह किया ! आज तो बेटू ने कमाल ही कर दिया ! मैं जो आज तक नहीं कर पाया, बेटेराम ने चुटकियों में कर डाला ! इस बात में दादीयां, माएं, बुआएं भी पीछे नहीं हैं, बलाएँ लेने में ! उनकी बातों में ज्यादातर मोबाइल फोन का जिक्र रहता है कि हमें तो कुछ नहीं पता हम तो छुटकू के सहारे ही हैं: इत्यादि,इत्यादि !

बच्चों को खुश करने के लिए कही गई ऐसी सब बातों को सच मान बच्चा अपने को तीसमारखां समझने लगता है ! उसके मन में यह बातें गहरे तक पैठ जाती हैं कि बड़ों को कुछ नहीं आता ! उन्हें कुछ नहीं पता ! मैं ज्यादा बुद्धिमान हूँ ! धीरे-धीरे यह बात अहम् में बदल जाती है और फिर वह सार्वजनिक तौर पर भी बड़ों का मजाक बनाना शुरू कर देता है कि तुम तो रहने ही दो ! तुम्हारे बस का नहीं है यह सब !! तब अभिभावक खिसियानी हंसी के अलावा और कुछ पेश नहीं कर सकता ! हो सकता है बड़े-बूढ़ों के प्रति यही नकारात्मक सोच आगे चल एजिज्म का कारण बन जाती हो।

ठीक है, आज बच्चे ज्यादा काबिल हैं ! पर इसका एक कारण उनको मिलने वाली सुविधाएं भी तो हैं। यदि 40-50 साल पहले कम्प्यूटर और मोबाईल आ गए होते तो क्या आज के बुजुर्ग उनसे कोई असुविधा महसूस करते ? अरे भई, जब कोई चीज किसी के पास हो ही नहीं तो उससे सहज होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ! अब दूर-दूर तक नदी-तालाब-सागर नहीं है तो मैं तैरना कहां सीखूंगा ! हवाई जहाज है ही नहीं मेरे पास तो उड़ाना कैसे सीखूंगा ! पर एजिज्म जैसी प्रवृत्ति का बड़ा कारण है, बेरोजगारी !   

समय बेहद बदल चुका है ! अब यह चल नहीं, भाग रहा है। आपाधापी मची हुई है ! बेहतर जीवन शैली और चिकित्सा से औसत आयु दर ऊँची हो गई है। जिससे आबादी बेलगाम बढ़ती जा रही है ! नौकरियां, काम-काज कम होते जा रहे हैं ! गला-काट प्रतिस्पर्द्धाएं चल निकली हैं ! परिवार टूटते चले जा रहे हैं ! इन सबके चलते इंसान तनाव ग्रस्त, असहिष्णु, आक्रोषित तथा परेशान रहने लगा है। उसे हर दूसरा आदमी अपना प्रतिद्वंदी नज़र आने लगा है। जाहिर है, ऐसे में अशक्त, लाचार, बीमार बुजुर्ग उसे बोझ लगने लगे हैं।

आज सेवानिवृत या अक्षम हो चुके लोगों का एक अच्छा-ख़ासा प्रतिशत ऐसा है, जिन्होंने अपने कार्यकाल में अपना दायित्व और फर्ज निभाते हुए अपने परिवार, अपने बच्चों के भविष्य, उनकी बेहतर जीवन वृत्ति के लिए अपनी पूरी जमा-पूँजी होम करने में गुरेज नहीं किया। कभी अपने लिए बचत का नहीं सोचा ! क्योंकि वे भूले नहीं थे कि उनके लिए भी कोई ऐसा कर चुका है। संस्कार ही ऐसे होते थे ! उन्हें भी अपने लिए वैसे ही भविष्य की कल्पना रहती थी कि हमारे लिए तो आने वाली पीढ़ी है ही ! पर बहुतेरे ऐसे लोग कहीं ना कहीं आज अपने आप को ठगा सा महसूस करने लगे हैं ! 

आज समय की मांग है कि जब तक इंसान सक्षम है, उसे कुछ ना कुछ उद्यम करते ही रहना चाहिए ! इससे कई लाभ हैं, एक तो आदमी अपने को लाचार और उपेक्षित नहीं समझेगा ! दूसरे कुछ ना कुछ आर्थिक सहयोग दे सकेगा परिवार को ! तीसरे शारीरिक और मानसिक रूप से भी स्वस्थ व सक्षम रहेगा !इसके अलावा युवाओं के जोश और बुजुर्गों के अनुभव में सामंजस्य की आवश्यकता है। दोनों को ही एक दूसरे की जरुरत है। शारीरिक शक्ति दौड़ में विजयी जरूर बनाती है पर अनुभव ही सिखाता है कि किधर, कैसे और कितना दौड़ना है ! 

गुरुवार, 21 जनवरी 2021

चिंता का विषय बनता, ''एजिज्म'' (ageism)

युवा पीढ़ी यदि अपने कर्मों से तत्काल फल दे सकती है तो बुजुर्ग अपने अनुभवों की छाया से उन्हें लाभान्वित कर सकते हैं। इसलिए जरुरी है कि इस प्रवृति से बचा जाए। क्योंकि कठिन समय, संकट और मुश्किलात में बुजुर्गों की नसीहत, उनकी बुद्धिमत्ता और उनके अनुभव ही काम आते हैं। शायद ऐसी ही स्थिति के लिए के बालगंगाधर तिलक जी ने कहा था कि "तुम्हें कब क्या करना है, यह बताना बुद्धि का काम है, पर कैसे करना है यह अनुभव ही बता सकता है ''..............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

''एजिज्म'' यानी आयुवाद या बुजुर्गों के प्रति बढ़ती असहिष्णुता, वृद्धों के प्रति अनुचित व्यवहार ! उनके रहन-सहन, चलने-फिरने, बातचीत करने का मजाक उड़ाना, एजिज्म कहलाता है ! उम्रदराज लोगों को बेकार मानना, यह सोचना कि घूमना, फिरना, शॉपिंग, प्यार, मोहब्बत और नए नए शौक रखना यह सब उनके लिए नहीं हैं ! यानी उम्र की वजह से भेदभाव करना एजिज्म के अंतर्गत आता है ! विश्व में पहले से ही पांव पसार चुकी यह धारणा, भावना या प्रवृत्ति अब धीरे-धीरे हमारे समाज में भी पैठती जा रही है ! वृद्ध लोगों को मुर्ख, व्यर्थ और मन के जड़त्व का पर्याय ठहरा दिया गया है ! युवा लोग काफी गंभीरता से मानने लगे हैं कि एक निश्चित समय के बाद स्मार्ट, पारंगत, सफल व सुंदर होना असंभव होता है ! 

दरअसल नई जीवनशैली और नए मूल्य बूढ़ों को समाज में कोई जगह नहीं देते ! बल्कि उन्हें उनकी जगह से भी विस्थापित करते हैं। संस्थाओं और कंपनियों को लगता है कि उम्रदराज लोग आज हर क्षेत्र की तकनीकी में तेजी से आते बदलावों के अनुसार ना अपने को ढाल पाएंगे नाहीं जल्दी से उसे अपना पाएंगे !  कुछ हद तक यह सही भी है ! इसीलिए विकास की अबाध गति उन्हें असहाय छोड़ देती है और वे निसहाय से अपने अतीत के गलियारों में डोलने लगते हैं। उनकी तमाम सेवाओं, मेहनत, समर्पण को सिरे से भुला दिया जाता है ! आज का समाज किसी के भी सेवानिवृत्त होते ही, वह चाहे जितना ही साधन संपन्न हो, नकार देता है ! उसकी पूछ कम हो जाती है। 

                                
हमारे देश में संयुक्त परिवार का चलन होने के नाते सदा से ही बुजुर्गों का एक मार्गदर्शक और पारिवारिक मुखिया के रूप में सम्माननीय स्थान रहा है। उनके अनुभवों को अमूल्य समझा जाता था। पर पहले जहां उम्रदराज लोगों को उनके जीवन से अर्जित अनुभवों के लिए सम्मान दिया जाता था ! गुण-दोष, अच्छाई-बुराई, ऊँच-नीच का, वर्षों की परिपक्वता के कारण सटीक विश्लेषण, उन्हें मार्गदर्शक का ओहदा दिलाता था ! वहीं अब परिवारों के विघटन के साथ-साथ धीरे-धीरे स्थितियां भी बदलती सी लग रही हैं। अब उम्रदराज लोग अपनी हारी-बिमारी, इलाज-दवा के खर्च, शारीरिक अशक्तता, बढ़ती उम्र से जुडी अतिरिक्त साज-संभार की जरुरत के चलते एक बोझ सा लगने लगे हैं !

                               

''हेल्पेज इंडिया'' के एक सर्वे में भारत के बुजुर्गों ने अपने साथ होने वाले तिरस्कार, वित्तीय परेशानी के अलावा मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न  जैसे दुर्व्यवहारों की शिकायत की है। सर्वे में शामिल करीब 53 प्रतिशत बुजुर्गों ने बताया कि अस्पताल, बस अड्डों, बसों, बिल भरने और बाजार इत्यादि जगहों में उनके साथ भेदभाव होता है। खासतौर पर अस्पतालों में बुजुर्गों को भेदभाव या बुरे बर्ताव का अधिक सामना करना पड़ता है ! हालांकि अन्य सर्वे के अनुसार भारत में दूसरे देशों के मुकाबले में उम्रदराज लोगों की स्थिति उतनी खराब नहीं है। फिर भी बुजुर्गों के प्रति समाज का दृष्टिकोण बदलने के लिए बुजुर्गों और युवा पीढ़ी को एक साथ मिल कर और आपस में सहयोग बढ़ाना होगा, जिससे दोनों पीढ़ियों को ही लाभ होगा। युवा पीढ़ी यदि अपने कर्मों से तत्काल फल दे सकती है तो बुजुर्ग अपने अनुभवों की छाया से उन्हें लाभान्वित कर सकते हैं। इसलिए जरुरी है कि इस प्रवृति से बचा जाए। क्योंकि कठिन समय, संकट और मुश्किलात में बुजुर्गों की नसीहत, उनकी बुद्धिमत्ता और उनके अनुभव ही काम आते हैं। शायद ऐसी ही स्थिति के लिए के बालगंगाधर तिलक जी ने कहा था कि "तुम्हें कब क्या करना है, यह बताना बुद्धि का काम है, पर कैसे करना है यह अनुभव ही बता सकता है ।''

वैसे भी इंसान शरीर से भले ही वृद्ध हो जाए, किन्तु दिमाग से उसे अपनी सोच युवा रखनी चाहिए। बढ़ती उम्र से तो बचा नहीं जा सकता पर वार्धक्य को अपने पर हावी होने या उसे ओढ़े जाने से तो बचा जा ही सकता है !

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से  

रविवार, 17 जनवरी 2021

आसान नहीं होगा, माउंट एवरेस्ट का नाम बदल कर माउंट सिकदर करना

आजकल माउंट एवरेस्ट का नाम बदल कर माउंट राधानाथ करने की बात की जा रही है ! अच्छी बात है। पर ऐसा होना क्या आसान काम है ! यह कोई देश की सड़क, प्रांत या रेलवे स्टेशन का नाम तो है नहीं कि जिसे हम अपनी मर्जी से जब चाहें, जो चाहें रख लें ! ऐसा करने के पहले कई-कई देशों, यूनेस्को तथा ब्रिटेन की भी रजामंदी व अनुमति लेनी पड़ेगी और ये प्रयास भी अपने आप में माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई जितना ही मुश्किल होगा ....................!

#हिन्दी_ब्लागिंग    

आजकल एक न्यूज़ चैनल पर माउंट एवरेस्ट के नाम को बदलने को ले कर चर्चा चल रही है। उनके अनुसार जब इसकी ऊँचाई की सटीक गणना राधानाथ सिकदर नाम के भारतीय ने की थी, तो क्यों ना दुनिया के इस सर्वोच्च शिखर का नाम उनके नाम पर रखा जाए ! यदि ऐसा हो जाता है तो यह हम सारे भारतीयों के लिए बड़े ही गर्व की बात होगी। पर क्या यह जटिल कार्य इतना आसान है !

1831 में भारत के सर्वेयर जनरल जॉर्ज एवरेस्ट ने राधानाथ सिकदर की अप्रतिम, बहुमुखी प्रतिभा को पहचान उन्हें भारतीय सर्वेक्षण विभाग में बाबू यानी क्लर्क के रूप में काम दिलाया था। एवरेस्ट, राधानाथ सिकदर के काम से इतने प्रभावित थे कि जब सिकदर को डिप्टी कलेक्टर बनने का मौका मिला तो एवरेस्ट ने हस्तक्षेप कर उन्हें अपने विभाग से जाने की अनुमति ही नहीं दी ! 1843 में जॉर्ज एवरेस्ट भारत के सर्वेयर जनरल के पद से सेवानिवृत्त हो गए और कर्नल एंड्रयू स्कॉट वॉ को उनके स्थान पर नियुक्त किया गया। इधर सिकदर को भारतीय सर्वेक्षण विभाग के अलावा कलकत्ता के मौसम विज्ञान विभाग का भी अधीक्षक बना दिया गया।

कर्नल वॉ ने सार्वजनिक रूप से शिखर 15 को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी के रूप में मान्यता देने के साथ-साथ उसका नाम जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर रखने का अनुमोदन भी कर दिया, जिसे स्वीकार कर लिया गया 

उन्हीं दिनों कर्नल एंड्रयू स्कॉट वॉ के आदेश पर सिकदर ने दार्जिलिंग के पास बर्फ से ढके हुए पहाड़ों को मापने का काम शुरू किया। उस समय तक सभी चोटियों का नामकरण नहीं हुआ था। सुविधा के लिए चोटियों के स्थानीय नामों को ही मान लिया जाता था। ऐसे में शिखर 15 की ऊंचाई नापने के दौरान छह अलग-अलग स्थानों से तरह-तरह से इकठ्ठा किए गए आंकड़ों से सिकदर ने यह निष्कर्ष निकाला कि हिमालय तथा दुनिया की सबसे ऊँची चोटी 15 है। यह एक क्रांतिकारी खोज थी। उस समय तक इसे नेपाल में सगरमाथा और तिब्बत में चोमोलंगमा के नाम से जाना जाता था। 

राधानाथ सिकदर
सिकदर की रिपोर्ट पर कुछ वर्षों तक शोध होता रहा ! गहन निरिक्षण, परिक्षण, बारीक जांच-पड़ताल के उपरान्त, पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद कर्नल वॉ ने सार्वजनिक रूप से शिखर 15 को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी के रूप में मान्यता देने के साथ-साथ उसका नाम जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर रखने का अनुमोदन भी कर दिया, जिसे स्वीकार कर लिया गया ! इस प्रकार दुनिया की सबसे ऊंची इस चोटी का नाम जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर माउंट एवरेस्ट रख दिया गया पर साथ ही राधानाथ सिकदर के अमूल्य योगदान को भी भूला दिया गया। 

आज वर्षों बाद उनके काम को ले कर जागरूकता फैलाई जा रही है। उनको श्रेय दिलवाने की बात उठ रही है ! उनके नाम पर माउंट एवरेस्ट का नाम बदल कर माउंट राधानाथ करने की बात की जा रही है ! अच्छी बात है। पर ऐसा होना क्या आसान काम है ! यह कोई देश की सड़क, प्रांत या रेलवे स्टेशन का नाम तो है नहीं कि जिसे हम अपनी मर्जी से जो चाहें रख लें ! इसलिए ऐसा करने के पहले कई-कई देशों, यूनेस्को तथा ब्रिटेन की भी रजामंदी व अनुमति लेनी पड़ेगी ! लिए सबसे पहले भारत सरकार को कूटनीतिक शुरुआत करनी होगी और ये प्रयास भी अपने आप में माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई जितना ही मुश्किल है ! यह जानते-समझते हुए ही कोई नेता, लोक-लुभावन प्रस्ताव होने के बावजूद इससे जुड़ता हुआ नहीं लगता ! 

जॉर्ज एवरेस्ट
नाम बदलने की प्रक्रिया बहुत ही जटिल है। एक तो यह शिखर अपने देश में नहीं है ! दूसरे दुनिया में ऐसी कोई एजेंसी भी नहीं है कि वहां अपनी बात रख आवेदन कर दें और सही पाए जाने पर नाम बदल जाए ! भले ही हिमालय से हमारा भावनात्मक जुड़ाव सदियों से है पर उसकी यह चोटी नेपाल में स्थित है। इसका एक हिस्सा चीन में पड़ता है ! सो इन दोनों की सहमति सबसे जरुरी है। पर दुखद स्थिति यह है कि इन दोनों के साथ ही हमारे संबंध उतने मधुर नहीं हैं। इसके साथ ही पड़ोसी देशों यथा पकिस्तान, बांग्ला देश और म्यांमार की रजामंदी की भी जरुरत पड़ेगी। जिसमें पकिस्तान से आशा रखना गलत ही होगा ! इनके अलावा यूनेस्को की भी इजाजत की जरुरत पड़ेगी, क्योंकि यह एक World Heritage Site है ! फिर ब्रिटेन ही क्यों राजी होगा, विश्व प्रसिद्ध जगह से जुड़े, अपने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, जुड़े नाम को हटाने के लिए ! सो अड़चनें तो बेशुमार हैं ! पर यदि उन पर पार पाया जा सके तो फिर क्या कहने !

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

उन्हें जननी जन्मभूमिश्च....नहीं , वसुधैव कुटुम्बकम् का ख्याल भाया, क्योंकि..

वे ''जननी जन्मभूमिश्च....'' को तो सिरे से नकार गए, पर उन्हें ''वसुधैव कुटुम्बकम्'' का ख्याल बहुत भाया ! उन्हें लगा कि जब सारी दुनिया ही हमारा परिवार है, तो हमें काम करने की क्या जरुरत है ! परिवार के सदस्य के नाते उन सबकी कमाई पर हमारा भी हक़ है ! ऐसे खुदगर्ज लोगों को ना अपने देश से लगाव था, नाहीं अपने देशवासियों से, नाहीं ही उनकी परेशानियों या तकलीफों से ! इन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने हित की फ़िक्र थी। जिसके लिए वे अपने देश को भी दांव पर लगा सकते थे ...........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग  

प्रकृति की विकास यात्रा के दौरान जानवर परिष्कृत होते हुए इंसान बन गए ! उनकी सोच में भी फर्क आया ! जहां जानवर सिर्फ अपने लिए जीते हैं वहीं इंसान में इंसानियत जैसी खूबी भी पनप गई। इसी इंसानियत या मानवता के तहत वह अपने साथ-साथ अपने हमजीवों का भी ख्याल रखने लगा। धीरे-धीरे विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग देशों का निर्माण हो गया। पर सब में भाईचारा, सहयोग, स्नेह इत्यादि बना रहे इसलिए हमारे विज्ञ-जनों ने, जो पहले जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी जैसा उपदेश दे चुके थे, एक और ख्याल वसुधैव कुटुम्बकम् को जन्म दे डाला, ताकि समस्त मानव जाति मिल-जुल कर सहयोगी बन एक परिवार की तरह सुख-चैन से रह सके ! 

इंसान आकार-प्रकार में तो जानवरों से बेहतर हो गया था ! पर इस प्रक्रिया के दौरान कायनात कुछ लोगों की बुद्धि और विचारों को नहीं बदल पाई ! ऐसे लोगों को दूसरों से कुछ लेना-देना नहीं था ! उन्हें सिर्फ अपनी सोच, अपने विचार, अपनी कार्य प्रणाली ही सर्वोत्तम लगती रही ! वे ''जननी जन्मभूमिश्च....'' को तो सिरे से नकार गए पर उन्हें वसुधैव कुटुंबकम का ख्याल बहुत भाया ! उन्हें लगा कि इतना बड़ा परिवार है तो हमें काम करने की क्या जरुरत है ! परिवार के सदस्य के नाते उन सबकी कमाई पर हमारा भी हक़ है ! ऐसे खुदगर्ज लोगों को ना अपने देश से लगाव था, नाहीं अपने देशवासियों से, नाहीं ही उनकी परेशानियों या तकलीफों से ! इन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने हित की फ़िक्र थी। जिसके लिए वे अपने देश को भी दांव पर लगा सकते थे ! शुरुआत में तो ऐसे लोगों की गिरफ्त में आधी से ज्यादा दुनिया आ गई, पर धीरे-धीरे जैसे ही इस हलाहल का दुष्परिणाम लोगों की समझ में आया तो इसका अंत होना आरंभ हो गया। 

जिस जमीन को खोने का डर दिखा उनको बरगलाया जा रहा है, यदि वैसा होता भी है तब उस समय भी तो आंदोलन कर विरोध किया जा सकता है ! तब तो जनता भी पूरी तरह साथ देगी और तब तत्कालीन सरकार को भगवान भी नहीं बचा सकेंगे ! पर यदि आज का भरोसा सच निकला तो...! उसकी सुखद कल्पना ही कितनी सुखद है 

सुनने में बहुत अच्छा लगता है कि दुनिया में ऊँच-नीच नहीं  होनी चाहिए ! सब इंसान बराबर हैं ! हर इंसान का हक़ है कि उसे भरपेट भोजन और छत मिले ! जिसके पास कुछ अतिरिक्त है, उसे सर्वहारा की सहायता करनी चाहिए ! वैसे यह विचार बाहर का था, क्योंकि अपने देश में तो जानवरों की भूख तक का ख्याल रखा जाता रहा है, पर फिर भी चल गया !  युवावस्था में कालेज के जमाने में ऐसे विचार खूब भाते थे। पर समय के साथ असलियत ने सामने आ कर दिलो-दिमाग को झिंझोड़ कर रख दिया ! 

मुफ्तखोरी ऐसा दीमक है, जो पूरी तरह नष्ट नहीं हो पाता। ये उस अमर बेल की तरह होती है जिसकी अपनी जड़ नहीं होती ! ये परजीवी पौधा दूसरे पेड़ों पर आश्रित होता है, पर समय के साथ अपने आश्रयदाता का रस चूस-चूस कर उसे ही निष्प्राण कर देता है ! मानव समाज में भी उस पौधे जैसे लोगों के बारे में आम धारणा है कि इनका जमावड़ा जिस संस्थान पर हो जाता है वहां तब तक रहता है जब तक कि उसकी चिमनी से धुंआ निकलना बंद ना हो जाए ! इसका जीता-जगता उदहारण, हमारा कभी सोने के रंग सा चमकता बंगाल आज पीलियाग्रस्त नज़र आने लगा है। इसी  बिमारी का एक नया संस्करण आज दिल्ली को घेरे बैठा है।              

सदा से ही सारा देश चाहता रहा है कि सदियों से पीड़ित किसानों को खुशहाली मिले ! कम से कम उनके हक़ का पैसा उन तक पहुंचे। पर आजादी के दसियों साल बाद तक उनकी कोई सुनवाई नहीं हो पाई। फिर भी बेकाबू रूप से बढ़ती हुई जन संख्या के लिए उन्होंने हाड-तोड़ मेहनत की ! सबके लिए अन्न मुहैया करवाया, पर उनकी स्थिति जस की तस रही ! अब यदि उनकी हालत को बेहतर करने का भरोसा दिया जा रहा है, तो क्यों नहीं उस को एक बार आजमा लिया जाता ! जिस जमीन को खोने का डर दिखा उनको बरगलाया जा रहा है, यदि वैसा होता भी है तब उस समय भी तो आंदोलन कर विरोध किया जा सकता है ! तब तो जनता भी पूरी तरह साथ देगी और तब तत्कालीन सरकार को भगवान भी नहीं बचा सकेंगे ! पर यदि आज का भरोसा सच निकला तो...! उसकी सुखद कल्पना ही कितनी सुखद है ! पछताने से तो बेहतर है, एक बार आजमा कर देखना ! इस में कोई हर्ज नहीं है ! क्यों पिछली स्थितियों से चिपके रहना बेहतर लगता है, एक काल्पनिक डर के तहत !  

पर तटस्त अवाम की हार्दिक इच्छा तथा चाहने के बावजूद लगता नहीं कि किसान आंदोलन जल्द ख़त्म होने दिया जाएगा ! क्योंकि अफवाहें सच होती नज़र आ रही हैं ! ख़बरों में है कि भोले-भाले किसानों के हित को पीछे धकेल अब उस पर कोई और ही हावी हो गया है ! कोर्ट द्वारा चार सदस्यों की समिति का गठन होते ही यह कह कर विरोध हो गया कि ये चारों सदस्य कृषि कानून के हिमायती हैं ! चलो ठीक है मान लेते हैं ! पर विरोध करनेवालों में कौन प्रमुख हैं - दर्शन पाल सिंह, जोगेन्दर सिंह ओगराहा, सुरजीत सिंह फुल, सुखदेव सिंह, अजमेर संघ लोखोवाल, बूटा सिंह गिल, निर्भय सिंह कीर्ति, सतनाम सिंह अजनाला, जिन सबका सीपीएम, सीपीआई, माले इत्यादि वामपंथी पार्टियों से गहरे ताल्लुकात हैं। इनके अलावा कविता कुरुगांती, ग्रीन पीस इंडिया से 27 साल का नाता, जिस पर भारत सरकार ने बैन लगाया हुआ है, अक्षय कुमार, मेधा पाटेकर के करीबी, जैसे बीसियों लोगों के अलावा और ''जो'' हैं उनका तो सभी को पता है ! तो हल कौन निकलने देगा !!

फिर भी सबकी दिली तमन्ना है कि जो भी धरने पर बैठे हैं, आवेश में आए हुए लोग-महिलाएं-बच्चे-युवा, हैं तो इंसान ही, हमारे भाई-बंधु ही ! क्यों इतनी विपरीत परिस्थितियों में उन्हें कष्ट सहना पड़ रहा है। क्यों नहीं उनको उनका भला पचास दिनों बाद भी समझाया जा सक रहा है ! यदि बरगलाए ही जा रहे हैं तो क्यों नहीं वैसे लोगों पर शिकंजा कैसा जा रहा ! क्या समझाने वाले बरगलाने वालों से किसी तरह कमतर हैं, जो अपनी बात ठीक से नहीं रख पा रहे ! जो भी हो यह मामला अब सिमटना चाहिए, पर दोषियों को, देश के विरुद्ध षडयंत्र करने वालों को सबक सिखाते हुए ! क्योंकि देश के आगे कुछ नहीं..कोई भी नहीं !!!  

रविवार, 10 जनवरी 2021

अरे ! बासी भात तो छुपा रुस्तम निकला

हमारे देश के कई भागों में चावल के उपयोग की प्राथमिकता पीढ़ियों से चली आ रही है। चूँकि हमारे यहां संयुक्त परिवार तथा मेहमानवाजी का चलन भी सदा से  रहा है, इसलिए कुछ अतिरिक्त चावल बनाना एक नियम सा बन गया था, जिससे किसी के देर से या अचानक आने पर उसे तुरंत भोजन करवाया जा सके। ऐसे में कुछ ना कुछ भोजन बच जाना स्वाभाविक ही था। उस समय में मितव्यतता के साथ-साथ अन्न का बहुत आदर होता था ! इसी के चलते इस खाद्य का आविष्कार हुआ

#हिन्दी_ब्लागिंग 

अंग्रेजी राज में थौमस् बैबिंग्टन् मैकाॅलेऽ की असीम अनुकम्पा से हम सब इतने शिक्षित हो गए कि हमें अपना सारा अतीत, गौरव, संस्कृति, परम्पराएं दकियानूसी लगने लगीं। हमें अपने रहन-सहन, खान-पान, परंपराएं अपनाने में शर्म आने लगी ! अपने रीती-रिवाज पिछड़ेपैन की निशानी लगने लगे ! कभी खेती के तरीकों के लिए जो पश्चिम अपने को हमारा ऋणी मानता था, हम अब उसी के पदचिन्हों पर चलने की भूल कर बैठे ! हमें ध्यान ही नहीं रहा कि हर देश-प्रदेश का पहनना-ओढ़ना, भोजन इत्यादि वहां की आबो-हवा, मौसम और प्रकृति के अनुसार होता है ! पश्चिम की नक़ल की अंधी दौड़ में हमने कई जीवनोपयोगी रोजमर्रा की घर में उपयोग होने वाली वस्तुओं को नजरंदाज तो किया ही, अपने सेहतमंद, पौष्टिक खाद्यों को भी तब तक हेय नजर से देखते रहे जब तक पश्चिम से उस चीज की उपयोगिता, गुणवत्ता, लाभ, उपादेयता आदि पर मोहर लग कर ना आ जाए। इसी हीन भावना के कारण हमने अपनी कई दिव्य, अमूल्य ओषधियों, जड़ी-बूटियों, मसालों पर उन्हें पेटेंट करने का मौका दे दिया ! 

आज एक ऐसे ही खाद्य पदार्थ की चर्चा ! जिसको हमारे तथाकथित पढ़े-लिखे आधुनिक नगरनिवासी, गांव के गरीबों व मजबूर लोगों द्वारा मजबूरी और बेहाली में पेट भरने का  बासी  खाना कह, समझ कर हिकारत की दृष्टि से देखा करते थे। उसी तिरस्कृत खाद्य को अमेरिकन न्यूट्रीशियन एसोसिएशन (ANA) ने महिमांडित करते हुए उसके अनेकों फायदों को दुनिया के सामने उजागर किया है। हमारे देश के कई भागों में चावल के उपयोग की प्राथमिकता पीढ़ियों से चली आ रही है। चूँकि हमारे यहां संयुक्त परिवार तथा मेहमानवाजी का चलन भी सदा से  रहा है, इसलिए कुछ अतिरिक्त चावल बनाना एक नियम सा बन गया था, जिससे किसी के देर से या अचानक आने पर उसे तुरंत भोजन करवाया जा सके। ऐसे में कुछ ना कुछ भोजन बच जाना स्वाभाविक ही था। उस समय में मितव्यतता के साथ-साथ अन्न का बहुत आदर होता था ! इसी के चलते इस खाद्य का आविष्कार हुआ जिसे बंगाल में पांथा भात, ओडिसा में पखाल, छत्तीसगढ़ में भोर बासी, तमिलनाडु और दक्षिणी क्षेत्र में पयड़दु या तथा बिहार अंचल में  'पानी भात' कहा जाता है। देश के दक्षिणी, पूर्वी और कुछ उत्तरी भागों के अलावा इसे म्यांमार, नेपाल और बांग्ला देश जैसी जगहों में भी खाया जाता है।

यह शरीर को ऊर्जावान बनाता है ! थकान महसूस नहीं होने देता ! सुस्ती दूर करता है ! शरीर में लाभकारी बैक्टेरिया की बढ़त होती है ! शरीर की बढ़ी हुई गर्मी कम होती है ! पेट के लिए बहुत मुफीद है ! रक्तचाप को नियंत्रित करता है 

है क्या यह ! यह रात के बचे हुए चावल का दूसरे दिन बनाया गया एक व्यंजन है ! जिसके लिए कुछ ज्यादा उठा-पटक भी नहीं करनी पड़ती। सिर्फ रात के बचे भात को पानी में डुबो कर रख दिया जाता है ! रखने के लिए यदि मिटटी का बर्तन हो तो और भी बेहतर है, जिससे इसका स्वाद काफी बढ़ जाता है। रात भर पानी में रहने से यह किण्वित याने फर्मेन्टेड हो जाता है अर्थात इसमें खमीर की उत्पत्ति हो जाती है। सुबह इसका पानी निकाल चावल को दही, अचार, चटनी या सिर्फ नमक-मिर्च के साथ अपनी सुविधा और स्वादानुसार खाया जा सकता है। इस सुपाच्य और पौष्टिक खाद्य की तासीर ठंडी होती है इसलिए गर्मी और उमस के मौसम के लिए यह बहुत लाभकारी होता है। इसका निकला हुआ पानी भी काफी सुपाच्य होता है।

अमेरिकन न्यूट्रीशियन एसोसिएशन की रिपोर्ट के अनुसार यह शरीर को ऊर्जावान बनाता है ! थकान महसूस नहीं होने देता ! सुस्ती दूर करता है ! शरीर में लिए लाभकारी बैक्टेरिया की बढ़त होती है ! शरीर की बढ़ी हुई गर्मी कम होती है ! पेट के लिए बहुत मुफीद है ! चूँकि फायबर युक्त होता है, इसलिए कब्ज वगैरह से भी निजात दिलाता है ! रक्तचाप को नियंत्रित करता है ! टेंशन दूर करता है ! इसका विटामिन B12 का भंडार एलर्जी, त्वचा की बीमारियों और झुर्रियों वगैरह को दूर रखता है। 


योरोपियन तो इसके इतने भक्त हो गए हैं कि इसकी वहां बाकायदा ''मॉर्निंग राइस'' ब्रांड नाम से बिक्री होनी भी शुरू हो चुकी है। अब हमारे यहां भी इस पर और शोध के लिए प्रोजेक्ट बनने आरंम्भ हो चुके हैं। चलिए, देर आए दुरुस्त आए ! जागे तो सही ! अपनी धरोहरों की कीमत पहचानी तो सही ! यदि ऐसा एक कदम उठा है: तो आशा है भविष्य में हम अपने अनमोल पर हाशिए धकेल दिए गए अनुपम ज्ञान का फिर मानव कल्याण के लिए उपयोग कर सकेंगे। पर पहले हमें अपने अंदर गहरे तक पैठ चुकी हीन भावना और अपने ही प्रति सहेजी हुई नकारात्मकता को निकाल फेंक, अपने ऋषि - मुनियों द्वारा बताए - सुझाए गए आहारों, उनके गुणों और उनको अपनाने के कारणों को अपनी आगे की पीढ़ियों को समझाना पडेगा ! जिससे वे सिर्फ चलन के कारण कुछ भी खाने के पहले उसके गुण-दोषों को ठीक से समझ सकें और भोजन विकार से खुद को बचा सकें।   

आभार - अंतर्जाल तथा मैनेजमेंट फंडा    

बुधवार, 6 जनवरी 2021

मानव खुद को जहान का मालिक ना समझ, सिर्फ रखवाला ही माने तभी बेहतरी है

सृष्टि की  सृजन क्रिया में  जीवाणु से  लेकर मनुष्य  तक, तथा  एल्गी-कवक से  लेकर वृक्ष-वनस्पतियों तक करोड़ों  तरह के उत्पाद  अस्तित्व में आए। जिनके संरक्षण के लिए जल-थल -आकाश-अग्नि -वायु का सहयोग लिया गया। इन सब में संतुलन बनाए रखने के लिए एक सुसम्बद्ध चक्र का निर्माण किया गया।  जिसके  लिए  अपने आप में  महत्वपूर्ण  करोड़ों  जीव-जंतुओं की श्रृंखला बनी। जिनमें सिरमौर रहा, इंसान !

#हिन्दी_ब्लागिंग 

कायनात ने इस धरा को खूबसूरत बनाने के लिए  कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। तरह-तरह के पशु-पक्षी, जीव-जंतु, पेड़-पौधे !  उनके  अनुसार हवा-पानी, खान-पान, रहन-सहन का पूरा इंतजाम !  हरेक अपने आप में  पूर्ण रूप से एक स्वतंत्र इकाई ! फिर भी सबकी अपनी  अहमियत,  खासियत  व  हैसियत ! सभी का इस वसुंधरा को सुरक्षित, खुशहाल, सुन्दर तथा पूर्ण बनाने में किसी ना किसी तरह का सहयोग। प्रकृति ने  मनुष्य, पशु, पक्षी, पौधे व पर्यावरण सब  को एक दूसरे का पूरक बनाया, जिससे संतुलन बना रहे। इस काम के लिए ईश्वर ने मनुष्य को सभी प्राणियों से  कुछ ज्यादा समझदार  बनाया और अपनी  बनाई हुई दुनिया की बागडोर उसके हाथों सौंप दी।  जिससे वह अपने ''साथियों'' की देख-भाल तो  कर ही सके, साथ ही उसकी बनाई इस अद्भुत कृति की भी ठीक तरह से सार-संभार हो सके।  

प्रकृति ने अपनी बगिया को सजाने के लिए तरह - तरह की  करोड़ों  नेमतों की रचना  की। विभिन्न  तरह के उत्पादों का सृजन किया। जिसके लिए छोटे से छोटे जीवाणु से लेकर मनुष्य, एल्गी-कवक से ले कर वृक्ष-वनस्पतियों तक अस्तित्व में आए। जिनके संरक्षण के लिए जल - थल - आकाश -अग्नि-वायु का सहयोग लिया गया। इन सब में संतुलन बनाए रखने के लिए एक ''सुसम्बद्ध चक्र'' का निर्माण किया गया। इसके लिए अपने आप में महत्वपूर्ण करोड़ों जीव-जंतुओं की श्रृंखला बनी: जिनमें सिरमौर रहा, इंसान !

इंसान कुदरत की बेहतरीन रचना तो है, पर संतुलन बनाए रखने के लिए, उसे दिमागी तौर पर तो सर्वश्रेष्ठ बनाया पर उतनी  शारीरिक क्षमता नहीं दी। समस्त चराचर  की जीवन प्रणाली देखी जाए तो  शायद ही कोई जीव अपने  सृजनकर्ताओं पर इतना  निर्भर होता है जितना कि इंसान !  जहां जन्म के कुछ  ही समय के बाद सब, अपने लिए ही सही, स्वछंद जिंदगी जीना आरंभ कर देते हैं ! वहीं  इसके उलट मानव को अपने पैरों पर खड़े होने, अपनी हिफाजत करने, सोचने - समझने लायक होने में वर्षों लग जाते हैं। परन्तु  इसीलिए वह एक पारिवारिक - सामाजिक जीव भी बन पाता है। जो  ता-उम्र अपनी  संतति की  चिंता में  अपने आप को डुबाए रखता है। पहले अपने बच्चों और फिर उनके बच्चों की परवरिश में अपने को उलझाए-उलझाए जीवन गुजार देता है। पर इन्हीं उलझावों से ही लगाव,  स्नेह जैसी भावनाएं ! प्रेम,  दया, करुणा,  ममता,  त्याग,  परोपकार, सहानुभूति,  जैसे सद्विचार भी पनप पाते हैं ! जो  मानव को उत्कृष्ट और सर्वोपरि बनाते हैं।  उसको दूसरों का सुख - दुःख समझने की  लियाकत देते हैं। उसे मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों, पेड़-पौधे, पर्यावरण को बचाने की भी समझ प्रदान करते हैं। सिर्फ अपने लिए ही नहीं समस्त जगत के लिए जीने का हौसला देते हैं।

यह सही है  कि जहां  अच्छाई होती है, वहां कुछ ना कुछ बुराई  भी होती है ! पर साथ ही यह भी सच्चाई है कि दुनिया में अच्छाई  की बहुलता है और उसी के प्रयासों से  ही यह संसार भी कायम है ! हालांकि कुछ भ्रष्ट लोगों ने पृथ्वी पर उपलब्ध  जल,  अनाज,  पशु-पक्षी,  पेड़-पौधे व ऊर्जा  के स्त्रोतों पर अपना मालिकाना हक़ समझ, उनका असंतुलित  दोहन कर लिया। जिसका  खामियाजा दुनिया भर के लोगों को अपने जान-माल से करना पड़ा !  प्रकृति से नसीहत मिलते ही आदमी  को अपनी औकात समझ में आ गई और वह आखिरकार अपनी भूल सुधारने के लिए मजबूर भी हुआ ! 

अब तो यही आशा करनी चाहिए कि हाल में आन पड़ी जानलेवा, बेकाबू आपदाओं से  सबक सीख समस्त मानव जाति अपने आप  को ही जहान भर का मालिक ना समझ, सिर्फ रखवाला  ही मानेगी और अपने साथ-साथ पृथ्वी और पृथ्वीवासियों  के हक़ का सम्मान  कर उन्हें भी अपनी तरह से जीने और रहने का हक़ प्रदान करेगी ।     

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विडंबना या समय का फेर

भइया जी एक अउर गजबे का बात निमाई, जो बंगाली है और आप पाटी में है, ऊ बोल रहा था कि किसी को हराने, अलोकप्रिय करने या अप्रभावी करने का बहुत सा ...