मंगलवार, 28 मार्च 2023

एक नहीं थे, असुर, राक्षस, दैत्य और दानव

विद्वानों का यह भी मानना है कि हो सकता है कि राक्षस जंगलों के रक्षक रहे हों और मानवों द्वारा वनों को जलाने, अतिक्रमण करने, चरागाह और आश्रम बनाने पर उनका विरोध किया हो और दोनों एक दूसरे के दुश्मन बन गए हों ! क्योंकि उनका मिल-जुल कर रहने का भी उल्लेख मिलता है ! यह भी देखने में आता है कि दैत्य, दानव और राक्षसों के कुल में आपसी विवाह तो होते ही थे, साथ ही इनके कुल की कन्याओं ने मानवों से भी विवाह किया था ...........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 

हमारे ग्रंथों में अक्सर चार नाम सामने आते रहते हैं, असुर, राक्षस, दैत्य और दानव ! हम लोग इनको एक दूसरे का एकरूप मानने की भूल कर बैठते हैं और पर्यायवाची की तरह उपयोग में ले आते हैं ! जबकि ये सब अलग-अलग हैं ! वैसे ये व्यक्तियों के नाम ना हो कर जातियों की पहचान बताते हैं ! शायद समय समय पर इन तीनों जातियों के देवताओं से युद्ध करने के कारण इन्हें एक ही समझ, इनकी सामान्य धर्मविरोधी जाति के रूप में छवि बन गई हो ! पर इनमें आपस में काफी अंतर और असमानता है ! 

ऋषि कश्यप 

राक्षस, असुर, दैत्य और दानव, जिन्हें अंग्रेजी में डीमन  शब्द में लपेट दिया गया है ! इन जातियों का हमारे ग्रंथों में विस्तार से विवरण मिलता है ! ये कश्यप ऋषि और उनकी विभिन्न पत्नियों से उत्पन्न संतानें थीं ! दैत्यों की माता दिति, दानवों की माता दनु और‌ राक्षसों की माता सुरसा थीं ! 

असुर, यह एक तरह से प्रतीकात्मक शब्द है ! वे, जो सुर यानी देवता नहीं थे, इसमें विभिन्न जातियों का समावेश हो सकता है ! इसका एक अर्थ यह भी है कि जो सूर्य के बिना रहते हों यानी धरती के नीचे, पाताल में ! ये स्वर्गवासी देवताओं के शत्रु थे ! इनकी मनुष्यों से कोई दुश्मनी नहीं थी, पर जो भी सुरों का सहायक होता था वह इनका शत्रु माना जाता था ! जहाँ तक 'असुर' शब्द का सवाल है इसका प्रयोग विशेष रूप से दैत्यों के लिए और सामान्य रूप से उक्त तीनों देव विरोधी जातियों के लिए होता है। 

रावण 

राक्षस, इन्हें जाति ना कह कर एक पंथ कहा जा सकता है ! कश्यप-सुरसा की वंशावली में रावण ने रक्ष प्रथा या रक्ष पंथ की स्थापना की थी। इस पंथ के अनुयायी, गरीब, कमजोर, विकास के पीछे रह गए लोगों को अपने साथ रखते और अपना विरोध करने वालों का संहार कर देते थे ! रक्ष पंथ को मानने वाले राक्षस कहलाते थे। रामायण और महाभारत ग्रंथों में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के राक्षस योद्धाओं का विवरण है ! वे शक्तिशाली योद्धा, विशेषज्ञ, जादूगर, आकार और रूप प्रवर्तक तथा भ्रम फैलाने की कला के जानकर बताए गए हैं ! महाभारत काल तक आते-आते यह वंश लगभग खत्म हो गया, क्योंकि घटोत्कच के बाद किसी प्रमुख नाम का उल्लेख नहीं मिलता !

प्रह्लाद 

दैत्य :- ये महर्षि कश्यप और दिति की आसुरी प्रवृत्ति की संतानें थीं ! पर इन्हें मान-सम्मान भी बहुत मिला ! इनमें हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष बहुत प्रसिद्ध हुए थे ! इनका अपने सौतेले भाइयों से अक्सर युद्ध होता रहता था ! हिरण्याक्ष का पुत्र कालनेमि था, जिसने द्वापर युग तक श्रीहरि के सभी अवतारों से प्रतिशोध लेने की चेष्टा की और हर बार उनके हाथों मारा गया। बड़े भाई हिरण्यकशिपु के सबसे छोटे पुत्र प्रह्लाद थे, जो महान विष्णु भक्त हुए। उनके पौत्र बलि को सबसे बड़े दानी और प्रतापी राजा के रूप में ख्याति प्राप्त है ! इनके पुत्र बाणासुर की पुत्री उषा का विवाह श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के साथ हुआ था !

राजा बलि 

दानव :- ऋषि कश्यप और दनु के वंशज दानव कहे जाते हैं। ये दैत्यों और आदित्यों के छोटे भाई थे !  ये दैत्य और राक्षसों की भांति उतने सुसंस्कृत नही होते थे। दनु के चौंतीस पुत्रों के नाम महाभारत में गिनाए गए हैं ! जिनमें विप्रचित्ति सबसे बड़ा था। इनमें वृषपर्वा नाम के दानवराज का नाम भी आया है जो ययाति की पत्नी शर्मिष्ठा के पिता थे। महाभारत में इनका नाम प्रमुखता से आता है। मय दानव को तो सभी जानते हैं जो असुरों के शिल्पी थे। इन्ही की पुत्री मंदोदरी रावण की पत्नी थी। इसी कुल में जन्मा विद्युतजिव्ह रावण की बहन शूर्पणखा का पति था !

मयासुर को पांडवों के लिए भवन निर्माण का निर्देश देते श्रीकृष्ण  

इस प्रकार देखा जाए तो यह जातियां भी विश्व का एक अंग ही थीं ! जिन्हें जाने-अनजाने-परस्थितिवश अच्छाई या बुराई मिली ! मानव समेत उनका मिल-जुल कर रहने का भी उल्लेख मिलता है ! जब तक कि अपने अहम् नियम, कायदे या सिद्धांत के कारण आपसी मतभेद ना पैदा हो गए हों ! विद्वानों का यह भी मानना है कि हो सकता है कि राक्षस जंगलों के रक्षक रहे हों और मानवों द्वारा वनों को जलाने, अतिक्रमण करने, चरागाह और आश्रम बनाने पर उनका विरोध किया हो और दोनों एक दूसरे के दुश्मन बन गए हों ! क्योंकि यह भी देखने में आता है कि दैत्य, दानव और राक्षसों के कुल में आपसी विवाह तो होते ही थे, साथ ही इनके कुल की कन्याओं ने मानवों से भी विवाह किया था !  

@ चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से, साभार 

मंगलवार, 21 मार्च 2023

पंद्रह-सोलह साल का खेल करियर, नो-बॉल एक भी नहीं........ गजबे है भई

आज उत्कृष्ट विशेषज्ञों, उच्च तकनिकी सुविधाओं, दसियों तरह के उपकरणों के बावजूद जब किसी बॉलर द्वारा खेल के तनाव में कभी एक ओवर में दो-दो, तीन-तीन नो-बॉल या वाइड बॉल हो जाती है,  तो कुछ पहले के इसी खेल के महान खिलाड़ियों की याद बरबस ताजा हो आती है ! जो विभिन्न विषम परिस्थियों में भी बिना किसी विशेषज्ञ की सहायता के त्रुटिहीन खेल को अंजाम दिया करते थे ! क्या लगन थी ! क्या समर्पण था ! क्या ही अनुशासन था ! स्तुत्य हैं.........!
 
#हिन्दी_ब्लागिंग 

खेल तो खेल है ! खेल ही होना भी चाहिए ! पर आज कठिन प्रतिस्पर्द्धा के युग में लोगों की आकंक्षाएँ अपने चरम पर हैं ! किसी को भी हार मंजूर नहीं है ! इसीलिए हर खेल का खिलाड़ी अपने साथ तनाव की गठरी लादे चलता है ! उसी का भार आज जब क्रिकेट के उभरते बॉलरों द्वारा कभी-कभी एक ओवर में दो-दो, तीन-तीन नो-बॉल या वाइड बॉल करवा जाता है, तो कुछ पहले के इसी खेल के महान खिलाड़ियों और उनके त्रुटिहीन खेल की याद बरबस ताजा हो आती है ! क्रिकेट के इतिहास में दुनिया में अब तक पांच ऐसे महान बॉलर हुए हैं, जिन्होंने अपने पूरे करियर में एक भी ''नो बॉल'' नहीं डाला है !  ये गर्व की बात है कि इसमें पहला नाम हमारे सर्वकालीन श्रेष्ठ आलराउंडर कपिल देव का है ! 


* कपिल ने 131 टेस्ट और 225 वनडे खेले हैं, पर कभी एक भी नो बॉल नहीं डाला ! ऐसा करने वाले वे अकेले भारतीय हैं ! वैसे भी उनके पांच हजार (+) रन और चार सौ (+) विकेट का रेकार्ड अक्षुण्ण बना हुआ है ! एक बार गावस्कर ने बताया था कि मैच तो मैच, कपिल ने कभी प्रैक्टिस करते हुए भी नो बॉल नहीं फेंका ! यह दर्शाता है कि खेल के प्रति उनका समर्पण, उनकी लगन व उनका अनुशासन किन ऊंचाइयों तक पहुँच चुका था !


* इसमें दूसरे स्थान पर हैं, इंग्लैण्ड के इयान बॉथम ! उन्होंने अपने सोलह साल के करियर में 102 टेस्ट और 116 वन-डे खेले पर कभी अमान्य बॉल नहीं फेंकी !


* तीसरे स्थान पर हमारे पड़ोसी इमरान खान का नाम है ! उन्होंने 88 टेस्ट और 175 वन-डे मैचों में कोई नो बॉल नहीं किया !

* इस कड़ी में चौथे स्थान पर आस्ट्रेलिया के तेज बॉलर डेनिस लिली हैं ! उनके 70 टेस्टों में हर बॉल बेदाग रहा था !

* पांचवें स्थान पर वेस्ट इंडीज के लांस गिब्स हैं, जिन्होंने अपने 79 टेस्ट मैचों और तीन वन डे में अपना कोई भी बॉल, नो बॉल नहीं होने दिया ! टेस्ट में 300 विकेट लेने वाले ये पहले स्पिनर हैं ! रन देने के मामले में उन्हें आज भी दुनिया का सबसे कंजूस गेंदबाज माना जाता है !

एक बात और ऐसा नहीं है कि आज के खिलाड़ी किसी बात में दोयम हैं या उनका समर्पण खेल के प्रति कम है ! पर आज इतनी तकनिकी सुविधाएं, सुरक्षा उपकरण, मैदान पर बेहतरीन चिकित्सा सहायता और विशेषज्ञों के उपलब्ध होने के बावजूद खिलाड़ियों के चोटिल हो मैदान से दूर रहने का प्रतिशत पहले की तुलना में बहुत बढ़ गया है ! हो सकता हो इससे भी खेल में ध्यान भटकता हो ! पर स्तुत्य हैं पहले के खिलाड़ी, जो बिना रक्षा उपकरणों और किसी ताम-झाम के उस समय के एंडी राबर्ट्स, मिशेल स्टार्क, जेफ़ थाम्पसन, ब्रेट ली जैसे तेज बॉलरों की आग उगलती 155-160 की गति की बॉलों का सामना करते थे ! जरुरत है उनकी लियाकत, उनके धैर्य, उनके खेल कौशल से सबक लेने की !

@सभी चित्र अंतर्जाल से, साभार 

शनिवार, 11 मार्च 2023

"शांति" का उच्चारण तीन बार क्यों किया जाता है :

शांति एक प्राकृतिक प्रक्रिया है ! यह सब जगह सदा विद्यमान रहती है, जब तक इसे हमारे या हमारे क्रिया-कलापों द्वारा भंग ना किया जाए ! इसका यह भी अर्थ है कि हमारी गति-विधियों से ही शांति का क्षय होता है ! पर जैसे ही यह खत्म होता है, शांति पुन: बहाल हो जाती है ! यह जहां भी होती है, वहाँ सदा खुशियों  का डेरा रहता है ! इसीलिए शांति की प्राप्ति के लिए हम प्रार्थना करते हैं, जिससे हमारी मुसीबतों, दुखों, तकलीफों का अंत होता है और मन को सुख की अनुभूति होती है ...................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

आज शाम टहलने निकला तो रास्ते में पंडित राम शरण त्रिपाठी मिल गए ! स्नेहवश हम सब उन्हें रामजी कह कर बुलाते हैं ! विद्वान पुरुष हैं ! ग्रंथों का गहन अध्ययन किया हुआ है ! किसी भी बात को प्रमाण के साथ ही प्रस्तुत करते हैं ! उनके साथ बतियाते हुए भोलेनाथ के मंदिर प्रांगण में पहुँच गया।  वहां कुछ लोग शिवलिंग की प्रदक्षिणा कर रहे थे, तो वैसे ही राम जी से पूछ लिया कि हम प्रदक्षिणा क्यों करते हैं ?

रामजी ने बताया कि जिस तरह सूर्य को केंद्र में रख सारे ग्रह उसका चक्कर लगाते हैं जिससे सूर्य की ऊर्जा उन्हें मिलती रहे, उसी तरह प्रभू यानी सर्वोच्च सत्ता, जो सारे विश्व का केंद्र है, उसकी परिक्रमा कर उनकी कृपा प्राप्त करने का विधान है ! वही कर्ता है, वही सारी गतिविधियों का संचालक है, उसी की कृपा से हम अपने नित्य प्रति के कार्य पूर्ण कर पाते हैं, उसी से हमारा जीवन है ! फिर प्रभू समदर्शी हैं, अपने सारे जीवों पर एक समान दया भाव रखते हैं ! इसका अर्थ है कि हम सभी उनसे समान दूरी पर स्थित हैं और उनकी कृपा, बिना भेद-भाव के सब पर बराबर बरसती है। परिक्रमा करना भी उनकी पूजा अर्चना का एक हिस्सा है, जो उनके प्रति अपनी कृतज्ञतायापन का एक भाव है ! उन्हें अपने प्रेम-पाश में बांधने की एक अबोध कामना है ! केवल प्रभू  ही नहीं, जिनका भी हम आदर करते हैं, जो बिना किसी कामना के हमें लाभान्वित करते हैं, उनके प्रति आभार व्यक्त करने के लिए हम उनकी परिक्रमा करते हैं ! चाहे वे हमारे माता-पिता हों, गुरुजन हों, अग्नि हो या वृक्ष हों ! वैसे ही एक परिक्रमा खुद की भी होती है, जो घर इत्यादि में पूजा की समाप्ति पर एक जगह खड़े होकर घूमते हुए की जाती है, जो याद दिलाती है कि हमारे भीतर भी वही प्रभू, वही शक्ति, वही परम सत्य विराजमान हैं, जिनकी प्रतिमा की हम अभी-अभी पूजा-अर्चना किए हैं !

मैंने फिर पूछा कि परिक्रमा प्रतिमा को दाहिने रख कर यानी घड़ी की सूई की चाल के अनुसार ही क्यों की जाती है ?  यह सुन कर वहाँ बैठे एक सज्जन बोले कि इससे आपस में लोग भिड़ने से बचे रहते हैं नहीं तो कोई दाएं से चलेगा और कोई बांए से आएगा तो मार्ग अवरुद्ध होने लगेगा !रामजी मुस्कुरा कर बोले, आपकी बात आंशिक रूप से अपनी जगह ठीक है, पर आराध्य को दाहिने तरफ रख परिक्रमा करने का मुख्य कारण यह है कि हमारे यहाँ दाएं भाग को ज्यादा पवित्र और सकारात्मक माना जाता है ! इसीलिए जो हमारी सदा रक्षा करते हैं, हर ऊँच-नीच से बचाते हैं, सदा हमारा ध्यान रखते हैं, उन प्रभू को हम अपनी दाईं और रख अपने आप को सदा सकारात्मक रहने की याद दिलाते हुए, उनकी परिक्रमा करते हैं।


आज मन में पता नहीं क्यूँ एक के बाद एक प्रश्न अपना सर उठा रहे थे ! ऐसे ही एक सवाल के बारे में मैंने पंडितजी से फिर पूछ लिया कि पूजा समाप्ति पर हम "शांति" का उच्चारण तीन बार क्यों करते हैं ?
रामजी ने बताया कि शांति एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। यह सब जगह सदा विद्यमान रहती है। जब तक इसे हमारे या हमारे क्रिया-कलापों द्वारा भंग ना किया जाए। इसका यह भी अर्थ है कि हमारी गति-विधियों से ही शांति का क्षय होता है पर जैसे ही यह सब खत्म होता है, शांति पुन: बहाल हो जाती है। यह जहां भी होती है वहां सदा खुशियों का डेरा रहता है। इसीलिए शांति की प्राप्ति के लिए हम प्रार्थना करते हैं. जिससे हमारी मुसीबतों, दुखों, तकलीफों का अंत होता है और मन को सुख की अनुभूति होती है ! जीवन में कुछ ऐसी  प्राकृतिक आपदाएं होती हैं जिन पर किसी का वश नहीं चलता, जैसे भूकंप, बाढ़ इत्यादि। कुछ ऐसी विपदाएं होती हैं जो हमारे द्वारा या हमारी गलतियों से घटती हैं जैसे प्रदूषण, दुर्घटना, जुर्म इत्यादि ! कुछ शारीरिक और मानसिक परेशानियां होती हैं ! सारे दुखों, तकलीफों, अड़चनों, परेशानियों या रुकावटों का कारण तीन स्रोत, आदि-दैविक, आदि-भौतिक और आध्यात्मिक या मानसिक हैं ! इसलिए हम प्रभू से प्रार्थना करते हैं कि वे हमारे दुखों, तकलीफों तथा जीवन में आने वाली अड़चनों का शमन करें ! चूँकि ये मुसीबतें तीन ओर से आती हैं, इसीलिए शांति का उच्चारण भी तीन बार किया जाता है। वैसे भी प्राचीन काल से यह मान्यता चली आ रही है कि ''त्रिवरम सत्यमं'' यानी किसी भी बात को तीन बार कहने से वह सत्य हो जाती है, इसलिए अपनी बात को बल देने  के लिए ऐसा किया जाता है !  


 
शाम गहरा गई थी ! पंडितजी को भी मंदिर का अपना कार्य पूरा करना था ! इधर घर पर मेरा इंतजार भी शुरू हो चुका था ! इसलिए उनसे आज्ञा और नई जानकारियां ले मैं भी घर की ओर रवाना हो लिया !

@चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

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