रविवार, 21 सितंबर 2014

शिक्षा के 'ग्यारह' बजाने वाले

इसका हल तो तभी निकल सकता है जब शिक्षा विभाग की बाग-डोर राजनयिकों के हाथ से निकाल कर शिक्षा के सही जानकारों को सौंप दी जाए और उन पर किसी लाल-पीले-नीले फीते की बंदिश न हो।  नहीं तो आने वाले समय में इस देश में इतने पढ़े-लिखे अनपढ़ हो जाएंगे जो अपने आप  में ही एक समस्या होंगे।   


खबर है कि राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन ने चीनी राष्ट्रपति के नाम "शी जिनपिंग" के पहले नाम "Xi" को रोमन गिनती का नंबर समझ उसे "इलेवन" पढने वाली एंकर को  बर्खास्त कर दिया है। अब वहाँ के जिम्मेदार लोग सफाई देते फिर रहे हैं कि वह तो "कैजुएल" कर्मी थी। वर्तनी की ऐसी गलतियां इस चैनल पर होना आम है पर आज  दूरदर्शन पर चीनी राष्ट्रपति का नाम जिस तरह पढ़ा गया वह तो "ब्लंडर" था। ऐसे समय जब किसी राष्ट्राध्यक्ष, वह भी ऐसे अहम देश के, बारे में बुलेटिन हो तब तो ख़ास एहतियात बरती जानी बहुत जरूरी थी। पर हुआ इसका उल्टा, तो फिर इस विशेष अवसर को "कैजुएली" लेते हुए एक "कैजूएल" वाचक को वहाँ बैठने की अनुमति देने वाले को भी उतना ही दोषी माना जाना चाहिए।                      

कहते हैं और सुनने में आता है कि समाचार वाचक जो कैमरे के रूबरू हो कर समाचार पढ़ते हैं वे भाषा में पारंगत होते हैं तथा पढ़ते समय सौ प्रतिशत शुद्ध उच्चारण के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं। ऐसे लोगों से अच्छे सामान्य ज्ञान, समसामयिकी के बोध और प्रत्युत्पन्नमति होने की भी अपेक्षा रहती है। यहां तक कि छात्रों को सलाह दी जाती है कि वे खबरें सुन अपनी भाषा सवारें। पर आज तक जिस तरह हर चैनल पर भाषा की बेकद्री हो रही है तो कोई क्या सीखेगा और क्या समझेगा। 
आठवीं कक्षा तक बिना किसी रुकावट के और उसके बाद भी प्रतिस्पर्धा नहीं के बराबर होने का परिणाम क्या निकलेगा यह कभी गंभीरता से सोचा भी है नीतियां निर्धारित करने वालों ने।    
देखा जाए तो क्या फर्क है अंगूठा लगाने और सिर्फ तीन-चार अक्षरों का नाम लिख लेने में, जबकि अपने हस्ताक्षर करने वाले को यही मालुम न हो कि वह जिस कागज़ पर अक्षर जोड़-जोड़ कर अपना नाम लिख रहा है उसका मजमून क्या है। आज छात्रों को College और Collage या Principal और Principle में फर्क नहीं पता। अंग्रेजी को तो छोड़ें हिंदी तक में स्नातक स्तर  के छात्र ढंग से एक प्रार्थना-पत्र तक नहीं लिख पाते। 
कहावत है कि नींव मजबूत होने पर ही इमारत बुलंद हो सकती है. पर जहां नींव ही हवा में हो वहाँ क्या आशा की जा सकती है।  यही कारण है कि तरह-तरह के प्रलोभन दे बच्चों को हांक कर स्कूल तो ले आया जाता है पर जैसे-जैसे ऊंची कक्षाएं सामने आती हैं बच्चों की संख्या नीची होती जाती है.
पत्र अपनी कहानी खुद कह रहा है 
इसी के साथ देश में खुली सैंकड़ों-हजारों पढ़ाई की दुकाने कैसे शिक्षार्थीयों का उत्पादन कर रही हैं उस पर भी शिक्षा विभाग को ध्यान देने की जरूरत है। ज्यादातर इन रट्टू तोतों के हाथ में किसी भी तरह हासिल की गयी विश्व-विद्यालयों की सिर्फ कागज की डीग्री होती है शिक्षा नहीं। इनका एक ही मकसद होता है येन-केन-प्रकारेण सरकारी नौकरियों को हथियाना, क्योंकि प्रायवेट लिमिटेड कंपनियों के यहां इनकी दाल नहीं गलती। हर साल हजारों लाखों इंजीनियर, एम. बी. ए., पोस्ट ग्रैजुएट, बी. एड. पैसों के बदले उपाधियां जुगाड नौकरियों के लिए धक्के खाते दिख जाते हैं। क्या यह सब हमारी शिक्षा प्रणाली का दोष नहीं है ? क्या शिक्षा को तमाशा बनाने वाले तथाकथित शिक्षा विदों से इस बेकारी का जवाब मांगा जाता है ?  क्या हर साल इस पर प्रयोग करने वालों ने कभी देश के भविष्य के बारे में सोचा है ? जवाब एक ही है, नहीं !!! और सोचेगा भी कौन जबकि दुधारू गाय बन गया है यह शिक्षा का व्यवसाय और अधिकाँश संस्थान खुद नेताओं द्वारा स्थापित किए गए हैं।  इसीलिए अधिकांश फैसले देश को नहीं अपनी कुर्सी को मद्दे-नज़र रख किए जाते हैं। आज अंग्रेजी के फैशन के चलते न तो कोई ढंग से हिंदी बोल-लिख पाता है ना ही अंग्रेजी। सरकार को भी साक्षर की परिभाषा बदलने की जरूरत है।देखा जाए तो क्या फर्क है अंगूठा लगाने और सिर्फ तीन-चार अक्षरों का नाम लिख लेने में, जबकि अपने हस्ताक्षर करने वाले को यही मालुम न हो कि वह जिस कागज़ पर अक्षर जोड़-जोड़ कर अपना नाम लिख रहा है उसका मजमून क्या है। आज छात्रों को College और Collage या Principal और Principle में फर्क नहीं पता। अंग्रेजी को तो छोड़ें हिंदी तक में स्नातक स्तर के छात्र ढंग से एक प्रार्थना-पत्र तक नहीं लिख पाते। 

विडंबना है कि शिक्षित करने का जिम्मा इनका रहेगा 
सिर्फ अपना नाम लिख लेने से ही कोई साक्षर नहीं हो जाता, जैसा दिखा-दिखा कर कर सरकारी महकमे अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं।
कहावत है कि नींव मजबूत होने पर ही इमारत बुलंद हो सकती है. पर जहां नींव ही हवा में हो वहां क्या आशा की जा सकती है? यही कारण है कि तरह-तरह के प्रलोभन दे बच्चों को हांक कर स्कूल तो ले आया जाता है पर जैसे-जैसे ऊंची कक्षाएं सामने आती हैं बच्चों की संख्या नीची होती जाती है. साथ दिए दोनों पत्र आज के स्नातक और भावी शिक्षकों की पोल खोल रहे हैं।   

इसका हल तो तभी निकल सकता है जब शिक्षा विभाग की बाग़-डोर राजनयिकों के हाथ से निकाल कर शिक्षा के सही जानकारों को सौंप दी जाए और उन पर किसी लाल-पीले-नीले फीते की बंदिश न हो।  नहीं तो आने वाले समय में इस देश में इतने पढ़े-लिखे अनपढ़ हो जाएंगे जो अपने आप  में ही एक समस्या होंगे।   

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

सिर्फ पीसा की मीनार ही झुकी हुई नहीं है




पीसा के अलावा दसियों ऐसी इमारतें हैं जो सीधी न हो कर किसी एक तरफ झुकी हुई हैं। वे पीसा जितनी ना सही पर अपने आप में अजूबा जरूर हैं। अपने देश में भी है एक अनोखा शिव मंदिर। यह  विश्व का अकेला  मंदिर है जो एक तरफ झुका हुआ है।  

हुमा मंदिर, उड़िसा  
आम धारणा है कि इटली में स्थित पीसा की मीनार ही दुनिया में अकेली झुकी हुई इमारत है। जबकि सच्चाई यह है कि  उसके अलावा भी दर्जनों ऐसे निर्माण हैं जो धरती पर सीधे न खड़े रह पा कर किसी एक ओर झुक गए हैं। इसका कारण चाहे भूकंप हो, चाहे उस स्थान की सतह में कोई गड़बड़ी हो या फिर वातावरण का असर हो।  हालांकि आज की उन्नत तकनीक के कारण उनका संरक्षण असंभव नहीं रह गया है।  अब तो खुद इंजीनियर और वास्तुकार भी इमारतों को अलग रूप देने के लिए उन्हें टेढ़ा-मेढ़ा, चक्राकार या झुका हुआ रूप देने लगे हैं। पीसा के अलावा दसियों ऐसी इमारतें हैं जो सीधी न हो कर किसी एक तरफ झुकी हुई हैं। वे पीसा जितनी ना सही पर अपने आप में अजूबा जरूर हैं।                      

हमारे अपने देश में भी इस तरह की एक इमारत है। जो ओडिसा राज्य के संबलपुर जिले से 23 की.
मंदिर में बिंबलेश्वर महादेव 
मी. दूर गांव हुमा में महानदी के किनारे स्थित है। यह एक शिव मंदिर है जहां शिव जी का विम्बलेश्वर रूप स्थापित है। यह मंदिर एक  200 x 120 फिट के चबूतरे पर बना हुआ है। वर्षों पहले इसने अपनी नींव से उत्तर-पूर्व की और बहने वाली नदी की ओर  झुकना शुरू किया था पर आश्चर्यजनक रूप से पिछले पचास सालों से यह स्थिर बना हुआ है। इसका झुकना और थमना अभी भी एक रहस्य बना हुआ है।  सबसे चमत्कृत करने वाली बात यह है कि उस परिसर की चीज झुकी हुई अवस्था में है पर जिधर मंदिर झुका है उसकी विपरीत दिशा में। फिर वह चाहे छोटे मंदिर हों या फिर चारदीवारी। यहां दूर-दूर से लोग आते हैं और मार्च के महीने में शिव-रात्रि पर भव्य मेला भी लगता है।   

   
 ऐसी ही एक ईंटों से बनी मीनार है, रूस के कजान शहर में वोल्गा नदी के तट के पास जो पीसा की मीनार से भी दो मीटर ऊंची है। इसे Soyembika  मीनार के नाम से जाना जाता है। छह मंजिला, 58 मीटर ऊंची यह इमारत करीब  1. 87 मीटर झुकी हुई है।  समय के साथ कमजोर होती इस मीनार की नींव में पंपों के जरिए कंक्रीट भर कर इसे मजबूती प्रदान की गयी, जिससे इसके गिरने का खतरा टल गया। इसको रूसी जार इवान द टेरीबल ने अपनी प्रेमिका के लिए जल्दबाजी में तैयार करवाया था।     
 रूस के ही NEVYANSK शहर में एक ऎसी इमारत है जो अपनी नींव से दाहिनी तरफ करीब सात फुट तक झुकी हुई है। 57. 6 मीटर ऊंची, सैंकड़ों टन के वजन वाली इस मीनार के झुकने का कारण इसके नीचे स्थित जल-परवाह को माना जाता है जिसके कारण इसकी नींव का छरण होने की वजह से यह एक और को झुक गयी। समय रहते इसको बचाने के प्रयासों के कारण इसे संरक्षित करना संभव हो पाया।  इसे किस लिए बनाया गया था इसके बारे में तरह-तरह की अटकलें प्रचलित हैं। कोई इसे  "वाच टॉवर" और कोई  कैदखाना बताता है। जो भी हो यह है अपने आप में  एक नमूना है।  

झुकी हुई इमारतों की श्रेणी में सर्वोपरि है जर्मनी का एक चर्च जिसे  Suurhusen Tower के नाम से जाना जाता है।  गिनीज रेकार्ड के अनुसार तेरहवीं शताब्दी में बनी यह विश्व की सबसे ज्यादा झुकी हुई, 90 फिट ऊंची इमारत है जो अपनी नींव से करीब 5.19 डिग्री का कोण बना चुकी है। इसकी नींव लकड़ी से बनाई गयी थी जो जमीन की नम मिट्टी के कारण अपने भार को संतुलित न कर पाई और एक ओर झुकती चली गयी।  पर स्थानीय निवासियों और इंजीनियरों की मेहनत से आज यह चर्च सर उठाए खड़ा  है।    

ऐसी कई इमारतें और मीनारें हैं जो इस तरह की अवस्था में सैलानियों को आकर्षित करती हैं पर उतनी विख्यात नहीं हैं जितनी पीसा की झुकी मीनार। उनकी खोज-खबर फिर कभी।    

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

गणेश जी को भेजे गए पत्रों को पहुंचाने के लिए नियुक्त है एक डाकिया

जब श्री कृष्ण जी और रुक्मणी का विवाह निश्चित हुआ तो भूल-वश गणेश जी को निमंत्रण नहीं भेजा जा सका। इससे उनके वाहन मूषक को क्रोध आ गया और मूषक सेना ने बारात के पूरे रास्ते को ऐसा काट-कुतर दिया कि उस पर चलना असंभव हो गया। 

हमारे देश में लोगों में सर्वोच्च सत्ता के प्रति जितनी आस्था है, विश्वास है, समर्पण है वैसा शायद और किसी देश में नहीं होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि हमारे दूरदर्शी विद्वान पूर्वजों ने शायद आने वाली नस्लों की उच्श्रृंखलता का अंदाज लगा लिया होगा इसीलिए प्रकृति और मानवता को बचाने के लिए उन्होंने उसी समय से तरह-तरह के उपायों की घुट्टी किस्से-कहानियों, उपदेशों व शिक्षा के जरिए पिलानी शुरू कर दी
त्रिनेत्र गणेश 
थी। उसी का परिणाम है की आज हम पशु-पक्षियों में, पेड़-पौधों में, नदी-समुद्र में, यहां तक कि  चित्रों-मूर्तियों में भी प्रभू की मौजूदगी को मानते हैं। अपने दुःख-सुख में उन्हें भागीदार बनाते हैं। हर तरफ से निराश-हताश हो जाने पर या किसी अनहोनी से सुरक्षा पाने के लिए उनकी शरण में शांति की गुहार लगाते हैं। हमारे इतने विशाल देश में जितनी तरह की संस्कृतियां, रस्मो-रिवाज तथा मान्यताएं हैं, उतनी ही तरह की उन्हें पूरा करने और मनाने की विधियां और आस्थाएं हैं। ऐसी ही एक अनोखी और अनूठी परंपरा है, राजस्थान के रणथम्भोर किले में स्थित श्री गणेश जी को विवाहोत्सव पर पहला निमंत्रण देने की। फिर वह चाहे खुद जा कर दिया जाए या फिर पत्र द्वारा। खुद उपस्थित हो कर हजारों श्रद्धालू अपना प्रेम तो प्रगट करते ही हैं पर यह शायद दुनिया का अकेला मंदिर है जहां देश और दुनिया भर से रोज हजारों की संख्या में गणेश जी को निमंत्रण देने के लिए डाक से पत्र भी आते हैं और यह सिलसिला सालों-साल से चला आ रहा है। इन पत्रों को गणेश जी तक पहुंचाने के लिए भारतीय डाक विभाग ने अलग से एक डाकिया नियुक्त किया हुआ है जो रोज तकरीबन दस किलो भार के निमंत्रण पत्र मंदिर तक पहुंचाता है। मंदिर में पहुंचते ही यदि पत्र हिंदी या अंग्रेजी में हो तो पुजारी जी उसे खुद पढ़ कर गणेश जी को सुनाते हैं पर यदि किसी और भाषा में पत्र लिखा गया हो तो उसे खोल कर गणेश जी के सामने रख दिया जाता है।  ऐसी मान्यता है कि गणेश जी को निमंत्रित करने से विवाह बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो जाता है।  
गणेश मंदिर, रणथम्भोर 


ऐसी परंपरा क्यों शुरू हुई उसकी एक कथा है। कहते हैं जब श्री कृष्ण जी और रुक्मणी का विवाह निश्चित हुआ तो भूल-वश गणेश जी को निमंत्रण नहीं भेजा जा सका। इससे उनके वाहन मूषक को क्रोध आ गया और मूषक सेना ने बारात के पूरे रास्ते को ऐसा काट-कुतर दिया कि उस पर चलना असंभव हो गया। इस विघ्न को दूर करने के लिए विघ्न-हर्ता से प्रार्थना की गयी और उन्हें प्रसन्न करने के पश्चात ही विवाह संपन्न हो पाया। कहते हैं तब से गणेश जी को पहला निमंत्रण भेजने की यह प्रथा चली आ रही है।

रोज आने वाले इन हजारों लाखों पत्रों का क्या किया जाए यह भी एक विचारणीय प्रश्न था मंदिर की समिति के सामने।  उन्हें ऐसे ही नष्ट नहीं किया जा सकता था, हजारों-लाखों लोगों की आस्था जुड़ी हुई थी उन पत्रों से। फिर इसका उपाय निकाला गया।  साल भर तक तो उन पत्रों को संजो कर रखा जाता है फिर उनकी लुग्दी बना विभिन्न क्रियाओं से गुजार कर फिर कागज़ बना लिया जाता है। 

दर्शन करने और निमंत्रण देने आए भक्त 
गणेश जी का यह प्राचीन मंदिर सवाई माधोपुर से बारह कि. मी. दूर रणथम्भोर के किले में स्थित है। कहते हैं कि 1299 में राजा हम्मीर और अल्लाउद्दीन ख़िलजी में जब युद्ध शुरू हुआ तो हम्मीर ने प्रजा और सेना की जरूरतों को देखते हुए ढेर सा खाद्यान और जरूरत की वस्तुओं को सुरक्षित रखवा लिया था।  पर युद्ध लंबे अरसे तक खिच जाने की वजह से हर चीज की तंगी होने लगी थी।  राजा, जो गणेश जी का भक्त था,  हताश और परेशान हो उठा। तभी रात को उसे स्वप्न में गणेश जी ने दर्शन दे कहा कि चिंता मत करो कल युद्ध समाप्त हो जाएगा।  दूसरे दिन सुबह गणेश जी की एक तीन नेत्रों वाली आकृति किले की दिवार पर उभर आई और आश्चर्य जनक रूप से  उसी समय युद्ध भी समाप्त हो गया, जब ख़िलजी की सेना अपनी घेराबंदी ख़त्म कर वापस लौट गयी। राज्य फिर से धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया। हम्मीर ने 1300 में भगवान गणेश के इस मंदिर का निर्माण करवाया। जिसमें गणेश जी के अलावा उनकी पत्नियों ऋद्धि-सिद्धि तथा
उनके पुत्रों शुभ-लाभ के साथ-साथ उनके वाहन मूषक की भी प्रतिमा स्थापित की गयी है।

यहां जाने के लिए देश के हर हिस्से से सुविधा उपलब्ध है। उसके लिए सवाई माधोपुर पहुँचना होता है। जहां के लिए रेल सुविधा के अलावा बढ़िया सड़क मार्ग भी उपलब्ध है। यहां से रणथम्भोर की दूरी सिर्फ ग्यारह कि. मी. की है। इसके अलावा कोटा से भी आसानी से यहां जाया जा सकता है।         

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