मंगलवार, 26 अक्तूबर 2021

जूते भी OTP मांगने लगे हैं

हालात के चलते कहीं भी आना-जाना न होने के कारण, इन तक़रीबन दो सालों से जूते-मौजे की जहमत से बचने के लिए चप्पल-सैंडल से ही काम चलता रहा है ! पर जब खेल का मौका मिला तो उससे संबंधित जूतों की खोज-खबर ली गई ! एक ने तो पहचानने से ही साफ इंकार कर दिया ! दूसरे को आजमाया तो उसने छूते ही OTP मांग लिया ! किसी तरह उसको समझा-बुझा कर पैरों में फंसा तो लिया पर पार्क से लौटते-लौटते उसने आपे से बाहर हो ''सुसाइड'' ही कर डाला ! अब इतनी भी क्या नाराजगी हो गई, पता नहीं ! शायद इतने दिनों की उपेक्षा उसे ऐसा कदम उठाने पर मजबूर कर गई............!

#हिन्दी_ब्लागिंग     

कोरोना की महामारी से दुनिया भर में, रहने-सहने, चलने-फिरने, उठने-बैठने,खाने-पीने यानी हर क्रिया-कलाप में बदलाव महसूसा जा रहा है ! लोग इन सब बातों के साथ-साथ अपनी सेहत को लेकर भी काफी संजीदा हो गए हैं ! इनकी तंदरुस्ती बनाए रखने के चक्कर में पार्कों को अपनी सेहत की फिक्र होने लगी है ! रात को तो इन्हें कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन करना ही होता है, सुबह शाम लोग यहां आ कर पता नहीं कैसी-कैसी हरकतें कर कौन-कौन सी गैसें माहौल में घोलने लगे हैं ! फिर भी पादप परिवार इन्हें स्वस्थ रखने के लिए कटिबद्ध है ! 

अपना तो शुरू से ही नागा-बेनागा शरीर को उसके कर्मों की याद दिलाए रखने के लिए उसे ''हिलाते-डुलाते'' रखने का प्रयत्न रहा है ! और कुछ नहीं तो शाम को पार्क, नहीं तो छत और नहीं तो आंगन में ही कदम-ताल कर उसके आंकड़ों से संतुष्टि का भाव बनाए रखने की कोशिश रही है। पर जग जाहिर है कि ऐसे कामों में मन भटकाता बहुत है, तो उसको बहलाए रखने के लिए घूमने की जगहों में कुछ-कुछ अंतराल के बाद बदलाव करते रहना पड़ता है ! पर किसी भी जगह में सुस्ताने हेतु पहली ही बार में एक ही जगह को पसंदीदा बना डालता हूँ, पता नहीं क्यों ! आदत सी है !

रैकेट तो थाम लिया, पर एक तो आँखों पर पड़ती पार्क की चमकीली रौशनी और करीब बीस सालों से खेल से बनी हुई दूरी के कारण रैकेट का 9''x7'' का अंडाकार शेप का जाल ''चिरई'' को छू ही नहीं पा रहा था

ऐसे ही एक नई जगह में अपनी रुटीन पूरी कर, पसीना सूखने के इंतजार में बैठने के लिए, पार्क की ''हाई -मास्ट'' की रौशनी में अपनी एक पसंदीदा बेंच चुन ली थी। उसी के पास कुछ लोग बैडमिंटन भी खेलते रहते थे। एक दिन वहीं बैठा उनका खेल भी देख रहा था तो उन्हीं में से एक ने मुझे आवाज दी, ''आइए, बैडमिंटन खेलते हैं'' ! ना करने का कोई कारण ही नहीं था, सो जा कर रैकेट थाम लिया !

अब रैकेट तो थाम लिया, पर एक तो आँखों पर पड़ती पार्क की चमकीली रौशनी और करीब बीस सालों से खेल से बनी हुई दूरी के कारण रैकेट का 9''x7'' का अंडाकार शेप का जाल ''चिरई'' को छू ही नहीं पा रहा था ! साथ वाले भी सोच रहे होंगे, किस नौसिखिए को बुला लिया ! पर कहते हैं ना, स्विमिंग, सायकिलिंग का गुर कभी भूलता नहीं हैं ! वैसे ही यदि कोई भी खेल वर्षों खेला गया हो तो उसकी आदत शरीर में कहीं न कहीं पैबस्त हो रह ही जाती है ! खंगालना पड़ता है, सामने लाने के लिए ! सो पांच-दस मिनट बाद शरीर को भी याद आ गया होगा और खेल में लय बनने लगी ! 

अब क्या है कि हालात के चलते कहीं भी आना-जाना न होने के कारण, इन तक़रीबन दो सालों से जूते-मौजे की जहमत से बचने के लिए चप्पल-सैंडल से ही काम चलता रहा है ! पर जब खेल का मौका मिला तो उससे संबंधित जूतों की खोज-खबर ली गई ! एक ने तो पहचानने से ही साफ इंकार कर दिया ! दूसरे को आजमाया तो उसने छूते ही OTP मांग लिया ! किसी तरह उसको समझा-बुझा कर पैरों में फंसा तो लिया पर पार्क से लौटते-लौटते उसने आपे से बाहर हो ''सुसाइड'' ही कर डाला ! अब इतनी भी क्या नाराजगी हो गई, पता नहीं ! शायद इतने दिनों की उपेक्षा उसे ऐसा कदम उठाने पर मजबूर कर गई !

हमारे ऋषि-मुनियों-ज्ञानियों ने चीजों की कद्र करने के लिए जो समझाया है कि कण-कण में भगवान होता है, उसका सीधा सा एक अर्थ यह भी है कि हर चीज की अपनी महत्ता है ! एक तरह से उनमें भी जान होती है, जान के होने का मतलब यह नहीं कि उसका सांस लेना आवश्यक हो ! उसकी अपनी उपादेयता होती है ! कोई भी चीज प्रभु द्वारा निष्प्रयोजन नहीं बनाई गई है ! इस घटे क्रिया-कलाप से भी यह बात तो सिद्ध हो ही जाती है। इसलिए जीवन में किसी की भी उपेक्षा ना करें ! जहां तक हो अपने आस-पास के हर जीव-निर्जीव का ख्याल रखें ! जरुरत और सक्षमतानुसार सभी की सहायता करें ! जहां तक हो सके दूसरों को क्षमा करने की कोशिश करें ! 

शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

करवाचौथ, बाजार तथा विघ्नसंतोषियों के निशाने पर

करवाचौथ के व्रत पर सवाल उठाने वाले मूढ़मतियों ने शायद छठ पूजा का नाम नहीं सुना होगा ! जो लिंग-विशिष्ट त्यौहार नहीं है। जिसके चार दिनों तक चलने वाले अनुष्ठान बेहद कठोर  होते हैं और नर-नारी अबाल-वृद्ध सभी के द्वारा श्रद्धा से मनाए जाते हैं। शायद व्रत का विरोध करने वालों को इसका अर्थ सिर्फ भोजन ना करना ही मालुम है। जब कि व्रत अपने प्रियजनों को सुरक्षित रखने, उनकी अनिष्ट से रक्षा करने की मंशा का सांकेतिक रूप भर है। ऐसे लोग एक तरह से अपनी नासमझी से महिलाओं की भावनाओं को कमतर आंक उनका अपमान ही करते हैं और जाने-अनजाने महिला और पुरुष के बीच गलतफहमी की खाई को और गहरा करने में सहायक होते हैं ! वैसे देखा जाए तो पुरुष द्वारा घर-परिवार की देख-भाल, भरण-पोषण भी एक तरह का व्रत ही तो है जो वह आजीवन निभाता है............!   

#हिन्दी_ब्लागिंग

करवा चौथ ! वर्षों से सीधे-साधे तरीके, बिना किसी ताम-झाम, बिना कुछ या ज्यादा खर्च किए सादगी से मनाया जाता आ रहा, पति-पत्नी के कोमल रिश्तों के प्रेम का प्रतीक, एक मासूम सा छोटा सा उत्सव ! पर समय के साथ-साथ इस पर भी बाजार की गिद्ध-दृष्टि लग गई ! शुरुआत भी उसी जगह, सिनेमा से हुई जहां से आज तक अधिकांश बुराइयां पनपती रही हैं ! पर संक्रामक्ता प्रदान की टी.वी.सीरियलों ने ! उनके अनगढ़, विषय-वस्तु से अनजान, गुगलई ज्ञानी निर्माता-निर्देशकों ने तो बंटाधार ही कर डाला ! इस दिन को ले कर, ऐसा ताम-झाम, ऐसी रौनक, ऐसे-ऐसे तमाशे और ऐसी-ऐसी तस्वीरें पेश की गयीं कि जो त्यौहार एक सीधी-साधी गृहणी अकेले या अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ, सरलता व सादगी से मना लेती थी, वह भी दिखावे की चकाचौंध से भ्रमित हो बाजार के झांसे में आ गई। 

पहले की तरह अब महिलाएं घर के अंदर तक ही सिमित नहीं रह गई हैं। पर इससे उनके अंदर के प्रेमिल भाव, करुणा, त्याग, स्नेह, परिवार की मंगलकामना जैसे भाव खत्म नहीं हुए हैं ! और जब तक प्रकृति-प्रदत्त ऐसे गुण विद्यमान रहेंगे, तब तक कोई भी षड्यंत्र, कुचक्र या साजिश हमारी आस्था, हमारे विश्वास, हमारी परंपराओं का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएंगे

अब बाजार तो ठहरा बाजार ! उसे तो सिर्फ अपने लाभ से मतलब होता है। बस उसने महिलाओं की दशा को भांपा और उनकी भावनाओं को ''कैश'' करना शुरू कर दिया। देखते-देखते साधारण सी चूडी, बिंदी, टिकली, धागे सब "डिजायनर" होते चले गए। दो-तीन-पांच रुपये की चीजों की कीमत 100-150-200 रुपये हो गई। अब सीधी-सादी प्लेट या थाली से काम नहीं चलता, उसे सजाने की अच्छी खासी कीमत वसूली जाने लगी ! कुछ घरानों में छननी से चांद को देखने की प्रथा घर में उपलब्ध छननी से पूरी कर ली जाती थी पर अब उसे भी बाजार ने साज-संवार, दस गुनी कीमत कर, आधुनिक रूप दे, महिलाओं के लिए आवश्यक बना डाला। चाहे फिर वह साल भर या सदा के लिए उपेक्षित घर के किसी कोने में ही पडी रहे। पहले शगन के तौर पर हाथों में मेंहदी खुद ही लगा ली जाती थी या आस-पडोस की महिलाएं एक-दूसरे की सहायता कर देती थीं, पर आज यह लाखों का व्यापार बन चुका है। उसे भी पैशन और फैशन बना दिया गया है ! कल के एक घरेलू, आत्म केन्द्रित, सरल,मासूम से उत्सव, एक आस्था, को खिलवाड का रूप दे दिया गया। करोड़ों की आमदनी का जरिया बना दिया गया !    

यह तो रही बाजार की लिप्सा की बात ! यह व्रत-त्यौहार हमारे देश में प्राचीन काल से चले आ रहे हैं, जब महिलाएं घर संभालती थीं और पुरुषों पर उपार्जन की जिम्मेवारी होती थी। पर कुछ लोग देश में ऐसे भी हैं जिन्हें पारंपरिक त्यौहारों, उत्सवों या मान्यताओं से सख्त ''एलर्जी'' है ! कुछ तथाकथित आधुनिक नर-नारियों द्वारा विदेशी पंथों, विचारधाराओं तथा षड्यंत्रों के तहत सिर्फ अपने फायदे के लिए सदा तीज-त्यौहारों पर जहर उगला जाता है। उसी के तहत आज करवा चौथ को भी पिछडे तथा दकियानूसी त्यौहार की संज्ञा दे दी गयी है। इल्जाम यह भी लगाया जाता है कि पुरुष प्रधान समाज द्वारा महिलाओं को दोयम दर्जा देने की साजिश के तहत ही ऐसे उत्सव बनाए गए हैं ! जबकि सच्चाई यह है कि सदियों से घर की महिलाएं ही अपनी बच्चियों को ऐसे आयोजनों की जानकारी देती आ रही हैं ! मेरे ख्याल से तो कोई पुरुष जबरदस्ती अपनी पत्नी को दिन भर भूखा रहने को नहीं कहता होगा ! कहना भी नहीं चाहिए !    

आयातित कल्चर, विदेशी सोच तथा तथाकथित आधुनिकता के हिमायती कुछ लोगों को महिलाओं का दिन भर उपवासित रहना उनका उत्पीडन लगता है। अक्सर उनका सवाल रहता है कि पुरुष क्यों नहीं अपनी पत्नी के लिए व्रत रखते ? करवाचौथ के व्रत पर सवाल उठाने वाले मूढ़मतियों ने शायद छठ पूजा का नाम नहीं सुना होगा ! जो लिंग-विशिष्ट त्यौहार नहीं है। जिसके चार दिनों तक चलने वाले अनुष्ठान बेहद कठोर  होते हैं फिर भी नर-नारी अबाल-वृद्ध सभी के द्वारा पूरी श्रद्धा और आस्था से मनाए जाते हैं। 

व्रत का विरोध करने वालों को इसका अर्थ सिर्फ भोजन ना करना ही मालुम है। जब कि व्रत अपने प्रियजनों को सुरक्षित रखने, उनकी अनिष्ट से रक्षा करने की मंशा का सांकेतिक रूप भर है। ऐसे लोग एक तरह से अपनी नासमझी से महिलाओं की प्रेम, समर्पण, चाहत जैसी भावनाओं को कमतर आंक उनका अपमान ही करते हैं और जाने-अनजाने महिला और पुरुष के बीच गलतफहमी की खाई को और गहरा करने में सहायक होते हैं ! वैसे देखा जाए तो पुरुष द्वारा घर-परिवार की देख-भाल, भरण-पोषण भी एक तरह का व्रत ही तो है जो वह आजीवन निभाता है, पर इस बात का प्रचार करने या सामने लाने से विघ्नसंतोषियों को उनके कुचक्र को, उनके षड्यंत्र को कोई फायदा नहीं बल्कि नुक्सान ही है, इसलिए इस पर सदा चुप्पी बनाए रखी जाती है ! 

आज समय बदल गया है ! पहले की तरह अब महिलाएं घर के अंदर तक ही सिमित नहीं रह गई हैं। पर इससे उनके अंदर के प्रेमिल भाव, करुणा, त्याग, स्नेह, परिवार की मंगलकामना जैसे भाव खत्म नहीं हुए हैं ! और जब तक प्रकृति-प्रदत्त ऐसे गुण विद्यमान रहेंगे, तब तक कोई भी षड्यंत्र, कुचक्र या साजिश हमारी आस्था, हमारे विश्वास, हमारी परंपराओं का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएंगे !

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

गिलहरी का पुल

फिर वह दिन भी आ गया जब पुल बन कर तैयार हो गया। उस दिन उससे जुड़े सारे लोग बहुत खुश थे। तभी एक महिला मजदूर सावित्री की नजर पुल की मुंडेर पर निश्चेष्ट पड़ी उस गिलहरी पर पड़ी, जिसने महिनों उन सब का दिल बहलाया था। उसे हिला-ड़ुला कर देखा गया, पर उस नन्हें जीव के प्राण पखेरु उड़ चुके थे। यह विड़ंबना ही थी कि जिस दिन पुल बन कर तैयार हुआ उसी दिन उस गिलहरी ने अपने प्राण त्याग दिए ..................!


#हिन्दी_ब्लागिंग 


हजारों साल पहले, त्रेतायुग में जब राम जी की सेना लंका पर चढ़ाई के लिए सागर पर सेतु बना रही थी, कहते हैं तब एक छोटी सी गिलहरी ने भी अपनी तरफ से जितना बन पडा था योगदान कर प्रभू का स्नेह प्राप्त किया था। शायद उस गिलहरी की  वंश-परंपरा अभी तक चली आ रही है ! क्योंकि फिर उसी देश में, एक गिलहरी ने फिर एक पुल के निर्माण में सहयोग किया था ! लोगों का प्यार भी उसे भरपूर मिला पर अफ़सोस जिंदगी नहीं मिल पाई !

अंग्रेजों के जमाने की बात है। दिल्ली-कलकत्ता मार्ग पर इटावा शहर के नौरंगाबाद इलाके के एक नाले पर एक पुल का निर्माण हो रहा था। पचासों मजदूरों के साथ-साथ बहुत सारे सर्वेक्षक, ओवरसियर, इंजिनीयर तथा सुपरवाईजर अपने-अपने काम पर जुटे, समय पर कार्य पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे थे। जाहिर है भोजनावकाश के दौरान, इतने लोगों के कलेवे-नाश्ते के अन्नकण यहां-वहां बिखर ही जाते थे ! उन्हीं को अपना भोजन बनाने के लिए कहीं से एक गिलहरी वहां रोज आने लगी !   
यह छोटी सी समाधी पुल की मुंड़ेर पर बनी हुई है, इसिलिये इस पुल का नाम भी गिलहरी का पुल पड़ गया। आस-पास के लोग कभी-कभी इस पर दिया-बत्ती कर जाते हैं
शुरु-शुरु में तो वह काफी ड़री-ड़री और सावधान रहती थी ! जरा सा भी किसी के पास आने या आहट होते ही झट से किसी सुरक्षित स्थान पर जा छुपती थी। पर धीरे-धीरे वह वहां के वातावरण से हिलमिल गई। उसको समझ आ गया कि इन मानवों से उसे कोई खतरा नहीं है। कुछ ही दिनों में वह काम में लगे मजदुरों से इतनी हिल-मिल गई कि अब बिना किसी डर के उनके पास ही दौड़ती-घूमती रहने लगी। उनके हाथ से खाना भी लेने लग गई ! उसकी हरकतों और तरह-तरह की आवाजों से काम करने वालों का भी मनोरंजन तो होता ही था साथ ही इस जीवित खिलौने की अठखेलियों से कुछ हद तक उनका काम का तनाव भी दूर रहने लगा था। वे भी रोज की एकरसता से आने वाली सुस्ती से मुक्त हो काम करने लगे थे ! 
फिर वह दिन भी आ गया जब पुल बन कर तैयार हो गया। उस दिन उससे जुड़े सारे लोग बहुत खुश थे। तभी एक महिला मजदूर सावित्री की नजर पुल की मुंडेर पर निश्चेष्ट पड़ी उस गिलहरी पर पड़ी, जिसने महिनों उन सब का दिल बहलाया था। उसे हिला-ड़ुला कर देखा गया पर उस नन्हें जीव के प्राण पखेरु उड़ चुके थे। यह विड़ंबना ही थी कि जिस दिन पुल बन कर तैयार हुआ उसी दिन उस गिलहरी ने अपने प्राण त्याग दिये। उपस्थित सारे लोग उदासी से घिर गये। कुछ मजदुरों ने वहीं उस गिलहरी की समाधी बना दी। जो आज भी देखी जा सकती है। यह छोटी सी समाधी पुल की मुंड़ेर पर बनी हुई है, इसिलिये इस पुल का नाम भी गिलहरी का पुल पड़ गया। आस-पास के लोग कभी-कभी इस पर दिया-बत्ती कर जाते हैं।

@चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

भगवान सम्हाले ना रहा है, इत्ते दिनों से

अब बखिया काहे को उधेड़नी वह तो उधड़ती ही चली जाएगी ! सूइयां मिलती रहेंगी भूसा कम पड़ जाएगा ! सो बाल को खाल में ही रहने दें ! देश-खेल-समाज तरक्की कर ही रहे हैं ना ! फिर काहे की सर-फोड़ी ! क्यूँ यह सब बेकार की बहस ! क्यूँ फिजूल की बातों का जिक्र ! भगवान है ना ! चला ही रहा है न ! फिर काहे की चिंता............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

एक बार एक जज साहब ने देश की व्यवस्था पर टिप्पणी की थी कि देश को भगवान ही बचा सकता है ! इस पर कईयों की भृकुटि पर बल पड़ गए थे ! पर कोई माने या ना माने, निष्पक्षता से देखा जाए तो हमारे यहां की बहुत सी चीजों का मालिक भगवान ही है ! अब यह जो भगवान होता है वह बहुत दयालु, क्षमाशील व भक्तवत्सल होता है ! इसीलिए अपने बंदों की लायकी-नालायकी को कभी-कभी नजरंदाज कर उन पर कभी कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो जाता है !   

अभी क्रिकेट का मौसम है उसी को देखें, उसे ''कौन'' चला रहा है ! देश की क्रिकेट टीम की बागडोर एक ऐसे कप्तान के हाथों में है, जो 2011 से 140 बार अपनी घरेलू टीम, बेंगलुरू का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद, एक बार भी उसे ट्राफी नहीं दिला पाया ! पर ऊपर वाले की कृपा से पहलवान है !

भारत की टीम की ''मेंटरिंग'' एक ऐसे इंसान की झोली में जा गिरी जो इस बार केआईपीएल के खात्मे होते तक खुद बड़ी मुश्किल से सौ रनों का आंकड़ा छू पाया है ! भले ही इतिहास कुछ भी हो !

रही कोच की बात, तो शायद उसे खुद भी पता न हो कि उसकी किस उपलब्धि पर इतना मंहगा और जिम्मेदारी भरा पद उसे हासिल हुआ पड़ा है ! 

फिर लगता है कि यह सब बेकार की बातें हैं ! भगवान हैं ना ऊपर ! उस पर अटूट भरोसा होना चाहिए ! इस सबसे भी कहीं बड़े-बड़े हादसे उसी की मर्जी से हमारे सामने से गुजरे हैं !

याद है, एक नेता ने अपने पर चालीसा लिखने वाले चापलूस चारण को राज्य सभा में जगह दिला दी थी ! 

अपना नाम तक ना लिख पाने के बावजूद सूबे के भविष्य को निर्धारित करने वाले दस्तावेजों पर प्रभु द्वारा अनुग्रहित किसी के ''हस्ताक्षर'' हुआ करते थे !    

अपने नेता की चप्पल उठा उसके पीछे भागने वाले नेता, के सर पर सालों भगवान की मर्जी से ही तो जूते बरसाते रहे थे !  किसकी शह पर !

पद-नाम-दाम हथियाने के लिए आका के इशारे पर झाड़ू-पौंछा लगाने से भी गुरेज ना करने वाले जनता पर वर्षों रोब गालिब किस की शह पर करते थे ! 

कहावत है कि दिल तक पहुंचने वाला रास्ता पेट से हो कर जाता है पर हमारे यहां तो पेट को तृप्ति दिलाने वाले को देश का सिरमौर ही बना दिया गया था ! अब यह सब प्रभुएच्छा से ही तो संभव हुआ होगा !

किसी एक का भविष्य संवारने के लिए जब लाखों का भविष्य दांव पर लगा दिया जाता है, तो वह एक, प्रभु को प्यारा होगा की नहीं ! 

डाका-लूट-मार के व्यवसाई को जनता की सुरक्षा सौंप दी जाती रही है ! यह सब बिना ऊपर वाले की मर्जी से हो सकता है क्या !

उसका वरद-हस्त सर पर आते ही आम से खास बने जीव की बुद्धि यदि बाकी की आबादी को कैटल यानी भेड-बकरी समझने लग जाए तो इसमें उसका क्या दोष !

कुछ पर तो प्रभु कृपा का ऐसा सैलाब आता है कि वे लोग खुद को उसका सिबलिंग ही समझ, उसी की तरह अपनी मूर्तियां भी गढवाने लग जाते हैं ! खुद ऊँचे आसनों पर बैठ अपने ही जैसों को हिकारत की नजर से देखने लगते हैं ! पर वह भी बड़ा राहबर है सबको काट-छांट कर ही रखता है !   

अब बखिया काहे को उधेड़नी वह तो उधड़ती ही चली जाएगी ! सूइयां मिलती रहेंगी भूसा कम पड़ जाएगा ! सो बाल को खाल में ही रहने दें ! देश-खेल-समाज तरक्की कर ही रहे हैं ना ! फिर काहे की सर-फोड़ी ! क्यूँ यह सब बेकार की बहस ! क्यूँ फिजूल की बातों का जिक्र ! भगवान है ना ! चला ही रहा है न ! फिर काहे की चिंता ! 

इतने बड़े ब्रह्मांड की व्यवस्था, संचालन, रख-रखाव कोई हंसी-खेल तो है नहीं ! थोड़ी-बहुत चूक, विलंब, अनदेखी हो ही जाती है ! परिमार्जन भी तो होता है ! जेलें यूं ही तो नहीं भरी हुईं ! इसलिए मस्त हो, झरोखे पर बैठें और तमाशा देखें ! किसी भी चीज/बात को बहुत गंभीरता से ना लें ! दिल बहुत नाजुक होता है, हो सकता है, भगवान को आने में समय ही लग जाए.......!   

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

खेला आरंभ, मानुष दंग

बंगाल में आज एकाधिक पंडालों में ममता को दुर्गा माता के समदृश दिखलाया जा रहा है। अब यह तो उनकी इजाजत बगैर तो हो ही नहीं सकता ! सो चापलूसों, मौका और मतलब परस्त पिच्छलगुओं ने बिना इसकी परवाह किए कि आम धर्मपरायण इंसान की आस्था पर क्या असर पड़ेगा, एक विवादित शख्शियत को भगवान बना दिया ! इसके अलावा कुछ ऐसे पंडाल भी हैं जो ओछी राजनीती की अधोगति का शिकार हो पूजा स्थल से कूड़ा स्थल बन गए हैं ! कहीं जूतों की नुमाइश हो रही है ! कहीं खून-खराबे को दर्शाया जा रहा है ! कहीं किसानों के तथाकथित आंदोलन को प्रचार का माध्यम बनाया गया है ! यानी कि राजनीति अपने शिव के बारातियों के साथ पूरे उफान पर है ...............!!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

शारदीय नवरात्र आते ही बंगाल में दुर्गा पूजा की धूम मच जाती है ! एक से एक बढ़ कर सुंदर-भव्य पंडाल एक दूसरे से होड़ लेने लगते हैं ! हर पंडाल में वाद्य-यंत्रों द्वारा मधुर शास्त्रीय संगीत की मधुर धवनि की गूँज ही सुनाई पड़ती है !  250 से भी ज्यादा वर्षों से चले आ रहे इस आयोजन का सदा से ही यह मकसद रहा है कि पंडालों के निर्माण में भव्यता, नवीनता, कलात्मकता के साथ ही दिव्यता, पवित्रता और भक्तिभाव का भी भरपूर समावेश हो। भले ही सामयिक घटनाओं का आभास दिया जाता रहा है, पर उनको कभी भी पूजा स्थल के पावन परिवेश पर हावी नहीं होने दिया जाता था ! पर अब वर्षों से से चली आ रही परम्पराओं,आस्थाओं व संस्कृति से छेड़-छाड़ शुरू हो चुकी है !

                                         

आज बंगाल में एकाधिक पंडालों में ममता को दुर्गा माता के समदृश दिखलाया जा रहा है। अब यह तो उनसे पूछे बगैर तो हो ही नहीं सकता ! सो चापलूसों, मौका और मतलब परस्त पिच्छलगुओं ने बिना इसकी परवाह किए कि आम धर्मपरायण इंसान की आस्था पर क्या असर पड़ेगा, एक विवादित शख्शियत को भगवान बना दिया ! इसके अलावा कुछ ऐसे पंडाल भी हैं जो ओछी राजनीती की अधोगति का शिकार हो पूजा स्थल से कूड़ा स्थल बन गए हैं ! कहीं जूतों की नुमाइश हो रही है ! कहीं खून-खराबे को दर्शाया जा रहा है ! कहीं किसानों के तथाकथित आंदोलन को प्रचार का माध्यम बनाया गया है ! यानी कि राजनीति अपने शिव के बारातियों के साथ पूरे उफान पर है ! 



हमारी आदत में शुमार है कि हम किसी भी गलत काम की शुरुआत पर कभी भी ध्यान नहीं देते ! उसे पनपते, फलते-फूलते तब तक देखते रहते हैं जब तक घाव नासूर नहीं बन जाता ! सैकड़ों बार इस आदत ने हमें सबक सिखाया है, पर हम हैं कि मानते ही नहीं ! इसका मुख्य कारण शायद यह है कि ऐसी हरकतों की शुरुआत छटे हुए चंट लोगों द्वारा बहुत ही मामूली और छोटे पैमाने पर की जाती है ! हम किसी पचड़े में ना पड़ने की अपनी मानसिकता के कारण उसे हर बार नजरंदाज कर देते हैं ! कुछ ऐसा ही इस बार बंगाल के पंडाल निर्माण में हुआ है ! तुच्छ व ओछी राजनीती ने इस माध्यम द्वारा बहुत धीरे से, लोगों की भावनाओं को दरकिनार कर, घुस-पैठ करते हुए इन पूजास्थलों को भी अपना समरांगण बनाने का षड्यंत्र शुरू कर दिया है ! इस बार के कुछ पंडाल इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, जो भक्तिभाव की जगह जुगुप्सा उत्पन्न करते दिखते हैं।

आज कुछ लोग जैसे माथे पर तिलक-रोली लगा अपनी नुमाइश करते घूम रहे हैं ! वैसे ही अपने ''खेला'' में एक ट्विस्ट ला, ममता ने अपनी बहुसंख्यक विरोधी छवि को संभालने के साथ-साथ पुराने रवैये को भी साधे रखने के लिए सार्वजनिक पूजा पंडालों को माध्यम बनाया है ! आज एकाधिक पंडालों में ममता को दुर्गा माता के समदृश दिखलाया जा रहा है। अब यह तो उनसे पूछे बगैर तो हो ही नहीं सकता ! सो चापलूसों, मौका और मतलब परस्त पिच्छलगुओं ने बिना इसकी परवाह किए कि आम धर्मपरायण इंसान की आस्था पर क्या असर पड़ेगा, एक विवादित शख्शियत को भगवान बना दिया ! इसके अलावा कुछ ऐसे पंडाल भी हैं जो ओछी राजनीती की अधोगति का शिकार हो पूजा स्थल से कूड़ा स्थल बन गए हैं ! कहीं जूतों की नुमाइश हो रही है ! कहीं खून-खराबे को दर्शाया जा रहा है ! कहीं किसानों के तथाकथित आंदोलन को प्रचार का माध्यम बनाया गया है ! यानी कि राजनीति अपने शिव के बारातियों के साथ पूरे उफान पर है !  

वैसे ''कुछेकों'' को सिर्फ भगवान की लाठी ही ठीक कर सकती है ! इनकी आँखों पर चढ़ी गुमान की पट्टी इन्हें उन दसियों स्वंयभू भगवानों का हश्र नहीं देखने देती जो अर्श से गिर, जेल के फर्श पर पड़े, किसी तरह अपने दिन काट रहे हैं ! इन्हें तो उस महिला का इतिहास भी याद नहीं जिसने अपने गुरु और आराध्य से भी बड़ी अपनी मूर्तियां गढ़वा कर अपने को दुनिया से अलग दिखाने की कोशिश की थी ! इसलिए समय फिलहाल भले ही अपना हो, पर हर इंसान को अपनी औकात कभी नहीं भूलनी चाहिए ! समय का तो ऐसा है कि उसने अवतारों तक को नहीं छोड़ा ! वह तो कभी खुद का भी नहीं हुआ ! सो भाई खेलो जरूर पर बिना फाउल करे ! क्योंकि अम्पायर भले ही चूक जाए पर अवाम रूपी तीसरा अम्पायर सदा अपनी आँखें खुली रखता है ! 

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से  

शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

क्या हम लार्वा से कोकून हो गए हैं

हमारे लिए सब कुछ मात्र एक मामूली सी खबर बन कर रह जाता है ! पढ़ी-देखी और ''च्च..च्च'' कर पेज या चैनल बदल दिया ! क्यों नहीं दहलते हम कश्मीर में दो दिनों के अंदर पांच हत्याओं पर ? क्यों अब हमारे घरों में मोमबत्तियां ढूंढे नहीं मिलती ? क्यों अब हमारे ''एवार्ड'' वापस होने के लिए नहीं मचलते ? क्यों हम काले कपडे पहन मौन जुलुस नहीं निकालते ? क्यों और कैसे हम अचानक सहिष्णु बन गए ? वह भी ऐसे लोगों की नृशंस हत्या पर, जो समाज कल्याण या फिर निर्भयता के प्रतीक बने हुए थे..........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
एक समय था जब हम अपने सर्व धर्म समभाव, विविधता में एकता, अपने भाईचारे इत्यादि का बड़े गर्व से बखान किया करते थे ! जरा सी हिंसा-विद्वेष होता तो पूरे देश में चिंता की लहर दौड़ जाया करती थी ! अमन-चैन के लिए प्रार्थनाएं होने लगती थीं। पर धीरे-धीरे (कारण कुछ भी हो) वही विशेषताएं हमारी कमजोरियां बनती चली गईं ! समभाव-एकता-भाईचारा सब तिरोहित होते चले गए ! संवेदनाएं जैसे ख़त्म ही हो गईं ! हम सब अलग-अलग जात-पांत-भाषा-धर्म के विभिन्न खांचों में फिट हो गए और उनको खल, चंट व अधम लोगों की रहनुमाई में छोड़ दिया ! अब खांचा विशेष से संबंधित बातों से ही हमारा मतलब रह गया ! इसीलिए मौकापरस्त मीडिया हमें उद्वेलित करने के लिए अब अपनी खबरों में किसी खांचा विशेष के इंसान की मौत या उस पर हुई ज्यादति के साथ उस इंसान के धर्म-जात-पांत का उल्लेख  भी प्रमुखता से करने लगा !  

ऐसा लगने लगा है कि जैसे हम में से अधिकांश लोग कोकूनधारी हो गए हैं ! संवेदनहीन, उदासीन, निर्लिप्त ! अपने आस-पास के माहौल, दीन-दुनिया से परे अपने खोल में सिमटे हुए ! कितनी भी बड़ी घटना हो, वारदात हो, नृशंसकता हो हमें कुछ नहीं व्याप्कता ! हमें फर्क नहीं पड़ता जब बंगाल में प्रतिशोध के तहत निर्दोष और मासूम लोग जान गंवा देते हैं ! हमें तो उस बारूद की तेज गंध भी महसूस नहीं होती जो इधर अचानक कश्मीर की हवा को गंधाने लगी है ! हमने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया कि देश-समाज-आम इंसान के लिए कभी, कुछ भी न करने वाला, कैसे अपने सूबे के बाहर जा कर सियासतदारी कर रहा है ! हम  यह भी नहीं पता कि झूठ के पैर होते हैं कि नहीं ! हम तो इन तन-धारी झूठों के दिखाए दिवास्वपनों में यूं गाफिल हैं कि हमारा ध्यान कभी उनके पैरों की तरफ जाता ही नहीं !  

हमारे लिए सब कुछ मात्र एक मामूली सी खबर बन कर रह जाता है ! पढ़ी-देखी और ''च्च..च्च'' कर पेज या चैनल बदल दिया ! क्यों नहीं दहलते हम कश्मीर में दो दिनों के अंदर पांच हत्याओं पर ? क्यों अब हमारे घरों में मोमबत्तियां ढूंढे नहीं मिलती ? क्यों अब हमारे ''एवार्ड'' वापस होने के लिए नहीं मचलते ? क्यों हम काले कपडे पहन मौन जुलुस नहीं निकालते ? क्यों और कैसे हम अचानक सहिष्णु बन गए ? वह भी ऐसे लोगों की नृशंस ह्त्या पर जो समाज कल्याण या फिर निर्भयता के प्रतीक बने हुए थे ! वैसे हम अपने कोकून में तब भी कहां कसमसाए थे, जब तीसियों साल पहले लाखों लोगों को दरबदर कर दिया गया था।

धर्म-जात-पांत पर सियासत करने वाला कोई एक, सिर्फ एक, अपने को बंदा समझने वाला, हिम्मत है तो सामने आ कर यह बताए कि उन बेगुनाह, निर्दोष, परहितैषी दोनों अध्यापकों सुपिंदर कौर और दीपक चंद को क्यों और किसलिए मारा गया ! वह नेक महिला तो अपनी तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा बिना किसी भेदभाव के, जरूरतमंद बच्चों के भविष्य को संवारने में खर्च कर डालती थी ! इतना ही नहीं, खुद और अपने परिवार की आर्थिक तंगी के बावजूद उसने धर्म-जात-पांत के संकीर्ण नजरिए से ऊपर उठ, एक मुस्लिम बालिका को गोद ले, उसकी सारी जिम्मेदारी उठाने के बावजूद, उसे एक मुस्लिम परिवार में ही रखा था, जिससे कि बच्ची को अपने धर्म की भी पूरी शिक्षा मिल सके !  उधर दीपक चंद अपनी सैलरी से मदरसों की मदद करते रहते थे ! कितने लोग जानते हैं इन दोनों को और इनके नेक कर्मों को, उनकी इंसानियत को, उनकी परोपकार की भावना को, उनके त्याग को ! चुपचाप बिना किसी अपेक्षा और भेदभाव के दूसरों का भला करने के बदले में उन्हें क्या सिला मिला.............!!
 
हम जैसे आम इंसानों को पता नहीं चलता कि सरकार अंदर ही अंदर क्या कर रही है ! खुलासा होना भी नहीं चाहिए ! कर ही रही होगी कुछ ना कुछ ! चुप तो नहीं ही बैठी होगी ! पर अवाम में बहुत आक्रोश है ! उसे तुरंत कार्यवाही होते देखनी है ! अब हर देशवासी यही चाहता है कि आर-पार हो ही जाए ! बहुत हो गया ! अब तो ''शठे शाठ्यम समाचरेत'' के साथ ही ''धर्मसंस्थापनार्थ हि प्रतिज्ञैषा ममाव्यया'' का वक्त भी आ गया है ! इसके तहत बाहरी शत्रु को तो नष्ट करना ही है भीतरघातियों, चाहे वे कितने बड़े रसूखदार हों, को भी नहीं बक्शना है ! फिर चाहे कितनी भी मोमबत्तियां जलें, कितने भी काले कपडे पहने जाएं, कितने भी एवार्ड वापस हों, कितने भी घड़ियाली आंसू बहें ! कोई फ़िक्र नहीं ! क्योंकि प्रभु भी यही कहते हैं कि ''भय बिनु होइ न प्रीति !'' एक बार धर्म की स्थापना के साथ ही भय की भी स्थापना होना बहुत जरुरी हो गया है, वह भी बिना और किसी तरह के विलंब के !

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2021

उपादेयता, इंसान की

हर कोई यही चाहता है कि जब तक जिंदगी है वह स्वावलंबी बना रहे ! पटाक्षेप होने तक चलायमान स्थिति में रह सके ! सच भी है, जब तक इंसान क्रियाशील रहता है उसका शरीर भी साथ देता रहता है ! उम्र को सिर्फ एक अंक मानने वाले ज्यादा देर तक गतिशील बने रहते हैं ! पर इसके बावजूद इंसान अब इंसान ना रह कर मशीन बना दिया गया है ! जब तक काम करती है, बढ़िया ! अन्यथा उठा कर "स्क्रैप" में फेंक दो ! देश में यूँही नहीं सैंकड़ों की तादाद में वृद्धाश्रम खुलते जा रहे हैं ! वह भी वहां, जहां बचपन से ही माँ-बाप को भगवान का दर्जा देने की सीख दी जाती है ! वहां इन तनहा इंसानों को डोलते देख रूह कांप जाती है .............!!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

इस दुनिया में हर चीज की अपनी उपादेयता यानी उपयुक्तता या प्रयोज्यता है ! प्रकृति ने कोई भी वस्तु बिना किसी कारण नहीं बनाई है। सिर्फ मनुष्य की दृष्टि से ना देखा जाए तो हर जीव-जंतु, लता-गुल्म, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे का अपना महत्व है। एक दूसरे पर निर्भरता है। जरुरत है सभी को सभी की। पर इसके साथ ही जैसे ही किसी जड़ या चेतन की उपयोगिता खत्म होने को होती है या हो जाती है तो प्रकृति स्वयमेव ही उसे चुपचाप, धीरे से मिटा देती है, दूसरों पर भार नहीं बनने देती ! पर मनुष्य पर ऐसा नियम लागू नहीं होता ! वह लाचार, निश्चेष्ट, कमजोर, रोगी, पराश्रित होने के बावजूद दुनिया में बना रहता है ! ऐसी अवस्था में कभी न कभी, किसी न किसी दिन वह एक बोझ के रूप में परिणित हो, उपेक्षित सा दूसरों की दया-माया पर निर्भर हो कर रह  जाता है ! किसी द्वेष भाव या पूर्वाग्रह के चलते मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ ! यह प्रकृति का नियम है, सो है !   

हर कोई यही चाहता है कि जब तक जिंदगी है वह स्वावलंबी बना रहे ! पटाक्षेप होने तक चलायमान स्थिति में रह सके ! सच भी है, जब तक इंसान क्रियाशील रहता है शरीर भी साथ देता रहता है ! उम्र को सिर्फ एक अंक मानने वाले ज्यादा देर तक गतिशील बने रहते हैं ! इसीलिए बहुतेरे लोग नियमों के अनुसार सेवानिवृति पा जाने के बावजूद व्यस्त रहने का कोई न कोई जरिया खोज, खुद की उपायदेयता बनाए रखने के साथ-साथ  कुछ हद तक दूसरों को भी चिंता मुक्त रहने में मदद ही करते हैं ! ऐसे लोग अपने जीवन-संचित अनुभवों, दक्षता, विशेषज्ञता, का लाभ वर्तमान पीढ़ी को दे समाज-देश-जगत का उपकार ही करते हैं !  

पर यह सब कहना-सुनना जितना अच्छा और आसान लगता है उतना है नहीं ! उम्र बढ़ने के साथ-साथ कार्यक्षमता प्रभावित होती ही है ! फिर हारी-बिमारी, आर्थिक परिस्थितियां, घरेलू वातावरण, मनुष्य को बहुत कुछ सह, लाचार होने को मजबूर कर देते हैं ! बदलते परिवेश, पश्चिमी जीवन शैली, जीवनोपार्जन में कठिनाइयां, हर क्षेत्र में गलाकाट स्पर्धाएं, असहिष्णुता, बढ़ते तनाव, इन सब के कारण मानवोचित कोमल भावनाएं, सहज स्नेहिल भाव, परोपकारिता, स्नेह, त्याग, दयालुता सब समय के साथ-साथ तिरोहित होती चली जा रही हैं ! इनके स्थान पर कलह, क्लेश, वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष, कुंठा मानव का स्वभाव बनते चले जा रहे हैं ! इंसान अब इंसान ना रह कर मशीन बना दिया गया है ! जब तक काम करती है, बढ़िया ! अन्यथा उठा कर "स्क्रैप" में फेंक दो ! देश में यूँही नहीं सैंकड़ों की तादाद में वृद्धाश्रम खुलते जा रहे हैं ! वह भी वहां, जहां बचपन से ही माँ-बाप को भगवान का दर्जा देने की सीख दी जाती है ! वहां इन तनहा इंसानों को डोलते देख रूह कांप जाती है ! क्या हासिल है, ऐसे जीने से ! इनके सर पर तो फिर भी छत है ! उन लाखों लोगों का क्या, जो घिसट-घिसट कर अपनी जिंदगी के दिन पूरे करते हैं ! 

सीधी सी बात हो  गई है ! जिससे कोई फ़ायदा नहीं उसका कोई मोल नहीं ! तुम्हारी कोई उपादेयता है तो बने रहो नहीं तो तुम अपनी जिम्मेदारी खुद हो ! इन बदलावों का सबसे बड़ा असर उम्रदराज व अवकाशप्राप्त लोगों पर साफ़ दिखना शुरू हो चुका है ! उनकी तमाम सेवाओं, मेहनत, समर्पण को सिरे से भुला दिया जाता है ! उन्हें सम्मान तभी मिलता है, जब उनके पिछवाड़े अभी भी कोई ''कुर्सी'' हो या फिर माथे पर कोई तमगा चिपका हो ! जरा सा गौर करेंगे तो सैलून में, मॉल में, हाट-बाजार में दसियों उदाहरण मिल जाएंगें जहां इन्हें "फॉर ग्रांटेड" ले लिया जाता है ! 

ऐसे लोगों से मेरा कोई द्वेष नहीं है ना ही कोई पूर्वाग्रह है ! मुझे सदा उनसे हमदर्दी और सहानुभूति रही है ! दुःख होता है उनकी विषमताओं को देख कर ! कई-कई बार कुछ देर के लिए एक ऐसी ही जगह जा उनके सूनेपन को कम करने की कोशिश करता रहा ! पर इस सबसे उनके दुःख को ख़त्म तो नहीं किया जा सकता था ! उलटे खुद का मन अवसाद से भर जाता था, वहां से लौटते हुए ! इस अवस्था में, जीवन के इस पड़ाव पर उन्हें किसी उपहार या अन्य किसी भौतिक सामग्री की चाह नहीं होती, उन्हें जरुरत होती है प्यार की, स्नेह की, अपनेपन की, किसी के साथ की, जो उन्हें कभी नहीं मिल पाता ! इसीलिए मेरी प्रकृति से शिकायत है कि क्यों नहीं उसने कुछ ऐसा सिस्टम बनाया, जिससे दूसरे जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, लता-गुल्मों की तरह ऐसे लोगों की भी इस जहां से अपनी पारी खेलने के पश्चात सम्मान से विदाई हो सकती।     

शनिवार, 2 अक्तूबर 2021

हावड़ा स्टेशन ! टर्मिनस भी, जंक्शन भी

रेलवे की भाषा में टर्मिनस उस स्टेशन को कहा जाता है, जिसके और आगे जाने की पटरी ना हो, रास्ता वहीं खत्म हो जाता हो यानी ट्रेन जिस दिशा से आई है, उसी दिशा में उसे वापस जाना पड़ता है ! जंक्शन का मतलब होता है जिस स्टेशन से दो या उससे अधिक दिशाओं में जाने के रास्ते निकलते हों ! इसकी एक विशेष विशेषता यह भी है कि जहां और जंक्शनों में पटरियां स्टेशन से कुछ दूर जा कर अलग दिशाओं में मुड़ती हैं, वहीं हावड़ा में यह अलगाव स्टेशन से ही हो जाता है.............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

देश और भारतीय रेल का सबसे बड़ा, खूबसूरत, भव्य, ऐतिहासिक रेलवे स्टेशन है हावड़ा ! पश्चिम बंगाल में हुगली नदी के दाहिने किनारे पर स्थित, एक छोटे-मोटे शहर जैसा विशाल होने के साथ-साथ यह खुद में अनेकानेक विशेषताओं को अपने में समेटे रोज लाखों लोगों को, अपने 23 प्लेटफार्मों की बदौलत, अपने गंतव्य तक पहुंचने में मदद करता है ! 1854 में इसकी स्थापना कलकत्ता शहर की बजाए ठीक उसके सामने नदी के दूसरी तरफ हावड़ा में की गई ! क्योंकि उस तरफ का भू-भाग बिना किसी जल बाधा के देश के दूसरे हिस्सों से जुड़ा हुआ था, इससे नदी पर पुल बनाने की जहमत और खर्च से बचाव हुआ ! जिस स्थान को स्टेशन के लिए चुना गया वह एक बहुत बड़ा दलदली, जंगली लता-गुल्मों से पता जोहड़ था ! जिसे बंगला भाषा में हाउर या हाओर कहा जाता है ! उसी से इस स्थान का नाम हावड़ा पड़ा। स्टेशन बनने के साथ ही यहां औद्यौगिक विकास भी पनपा जिसने शहर को कलकत्ता के एक आम से उपनगर को भारतवर्ष का एक महत्वपूर्ण औद्यौगिक केन्द्र बना दिया। 1853 में बंबई से भारत में पहली रेल गाड़ी चलने के बाद 1854 में दूसरी हावड़ा से ही चली थी ! 


स्टेशन का भीतरी भाग 

हावड़ा स्टेशन की एक सबसे बड़ी विशेषता है कि यह टर्मिनस होने के बावजूद जंक्शन कहलाता है ! रेलवे की भाषा में टर्मिनस उस स्टेशन को कहा जाता है, जिसके और आगे जाने की पटरी ना हो, रास्ता वहीं खत्म हो जाता हो यानी ट्रेन जिस दिशा से आई है उसी दिशा में उसे वापस जाना पड़ता है ! जंक्शन का मतलब होता है जिस स्टेशन से दो या उससे अधिक दिशाओं में जाने के रास्ते निकलते हों ! हावड़ा, टर्मिनस होते हुए भी जंक्शन इस लिए कहलाता है क्योंकि यहां से कई दिशाओं में जाने की सुविधा है ! एक तो सीधे बैंडल-वर्धमान होते हुए पटना-दिल्ली-पंजाब से कश्मीर तक ! दूसरे तकियापारा-सांतरगाझी होते हुए भुवनेश्वर, फिर वहां से भी आगे ! तीसरा खडगपुर-रायपुर होते हुए मुंबई ! चौथी एक लाइन हावड़ा से डानकुनी होते हुए इसे सियालदह, यानी कोलकाता से भी जोड़ती है ! इस जंक्शन की एक विशेष विशेषता यह भी है कि जहां और जंक्शनों में पटरियां स्टेशन से कुछ दूर जा कर अलग दिशाओं में मुड़ती हैं, वहीं हावड़ा में यह अलगाव स्टेशन से ही हो जाता है ! ऐसा उदाहरण और कहीं नहीं मिलता ! इसके अलावा जलपथ भी है जिससे स्टीमर द्वारा हावड़ा से कोलकाता कुछ ही मिनटों में पहुंचा जा सकता है। इसे भी जंक्शन की तरह ही लिया जा सकता है। इससे हावड़ा पुल का भी कुछ बोझ हल्का हुआ है !

प्लेटफार्म के साथ रोड 

सब वे 
एक और भी कारण है जो इसको जंक्शन कहलवाता है ! शुरू में जब हुगली नदी पर पुल नहीं था तब लोग फेरी या नौका से नदी पार कर हावड़ा पहुंचते थे ! उस जल-पथ और रेल-पथ के जंक्शन के कारण भी इसे हावड़ा स्टेशन जंक्शन कहा जाने लगा था।

डबल डेकर 

फेरी क्वीन 

हावड़ा स्टेशन की अपनी कुछ और विशेषताएं भी हैं जो इसे देश का प्रमुख, प्रथम व खास स्टेशन होने का गौरव प्रदान करती हैं  :-

* देश में पहली बिजली की ट्रेन यहीं से चली थी ! 

* पहली हावड़ा-दिल्ली राजधानी गाडी को रवाना करने वाला भी यही स्टेशन था ! 

* देश की पहली डबल डेकर ट्रेन, हावड़ा-धनबाद, यहीं से चलाई गई थी। 

* यह देश का पहला स्टेशन है जहां प्लेटफार्म तक निजी वाहन ले जाने की भी सुविधा है ! यानी रेल की पटरियों के साथ ही सड़क मार्ग भी है ! जिनकी संख्या अब दो हो गई है। 

* दैनिक यात्रियों की सुविधा के लिए बना, भारत का सबसे पुराना ''सब वे'' भी यहीं है। 

* सबसे पहले देश के "जीरो नंबर" के प्लेटफार्म का निर्माण भी यहीं हुआ था। 

* 23 प्लेटफार्मों के साथ यह देश का सबसे व्यस्त रेलवे परिसर है। 

* दुनिया के व्यस्ततम रेल तंत्रों में से एक है।   

* विश्व के सबसे पुराने पर अभी भी सक्रिय लोकोमोटिव इंजिन ''फेरी क्वीन'' ने अपनी यात्रा की शुरुआत यहीं हावड़ा से ही की थी। 

* यात्रियों की सुविधा के लिए सर्व सुविधायुक्त "यात्री निवास" भी इसी के परिसर में बना था। 

* थोड़े से वृहद नजरिए से देखें तो देश की पहली, हुगली नदी के नीचे से गुजरने वाली, मेट्रो सुरंग भी इसके आस-पास ही बन रही है !


@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

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आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...