मंगलवार, 25 जून 2019

#कादम्बिनी_सम्पादक_मंडल से ऐसी आशा नहीं थी

आलोचना को भी स्वीकार करने का माद्दा होना चाहिए  ! जो पत्र आपकी मर्जी के  मुताबिक  ना हों उन्हें छापना ना छापना आप के ऊपर निर्भर है , पर किसी भी हालत  में  भेजे गए  पत्र के मजमून से छेड़खानी नहीं होनी चाहिए ! प्रकाशक और पाठक में  फर्क है ! प्रकाशक चाहे जैसे भी येन-केन-प्रकारेण, इच्छा-अनिच्छा से, अच्छा-बुरा जैसा  भी अंक निकाले उसे अपना मेहनताना मिल ही जाना है ! पर पाठक पैसे खर्च करता है  तो उसका हक़ बनता है कि उसे उच्च कोटि की, सार  गर्भित, नामी-गिरामी लेखकों  की  रचनाएं पढ़ने को मिलें ना कि संपादक मंडल की थोपी हुई रचनाएं या ऐसे लोगों  के  अनगढ़ विचार जो हिंदी की दो लाइनें भी सही ना  बोल पाते हों.............

#हिन्दी_ब्लागिंग     
हिंदी साहित्य, पत्र-पत्रिकाओं में रूचि रखने वाला शायद ही ऐसा कोई पाठक होगा जिसने  #कादम्बिनी का नाम ना सुना हो। हमारे परिवार का तो यह अपने जन्म के साथ ही सदस्य बन गयी थी। हिन्दुस्तान टाइम्स की यह गैर राजनीतिक मासिक पत्रिका अपने आप में ज्ञान, संस्कृति, साहित्य, कला, सेहत जैसे विषयों का भंडार हुआ करती थी। इसकी सुरुचिपूर्ण एवं प्रभावी प्रस्तुति और स्वस्थ मनोरंजन इसकी ख़ास पहचान थी। शुरूआती समय से ही इसे विद्वान व निपुण लोगों का सहारा तथा महादेवी वर्मा तथा कुंवर नारायण जैसे विद्वानों का संरक्षण तथा आशीर्वाद मिलता रहा। सालों शिखर पर रही इस पत्रिका की अपनी एक गौरवमयी  पहचान रही है और तो और इसके पाठकों को भी समाज में सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाता था। पर धीरे-धीरे समय के साथ सब उलट-पलट होता चला गया ! पहले जैसा स्तर भी ना रहा ! पाठक घटते चले गए ! ऐसी हालत देख शुरू से इससे जुड़े लोगों को दुःख होना स्वाभाविक है पर लगता है कि इसको लेकर कोई भी गंभीर नहीं है ! पिछले दिनों इसी को लेकर एक आलोचनात्मक पत्र संपादक जी को लिखा था पर यह देख स्तंभित रह गया कि उसको काट-छांट कर एक प्रशंसात्मक रूप दे प्रसस्ति पात्र बना दिया गया ! दोनों पत्र ब्लॉग के पाठकों के अवलोकन के लिए यहां दे रहा हूँ !
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मेरा पत्र सम्पादक मंडल को -
माननीय महोदय,
नमस्कार। 
एक समय था जब कादम्बिनी गागर में सागर थी। स्वस्थ, ज्ञानवर्धक जानकारियां, उच्च कोटि के लेखकों की श्रेष्ठ रचनाएं, कथा-कहानियां ही स्थान पाती थीं। समय के साथ ''सारथी'' बदलते गए कोई तंत्र-मंत्र, साधू-संतों को ले आया, कोई अपने ही सगे-संबंधियों को स्थान देने लगा, किसी के लगे-बधों को झेलना पाठक की मजबूरी हो गयी तो किसी ने तो आ कर इसकी अपनी पहचान को ही ख़त्म कर, आम पत्रिकाओं का रूप दे ''बुक स्टॉलों'' के ढेर में की एक बना डाला।  

पहले एक चलन था कि विनम्र संपादक अपने पाठकों की रुचि, उनके विचार जान कादम्बिनी को लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे ! ऐसे ही नहीं इसने एक लाख प्रतियों का आंकड़ा छू लिया था ! गैर हिंदी प्रदेशों में भी यह खूब पढ़ी जाती थी। सालों शिखर पर रही इस पत्रिका की अपनी एक गौरवमयी पहचान रही  है ! यहां तक की इसके पाठकों को भी सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाता था। पर आज हालत यह है कि यदि कोई मेहमान घर आ इसे सामने पाता है तो आश्चर्य से पूछता है ''अरे ! यह अभी भी निकल रही है ?''

आज तो ऐसा लगता है जैसे इसकी बेहतरी की चिंता किए बिना, एक ''फार्मेल्टी'' के तहत इसे निकाला जा रहा है ! पहले जहां यह एक सुरुचिपूर्ण, राह दिखाने वाली, सामाजिक संदेशों से भरी साफ़-सुथरी, अनेकों गुणों को समेटे एक फिल्म की तरह होती थी, वहीं आज यह एक नीरस, उबाऊ ''डाक्यूमेंट्री'' की तरह हो कर रह गयी है। फिल्म से याद आया कि पहले यह फिल्मों और फिल्म वालों से कुछ दूरी बना कर ही चला करती थी। पर अब तो लगता है कि मनुहार-विनती कर उनके नाम को शामिल किया जाता है। समय बदल चुका है, फ़िल्मी कलाकारों को पुस्तक से जोड़ने में कोई बुराई नहीं है, लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं ये, आजकल ! पर उनके तथाकथित लेख पत्रिका की श्रेणी के तो हों ! ऐसे-ऐसे लोग अपनी विद्वता झाड़ते यहां मिलते हैं जो ढंग से हिंदी की चार लाइनें भी नहीं बोल पाते ! फ़िल्मी जगत में भी विद्वानों, जानकारों, गुणवानों की कोई कमी नहीं है ! उनके विचार, लेख, रचनाएं क्यों नहीं पाठकों तक पहुंचतीं ?

अभी भी समय है, मेरे जैसे हजारों लोग इसका इंतजार करते हैं। आपसे विनम्र निवेदन है कि इसे और लोकप्रिय बनाने की ओर ध्यान दिया जाए ! ''थीम अंक'' के नाम पर आधी से ज्यादा पत्रिका को समेट कर उसे बोझिल बनाने के बजाए उस विषय को पंद्रह-बीस पृष्ठों तक ही सिमित रख, बाकी में अन्य विषयों को स्थान दें तो बेहतर होगा ! लेखकों से निवेदन किया जाए कि भाषा सरल-सुगम हो जिससे बच्चों में भी इसकी लोकप्रियता बढे। अपने देश, देशवासियो, इतिहासिक-पौराणिक महान चरित्रों को, ईसप-पंचतत्र जैसी कथाओं के लिए भी एक कोना सुरक्षित कर दें। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आज की पीढ़ी को अपने इतिहास की जानकारी ना के बराबर है ! अभी पिछले दिनों उदयपुर-हल्दीघाटी जाना हुआ तो बेहद दुःख और आश्चर्य का सामना करना पड़ा जब साथ के दसवीं के छात्र ने हल्दी घाटी और चेतक के बारे में अपनी अनभिज्ञता जाहिर की ! और तो और उनकी माताश्री जो खुद शिक्षक हैं. दिल्ली में, उनकी जानकारी भी इस विषय में सतही ही थी। 

आशा है अन्यथा ना लेते हुए,  कुछ समय निकाल, इस विषय पर भी गौर किया जाएगा। 
धन्यवाद। 
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पत्र जो उनके द्वारा छापा गया। 

बुधवार, 19 जून 2019

जब भजन मंडली ने दो-दो कंबल ओढ़वाए

वह गायन लय-ताल के साथ अपने में शिक्षा, उपदेश, भजन सब कुछ समेटे था। तक़रीबन सारे यात्रियों का ध्यान उस ओर खिंच कर रह गया था। एक दो घंटे के बाद भोजनोपरांत, सोने के पहले, आधेक घंटे के लिए वही माहौल फिर बना। गीत-भजनों का सार था, सर्वजन हिताय ! सर्व जन सुखाये ! हर जीव में भगवान है ! खुद कष्ट सह कर भी दूसरों का उपकार करो ! सब पर दया करो ! सब एक ही परमात्मा की संतानें हैं इत्यादि, इत्यादि ! पर कुछ देर बाद ही इस दिखावे की पोल खुल गयी ! जब गर्मी से बचाव के लिए ज्यादा पैसे खर्च कर खरीदी गयी ठंड से निजात पाने के लिए मजबूरन दो-दो कंबल ओढ़ने पड़े......!  

#हिन्दी_ब्लागिंग   
अभी पिछले हफ्ते मुंबई से दिल्ली आना हो रहा था। सहयात्रियों में एक 24-25 जनों की टोली भी थी। जिसमें युवा से अधेड़ उम्र के पढ़े-लिखे, सभ्रांत, शांत, सौम्य दिखते लोग शामिल थे, जो शायद देवस्थलों के भ्रमण के लिए निकले थे। गाडी चलने के बाद चाय-नाश्ता निपटने के उपरांत दो महिलाओं के गायन की स्वर लहरी सुनाई पड़ी जो कुछ ही देर बाद मंद, कर्णप्रिय समूह गान में परिवर्तित हो गयी। बीस-पच्चीस मिनट का वह गायन लय-ताल के साथ अपने में शिक्षा, उपदेश, भजन सब कुछ समेटे था। सारे यात्रियों का ध्यान उसी ओर था। एक दो घंटे के बाद भोजनोपरांत, सोने के पहले, आधेक घंटे के लिए वही माहौल फिर बना, गीत-भजनों का सार था, सर्व जन हिताय ! सर्व जन सुखाये ! हर जीव में भगवान है ! खुद कष्ट सह कर भी दूसरों का उपकार करो ! सब पर दया करो ! सब एक ही परमात्मा की संतानें हैं इत्यादि, इत्यादि !  
   
कुछ ही देर बाद जब हरेक यात्री सोने का उपक्रम कर रहा था तभी ऐसा लगा कि कोच का तापमान अचानक कम हो गया है। सबको कुछ ज्यादा ही ठंड महसूस होने लगी ! अटेंडेंट को बुला कर तापमान बढ़ाने को कहा तो उसने बताया कि कुछ लोगों ने जबरन ऐसा करवाया है। फिर भी उसने नॉर्मल करने की बात कही।  कुछ देर तो ठीक रहा उसके बाद फिर ठंड बढ़ गयी तो मैंने सम्बंधित कर्मचारी को फिर कहा, तो उसने फिर वही बात दोहराई और बताया कि उस मंडली के दो-तीन लोग लड़ने पर उतारू हो तापमान नीचे करवा रहे हैं ! उसने बताया कि, उन्हें दूसरे यात्रियों की परेशानियों का हवाला भी दिया, यह भी कहा कि बुजुर्ग यात्रियों को तकलीफ हो रही है ! पर वे नहीं माने ! वे सिर्फ अपनी बेआरामी की बात कर रहे हैं ! फिर उसने सुझाव दिया कि, सर, आप लोग एक-एक कंबल और ले लीजिए, बेकार इतनी रात को बात बढ़ाने से कोई फायदा तो है नहीं ! खैर बात वहीँ ख़त्म कर दी गयी ! हालांकि एक-दो लोग कक्ष के बाहर जा कर बैठे भी दिखे ! अजीब विडंबना थी ! पहले गर्मी से बचाव के लिए ज्यादा पैसे खर्च कर ठंड का इंतजाम करो; और फिर उसी खरीदी गयी ठंड से निजात पाने के लिए कंबल ओढो ! 

मैं कभी भी यात्रा के दौरान उपलब्ध कंबलों का इस्तेमाल नहीं करता पर उस दिन मजबूरी में चादर के ऊपर पैरों तक ओढ़ यही सोचता रहा कि मुंह से गाये या दिए गए उपदेश लोग कब अपने दिलों में भी उतारेंगे ! कब दूसरों की तकलीफों, उनकी परेशानियों को भी समझेंगे ! कब सिर्फ दिखावे, रूटीन या दूसरों को उपदेश देने, सुनाने के बजाय खुद भी उनका अनुसरण करेंगे ! कब ! 

शनिवार, 15 जून 2019

छत्तीसगढ में खेल और खेलों में संस्कृत

क्रिकेट = कंदुक क्रीड़ा।
रन       = भावनांक।  
चौका   = सिद्ध चतुष्कम।
बढ़िया शॉट = पुष्ठु प्रहार। 
बाउंड्री = कंदुक परिधि लंघनम। 
कैच     =  ग्रहणम। 
आउट = निर्गत। 

#हिन्दी_ब्लागिंग  
ये कोई मजाक की बात नहीं हो रही ना ही हिंदी को असमर्थ भाषा बताने की साजिश ! यह तो छत्तीसगढ के संस्कृत विद्या मंडलम का प्रदेश में संस्कृत भाषा को लोकप्रिय और बढ़ावा देने के साथ-साथ खेलों में भी इस भाषा के प्रयोग को प्रोत्साहन देने का एक प्रयास है। इससे छत्तीसगढ़ देश का पहला ऐसा राज्य होगा जहां क्रिकेट, फ़ुटबाल, बैडमिंटन जैसे हर प्रचलित खेलों के नाम व नियम के लिए संस्कृत में तकनीकी शब्दावली होगी। इसकी तैयारी चरणबद्ध तरीके से, नए शिक्षा सत्र से संस्कृत स्कूलों में खेलों के प्रचलित नामों की जगह संस्कृत के नामों से पुकारे जाने से की जा रही है। इसके साथ ही यह भी कोशिश रहेगी कि खेलकूद की प्रतियोगिताओं में संस्कृत ही में उसका विवरण प्रसारित किया जाए। इसके साथ ही यह भी प्रयास किया जाएगा कि स्थानीय और देशज लोकप्रिय खेलों के नामों और नियमों का भी संस्कृत में अनुवाद किया जा सके, इस पर रिसर्च भी की जा रही है।  

वैसे इससे मिलता-जुलता एक प्रयास इस साल बनारस में संपूर्णानंद विश्वविद्यालय ने संस्कृत क्रिकेट प्रतियोगिता का आयोजन करवा कर किया था, जिसमें खिलाड़ियों ने धोती-कुर्ता पहन कर क्रिकेट खेला था। इस में कॉमेंट्री व अन्य नियम कायदे सबमें संस्कृत का ही उपयोग किया गया था। जब खेलों प्रतियोगिताओं में भी संस्कृत का प्रयोग होने लगेगा तो बच्चे भी इस भाषा से और ज्यादा जुड़ाव और लगाव महसूस करने लगेंगे। अभी जो संस्कृत में खेलों के नाम का शब्दकोष बनाया जा रहा है उसमें खेलों के नाम कुछ इस तरह के होंगे -

* क्रिकेट = कंदुक क्रीड़ा !            * फ़ुटबॉल  = पाद कंदुकम !                 * बॉस्केटबॉल = हस्तपाद कंदुकम !
* वॉलीवाल = अपाद कंदुकम !     * टेबल टेनिस = उत्पीठिका कंदुकम !    * बैडमिंटन = खगक्षेपण क्रीड़ा !
* दौड़ = धावनम !                        * कबड्डी = रुद्ध्यते बाध्यते !                   * खोखो = खो गति प्रतिघात !      
* कुश्ती = मल्लयुद्धम !   

शुरू में यह सब अजीबोगरीब या अटपटा सा जरूर लगता है ! साथ ही यह आशंका भी है कि सदा की तरह भारतीय भाषाओं को अक्षम बताते हुए उनका विरोध कर, अंग्रजी को तरजीह देने वाले कुछ लोग इस कदम को भी निरुत्साहित करने, इसे अव्यवहारिक और कलिष्ट बताने, इसका मजाक बनाने के साथ-साथ अंग्रजी शब्दों के उपयोग को ख़त्म करने के विरोध में मुहीम चलाने की पुरजोर कोशिश कर सकते हैं ! अब तो यह समय ही बताएगा कि यह प्रयास कितना सफल होता है। लोगों का कितना सहयोग मिलता है और जुबान पर चढ़े शब्दों की जगह नए शब्दों के प्रयोग में कितना समय लगता है या फिर अवाम स्वीकार करती भी है या नहीं ! क्योंकि संस्कृत में टी.वी. पर पढ़ी जाने वाली खबरों का उदहारण हमारे सामने है !

*संदर्भ - दैनिक भास्कर        

बुधवार, 12 जून 2019

क्या हुआ था उस दिन, आज की तारीख पर !

जस्टिस सिन्हा ने अपना फैसला सुनाते हुए श्रीमती गाँधी को चुनावों में भ्रष्ट आचरण का दोषी करार देते हुए उनका चुनाव तो रद्द किया ही साथ ही उन्हें अगले छह वर्ष तक किसी भी संवैधानिक पद के लिए भी  अयोग्य घोषित कर दिया। कोर्ट के बाहर-अंदर सन्नाटा पसर गया। भरी दोपहरी में भी आधी रात का सा माहौल छा गया सा लगने लगा था। इंदिरा गांधी का चेहरा सफ़ेद पड़ गया, उन्हें पूरी आशा थी कि फैसला उनके ही हक़ में होगा ! हालांकि उन्हें अपील के लिए पंद्रह दिन का समय मिला था पर ऐसे निर्णय की तो उन्होंने तो क्या किसी ने भी कल्पना तक नहीं की थी, इसीलिए उन्होंने आगे अपील के लिए कोई वकील भी नियुक्त नहीं किया था...................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
इलाहाबाद हाईकोर्ट परिसर, 12 जून 1975, जैसे सारा शहर ही वहां आ इकठ्ठा हुआ हो ! चहुँ ओर जन-सैलाब ! होता भी क्यों ना ! आज देश की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के रायबरेली से चुनाव जीतने के नतीजे को सोशलिस्ट नेता राजनारायण द्वारा दी गयी चुन्नौती का फैसला जो आना था। जज थे जगमोहनलाल सिन्हा। अचानक भीड़ में भारी अफरातफरी मच गयी, नारे लगने लगे, भीड़ बेकाबू होने लगी, उसी रेलम-पेल में एक काले रंग की गाडी कोर्ट परिसर में आ कर रुकी और उसमें से उतरीं श्रीमती इंदिरा गाँधी ! देश के तब तक के इतिहास में कोई प्रधान मंत्री पहली बार अपना फैसला सुनने अदालत पहुंचा था। चेहरे पर हल्के से तनाव के बावजूद एक निश्चिंतता भरी मुस्कान लिए उन्होंने अपने समर्थकों और कार्यकर्ताओं का हाथ हिला कर अभिवादन किया। नारों के शोर से सारा माहौल गुंजायमान हो उठा ! श्रीमती गांधी धीरे-धीरे चलते हुए कोर्ट के कक्ष में प्रवेश कर गयीं। अगले पलों में जो होने वाला था उसका किसी को भी लेश मात्रअंदाजा नहीं था ! 

बात 1971 की है। इंदिरा गांधी ने उत्तर प्रदेश की अपनी परंपरागत रायबरेली सीट पर अपने प्रतिद्वंदी सोशलिस्ट पार्टी के राजनारायण को भारी बहुमतों से परास्त कर जीत हासिल की थी। हारने के बाद राजनारायण ने चुनावी गड़बड़ियों का आरोप लगाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल कर दी थी। जिसे दो आधारों पर स्वीकार कर लिया गया था। पहला था प्रधान मंत्री सचिवालय के ओएसडी राजकुमार कपूर का चुनाव एजेंट की तरह काम करना और दूसरा उनकी चुनाव रैलियों के आयोजन में उत्तर प्रदेश के सरकारी अधिकारीयों का सहयोग। 

समयानुसार जस्टिस सिन्हा ने अपना फैसला सुनाते हुए श्रीमती गाँधी को चुनावों में भ्रष्ट आचरण का दोषी करार देते हुए उनका चुनाव तो रद्द किया ही साथ ही उन्हें अगले छह वर्ष तक किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित भी कर दिया। कोर्ट के बाहर-अंदर सन्नाटा छा गया। एक अजीबोगरीब चुप्पी सारे जन-सैलाब पर छा गयी। भरी दोपहरी में भी आधी रात का सा माहौल पसर गया लगता था। इंदिरा गांधी का चेहरा सफ़ेद पड़ गया, मानो काटो तो खून नहीं ! उन्हें पूरी आशा थी कि फैसला उनके ही हक़ में होगा ! हालांकि उन्हें अपील के लिए पंद्रह दिन का समय मिला था पर ऐसे निर्णय की तो उन्होंने तो क्या किसी ने भी कल्पना तक नहीं की थी, इसीलिए उन्होंने आगे अपील के लिए कोई वकील भी नियुक्त नहीं किया था। उनके साथ के सारे नेता, कार्यकर्त्ता, साथी किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे। किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था। ऐसे में वहीं के एक स्थानीय वकील वी. एन. खेर ने अपनी तरफ से ही एक अर्जी हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल कर दी। बाद में यही खेर साहब भारत के मुख्य न्यायाधीश भी बने। 

उसके बाद जो हुआ वह तो सभी जानते हैं कि कैसे सुप्रीम कोर्ट में अवकाश होने की वजह से इस मामले की सुनवाई अवकाशकालीन जस्टिस कृष्णा अय्यर ने करते हुए 24 जून को श्रीमती गांधी को राहत दे उन्हें प्रधान मंत्री बने रहने की छूट दे दी। जिसके अगले ही दिन 25 जून को इमरजेंसी लगा दी गयी। आगे चल कर हाई कोर्ट का फैसला भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द कर दिया गया।  

शुक्रवार, 7 जून 2019

किटी पार्टी, कुछ रोचक जानकारियां

किसी समय बचत करने या पैसा बचाने के उद्देश्य से जन्मे इस तरीके यानी ''किटी'' ने आज समाज के विभिन्न वर्गों में भी अपनी पैठ बना ली है। एक मुश्त अच्छी-खासी रकम मिलने के कारण यह बहुतेरे लोगों की परेशानियों का हल बन कर सामने आयी है। इसकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि इसमें कोई अतिरिक्त लाभ जैसे ब्याज आदि लिया-दिया नहीं जाता है। इसके अतिरिक्त इसका एक फायदा और भी है कि बड़े शहरों में अकेलेपन से जूझते लोगों, खासकर महिलाओं का एक-दूसरे से मिलने, हाल-चाल जानने के साथ-साथ मनोरंजन और आर्थिक सहायता का इंतजाम भी हो जाता है .................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
किटी पार्टी की शुरुआत कब और कहां हुई, यह कहना तो कुछ मुश्किल है पर कैसे हुई इसका कुछ-कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है। किटी का मतलब होता है सामूहिक धन ! यानी कुछ लोगों द्वारा किसी ख़ास उद्देश्य से एकत्रित की गयी एक छोटी सी रकम। कभी आपसी सहायता से किसी जरूरतमंद अपने साथी-मित्र-संबंधी की मदद करने की सदेच्छा आज मनोरंजन का साधन भी बन गयी है और जाने-अनजाने किसी हद तक बाजार की उदरपूर्ति का जरिया भी ! जो सुझाने लगा है अजीबो-गरीब नए-नए तरीके, जगहें, खेल इत्यादि ! 
हमारे देश का निम्न-मध्यम वर्ग सदा से ही अभावों से जूझता रहा है। शायद ही कभी अपनी सिमित आमदनी से उसकी जरूरतें पूरी हो पाती हों। अक्सर अचानक आ पड़ने वाली अपनी छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा  करने के लिए भी उसे अपने दोस्तों या फिर महाजनों का आश्रय लेना पड़ता रहा है। एक बार महाजन के ब्याज के मकड़जाल में फंसे इंसान की हालत तो सभी जानते हैं। रही दोस्तों की बात तो सदा से दोस्त या हितैषी यथाशक्ति अपने छोटे-मोटे सहयोग से अपने किसी जरूरतमंद मित्र की सहायता करते ही रहे हैं। ऐसा लगता है कि उसी सहयोग की उपयोगिता और सार्थकता को देखते हुए उस तरीके को एक अलग रंग दे स्थाई रूप से अपना लिया गया। शुरुआत में इसे अपनाते हुए जान-पहचान के कुछ हम-पेशा लोगों ने, ज्यादा बचत की गुंजाइश ना होने के कारण, सिर्फ बीस रूपए की एक छोटी सी रकम के साथ शुरुआत की  होगी ! उसी बीस रूपए के कारण इसका नाम ''बीसी'' पड़ा होगा। जो कालांतर में ''बचत कमेटी'' के रूप में जाना जाने लगा। इसलिए किटी को कई जगह ''बीसी'' या ''कमेटी'' के नाम से भी जाना जाता है। धीरे-धीरे इसकी उपयोगिता को देखते हुए इसकी लोकप्रियता चारों ओर, खासकर छोटे शहरों और कस्बों में भी फैलती चली गयी !  
   
किसी समय कोई बचत ना हो पाने की सूरत में किटी, यानी पैसा बचाने के उद्देश्य से जन्मे इस तरीके ने समाज के विभिन्न वर्गों में भी अपनी पैठ बना ली। एक मुश्त अच्छी-खासी रकम मिलने के कारण यह बहुतेरे लोगों की परेशानियों का हल बनने लग गया। इसकी लोकप्रियता का कारण यह भी था कि इसमें कोई अतिरिक्त लाभ जैसे ब्याज आदि नहीं लिया-दिया जाता था। एक छोटी राशि जमा करने पर क्रमवार हरेक को एक अच्छी-खासी बड़ी रकम मिल जाती थी, जिससे उसके पैसे के अभाव में रुके कई काम पूरे हो जाते थे। इसके अलावा एक अतिरिक्त फायदा यह भी था कि लोग कम से कम महीने में एक बार मिल बैठ कर एक दूसरे का हाल-चाल जान लेते थे, मनोरंजन के साथ-साथ आर्थिक सहायता का इंतजाम भी हो जाता था।
किटी की शुरुआत भले ही पुरुषों ने की हो, पर इसकी उपयोगिता के कारण यह महिलाओं द्वारा ऐसे अपना ली गयी कि आज किटी या बीसी (बजट कमेटी) महिलाओं की पार्टी का पर्याय हो गयी है। पहले जिस आयोजन का उद्देश्य सिर्फ कुछ बचत करना था, आज वह महिलाओं का बचत के साथ-साथ आपस में मिलने-जुलने, तफरीह, एक मुश्त पैसा पाने और कुछ समय सिर्फ अपने लिए गुजारने का बेहतरीन जरिया भी बन गया है। घर में अकेलेपन से जूझती अधिकांश बुजुर्ग महिलाओं के लिए भी यह प्रणवायु सिद्ध हो रहा है। बहुतेरी महिलाएं हर हफ्ते अलग-अलग आयोजित ऐसी पार्टियों में शिरकत कर ख़ुशी के कुछ पल अपने लिए संजो लेती हैं। यही वजह है कि छोटे शहरों और कस्बों में भी किटी पार्टी तेजी से लोकप्रिय हुई है। अब तो बदलते चलन के साथ ही इसके भी कई रूप हो गए हैं जैसे, कालोनी किटी पार्टी, सीनियर सिटीजन किटी पार्टी, कपल किटी पार्टी इत्यादि !
जब समूह इत्यादि, जिसमें कई तरह के लोग जुड़े होते हैं, में कोई काम होता है तो जाहिर है अलग-अलग लोगों के विचारों से मतभेद होने की संभावना भी बढ़ जाती है इसलिए वहां कुछ नियम बना दिए जाते हैं, जिससे किसी तरह का मनमुटाव न हो और आपस में विश्वास बना रहे। वैसे ही हर किटी पार्टी के अपने कुछ नियम होते हैं जिनका कड़ाई से पालन करते हुए एक बजट कमेटी (BC) बनाई जाती है। सारे इंतजाम को सुचारु रूप से चलाने के लिए किसी एक सदस्य को कॉर्डिनेटर बना दिया जाता है, जो सभी सदस्यों को बुलाने, तारीख तय करने और पेमेंट लेने का काम करता है। जितने सदस्य होते हैं उतने ही माह निश्चित कर दिए जाते हैं। हर माह सारे सदस्य एक निश्चित राशि जमा कर एक फंड बनाते हैं और पर्ची की सहायता से कमेटी के किसी एक सदस्य चुन सारा पैसा उसे दे दिया जाता है। फिर उस सदस्य का नाम अलग कर दिया जाता है। इसी तरह हर महीने अलग-अलग सदस्य को ये फंड मिलता जाता है और इस तरह ये चक्र पूरा हो जाता है। हर सदस्य को कम से कम एक बार इसे आयोजित करना पड़ता है, और उस दिन मनोरंजन और जलपान का जिम्मा भी उसी का रहता है। आम तौर पर बारह सदस्य ही लिए जाते हैं, जिससे एक साल में चक्र पूरा हो जाए। अब मान लीजिए कि सभी को 5000 रुपये का योगदान करना है, इस तरह 60000 रुपये का फंड तैयार होता है। इस रकम को ड्रॉ द्वारा किसी एक सदस्य को दे दिया जाता है। जिस सदस्य को यह फंड मिलता है, अगली बार किटी पार्टी का सारा खर्च उसे उठाना होता है। इस तरह किटी पार्टी लोगों का ख़ासकर महिलाओं द्वारा आपस में मेलजोल बढ़ाने और बचत करने का एक बेहतरीन जरिया बन गया है। समय के साथ-साथ इसमें भी बदलाव भी आने लगे हैं और किटी पार्टियां अब किसी ख़ास थीम पर, किसी ख़ास जगह पर भी आयोजित होने लगी हैं। बाजार भी इस लोकप्रय आयोजन का फायदा उठाने में पीछे नहीं है। आज तक़रीबन हर होटल, रेस्त्रां में किटी पार्टियों के आयोजन की व्यवस्था रहने लगी है। लोग भी अपने घरों में झंझट पालने की जगह वहां जाने को प्राथमिकता देने लगे हैं।

बुधवार, 5 जून 2019

चलिए, खुद ही एक शुरुआत करें

आज की जरुरत यह कहती है कि हर आदमी को अपना पर्यावरण सुधारने के लिए, पानी को बचाने के लिए, अपने आस-पास के वातावरण को साफ़-सुथरा-स्वच्छ बनाने के लिए, बिना सरकार का मुंह जोहे या किसी और बाहरी सहायता या किसी और की पहल का इंतजार किए या यह सोचे कि मेरे अकेले के करने से क्या होता है, अपनी तरफ से शुरुआत कर देनी चाहिए। कोशिश चाहे कितनी भी छोटी हो पर होनी चाहिए ईमानदारी से। मंजिल पानी है तो कदम तो उठाना पड़ेगा ही ना ! सैकड़ों ऐसे उदहारण  अपने ही देश में ऐसे हैं जब किसी अकेले ने अपने पर विश्वास कर, खुद पहल करने का साहस किया और अपने गांव-कस्बे-जिले की सूरत बदल कर रख दी..........!

#हिन्दी_ब्लागिंग   
जब भी मौसम बदलता है तब-तब अचानक स्वयंभू विशेषज्ञों की एक जमात हर पत्र-पत्रिका, अखबार, टी.वी. चैनलों पर आ-आ कर सीधे-सादे, भोले-भाले लोगों को डराने का काम शुरू कर देती है ! मौसम के अनुसार ये लोग हवा, पानी, ठण्ड, गर्मी, पर्यावरण का डरावना रूप और बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना शुरू कर देते हैं। सिर्फ नकारात्मक बातें ! वह भी इस लहजे में जैसे इन्हें छोड़ कर बाकी सारे लोग आज के हालात के लिए दोषी हों। ऐसे "उस्ताद लोगों" के पास कोई ठोस उपाय नहीं होते; वह वहाँ बैठे ही होते है दूसरों की या सरकार की आलोचना करने के लिए ! वे सिर्फ समय बताते हैं कि इतने सालों बाद यह हो जाएगा, उतने वर्षों बाद वैसा हो जाएगा; लोगों को ऐसा करना चाहिए, लोगों को वैसा करना होगा, इत्यादि,इत्यादि। 

इनके पास सिर्फ दूसरों के लिए सलाहें और निर्देश होते हैं ! उनसे कोई पूछने वाला नहीं होता कि जनाब आपने इस मुसीबत से पार पाने के लिए व्यक्तिगत तौर पर क्या-क्या किया है ? जैसे अभी भयंकर गर्मी पड़ रही है, तो आपने अपने निजी तौर पर उसे काम करने में क्या सहयोग या उपाय किया है ? क्या आपने अपने लॉन-बागीचे की सिंचाई के लिए प्रयुक्त होते पानी में कुछ कटौती की है ? आप के घर से निकलने वाले कूड़े में अब तक कितनी कमी आई है ? क्या आप शॉवर से नहाते हैं या बाल्टी से ? आपके 'पेट्स' की साफ़-सफाई में कितना पानी जाया किया जाता है ?  क्या आपके घर के AC या TV के चलने का समय कुछ कम हुआ है ? क्या आप यहां जब आए तो संयोजक से AC बंद कर पंखे की हवा में ही बात करने की सलाह दी ? क्या आप कभी पब्लिक वाहन का उपयोग करते हैं ? ऐसे सवाल उन महानुभावों से कोई नहीं पूछेगा ! क्योंकि वे ''कैटल क्लास'' से नहीं आते ! और यह सब करने की जिम्मेदारी तो सिर्फ मध्यम वर्ग की है ! 

वैसे हालत चिंताजनक जरूर है ! पर यह कोई अचानक आई विपदा नहीं है। हमारी आबादी जब बेहिसाब बढी है तो उसके रहने, खाने, पीने की जरूरतें भी तो साथ आनी ही थीं। अरब से ऊपर की आबादी को आप बिना भोजन-पानी-घर के तो रख नहीं सकते थे। उनके रहने खाने के लिये कुछ तो करना ही था जिसके लिये कुछ न कुछ बलिदान करना ही पड़ना था। सो संसाधनों की कमी लाजिमी थी पर हमें उपलब्ध संसाधनों की कमी का रोना ना रो, उन्हें बढाने की जी तोड़ कोशिश करनी चाहिये, समाज को जागरूक करने के साथ-साथ ! जब मुसीबत तो अपना डरावना चेहरा लिये सामने आ ही खड़ी हुई है, तो उससे मुकाबला करने का आवाहन होना चाहिये ना कि उससे लोगों को भयभीत करने का। 

दुनिया में यदि दसियों हजार लोग विनाश लीला पर तुले हैं तो उनकी बजाय उन सैंकड़ों लोगों के परिश्रम को सामने लाने की मुहिम भी छेड़ी जानी चाहिये जो पृथ्वी तथा पृथ्वीवासियों को बचाने के लिये दिन-रात एक किये हुए हैं। ये वे लोग हैं जो सरकार का मुंह जोहने या उसको दोष देने की बजाए खुद जुट पड़े विपदा का सामना करने को ! भले ही छोटे पैमाने पर काम शुरू हुआ हो पर कहते हैं ना, लोग जुड़ते गए काफिला बनता गया ! हम में से अधिकाँश सरकार को दोष देने से बाज नहीं आते ! यदि कभी किसी अभियान से जोश में आ कुछ कर भी देते हैं तो कुछ ही समय बाद उसकी सुध नहीं लेते ! अक्सर अखबारों में ऐसी बातें आती रहती हैं कि फलानी जगह इतने लाख पौधे लगाए गए ! ढिमकानी जगह सैंकड़ों लोगों ने पेड़ लगाने की मुहिम में हिस्सा लिया ! हजारों ने प्लास्टिक की थैलियों को काम में ना लेने की कसमें खायीं ! पर यह सब क्षणिक आवेश में उठाए गए कदम होते हैं ! उसके बाद ना कोई पेड़ों की खबर लेता है ना ही पौधों की सुध ली जाती है ! ना ही कोई प्लास्टिक का मोह छोड़ पाता है ! 

आज की जरुरत यह कहती है कि हर आदमी को अपना पर्यावरण सुधारने के लिए, पानी को बचाने के लिए, अपने आस-पास के वातावरण को साफ़-सुथरा-स्वच्छ बनाने के लिए, बिना सरकार का मुंह जोहे या किसी और बाहरी सहायता या किसी और की पहल का इंतजार किए या यह सोचे कि मेरे अकेले के करने से क्या होता है, अपनी तरफ से शुरुआत कर देनी चाहिए। कोशिश चाहे कितनी भी छोटी हो पर होनी चाहिए ईमानदारी से। मंजिल पानी है तो कदम तो उठाना पड़ेगा ही ना ! सैकड़ों ऐसे उदाहरण अपने ही देश में ऐसे हैं जब किसी अकेले ने अपने पर विश्वास कर, खुद पहल कर अपने गांव-कस्बे-जिले की सूरत बदल कर रख दी हो !

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