आलोचना को भी स्वीकार करने का माद्दा होना चाहिए ! जो पत्र आपकी मर्जी के मुताबिक ना हों उन्हें छापना ना छापना आप के ऊपर निर्भर है , पर किसी भी हालत में भेजे गए पत्र के मजमून से छेड़खानी नहीं होनी चाहिए ! प्रकाशक और पाठक में फर्क है ! प्रकाशक चाहे जैसे भी येन-केन-प्रकारेण, इच्छा-अनिच्छा से, अच्छा-बुरा जैसा भी अंक निकाले उसे अपना मेहनताना मिल ही जाना है ! पर पाठक पैसे खर्च करता है तो उसका हक़ बनता है कि उसे उच्च कोटि की, सार गर्भित, नामी-गिरामी लेखकों की रचनाएं पढ़ने को मिलें ना कि संपादक मंडल की थोपी हुई रचनाएं या ऐसे लोगों के अनगढ़ विचार जो हिंदी की दो लाइनें भी सही ना बोल पाते हों.............
#हिन्दी_ब्लागिंग
हिंदी साहित्य, पत्र-पत्रिकाओं में रूचि रखने वाला शायद ही ऐसा कोई पाठक होगा जिसने #कादम्बिनी का नाम ना सुना हो। हमारे परिवार का तो यह अपने जन्म के साथ ही सदस्य बन गयी थी। हिन्दुस्तान टाइम्स की यह गैर राजनीतिक मासिक पत्रिका अपने आप में ज्ञान, संस्कृति, साहित्य, कला, सेहत जैसे विषयों का भंडार हुआ करती थी। इसकी सुरुचिपूर्ण एवं प्रभावी प्रस्तुति और स्वस्थ मनोरंजन इसकी ख़ास पहचान थी। शुरूआती समय से ही इसे विद्वान व निपुण लोगों का सहारा तथा महादेवी वर्मा तथा कुंवर नारायण जैसे विद्वानों का संरक्षण तथा आशीर्वाद मिलता रहा। सालों शिखर पर रही इस पत्रिका की अपनी एक गौरवमयी पहचान रही है और तो और इसके पाठकों को भी समाज में सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाता था। पर धीरे-धीरे समय के साथ सब उलट-पलट होता चला गया ! पहले जैसा स्तर भी ना रहा ! पाठक घटते चले गए ! ऐसी हालत देख शुरू से इससे जुड़े लोगों को दुःख होना स्वाभाविक है पर लगता है कि इसको लेकर कोई भी गंभीर नहीं है ! पिछले दिनों इसी को लेकर एक आलोचनात्मक पत्र संपादक जी को लिखा था पर यह देख स्तंभित रह गया कि उसको काट-छांट कर एक प्रशंसात्मक रूप दे प्रसस्ति पात्र बना दिया गया ! दोनों पत्र ब्लॉग के पाठकों के अवलोकन के लिए यहां दे रहा हूँ !
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मेरा पत्र सम्पादक मंडल को -
माननीय महोदय,
नमस्कार।
एक समय था जब कादम्बिनी गागर में सागर थी। स्वस्थ, ज्ञानवर्धक जानकारियां, उच्च कोटि के लेखकों की श्रेष्ठ रचनाएं, कथा-कहानियां ही स्थान पाती थीं। समय के साथ ''सारथी'' बदलते गए कोई तंत्र-मंत्र, साधू-संतों को ले आया, कोई अपने ही सगे-संबंधियों को स्थान देने लगा, किसी के लगे-बधों को झेलना पाठक की मजबूरी हो गयी तो किसी ने तो आ कर इसकी अपनी पहचान को ही ख़त्म कर, आम पत्रिकाओं का रूप दे ''बुक स्टॉलों'' के ढेर में की एक बना डाला।
पहले एक चलन था कि विनम्र संपादक अपने पाठकों की रुचि, उनके विचार जान कादम्बिनी को लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे ! ऐसे ही नहीं इसने एक लाख प्रतियों का आंकड़ा छू लिया था ! गैर हिंदी प्रदेशों में भी यह खूब पढ़ी जाती थी। सालों शिखर पर रही इस पत्रिका की अपनी एक गौरवमयी पहचान रही है ! यहां तक की इसके पाठकों को भी सम्मानजनक दृष्टि से देखा जाता था। पर आज हालत यह है कि यदि कोई मेहमान घर आ इसे सामने पाता है तो आश्चर्य से पूछता है ''अरे ! यह अभी भी निकल रही है ?''
आज तो ऐसा लगता है जैसे इसकी बेहतरी की चिंता किए बिना, एक ''फार्मेल्टी'' के तहत इसे निकाला जा रहा है ! पहले जहां यह एक सुरुचिपूर्ण, राह दिखाने वाली, सामाजिक संदेशों से भरी साफ़-सुथरी, अनेकों गुणों को समेटे एक फिल्म की तरह होती थी, वहीं आज यह एक नीरस, उबाऊ ''डाक्यूमेंट्री'' की तरह हो कर रह गयी है। फिल्म से याद आया कि पहले यह फिल्मों और फिल्म वालों से कुछ दूरी बना कर ही चला करती थी। पर अब तो लगता है कि मनुहार-विनती कर उनके नाम को शामिल किया जाता है। समय बदल चुका है, फ़िल्मी कलाकारों को पुस्तक से जोड़ने में कोई बुराई नहीं है, लोगों की पहली पसंद बने हुए हैं ये, आजकल ! पर उनके तथाकथित लेख पत्रिका की श्रेणी के तो हों ! ऐसे-ऐसे लोग अपनी विद्वता झाड़ते यहां मिलते हैं जो ढंग से हिंदी की चार लाइनें भी नहीं बोल पाते ! फ़िल्मी जगत में भी विद्वानों, जानकारों, गुणवानों की कोई कमी नहीं है ! उनके विचार, लेख, रचनाएं क्यों नहीं पाठकों तक पहुंचतीं ?
अभी भी समय है, मेरे जैसे हजारों लोग इसका इंतजार करते हैं। आपसे विनम्र निवेदन है कि इसे और लोकप्रिय बनाने की ओर ध्यान दिया जाए ! ''थीम अंक'' के नाम पर आधी से ज्यादा पत्रिका को समेट कर उसे बोझिल बनाने के बजाए उस विषय को पंद्रह-बीस पृष्ठों तक ही सिमित रख, बाकी में अन्य विषयों को स्थान दें तो बेहतर होगा ! लेखकों से निवेदन किया जाए कि भाषा सरल-सुगम हो जिससे बच्चों में भी इसकी लोकप्रियता बढे। अपने देश, देशवासियो, इतिहासिक-पौराणिक महान चरित्रों को, ईसप-पंचतत्र जैसी कथाओं के लिए भी एक कोना सुरक्षित कर दें। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि आज की पीढ़ी को अपने इतिहास की जानकारी ना के बराबर है ! अभी पिछले दिनों उदयपुर-हल्दीघाटी जाना हुआ तो बेहद दुःख और आश्चर्य का सामना करना पड़ा जब साथ के दसवीं के छात्र ने हल्दी घाटी और चेतक के बारे में अपनी अनभिज्ञता जाहिर की ! और तो और उनकी माताश्री जो खुद शिक्षक हैं. दिल्ली में, उनकी जानकारी भी इस विषय में सतही ही थी।
आशा है अन्यथा ना लेते हुए, कुछ समय निकाल, इस विषय पर भी गौर किया जाएगा।
धन्यवाद।
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पत्र जो उनके द्वारा छापा गया।
4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (26-06-2019) को "करो पश्चिमी पथ का त्याग" (चर्चा अंक- 3378) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी, नमस्कार ¡ स्नेह बना रहे
आपका पत्र ज्यादा ही लम्बा था शायद इसीलिए कुछ काट-छांट कर देते तब भी ठीक था पर यहाँ तो बात ही बदल दी है, वाकई यह गलत है..
अनिता जी, इससे तो कहीं बेहतर होता कि छापते ही नहीं
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