शनिवार, 30 दिसंबर 2023

निमंत्रण

अपने रसूख के कारण जिन्होंने एक बार हमारे पुश्तैनी मकान को राजमार्ग का हिस्सा बता गिरवाने की साजिश तक कर दी थी, वो हमारे रिश्ते के ताऊ जी, जिन्होंने बाकायदा ऐलान कर दिया था कि इनके परिवार में संतान की कल्पना भी नहीं की जा सकती, आज उनके मुंह में दही जम गया है ...........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 

मेरे बेटे का पहला जन्मदिन आने वाला है ! परिवार के सभी सदस्यों, सगे-संबंधियों में अपार उत्साह है ! हर तरह के रीति-रिवाज पूरे विधि-विधान से संपन्न किए जा रहे हैं ! हों भी क्यों ना! वर्षों के बाद ऐसी ख़ुशी प्रभु ने हमें बक्शी है ! हमारे समाजसेवी परिवार की समाज में प्रतिष्ठा है ! लोगों से काफी मेल-जोल है ! इसीलिए शिशु के अन्नप्राशन पर किस-किस को निमंत्रण देना है, इस बात पर जब चर्चा शुरू हुई तो माँ का कहना था कि वर्षों बाद ऐसा शुभ अवसर आया है, सभी जान-पहचान वालों और रिश्तेदारों को न्योता भेजना चाहिए ! हमारे बाबूजी कुछ असमंजस में हैं ! उनको अतीत की घटनाएं और उनसे उपजी वैमनस्यता के कारण लग रहा है कि कुछ लोग नहीं आएंगे ! 

काफी सालों से हमारी बिरादरी में कुछ लोगों के बीच आपसी अनबन चल रही है ! रिश्तेदारी होते हुए भी एक दूसरे की उन्नति देख लोगों को जलन होने लगती है ! जरा-जरा सी बात पर कोर्ट-कचहरी की नौबत आ जाती है !  

मेरी शादी के बाद काफी दिनों तक घर में बच्चे की किलकारी नहीं गूंजने को लेकर तरह-तरह की अफवाहें फैलाई गईं ! पहले तो हमारे कहीं संबंध ही ना हों इसके षड्यंत्र रचे गए, जो बुरी तरह असफल रहे ! फिर हमारे परिवार को लेकर झूठी कहानियां गढ़ी गईं, अफवाहें फैलाई गईं, जिन्हें समझदार लोगों ने सिरे से नकार दिया ! एक लंबे अरसे के बाद पंच परमेश्वर की तरफ से भी हमें न्याय मिला, झूठे मामले-मुकदमें खारिज हो गए और प्रभु की दया से हमारा घर-परिवार खुशहाल होता चला गया ! 

कुछ समय पश्चात ईश्वर का एक अंश हमारे यहां भी अवतरित हुआ ! बस, फिर क्या था ! इस खबर से हमारे बैरी रिश्तेदारों को तो जैसे सांप सूंघ गया ! हमारी निपूती बुआ तो उसके बारे में सुनते ही पागलों की तरह बिदकने लगी ! अंटसंट कहना उनकी आदत में शुमार हो गया ! बच्चे का कोई जिक्र भी कर दे तो काटने को तैयार ! अपने रसूख के कारण जिन्होंने एक बार हमारे पुश्तैनी मकान को राजमार्ग का हिस्सा बता गिरवाने की साजिश कर दी थी, वो हमारे रिश्ते के ताऊ जी, जिन्होंने बाकायदा ऐलान कर दिया था कि इनके परिवार में संतान की कल्पना भी नहीं की जा सकती, वे आज मुंह में दही जमाए बैठे हैं ! कई और ऐसे हैं, जो रिश्तेदार हमारे हैं पर अपने दोस्तों, जिनसे हमारी नहीं पटती पर उनकी रोजी-रोटी का जरिया हैं, उनको खुश करने की खातिर असमंजस में हैं कि बबुआ के यहां जाएं कि नहीं ! कुछ इस ताक में हैं कि देखें बुलाते भी हैं कि नहीं ! एक हमारा नजदीकी परिवार, बाप कह रहा है कि नहीं जाना है, बेटा कह रहा है मैं तो जाऊंगा ! दो-एक इस परिस्थिति से बचने के लिए काम का बहाना कर शहर ही छोड़ गए ! कुछ अपनी करनियों को याद कर पेशोपेश में हैं कि अब किस मुंह को ले कर जाएं, उन्हें वे तमाम बातें याद आ रही हैं जो हमारे परेशानी भरे दिनों में उन्होंने उगल दी थीं ! तो कुल मिला कर एक बड़ी ही पेचीदा परिस्थिति आन पड़ी है, हमारी बिरादरी के सामने !

पर जो भी हो हम, हमारा परिवार, हमारे हितैषी, हमारे शुभचिंतक परमानंद में हैं ! उधर हमारी माँ घोर आशावादी और क्षमाशील हैं ! उन्होंने कह दिया है, ऐसे शुभ अवसर का निमंत्रण तो सबको जाएगा, जिसे आना हो आएगा, जिसे नहीं आना उसकी इच्छा ! हम अपनी तरफ से कोई शिकायत का मौका नहीं देंगे ! बाकि भगवान सबको सद्बुद्धि दे !  

सोमवार, 25 दिसंबर 2023

शनि महाराज, सवालों के घेरे में

सवाल शनि देव पर भी उठता कि क्यों महाराज, आप तो खुद को न्याय का देवता कहलवाते हो ! फिर क्यों इतनी देर लग जाती है दोषियों को दंड मिलने में ? क्यों भ्रष्टाचारियों के दिल नहीं दहलते आपके डर से ? या फिर यह डर, कानून, नियम सब भोले-भाले आम लोगों के लिए ही होते हैं ? उस पर न्याय में विलंब आपके अस्तित्व पर भी तो सवाल उठा देता है ! अच्छा, क्या आपको कुछ अजीब नहीं लगता जब उसी अजीबोगरीब तरीके से आए पैसे से आपकी पूजा-अर्चना होती है, भोग लगता है ? क्या प्रभु आप भी............!!   

#हिन्दी_ब्लागिंग 

शनि देव को न्याय का देवता कहा गया है जो मनुष्यों को उनके कर्मों के अनुसार फल प्रदान करते हैं ! शायद ये अकेले ऐसे देवता हैं जिनकी पूजा लोग श्रद्धा से कम, डर से ज्यादा करते हैं ! उन्हीं के जन्म स्थान के रूप में प्रसिद्ध है, शिंगणापुर ! जहां की मान्यता है कि इस देव स्थान में यदि कोई चोरी करता है तो वह गांव के बाहर नहीं जा पाता या तो अपनी दृष्टि खो बैठता है या फिर घोर कष्टों में पड़ जाता है ! कहते हैं इसीलिए यहां घरों-दुकानों में दरवाजे नहीं लगाए जाते ! इस देव स्थान का प्रबंधन सुचारु रूप से करने के लिए एक न्यासी बोर्ड का गठन किया गया है जिसका काम यहां के वित्त को व्यवस्थित करने, हितधारकों के हितों को बनाए रखने, परिचालन करने और दिशा-निर्देश में मदद करना है !  

शनि जन्मभूमि, शिंगणापुर 
अब इसी न्यासी बोर्ड के कई ऐसे कारनामे उजागर हुए हैं, जिन्हें इस बोर्ड के सदस्यों ने बिना गांव के बाहर गए, खुले खिड़की दरवाजों के सामने, बिना किसी डर-भय के ''वित्त को व्यवस्थित करते हुए सिर्फ बोर्ड के हितधारकों के हितों को को ध्यान में रख'' अंजाम दिया ! खबर के सामने आने से पता चला है कि न्यासी बोर्ड ने बासठ श्रमिकों की जगह 1800 लोगों को अनौपचारिक रूप से भर्ती कर वेतन में हेरा-फेरी की ! दर्शन की रसीदों में घपला कर करोड़ों का गबन किया ! मंदिर को मिलने वाले दान को एक निजी शिक्षण संस्थान को दिया जाता रहा ! बिजली आपूर्ति पर प्रति माह 40 लाख के डीजल का खर्च दिखाया जाता रहा ! मंदिर के सौंदर्यीकरण पर 50 करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद 50 फीसदी ही काम हो पाया है और यह सब लंबे समय से होता आ रहा है ! और वे सब फलते-फूलते रहे न्याय के दरबार में, ठीक न्यायाधीश की नाक के नीचे ! 

अब सवाल शनि देव पर ही उठता कि क्यों महाराज, आप तो खुद को न्याय का देवता कहलवाते हो ! फिर क्यों इतनी देर लग जाती है दोषियों को दंड मिलने में ? क्यों भ्रष्टाचारियों के दिल नहीं दहलते आपके डर से ? कैसे हिम्मत होती है आपके सामने कुकृत्य करने की ? या फिर यह डर, कानून, नियम सब भोले-भाले आम लोगों के लिए ही होते हैं ? खासमखास इससे परे होते हैं ! उस पर न्याय में विलंब आपके अस्तित्व पर भी तो सवाल उठा देता है ! अच्छा, क्या आपको कुछ अजीब नहीं लगता जब उसी अजीबोगरीब तरीके से आए पैसे से आपकी पूजा-अर्चना होती है, भोग लगता है ? 

क्या प्रभु आप भी............!! 

बुधवार, 20 दिसंबर 2023

वास्तु और तकनीकी की अद्भुत मिसाल, सोमेश्वर छाया मंदिर

यहां की विशेषता यह है कि दिन भर इस मंदिर के शिवलिंग पर एक स्तंभ की छाया पड़ती रहती है, जबकि गर्भगृह में स्थित शिवलिंग और आकाश में विचरते सूर्य के बीच आने वाला कोई स्तंभ यहां है ही नहीं ! वैसे भी यदि कोई स्तंभ हो भी तो सूर्य के विचरण के कारण किसी भी छाया का दिन भर एक ही जगह बने रहना असंभव होता है ! यहां वह छाया कैसे, क्यूँ, किस तरह बनती है, इसकी पेचीदगी को ले कर वातुशास्त्री, वैज्ञानिक व इंजिनियर सभी आज तक अचंभित हैं ...........!

#हिन्दी_ब्लॉगिंग 

प्रकृति ने जिस खुले दिल से हमारे देश पर अपना प्यार-स्नेह लुटाया है उसी जज्बे, जोश और हौसले से इसके रहवासियों ने तरह-तरह के उपकर्मों से इसे सजाया-संवारा है ! वह भी तब, जब आज की तरह के आधुनिक यंत्र और सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं ! फिर भी प्राचीन भारतीय वास्तुकला इतनी उन्नत थी कि उसकी कोई मिसाल ही नहीं मिलती ! चाहे तकनिकी पेचीदगी हो, चाहे बारीक से बारीक कलाकारी हो, चाहे दांतों तले उंगली दबवा लेने वाली वास्तु कला हो, एक से बढ़ कर एक विस्मयकारी, अद्भुत रचनाएं देख दर्शक किंकर्तव्यविमूढ़, भौंचक्का सा खड़े का खड़ा रह जाता है ! ऐसा ही एक स्थान है, तेलंगाना राज्य के नलगोंडा जिले के पनागल या पनागल्लु कस्बे में स्थित एक तीर्थ, सोमेश्वर छाया मंदिर। 


गर्भगृह में स्थित शिवलिंग 
हैदराबाद शहर से तकरीबन 100 किमी तथा तेलंगाना के नलगोंडा नगर से करीब चार किमी दूर एक जगह है, पनागल। यहीं स्थित है 12वीं सदी की शुरुआत में चोल राजवंश के द्वारा बनवाया गया शिव जी का एक मंदिर, जो सोमेश्वर छाया मंदिर के नाम से विख्यात है ! यहां की विशेषता यह है कि दिन भर इस मंदिर के शिवलिंग पर एक स्तंभ की छाया पड़ती रहती है, जबकि गर्भगृह में स्थित शिवलिंग और आकाश में विचरते सूर्य के बीच आने वाला कोई स्तंभ यहां है ही नहीं ! वैसे भी यदि कोई स्तंभ हो भी तो सूर्य के विचरण के कारण किसी भी छाया का दिन भर एक ही जगह बने रहना असंभव होता है ! यहां वह छाया कैसे, क्यूँ, किस तरह बनती है, इसकी पेचीदगी को ले कर वातुशास्त्री, वैज्ञानिक व इंजिनियर सभी आज तक अचंभित हैं !


अलंकृत स्तंभ 
यह निर्माण हमारे प्राचीन कलाविदों के वास्तुशास्त्र के ज्ञान की पराकाष्ठा का एक उदाहरण है। प्रकृति का नियम है, छाया है तो उसका कारण भी होगा और वह है मंदिर के बाहर बने प्रस्तर स्तंभ, जिन पर रामायण, महाभारत तथा पुराणों के प्रसंगों को बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है। उन स्तंभों का निर्माण इस तरह और ऐसी जगहों पर, इस तरह और इस खूबी के साथ किया गया है कि सूर्य के दिन भर के बदलते कोणों के बावजूद, किसी ना किसी स्तंभ की छाया बिना किसी विघ्न के शिवलिंग पर पड़ती रहती है ! 

इस मंदिर में शिव जी के साथ ब्रह्मा, विष्णु जी की भी पूजा होती है। इन तीनों के मंदिर एक ही प्रांगण में होने के बावजूद उनके प्रवेश द्वार अलग-अलग दिशाओं में हैं ! जो भी हो पर यह मंदिर हमारी बेहतरीन मूर्तिकला और वास्तुकला की विरासत को आज भी संभाले हुए है। इस क्षेत्र में इस ऐतिहासिक मंदिर की बहुत मान्यता है इसीलिए श्रद्धालु दर्शनार्थी यहां भारी संख्या में अपनी मन्नतों को पूरा करने हेतु आते रहते हैं। 

आपकी आँखें हमारे लिए अनमोल हैं 
प्रकृति के नियमानुसार बीतते समय का असर इस प्राचीन मंदिर पर भी पड़ा है ! इसके कुछ हिस्सों की सुरक्षा के लिए कदम उठाए भी गए हैं ! पर यह हमारी और हमारी सरकारों की जिम्मेदारी है कि हम अपनी ऐसी विलक्षण धरोहरों को सहेज कर रखें, जिससे हमारी आने वाली पीढ़ियां भी ऐसे अनोखे और दुर्लभ निर्माणों को देख गौरवान्वित हो सकें। जीवन की आपाधापी तो कभी खत्म नहीं होती फिर भी कुछ समय निकाल ऐसी जगहों पर जरूर जाना चाहिए ! 

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

गुरुवार, 14 दिसंबर 2023

वृक्ष सिखाता जीवन-दर्शन

उसके पैर अपनी जमीन में गहरे तक उतरे रहे पर उसने सदा अपना सर रोशनी और ऊंचाईयों की तरफ बनाए रखा ! अति विषम परिस्थितियों में भी उसके अस्तित्व पर शायद इसीलिये आंच नहीं आई, क्योंकि उसका जन्म ही हुआ था दूसरों की भलाई के लिये, दूसरों को जीवन प्रदान करने के लिये, दूसरों को आश्रय देने के लिए, दूसरों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ! जिसका जीवन ही औरों की भलाई के लिये बना हो उसकी रक्षा करने के लिये तो कायनात भी अपनी पूरी ताकत लगा देती है......!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

संयोगवश एक छोटा सा बीज धरती में पनाह लेता है ! धरा भी उसे अपनी ममतामयी गोद में हौले से समेट लेती है ! धीरे-धीरे उपयुक्त माहौल पा बीज ने अपनी जड़ें जमीन में फैला कर अपनी पकड़ मजबूत कर ली ! समय बीतता गया एक दिन उस बीज ने अंकुरित हो अपना सर जमीन के बाहर निकाला। उसके सामने विशाल संसार अपनी हजारों अच्छाईयों और बुराईयों के साथ पसरा पड़ा था। उस छोटे से कोमल, नाजुक, हरे पौधे ने चहूँ ओर अपनी दृग दृष्टि डाली और फिर सर उठा कर आसमान की उंचाईयों की तरफ अपनी नजर उठाई और मन ही मन उस उंचाई को नापने का दृढ निश्चय कर लिया।   

समय बीतता गया। धरती के देश आपस में लड़ते-भिड़ते रहे। उनकी आपसी दुश्मनी से वातावरण विषाक्त होता रहा। एक दूसरे को नीचा दिखाने में हजारों लाखों जाने जाती रहीं। पर पौधे ने अपना सफर जारी रखा। विज्ञान तरक्की की राह दिखाता रहा। इंसान अंतरिक्ष की सीमायें लांघने लगा। पौधा भी धीरे धीरे जमीन में अपनी पकड़ और अच्छी तरह जमाते हुए, संसार के अच्छे-बुरे बदलाव देखते हुए, शुरुआती खतरों से खुद को बचाते हुए अपनी मंजिल की ओर अग्रसर होता रहा।
आपकी आँखें हमारे लिए अनमोल हैं 
पौधा अब बढ़ कर वृक्ष बन चूका था ! अब उसकी छाया में पशु आ कर अपनी थकान मिटाने लगे थे। पक्षियों ने उसकी ड़ालियों की सुरक्षा में अपने नीड़ों को स्थान दे दिया था। कभी-कभी थके हारे स्त्री-पुरुष भी उसकी छांव में गर्मी से राहत पाने आ बैठते थे और सर उठा कर उसकी विशालता उसकी उपादेयता को मुग्ध भाव से देख प्रकृति के शुक्रगुजार हो जाते थे। कुछेक इस वृक्ष को देख प्रेरणा भी लेते थे ! ऐसा होता भी क्यूं ना ?
यह पेड़ ही तो था, जो वक्त के अनगिनत थपेड़े खा कर भी अपना सर ऊंचा किए खड़ा था। तूफानों के सामने बहुत बार उसे झुकना जरूर पड़ा पर मुसीबत जाते ही वह दुगनी उम्मीद से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता रहा। उसके पैर अपनी जमीन में गहरे तक उतरे रहे पर उसने सदा अपना सर रोशनी और ऊंचाईयों की तरफ बनाये रखा। अति विषम परिस्थितियों में भी उसके अस्तित्व पर शायद इसीलिये आंच नहीं आयी, क्योंकि उसका जन्म ही हुआ था दूसरों की भलाई के लिये, दूसरों को जीवन प्रदान करने के लिये, दूसरों को आश्रय देने के लिये, दूसरों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये। जिसका जीवन ही औरों की भलाई के लिये बना हो उसकी रक्षा करने के लिये तो कायनात भी अपनी पूरी ताकत लगा देती है।

@चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

सोमवार, 13 नवंबर 2023

इक झप्पी जादू वाली

भले ही झप्पी किसी फिल्म से मशहूर हुई हो पर इसका अस्तित्व सनातन है ! चाहे नृसिंह रूप में भगवान ने प्रह्लाद को गले लगा अभय दिया हो, चाहे श्रीराम ने हनुमान जी को गले लगा उन्हें आश्वस्त किया हो, चाहे प्रभु ने विभीषण का आलिंगन कर उसे भय मुक्त किया हो ! चाहे श्रीकृष्ण ने सुदामा को गले लगा उसको गरीबी के तनाव से मुक्त किया हो ! अब तो वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि यदि आप पेड़-पौधों, लता-गुल्मों के पास जा उनसे ''बात-चीत'' करते हैं, उन्हें सहलाते हैं, उनका आलिंगन करते हैं तो उनका विकास  अन्य पौधों से बेहतर होता है ! जानवर तो सदा से ही प्यार भरे, स्नेहिल स्पर्श को खूब समझते रहे हैं ! पर एक बात का ख्याल जरूर रखें किसी को जबरदस्ती यह उपचार देने की कोशिश ना करें ! कहीं ऐसा ना हो कि आपकी इस कोशिश के बाद आपको ''किसी उपचार'' की जरुरत पड़ जाए.....................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

याद है मुन्ना भाई एमबीबीएस फिल्म का वह दृश्य जिसमें अस्पताल का एक कर्मचारी फर्श साफ कर रहा होता है और लोगों के बार-बार आने-जाने से सफाई बरकरार नहीं रह पा रही होती, जिससे वह गुस्से से भुनभनाता है, तो मुन्ना भाई बने संजय दत्त उसके पास जा उसको गले लगा कर उसके काम की तारीफ करते हैं तो वह बिलकुल शांत हो प्यार से कहता है, अब रुलाएगा क्या ! जा काम करने दे....... ! यह बदलाव आता है, उस एक प्यार भरे स्नेहालिंगन से, जो पल भर में सारे तनाव को खत्म कर रख देता है ! फिल्म में इसे जादू की झप्पी कहा गया है ! झप्पी पंजाबी से हिन्दी में आया शब्द है जिसका उर्दू-पंजाबी रूप है जफ्फी ।

क्या किसी को गले लगाने से सचमुच कोई फर्क पड़ता है ? क्या किसी का गुस्सा एक झप्पी से गायब हो सकता है ? क्या बिलकुल हताश-निराश व्यक्ति को आशा का संबल मिल सकता है ? इन सब का उत्तर हाँ में है ! और सिर्फ मनुष्यों पर ही नहीं, पशु-पक्षियों और यहां तक की पेड़-पौधों पर भी इसका व्यापक असर पड़ता है ! कुछ तो है जो एक सरल से आलिंगन को जादुई बना कुछ अलग सा महसूस करवाने लगता है ! प्रयोगों से पता चला है कि गले लगाने से मिली स्पर्श की प्रक्रिया तनाव, अवसाद, चिंता, अकेलेपन जैसी स्थितियों को तिरोहित करने में सहायक होती है ! अब तो बाकायदा इसे एक चिकित्सा का रूप भी दे दिया गया है ! 

बहुगुणा जी जिन्होंने सिखाया पेड़ों को स्नेह देना, अपनी पत्नी के साथ  

कहा जाता है कि जैसे शरीर को चलाने और स्वस्थ रखने के लिए भोजन की जरुरत होती है वैसे ही मन को निरोग रखने के लिए प्रेम की आवश्यकता पड़ती है ! गले लगाना उसी प्रेम की एक स्वाभाविक व सरल क्रिया है ! इससे ऊर्जा का आदान-प्रदान होता है और भावनात्मक संबल की प्राप्ति होती है ! इसका सबसे सरल और सुगम उदाहरण साधारण परिस्थितियों में अपने घरों में ही हमें सुलभ है, किसी भी रोते हुए शिशु को उठा गले लगाते ही वह शांत हो जाता है, उसे एक सुरक्षा का एहसास होता है ! एक बच्चे के रूप में, जब हमें चोट लगती थी या दुखी होते थे, तो तुरंत अपनी माँ के गले लग राहत पाते थे ! युवावस्था में दोस्त-मित्र भी विपरीत परिस्थितियों इसी तरह राहत पहुंचाते हैं ! बुढ़ापे में किसी प्रियजन या मित्र का एक आलिंगन हमें संबल तो देता ही है हमारे मूड को भी अच्छा करने में सहायक होता था। दंपतियों का प्रेमालिंगन उनका आपसी प्रेम तो बढ़ाता ही है, रिश्तों को और मजबूत भी बना उनके कई मसले चुटकियों में हल कर देता है ! यह सब एक सरल से आलिंगन का ही कमाल है ! संसार भर में लोग एक-दूसरे से मिलते वक्त आपस में गले लगते हैं ! दुनिया भर में अपनों से, अपने प्रियजनों से मिलने पर की यह पहली प्रतिक्रिया होती है !  

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आपकी आँखें हमारे लिए अनमोल हैं 
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स्पर्श इस दुनिया में सबसे शक्तिशाली थेरेपी है और गले मिलना उसी का एक वृहद रूप है ! एक अच्छे आलिंगन से बेहतर प्यार और स्नेह का उदाहरण कुछ और नहीं है। इससे भावनात्मक शांति तो मिलती ही है साथ ही साथ स्वास्थय लाभ भी हो जाता है ! दक्षिण भारत के कोल्लम जिले में स्थित माता अमृतानंदमयी का आश्रम एक ऐसी जगह के रूप में विख्यात है जहां दक्षिण की अम्मा के नाम से मशहूर इस महिला साध्वी को लोग जादू की झप्पी देने वाली चमत्कारी संत के रूप में मानते और पूजते रहे हैं ! माता अमृतानंदमयी के भक्तों में आम व्यक्ति से लेकर देश के खास, महत्वपूर्ण लोग भी शामिल हैं, जो उनके सेवा कार्यों को लेकर प्रभावित रहे हैं ! इनके अनुयायियों का मानना है कि ''अम्मा'' के आलिंगन से आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है ! जो पिछले तीस वर्षों में करीब 300 करोड़ श्रद्धालुओं को आलिंगन कर उन्हें तनाव मुक्त कर चुकी हैं ! 

ममत्व 

अध्ययनों से पता चलता है कि आलिंगन तनाव दूर करने और अशांत मन को शांत करने के लिए उत्तम है। जब हम आलिंगन करते हैं, तो हमारे शरीर में उत्पन्न होने वाले तनाव हार्मोन कोर्टिसोल की मात्रा तुरंत कम हो जाती है। लंबे समय तक गले मिलने से सेरोटोनिन का स्तर बढ़ता है, मूड अच्छा होता है और खुशी पैदा होती है।आलिंगन का स्पर्श आत्मविश्वास की भावना पैदा करता है और अकेलेपन और चिंता की भावनाओं को कम करता है। गले लगने से दर्द से राहत मिलती है और रक्त संचार बेहतर होता है, जिससे शरीर का तनाव दूर हो जाता है।जिन्हें रात में नींद नहीं आती या कम आती है उन्हें इस क्रिया से लाभ मिल सकता है ! हम सभी प्यार पाना चाहते हैं और विशेष महसूस करना चाहते हैं और गले लगाना ऐसा करने का सबसे अच्छा तरीका है !

सकून की नींद 

परीक्षणों से यह बात भी सामने आई है कि ''हग थेरेपी'' मनुष्यों के लिए ही नहीं पशु-पक्षियों यहां तक पेड़-पौधों तक के लिए बहुत लाभदायक है ! अब तो कुछ लोग यह भी दावा करने लगे हैं कि पालतु जानवरों के बीच रहने और उन्हें गले लगाने से सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है ! आज दुनिया में मन की शांति हासिल करने-करवाने के तरह-तरह के तरीके ईजाद हो रहे हैं ! नीदरलैंड्स में गायों को गले लगाने का चलन चल पड़ा है, जिसे 'काऊ नफलेन' का नाम दिया गया है ! इसमें गायों से सटकर बैठना, उसे गले लगाना, उसे थपथपाना ये सब थेरेपी का हिस्सा होते हैं ! जो मन को एक तरह की शांति प्रदान करते हैं ! इस प्रक्रिया से गायों को भी सुखद अनुभूति का अहसास होता है, यह उनको प्यार से सहलाने जैसी ही क्रिया की तरह है ! 

काऊ नफलेन, गायों को गले लगाना 

भले ही झप्पी किसी फिल्म से मशहूर हुई हो पर इसका अस्तित्व सनातन है ! हमारे प्राचीन ग्रंथों में तो यह सब विस्तार से लिखित व चित्रित है ! चाहे नृसिंह रूप में भगवान ने प्रह्लाद को गले लगा अभय दिया हो, चाहे श्रीराम ने हनुमान जी को गले लगा उन्हें आश्वस्त किया हो, चाहे प्रभु ने विभीषण का आलिंगन कर उसे भय मुक्त किया हो ! चाहे श्रीकृष्ण ने सुदामा को गले लगा उसको गरीबी के तनाव से मुक्त किया हो ! पेड़-पौधों में जीवन का भी कई बार उल्लेख हुआ है ! अब तो वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं कि यदि आप पेड़-पौधों, लता-गुल्मों के पास जा उनसे ''बात-चीत'' करते हैं, उन्हें सहलाते हैं, उनका आलिंगन करते हैं तो उनका विकास बहुत अन्य पौधों से बेहतर होता है ! जानवर तो प्यार भरे, स्नेहिल स्पर्श को खूब समझते हैं !

स्नेहालिंगन 

सखा मिलन 

तो अब सोच-विचार-देर किस बात की ! आइए बाहर निकलें और किसी जरूरतमंद को गले लगा उसे तनावमुक्त कर हौसला प्रदान करें, पर एक बात का ख्याल जरूर रखें किसी को जबरदस्ती यह उपचार देने की कोशिश ना करें ! कहीं ऐसा ना हो कि आपकी इस कोशिश के बाद आपको ''किसी उपचार'' की जरुरत पड़ जाए !   


@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

बुधवार, 1 नवंबर 2023

बाजार की गिद्ध दृष्टि एक मासूम से त्योहार पर

आज सोची-समझी साजिशों के तहत हमारे हर त्योहार, उत्सव, प्रथा को रूढ़िवादी, अंधविश्वास, पुरातनपंथी, दकियानूसी कह कर ख़त्म करने की कोशिशें हो रही हैं। रही सही कसर पूरी करने को "बाजार" उतारू है जिसने इस मासूम से त्योहार को भी एक फैशन का रूप देने के लिए कमर कस ली है। आज समय की जरुरत है कि हम अपने ऋषि-मुनियों, गुणी जनों द्वारा दी गयी सीखों  उपदेशों का सिर्फ शाब्दिक अर्थ ही न जाने उसमें छिपे गूढार्थ को समझने की कोशिश भी करें...............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

करवा चौथ, हिंदू विवाहित महिलाओं का एक महत्वपूर्ण त्योहार। जिसमें पत्नियां अपने पति की लंबी उम्र के लिए दिन भर कठोर उपवास रखती हैं। यह खासकर उत्तर भारत में खासा लोकप्रिय पर्व है, वर्षों से मनता और मनाया जाता हुआ पति-पत्नी के रिश्तों के प्रेम के प्रतीक का एक त्योहार। सीधे-साधे तरीके से बिना किसी ताम-झाम के, बिना कुछ या जरा सा खर्च किए, सादगी से मिल-जुल कर मनाया जाने वाला एक छोटा सा उत्सव, जो कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है ! करवा उस मिटटी के पात्र को कहते हैं, जो इस व्रत का एक अहम हिस्सा है, इसमें पानी की निकासी के लिए एक टोंटी बनी होती है, व्रत पश्चात् करवे से ही चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है ! इसलिलिए दोनों को मिला कर करवाचौथ नामकरण हुआ !   

इसकी शुरुआत को पौराणिक काल से जोड़ा जाता रहा है। इसको लेकर कुछ कथाएं भी प्रचलित हैं। जिसमें सबसे लोकप्रिय रानी वीरांवती की कथा है जिसे पंडित लोग व्रती स्त्रियों को सुनवा, संध्या समय  जल ग्रहण करवाते हैं। इस गल्प में सात भाइयों की लाडली बहन वीरांवती का उल्लेख है जिसको कठोर व्रत से कष्ट होता देख भाई उसे धोखे से भोजन करवा देते हैं जिससे उसके पति पर विपत्ति आ जाती है और वह माता गौरी की कृपा से फिर उसे सकुशल वापस पा लेती है। महाभारत में भी इस व्रत का उल्लेख मिलता है जब द्रौपदी पांडवों की मुसीबत दूर करने के लिए शिव-पार्वती के मार्ग-दर्शन में इस व्रत को कर पांडवों को मुश्किल से निकाल चिंता मुक्त करवाती है।  कहीं-कहीं सत्यवान और सावित्री की कथा में भी इस व्रत को सावित्री द्वारा संपंन्न होते कहा गया है जिससे प्रभावित हो यमराज सत्यवान को प्राणदान करते हैं। ऐसी ही एक और कथा करवा नामक स्त्री की  भी है जिसका पति नहाते वक्त नदी में घड़ियाल का शिकार हो जाता है और बहादुर करवा घड़ियाल को यमराज के द्वार में ले जाकर दंड दिलवाती है और अपनें पति को वापस पाती है।

कहानी चाहे जब की हो और जैसी भी हो हर कहानी में एक बात प्रमुखता से दिखलाई पड़ती है कि स्त्री, पुरुष से ज्यादा धैर्यवान, सहिष्णु, सक्षम, विपत्तियों का डट कर सामना करने वाली, अपने हक़ के लिए सर्वोच्च सत्ता से भी टकरा जाने वाली होती है। जब कि पुरुष या पति को सदा उसकी सहायता की आवश्यकता पड़ती रहती है।उसके मुश्किल में पड़ने पर उसकी पत्नी अनेकों कष्ट सह, उसकी मदद कर, येन-केन-प्रकारेण उसे मुसीबतों से छुटकारा दिलाती है। हाँ इस बात को कुछ अतिरेक के साथ जरूर बयान किया गया है। वैसे भी यह व्रत - त्योहार  प्राचीन काल से चले आ रहे हैं, जब महिलाएं घर संभालती थीं और पुरुषों पर उपार्जन की जिम्मेवारी होती थी।पर आज इसे  कुछ तथाकथित आधुनिक नर-नारियों द्वारा पिछडे तथा दकियानूसी त्योहार की संज्ञा दे दी गयी है।  

आज कल आयातित कल्चर, विदेशी सोच तथा तथाकथित आधुनिकता के हिमायती कुछ लोगों को महिलाओं का दिन भर उपवासित रहना उनका उत्पीडन लगता है। उनके अनुसार यह पुरुष  प्रधान समाज द्वारा महिलाओं को कमतर आंकने का बहाना है। अक्सर उनका सवाल रहता है कि पुरुष क्यों नहीं अपनी पत्नी के लिए व्रत रखते ? ऐसा कहने वालों को शायद व्रत का अर्थ सिर्फ भोजन ना करना ही मालुम है। जब कि कहानियों में व्रत अपने प्रियजनों को सुरक्षित रखने, उनकी अनिष्ट से रक्षा करने की मंशा का सांकेतिक रूप भर है। यह तो  इस तरह के लोग एक तरह से अपनी नासमझी से महिलाओं की भावनाओं का अपमान ही करते हैं। उनके प्रेम, समर्पण, चाहत को कम कर आंकते हैं और जाने-अनजाने महिला और पुरुष के बीच गलतफहमी की खाई को पाटने के बजाए और गहरा करने में सहायक होते हैं। वैसे देखा जाए तो पुरुष द्वारा घर-परिवार की देख-भाल, भरण-पोषण भी एक तरह का व्रत ही तो है जो वह आजीवन निभाता है ! आज समय बदल गया है, पहले की तरह अब महिलाएं घर के अंदर तक ही सिमित नहीं रह गई हैं। पर इससे उनके अंदर के प्रेमिल भाव, करुणा, परिवार की मंगलकामना जैसे भाव खत्म नहीं हुए हैं।

आज सोची-समझी साजिशों के तहत हमारे हर त्योहार, उत्सव, प्रथा को रूढ़िवादी, अंधविश्वास, पुरातनपंथी, दकियानूसी कह कर ख़त्म करने की कोशिशें हो रही हैं। रही सही कसर पूरी करने को "बाजार" उतारू है ! उसे तो सिर्फ अपने लाभ से मतलब होता है। उसने महिलाओं की दशा को भांपा और उनकी भावनाओं को ''कैश'' करना शुरू कर दिया। देखते-देखते साधारण सी चूडी, बिंदी, टिकली, धागे सब "डिजायनर" होते चले गए। दो-तीन-पांच रुपये की चीजों की कीमत 100-150-200 रुपये हो गई। अब सीधी-सादी प्लेट या थाली से काम नहीं चलता, उसे सजाने की अच्छी खासी कीमत वसूली जाने लगी ! कुछ घरानों में छननी से चांद को देखने की प्रथा घर में उपलब्ध छननी से पूरी कर ली जाती थी पर अब उसे भी बाजार ने साज-संवार, दस गुनी कीमत कर, आधुनिक रूप दे, महिलाओं के लिए आवश्यक बना डाला। चाहे फिर वह साल भर या सदा के लिए उपेक्षित घर के किसी कोने में ही पडी रहे। पहले शगन के तौर पर हाथों में मेंहदी खुद ही लगा ली जाती थी या आस-पडोस की महिलाएं एक-दूसरे की सहायता कर देती थीं, पर आज यह लाखों का व्यापार बन चुका है। उसे भी पैशन और फैशन बना दिया गया है ! कल के एक घरेलू, आत्म केन्द्रित, सरल, मासूम से उत्सव, एक आस्था, को खिलवाड का रूप दे दिया गया। करोड़ों की आमदनी का जरिया बना दिया गया ! आज समय की जरुरत है कि हम अपने ऋषि-मुनियों, गुणी जनों द्वारा दी गयी सीखों, उपदेशों का सिर्फ शाब्दिक अर्थ ही न जाने, उसमें छिपे गूढार्थ को समझने की कोशिश भी करें।   
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@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से   

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2023

अनियमितता, एक अनिश्चितताओं से भरे खेल की

क्रिकेट की एक और दिलचस्प खासियत यह है कि इसकी पिच, जिस पर इसे खेला जाता है, उसकी लंबाई और चौड़ाई (22 गज x 10 फिट) तो तय होती है, पर मैदान का आयाम, जो कहीं गोल होता है तो कहीं अंडाकार यानी ओवल शेप में, तो कहीं अनियमित आकार लिए हुए, उसका कोई निश्चित माप नहीं होता ! हॉकी, फुटबॉल, टेनिस, बैडमिंटन जैसे दूसरे खेलों के मैदानों के आकार या माप जिस तरह तय रहते हैं, वैसा क्रिकेट में नहीं होता ! इस अनिश्चितताओं से भरे खेल में यह एक ऐसी अनियमितता है, जिस पर शायद ही कभी बात होती हो...........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग      

इन दिनों एक दिवसीय क्रिकेट की एक बड़ी या कह सकते हैं महा-प्रतियोगिता चल रही है ! अब क्रिकेट का माहौल है तो जाहिर है, उसकी बातें चहुं-ओर होनी ही हैं ! हमारे देश के लोग तो वैसे भी इस खेल के कुछ अतिरिक्त ही दिवाने हैं ! भारत में क्रिकेट को इसके प्रशंसकों द्वारा एक धर्म ही बना दिया गया है, जहां क्रिकेटरों को भगवान की तरह माना जाने लगा है ! ऐसी प्रतियोगिताओं में हजारों-हजार लोग स्टेडियम में हो-हल्ला मचाने तो पहुंचते ही हैं, उनसे कहीं ज्यादा लोग घर में बैठ अपना रक्तचाप और दिल की धड़कनों को अनियमित बनवाते रहते हैं ! ऐसे ही दीवाने अब्दुल्लों के भरोसे टीवी पर इसका सीधा प्रसारण करने वाले अतिरिक्त कमाई की खातिर अपनी दुकान, खेल शुरू होने के दो घंटे पहले ही खोल कर बैठ जाते हैं ! मजे की बात यह है कि उस दुकान पर कुछ ऐसे लोग भी ज्ञान बेचने का मौका पा जाते हैं जिन्होंने अपने समय में हाई स्कूल की परीक्षा भी पास नहीं की होती ! कुछ सदा के फिस्सडी यहां विशेषज्ञ बने नजर आते हैं ! इस खेल की महानता है कि यह अपने से जुड़े किसी भी बंदे को निराश नहीं करता कुछ ना कुछ उपलब्ध करवा ही देता है !  

बात की बात में बात कहां तक चली गई ! बात हो रही थी खेल की ! तो यह खेल अपनी अनिश्चितताओं के लिए प्रसिद्ध है ! यही विशेषता इसे अन्य खेलों से कुछ अलग भी बनाती है ! यह एक मात्र खेल है, जहां अपनी एक भूल को भी सुधारने का कोई और मौका नहीं मिलता, खास कर बैटर को ! आउट....तो.....आउट ! दुनिया के हर खेल में, खेल के दौरान खिलाडियों को अपनी गलती या कहिए गलतियां सुधारने के और भी अवसर मिल जाते हैं पर इस क्रूर खेल में एक गलती हो गई तो बस, सब खल्लास.......! कई बार तो वह एक गलती खिलाड़ी के जीवन भर के कैरियर को ही बर्बाद कर बैठती है ! पर यही क्रूरता इस खेल को और भी लोकप्रिय बनाती चलती है ! ___________________________________________________________________________

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आपकी आँखें हमारे लिए अनमोल हैं 
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क्रिकेट की एक और दिलचस्प खासियत यह है कि इसकी पिच, जिस पर इसे खेला जाता है, उसकी लंबाई और चौड़ाई (22 गजx10 फिट) तो तय होती है, पर मैदान का आकार, जो कहीं गोल होता है तो कहीं अंडाकार यानी ओवल शेप में, तो कहीं अनियमित आकार लिए हुए, उसका कोई निश्चित माप नहीं होता ! हॉकी, फुटबॉल, टेनिस, बैडमिंटन जैसे दूसरे खेलों के मैदानों के आकार-आयाम जिस तरह तय रहते हैं, वैसा क्रिकेट में नहीं होता ! इस अनिश्चितताओं से भरे खेल में यह एक ऐसी अनियमितता है, जिस पर शायद ही कभी बात होती हो ! हाँ, बाउंड्री 65 मीटर से कम और 90 मीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा पुरुषों के क्रिकेट के लिए मैदान का व्यास आमतौर पर 450 फीट (137 मीटर) से 500 फीट (150 मीटर) के बीच और महिला क्रिकेट के लिए 360 फीट (110 मीटर) से 420 फीट (130 मीटर) के बीच होता है।  

वैसे आजकल यह खेल भी पैसा कमाने के अहम जरिए का रूप लेता जा रहा है ! दर्शकों को आकर्षित और रोमांचित करने की तरकीबें खोजी जाने लगी हैं ! भद्र पुरुषों का खेल कहलवाने वाले क्रिकेट का मूल स्वभाव बदलवाया जा रहा है ! इस खेल का बैटिंग वाला पक्ष वो हिस्सा है जो इस खेल को रफ्तार देता है, यही चीज दर्शकों और क्रिकेट प्रेमियों को ज्यादा पसंद भी है ! इसी कारण इस खेल में बैटर का दबदबा बढ़ता चला जा रहा है और बॉलर धीरे-धीरे गौण होते जा रहे हैं ! आज बैटर को ध्यान में रख नियम-कानून बनते हैं ! बैटिंग के लिहाज से पिचें तैयार करवाई जाने लगी हैं ! नियम बनाने वालों का सारा ध्यान खेल के तीनों रूपों में ज्यादा से ज्यादा रन बनवाने और चौके-छक्के लगवाने में ही रहता है ! चलो, बैटर को अपनी गलती सुधारने का मौका भी तो नहीं मिलता है, ऐसी रियायत ही सही ! इससे रोमांच तो बढ़ा ही है ! ठठ्ठ के ठठ्ठ लोग तमाशा देखने उमड़े भी पड़ रहे हैं ! 

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विडंबना है कि मैदान भले ही छोटा हो, पर दर्शक दीर्घाएं और-और बड़ी होने लगी हैं ! जिससे असीमित लोगों को समेटा जा सके ! टिकटों की कीमतें आकाश छूने लगी हैं ! पैसा बरस रहा है ! खेल व्यवसाय बन गया है  ! खिलाड़ी मशीन ! उन पर अब सर्दी-गर्मी-बरसात-धूप-लू, अँधेरे-उजाले किसी भी व्याधि का कोई असर नहीं पड़ता ! इधर खेल अपनी भावना को ले कर अचंभित सा कहीं दुबका पड़ा है !   

सोमवार, 23 अक्तूबर 2023

रेल वाली चादर

सदा  वाचाल रहने वाली श्रीमती शर्मा चुपचाप बैठीं सारी बातें निर्विकार रूप से सुन रही थीं ! शर्मा जी सोच में डूब गए थे ! कैसे हैं लोग ! रेल की कमियां गिना-गिना कर ना थकने वाले, ऐसी गिरी हुई हरकत करते समय कभी खुद का आंकलन क्यों नहीं करते ! कभी अपने आप पर ग्लानि नहीं होती ! कभी उनके  दिमाग में यह बात क्यों नहीं आती  कि किसी सिमित तनख्वाह पाने वाले गरीब पर उनके इन कारनामों का क्या असर पड़ेगा ! क्या कभी घर आए किसी मेहमान के सामने ऐसा सामान सामने आ जाने से उन्हें शर्म नहीं आएगी ?............पर दूसरे ही दिन शर्मा जी झटका खा गए ..........😦

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"अरे भाई सुनना...!" पास से गुजरते हुए कोच सहायक को शर्मा जी ने टोका !

"जी ! बोलिए....!

"क्या नाम है आपका ?

"राजेंद्र....!   

"अरे भाई राजेंद्र, देखो यह बेड शीट कुछ ठीक नहीं है, सीलि सी है .......!

"कोई बात नहीं, अभी बदल देता हूँ !

दिल्ली-मुंबई राजधानी का 3rd AC कोच ! शर्मा जी सपत्नीक, एक समारोह में उपस्थिति दर्ज करवा वापस मुंबई अपने घर लौट रहे थे ! गाड़ी को दिल्ली से रवाना हुए 15-20 मिनट हो चुके थे ! कोच सहायक द्वारा पानी, बेडिंग जैसी जरुरत की चीजें उपलब्ध करवाई जा रही थीं ! तभी यह वार्तालाप हुआ !  

सुबह बोरिवली में कोच तकरीबन खाली हो चुका था ! राजेंद्र चादर-कंबल इत्यादि संभाल रहा था ! काम करते-करते पास आ गया था, तभी शर्मा जी ने पूछा "कभी हैंड टॉवल वगैरह कम तो नहीं पड़ जाते ?

एक क्षण को जैसे उसकी दुखती रग को छू दिया गया हो ! चेहरे पर बेबसी सी छा गयी ! फिर बेहद शांत स्वर में राजेंद्र का दुःख सामने आ गया ! बोला, "अब क्या बताएं साहब .... ! यह तो रोज का किस्सा हो गया है ! आप छोटे टॉवल की बात करते हैं, चादर की छोड़िए, यहां तो लोग कंबल तक उठा कर ले जाते हैं !

"कंबल ........?? शर्मा जी चौंके ! "इतनी बड़ी चीज कैसे.....? पता नहीं चलता किसी को ? यह तो सरासर चोरी है !

"अब आप खुद ही देख लीजिए ! सारे कोच में चादरें कंबल बिखरे पड़े हैं ! जाते वक्त कोई तहियाना तो दूर, समेट कर भी नहीं जाता ! अब ऐसे ढेर में कहां क्या कम है, कैसे पता चल सकता है ! फिर भी कभी अंदाजा लग भी जाता है, पर किसी पर इल्जाम नहीं लगा सकते ! सारे यात्री हमारे लिए सम्माननीय होते हैं ! किसी का सामान तो खोल कर नहीं देख सकते ना ! उस पर यदि हमारा शक गलत हो जाए तो हमारी तो नौकरी ही चली जाएगी, सो चुपचाप जो भी होता है, दंड भरते रहते हैं ! 

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एक चुप्पी सी पसर गई थी डिब्बे में ! सिर्फ पटरियों की धीमी खटर-पटर की ध्वनि महसूस हो रही थी ! सदा वाचाल रहने वाली श्रीमती शर्मा चुपचाप बैठीं सारी बातें निर्विकार रूप से सुन रही थीं ! शर्मा जी सोच में डूब गए थे ! कैसे हैं लोग ! रेल की कमियां गिना-गिना कर ना थकने वाले, ऐसी गिरी हुई हरकत करते समय कभी खुद का आंकलन क्यों नहीं करते ! कभी अपने आप पर ग्लानि नहीं होती ! कभी उनके  दिमाग में यह बात क्यों नहीं आती कि किसी सिमित तनख्वाह पाने वाले गरीब पर उनके इन कारनामों का क्या असर पड़ेगा ! क्या कभी घर आए किसी मेहमान के सामने ऐसा सामान सामने आ जाने से उन्हें शर्म नहीं आएगी ? 

शर्मा जी को लगा कि हमारे जींस में ही, बिना छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, आम-खास का भेद किए मुफ्तखोरी पैबस्त हो चुकी है ! नहीं तो क्यों आदरणीयों की सेवानिवृति के बाद उनके घर से सरकारी सामान वापस लाना पड़ता है ! क्यों माननीयों लोगों के सरकारी निवास छोड़ने पर उनके घरों की टाइलें-टोंटियां नदारद हो जाती हैं ! क्यों सड़कों-पार्कों-चौराहों से सजावटी सामान गायब हो जाता है........! 

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शर्मा जी की सोच शायद थमती नहीं यदि गाड़ी के थमने के संकेत नहीं मिलने लगते ! स्टेशन आने वाला था ! शर्मा दंपति ने सामान समेटा, उतरने की तैयारी होने लगी !  

दूसरे दिन घर पर यात्रा के दौरान काम आए कपड़े धुल कर सूख रहे थे ! तभी शर्मा जी झटका खा गए ! उन्हीं कपड़ों में भारतीय रेल की एक चादर और दो हैंड टॉवल भी लटके हुए अपनी सीलन दूर करने में लगे हुए थे ! 

रविवार, 22 अक्तूबर 2023

''अंकल, कन्या खिलाओगे'' ?

कन्या भोज के दिन फिर आ गए हैं पर कुछ वर्षों से नवरात्रों में भी कुछ बदलाव आया है, कन्या भोज के दिनों में वह पहले जैसी आपाधापी कुछ कम हुई लगती है, अब आस-पडोस की अभिन्न सहेलियों में वैसा अघोषित युद्ध नहीं छिड़ता ! नहीं तो पहले सप्तमी की रात से ही कन्याओं की बुकिंग शुरु हो जाती थी । फिर भी सबेरे-सबेरे हरकारे दौड़ना शुरु कर देते हैं। गृहणियां परेशान, हलुवा कडाही में लग रहा है पर चिंता इस बात की है कि "पन्नी" अभी तक आई क्यूं नहीं ? "खुशी" सामने से आते-आते कहां गायब हो गयी ! एक पुरानी रचना जो आज भी सामयिक और प्रासंगिक है.................

(एक पुरानी पर सामयिक रचना )

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सुबह-सुबह दरवाजे की घंटी बजी।  द्वार खोल कर देखा तो पांच से दस  साल की चार - पांच  बच्चियां  लाल रंग के कपड़े  पहने  खड़ी थीं।   छूटते ही  उनमें सबसे  बड़ी  लड़की ने  सपाट आवाज  में सवाल  दागा,   ''अंकल, 
कन्या खिलाओगे'' ?   
मुझे  कुछ सूझा नहीं,  अप्रत्याशित   सा था यह सब। अष्टमी के दिन कन्या पूजन होता है। पर वह सब परिचित चेहरे होते हैं, और आज वैसे भी षष्ठी है। फिर सोचा शायद गृह मंत्रालय  ने कोई अपना विधेयक पास कर दिया हो इसलिये इन्हें बुलाया हो। अंदर पूछा,   तो पता चला कि ऐसी कोई बात नहीं है !  मैं फिर  कन्याओं  की ओर  मुखातिब   हुआ और बोला,  ''बेटाआज नहीं,  हमारे  यहां अष्टमी  को पूजा  की जाती है''। "अच्छा कितने बजे" ? फिर सवाल उछला, जो  सुनिश्चित  कर  लेना  चाहता था,  उस दिन के निमंत्रण को।  मुझसे कुछ कहते नहीं बना, कह दिया,  ''बाद में बताऐंगे''।  तब   तक बगल वाले घर की घंटी बज चुकी थी।
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मैं सोच रहा था कि बड़े-बड़े व्यवसायिक घराने या नेता आदि ही नहीं आम जनता भी चतुर होने लग गयी है। सिर्फ दिमाग होना चाहिये। दुह लो, मौका देखते ही, जहां भी जरा सी गुंजाईश हो। बच ना पाए कोई। जाहिर है कि ये छोटी-छोटी बच्चियां इतनी चतुर सुजान नहीं हो सकतीं। यह सारा खेल इनके माँ, बाप, परिजनों द्वारा रचा गया है।
जोकि दिन भर टी.वी. पर जमाने भर के बच्चों को उल्टी-सीधी हरकतें करते और पैसा कमाते देख, हीन भावना से ग्रसित होते रहते हैं। अपने नौनिहालों को देख कुढते रहते हैं कि लोगों के कुत्ते-बिल्लियाँ भी छोटे पर्दे पर पहुँच कमाई करने लग गए हैं, दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी और हमारे बच्चे घर बैठे सिर्फ रोटियां तोड़े जा रहे हैं। फिर ऐसे ही किसी कुटिल दिमाग में इन दिनों  बच्चों को घर-घर जीमते देख यह योजना आयी होगी और उसने इसका कापी-राइट कोई और करवाए, इसके पहले ही, दिन देखा ना कुछ और बच्चियों को नहलाया, धुलाया, साफ सुथरे कपड़े पहनवाए, एक वाक्य रटवाया, "अंकल/आंटी, कन्या खिलवाओगे ? और इसे अमल में ला दिया।
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ऐसे लोगों को पता है कि इन दिनों लोगों की धार्मिक भावनाएं अपने चरम पर होती हैं। फिर  बच्ची स्वरुपा देवी को
अपने दरवाजे पर देख भला  कौन मना करेगा। सब ठीक रहा तो सप्तमी, अष्टमी और नवमीं इन तीन दिनों तक बच्चों और हो सकता है कि पूरे घर के खाने का इंतजाम हो जाए। ऊपर से बर्तन, कपड़ा और नगदी अलग से। इसमें कोई  दिक्कत   भी नहीं आती,  क्योंकि इधर वैसे ही आस्तिक गृहणियां चिंतित रहती हैं, कन्याओं की आपूर्ती को लेकर।   जरा सी देर हुई या अघाई कन्या ने खाने से इंकार किया और हो गया अपशकुन ! इसलिए होड़ लग जाती है पहले अपने घर कन्या बुलाने की !

अब फिर कन्या भोज के दिन आ गए हैं पर पिछले कुछ वर्षों से नवरात्रों में भी कुछ बदलाव आया है, अब इन दिनों में वह पहले जैसी आपाधापी कुछ कम हुई लगती है, अब आस - पडोस की  अभिन्न सहेलियों में वैसा अघोषित युद्ध
नहीं छिड़ता ! नहीं तो  सप्तमी की रात से ही कन्याओं की बुकिंग शुरु हो जाती है। फिर भी सबेरे-सबेरे हरकारे
दौड़ना शुरु कर देते हैं। गृहणियां परेशान, हलुवा कडाही में लग रहा है पर चिंता इस बात की है कि "पन्नी" अभी  तक आई क्यूं नहीं? "खुशी" सामने से आते-आते कहां गायब हो गयी ! कोरम पूरा नहीं हो पा रहा है।इधर काम पर जाने वाले हाथ में लोटा, जग लिए खड़े हैं कि देवियां आएं तो उनके चरण पखार कर काम पर जाएं। देर हो रही है, पर आफिस के बॉस से तो निपटा जा सकता है, वैसे आज के दिन तो वह भी लोटा लिए खड़ा होगा कन्याओं के इन्जार में,  घर के इस बॉस से कौन पंगा ले, वह भी तब जब बात धर्म की हो।                                           

आज इन "चतुर-सुजान" लोगों ने कितना आसान कर दिया है  सब कुछ।  पूरे देश को राह दिखाई है, घर पहुंच सेवा प्रदान कर।

"जय माता दी"

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

आँखों पर पट्टी बांधे बैठी कुर्सियां

सच तो यही है कि आँखों पर पट्टी बंधी होने से कभी भी न्याय नहीं हो पाता है ! हमारे हजारों साल पुराने ग्रंथ भी इस बात के गवाह हैं, उनमें भी इस बात की पुष्टि हुई है कि यदि आँखों पर पट्टी ना होती तो संसार का सबसे बड़ा विनाशकारी युद्ध भी शायद ना होता ! कहावत है कि कानों सुनी पर विश्वास नहीं करना चाहिए ! आज भी सत्य के पक्ष में खड़े युधिष्ठिर, अपनी बात ठीक से न रख पाने, सच्चाई को ठीक से उजागर ना कर पाने के कारण, अपना पक्ष कमजोर कर लेते हैं ! दूसरी ओर शकुनि जैसे लोग अपने वाक्चातुर्य से असत्य को सत्य का जामा पहना बंद आखों को धोखा देने में सफल हो जाते हैं.................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

स्कूल में, चाहे वह विज्ञान हो, भूगोल हो, गणित हो, पढ़ाए गए विषयों की सत्यता सदा एक सी बनी रहती है ! यह नहीं होता कि स्कूल में पढ़ाया गया हो कि पृथ्वी गोल है और कॉलेज में आ कर वह चपटी हो जाए ! यदि स्कूल में बताया गया है कि पानी, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोग से बनता है तो यह सच्चाई सदा ही बनी रहती है ! दो और दो चार ही होता है ! मनुष्य सामाजिक प्राणी ही बना रहता है, जैसा बताया गया था ! गुरु जी की कुर्सी पर बैठा इंसान विद्वान होता है ! कोई ऐरा-गैरा आ कर उसकी परीक्षा नहीं ले सकता ! ऐसा भी नहीं कि वह कुछ बोले और हेड मास्टर उसकी बात काट दे और उधर प्रिंसिपल हेडमास्टर को गलत करार कर उसकी बात बार-बार पलटता  रहे !

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नेत्र शल्य चिकित्सा का विश्वसनीय केंद्र 
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पर एक विधा ऐसी भी है जिसमें कुछ भी स्थाई नहीं है ! एक कुछ कहता है तो दूसरा उसको गलत सिद्ध कर जाता है तो तीसरा आ कर दूसरे की बात पलट जाता है ! निचले स्थान की कुर्सी को उच्चासीन हेय सिद्ध कर देता है तो इस उच्च को सर्वोच्च सत्ता वाला धरातल पर ला पटकता है ! पता नहीं....! किताबें तो सबने एक जैसी ही पढ़ी होती हैं ! पर हर कोई उनको अपनी मर्जी के अनुसार परभाषित करने लगता है ! यदि उसमें लिखा इतना जटिल है कि अधिकांश को वह समझ ही नहीं आता तो उसे सरल क्यों नहीं बनाया जाता ?  क्यों नहीं उसके ''लूप होल्स'' को सील कर दिया जाता ? उस जटिलता का खामियाजा भुगतना पड़ता है आम, मजलूम जनता को ! आज हालत ऐसे हैं कि बोलने वाला सुनने वाले पर हावी हो गया है ! यह ''सुना'' जाता है कि ''कौन'' बोल रहा है ना कि क्या बोला जा रहा है ! होता भी तो ऐसा ही आया है, जनता ने देखा भी है, दसियों ऐसे उदाहरण हैं जब भारी-भरकम लोग अपनी बात मनवा कर चल देते हैं ! अब तो तराजू वाली प्रतिमा को खुद ही अपनी आँखों पर बंधी पट्टी उतार फेंकनी होगी !

इस विधा के प्रतीक को रोमन देवी जस्टीशिया के रूप में जाना जाता है। जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी हुई है और एक हाथ में तराजू और दूसरे में तलवार है। कहते हैं पहले मूर्ति की आँखों पर पट्टी नहीं होती थी पर 16वीं शताब्दी में उसके सामने होने वाले अन्याय के प्रति उसे अंधा दिखाने के उद्देश्य के तहत, कुछ लोगों ने मूर्ति की आँखों पर पट्टी बाँध दी थी ! पर फिर न्यायालय की गरिमा को ध्यान में रखते हुए इसे न्याय की निष्पक्षता के प्रतीक के रूप में प्रचारित कर दिया गया ! पर सच तो यही है कि आँखों पर पट्टी बांध कभी भी कोई न्याय नहीं कर पाया है ! हमारे हजारों साल पुराने ग्रंथ भी इस बात के गवाह हैं, उनमें भी इस बात की पुष्टि की हुई है कि यदि आँखों पर पट्टी ना होती तो संसार का सबसे बड़ा विनाशकारी युद्ध भी ना होता ! कहावत है कि कानों सुनी पर विश्वास नहीं करना चाहिए ! सत्य के पक्ष में खड़े युधिष्ठिर, अपनी बात ठीक से न रख पाने, सच्चाई को ठीक से उजागर ना कर पाने के कारण, अपना पक्ष कमजोर कर लेते हैं ! दूसरी ओर शकुनि जैसे लोग अपने वाक्चातुर्य से असत्य को सत्य का जामा पहना बंद आखों को धोखा देने में सफल हो जाते हैं !

चलिए इन गुमानी कुर्सियों की तो आँखें बंद हैं पर हमारे पथ प्रदर्शक, हमारे धर्मगुरु, हमारा समाज यह सब क्यों चुप है ? कहाँ हैं वे लोग जो कहते हैं कि हम इंसान गढ़ते हैं ? उनकी आँखें तो खुली हैं, तो फिर क्या उन्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि आज कैसे इंसान घड़े जा रहे हैं ? क्यों है यह चुप्पी ? क्यों है यह उदासीनता ? हमें खुद भी सोचना होगा, क्यों निर्लिप्त हैं हम सब ?

इस विधा के मूल मंत्र को प्रचारित करते समय बार-बार कहा जाता है कि भले ही सौ दोषी छूट जाएं पर निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए ! पर विडंबना यह है कि अधिकांश मामलों में इसका उलट होता है ! पीड़ित अपनी आत्मा पर बोझ लिए मर-मर कर जीता है और अपराधी अपने रसूख, अपने धनबल, अपने बाहुबल और इस विधा की संकरी गलियों का सहारा ले, दुःखित को और दुखी करता, उसकी छाती पर मूंग दलता हुआ स्वच्छंद मंडराता रहता है ! लचर कानून और न्याय व्यवस्था हमेशा से ही आम नागरिक की परेशानी का सबब रही है ! आज भी सीधा-साधा गरब-गुरबा डरता है न्याय की गुहार लगाने को ! जब्त कर जाता है अपने ऊपर हुए अन्याय को ! यदि कोई हिम्मत करता है तो उसकी हालत "रागदरबारी के लंगड़" जैसी हो कर रह जाती है ! ज्यादातर आम नागरिकों को  काले कोट उन काली शक्तियों की तरह भयभीत करते हैं, जिनके चंगुल में एक बार फंस गए तो मौत ही मुक्ति दिला पाती है ! दूसरी तरफ इन्हीं खामियों का फायदा उठा अपराधी अक्सर कानून के शिकंजे से बच निकलते हैं ! 

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यदि कुर्सी की आँखें खुली हों यानी वह कभी-कभी खुद भी संज्ञान लेने की जहमत उठा ले, तो सामने वाले की भाव-भंगिमा, चाल-ढाल, उसकी कुटिलता का आभास पा वस्तुस्थिति समझने में आसानी हो सकती है ! तब देखा तो जा सकेगा कि कोई बिमारी का बहाना बना जेल से छूट, घर पर तीमारदारी करवाने के बजाए पर्यटन पर कैसे निकल जाता है ! बीमार है पर खेल-कूद में सक्रीय भाग लेने लगता है ! देखा तो जा सकेगा कि करोड़ों के हेर-फेर में किसी के पास कुछ नहीं मिलता पर उसके बगल की खेती कैसे लहलहाने लगी है ! कानों को साक्ष्य ना भी सूझें पर आँखें तो देख पाएंगी कि कैसे डेढ़-डेढ़ दर्जन बच्चों की लाशें नालों में सड़ती हुई मिल रही हैं ! वे खुद तो जा कर मिटटी में दफ़न या नाले में नहीं कूदी होंगी ! कोई तो होगा जिसने ऐसी हैवानियत की होगी और वह ''कोई'' सिर्फ सुनी-सुनाई पर कैसे रिहा हो गया......! 

यह भी बिलकुल सच है कि आँखों पर पट्टी होने के बावजूद कई कुर्सियां बिना किसी दवाब में आए, अपनी जान तक की परवाह किए बगैर अपने कर्तव्य को अंजाम देती रहती हैं और उन्हीं के कारण आज भी इस व्यवस्था की साख कायम है ! यह भी सही है कि इस विधा में सिर्फ आँख की पट्टी का ही दोष नहीं है ! इसमें कुछ कुर्सियों पर उनका अहम, विचारधारा, परवरिश, दृष्टिकोण यह सब हावी हो जाता है जिससे अपने को श्रेष्ठ समझ एक अलग सोच बना ली जाती है ! पश्चिम की उच्श्रृखंलता, कुत्सित विचार, उनके मानदंड उन्हें सही लगने लगते हैं ! ऐसी कुर्सियां भूल जाती हैं कि हमारी सामाजिक व्यवस्था अलग है ! हमारे समाज की रीढ़ हमारे परिवार हैं ! परिवारों की एकजुटता हमारे संस्कार हैं, जिनमे विवाह का एक विशेष स्थान है ! माँ-बाप की अहमियत है बच्चों के लिए, उनकी परवरिश के लिए ! सिर्फ सुविधाएं जुटा देने से ही कर्तव्य की इति नहीं हो जाती ! खून के रिश्ते परिवारों को एक मजबूती देते हैं ! संस्कार हैं तो परिवार हैं, परिवार हैं तो समाज है और समाज है तभी देश भी है ! 

आजकल कुछ ऐसी ही बंद आँखों वाली कुर्सियां अप्राकृतिक संबंधों की पैरोकार बन जिस तरह वैवाहिक संस्कारों पर चोट करने की कोशिश में हैं उससे वे भविष्य के समाज के कैसे विनाश का आह्वान कर रही हैं, इसका शायद उन्हें गुमान भी नहीं है ! चलिए इन गुमानी कुर्सियों की तो आँखें बंद हैं पर हमारे पथ प्रदर्शक, हमारे धर्मगुरु, हमारा समाज यह सब क्यों चुप है ? कहाँ हैं वे लोग जो कहते हैं कि हम इंसान गढ़ते हैं ? उनकी आँखें तो खुली हैं, तो फिर क्या उन्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि आज कैसे इंसान घड़े जा रहे हैं ? क्यों है यह चुप्पी ? क्यों है यह उदासीनता ? हमें खुद भी सोचना होगा, क्यों निर्लिप्त हैं हम सब ?   

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