मंगलवार, 30 मार्च 2021

लक्ष्मण झूला, ऋषिकेश का

इसको देखने का अनुभव जरूर अलग है पर इसकी दशा देख दुःख होता है। लोगों की भीड़ इस पर सदा जमी रहती है। दसियों फोटोग्राफर अपनी रोजी-रोटी के लिए दर्शकों को यहीं बांधे रखते हैं ! दो-तीन मवेशी भी लोगों के द्वारा खाए-अधखाए-छूटे हुए खाद्य-पदार्थों की खोज में वहीं मंडराते रहते हैं ! सुबह से शाम तक हर वक्त 100-150, इससे ज्यादा ही, लोगों का भार दिन भर झेलते, यह कितने दिन निकाल पाएगा, कहा नहीं जा सकता.......!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
लक्ष्मण झूला ! ऋषिकेश में गंगा नदी पर बना हुआ यह एक पुल है, जिसे खंभों पर नहीं बल्कि लोहे के मोटे तारों के सहारे बनाया गया है। पहले यह लोगों के और हवा के चलने से झूले की तरह डोलता था इसीलिए इसे झूला नाम दिया गया था। पर अब इसकी उम्र और लोगों के बढ़ते आवागमन को देखते हुए इसे फिक्स कर दिया गया है, अब यह सिर्फ पैदल पथ के रूप में ही प्रयोग किया जाता है। यह गंगा नदी के पश्चिमी किनारे के तपोवन और पूर्वी किनारे पर बसे गांव जोंक को आपस में जोड़ता है। 



पौराणिक कथाओं के अनुसार रावण वध की सफलता के लिए श्री राम ने लक्षमण जी के साथ यहीं आ कर तपस्या की थी। ऐसी मान्यता है कि आज जहां यह पुल है, उसी जगह से लक्ष्मण जी रस्सियों के सहारे गंगा नदी पार किया करते थे। इसीलिए उस जगह बने पुल का नाम उनके नाम पर पड गया। बहुत पहले यहां लोग छींके या टोकरी में बैठ, रस्सियों के सहारे नदी पार किया करते थे। फिर सन् 1889 में उसकी जगह कलकत्ते के एक धार्मिक, दानी सज्जन सूरजमल जी के द्वारा लोहे के मजबूत तारों से दूसरा पुल बनवाया गया। लेकिन लोहे के तारों से बना वह मजबूत पुल 1924 की एक भीषण बाढ़ में बह कर नष्ट हो गया। इस हादसे के बाद नदी से करीब 70 फीट ऊपर, आज का यह मजबूत एवं आकर्षक, 450 फीट लम्बा और 5 फीट चौड़ा पुल 1929 में बन कर तैयार हुआ, जिसे 11 अप्रैल 1930 में लोगों के लिए खोल दिया गया।


आज रख-रखाव की कुछ कमी और पर्यटकों के बढ़ते दवाब के कारण नब्बे साल से भी ऊपर के इस पुल के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। हालांकि इसके विकल्प के रूप में नदी पार करने के लिए और पुल भी बन गए हैं पर अपनी प्रसिद्धि के कारण यह अभी भी लोगों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र बना हुआ है। इसको देखने का अनुभव जरूर अलग है पर इसकी दशा देख दुःख होता है। लोगों की भीड़ इस पर सदा जमी रहती है। दसियों फोटोग्राफर अपनी रोजी-रोटी के लिए दर्शकों को यहीं बांधे रखते हैं ! दो-तीन मवेशी भी लोगों के द्वारा खाए-अधखाए-छूटे हुए खाद्य-पदार्थों की खोज में वहीं मंडराते रहते हैं ! सुबह से शाम तक हर वक्त 100-150, इससे ज्यादा ही, लोगों का भार दिन भर झेलते, यह कितने दिन निकाल पाएगा, कहा नहीं जा सकता ! 


पुल तक पहुंचने के लिए तक़रीबन 40-45 सीधी सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। जो बुजुर्गों के लिए बहुत सुरक्षात्मक नहीं कही जा सकतीं ! इसके अलावा इस तक का पहुंच मार्ग भी सुविधाजनक नहीं है। असमतल सड़कें, बढ़ती दुकानें, जगह घेरते फेरी वाले, आस-पास मंडराते पशु, पर्यटकों के लिए खासी असुविधा उत्पन्न करते हैं। स्थानीय लोगों का व्यापार तो खूब बढ़ रहा है पर बाहर से आने वाले लोग सहजता महसूस नहीं कर पाते। ऐसे विश्व प्रसिद्ध स्थानों का तो विशेष रूप से रख-रखाव और ध्यान रखा जाना जरुरी है। जिससे आने वालों और स्थानीय लोगों, दोनों का मकसद और ध्येय पूरा हो सके।    

शनिवार, 27 मार्च 2021

बदहाल ऋषिकेश

प्रकृति की गोद में, पहाड़ों से घिरे, गंगा किनारे वनाच्छादित, शांत-स्वच्छ परिवेश की छवि की कल्पना को जैसे ही सड़क पर टंगे दिशानिर्देशक बोर्ड ने, ''ऋषिकेश में स्वागत है'' की सुचना दी तो वहां की हालत देख ऐसा लगा जैसे किसी ने मधुर स्वप्न दिखाती नींद से उठा वास्तविकता की पथरीली सड़क पर पटक दिया हो ! वही किसी आम कस्बे की तरह धूल भरी उबड़-खाबड़ संकरी सड़कें, पहाड़ी से नीचे आते सूखे जलपथ ! उनमें बढ़ता कूड़ा-कर्कट ! लुप्तप्राय हरियाली, भीड़-भड़क्का, शोरगुल, गंदगी का आलम ! मन उचाट सा हो गया...........!

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कभी-कभी सुनी-सुनाई बातों से या मीडिया के माध्यम से किसी अनदेखे स्थान के बारे मेंं एक धारणा सी बन जाती है जो अपने हिसाब से दिमाग में उसके बारे में एक काल्पनिक चित्र का चित्रण कर देती है ! पर जब वहां जा कर उस जगह की असलियत सामने आती है तो सब कुछ झिन्न- भिन्न सा हो कर रह जाता है ! कुछ ऐसा ही हुआ जब पहली बार ऋषिकेश जाने का सुयोग बना।  


दूर के ढोल 

पिछले दिनों परिस्थियोंवश उत्तराखंड के शहर कोटद्वार जाने का मौका मिला। वहां जाते समय तो मुज़फ्फरनगर के खतौली से नजीबाबाद होते हुए गए थे। पर लौटते हुए हरिद्वार होते हुए आने का विचार बना। इसका एक कारण हरिद्वार के पास तक़रीबन 15 किमी दूर बहादराबाद में रह रहे अति स्नेही आर्या परिवार से मिलना था, जिन्हें मिले तकरीबन चालीस साल हो चुके थे। दूसरा योग की वैश्विक राजधानी ऋषिकेश,जहां अभी तक कभी भी जाना नहीं हो पाया था। 


वैसे तो हरिद्वार कई बार जाना हुआ था पर इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि उससे सिर्फ 20-22 की. मी. की दूरी पर स्थित ऋषिकेश जाने का कभी भी सुयोग नहीं बन पड़ा। सो हफ्ता भर कोटद्वार में रहने और आस-पास की महत्वपूर्ण जगहों का भ्रमण करने के पश्चात बहादराबाद का रुख किया गया। दूसरे दिन तय कार्यक्रमानुसार भोजनादि के बाद एक बजे, जब पावन नगरी ऋषिकेश के लिए रवाना हुए तो उसकी, प्रकृति की गोद  में, पहाड़ों से घिरे, गंगा किनारे वनाच्छादित, शांत-स्वच्छ परिवेश की छवि की कल्पना थी। पर जैसे ही सड़क पर टंगे दिशानिर्देशक बोर्ड ने ऋषिकेश में स्वागत है की सुचना दी तो वहां की हालत देख ऐसा लगा जैसे किसी ने मधुर स्वप्न दिखाती नींद से उठा वास्तविकता की पथरीली सड़क पर पटक दिया हो !



आश्रमों या मठों का वातावरण भले ही स्वच्छ-शांतिमय हो पर बाकी, वही किसी आम कस्बे की तरह धूल भरी उबड़-खाबड़ संकरी सड़कें, पहाड़ी से नीचे आते सूखे जलपथ ! उनमें बढ़ता कूड़ा ! टूटे घाट ! लुप्तप्राय हरियाली, भीड़-भड़क्का, शोरगुल, गंदगी का आलम ! यह सब देख मन उचाट सा हो गया ! पेशोपेश यह कि अब क्या करें, कहां रुकें ! उस समय दिमाग में एक ही नाम आया, लक्ष्मण झूला ! पूछ-ताछ कर गाडी को उधर मोड़ा गया। किसी तरह उस जगह पहुंचे ! आड़ी-टेढ़ी, उबड़-खाबड़ सी पार्किंग में सौ रूपए का जुर्माना दे कर गाडी खड़ी की। वहां से दो सौ मीटर चल कर गंतव्य  तक पहुंचे। यहां से झूले तक जाने के लिए सीधी 42 सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। गंगा नदी पर बने इस पैदल पहले के झूलते पुल को अब फिक्स कर कर  दिया गया है ! यही यहां का मुख्य आकर्षण है। पर ऋषिकेश शहर की तरह यह भी हम नागरिकों की लापरवाही का अंजाम भुगत  रहा है !


अनिंयत्रित  आबादी, सुगम यात्रा पथ,  उपलब्ध सुविधाएं,  बढ़ते  पर्यटन प्रेम  से हर  पर्यटन स्थल का रख-रखाव दूभर होता जा रहा है ! कहीं भी  चले जाइए, बदहाली - बदइंतजामी का माहौल है। स्थानीय  लोगों की आमदनी तो बढ़ रही है, पर  ऐसा लगता है  कि सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जल्द  ही लालच का शिकार हो अपना अस्तित्व गंवाने वाली है।  कमाई की हवस में जब हम अपने स्रोत को ही सूखा डालेंगे तो फिर उपार्जन कहां से होगा ! ऐसे पौराणिक,  धार्मिक,  इतिहासिक स्थलों के  संरक्षण के  लिए विशेष योजनाओं की जरुरत है। आज हरिद्वार को कुंभ के अवसर  पर अलौकिक रूप से  संवारा जा रहा है. तो उससे जुड़े इस महत्वपूर्ण स्थल ऋषिकेश की उपेक्षा ना कर उसकी भी सुध जरूर ली जानी चाहिए।                                              

सोमवार, 22 मार्च 2021

ओ री गौरैया ! बिन तेरे आंगन सूना

आज जरुरत है अपने आस-पास के पर्यावरण के साथ-साथ उसमें रहने-पलने वाले छोटे-छोटे जीवों का भी ख्याल-ध्यान रखने की ! इसके लिए सरकारों का मुंह ना जोहते हुए हर नागरिक को यथाशक्ति, यथासंभव खुद ही कुछ ना कुछ प्रयास करने होंगे ! कहीं ऐसा ना हो कि किसी दिन नीले से धूसर होता जा रहा नभ, नभचर विहीन भी हो कर रह जाए.........!

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याद कर देखिए ! कितने दिन हो गए आपको सुबह-सुबह गौरैया का मधुर कलरव सुने ! कितना वक्त बीत गया उसे घर के आँगन, बाल्कनी, छत या किसी मुंडेर पर कुछ चुगते, फुदकते देखे ! अंतिम बार कब उसके चहकने से सकारात्मकता का आभास हुआ था ! कब उनको घर में मंडराते देख सकून सा मिला था ! कब घर की छत के किसी कोने में बने घरौंदे से गिरे उसके नवजात को उठा कर वापस घोंसले में रखने पर एक अनुपम अनुभूति हुई थी ! कब संध्या समय उनके झुंड को बिजली के खंभों की तारों पर कतारबद्ध पंचायत करते देखा था ! नहीं बता पाएंगे ! क्योंकि यह छोटा सा घरेलू जीव धीरे-धीरे, हमारी ही बेरुखी, संवेदनहीनता और अप्राकृतिक रहन-सहन के कारण हमसे दूर होने पर मजबूर होता जा रहा है !  




परसों, 20 मार्च, विश्व गौरैया दिवस था ! ऐसे ही और संरक्षित दिनों की तरह ही इस दिन भी बाकि सब कुछ हुआ, सिर्फ इस नन्हीं सी जान की फ़िक्र के अलावा ! पक्षी प्रेमियों के अतिरिक्त और लोगों को तो शायद ही इस दिवस के बारे में पता भी हो ! मानव-मित्र यह घरेलु पक्षी इंसानी रिहाइशों के आस-पास ही रहना पसंद करता है। सुनसान-निर्जन घरों में यह अपना बसेरा नहीं बनाता। परंतु हमारी बदलती जीवन शैली, घटती हरियाली, घरों की बढ़ती ऊंचाइयों ने इसे हमसे दूर कर दिया है। ज्ञातव्य है कि इस नन्हें परिंदे की उड़ने की क्षमता सिर्फ 20 मीटर की ऊंचाई तक ही सिमित है, जो शहरों के आकाश छूते आधुनिक आवासीय निर्माणों के लिए पूरी तरह अपर्याप्त है ! गांवों-कस्बों में तो यह अब भी दिख जाती है पर महानगरों में तो यह प्राय: लुप्तप्राय ही है !


इसकी घटती तादाद का एक मुख्य कारण कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग भी है ! जिससे पतले-छोटे कीट, जो इसका और इसके बच्चों का मुख्य आहार है, इसे नहीं मिल पाते ! इसको अक्सर धूल में लोटते भी देखा जाता है, जिससे यह धूल-स्नान कर अपने पंखों को साफ़-सुथरा, कीटाणु विहीन बनाए रखती है ! पर बढ़ते कंक्रीटीकरण से इसके ऐसा ना कर पाने की वजह से इसके रोगग्रस्त हो जाने का ख़तरा भी बढ़ गया है। शहरों में इसे रहने के साथ-साथ खाने के लिए भी जूझना पड़ता है क्योंकि मिटटी के अभाव में उसमें पैदा होने वाले कीड़े वगैरह इसे नहीं मिल पाते। यही कारण है कि अब यह शहरों से दूर होती जा रही है। अभी कुछ ही साल पहले दिल्ली में हमारे आवास पर इसकी अच्छी खासी संख्या हुआ करती थी, पर अब तो भूले-भटके भी नजर नहीं आती !



सिर्फ छोटे कीट और बीजों पर निर्भर रहने वाली यह औसत पांच-छह इंच की 30-35 ग्राम वजन की छोटी सी भूरे से रंग की चिड़िया, जिसमें खुद को परिस्थियों के अनुकूल ढल जाने की क्षमता होने के बावजूद, उसकी तादाद भारत में ही नहीं इटली, फ़्रांस, जर्मनी, इग्लैंड जैसे बड़े और विकसित यूरोपीय देशों में भी लगातार कम होती जा रही है। नीदरलैंड में तो इसे पहले ही दुर्लभ प्रजाति की श्रेणी में रख दिया गया है। देखा जाए तो इसको बचाने के अभी तक के सारे प्रयास विफल ही रहे हैं ! केवल 20 मार्च को इसे याद भर कर लेने या राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली का राजकीय पक्षी होने से ही इसका कोई भला नहीं होने वाला !



आज जरुरत है अपने आस-पास के पर्यावरण के साथ-साथ उसमें रहने-पलने वाले छोटे-छोटे जीवों का भी ख्याल-ध्यान रखने की ! यदि हम शेर-बाघ-गिद्ध-कौवे की चिंता करते हैं तो हमें गौरैया जैसे छोटे जीवों का भी ध्यान रखना होगा ! इसके लिए सरकारों का मुंह ना जोहते हुए हर नागरिक को यथाशक्ति, यथासंभव खुद ही कुछ ना कुछ प्रयास करने होंगे ! कहीं ऐसा ना हो कि किसी दिन नीले से धूसर होता जा रहा नभ, नभचर विहीन भी हो कर रह जाए !  

@ चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

शनिवार, 20 मार्च 2021

कोटद्वार के सिद्धबली हनुमान

हनुमान जी यहां आने वाले आने वाले अपने सारे भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। इसीलिए यहां हर धर्म के लोग अपनी इच्छापूर्ति के लिए दूर-दूर से आते रहते हैं। मनोकामना पूरी होने पर श्रद्धालु मंदिर परिसर में भंडारा आयोजित कर प्रभु को अपना आभार व्यक्त करते हैं। लोगों की श्रद्धा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां  होने वाले विशेष भंडारों की बुकिंग फिलहाल 2025 तक के लिए बुक हो चुकी है..........!!

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सिद्धबली हनुमान जी का मंदिर, उत्तराखंड के कोटद्वार नगर के दर्शनीय स्थलों में  एक प्रमुख देव स्थान है। जो मुख्य नगर से करीब तीन किमी की दूरी पर खोह नदी के किनारे,नजीबाबाद-बुआखाल राष्ट्रीय राजमार्ग पर  लगभग 135 फुट की ऊंचाई पर एक पहाड़ी टीले पर स्थित है। इस ऊंचाई से चारों ओर का नैसर्गिक दृश्य निहारना अपने आप में एक अलौकिक अनुभव प्रदान करता है। ऐसी दृढ मान्यता है कि हनुमान जी यहां आने वाले आने वाले अपने सारे भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। इसीलिए यहां हर धर्म के लोग अपनी इच्छापूर्ति के लिए दूर-दूर से आते रहते हैं। मनोकामना पूरी होने पर श्रद्धालु मंदिर परिसर में भंडारा आयोजित कर प्रभु को अपना आभार व्यक्त करते हैं। लोगों की श्रद्धा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां  होने वाले विशेष भंडारों की बुकिंग फिलहाल 2025 तक के लिए बुक हो चुकी है। 





सड़क से लगे प्रवेश द्वार से 158 सीढ़ियां चढ़ कर मुख्य मंदिर तक पहुंचा जाता हैं। वहां  सफ़ेद संगमरमर की बेहद आकर्षक प्रतिमा स्थापित है। पूरा परिसर बेहद साफ़-सुथरा और मनभावन है।  मंदिर  से कुछ ही नीचे शिव जी और शनिदेव विराजमान हैं। मंदिर से  तक़रीबन आधी दूर पहले भक्तों द्वारा भंडारा करने की सुन्दर व्यवस्था है। ऊपर प्रकृति के साए में मंदिर का वातावरण इतना मनोहर-शांत व मनमोहक है कि वहां से वापस लौटने की इच्छा ही नहीं होती। बहुत कम जगहों पर ऐसा अहसास होता है। 




नाथ परंपरा की धारणाओं के अनुसार गुरु गोरखनाथ एवं उनके शिष्यों ने यहां लम्बे समय तक तपस्या की, जो की बाद में ‘सिद्ध’ नाम से प्रसिद्द हुए। जानकारों के अनुसार 14वीं शताब्दी में प्रख्यात संत सिधवा ने भी इसी जगह आ कर साधना की थी, जिन्हें सिद्ध के रूप  में पूजा जाता है। मंदिर की  स्थापना के बारे  में यह बताया जाता है कि इस स्थान पर तप साधना करने के बाद सिद्ध बाबा को हनुमान जी की  सिद्धि प्राप्त हुई थी।  उसके  उपरांत सिद्ध बाबा ने  यहां बजरंगबली की एक  विशाल मूर्ति का   निर्माण करवाया था, तबसे इस जगह का नाम सिद्धबली पड़ गया। 

 

सिद्ध बाबा की समाधी और शिव मंदिर  


इस बारे में एक और भी कहानी प्रचलित है, जिसके अनुसार अंग्रेजों के समय एक मुस्लिम अधिकारी अपने घोड़े पर सवार जब यहां पहुंचे तो भावशून्य हो गए ! उसी अवस्था में उन्हें भान हुआ कि सिद्ध बाबा की समाधि पर हनुमान जी के मंदिर की स्थापना की जाए ! सजग होने पर उन्होंने स्थानीय लोगों से इस बात की चर्चा की और फिर इस मंदिर का निर्माण हुआ। जिसे धीरे-धीरे भक्तों और श्रद्धालुओं की आस्था ने यह भव्य स्वरुप प्रदान करवाया। 



हनुमानजी हमारे सर्वप्रिय पांच देवताओं में से एक हैं। तत्काल प्रसन्न होने और अभय प्रदायी होने के कारण ये अबालवृद्ध सभी में अत्यंत लोकप्रिय हैं। संसार भर में इनके भक्त इनका स्मरण कर सुख-शांति पाते हैं।इनके मंदिर विश्व भर में स्थापित हैं, जहां एक से बढ़ कर एक प्रतिमाएं स्थापित हैं। पर कुछ कम जाना जाने वाले इस सिद्धबली की मूर्ति भी अद्भुत है। मौका मिले तो दर्शन करने जरूर आना चाहिए।   

मंगलवार, 16 मार्च 2021

एक दर्शनीय स्थल, कोटद्वार

दर्शनीय स्थानों में सबसे महत्वपूर्ण कण्व ऋषि का आश्रम है जो पहाड़ की तलहटी में, शहर से करीब 35 किमी की दूरी पर स्थित है। यही वह जगह है जहां शकुंतला-दुष्यंत के यशस्वी पुत्र भरत का जन्म और शैशव काल बीता था। जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। सुनसान-बियाबान में यह शांत जगह सकून प्रदायी तो है पर भीतर ही भीतर कुछ विवाद समेटे, बहुत ही ज्यादा देखरेख की मांग भी करती है.............!

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जीवन में कभी-कभी कुछ ऐसा घट जाता है, जिसकी पहले दूर-दूर तक संभावना होती नहीं लगती। शायद इस लिए भी इसे अनिश्चित कहा गया है। कुछ ऐसा ही हुआ जब विभिन्न परिस्थितियों के चलते उत्तराखंड के एक शांत से शहर कोटद्वार जाने का मौका हासिल हो गया। यह उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे गढ़वाल मंडल के पौड़ी जिले का खोह नदी के तट पर बसा, प्रमुख नगर है। इतिहास में इसका उल्लेख 'खोहद्वार' के रूप में उपलब्ध है। इसे गढ़वाल का प्रवेशद्वार भी कहा जाता है। यहां करीब 150000 लोगों की बसाहट है। 



झंडा चौक, कोटद्वार 

देश भर से रेल द्वारा जुड़े, कोटद्वार की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है कि यहां से कुछ धार्मिक व पर्यटन के विश्वप्रसिद्ध स्थल बहुत नजदीक पड़ते हैं। जैसे हरिद्वार और ऋषिकेश यहां से लगभग 70 से 90 किमी की दूरी पर पश्चिम की ओर, कॉर्बेट नेशनल पार्क करीब 150 किमी दूर पूर्व की ओर, तक़रीबन 40 किमी उत्तर-पूर्व में लैंसडाउन, जहां प्राकृतिक गोद में गढ़वाल राइफल्स का रेजिमेंटल सेंटर है तथा करीब 85 किमी पूर्व में रामगंगा नदी पर बना दर्शनीय कालागढ़ बाँध स्थित है। वहीं बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम के लिये भी सीधी बस और टैक्सी सेवा उपलब्ध है। उतनी ही आसानी से पौड़ी, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग भी जाया जा सकता है। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून यहां से करीब सवा सौ किमी है। जबकि देश की राजधानी दिल्ली की दूरी तकरीबन सवा दो सौ किमी  पड़ती है।  

दुष्यंत-शकुंतला विवाह स्थली 


दर्शनीय स्थानों में सबसे महत्वपूर्ण कण्व ऋषि का आश्रम है जो पहाड़ की तलहटी में, शहर से करीब 13-14 किमी की दूरी पर स्थित है। यही वह जगह है जहां शकुंतला-दुष्यंत के यशस्वी पुत्र भरत का जन्म और शैशव काल बीता था। जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। सुनसान-बियाबान में यह शांत जगह सकून प्रदायी तो है पर भीतर ही भीतर कुछ विवाद समेटे, बहुत ही ज्यादा देखरेख की मांग भी करती है। 

                                

सिद्धबली हनुमान जी 
नगर के पास ही स्थित हनुमान जी का सिद्धबली मंदिर भी एक प्रख्यात आस्था स्थली है। जहां श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है।


अन्य प्रमुख दर्शनीय स्थलों में दुर्गा देवी मंदिर जो कोटद्वार से लगभग 9 किलोमीटर दूर खोह नदी के तट पर तथा शक्ति पीठ, सुखरी देवी मंदिर दर्शनीय स्थान हैं।

उधर पहाड़ की एक चोटी चर्कान्य शिखर के रूप में जानी जाती है इसी स्थान पर महर्षि चरक ने निघुंट नामक ग्रन्थ की रचना की थी। जिसमें हिमालय की गोद में छुपी दैवीय, अनमोल औषधीय जड़ी-बूटी तथा पौधों के बारे में बहुमूल्य जानकारियां संग्रहित की गई थीं। अब जहां अंग्रेज रहे हों और वहां  चर्च ना हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता; उसी प्रथा के अनुसार यहां भी एक सुंदर दर्शनीय सेंत जोसेफ चर्च बना हुआ है। जो शिल्प कला का बेहतरीन नमूना है। 

हमारा देश ऐसी असंख्य जगहों से भरा पड़ा है जो अपने आप  में हर दृष्टि से समृद्ध, मनोभावन, ऐतिहासिक और धार्मिक जानकारियों का खजाना समेटे हैं ! जरुरत है तो सिर्फ अन्वेषण की !!

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भइया जी एक अउर गजबे का बात निमाई, जो बंगाली है और आप पाटी में है, ऊ बोल रहा था कि किसी को हराने, अलोकप्रिय करने या अप्रभावी करने का बहुत सा ...