इसको देखने का अनुभव जरूर अलग है पर इसकी दशा देख दुःख होता है। लोगों की भीड़ इस पर सदा जमी रहती है। दसियों फोटोग्राफर अपनी रोजी-रोटी के लिए दर्शकों को यहीं बांधे रखते हैं ! दो-तीन मवेशी भी लोगों के द्वारा खाए-अधखाए-छूटे हुए खाद्य-पदार्थों की खोज में वहीं मंडराते रहते हैं ! सुबह से शाम तक हर वक्त 100-150, इससे ज्यादा ही, लोगों का भार दिन भर झेलते, यह कितने दिन निकाल पाएगा, कहा नहीं जा सकता.......!
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लक्ष्मण झूला ! ऋषिकेश में गंगा नदी पर बना हुआ यह एक पुल है, जिसे खंभों पर नहीं बल्कि लोहे के मोटे तारों के सहारे बनाया गया है। पहले यह लोगों के और हवा के चलने से झूले की तरह डोलता था इसीलिए इसे झूला नाम दिया गया था। पर अब इसकी उम्र और लोगों के बढ़ते आवागमन को देखते हुए इसे फिक्स कर दिया गया है, अब यह सिर्फ पैदल पथ के रूप में ही प्रयोग किया जाता है। यह गंगा नदी के पश्चिमी किनारे के तपोवन और पूर्वी किनारे पर बसे गांव जोंक को आपस में जोड़ता है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार रावण वध की सफलता के लिए श्री राम ने लक्षमण जी के साथ यहीं आ कर तपस्या की थी। ऐसी मान्यता है कि आज जहां यह पुल है, उसी जगह से लक्ष्मण जी रस्सियों के सहारे गंगा नदी पार किया करते थे। इसीलिए उस जगह बने पुल का नाम उनके नाम पर पड गया। बहुत पहले यहां लोग छींके या टोकरी में बैठ, रस्सियों के सहारे नदी पार किया करते थे। फिर सन् 1889 में उसकी जगह कलकत्ते के एक धार्मिक, दानी सज्जन सूरजमल जी के द्वारा लोहे के मजबूत तारों से दूसरा पुल बनवाया गया। लेकिन लोहे के तारों से बना वह मजबूत पुल 1924 की एक भीषण बाढ़ में बह कर नष्ट हो गया। इस हादसे के बाद नदी से करीब 70 फीट ऊपर, आज का यह मजबूत एवं आकर्षक, 450 फीट लम्बा और 5 फीट चौड़ा पुल 1929 में बन कर तैयार हुआ, जिसे 11 अप्रैल 1930 में लोगों के लिए खोल दिया गया।
आज रख-रखाव की कुछ कमी और पर्यटकों के बढ़ते दवाब के कारण नब्बे साल से भी ऊपर के इस पुल के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। हालांकि इसके विकल्प के रूप में नदी पार करने के लिए और पुल भी बन गए हैं पर अपनी प्रसिद्धि के कारण यह अभी भी लोगों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र बना हुआ है। इसको देखने का अनुभव जरूर अलग है पर इसकी दशा देख दुःख होता है। लोगों की भीड़ इस पर सदा जमी रहती है। दसियों फोटोग्राफर अपनी रोजी-रोटी के लिए दर्शकों को यहीं बांधे रखते हैं ! दो-तीन मवेशी भी लोगों के द्वारा खाए-अधखाए-छूटे हुए खाद्य-पदार्थों की खोज में वहीं मंडराते रहते हैं ! सुबह से शाम तक हर वक्त 100-150, इससे ज्यादा ही, लोगों का भार दिन भर झेलते, यह कितने दिन निकाल पाएगा, कहा नहीं जा सकता !
पुल तक पहुंचने के लिए तक़रीबन 40-45 सीधी सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं। जो बुजुर्गों के लिए बहुत सुरक्षात्मक नहीं कही जा सकतीं ! इसके अलावा इस तक का पहुंच मार्ग भी सुविधाजनक नहीं है। असमतल सड़कें, बढ़ती दुकानें, जगह घेरते फेरी वाले, आस-पास मंडराते पशु, पर्यटकों के लिए खासी असुविधा उत्पन्न करते हैं। स्थानीय लोगों का व्यापार तो खूब बढ़ रहा है पर बाहर से आने वाले लोग सहजता महसूस नहीं कर पाते। ऐसे विश्व प्रसिद्ध स्थानों का तो विशेष रूप से रख-रखाव और ध्यान रखा जाना जरुरी है। जिससे आने वालों और स्थानीय लोगों, दोनों का मकसद और ध्येय पूरा हो सके।
21 टिप्पणियां:
हरिद्वार,ऋषिकेश देखने घूमने का सौभाग्य 2015 में मुझे मिला था...तभी की अवस्था भी कुछ उत्साहजनक नहीं थी अब तो आपका कथन पढकर और दुःख हो रहा।
जी सर हमारी सांस्कृतिक विरासत को बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है।
श्वेता जी
बाजार का प्रभाव अस्मिता खत्म करता जा रहा है
शास्त्री जी
सम्मिलित करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद ।
ब्लॉगों की फुलवारी के संरक्षण के लिए आपके द्वारा किए जा रहे प्रयासों की जितनी सराहना की जाए कम है
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 30 मार्च 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
यशोदा जी
रचना को मान देने हेतु हार्दिक धन्यवाद
लक्ष्मण झूला को मुझे दिन में देखने का सौभाग्य भी प्राप्त हो चुका है और सुबह के पाँच बजे देखने का भी सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। आपने सही कहा कि दिन के वक्त उधर काफी भीड़ भाड़ रहती है। यह शायद इसलिए भी है क्योंकि उधर पर्यटक और धार्मिक लोग दोनों ही जाते हैं। इसे नियंत्रित शायद ही कोई कर सके। अगर जनसंख्या कम होती है तो शायद यह भीड़ नियंत्रित हो या फिर अगर लक्ष्मण झूला तक जाने के लिए पैदल रास्ता ही करें तो भीड़ कम हो। मुझे लगता है हम लोग आवाजाही जितना सुविधाजनक करते जायेंगे भीड़ उतनी ही अधिक बढ़ती जाएगी।
विकास जी
बिल्कुल सही!
बहुत बढ़िया जानकारी
'विश्व प्रसिद्ध स्थानों का तो विशेष रूप से रख-रखाव और ध्यान रखा जाना जरुरी है।'
उचित कथन । इन स्थानों की समुचित व्यवस्था प्रशासन की तरफ से हो तो स्थिति में सुधार संभव है ।
संगीता जी
हार्दिक आभार
मीना जी
बाजार के आगे सभी नतमस्तक हो जाते हैं
सही सटीक लेख है।
सचमुच ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं जो पुरातन राष्ट्रीय धरोहरों को नष्ट कर रही है ।
चिंतन परक लेख।
लक्ष्मण झूला देखने का सौभाग्य मुझे भी मिल चुका है। राष्ट्रीय धरोहर पर बहुत ही विचारणीय पोस्ट।
कुसुम जी
यह सब देख मन मसोस कर रह जाना पडता है
ज्योति जी
भीड-भडक्का किसी भी योजना को विफल करने का माद्दा रखता है
जानकारीपूर्ण आलेख - -
शांतनु जी
हार्दिक आभार! स्नेह बना रहे
बहुत अच्छा लिखा आपने गगन जी | ल्श्मन झूले के बारे में सुना कई बार है पर कभी जाने का सौभाग्य नहीं मिल पाया | विरासत वो भी कुछ खर्चे बिना दिखने वाली -- ऐसा कैसे हो सकता है लोग इसका दुरूपयोग ना करें | दुआ करें कोई बड़ी दुर्घटना ना हो | सादर
रेणु जी
अभी जो पार उतारने का मौका देता है वह सिर्फ देखने की चीज ही ना रह जाए
मैंने लक्ष्मण झूला देखा भी है और इसके विषय में बहुत कुछ पढ़ा भी है | फिरभी आपके इस लेख में मेरे लिए बहुत कुछ नया और ग्रहण करने योग्य है | बहुत अच्छा लेख है यह आपका |शुभ कामनाएं |
आलोक जी
सदा स्वागत है आपका
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