रविवार, 31 मई 2020

अब यह तो जुगत पर है कि वह क्या गुल खिलाती है

किसी भी ब्लॉग में किसी की बेवजह आलोचना या निंदा नहीं की जानी चाहिए, ऐसा मेरा मानना है !पर कभी-कभी कुछ ख़ास लोगों द्वारा अपनाई गई तिकड़म, हथकंडा या कूटनीतिक चाल का, जो भविष्य में देश व समाज को प्रभावित कर सकती हो, जिक्र भी इस व्यक्तिगत डायरी में होना लाजिमी है, ताकि सनद रहे ...............!

#हिन्दी_ब्लागिंग
मानव स्वभाव है कि वह यादों  के सहारे भूतकाल में विचरण करता है या फिर तरह-तरह की आशंकाओं से भयभीत भविष्य को जानने की जुगत लगाता रहता है। फिर उसी जुगत में अपनी बुद्धिनुसार तरह-तरह की तिकड़मों को अंजाम दे कभी लोगों के सामने अपनी कुटिलता जाहिर करवा देता है या फिर हास्य का पात्र बन जाता है ! तेहरवीं शताब्दी में तुर्की में जन्में मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने अनोखे अंदाज में ऐसे लोगों का मजाक बना अवाम को नसीहत देने की कोशिश की थी।

मुल्ला नसरुद्दीन अक्सर शहर में फटे-पुराने, जीर्ण-शीर्ण कपडे पहन घूमा करता था। उसके इस रंग-ढंग पर लोग उसका मजाक बनाते, उसकी कंजूसी का उपहास करते उस पर फब्तियां कसते रहते थे ! कुछ को समझ ही नहीं आता था कि माली हालत खराब ना होने के बावजूद वह ऐसे क्यों रहता है ! उसके
खानदान को जानने वाले कुछ लोग पुराने दिनों को याद कर उस पर तरस भी खाते थे ! पर इस सब का मुल्ला पर कोई असर नहीं होता था। वह अपनी ही धुन में रमा रहता था। अपनी हरकतों से सबक वह दूसरों को देता था पर लोग समझते थे कि नसीहत उसको मिल रही है ! 

एक दिन मुल्ला को उसके गधे ने दुलत्ती मार छत से गिरा दिया ! मुल्ला उसी के बारे में सोचता सड़क पर निकल आया कि कभी किसी गधे को ऊँचे मकाम पर नहीं ले जाना चाहिए ! ऐसा करने पर वह उसी जगह को बर्बाद करता है ! ले जाने वाले को भी लतिया कर गिरा देता है और सबसे बड़ी बात खुद भी सर के बल नीचे आ गिरता है। इसलिए दान, ज्ञान और सम्मान सुयोग्य पात्र को ही देना चाहिए ! वह इस इस नतीजे पर पहुंचा ही था कि उसको एक वृद्ध सज्जन ने आवाज दे रोक लिया। वह बुजुर्गवार काफी दिनों से मुल्ला के प्रति लोगों के व्यवहार और उसकी जबरदस्ती ओढ़ी हुई दयनीय अवस्था को देख व्यथित था ! वह हमदर्द, बुजुर्ग इंसान मुल्ला के खानदान से भी अच्छी तरह वाकिफ था। इसीलिए आज सड़क पर बेवजह बड़बड़ाते, मलिन कपड़ों में बावले से घूमते मुल्ला को देख उससे रहा  नहीं गया। सो उसने आवाज लगा मुल्ला को रोका और उसे समझाने के लिहाज से पूछा कि क्यों तुमने ऐसी हालत बना रखी है ! क्या तुम नहीं जानते कि इस शहर में तुम्हारे खानदान का कैसा रुतबा था ! लोग तुम्हारे पूर्वजों की कितनी इज्जत करते थे ! उनकी हैसियत की चर्चा दूर-दूर तक फैली हुई थी ! उनके पास बेहतरीन और बेशकीमती पोशाकें थीं ! वे जब उन्हें पहन कर निकलते थे तो अनजाने लोग भी उन्हें दूर से ही पहचान जाते थे।


मुल्ला ने ध्यान से बुजुर्ग की बातें सुनीं और शान्ति से जवाब दिया, चचाजान आप बिल्कुल सही फरमा रहे हैं, उसी का ख्याल रख मैं अपने दादाजी के बेहतरीन कपडे पहन घूमता रहता हूँ; ताकि हमारे खानदान का नाम सदा रौशन रहे ! इसीलिए तो मैंने यह जुगत अपनाई है ! 
यह सुन बुजुर्गवार अपनी राह लगे और मुल्ला इस नतीजे पर पहुंचते हुए अपनी कि दुनिया में पहचान बनाने के लिए सूरत-शक्ल, नाम या पहरावा काम नहीं आता ! काम आती है लियाकत !      

शुक्रवार, 29 मई 2020

वे भी मेरी निष्पक्षता और मंतव्य को समझते थे।

आजकल लॉकडाउन में बिटिया ऋद्धिमा, पुत्रवधु, जिसे घर में रिद्धि या रिद्दु कह कर ही बुलाते हैं, अक्सर कुछ नया व्यंजन बना उसे ''लॉक'' कर, मेरी राय जानना चाहती है ! उस पदार्थ का उसके हाथों पहली बार धरा पर अवतरण होने के कारण उसकी ऐसी जिज्ञासा का होना स्वाभाविक भी है ! जब उसे सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल जाती है तब उसकी मांग मुझसे  ''आउट ऑफ़ टेन'' कुछ नंबर पाने की हो जाती है जो मेरे द्वारा सात-साढ़े सात से ऊपर नहीं जा पाता !


कुछ सालों पहले रायपुर में बी.एड. के छात्र-छात्राओं के पुष्प सज्जा, मूर्तिकला व रंगोली इत्यादि की स्पर्धा में अक्सर मुझे जज की भूमिका निभाने का अवसर मिलता रहता था। छात्रों को मुझसे हौसलाअफजाई और सलाह तो मिल जाती थी पर स्पर्द्धा के दौरान उन्हें मुझसे औरों की बजाय कुछ कम ही नंबर मिल पाते थे। पर वे भी शायद मेरी निष्पक्षता और मंतव्य को समझते थे।  


अब एक कहानी - किसी नगर में एक बहुत ही निष्णात और निपुण शिल्पकार रहता था।  जिसकी ख्याति देश-विदेश में दूर-दूर तक फैली हुई थी। उसका एक ही लड़का था। अपनी कला की विरासत को ज़िंदा रखने के लिए शिल्पी ने अपने बेटे को शिल्प की बारीकियां समझा उसे हर तरह से निपुण कर दिया था। लड़के की कला भी मशहूर हो चुकी थी। अलग-अलग राज्यों से उसे बुलावा आने लगा था। सराहना के साथ-साथ दिनों-दिन पारितोषिकों में भी इजाफा होता चला जा रहा था। पर वह युवक जब भी अपने पिता से अपनी कलाकृति के बारे में पूछता तो पिता हर बार उसमें कोई ना कोई कमी निकाल देता था। लड़का और मनोयोग से अपनी कला को निखारने में जुट जाता था। एक बार उसने अपना सब कुछ झोंक कर एक बेहतरीन प्रतिमा बनाई ! लोग उसे देख दांतों तले उंगलियां दबाने लगे ! सभी ने यहां तक कि राजा ने भी उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की। पर इस बार भी युवक कलाकार का पिता नाखुश ही रहा। उसके इस बर्ताव से युवक को दुःख के साथ-साथ क्रोध भी बहुत आया और उसने अपने पिता से कहा कि लगता है आप मेरी सफलता से ईर्ष्या करते हैं ! मेरी यशो-कीर्ति आपको अच्छी नहीं लगती। आप किसी दुर्भावना के तहत मेरी हर कृति में खामियां निकाल देते हैं ! ऐसा क्यों ? आज आपको बताना ही पडेगा ! अपने पुत्र की बात सुन शिल्पकार गंभीर हो गया ! पर आज समय आ पहुंचा था सच बताने का ! उसने अपने बेटे को शांत हो जाने को कहा और बोला कि मैं तुम्हें अपने से भी बड़ा शिल्पकार बनता हुआ देखना चाहता हूँ ! इसीलिए मैं तुम्हारी हर कलाकृति में मीन-मेख निकाला करता हूँ और इसीलिए अब तक तुम अपनी कला को और बेहतर करने के लिए जुट जाते थे। मुझे पता था कि जिस दिन मैंने तुम्हारी कला की प्रशंसा कर दी; उसी दिन तुम संतुष्ट हो जाओगे ! और जब भी कोई कलाकार अपने काम से संतुष्ट हो जाता है उसी समय उसकी कला का एक तरह से अंत हो जाता है ! उसकी और बेहतर करने की भूख ख़त्म हो जाती है ! उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है ! ऐसा तुम्हारे साथ ना हो, तुम विश्व के महान शिल्पकार बन सको इसीलिए मेरा ऐसा व्यवहार हुआ करता था। पिता की बात सुन पुत्र की आँखों से आंसू बह निकले ! वह क्षमा माँगते हुए अपने पिता के चरणों में झुक गया। 


पता नहीं क्यों जब भी ऐसा कोई ''क्षण''  सम्मुख होता है तो यह पुरानी कहानी भी सामने आ खड़ी हो जाती है ! 

मंगलवार, 26 मई 2020

रामप्पा मंदिर, जो अपने शिल्पकार के नाम से जाना जाता है

प्राणप्रतिष्ठा के दिन महाराज गणपति देव ने जैसे ही मंदिर को देखा, वे अचंभित, ठगे से खड़े रह गए ! उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसा भव्य, खूबसूरत, विशाल और अद्भुत निर्माण उन्हीं के राज्य में हुआ है ! उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली ! उन्होंने आगे बढ़ कर रामप्पा को गले से लगा लिया और कहा कि मैं धन्य हूँ, जो तुम जैसा कलाकार मेरे पास है। संसार की कोई भी निधि, कोई भी संपदा तुम्हारी इस कला का मोल नहीं चुका सकती ! तुमने मुझे और अपनी धरती को धन्य कर दिया। आज तक हर मंदिर उसमें स्थापित देव प्रतिमा के नाम से ही जाना जाता रहा है, पर मैं इस मंदिर का नाम तुम्हारे नाम पर रखता हूँ ! आज से यह मंदिर रामप्पा मंदिर के नाम से जाना जाएगा..................!

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बात बहुत पुरानी है ! करीब 800 साल पहले की !  ईसवी सन 1213 की ! तब आंध्र राज्य पर काकतिया वंश के महाराज गणपति देव का शासन था। एक बार जब महाराज़ अपने सालाना राज्य-भ्रमण पर थे तो उसी दौरान अनेक पुराने मंदिरों को क्षतिग्रस्त व जर्जरावस्था में देख उनको यह विचार आया कि क्यों ना एक ऐसे मंदिर का निर्माण किया जाए जो हजारों वर्ष तक बिना किसी क्षति के बना रह सके ! ऐसा ख्याल आते ही वे वहीं से अपने महल लौट आए। महाराज गणपति शिव जी के अनन्य भक्त थे। महल वापस आते ही उन्होंने राज्य के प्रमुख शिल्पकार रामप्पा को बुलवा उसे अपनी मंशा जता एक ऐसा भव्य शिव मंदिर बनाने को कहा जो वर्षों तक बिना किसी नुक्सान के टिका रह सके। राजज्ञा ! बहस का तो सवाल ही नहीं ! शिल्पकार राजा की इच्छा को शिरोधार्य कर लौट आया।



रामप्पा एक बहुत ही कुशल, अनुभवी तथा अपने कार्य को पूरी तरह से जानने समझने वाला निष्णात व निपुण शिल्पकार था। उसकी बनाई हुई प्रतिमाएं अक्सर लोगों को सजीव होने का धोखा दे देतीं थीं। इसीलिए वह राजा का अत्यंत विश्वासपात्र व बहुत प्रिय दरबारी था। उसके लिए राजाज्ञा, देवाज्ञा के समान थी। महल से लौटते ही वह अपने काम में जुट गया। इस कार्य के लिए जैसी-जैसी जानकारी जहां-जहां से भी मिलने की संभावना थी उसने वे सारे ग्रंथ, लेख, पांडुलिपियां खंगाल डालीं। इसी प्रयास में यह तथ्य उसके सामने आया कि अब तक बनाए गए मंदिर या भवनों में बड़े-बड़े, विशाल पत्थरों व शिलाओं का प्रयोग होता रहा है, जिनके बेहद भारी होने की वजह से प्रकृति के कोप का सामना किया जा सके। परंतु उनका अपना यही भार कालांतर में उन्हीं पर भारी पड़ उनके जमींदोज होने का कारण बन जाता है। इस तथ्य का पता लगते ही रामप्पा एक ऐसे पदार्थ की ईजाद में लग गए जो कठोर, ठोस और मजबूत तो हो पर उसका भार बहुत कम हो। उन दिनों कम साधन होने के बावजूद उन्होंने रात-दिन एक कर दिए ! सेतुबंध तक अपनी खोज का दायरा बढ़ा दिया ! समय तो लगा परआखिर अपनी अथक मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने एक ऐसे अपने मन मुताबिक़ ''पत्थर'' की खोज कर ही डाली। यह आज तक एक रहस्य ही है कि वह ''पत्थर'' उन्हें कहीं मिला था या उसको बनाया गया था ! अगर बनाया गया था तो 800-900 वर्ष पहले वह कौन सी तकनीक थी उनके पास, जो पत्थरों को इतना हल्का कर दे कि वो पानी में तैरने लगें ! क्योंकि सेतुबंध में प्रयोग किए गए पत्थरों के अलावा दुनिया में कहीं भी ऐसे पत्थर नहीं मिलते जो पानी पर तैर सकें ! तो क्या रामप्पा ने वह पौराणिक तकनीक खोज निकाली थी.....! 



जो भी हो उस पदार्थ के मिलते ही मंदिर का निर्माण शुरू हो गया। जिसे पूरा होने में 40 साल का वक्त लग गया था। छह फीट ऊंचे चबूतरे पर बनाए गए, भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर के मुख्य द्वार पर नौ फिट ऊँची शिव वाहन नंदी की भी मूर्ति स्थापित की गई ! दीवारों पर महाभारत और रामायण के दृश्य उकेरे गए ! शिल्पकारों ने अपनी कला की छाप भवन की छत, दीवारों, खंभों के साथ हर संभावित जगह पर छोड़ी थी। सुंदर, नक्काशीदार मूर्तियों की भव्यता को देख कोई भी बिना प्रभावित और मोहित हुए नहीं रह सकता था।


प्राणप्रतिष्ठा के दिन महाराज गणपति देव ने जैसे ही मंदिर को देखा, वे अचंभित, ठगे से खड़े रह गए ! उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि ऐसा भव्य, खूबसूरत, विशाल और अद्भुत निर्माण उन्हीं के राज्य की धरती पर हुआ है ! भावातिरेक में उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली ! उन्होंने आगे बढ़ कर रामप्पा को गले से लगा लिया और कहा कि मैं धन्य हूँ, जो तुम जैसा कलाकार मेरे पास है। संसार की कोई भी निधि, कोई भी संपदा तुम्हारी इस कला का मोल नहीं चुका सकती ! तुमने मुझे और अपनी धरती को धन्य कर दिया। आज तक हर मंदिर उसमें स्थापित देव प्रतिमा के नाम से ही जाना जाता रहा है, पर मैं इस मंदिर का नाम तुम्हारे नाम पर रखता हूँ ! आज से यह मंदिर रामप्पा मंदिर के नाम से जाना जाएगा।


रामाप्पा या रामलिंगेश्वर मंदिर तेलंगाना में मुलुगू जिले के वेंकटापुर मंडल के सैकड़ों साल से आबाद पालमपेट गांव में स्थित है। तेलंगाना के वारंगल जिले से इसकी दूरी करीब 70 की. मी. है। शिवरात्रि के दौरान इस मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। कई प्राकृतिक आपदाएं झेलने के बाद भी इस प्रसिद्ध मंदिर को कभी भी कोई ज्यादा नुक्सान नहीं पहुंचा है। धीरे-धीरे इसकी ख्याति जब जन-जन से होते हुए सरकारी कानों तक पहुंची तब वैज्ञानिकों ने इसकी खोज-खबर ले, जांच-पड़ताल की और पाया कि अपनी उम्र के हिसाब से यह मंदिर आज भी बहुत मजबूत है। जब काफ़ी कोशिशों के बाद भी इसकी मज़बूती का रहस्य नहीं खुला तो मंदिर के एक पत्थर के एक टुकड़े को काट कर उसका परिक्षण किया गया ! परिणामस्वरूप पाया गया कि वह पदार्थ आश्चर्यजनक रूप से वजन में बहुत हल्का होने के बावजूद बहुत ही मजबूत है और इसके साथ-साथ पानी में भी नहीं डूबता है ! इस प्रकार मंदिर की मजबूती का तो पता चल गया पर पत्थर का रहस्य अब भी ज्यों का त्यों बना हुआ है ! 


तेहरवीं सदी में भारत आए मशहूर खोजकर्ता मार्को पोलो द्वारा "मंदिरों की आकाशगंगा में सबसे चमकीला तारा'' कहलवाने वाला यह मंदिर विश्व धरोहर की दौड़ में शामिल होने जा रहा है। साल 2018 में घोषित होने वाली विश्व धरोहरों की सूची में शामिल करने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस मंदिर का प्रस्ताव संस्कृति मंत्रालय को भेज दिया गया है। वहां से स्वीकृति मिलते ही वह प्रस्ताव यूनेस्को भेज दिया जाएगा। इसकी दिनों-दिन बढ़ती ख्याति के कारण यहां पर्यटकों की आवाजाही भी बहुत बढ़ गई है। इसीलिए उनकी सुख-सुविधा को ध्यान में रख पर्यटन विभाग भी जागरूक हो गया है उसी के तहत इसके पास की झील के किनारे कॉटेज व रेस्त्रां वगैरह की सुविधाएं उपलब्ध होने लग गई हैं। 

@सभी तस्वीरें अंतर्जाल से साभार 

गुरुवार, 21 मई 2020

फिल्में, जो बाॅटल मूवीज कहलाती हैं

हम सब ने हॉलीवुड मूवीज, बॉलीवुड मूवीज, टॉलीवुड मूवीज के साथ-साथ छोटे परदे यहां तक की मोबाइल के लिए बनने वाली वेब सीरीज जैसी मूवीज का नाम भी सुन रखा है। जिनमें रहस्य, रोमांच, विज्ञान, एक्शन, फिक्शन पर आधारित फ़िल्में बनती आ रही हैं। पर बॉटल मूवीज ! यह कौन सी बला है, जिसके बारे में आजकल अक्सर सुनने को मिल रहा है ! जबकि सुनील दत्त जी ने 1964 में ही ऐसी फिल्म बना दी थी.........!

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बॉटल मूवीज, यह फिल्म बनाने की सस्ती, तथा दिनों-दिन लोकप्रिय होती विधा है। इसकी पूरी शूटिंग एक ही लोकेशन, घर या कमरे, किसी कार या पनडुब्बी या छोटी सी जगह में पूरी कर ली जाती है। वैसे पहले भी ऐसी फ़िल्में बनती रही हैं, जैसे हिचकॉक की ''डायल एम फॉर मर्डर'', ''रोप''। ''टेप'', ''मिस्ट'' या हमारी सुनील दत्त जी द्वारा बनाई ''यादें'', या फिर बासु चटर्जी का ''एक रुका हुआ फैसला'' या फिर राम गोपाल वर्मा की ''कौन'' या बी.आर. चोपड़ा की ''इत्तेफाक''। सुनील दत्त जी की यादें तो इसलिए भी ख़ास है क्योंकि उसमें पर्दे पर के किरदार में सिर्फ एक ही कलाकार था, जसका साथ निभा रहे थे सिर्फ आवाजें और कैमरा ! अपने समय से बहुत आगे की फिल्म थी वह ! 


देश दुनिया में सैकड़ों ऐसी फ़िल्में बनती रही हैं ! पहले ऐसी मूवीज को प्रयोगात्मक फिल्मों का नाम दिया जाता था। कुछेक को छोड़ दर्शकों की पसंद भी मिली-जुली ही होती थी। कम ही लोग ऐसी फ़िल्में पसंद करते थे, खासकर हमारे देश में। पर आजकल बढती मंहगाई, फिल्म निर्माण में आने वाला अनाप-शनाप खर्च, पैसे की तंगी, ब्याज की उच्च दरें, नायक-नायिकाओं के आकाश छूते पारश्रमिक, टी.वी. जैसे अन्य साधनों की वजह से सिनेमा घरों से दूर होते दर्शकों ने उन निर्माताओं का, खासकर जो वेब सीरीज जैसे मनोरंजन गढ़ते हैं, ध्यान इस ओर दिलाया है। टी.वी. पर दिखने वाले रियल्टी या तथाकथित कॉमेडी शो भी इसी श्रेणी में आते हैं।
एक रुका हुआ फैसला 

कौन 

इत्तेफाक 
फिल्म निर्माण, शो बिजनेस के नाम से भी जाना जाता है ! जहां दिखावा, चकाचौंध, कुछ नवीनता, अनोखापन तथा कुछ अलग सा कर गुजरने की कोशिश अनवरत चलती रहती है। उसी के तहत किसी चतुर, व्यापारपटु व्यक्ति द्वारा लोगों को आकर्षित करने हेतु पुरानी बोतल के लिए एक नया नाम गढ़ फ़िल्मी दर्शकों में उत्सुकता बढ़ा दी हो। पर इसके साथ सच्चाई यह भी है कि पहले की अपेक्षा अब लोगों की रूचि काफी बदल चुकी है और हर तरह की फिल्मों का एक बड़ा दर्शक वर्ग बन चुका है। कई बार तो ऐसी फ़िल्में भारी-भरकम, लक-दक फिल्मों पर भी भारी पड़ जाती हैं।    

सोमवार, 18 मई 2020

मैं और माइक, माइक और मैं !

लोग "कैमरा कॉन्शस" होते हैं पर मैं तो "माइक कॉन्शस" हूँ। होता क्या है कि जब किसी जुगाड़ु मौके पर कुछ बोलने के लिए खड़ा होता हूँ, तो अपने दाएं-बाएं-पीछे भी नजर  डालनी पड़ती है कि  सब सुन भी रहे हैं या मुझे हल्के में ले अपने मोबाईल में घुसे  बैठे हैं और इस कसरत में ये जनाब यदि  माइक स्टैंड  में अपनी  जगह  जड़ - मुद्रा में  एक ही जगह फिक्स हों  फिक्स हों तो अपनी आवाज,  चेहरे के लगातार  चलायमान रहने  और इनसे तालमेल  न बैठने के  कारण लोगों को मिमियाती सी लगने लगती है.........!   


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यहां मैं सिर्फ अपनी बात कर रहा हूँ, कोई अपने पर ना ले, आगे ही क्लेश पड़ा हुआ है। हाँ तो मैं कह रहा था कि इस दुनिया में बहुत सारी चीजें ऐसी हैं जिनके आप कितने भी  "used to" हो जाओ, तो भी वे आपको घास नहीं डालेंगी। अब जैसे माइक को ही लें, अरे ! वही माइक्रोफोन ! जिसे बोलते समय मुंह के सामने रखते हैं, जिससे म्याऊं जैसी आवाज भी दहाड़ में बदल जाती है ! जिससे जो नहीं भी सुनना चाहता हो उसे भी जबरिया सुनना पड़ता है ! 
इस नामुराद यंत्र को थामने का मैंने दसियों बार अवसर जुगाड़ा है, 15-20 से ले कर 100-150 तक झेलने वाले श्रोताओं के सम्मुख ! पर आज तक यह मुझसे ताल-मेल नहीं बैठा पाया है ! मुझे तो पसीना आता ही है वह तो अलग बात है !! होता क्या है कि जब किसी मौके पर कुछ बोलने के लिए खड़ा होता हूँ, तो अपने दाएं-बाएं-पीछे भी नजर डालनी पड़ती है कि सब सुन भी रहे हैं या मुझे हल्के में ले अपने मोबाईल में घुस बैठे हैं और इस कसरत में ये जनाब यदि अपनी जगह जड़-मुद्रा में एक ही जगह फिक्स हों तो अपनी आवाज, चेहरे के लगातार चलायमान रहने और इनसे तालमेल न बैठने के कारण लोगों को मिमियाती सी लगने लगती है ! यदि काबू में रखने के लिए इन्हें हाथ में जकड़ लेता हूँ तो ध्यान इसी में रहता है कि बोलते समय ये कहीं नाक या चश्में के सामने ना जा खड़े हों ! लोग "कैमरा कॉन्शस" होते हैं पर मैं तो "माइक कॉन्शस" रहता हूँ। इनका एक और भी अवतार है जो बदन पर सितारे की तरह टांक लिया जाता है पर उनसे मिलने का मुझे कभी मौका नहीं मिला। 

यह सही है कि इसका मेरा दोस्ताना रिश्ता नहीं बन सका, पर फिर भी कभी-कभी मेरे दिल में यह ख्याल आता है कि यदि ये ना होता तो क्या होता, क्या होता यदि ये ना होता ? कैसे नेता-अभिनेता जबरन जुटाई भीड़ के अंतिम छोर पर मजबूरी में खड़े व्यक्ति को अपने कभी भी पूरे न होने वाले वादों से भरमाते ! कैसे धर्मस्थलों से धर्म के ठेकेदार अपनी आवाज प्रभू तक पहुंचाते ! शादियों की तो रौनक ही नहीं रहती ! कवि तो ऐसे ही नाजुक गिने गए हैं सम्मेलनों में तो अगली पंक्ति तक को सुनाने के लिए उन्हें मंच से नीचे आना पड़ता ! गायकों के गलों की तो ऐसी की तैसी हो गयी होती ! ऐसे ही छत्तीसों काम जो आज आसान लगते हैं, हो ही नहीं पाते !  
ना चाहते हुए भी तारीफ़ करुं क्या उसकी, जिसने इसे बनाया ! 1876 में, एमिली बर्लिनर (Emile Berliner)  से जब इसकी ईजाद हो गयी होगी तब उसे क्या पता था कि उसने कौन सी बला. दुनिया को तौहफे में दे डाली है, जिसका आनेवाले दिनों में टेलिफोन, ट्रांसमीटरों, टेप रेकार्डर, श्रवण यंत्रों, फिल्मों, रेडिओ, टेलीविजन, मेगाफोनों, कम्प्यूटरों  और कहाँ-कहाँ नहीं होने लगेगा। उस बेचारे को तो यह भी नहीं पता होगा कि भविष्य में ध्वनि प्रदूषण जैसी  समस्या होगी जिसमें उसकी यह ईजाद मुख्य अभियुक्त हो जाएगी !  

अब जरुरी तो नहीं कि जिससे मेरी न पटती हो उसकी किसी से भी न पटे ! हमारा आपसी रिश्ता जैसा भी हो पर है तो यह गजब की चीज इसमें कोई शक नहीं है ! है क्या ? 

शुक्रवार, 15 मई 2020

एक अनोखा कीर्तिमान, दारा सिंह और पुनीत इस्सर के नाम

एक ही कलाकार द्वारा किसी अति लोकप्रिय कथा के अहम् पात्र का किरदार, उस कथानक पर बनने वाली दो विभिन्न फिल्मों या टी.वी. सीरियलों में, चाहे संयोगवश या किसी और कारण के तहत, निभाया हो ऐसे उदाहरण बहुत कम या ना के बराबर ही हैं। पर दारा सिंह जी और पुनीत इस्सर को ऐसे कीर्तिमान गढ़ने का मौका मिल चुका है............!    

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रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की मूल रचना में हजारों साल का फासला था। जो अलग-अलग युगों में रचा गया था।  कथानक का स्वरुप भी भिन्न था। उनके रचयिताओं के परिवारों में भी दूर-दूर तक कोई आपसी संबंध नहीं था। फिर भी एक महान पात्र की अहम् मौजूदगी दोनों ही ग्रंथों में दर्ज है ! वे हैं पवनपुत्र श्री हनुमान ! रामायण तो उनके बिना अधूरी है ही ! महाभारत में भी उनका प्रसंग पांडवों के वनवास काल में अपने छोटे भाई भीम के गर्व को मिटाने के लिए आता है ! इन दोनों कथाओं पर बने सीरियलों में हनुमान जी की भूमिका दारा सिंह जी ने निभाई थी, इस तरह दोनों सीरियलों में काम करने वाले वो एकमात्र अभिनता बन गए थे। 

महाभारत में भीम और हनुमान 
इसके अलावा बी. आर. चोपड़ा द्वारा 1988 में निर्मित महाभारत सीरियल के बाद 2013 में फिर एक बार महाभारत कथा को टी.वी. सीरियल के रूप में स्वास्तिक प्रोडक्शंस के सिद्धार्थ तिवारी द्वारा भव्य रूप में पेश किया गया। दोनों महाभारत सीरियलों में काम करने का अवसर सिर्फ एक कलाकार पुनीत इस्सर को ही प्राप्त हुआ था। बी.आर. चोपड़ा वाले पहले महाभारत सीरियल में तो उन्होंने दुर्योधन के किरदार को उसके अवगुणों, उसकी लालसा, उसकी छटपटाहट, उसके आक्रोश को एक तरह से जीवंत बना दिया था। करीब पच्चीस साल बाद जब महाभारत को दोबारा बनाया गया तो यह उनके डील-डौल, असरदार अभिनय और गहरी आवाज का ही परिणाम था कि उन्हें इस बार उन्हें परशुराम जी के किरदार के लिए चुना गया। जिसमें वे कर्ण का पात्र निभाने वाले अपने साथी अभिनेता पर बीस ही साबित हुए।    

महाभारत में पुनीत इस्सर 
दूसरी बार परशुराम के किरदार में 



ये चाहे संयोग हो या कोई और कारण ! इस तरह के उदाहरण फिल्म या टी.वी. जगत में बहुत कम या कहें कि ना के बराबर ही मिलेंगे।                                                                                                                  

गुरुवार, 14 मई 2020

क्या अग्नि भी मोक्ष दिला पाई, धृतराष्ट्र को

एक लंबे समय के बाद इस दुर्घटना की खबर हस्तिनापुर पहुंची। भाइयों समेत युधिष्ठिर वन में जा जिस जगह अग्निकांड हुआ था, अन्दाजतन वहां से अपने परिजनों की अस्थियां ला, सारे संस्कार, दान-पुण्य, श्राद्ध कर्म पूरे कर उन्हें गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। परंतु धृतराष्ट्र जैसे पात्र के अवशेषों का उचित संस्कार हो भी पाया होगा ! उस दिन के भीषण दावानल में और भी बहुतेरे पशु-पक्षी-वनवासी प्राणियों की मृत्यु हुई होगी ! फिर अग्निकांड और अस्थि चयन के बीच समय का लम्बा अंतराल भी तो रहा था। अब यह तो प्रभु ही जानते होंगे कि उस दिन किस-किस की अस्थियों का संस्कार हुआ होगा ! क्या उस युग के इस भयानक तीसरे अग्नि-तांडव में खुद को होम होते देख धृतराष्ट्र को उन पहली दो, लाक्षागृह और खांडव वन में घटे अग्निकांडों की याद आई होगी ! जिनके घटने में किसी ना किसी तरह उसकी भी भागीदारी रही थी.............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
दोपहर से उठा झंझावात थमने का नाम ही नहीं ले रहा था ! भरी दोपहरी में भी घना अंधेरा छा गया था। चीत्कार करती हुई हवाएं अपनी प्रचंड गति से सब कुछ तहस-नहस करने पर उतारू थीं ! आकाशीय मेघों की विद्युत जिव्हाएं लपक-लपक कर धरा तक पहुंचने को आतुर हो रही थीं !छोटे-मोटे पादप तो कब के धराशाई हो चुके थे। विशाल घने वृक्ष प्रेतोंकी तरह झूम-झूम कर एक दूसरे से टकरा रहे थे ! जैसे खुद ही एक-दूसरे को उखाड़ फेंकने पर उतारू हों ! पशु-पक्षी डर से लरजते अपनी जान को बचाते कहीं ना कहीं दुबके पड़े थे। ऐसे में चार मानव आकृतियां, दो पुरुष तथा दो महिलाएं, सघन अरण्य में बनी अपनी कुटियों की तरफ बढ़ने की जद्दोजहद में लगीं हुई थीं। ऐसा लग रहा था जैसे एक पुरुष और एक महिला दृष्टिहीन हों, क्योंकि उन्हें दूसरा पुरुष और महिला सहारा देकर आगे बढ़ाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे। इतने में ही एक कान को बहरा कर देने वाले जोरदार धमाके के साथ पास में ही आकाशीय बिजली गिरी और पेड़ों में आग लग गयी ! हवा का दामन थाम आग ने पल भर में ही दावानल का रूप ले लिया ! सारा जंगल धू-धू कर अग्नि के हवाले हो गया ! हर चीज जल कर राख होती चली गई। हर चीज....!    
दावानल 
युद्धोपरांत महात्मा विदुर ने धृतराष्ट्र को सब कुछ त्याग संन्यासश्रम अपनाने की सलाह दी थी। जिसमें वह खुद गांधारी और कुंती भी साथ चलने को तैयार थे। यदि उस समय धृतराष्ट्र ने अपने अनुज की बात मान ली होती तो संभवतया उनका कुछ गौरव तो जरूर बना रहता ! परंतु उनकी राजसुख की लालसा ने द्रौपदी के निवेदन और कुछ युधिष्ठिर की प्रार्थना को आड़ बना वनगमन को टाल, अपने पुत्रों के हत्यारों और चिर-दुश्मनों के आश्रित के रूप में रहना स्वीकार कर लिया। समय के साथ-साथ उनका और गांधारी का पुत्र शोक कम होता गया और वे दोनों ही पाण्डुपुत्रों से पुत्रवत व्यवहार करने लगे। युधिष्ठिर उनकी सुख-सुविधा का पल-पल ख्याल रखते थे ! सभी को यह कठोर हिदायत थी कि धृतराष्ट्र और गांधारी को लेश मात्र भी कष्ट या असुविधा न हो। युधिष्ठिर राज-काज में भी उनकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते थे। एक तरह से उन्हें युद्ध पूर्व जैसा ही सम्मान और माहौल प्रदान करने की चेष्टा रहती थी। पर भीम के मन में  दोनों को देखते ही दुर्भावना आ जाती थी, और वह उसका प्रदर्शन करने, अपमान सूचक कटाक्ष करने तथा अपशब्द कहने से कभी भी चूकता ना था। समय के साथ कम होने की बजाय भीम के मन में धृतराष्ट्र के प्रति और धृतराष्ट्र के मन में भीम के प्रति दुर्भाव बढ़ता ही चला गया। उन दोनों को एक-दूसरे की बात काँटों की तरह चुभने लगी। इसी तरह पंद्रह वर्ष बीत गए। जब अति हो गई और सहना मुश्किल हो गया तो धृतराष्ट्र ने वनवास जाने का निर्णय कर ही लिया।      
हर तरह की मान-मनौवल, विनती, रुदन, समझाइश के बावजूद धृतराष्ट्र इस बार अपनी बात पर अटल रहे। अंत में हार कर सबने उनकी बात मान ली। वनागमन के लिए गांधारी, कुंती, विदुर तथा संजय भी साथ हो लिए। नगर छोड़ने के पश्चात इन्होंने कुरुक्षेत्र के पास वन में रहने का निश्चय किया। ये सारे लोग अति वृद्ध थे सो युधिष्ठिर को उनकी सदा चिंता बनी रहती थी, सो बीच-बीच में वे उनकी खोज-खबर लेते रहते थे। धीरे-धीरे दो वर्ष बीतने को आए। ऐसे में युधिष्ठिर खुद एक बार सबकी खोज-खबर लेने गए तो वहां विदुर को ना पा उनके बारे में पूछने पर कुंती ने उनके अन्न-जल-वस्त्र त्यागने की बात बताई और बताया कि जब तक प्राण हैं, वह सिर्फ वायु पर ही निर्भर है। इतना सुनते ही युधिष्ठिर अरण्य में उनको खोजने के लिए पैठ गए ! काफी देर बाद उन्होंने विदुर को एक वृक्ष से टेक लगाए खड़े पाया। उनका शरीर अस्थिपिंजर रह गया था, रंग काला, आँखें कोटर में धंसी हुई, विवस्त्र, भावहीन ! युधिष्ठिर के उनके पास पहुंचते ही किसी शिरा में अटकी सांस निकल कर युधिष्ठिर में समा गई। इस बात की सुन वेदव्यास जी ने बताया कि विदुर धर्मराज के अवतार थे और युधिष्ठिर भी धर्मराज के अंश हैं, इसीलिए विदुर जी के प्राण युधिष्ठिर में समा गए। 
वनवासी विदुर 

संन्यासाश्रम के दो साल व्यतीत हो चुके थे। एक दिन धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती और संजय गंगा स्नान और पूजा ध्यान कर अपनी कुटियों की ओर लौट रहे थे कि अचानक एक भयंकर तूफ़ान ने पूरे अरण्य को घेर लिया ! क्रुद्ध हवाओं ने सारे जंगल को तहस-नहस कर रख दिया। छोटे-मोटे पेड़-पौधे, लता-गुल्म सब भू-लुंठित हो गए ! बड़े, विशाल वृक्षों के अस्तित्व पर भी बन आई ! दिन में ही अंधियारी छा गयी। सुनना-दिखना सब बाधित हो गया ! इतने में वृक्षों की आपसी रगड़ से आग उत्पन्न हो गयी, जिसने पल भर में ही दावानल का भयंकर रूप ले लिया।धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती और संजय उस आग में बुरी तरह घिर गए। ऐसे में जब संजय ने तीनों को इस विपदा से निकालने की कोशिश की तो धृतराष्ट्र ने साफ़ मना कर दिया ! उन्होंने संजय से कहा कि अब समय आ गया है कि मैं अपने पापों से मुक्ति पा मोक्ष पाने का यत्न करूं ! वैसे भी अब मेरे जीने का कोई उद्देश्य नहीं बचा है ! जीवन के हर रंग देख चुका हूँ ! थक गया हूँ ! अब मैं यहीं अग्नि समाधि ले लेना चाहता हूँ। इसलिए हे संजय ! तुम हमारी चिंता ना करो; यही हमारा प्रारब्ध है ! तुम्हें मेरा आदेश है कि तुम इस दावानल से अपनी रक्षा करो। इस तरह जबरदस्ती संजय को भेज तीनों ने अग्नि स्नान कर खुद को पंचतत्व में विलीन कर लिया। संजय ने किसी तरह वन के बाहर आ ऋषियों को धृतराष्ट्र के बारे में बता, हिमालय जा एक संन्यासी की तरह अपना बाकी जीवन व्यतीत किया। क्या उस युग के इस भयानक तीसरे अग्नि-तांडव में खुद को होम होते देख धृतराष्ट्र को उन पहली दो, लाक्षागृह और खांडव वन में घटे अग्निकांडों की याद आई होगी ! जिनके घटने में किसी ना किसी तरह उसकी भी भागीदारी रही थी ! 
अग्निस्नान 
एक लंबे समय के बाद इस दुर्घटना की खबर हस्तिनापुर पहुंची। भाइयों समेत युधिष्ठिर ने वन में जा जिस जगह अग्निकांड हुआ था, अंदाजतन वहां से अपने परिजनों की अस्थियां ला, सारे संस्कार, दान-पुण्य, श्राद्ध कर्म पूरे कर उन्हें गंगा में प्रवाहित कर दिया ! परंतु क्या धृतराष्ट्र जैसे पात्र के अवशेषों का उचित संस्कार हो भी पाया होगा ! क्योंकि उस दिन के भीषण दावानल में और भी बहुतेरे पशु-पक्षी-वनवासी प्राणियों की मृत्यु हुई होगी ! फिर अग्निकांड और अस्थि चयन के बीच समय का लम्बा अंतराल भी तो रहा था। अब यह तो प्रभु ही जानते होंगे कि उस दिन किस-किस की अस्थियों का संस्कार हुआ था.......!  

रविवार, 10 मई 2020

माँ एक शब्द नहीं पूरी दुनिया है

वैसे माँ को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके लिए कोई ख़ास दिन बनाया गया है कि नहीं। उसे न तोहफों की लालसा होती है नाहीं उपहारों की ख्वाहिश। मिल जाएं तो ठीक, ना मिलें तो और भी ठीक। भगवान से भले ही वह नाखुश हो जाए पर अपने बच्चों के लिए उसके मुख पर सदा आशीष ही रहती है। इसीलिए  ऊपर वाले से कुछ मांगना हो तो सदा हमें अपनी माँ की सलामती मांगनी चाहिए, हमारे लिए तो माँ हर वक़्त दुआ मांगती ही रहती है...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
माँ एक शब्द नहीं पूरी दुनिया है, जो सिर्फ देना जानती है, लेना नहीं ! उसकी ममता का, निस्वार्थ प्रेम कोई ओर-छोर नहीं होता। सागर से गहरे, धरती से सहनशील और आकाश से भी विशाल उसके स्नेहसिक्त आँचल में तो तीनों लोक समाए रहते हैं। मनुष्य को प्रकृति प्रदत्त यह सबसे बड़ी नेमत है, जिसका कोई सिला नहीं ! माँ इस धरती पर ईश्वर का प्रत्यक्ष रूप है। जिस घर में माँ खुश रहती है, वहां खुशियों का खजाना कभी खाली नहीं होता। कोई कष्ट, कोई व्याधि, कोई मुसीबत नहीं व्यापति ! अपने बच्चों को खुश देख खुश रह लेने वाली माँ अपनी ख़ुशी के एवज में भी बच्चों की ख़ुशी ही मांगती है !
माँ, पिकासो की अमर कृति 
जिस माँ के बिना इस दुनिया की कल्पना नहीं की जा सकती; उसी के लिए हमने एक दिन निर्धारित कर दिया....! माँ या उसका ममत्व कोई चीज या वस्तु नहीं है कि उसके संरक्षण की जरुरत हो ! नाहीं वह कोई त्यौहार या पर्व है कि चलो एक दिन मना लेते हैं ! अरे ! जब भगवान के लिए कोई दिन निर्धारित नहीं है; तो फिर माँ के लिए क्यों ? भगवान भी माँ से बड़ा नहीं होता ! वह तो खुद माँ के चरणों में पड़ा रह खुद को धन्य मानता है !
वैसे माँ को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके लिए कोई ख़ास दिन बनाया गया है कि नहीं। उसे न तोहफों की लालसा होती है नाहीं उपहारों की ख्वाहिश। मिल जाएं तो ठीक, ना मिलें तो और भी ठीक। वह तो निस्वार्थ रह बिना किसी चाहत के अपना प्यार उड़ेलती रहेगी। ख़ुशी में सबके साथ खुश और दुःख में आगे बढ़, ढाढस दे आंसू पोछंती रहेगी। भगवान से भले ही वह नाखुश हो जाए पर अपने बच्चों के लिए उसके मुख पर सदा आशीष ही रहती है। इसीलिए ऊपर वाले से कुछ मांगना हो तो सदा हमें अपनी माँ की सलामती मांगनी चाहिए, हमारे लिए तो माँ हर वक़्त दुआ मांगती ही रहती है।

शनिवार, 9 मई 2020

यह वृक्ष का घमंड था या अन्याय का प्रतिरोध

बहुत बार मन में आया कि उस ज्ञानी पुरुष ने अपने शिष्यों को जो सबक सिखाया क्या वह सही था। वह यह भी तो बता सकते थे कि इसे कहते हैं वीरता, बहादुरी, अन्यायी के सामने ना झुकने का संकल्प। देखो और सीखो इस वृक्ष से। जिसने मरना मंजूर किया पर अन्याय के सामने झुका नहीं। वहीं यह मौकापरस्त घास है, जो लहलहा तो रही है पर हर कोई उसे रौंदता चला जाता है.........


#हिन्दी_ब्लागिंग 

बचपन की कई किस्से कहानियों का पुनरावलोकन करने पर लगता है कि जैसे उनके मुख्य पात्र के साथ न्याय ना हुआ हो ! कहीं ना कहीं उसका संदेश अनकहा रह गया हो ! ऐसी ही एक कहानी है उस  वृक्ष की जो तूफ़ान का सामना करते हुए धराशाई हो गया था। 

वर्षों से एक कहानी पढाई/सुनाई जाती है कि किसी उपवन में एक छायादार आम का वर्षों पुराना वृक्ष था। विशाल, घना, सदाबहार, जिसकी छाया में इंसान हो या पशु सभी आश्रय व राहत पाते थे। उसकी ड़ालियों पर हजारों पक्षियों का बसेरा था। तने और जड़ में भी नाना प्रकार के जीव-जंतुओं ने आश्रय ले रखा था। उस पर लगने वाले फल बिना भेदभाव के सब की क्षुधा शांत करते थे। वह वृक्ष, वृक्ष ना होकर जैसे उन सब का अभिभावक सा बन गया था। 

समय का फेर। बरसात का मौसम था। रोज ही आंधी-पानी ने मिल कर जीवों का जीना दूभर कर रखा था। पर पेड़ की सघनता उनके लिए कवच का काम कर रही थी। जैसे कह रही हो कि मेरे रहते तुम सभी सुरक्षित हो। पर एक शाम, शायद उस दिन काल-वैसाखी थी, एक जबरदस्त तूफान उठा ! चारों और अंधेरा छा गया ! मूसलाधार पानी बरसने लगा ! आकाशीय बिजली लपलपा कर धरती छूने लगी ! वाओं ने तो जैसे सब कुछ उड़ा ले जाने की ठान ली थी ! छोटे-मोठे पेड़ तो कब के भू-लुंठित हो चुके थे ! ऐसा लगता था कि आज सारी कायनात ही खत्म हो कर रह जाएगी। ऐसे में भी वह वृक्ष अपने शरणागतों को साहस बंधाता खड़ा था ! जैसे कह रहा हो कि मेरे रहते तुम पर आंच नहीं आ सकती ! पर इधर तूफ़ान का जोर बढ़ता ही जा रहा था ! पानी लगातार बरसे जा रहा था ! हवाऐं और-और तेज होती जा रही थीं ! पूरी कोशिश के बावजूद भी वह पुराना, बुजुर्ग पादप प्रकृति के इस प्रचंड प्रकोप को सह नहीं पाया और जड़ से उखड़ गया।

दूसरे दिन उधर से एक ज्ञानी पुरुष अपने शिष्यों के साथ निकले। उस विशाल वृक्ष का हश्र देख उन्होंने अपने शिष्यों को उसे दिखा कर कहा कि देखो अहंकारी का अंत ऐसा ही होता है। घमंड़ के कारण यह विनाशकारी तूफान के सामने भी अकड़ा खड़ा रहा और मृत्यु को प्राप्त हुआ। उधर वह कोमल घास विपत्ति के समय झुक गयी और अब लहलहा रही है। इसे कहते हैं बुद्धिमत्ता।

बहुत बार मन में आया कि उस ज्ञानी पुरुष ने अपने शिष्यों को जो सबक सिखाया क्या वह सही था। वह यह भी तो बता सकते थे कि इसे कहते हैं वीरता, बहादुरी, अन्यायी के सामने ना झुकने का संकल्प। देखो और सीखो इस वृक्ष से। जिसने मरना मंजूर किया पर अन्याय के सामने झुका नहीं। वहीं यह मौकापरस्त घास है, जो लहलहा तो रही है पर हर कोई उसे रौंदता चला जाता है।

मंगलवार, 5 मई 2020

शैवतीर्थ उनाकोटी, जहां बिखरी पड़ी हैं असंख्य मूर्तियां और प्रतिमाएं

तेज प्रवाह वाली नदियों, उबड़ खाबड़ पहाड़ियों, दूर तक फैले घने जंगलों, दलदली इलाकों के बीहड़ के बीच  अज्ञात सा, अद्भुत रहस्यमय स्थान, उनाकोटी ! जहां जंगल की क्षीणकाय, नामालूम सी पगडंडियों पर चल कर ही पहुंचा जा सकता है। अभी भी इसके और इसके जंगलों के बीच अफरात में फैले शैलचित्रों और मूर्तियों के भंडार और उनकी खासियत के बारे में बहुतेरे देशवासियों को कोई खबर नहीं है  

#हिन्दी_ब्लागिंग  
उनाकोटि हमारे देश के त्रिपुरा राज्य का एक विचित्र, अनोखा, रोमांचक, रहस्यमय, अज्ञात सा एक ऐसा अद्भुत स्थान, जिसकी आज भी अधिकांश देशवासियों को कोई खबर नहीं है ! छविमुड़ा गांव के आगे घोर जंगलों के बीचोबीच, मानव बस्तियों से दूर बीहड़ में मौजूद असंख्य हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। ऐसा अनोखा, भव्य और असीमित मूर्ति भंडार देश के किसी भी और हिस्से में उपलब्ध नहीं है ! जिन्हें पहाड़ी को काट कर या उन्हीं पर उकेर कर बनाया गया है। उन्हें देख यह किसी इंसानी हाथ का काम नहीं लगता।  






तेज प्रवाह वाली नदियों, उबड़-खाबड़ पहाड़ियों, दूर-दूर तक फैले घने जंगलों, दलदली इलाकों के बीहड़ के बीच स्थित है यह अज्ञात सा,अद्भुत रहस्यमय स्थान उनाकोटी। जहां जंगल की क्षीणकाय, नामालूम सी पंगडंडियों पर चल कर ही पहुंचा जा सकता है। अभी भी इसके और इसके जंगलों के बीच अफरात में फैले शैलचित्रों और मूर्तियों के भंडार और उनकी खासियत के बारे में बहुतेरे देशवासियों को कोई खबर नहीं है। जनशून्य जगह में, बीहड़ के बीचोबीच, किसी साधन की उपलब्धता के आसार के बिना, इतनी मात्रा में भव्य मूर्तियों का निर्मित होना लंबे समय से खोज व शोध का विषय बना हुआ है ! स्थानीय लोगों के अनुसार यह सब कुछ दैवीय कृपा से ही संभव हो पाया है !








यहां की मुख्य मूर्ति शिव जी की उनाकोटेश्वर कालभैरव नामक करीब 30-35 फुट की विशाल प्रतिमा है, जिस पर उकेरा गया मुकुट ही दस फुट का है ! इनके दोनों ओर दो स्त्री विग्रह हैं जिनमें एक सिंहारूढ दुर्गा जी की मूर्ति है। यहीं विष्णु जी की वृहदाकार मूर्ति के साथ ही गणेश जी की चार भुजाओं व तीन दांतों तथा आठ भुजाओं और चार दाँतों वाली कहीं और ना पायी जाने वाली दुर्लभ मूर्तियों के अलावा माँ दुर्गा, माँ काली की हैरान कर देने वाली प्रतिमाओं के साथ-साथ नंदी और अन्य देवताओं की भी ढेर सारी अनगिनत मूर्तियां बनी हुई हैं। मान्यता के अनुसार गिनती में ये एक कम, एक करोड़ हैं।  





स्थानीय लोगों के अनुसार, जो यहां आ कर इन प्रतिमाओं की पूजा भी करते हैं, इन सभी कलाकृतियों का संबंध पौराणिक कथाओं से है। उनके अनुसार हजारों साल पहले कालू नामक एक महान शिव भक्त मूर्तिकार हुआ करता था। वह अपने आप को शिव-गौरी का पुत्र मान उनके पास कैलाश जाना चाहता था। उसकी जिद को देख देवताओं ने एक शर्त रखी कि यदि वह एक रात में एक करोड़ मूर्तियों का निर्माण कर देगा तो उसे कैलाश भेज दिया जाएगा। कालू प्रस्ताव मान काम में जुट गया ! उसने रात भर मेहनत कर काम पूरा कर दिया, पर उससे गिनती में जरा सी भूल हो गयी ! प्रस्तावित संख्या से एक मूर्ति कम बनी थी ! यानी एक करोड़ में एक मूर्ति कम रह गयी और इस कारण शिल्पकार कालू धरती पर ही रह गया। स्थानीय भाषा में एक करोड़ में एक कम संख्या को उनाकोटि कहते हैं। इसलिए इस जगह का नाम उनाकोटि पड़ गया। 







त्रिपुरा की राजधानी अगरतला से यह लगभग 125 किमी की दूरी पर स्थित है। यहां सड़क मार्ग द्वारा आराम से पहुंचा जा सकता है। यहां का नजदीकी हवाई अड्डा अगरतला एयरपोर्ट है। रेल मार्ग से जाने पर कुमारघाट या धर्मनगर रेलवे स्टेशन पर उतरना ठीक रहता है। 

@सभी चित्र अंतरजाल के सौजन्य से 

विशिष्ट पोस्ट

विडंबना या समय का फेर

भइया जी एक अउर गजबे का बात निमाई, जो बंगाली है और आप पाटी में है, ऊ बोल रहा था कि किसी को हराने, अलोकप्रिय करने या अप्रभावी करने का बहुत सा ...