गुरुवार, 14 मई 2020

क्या अग्नि भी मोक्ष दिला पाई, धृतराष्ट्र को

एक लंबे समय के बाद इस दुर्घटना की खबर हस्तिनापुर पहुंची। भाइयों समेत युधिष्ठिर वन में जा जिस जगह अग्निकांड हुआ था, अन्दाजतन वहां से अपने परिजनों की अस्थियां ला, सारे संस्कार, दान-पुण्य, श्राद्ध कर्म पूरे कर उन्हें गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। परंतु धृतराष्ट्र जैसे पात्र के अवशेषों का उचित संस्कार हो भी पाया होगा ! उस दिन के भीषण दावानल में और भी बहुतेरे पशु-पक्षी-वनवासी प्राणियों की मृत्यु हुई होगी ! फिर अग्निकांड और अस्थि चयन के बीच समय का लम्बा अंतराल भी तो रहा था। अब यह तो प्रभु ही जानते होंगे कि उस दिन किस-किस की अस्थियों का संस्कार हुआ होगा ! क्या उस युग के इस भयानक तीसरे अग्नि-तांडव में खुद को होम होते देख धृतराष्ट्र को उन पहली दो, लाक्षागृह और खांडव वन में घटे अग्निकांडों की याद आई होगी ! जिनके घटने में किसी ना किसी तरह उसकी भी भागीदारी रही थी.............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
दोपहर से उठा झंझावात थमने का नाम ही नहीं ले रहा था ! भरी दोपहरी में भी घना अंधेरा छा गया था। चीत्कार करती हुई हवाएं अपनी प्रचंड गति से सब कुछ तहस-नहस करने पर उतारू थीं ! आकाशीय मेघों की विद्युत जिव्हाएं लपक-लपक कर धरा तक पहुंचने को आतुर हो रही थीं !छोटे-मोटे पादप तो कब के धराशाई हो चुके थे। विशाल घने वृक्ष प्रेतोंकी तरह झूम-झूम कर एक दूसरे से टकरा रहे थे ! जैसे खुद ही एक-दूसरे को उखाड़ फेंकने पर उतारू हों ! पशु-पक्षी डर से लरजते अपनी जान को बचाते कहीं ना कहीं दुबके पड़े थे। ऐसे में चार मानव आकृतियां, दो पुरुष तथा दो महिलाएं, सघन अरण्य में बनी अपनी कुटियों की तरफ बढ़ने की जद्दोजहद में लगीं हुई थीं। ऐसा लग रहा था जैसे एक पुरुष और एक महिला दृष्टिहीन हों, क्योंकि उन्हें दूसरा पुरुष और महिला सहारा देकर आगे बढ़ाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे। इतने में ही एक कान को बहरा कर देने वाले जोरदार धमाके के साथ पास में ही आकाशीय बिजली गिरी और पेड़ों में आग लग गयी ! हवा का दामन थाम आग ने पल भर में ही दावानल का रूप ले लिया ! सारा जंगल धू-धू कर अग्नि के हवाले हो गया ! हर चीज जल कर राख होती चली गई। हर चीज....!    
दावानल 
युद्धोपरांत महात्मा विदुर ने धृतराष्ट्र को सब कुछ त्याग संन्यासश्रम अपनाने की सलाह दी थी। जिसमें वह खुद गांधारी और कुंती भी साथ चलने को तैयार थे। यदि उस समय धृतराष्ट्र ने अपने अनुज की बात मान ली होती तो संभवतया उनका कुछ गौरव तो जरूर बना रहता ! परंतु उनकी राजसुख की लालसा ने द्रौपदी के निवेदन और कुछ युधिष्ठिर की प्रार्थना को आड़ बना वनगमन को टाल, अपने पुत्रों के हत्यारों और चिर-दुश्मनों के आश्रित के रूप में रहना स्वीकार कर लिया। समय के साथ-साथ उनका और गांधारी का पुत्र शोक कम होता गया और वे दोनों ही पाण्डुपुत्रों से पुत्रवत व्यवहार करने लगे। युधिष्ठिर उनकी सुख-सुविधा का पल-पल ख्याल रखते थे ! सभी को यह कठोर हिदायत थी कि धृतराष्ट्र और गांधारी को लेश मात्र भी कष्ट या असुविधा न हो। युधिष्ठिर राज-काज में भी उनकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते थे। एक तरह से उन्हें युद्ध पूर्व जैसा ही सम्मान और माहौल प्रदान करने की चेष्टा रहती थी। पर भीम के मन में  दोनों को देखते ही दुर्भावना आ जाती थी, और वह उसका प्रदर्शन करने, अपमान सूचक कटाक्ष करने तथा अपशब्द कहने से कभी भी चूकता ना था। समय के साथ कम होने की बजाय भीम के मन में धृतराष्ट्र के प्रति और धृतराष्ट्र के मन में भीम के प्रति दुर्भाव बढ़ता ही चला गया। उन दोनों को एक-दूसरे की बात काँटों की तरह चुभने लगी। इसी तरह पंद्रह वर्ष बीत गए। जब अति हो गई और सहना मुश्किल हो गया तो धृतराष्ट्र ने वनवास जाने का निर्णय कर ही लिया।      
हर तरह की मान-मनौवल, विनती, रुदन, समझाइश के बावजूद धृतराष्ट्र इस बार अपनी बात पर अटल रहे। अंत में हार कर सबने उनकी बात मान ली। वनागमन के लिए गांधारी, कुंती, विदुर तथा संजय भी साथ हो लिए। नगर छोड़ने के पश्चात इन्होंने कुरुक्षेत्र के पास वन में रहने का निश्चय किया। ये सारे लोग अति वृद्ध थे सो युधिष्ठिर को उनकी सदा चिंता बनी रहती थी, सो बीच-बीच में वे उनकी खोज-खबर लेते रहते थे। धीरे-धीरे दो वर्ष बीतने को आए। ऐसे में युधिष्ठिर खुद एक बार सबकी खोज-खबर लेने गए तो वहां विदुर को ना पा उनके बारे में पूछने पर कुंती ने उनके अन्न-जल-वस्त्र त्यागने की बात बताई और बताया कि जब तक प्राण हैं, वह सिर्फ वायु पर ही निर्भर है। इतना सुनते ही युधिष्ठिर अरण्य में उनको खोजने के लिए पैठ गए ! काफी देर बाद उन्होंने विदुर को एक वृक्ष से टेक लगाए खड़े पाया। उनका शरीर अस्थिपिंजर रह गया था, रंग काला, आँखें कोटर में धंसी हुई, विवस्त्र, भावहीन ! युधिष्ठिर के उनके पास पहुंचते ही किसी शिरा में अटकी सांस निकल कर युधिष्ठिर में समा गई। इस बात की सुन वेदव्यास जी ने बताया कि विदुर धर्मराज के अवतार थे और युधिष्ठिर भी धर्मराज के अंश हैं, इसीलिए विदुर जी के प्राण युधिष्ठिर में समा गए। 
वनवासी विदुर 

संन्यासाश्रम के दो साल व्यतीत हो चुके थे। एक दिन धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती और संजय गंगा स्नान और पूजा ध्यान कर अपनी कुटियों की ओर लौट रहे थे कि अचानक एक भयंकर तूफ़ान ने पूरे अरण्य को घेर लिया ! क्रुद्ध हवाओं ने सारे जंगल को तहस-नहस कर रख दिया। छोटे-मोटे पेड़-पौधे, लता-गुल्म सब भू-लुंठित हो गए ! बड़े, विशाल वृक्षों के अस्तित्व पर भी बन आई ! दिन में ही अंधियारी छा गयी। सुनना-दिखना सब बाधित हो गया ! इतने में वृक्षों की आपसी रगड़ से आग उत्पन्न हो गयी, जिसने पल भर में ही दावानल का भयंकर रूप ले लिया।धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती और संजय उस आग में बुरी तरह घिर गए। ऐसे में जब संजय ने तीनों को इस विपदा से निकालने की कोशिश की तो धृतराष्ट्र ने साफ़ मना कर दिया ! उन्होंने संजय से कहा कि अब समय आ गया है कि मैं अपने पापों से मुक्ति पा मोक्ष पाने का यत्न करूं ! वैसे भी अब मेरे जीने का कोई उद्देश्य नहीं बचा है ! जीवन के हर रंग देख चुका हूँ ! थक गया हूँ ! अब मैं यहीं अग्नि समाधि ले लेना चाहता हूँ। इसलिए हे संजय ! तुम हमारी चिंता ना करो; यही हमारा प्रारब्ध है ! तुम्हें मेरा आदेश है कि तुम इस दावानल से अपनी रक्षा करो। इस तरह जबरदस्ती संजय को भेज तीनों ने अग्नि स्नान कर खुद को पंचतत्व में विलीन कर लिया। संजय ने किसी तरह वन के बाहर आ ऋषियों को धृतराष्ट्र के बारे में बता, हिमालय जा एक संन्यासी की तरह अपना बाकी जीवन व्यतीत किया। क्या उस युग के इस भयानक तीसरे अग्नि-तांडव में खुद को होम होते देख धृतराष्ट्र को उन पहली दो, लाक्षागृह और खांडव वन में घटे अग्निकांडों की याद आई होगी ! जिनके घटने में किसी ना किसी तरह उसकी भी भागीदारी रही थी ! 
अग्निस्नान 
एक लंबे समय के बाद इस दुर्घटना की खबर हस्तिनापुर पहुंची। भाइयों समेत युधिष्ठिर ने वन में जा जिस जगह अग्निकांड हुआ था, अंदाजतन वहां से अपने परिजनों की अस्थियां ला, सारे संस्कार, दान-पुण्य, श्राद्ध कर्म पूरे कर उन्हें गंगा में प्रवाहित कर दिया ! परंतु क्या धृतराष्ट्र जैसे पात्र के अवशेषों का उचित संस्कार हो भी पाया होगा ! क्योंकि उस दिन के भीषण दावानल में और भी बहुतेरे पशु-पक्षी-वनवासी प्राणियों की मृत्यु हुई होगी ! फिर अग्निकांड और अस्थि चयन के बीच समय का लम्बा अंतराल भी तो रहा था। अब यह तो प्रभु ही जानते होंगे कि उस दिन किस-किस की अस्थियों का संस्कार हुआ था.......!  

7 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

वर्तमान परिपेक्ष्य में सुन्दर कथानक।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

मीना जी
सम्मिलित करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी
स्नेह बना रहे

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

व्यक्ति स्वयं अपने कर्मों का उत्तरदायी है -जो हुआ होगा नियति का न्याय ही. कहलाएगा

Kamini Sinha ने कहा…

पुराणों में कहा गया हैं " कर्मफल भुगतने ही पड़ते हैं " धृतराष्ट्र,समेत सबने अपने कर्मफल भुगते मगर प्रश्न ये हैं कि -आज भी क्या कोई सचेत हुआ हैं ,शिक्षाप्रद आलेख ,सादर नमन

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

प्रतिभा जी,
सारे कर्मों का लेखा-जोखा भी यहीं हो जाता है !
''कुछ अलग सा'' पर आपका सदा स्वागत है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कामिनी जी,
माया की पट्टी सदा आँखों पर बंधी ही रहती है। वेदव्यास जी ने भी शायद इसीलिए संकेत स्वरुप गांधारी जैसी विदुषी की आँखों पर पट्टी बाँध दी थी !

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