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गुरुवार, 12 अगस्त 2021

नाग पंचमी, आभार क्षेत्रपाल का

नाग, दुनिया का शायद सबसे ज्यादा रहस्यमय जीव ! पौराणिक कथाओं में नागों का निवास धरती के नीचे, सोने और रत्नों से बने, भोगवती नामक क्षेत्र को माना जाता है ! जहां सुख-समृद्धि व  खुशहाली का सदा वास रहता है। मान्यता है कि इसका प्रवेश मार्ग दीमक की बांबियों से हो कर गुजरता है। शायद इसीलिए यह आम धारणा बन गई है कि जहां सांप का निवास होता है, वहां भूमिगत खजाना भी होता है। जिसकी रक्षा के लिए वहां सर्प तैनात रहते हैं .................!

#हिन्दी-ब्लागिंग       

हमारे ऋषि-मुनियों ने जब समस्त जगत को एक कुटुंब माना तो उनकी सोच में सिर्फ मानव जाति ही नहीं थी, उन्होंने पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति यानी समस्त चराचर के साथ आत्मीय संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया था। प्रकृति की छोटी-बड़ी हर चीज का रक्षण, संरक्षण और संवर्धन ही उनका ध्येय था। क्योंकि उनका मानना था कि संसार में कोई भी चीज अकारण या महत्वहीन नहीं होती ! इसीलिए उनके द्वारा पेड़-पौधों के साथ-साथ जीव-जंतुओं के सम्मान और पूजा-अर्चना का विधान भी बनाया गया था। जीव-जंतुओं को धर्म और भगवान के साथ जोड़ा गया, जिससे मानव के मन में उनके लिए भी दया भाव बना रहे ! फिर वह चाहे अदना सा चूहा हो, विशालकाय हाथी हो, हिंस्र शेर हो या जहरीला नाग ही क्यों ना हो !

नाग की बात करें तो यूरोपियन कथाओं में उसे शैतान का नकारात्मक रूप दिया गया है ! जो अपने पपड़ीदार शरीर के साथ जमीन पर रेंगता है ! वहीं कृषिप्रधान हमारे देश के ग्रंथों में उसे कृषिरक्षक का महत्वपूर्ण सम्मान प्रदान कर क्षेत्रपाल और ज्ञान के साथ जोड़ा गया है ! क्योंकि जीव-जंतुओं से फसल की रक्षा कर वह हमारे खेत को हराभरा रखता है, जिससे हमें धन-धान्य की कमी नहीं होती ! इसीलिए उसके धन्यवाद स्वरुप सावन की शुक्लपक्ष की पंचमी को नागपंचमी के रूप में मनाया जाता है। वैसे भी सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित है। इस मास में मनाए जाने वाले महत्वपूर्ण त्योहारों में नाग पंचमी भी शामिल है। एक ऐसा त्योहार जो भगवान शिव और नाग देवता दोनों का सम्मान करता है। शिवजी को नाग है भी बहुत प्रिय ! ऐसा माना जाता है कि नाग पंचमी को मनाने से शिवजी का आशीर्वाद मिलता है, जिससे सारे पापों से छुटकारा मिल जाता है। ऐसे में नाग हमारी संस्कृति का हिस्सा बन पूजनीय हो गए ! उन्हीं के पूजन का दिन होता है नागपंचमी !
वैसे तो हमारे यहां सर्पों की बहुत सी प्रजातियां पाई जाती हैं पर इनमें सबसे श्रेष्ठ नागों को माना जाता है ! ऋषि कश्यप की कद्रू नामक पत्नी से नागवंशकी उत्पत्ति हुई. जिसे नागों का प्रमुख अष्टकुल कहा जाता है।  नाग और सर्प में फर्क होता है। सभी नाग कद्रू के पुत्र थे जबकि सर्प ऋषि कश्यप की दूसरी पत्नी क्रोधवशा की संतानें हैं। इस दिन नाग की पूजा की जाती है। इनके बारे में अनगिनत प्रचलित कथाओं में से एक में वर्णन है कि एक बार मातृ श्राप के कारण नागलोक जलने लगा था। तब इस दाहपीड़ा की निवृत्ति के लिए दूध से स्नान करवा कर नागों की जलन शांत की गई थी ! उस दिन पंचमी तिथि थी ! इसीलिए यह दिन नागों को बहुत प्रिय है और इस दिन पूजन करने से भक्तों को सर्पभय से मुक्ति भी मिलती है !
पूजन 
पता नहीं कब और कैसे सांप को दूध पिलाने की भ्रामक धारणा लोगों के दिमाग में घर कर गई, जिसे हमारी बेतुकी फिल्मों ने भी बहुत सहारा दिया ! जबकि शास्त्रों में दूध पिलाने की नहीं बल्कि दूध से स्नान करवाने की बात कही गई है ! जबरदस्ती का दुग्धपान इस जीव के लिए हानिकारक होता है। जितनी कथाएं, कहानियां, किंवदंतियां, मान्यताएं इससे जुडी हुई हैं, दुनिया में शायद ही ऐसा कोई और जीव हो, जो इतनी रहस्यमयता का आवरण लपेटे हुए भी पूजनीय हो !    

नागों का हमारी कथा-कहानियों से बहुत पुराना नाता है। अनगिनत कहानियों में इनका वर्णन है ! समुद्र-मंथन में वासुकि नाग का महत्वपूर्ण योगदान ! विष्णु जी की शेषशैय्या ! शिवजी के गले में कंठहार ! रामायण में युद्ध के समय नागपाश ! श्री कृष्ण जी द्वारा कालिया मर्दन ! रामायण तथा महाभारत में शेषनाग जी का लक्ष्मण व बलदेव के रूप में अवतार ! वहीं महाभारत में खांडव वन की घटना, जिसने काल और इतिहास दोनों को बदल कर रख दिया ! उस घटना के बाद नागों ने पांडवों को कभी माफ़ नहीं किया और इसी के कारण वर्षों बाद अर्जुन के पोते, परीक्षित की जान गई ! खांडव वन के विनाश के पश्चात ही नाग, देश के उत्तरी भाग को छोड़ दक्षिणी हिस्से में चले गए थे। इसीलिए आज भी दक्षिणी भारत में नाग मंदिरों की बहुतायद है। 

मनसा देवी 
पौराणिक कथाओं में नागों का निवास धरती के नीचे सोने और रत्नों से बने भोगवती नामक क्षेत्र को माना जाता है ! जहां सुख-समृद्धि व खुशहाली का सदा वास रहता है। मान्यता है कि इसका प्रवेश मार्ग दीमक की बांबियों से हो कर गुजरता है। शायद इसीलिए यह आम धारणा बन गई है कि जहां सांप का निवास होता है, वहां भूमिगत खजाना भी होता है। जिसकी रक्षा के लिए वहां सर्प तैनात रहते हैं ! वासुकी को नागों का राजा माना जाता है ! ऐसी मान्यता है कि इनकी एक मनसा नामक बहन है, जिसकी सर्पदंश से सुरक्षित रहने के लिए बंगाल सहित देश  के कई पूर्वोत्तर भागों में पूजा की जाती है।   

सोमवार, 22 जून 2020

दुर्वासा ऋषि का क्रोध बना था समुद्र मंथन का कारण

यह अपने समय का, या यूं कहें कि सर्वकालीन एक अकल्पनीय व अभूतपूर्व उपक्रम था ! कोई सोच सकता था भला कि दुर्वासा के एक श्राप से सारे जगत में कैसी उथल-पुथल मच जाएगी। शिव को विष पान करना पड़ जाएगा ! देवता अमर हो जाएंगे ! सूर्य-चंद्र ग्रहण होने लगेंगे ! अयप्पा का जन्म होगा ! राक्षसी महिषि का असंभव सा वध भी संभव हो पाएगा ! धरा तरह-तरह की नेमतों से अलंकृत हो जाएगी ! कुंभ जैसे वृहद एवं चिरस्थाई उत्सवों का आयोजन होने लगेगा ! इत्यादि....इत्यादि....इत्यादि....!
   
#हिन्दी_ब्लागिंग 
संसार में घटने वाली बड़ी घटनाओं या वाकयात के पीछे महीनों पहले निर्मित हुई परिस्थितियों या कारणों का हाथ जरूर होता है। कभी-कभी तो ये इतने मामूली होते हैं कि कोई सोच भी नहीं सकता कि इनके कारण भविष्य में सारे जगत को प्रभावित करने वाली कोई घटना भी घट सकती है। फिर चाहे दुर्वासा का क्रोध हो जो देवासुर संग्राम का जरिया बन गया ! चाहे मंथरा की जिद जिसने राम-रावण युद्ध की भूमिका रच डाली ! द्रौपदी की एक हंसी ने सारे आर्यावर्त को रुदन के सागर में डुबो दिया ! आर्चड्यूक फ़र्डिनेंड की हत्या प्रथम विश्वयुद्ध का कारण बन गई या फिर विश्व की 1929-30 की आर्थिक मंदी ने द्वितीय महायुद्ध का आह्वान कर डाला हो ! कौन सोच सकता था कि ऐसी बातों से भी सारा संसार आपस में एक-दूसरे के खून का प्यासा हो जाएगा ! पौराणिक काल में भी एक ऐसी ही छोटी सी बात आज तक की सबसे विस्मयकारी, अद्भुत, अकल्पनीय घटना, समुद्र मंथन का कारण बन गई थी।  
यह उस समय की बात है जब अभी पृथ्वी का विकास और निर्माण पूरा नहीं हुआ था। सिर्फ सुमेरु पर्वत के आस-पास का इलाका ही रहने योग्य हो सका था बाकी चारों ओर सब जगह पानी ही पानी था। उसको रहने लायक और मानव योग्य बनाने का उपक्रम चल रहा था। इसलिए अभी देवता, अपने दायाद बंधु, असुरों के साथ ही धरती पर रहते थे। परन्तु यह काम उनके अकेले के वश का नहीं था। इस विशाल, महान, श्रमसाध्य कार्य के लिए कई दैवीय शक्तियों और उपकरणों की आवश्यकता थी। दैवीय उपकरण सागर मंथन से ही उपलब्ध हो सकते थे और इसके लिए यह जरुरी था कि दैत्य-दानव जैसी आसुरी शक्तियों का भी सहयोग लिया जाए। पर सुर और असुर एक दूसरे के जानी दुश्मन थे ! इस समस्या को सुलझाने के लिए त्रिदेवों ने काफी सोच विचार कर एक योजना बनाई और असुरों को साथ लाने का कारण गढ़ा गया। 
एक बार दुर्वासा ऋषि को, विश्राम के दौरान, उनके आश्रम में कुछ विद्याधरों ने दिव्य संतानक पुष्पों की माला अर्पित की। माला की सुगंध दूर-दूर तक फैल रही थी। उसी समय उधर से गुजरते हुए, अपने हाथी पर आरूढ़ इंद्र ने ऋषि को प्रणाम किया। दुर्वासा ने खुश हो कर वह माला इंद्र को दे दी। पर इंद्र ने उपेक्षा पूर्वक उसे हाथी के गले में डाल दिया। पुष्पों की तेज गंध से गजराज ने परेशान माला को तोड़ अपने पैरों से कुचल डाला। अपने उपहार का तिरस्कार होता देख दुर्वासा अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने इंद्र को श्राप देते हुए कहा कि, ''हे इंद्र ! जिस वैभव का तुम्हें इतना अभिमान है वह ख़त्म हो जाएगा और उसके साथ ही तुम भी श्री हीन हो जाओगे !'' इंद्र की किसी भी अनुनय-विनय का ऋषि पर कोई असर नहीं हुआ। श्राप के कारण इंद्र निस्तेज हो गया ! उसके साथ ही अमरावती और देवों की शक्तियों का भी ह्रास हो गया। इस बात की खबर मिलते ही असुरों ने अपने शक्तिशाली राजा बलि के नेतृत्व में स्वर्ग लोक पर आक्रमण कर उसे वहां से निष्काषित कर दिया। इंद्र सहित सारे देवता विष्णु जी के पास गए और उनसे अपनी विपदा कही। तब विष्णु ने उन्हें दानवों की मदद से समुद्र मंथन करने की सलाह दी। दानवों को मनाने के लिए उन्हें अमृत का लालच देने की सलाह भी दी। अमरत्व की लालसा में असुर राजी हो गए।
क्षीरसागर, जो आज हिंद महासागर कहलाता है, को मंथन के लिए चुना गया ! मदरांचल पर्वत को, जो आज के बिहार के बांका जिले में स्थित है, मथानी  का रूप तो दे दिया गया पर अथाह सागर में उसको टिकाना सबसे बड़ी समस्या बन गई ! तब फिर विष्णु जी ने देवताओं की सहायता के खातिर कच्छप का रूप ले सागर के बीचोबीच अपने को स्थिर कर मदरांचल को अपनी पीठ पर टिका लिया। नेती के रूप में वासुकि नाग की सहायता ली गई। उसके घोर कष्ट को देखते हुए उसे गहन निद्रा का वरदान दिया गया। फिर भी विष्णु जानते थे कि मंथन के दौरान रगड़ से वासुकि को अपार कष्ट होगा जिससे उसकी जहरीली फुफकार निकलेगी उससे देवताओं की रक्षा जरुरी होगी। इसलिए उन्होंने इंद्र से कहा कि मंथन के पहले तुम सब आगे बढ़ कर वासुकि के मुंह को थाम लेना और असुरों से कहना कि हम तुमसे श्रेष्ठ हैं, इसलिए हम मुंह की ओर रहेंगे। इंद्र ने जब ऐसा किया तो असुर भड़क गए और बोले, अरे इंद्र ! तुझे अभी भी लाज नहीं आती जो हमसे हारने के बाद भी अपने आप को श्रेष्ठ समझता है ! तुम सब अधम हो और अधम ही रहोगे। इसलिए पूंछ वाला हिस्सा ही तुम्हारा उचित स्थान है। देवता तो चाहते ही यही  थे, वे बिना ना-नुकुर किए दूसरी तरफ चले गए। जैसा कि विष्णु जी ने सोचा था वैसा ही हुआ कुछ ही देर में वासुकि की फुफकार से असुरों पर कहर टूट पड़ा। फिर जैसे-तैसे मंथन पूरा हुआ। देवताओं की कुटिलता से असुर फिर मात खा गए ! फिर जो कुछ भी हुआ वह जग तो जाहिर है ही। 

यह अपने समय का एक अकल्पनीय उपक्रम था ! कोई सोच सकता था भला कि दुर्वासा के एक श्राप से सारे जगत में कैसी उथल-पुथल मच जाएगी। शिव को विष पान करना पड़ जाएगा ! देवता अमर हो जाएंगे ! सूर्य-चंद्र ग्रहण होने लगेंगे ! अयप्पा का जन्म होगा ! राक्षसी महिषि का वध संभव हो पाएगा ! इत्यादी...इत्यादी...इत्यादि.......!

@चित्र अंतर्जाल से, साभार 

शुक्रवार, 5 जून 2020

पाताल भुवनेश्वर, मान्यता है कि यहां गणेश जी का असली सिर स्थापित है

बातचीत के दौरान ही उन्होंने अचानक पूछ लिया, ''भैया, क्या आपको इस बारे में कोई जानकारी है कि गणेश जी के जिस सिर को काट कर शिशु हाथी का सिर लगाया गया था; फिर उस असली सिर का क्या हुआ ?'' 
प्रश्न अप्रत्याशित था ! ना हीं कभी इस बारे में कभी मेरे कुछ पढ़ने या सुनने में आया था ! मैंने कहा, ''हो सकता है कि उसका अग्निदाह कर दिया गया हो ! वैसे मुझे इस बारे में कोई भी जानकारी नहीं है !''

#हिन्दी_ब्लागिंग 
लॉकडाउन के इस कालखंड में दूरभाष ही एकमात्र मेल-जोल का साधन बचा रह गया है। इसी माध्यम पर कुछेक दिन पहले मित्र ठाकुर जी ने सम्पर्क किया। बातचीत के दौरान ही उन्होंने अचानक पूछ लिया, ''भैया, क्या आपको इस बारे में कोई जानकारी है कि गणेश जी के जिस सिर को काट कर हाथी का सिर लगाया गया था; फिर उस असली सिर का क्या हुआ ?'' 
प्रश्न अप्रत्याशित था ! ना हीं कभी इस बारे में मेरे कभी कुछ पढ़ने या सुनने में आया था ! मैंने कहा, ''हो सकता है कि उसका अग्निदाह कर दिया गया हो ! वैसे मुझे इस बारे में कोई भी जानकारी नहीं है !''

मेरे इंकार करने पर ठाकुर जी ने बताया कि पता चला है कि उत्तराखंड में पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट से 14 किलोमीटर दूर भुवनेश्वर नामक गांव में एक गुफा है, जिसे पाताल भुवनेश्वर के नाम से जाना जाता है। मान्‍यता है कि इस गुफा में गणेश जी का असली सिर भगवान शिव द्वारा स्थापित किया गया था ! आप इस बारे में विस्तृत जानकारी का कुछ पता कीजिए। 
हमारे ग्रंथों में पौराणिक काल की असंख्य कथाएं, उपकथाएं ऐसे हमारे मानस में रच-बस गयी हैं कि हम सब धर्मभीरुता के तहत सब पर आँख मूँद कर विश्वास कर लेते हैं। यह बात तकरीबन हर धर्म में लागू होती है। इन सब का चतुरों द्वारा फ़ायदा भी उठाया जाता रहा है। खैर ! वह एक अलग विषय है। ठाकुर जी से इस नई बात का पता चलते ही लॉकडाउन में कुछ सुस्त पड़ा ब्लॉगर जागा और चल दिया गुगलिया सागर को खंगालने ! जिससे कुछ ऐसा संज्ञान मिला -
कथा कुछ इस प्रकार है कि जब शिव जी द्वारा उद्दंड बालक का सिरच्छेद कर उस पर शिशु हाथी का मस्तक आरोपित कर दिया गया तब यह सवाल उठा कि उस कटे हुए सिर का क्या किया जाए ! वहां सभी उपस्थित लोगों का मत था कि उसका ससम्मान अग्निदाह कर दिया जाना चाहिए। परन्तु माँ गौरी ममतावश इस राय से सहमत नहीं थीं ! बालक का शरीर तो पुनर्जीवित हो चुका था ! समस्त देवी-देवताओं की सहमति से उसे गणपति बना, प्रथम पूजित होने का सम्मान भी प्रदान कर दिया गया था ! पर माँ का ह्रदय किसी प्रकार की तसल्ली से भी शांत नहीं हो पा रहा था। तब भोलेनाथ ने उनकी ममता को सर्वोपरि मान, शरीर की भाँति मस्तक को भी आदरांजलि देते हुए, उसमें जीवनी शक्ति प्रतिरोपित कर उसे एक गुफा में स्थापित कर उसे आदि गणेश नाम दिया और अंबे को आश्वासन दिया कि उसकी देख-भाल-रक्षा वे सदा खुद तो करेंगे ही, बाकी देवी-देवता भी पूजा-अर्चन के लिए वहां आते रहेंगे। ऐसा विवरण स्कंदपुराण में मिलता है। इस गुफा को पाताल भुवनेश्वर के नाम से जाना जाता है। 
ऐसी मान्यता है कि सबसे पहले इस गुफा का पता त्रेता युग में सूर्य वंश के अयोध्यापति राजा ऋतुपर्ण के द्वारा लगाया गया था। कलयुग में जगत गुरु आदिशंकराचार्य ने 722 ई. के आसपास इस गुफा की खोज की और यहां तांबे के शिवलिंग की विधिवत स्थापना की। वैसे यह कोई एक गुफा नहीं है ! गुफा के अंदर गुफा और उसके अंदर फिर गुफा; जैसे गुफाओं का जाल बिछा हो। कोई भी दर्शनार्थी बहुत अंदर तक नहीं जा सकता। फिसलन होने से गिरने का डर, उमस और आक्सीजन की कमी कुछ भी अघटित घटा सकती है। वैज्ञानिकों के अनुसार यह जगह अभी भी निर्माण के दौर में है। 
पाताल भुवनेश्वर चूना पत्थर से बनी प्राकृतिक गुफा है। जिसमें चूने और पानी के मिलन से विविधरूपा आकृतियां बन गई हैं। धार्मिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से भी कई महत्वपूर्ण प्राकृतिक कलाकृतियों के दर्शन होते हैं। यह गुफा भूमि से 90 फ़ीट की गहराई में लगभग 160 वर्ग मीटर क्षेत्र में फैली हुई है। इसकी दीवारों से पानी रिसने के कारण रास्ता काफी रपटीला है, इसलिए अंदर जाने के लिए लोहे की जंजीरों का सहारा लेना पड़ता है। इस गुफा की सबसे खास बात तो यह है कि यहां एक ऐसा शिवलिंग है जो लगातार बढ़ रहा है। वर्तमान में शिवलिंग की ऊंचाई 1.5 फिट की है और ऐसी मान्यता है कि जब यह शिवलिंग गुफा की छत को छू लेगा, तब दुनिया खत्म हो जाएगी। गुफा के अंदर कई कलाकृतियों के साथ ही एक हवनकुंड भी बना हुआ है; जिसके बारे में कहा जाता है कि इसी हवनकुंड में राजा जनमेजय ने सर्पों का नाश करने के लिए नाग यज्ञ किया था। पुराणों के मुताबिक पाताल भुवनेश्वर दुनिया भर में एकमात्र ऐसा स्थान है, जहां एकसाथ चारों धाम के दर्शन का पुण्य प्राप्त हो जाता है। यह पवित्र व रहस्यमयी गुफा अपने आप में सदियों का इतिहास समेटे हुए है।

@अंतर्जाल का हार्दिक आभार 

गुरुवार, 14 मई 2020

क्या अग्नि भी मोक्ष दिला पाई, धृतराष्ट्र को

एक लंबे समय के बाद इस दुर्घटना की खबर हस्तिनापुर पहुंची। भाइयों समेत युधिष्ठिर वन में जा जिस जगह अग्निकांड हुआ था, अन्दाजतन वहां से अपने परिजनों की अस्थियां ला, सारे संस्कार, दान-पुण्य, श्राद्ध कर्म पूरे कर उन्हें गंगा में प्रवाहित कर देते हैं। परंतु धृतराष्ट्र जैसे पात्र के अवशेषों का उचित संस्कार हो भी पाया होगा ! उस दिन के भीषण दावानल में और भी बहुतेरे पशु-पक्षी-वनवासी प्राणियों की मृत्यु हुई होगी ! फिर अग्निकांड और अस्थि चयन के बीच समय का लम्बा अंतराल भी तो रहा था। अब यह तो प्रभु ही जानते होंगे कि उस दिन किस-किस की अस्थियों का संस्कार हुआ होगा ! क्या उस युग के इस भयानक तीसरे अग्नि-तांडव में खुद को होम होते देख धृतराष्ट्र को उन पहली दो, लाक्षागृह और खांडव वन में घटे अग्निकांडों की याद आई होगी ! जिनके घटने में किसी ना किसी तरह उसकी भी भागीदारी रही थी.............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
दोपहर से उठा झंझावात थमने का नाम ही नहीं ले रहा था ! भरी दोपहरी में भी घना अंधेरा छा गया था। चीत्कार करती हुई हवाएं अपनी प्रचंड गति से सब कुछ तहस-नहस करने पर उतारू थीं ! आकाशीय मेघों की विद्युत जिव्हाएं लपक-लपक कर धरा तक पहुंचने को आतुर हो रही थीं !छोटे-मोटे पादप तो कब के धराशाई हो चुके थे। विशाल घने वृक्ष प्रेतोंकी तरह झूम-झूम कर एक दूसरे से टकरा रहे थे ! जैसे खुद ही एक-दूसरे को उखाड़ फेंकने पर उतारू हों ! पशु-पक्षी डर से लरजते अपनी जान को बचाते कहीं ना कहीं दुबके पड़े थे। ऐसे में चार मानव आकृतियां, दो पुरुष तथा दो महिलाएं, सघन अरण्य में बनी अपनी कुटियों की तरफ बढ़ने की जद्दोजहद में लगीं हुई थीं। ऐसा लग रहा था जैसे एक पुरुष और एक महिला दृष्टिहीन हों, क्योंकि उन्हें दूसरा पुरुष और महिला सहारा देकर आगे बढ़ाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे। इतने में ही एक कान को बहरा कर देने वाले जोरदार धमाके के साथ पास में ही आकाशीय बिजली गिरी और पेड़ों में आग लग गयी ! हवा का दामन थाम आग ने पल भर में ही दावानल का रूप ले लिया ! सारा जंगल धू-धू कर अग्नि के हवाले हो गया ! हर चीज जल कर राख होती चली गई। हर चीज....!    
दावानल 
युद्धोपरांत महात्मा विदुर ने धृतराष्ट्र को सब कुछ त्याग संन्यासश्रम अपनाने की सलाह दी थी। जिसमें वह खुद गांधारी और कुंती भी साथ चलने को तैयार थे। यदि उस समय धृतराष्ट्र ने अपने अनुज की बात मान ली होती तो संभवतया उनका कुछ गौरव तो जरूर बना रहता ! परंतु उनकी राजसुख की लालसा ने द्रौपदी के निवेदन और कुछ युधिष्ठिर की प्रार्थना को आड़ बना वनगमन को टाल, अपने पुत्रों के हत्यारों और चिर-दुश्मनों के आश्रित के रूप में रहना स्वीकार कर लिया। समय के साथ-साथ उनका और गांधारी का पुत्र शोक कम होता गया और वे दोनों ही पाण्डुपुत्रों से पुत्रवत व्यवहार करने लगे। युधिष्ठिर उनकी सुख-सुविधा का पल-पल ख्याल रखते थे ! सभी को यह कठोर हिदायत थी कि धृतराष्ट्र और गांधारी को लेश मात्र भी कष्ट या असुविधा न हो। युधिष्ठिर राज-काज में भी उनकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते थे। एक तरह से उन्हें युद्ध पूर्व जैसा ही सम्मान और माहौल प्रदान करने की चेष्टा रहती थी। पर भीम के मन में  दोनों को देखते ही दुर्भावना आ जाती थी, और वह उसका प्रदर्शन करने, अपमान सूचक कटाक्ष करने तथा अपशब्द कहने से कभी भी चूकता ना था। समय के साथ कम होने की बजाय भीम के मन में धृतराष्ट्र के प्रति और धृतराष्ट्र के मन में भीम के प्रति दुर्भाव बढ़ता ही चला गया। उन दोनों को एक-दूसरे की बात काँटों की तरह चुभने लगी। इसी तरह पंद्रह वर्ष बीत गए। जब अति हो गई और सहना मुश्किल हो गया तो धृतराष्ट्र ने वनवास जाने का निर्णय कर ही लिया।      
हर तरह की मान-मनौवल, विनती, रुदन, समझाइश के बावजूद धृतराष्ट्र इस बार अपनी बात पर अटल रहे। अंत में हार कर सबने उनकी बात मान ली। वनागमन के लिए गांधारी, कुंती, विदुर तथा संजय भी साथ हो लिए। नगर छोड़ने के पश्चात इन्होंने कुरुक्षेत्र के पास वन में रहने का निश्चय किया। ये सारे लोग अति वृद्ध थे सो युधिष्ठिर को उनकी सदा चिंता बनी रहती थी, सो बीच-बीच में वे उनकी खोज-खबर लेते रहते थे। धीरे-धीरे दो वर्ष बीतने को आए। ऐसे में युधिष्ठिर खुद एक बार सबकी खोज-खबर लेने गए तो वहां विदुर को ना पा उनके बारे में पूछने पर कुंती ने उनके अन्न-जल-वस्त्र त्यागने की बात बताई और बताया कि जब तक प्राण हैं, वह सिर्फ वायु पर ही निर्भर है। इतना सुनते ही युधिष्ठिर अरण्य में उनको खोजने के लिए पैठ गए ! काफी देर बाद उन्होंने विदुर को एक वृक्ष से टेक लगाए खड़े पाया। उनका शरीर अस्थिपिंजर रह गया था, रंग काला, आँखें कोटर में धंसी हुई, विवस्त्र, भावहीन ! युधिष्ठिर के उनके पास पहुंचते ही किसी शिरा में अटकी सांस निकल कर युधिष्ठिर में समा गई। इस बात की सुन वेदव्यास जी ने बताया कि विदुर धर्मराज के अवतार थे और युधिष्ठिर भी धर्मराज के अंश हैं, इसीलिए विदुर जी के प्राण युधिष्ठिर में समा गए। 
वनवासी विदुर 

संन्यासाश्रम के दो साल व्यतीत हो चुके थे। एक दिन धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती और संजय गंगा स्नान और पूजा ध्यान कर अपनी कुटियों की ओर लौट रहे थे कि अचानक एक भयंकर तूफ़ान ने पूरे अरण्य को घेर लिया ! क्रुद्ध हवाओं ने सारे जंगल को तहस-नहस कर रख दिया। छोटे-मोटे पेड़-पौधे, लता-गुल्म सब भू-लुंठित हो गए ! बड़े, विशाल वृक्षों के अस्तित्व पर भी बन आई ! दिन में ही अंधियारी छा गयी। सुनना-दिखना सब बाधित हो गया ! इतने में वृक्षों की आपसी रगड़ से आग उत्पन्न हो गयी, जिसने पल भर में ही दावानल का भयंकर रूप ले लिया।धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती और संजय उस आग में बुरी तरह घिर गए। ऐसे में जब संजय ने तीनों को इस विपदा से निकालने की कोशिश की तो धृतराष्ट्र ने साफ़ मना कर दिया ! उन्होंने संजय से कहा कि अब समय आ गया है कि मैं अपने पापों से मुक्ति पा मोक्ष पाने का यत्न करूं ! वैसे भी अब मेरे जीने का कोई उद्देश्य नहीं बचा है ! जीवन के हर रंग देख चुका हूँ ! थक गया हूँ ! अब मैं यहीं अग्नि समाधि ले लेना चाहता हूँ। इसलिए हे संजय ! तुम हमारी चिंता ना करो; यही हमारा प्रारब्ध है ! तुम्हें मेरा आदेश है कि तुम इस दावानल से अपनी रक्षा करो। इस तरह जबरदस्ती संजय को भेज तीनों ने अग्नि स्नान कर खुद को पंचतत्व में विलीन कर लिया। संजय ने किसी तरह वन के बाहर आ ऋषियों को धृतराष्ट्र के बारे में बता, हिमालय जा एक संन्यासी की तरह अपना बाकी जीवन व्यतीत किया। क्या उस युग के इस भयानक तीसरे अग्नि-तांडव में खुद को होम होते देख धृतराष्ट्र को उन पहली दो, लाक्षागृह और खांडव वन में घटे अग्निकांडों की याद आई होगी ! जिनके घटने में किसी ना किसी तरह उसकी भी भागीदारी रही थी ! 
अग्निस्नान 
एक लंबे समय के बाद इस दुर्घटना की खबर हस्तिनापुर पहुंची। भाइयों समेत युधिष्ठिर ने वन में जा जिस जगह अग्निकांड हुआ था, अंदाजतन वहां से अपने परिजनों की अस्थियां ला, सारे संस्कार, दान-पुण्य, श्राद्ध कर्म पूरे कर उन्हें गंगा में प्रवाहित कर दिया ! परंतु क्या धृतराष्ट्र जैसे पात्र के अवशेषों का उचित संस्कार हो भी पाया होगा ! क्योंकि उस दिन के भीषण दावानल में और भी बहुतेरे पशु-पक्षी-वनवासी प्राणियों की मृत्यु हुई होगी ! फिर अग्निकांड और अस्थि चयन के बीच समय का लम्बा अंतराल भी तो रहा था। अब यह तो प्रभु ही जानते होंगे कि उस दिन किस-किस की अस्थियों का संस्कार हुआ था.......!  

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

महाभारत युद्ध के दौरान भोजन व्यवस्था संभाली थी उडुपी नरेश ने

युद्धोपरांत उडुपी नरेश को श्री कृष्ण जी ने गले लगा आशीर्वाद दिया कि जिस तरह तुमने 18 दिनों तक, बिना किसी लाभ की कामना के, अथक परिश्रम कर लाखों लोगों की क्षुधा शांत कर मानव जाति की सहायता की है, उसी तरह तुम्हारे वंशज  आदि काल तक लोगों को भोजन प्राप्त करवाते रहेंगे और उसके लिए तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को सदा आदर-सम्मान और यश मिलता रहेगा ! यही कारण है कि हजारों वर्षों के पश्चात आज भी पूरे देश में भोजन के क्षेत्र में उडुपी के नाम को श्रेष्ठ, विश्वसनीय और  सर्वोपरि माना जाता है.....................!

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हमारी पौराणिक कथाओं-कहानियों का असर अत्यंत प्रेरक और व्यापक होता है ! उसके मुख्य किरदार और कथावस्तु इतने प्रभावोत्पक होते हैं कि उसमें खोया हुआ या लीन श्रोता या पाठक विषयवस्तु से अलग कुछ सोच ही नहीं पाता। इससे दसियों ऐसी महत्वपूर्ण बातें अनदेखी रह जाती हैं, जिनका वर्णन कथा में किसी कारणवश नहीं हो पाया होता है। ऐसी ही एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात महाभारत से है !  

ज्ञातव्य है कि महाभारत युद्ध में दोनों पक्षों की सेनाओं की संख्या 18 अक्षौहिणी थी। भारतीय गणना के अनुसार प्राचीन भारत में सेना की सबसे बड़ी इकाई ! जिसके अनुसार एक अक्षौहिणि की इकाई में 21870 रथ जिनमें चार घोड़े, सारथि व रथी होता था ! इसमें हाथियों की संख्या 21870 निर्धारित थी, एक हाथी पर महावत, उसका सहायक, योद्धा व उसके दो सहायक यानि पांच लोग होते थे ! 65610 घुड़सवारों के अलावा 109350 पैदल सैनिकों का दस्ता होता था। इस प्रकार एकअक्षौहिणी सेना में समस्त जीवधारियों की संख्या 634243 के करीब बैठती है। इस हिसाब से महाभारत में सम्मिलित होने वालों की संख्या 11416374 तक जा पहुंचती है जिसमें मनुष्यों की संख्या 55 से 56 लाख होती है। 

बहुत से लोगों की इस संख्या पर भृकुटि तनना स्वाभाविक है पर उनके लिए प्राचीन इतिहास में यूनानी राजदूत मेगस्थनीज की भारत यात्रा में वर्णित सम्राट चन्द्रगुप्त की सेना के वर्णन को जान लेना चाहिए। जिसमें 30000 रथों, 9000 हाथियों और 600000 पैदल सैनिकों का उल्लेख किया गया है जो भारत के सिर्फ एक राज्य की सेना की संख्या है। समस्त भारत के राज्यों की सेना का हिसाब लगाया जाए तो एक विशाल आकार सामने आ जाता है। इसलिए महाभारत में एकत्रित हुई उतनी विशाल सेना का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं लगती, जिसमें सम्पूर्ण भारत के अलावा अनेक दूसरे देशों के राजाओं ने भी भाग लिया था ! 

पर इसके साथ ही एक जिज्ञासा यह उठती है, जिसका जिक्र आम नहीं मिलता कि सागर समान इतने लोगों के जमावड़े के भोजन की व्यवस्था कैसे होती होगी। सुबह युद्ध पर जाने के पहले और शाम को थके-हारे सैनिकों के आहार की व्यवस्था और मात्रा का आकलन कैसे और कौन करता होगा ! यह एक जटिल प्रश्न बन कर उभरता है। इसके लिए यदि महाभारत की उपकथाओं को खंगाला जाए तो एक किंवदंती सामने आती है, जिसमें उडुपी नरेश के नाम का उल्लेख मिलता है। उडुपी के कृष्ण मंदिर में इस कथा का सदा पाठ होता है। 

कथा के अनुसार उस समय शायद ही कोई ऐसा राज्य रहा होगा जिसने इस महायुद्ध में भाग ना लिया हो। उस समय भारतवर्ष  के समस्त राजा दोनों पक्षों में से किसी ना किसी के साथ खड़े दिखते थे। इसी के अनुसार जब  दूरदर्शी उडुपीराज अपनी सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुंचे तो उन्होंने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण से भेंट कर उनसे अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि प्रभु यहां सब युद्ध के लिए उतावले हैं, पर इन असंख्य लोगों के भोजन के प्रबंध के बारे में आपको छोड़ शायद ही किसी ने सोचा हो ! हे वासुदेव ! सत्य तो यह है कि मैं भाइयों के इस आपसी युद्ध को उचित नहीं समझता इसीलिए इस युद्ध में भाग लेने की मेरी इच्छा कतई नहीं है। पर यह युद्ध टाला भी नहीं जा सकता ! इसी कारण यदि आप अनुमति दें तो मैं चाहता हूँ कि अपनी पूरी सेना के सहयोग से यहां उपस्थित सभी के लिए मैं भोजन का प्रबंध करूं ! श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए सहर्ष उनकी बात मान सारी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। 

उडुपी नरेश की कुशलता के कारण, रोज सैकड़ों-हजारों सैनिकों की मृत्यु के बावजूद कभी भी अन्न का एक भी दाना बर्बाद नहीं होता था। उतना ही भोजन बनता था जितने की जरुरत होती थी ! इतनी विशाल सेना के भोजन का प्रबंध बिना अन्न की क्षति के बगैर घोर करना किसी चमत्कार से काम नहीं था ! सभी के लिए यह घोर आश्चर्य की बात थी। इसीलिए युद्धोपरांत अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए जब युधिष्ठिर ने इस रहस्य को जानना चाहा तो उडुपी नरेश ने श्रद्धापूर्वक इसका सारा श्रेय श्रीकृष्ण के प्रताप और उनके मार्गदर्शन को दिया जिसके बिना इतना बड़ा आयोजन कतई संभव नहीं था। ऐसा सुन कर वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्यचकित हो प्रभु के प्रति नतमस्तक हो गए।

युद्धोपरांत जब उडुपी नरेश वापस जाने के अनुमति लेने श्री कृष्ण जी के पास गए तो उन्होंने उन्हें गले लगा आशीर्वाद दिया कि जिस तरह तुमने 18 दिनों तक, बिना किसी लाभ की कामना के अथक परिश्रम कर, बिना शस्त्र उठाए युद्ध में अपना सहयोग दे, लाखों लोगों की क्षुधा शांत कर मानव जाति की सहायता है, उसी तरह तुम्हारे वंशज आदिकाल तक लोगों को भोजन प्राप्त करवाते रहेंगे और उसके लिए तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों को सदा आदर-सम्मान और यश मिलता रहेगा ! यही कारण है कि हजारों वर्षों के पश्चात आज भी पूरे देश में भोजन के क्षेत्र में उडुपी के नाम को श्रेष्ठ, विश्वसनीय और सर्वोपरि माना जाता है।

संदर्भ - महाभारत व अंतरजाल 

मंगलवार, 31 मार्च 2020

यहां सपत्नीक पूजे जाते हैं हनुमान

राम-रावण युद्ध के समय निर्णायक भूमिका निभाने वालीं, नौ अति दिव्य शक्तियों की प्राप्ति के लिए हनुमान जी ने सूर्य देव को अपना गुरु बनाया था। सूर्य देव ने भी भविष्य को देखते हुए अपने इस बेहद प्रतिभाशाली शिष्य को उन दिव्य नौ विद्याओं का ज्ञान देने का संकल्प कर लिया था । पर पांच विद्याएं देने के बाद उनके समक्ष एक संकट आ खड़ा हुआ ! क्योंकि शेष चार विद्याएं उसी पात्र को दी जा सकती थीं जो विवाहित हो ! क्योंकि उन दिव्य शक्तियों के तेज को वहन करना किसी अकेले के बस की बात नहीं थी ¡ पर हनुमान जी ठहरे बाल ब्रह्मचारी................!

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रामायण, निर्वादित रूप से देश का सबसे लोकप्रिय ग्रंथ ! जिसकी लोकप्रियता सागर लांघ विदेशों तक फ़ैल गयी ! जिसका अनेकों विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ ! संस्कृत में रचित वाल्मीकि रामायण के अलावा जिसको कई-कई विद्वानों ने अपनी भाषा में अपनी सोच और श्रद्धा के अनुसार लिखा ! इसी कारण समय-काल-परिवेश के अनुसार मुख्य कथा के साथ ना जाने कितनी उपकथाएं फिर उनकी उपकथाएं जुड़ती चली गयीं। यही कारण है कि हमें यदा-कदा मुख्य किरदारों से जुड़े कुछ अलग से आख्यान अपनी  निशानियों सहित देखने-पढ़ने को मिल जाते हैं।
रामायण में श्री राम के बाद सबसे लोकप्रिय, पूजनीय और आदरणीय पात्र हनुमान जी का है। उनके बारे में निर्विवाद धारणा यही है कि उन्होंने कभी विवाह नहीं किया। वे सदा ब्रह्मचारी ही रहे ! इसलिए उनकी पूजा भी इस बात को ध्यान में रखकर की जाती है।हालांकि राम-रावण युद्ध के दौरान एक जगह उनके पुत्र मकरध्वज का नाम आता जरूर है पर उनके विवाह का जिक्र नहीं मिलता। परंतु कुछ कथाओं में उनके विवाह का जिक्र मिलता है ! ऐसी ही एक जगह है खम्मम ! तेलंगाना में हैदराबाद से करीब सवा दो सौ की.मी. की दूरी पर स्थित इस जिले के एक प्राचीन मंदिर में हनुमान जी के साथ उनकी पत्नी सुवर्चला की प्रतिमा भी स्थापित है ! यहां भक्त पूरी श्रद्धा के साथ दोनों की पूजा करते हैं। 
पाराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह का जिक्र मिलता है ! जिसके अनुसार हनुमान जी ने नौ अति दिव्य विद्याओं की प्राप्ति के लिए सूर्य देव को अपना गुरु बनाया था। ये नौ विद्याएं आने वाले समय में राम-रावण युद्ध के समय निर्णायक भूमिका निभाने वालीं थीं।सूर्य देव ने भविष्य को देखते हुए अपने इस बेहद प्रतिभाशाली शिष्य को उन दिव्य नौ विद्याओं का ज्ञान देने का संकल्प कर लिया था। पर पांच विद्याएं देने के बाद उनके समक्ष एक संकट आ खड़ा हुआ ! क्योंकि शेष चार विद्याएं उसी पात्र को दी जा सकती थीं जो विवाहित हो ! क्योंकि उन दिव्य विद्याओं के तेज को वहन करना किसी अकेले के बस की बात नहीं थी। सूर्य देव ने हनुमान जी को बताया कि मेरी मानस पुत्री सुवर्चला परम तपस्वी और तेजस्वी है उसका तेज तुम ही सहन कर सकते हो, और उससे विवाहोपरांत तुम दोनों उन चार विद्याओं के तेज को संभाल पाओगे ! उससे विवाह के बाद तुम इस योग्य हो जाओगे कि शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर सको। इसके अलावा और कोई उपाय उन विद्याओं को हासिल करने का नहीं है ! अब हनुमान जी भी धर्म संकट में पड़ गए, क्योंकि वो सूर्य देव से विद्याएं लेना तो चाहते थे, लेकिन साथ ही वो ब्रह्मचारी भी बने रहना चाहते थे। तब सूर्य देव ने उन्हें समझाया कि विवाह होते ही सुवर्चला तपस्या में लीन हो जाएगी। इससे तुम्हारे संकल्प पर कोई आंच भी नहीं आएगी और तुम्हें सारी विद्याएं भी प्राप्त हो जाएंगी। यह सुन काफी सोच-विचार के बाद आखिर हनुमान जी विवाह के लिए मान गए। उनकी रजामंदी मिलने पर सूर्य देव ने अपने तेज से सुवर्चला का आह्वान किया और इस तरह हनुमान जी का विवाह सम्पन्न हुआ और उन्होंने अपना ब्रह्मचर्य अटूट रखते हुए उन दिव्य शक्तियों को हासिल किया। 
तेलंगाना के खम्मम जिले में बना यह पुराना मंदिर सालों से लोगों का आकर्षण का केंद्र रहा है। शेष भारत में रहने वाले लोगों के लिए यह जगह किसी आश्चर्य से कम नहीं है क्योंकि उधर लोगों का विश्वास इस बात में ज्यादा है कि हनुमान जी ब्रह्मचारी थे ! पर स्थानीय लोग ज्येष्ठ शुद्ध दशमी, भारतीय पंचांग के अनुसार तृतीय माह की दसवीं तिथि, को हनुमान जी के विवाह के रूप में मनाते हैं। इस मंदिर से जुड़ी मान्‍यता के अनुसार जो भी हनुमानजी और उनकी पत्नी के यहां आ कर दर्शन करता है, उन भक्तों के वैवाहिक जीवन की सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं और पति-पत्नी के बीच प्रेम बना रहता है।      

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