बुधवार, 15 मई 2019

व्यथा एक सरोवर की !

वर्षों से काठ की हांडी में खिचड़ी के सपने दिखाने वालों को किनारे कर दिया गया। सबकी समझ में आ गया था कि इंसान रहेगा तभी धर्म-जाति भी रह पाएगी ! मुफ्तखोरों को भी इशारों से समझा दिया गया कि मेहनत सभी को करनी पड़ेगी, यह नहीं कि सरोवर की काया पलट हम करें और तुम बर्तन ले कर पानी भरने आ जाओ ! अब अवाम ''देखिएगा, हम करेंगें, हमें करना है'' की बजाए ''देखें, हमने कर दिया है'' कहने वाले को तरजीह देने लगी ! चौधरी भी समझ गए थे कि हवाबाजी के दिन हवा हुए ! अब कुछ ना किया तो चौधराहट तो क्या बिस्तर भी गोल करना पड़ जाएगा .......!           

#हिन्दी_ब्लागिंग   
प्रकृति की सुरम्य घाटियों में एक अति विशाल, सुंदर, क़ुदरत की नेमतों से घिरा हुआ झीलनुमा सरोवर था। दूर-दूर के लोग, पशु-पक्षी सब उस पर आश्रित थे। बिना भेद-भाव के मिल-जुल कर सब अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप उसका उपयोग किया करते थे। धीरे-धीरे उसके शुद्ध-निर्मल जल, फलदार वृक्ष, उपजाऊ जमीन, स्वच्छ पर्यावरण के कारण उसकी ख्याति इतनी फ़ैल गयी कि देश तो देश, विदेशों से भी लोगों ने आ-आ कर उसके पास डेरा जमा लिया ! अब जैसा कि होता आया है, भीड़ बढ़ने के साथ-साथ वहां कई चौधरी भी पैदा हो गए ! सरोवर उनकी पीढ़ियों को तारने का जरिया बन गया ! वे अपने मतलब के लिए लोगों को भरमा, तरह-तरह के हथकंडे अपना कर सरोवर के विभिन्न हिस्सों पर अपना बर्चस्व कायम करने की जुगत भिड़ाने लगे। कइयों ने अपनी चौधराहट कायम रखने के लिए अपने पूर्वजों की गाथाएं बयान करनी शुरू कर दीं ! कइयों ने ग्रामीणों को ही बेवकूफ बना, सरोवर के सौंदर्यीकरण के नाम पर उन्हीं के पैसे से सरोवर के चारों ओर अपना प्रशस्ति गान करते निर्माण करवा दिए ! तो कोई अति चतुर अपने को सर्वहारा का सच्चा हितैषी बता, सरोवर से ही धंधे का जुगाड़ कर, अपने परिवार का भविष्य संवारने लगा। कुछ ने आस-पास के जीवन देने वाले, वातावरण को स्वच्छ रखने वाले, बरसात का पानी संजोने वाले पेड़-पौधों को काट अपने विशाल महलों का निर्माण कर डाला। वहां एक डाली तक नहीं छोड़ी ! तो किसी ने नहा-धो कर वहीं पूजा-अर्चना की व्यवस्था करने की गोटी चल दी। पर सरोवर की ओर ध्यान देने, उसके रखरखाव, उसकी सुरक्षा की किसी को कोई परवाह नहीं थी ! परिणामस्वरूप अवाम के जीवन का सहारा, जीव-जंतुओं का पालनहार वह सरोवर सिमटता गया, पर्यावरण दूषित होता गया ! कभी गर्मी की भरी दोपहरी में भी शीतल छाया देने वाले वृक्षों के कट जाने से सरोवर की गहराई पर भी बुरा असर पड़ने लगा ! जल कम और दूषित हो गया ! पशु-पक्षी दूर चले गए ! जमीन ऊसर होने लगी ¡ लोगों को अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को  पूरा करने में भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ने लगा ! पर स्वार्थी चौधरीगण इसकी ओर ध्यान देने, इसकी बेहतरी के लिए कुछ करने की बजाय एक-दूसरे पर आरोप, नीचा दिखाने में ही जुटे रहे ! उन्हें इतना भी इल्म नहीं रहा कि इस सरोवर के ना रहने पर वे भी मिटटी में मिल जाएंगे ! 

इधर अवाम किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी खड़ी यह सारा तमाशा देखती तो थी, उसे कुछ-कुछ एहसास भी हो रहा था कि उसे धीरे-धीरे उसी के सरोवर से दूर कर दिया गया है पर वह बहकावों से, परंपराओं से, जाति से, धर्म से इतर अपनी भलाई का रास्ता अभी भी नहीं खोज पा रही थी ! यदि कुछ लोग सरोवर की दुर्दशा की गुहार ले कर किसी के पास चले भी जाते तो उनकी बात अनसुनी कर उन्हें यह समझाया जाता कि हम तो तुम्हारे साथ हैं, सदा तुम्हारा भला चाहते हैं ! पर तुम्हारी इस हालत का जिम्मेदार फलाना चौधरी है ! वही यहां का पानी निकाल अपने घर ले जाता है ! कोई कहता देखो वह अपनी गंदगी यहीं धो कर इसके पानी को दूषित कर रहा है ! कोई कहता कि फलाने ने वर्षों से इस पर कब्जा कर तुम्हारी यह हालत बनाई है ! कोई किसी के कर्मकांड को जल दूषित होने का कारण बता देता ! सरोवर को बचाने की जगह सब एक-दूसरे को नीचा दिखाने, उस पर दोषारोपण कर खुद को पाक-साफ़ बताने में जुटे हुए थे ! दुर्भावना, पूर्वाग्रहों, कुंठाओं, विद्वेष ने हालात इतने जहरीले बना दिए थे कि यदि कोई सरोवर की ढलती कगार को बचाने के लिए घाट बनाने की कोशिश करता भी तो उसके विरुद्ध मिटटी चोरी का इल्जाम लगाते हुए सारे चौधरी अपने मतभेद भुला, अपने स्वार्थ किनारे कर एकजुट हो जाते, उसे बदनाम करने में !

पर यह सब कितने दिन चलता ! कितने दिन जनता अपने भाग्य के सहारे बैठी रहती ! कब तक सामने वालों की नौटंकी देखती रहती ! समय बदला ! नई पीढ़ी साक्षर हुई ! लोगों में, समाज में जागरूकता आई ! वर्षों से काठ की हांडी में खिचड़ी के सपने दिखाने वालों को किनारे कर दिया गया। सबकी समझ में आ गया था कि इंसान रहेगा तभी धर्म-जाति भी रह पाएगी ! मुफ्तखोरों को भी इशारों से समझा दिया गया कि मेहनत सभी को करनी पड़ेगी, यह नहीं कि सरोवर की काया पलट हम करें और तुम बर्तन ले कर पानी भरने आ जाओ ! अब अवाम ''देखिएगा, हम करेंगें, हमें करना है'' की बजाए ''देखें, हमने कर दिया है'' कहने वाले को तरजीह देने लगी ! सरोवर को हरा-भरा बनाने में एकजुट हुए लोगों का साथ, जाति, धर्म, भाषा को पैमाना बनाए बिना दिया जाने लगा। वृक्ष लगाए जाने लगे, लोगों को काम मिला, रोजगार बढ़ा। जेब में पैसा आया तो खुशहाली बढ़नी ही थी ! चौधरी भी समझ गए थे कि हवाबाजी के दिन हवा हुए ! अब कुछ ना किया तो चौधराहट तो क्या बिस्तर भी गोल करना पड़ जाएगा !             

शनिवार, 11 मई 2019

परीक्षा में प्राप्त होने वाले शत-प्रतिशत अंक, शंकाओं के दायरे में

सिर्फ वस्तुनिष्ठता पर निर्भर रहने से वह मात्र सूचना भर रह जाती है ! परंतु लगने लगा है कि आज की स्कूली शिक्षा में इस तरफ कतई ध्यान नहीं दिया जाता ! सूचना ही अभीष्ट हो गयी है और उसे ही ज्ञान मान लिया गया है, जो आज के इंटरनेट के युग में सर्वसुलभ है ! कोई आश्चर्य नहीं कि अंक प्रदान करने वाले माननीयों के ज्ञान का स्रोत भी वही अंतरजाल ही हो और उसी के द्वारा प्रदत्त तथाकथित ज्ञान को आधार मान स्कूलों में अंक ''वितरित'' किए जाते हों ! कई वैश्विक सर्वे यह बताते हैं कि भारतीय छात्रों में पेशेवर क्षमता नहीं होती ! देश की नियामक या कार्यविधि समितियां भी ऐसा ही मानती हैं ....!

#हिन्दी_ब्लागिंग    
पिछले दिनों के स्कूलों के परीक्षा रिजल्ट देख बहुतों के जेहन में कुछ सवाल उठने लगे हैं ! इतिहास, मनोविज्ञान, भाषा, साहित्य इत्यादि में भी 99 या शत-प्रतिशत अंक ? यहां बच्चों की काबिलियत या उनकी मेहनत पर कोई शक नहीं है पर उत्तर पुस्तिकाओं की जांच, शासन की प्रणाली और उसकी नीतियों पर जरूर  कुछ प्रश्न खड़े हो रहे हैं ! जिसमें इजाफा हो रहा है दिल्ली की वर्तमान सरकार के उस बयान से, जिसमें दावा किया गया है कि उनकी सरकार की नीतियों, उनके द्वारा दी गयी सुविधाओं और वातावरण से शिक्षा का स्तर बढ़ा है ! यदि उनके दिए गए कारणों से शिक्षा सुधरती तो राजा, नवाबों, मंत्री-संतरी के बच्चे तो सदा ही टॉप करते ! क्योंकि उन्हें ही सबसे ज्यादा सुविधा और सहूलियतें मय्यसर होती हैं। और यदि वाकई बच्चे रचनात्मकता की इस ऊंचाई पर पहुंच गए हैं तो यह देश और समाज के लिए गर्व का विषय है पर यदि सोचे-समझे ''सिस्टम'' के तहत ऐसा हो रहा है तब तो बच्चे क्या देश को ही अंधेरे की तरफ ढकेला जाना शुरू हो चुका है। 

ऐसा सोचने के कारण भी हैं ! अभी कुछ दिनों पहले यूपीएससी के नतीजे भी आए थे, जिसमें टॉप करने वाले अभ्यर्थी को 55.35 अंक मिले थे ! सवाल वही है कि यदि शिक्षा की गुणवत्ता, उसके स्तर में सुधार हुआ है तो फिर यहां 100 फीसदी के सामने आधे अंक क्यों ?  यह सही है कि यूपीएससी देश की सबसे कठिन परीक्षा है पर उसमें भाग भी तो सबसे प्रतिभावान छात्र ही लेते हैं ! फिर यहां परीक्षाओं की तुलना नहीं की जा रही ! दोनों की तुलना होनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि उनका मकसद, उसमें भाग लेने वाले की मानसिकता, ध्येय और बौद्धिकता एक दम अलग होते हैं। पर चिंता इस बात की है कि ऐसा तो नहीं कि स्कूलों की परीक्षा में एक भी अंक ना छोड़ने की कोशिश करने वाले वाले बच्चे की समझ अंकों के अनुरूप विकसित हो ही ना पाती हो ! ऐसा तो नहीं कि कहीं ''किसी और'' उद्देश्य को हासिल करने के लिए बच्चों को मोहरा बनाया जा रहा हो ? यह शक बेबुनियाद भी नहीं है ! कई वैश्विक सर्वे यह बताते हैं कि भारतीय छात्रों में पेशेवर क्षमता नहीं होती ! देश की नियामक या कार्यविधि समितियां भी ऐसा ही मानती हैं ! ऐसा भी कई बार सामने आया है कि टॉप करने वाले छात्र किसी ओर जगह साधारण से प्रश्नों का जवाब भी नहीं दे पाते ! अनेकों बार तो शिक्षकों तक को ज्ञानहीनता के कारण शर्मिंदा होते देखा गया है !


आज बहुत सारे लोग यह सोचने लगे हैं कि 500 में 499 अंक मिलने का आधार क्या है ? गलत ना भी होते हुए यह बात पचती नहीं है ! सौ फीसदी अंक देखकर उस विद्यार्थी के मानसिक स्तर को नहीं परखा जा सकता, ऐसे में वास्तविक स्थिति का आकलन भी नहीं हो पाता है। शिक्षा में वस्तुनिष्ठा के साथ-साथ तर्क और  विश्लेषण की क्षमता का समावेश भी जरूर होना चाहिए। किसी भी बात का तार्किक विश्लेषण होना या करना अति आवश्यक होता है। सिर्फ वस्तुनिष्ठता पर निर्भर रहने से वह मात्र सूचना भर रह जाती है ! परंतु लगने लगा है कि आज की स्कूली शिक्षा में इस तरफ कतई ध्यान नहीं दिया जाता ! सूचना ही अभीष्ट हो गयी है और उसे ही ज्ञान मान लिया गया है, जो आज के इंटरनेट के युग में सर्वसुलभ है ! कोई आश्चर्य नहीं कि अंक प्रदान करने वाले माननीयों के ज्ञान का स्रोत भी वही अंतरजाल ही हो और उसी के द्वारा प्रदत्त तथाकथित ज्ञान को आधार मान स्कूलों में अंक ''वितरित'' किए जाते हों, जो आज ऐसी हद पर जा बैठे हैं, जहां उन पर उंगलियां उठनी शुरू हो गयी हैं। 

इसी के साथ एक बात और भी गहरा रही है कि क्या प्राप्तंकों और लियाकत का कोई संबंध है ? वैसे तो पुराने समय की पढ़ाई और आज की शिक्षा की कोई तुलना ही नहीं की जा सकती ! पहले 50-55 प्रतिशत के ऊपर अंकों की प्राप्ति गौरव की बात कहलाती थी। बहुत ही जहीन बच्चों के लिए भी 70-80 प्रतिशत अंक लाना बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी। पर तब और अब में जमीन आसमान का फर्क आ गया है। पढ़ने-पढ़ाने की तकनीक में बहुत बदलाव हो चुका है ! तरह-तरह की नई सुविधाएं, जानकारियां उपलब्ध हो चुकी हैं। पर साथ ही यह भी लगने लगा है कि आज के छात्रों को संपूर्ण होने के भ्रम में डाल उनको तर्क और विश्लेषण की क्षमता से धीरे-धीरे दूर किया जा रहा है। आज उनके पास ''सूचनाएं'' तो बहुत हैं पर जानकारी की निहायत कमी है ! पहले छात्रों का ज्ञान, विषयों की जानकारी, उनकी समझ, उनके बौद्धिक स्तर का अनुमान, उनके द्वारा परीक्षा में पाए गए अंकों से लगाया जा सकता था ! अपने विषय के अलावा भी उनकी जानकारियों का दायरा काफी बड़ा हुआ करता था। पर अब वैसा नहीं रह गया है। यदि यह आशंका सही है तो जिम्मेवार लोगों को, इसके पहले की स्थिति काबू के बाहर हो जाए, इस पर ध्यान केंद्रित कर हालात को सुधारने के लिए तुरंत आवश्यक कदम उठाने की सख्त जरुरत है। 
@संदर्भ - दैनिक भास्कर   

गुरुवार, 9 मई 2019

पानी को ले कर भ्रमित न हों

हमारी एक सांसद वर्षों से एक ख़ास कंपनी की RO मशीन खरीदने की सिफारिश करती आ रही हैं, जबकि विशेषज्ञ यह कहते हैं कि पानी को साफ़ करने की RO विधि बहुत उपयोगी नहीं है। हर जगह इसकी जरुरत भी नहीं होती। इस प्रक्रिया में पानी के बहुत सारे गुण और तत्व नष्ट हो जाते हैं। इसके अलावा इससे जितना पानी साफ़ होता है उससे तीन गुना पानी बर्बाद भी हो जाता है। एक तरफ तो हमें पानी की बचत का पाठ पढ़ाया जाता है तो दूसरी तरफ तरह-तरह की खामियों, दोषों और अनुपयोगिता के बावजूद  ऐसी मशीन खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है , जो पानी को साफ़ कम बर्बाद ज्यादा करती है ............!

#हिन्दी_ब्लागिंग     
कल यहीं बात की थी कि कैसे पानी की कोई कमी ना होने के बावजूद लोगों को भरमा-डरा कर, 50-60 साल पहले 1965 में बोतल बंद पानी की शुरुआत बिसलरी ने तब की बंबई में कर दी थी। देखा जाए तो बोतलबंद पानी का पहला व्यापार 1845 से ही पोलैंड के मैनी शहर में होना शुरू हो चुका था। आज दुनिया में दस हजार से भी ज्यादा कंपनियां इस धंधे में लगी हुई हैं। दुनिया भर में तेजी से फ़ैल रहे इस धंदे का खेल आज सैंकड़ों अरब डॉलर का हो चुका है। अपनी ही बात करें तो हमारे यहां तीन रूपये की लागत लगा बीस रुपये वसूलने वाली तकरीबन 200 छोटी-बड़ी कंपनियां करीब 15 हजार करोड़ रुपए का खेल खेल रही हैं। जबकि दुनिया जानती है कि इस तरह का पानी सेहत के लिए हानिकारक भी हो सकता है। पर पानी की बूंद-बूंद से पैसा कमाने में लगी देशी विदेशी कंपनियों ने अपने विज्ञापनों के जरिए लोगों के मन में यह विश्वास जमा दिया है कि वे जो पानी पी रहे हैं वो पूरी तरह से सुरक्षित है। जबकि हाल ही के दिनों में कई ब्रांडों के बोतलबंद पानी के नमूनों में मानक से कई गुणा ज्यादा कीटनाशक पाए गए। कई बार तो बोतलें ही खतरनाक स्टार तक अशुद्ध पाई गयीं। इसके अलावा जहाँ भी पानी के फ़िल्टर प्लांट लगते हैं वहां भू-जल का स्तर खतरनाक रूप से कम हो जाता है। प्लास्टिक की बोतलें और उनका अनैतिक उपयोग जो कहर ढाता है, वो अलग !

विडंबना तो यह है कि ऐसे पानी की जांच का कोई सरल और सुलभ तरीका है ही नहीं ! इसलिए हम सिर्फ भरोसा कर बिना सही-गलत जाने उसका उपयोग करते चले जा रहे हैं। पानी ही तो है इसलिए किसी बात पर ज्यादा ध्यान भी नहीं देते ! जबकी कुछ सावधानियां बहुत जरुरी होती हैं, इस तरह के पानी का इस्तेमाल करते समय। जैसे कि चलती कार में बोतलबंद पानी नहीं पीना चाहिए, क्योंकि कार में बोतल खोलने पर कार के वातावरण और पानी में मिले रसायनों की प्रतिक्रियाएं काफी तेजी से होती हैं और पानी अधिक खतरनाक हो जाता है। यही बात तेज धूप में बोतल से पानी पीने पर लागू होती है। 

वैसे तो बोतल का पानी उपयोग में ना ही लाया जाए तो बेहतर है पर आज के समय इस बात को कठोरता से लागू भी नहीं किया जा सकता। ऐसा भी नहीं है कि सारी कंपनियां नियमों का उल्लंघन कर रही हैं और बोतलबंद पानी सेहत के लिए एक दम से खराब है। जरूरत है तो बोतलबंद पानी को लेकर जागरुक रहने की। तो ऐसे में कुछ सावधानियां जरूर बरतें ! पानी या कोई भी बोतल बंद द्रव्य लेते समय उस पर लीटर का मानक मार्क अंग्रेजी का अक्षर ‘एल’ लिखा हो। पानी का पाउच या बोतल खरीदते समय एक बार उसकी जांच जरूर कर लें। बिना एक्सपायरी डेट लिखे पानी के पाउच और बोतल ना खरीदें। 
आज दुनिया भर के देश इस तरह के प्लांट को दरकिनार कर उन पर रोक लगा रहे हैं। पर दुर्भाग्यवश हमारे देश में यह व्यापार दिन दूनी, रात चौगुनी रफ़्तार से बढ़ रहा है। भ्रमित करने वाले विज्ञापनों ने हमारी आँखों पर पट्टी बाँध दी है ! जबकि विशेषज्ञ यह कहते हैं कि पानी को साफ़ करने की RO विधि बहुत उपयोगी नहीं है। हर जगह इसकी जरुरत भी नहीं होती। इस प्रक्रिया में पानी के बहुत सारे गुण और तत्व नष्ट हो जाते हैं। इसके अलावा यह जितना पानी साफ़ करती है उससे तीन गुना पानी बर्बाद भी हो जाता है। एक तरफ तो हमें पानी की बचत का पाठ पढ़ाया जाता है तो दूसरी तरफ ऐसी मशीन खरीदने के लिए प्रतिष्ठित लोगों द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है ! हमारी एक सांसद तो वर्षों से एक ख़ास कंपनी की RO मशीन खरीदने की सिफारिश करती आ रही हैं। क्या उसकी खामियों, उसके दोषों, उसकी अनुपयोगिता का उन्हें पता नहीं है। 

यह सच है कि सर्वजन को पानी उपलब्ध करवाना सरकार का जिम्मा है। पर उसके उपयोग, संचय, बचत, रख-रखाव, का कर्तव्य अवाम का ही है। पर कड़वी और डरावनी सच्चाई तो यह है कि अपनी मूर्खताओं के कारण हमने इस अति आवश्यक प्राकृतिक नेमत की कीमत नहीं समझी, और उसी का फल हम आज तरह-तरह से भुगतने को मजबूर हैं। पानी की उपलब्धता बहुत तेजी से घटती जा रही है पर हालात बिल्कुल ही बेकाबू हो गए हों ऐसा भी नहीं है ! हजारों लोग इसका समाधान निकाल रहे हैं। पुरानी परम्पराओं को जीवित किया जा रहा है। रेगिस्तान को नखलिस्तान और ुसार को जंगल में बदला जा रहा है। अभी पैमाना छोटा है पर सब मिल के जुट जाएं तो फिर सूखी नदियां, झीलें, सरोवर, तालाब पुनर्जीवित हो लहलहा उठेंगे।  

मंगलवार, 7 मई 2019

सुलभ जल को दुर्लभ करने की कवायद

तभी प्रादुर्भाव हुआ बाल्टी में बर्फ के बीच रखी बोतलों में भूरे, नारंगी, सफ़ेद ''कोल्ड ड्रिंक्स'' को कोला,ऑरेन्ज, लिम्का के नाम से बेचने की साजिश का ! बिक्री बढ़ाने की साजिश में सार्वजनिक जगहों पर लगे जल प्रदायों को बंद या ख़त्म कर दिया गया। हैंडपंपों के पानी को दूषित बताने का कुचक्र रचा गया ! टोटियां या तो तोड़ दी गयी या फिर उनमें पानी की आमद रोक दी गयी ! घरों में आने वाले पानी को दूषित या कम गुणवत्ता का बना दिया गया ! परेशान, हलकान लोगों की मजबूरी कुछ लोगों के लिए  धनवर्षा का सुयोग बन गयी...........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
वर्ष 1989 के शुरुआती दिनों की एक शाम,    
रायपुर के पत्रकार क्लब के पास एक छोटा सा खाने-पीने का ठीया !   
उस दिन कांउटर पर पानी के पाउच तथा आधा लीटर की पानी की बोतल रखी देख जिज्ञासावश पूछने पर पता चला कि यह बिकने के लिए है ! घोर आश्चर्य हुआ कि जिस शहर में अभी घर से बाहर चाय पीने का चलन भी पूरी तरह से शुरू नहीं हुआ है वहां पानी कौन खरीद कर पिएगा ! पर कुछ ही दिनों के बाद एक ''फ़िल्टर वाटर प्लांट'' के उद्घाटन का आमंत्रण पत्र मिला। पहुँचने पर  दिखा, शहर के जाने-माने लोगों का जमावड़ा ! दैवयोग से सत्य नारायण शर्मा जी, जो तब भी शायद एमएलए ही थे मेरी बगल में बैठे थे, मैंने ऐसे ही पूछ लिया, सत्तू भैया म्युनिस्पल कार्पोरेशन का इतना बड़ा फ़िल्टर प्लांट है, पानी भी ठीक-ठाक आता है, तो फिर इसका औचित्य ? बोले, रायपुर का भूमिजल भारी है ये लोग अपनी कालोनी के लिए इंतजाम कर रहे हैं। यानी सरकार के समर्पण की शरुआत ! तब अंदाज कहां था कि जहां आम आदमी अपनी अक्ल पर चश्मा चढ़ा, आने वाले दो-एक साल का आकलन बमुश्किल कर पाता है, वहीं चतुर लोग अपनी आँखों पर दूरबीन लगा, दसियों साल आगे का समय भांप लेते हैं। बात आई-गयी हो गयी ! 

उस समय ट्रेनों में सुराहियों का चलन हुआ करता था, पांच-सात लीटर की सुराही गर्मियों के सफर के दौरान निर्मल-शीतल जल का पर्याय थीं। रास्ते में उसे दोबारा भरने के लिए स्टेशनों पर पानी सदा उपलब्ध रहता था। पर एकाएक स्टेशनों के नल सूख गए ! कहीं एकाध जगह पानी आता भी था तो दसियों मिनट लग जाते थे बर्तन भरने में ! इधर पाँव भर पानी के लिए धक्का-मुक्की, उधर गाडी सीटी बजा रही चलने की ! लोग परेशान ! खासकर महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे ! जो ना गाडी से उतरने की हिम्मत रखते थे नाहीं प्यासे रह सकते थे ! तभी प्रादुर्भाव हुआ बाल्टी में बर्फ के बीच रखी बोतलों में भूरे, नारंगी, सफ़ेद ''कोल्ड ड्रिंक्स'' को कोला,ऑरेन्ज, लिम्का के नाम से बेचने की साजिश का ! बिक्री बढ़ाने की साजिश में सार्वजनिक जगहों पर लगे जल प्रदायों को बंद या ख़त्म कर दिया गया। हैंडपंपों के पानी को दूषित बताने का कुचक्र रचा गया ! टोटियां या तो तोड़ दी गयी या फिर उनमें पानी की आमद रोक दी गयी ! इसमें सरकारी कारीदों की मिलीभगत से इंकार नहीं किया जा सकता। घरों में आने वाले पानी को दूषित या कम गुणवत्ता का बना दिया गया ! परेशान, हलकान लोगों की मजबूरी कुछ लोगों के लिए  धनवर्षा का सुयोग बन गयी। 

समय अविराम गति से चलता रहा साथ ही चलती रहीं सर्व सुलभ, तक़रीबन मुफ्त की प्रकृति की नेमत को सोने की खान में तब्दील करने की साजिशें ! पूरे योजनाबद्ध तरीके से तक़रीबन पचास साल पहले बने गए जाल में उलझ कर उस देश का नागरिक छटपटा रहा है जहां कायनात ने खुले हाथों अपनी दौलत लुटा रखी है। पहले बोतलबड़ पानी को ''स्टेटस सिंबल'' दिया गया। बड़े-बड़े होटलों में होने वाले सेमिनारों, फ़िल्मी समारोहों, देश-विदेश की राजनितिक मीटिंगों में इन्हें टेबलों पर स्थान दिया जाने लगा जहां  से कि कैमरों के फोकस में आ सकें। फिर एक षड्यंत्र का कुचक्र शुरू हुआ ! लोगों को पानी के बारे में अजीबोगरीब जानकारियां देना शुरू हो गया। अच्छे-भले पानी को विलेन बना लोगों को इतना डरा दिया गया कि उसे पीना तो दूर मुंह-हाथ धोने में भी घरेलू पानी से भय लगने लगा ! नतीजतन पानी के सफाई के घरेलू यंत्रों की बेतहाशा बिक्री शुरू हो गयी ! बाजार में इसे पाउच, गिलास, बोतलों में बंद कर बेचा जाने लगा। घरों के लिए जेरिकेन उपलब्ध करवाए जाने लगे। स्वास्थ्य की चिंता में डूबे लोग, सिर्फ भरोसे पर आँख मूँद कर पैसा बहाने लगे, बिना किसी जांच-पड़ताल या खोज-खबर के कि हम जो पी रहे हैं वह है क्या ! 

है भी तो यह बहुत फायदे का सौदा ! जिस एक लीटर पानी की बोतल को हम बीस रुपये में खरीदते है उस पर बमुश्किल चार रुपये भी खर्च नहीं आता ! डेढ़ सौ अरब से भी ज्यादा के इस कारोबार में सैंकड़ों कंपनियों के अलावा हजारों लोग लगे हुए हैं लोगों को पानी पिलाने में, पर बिना किसी नैतिकता या उअत्तरदायित्व के ! पचासों बार ऐसी बातें सामने आईं हैं, जब बोतलों में नगर सप्लाई का पानी भर कर बेचा जाता मिला है। कई बार तो ट्रेनों में टायलेट का पानी यात्रियों को पीने के लिए दिए जाने पर भी हड़कंप मचा पर बस कुछ देर के लिए। अभी पिछले दिनों यह बात भी सामने आई थी कि दिल्ली सरकार की अदूरदर्शी मुफ्त पानी योजना का लाभ उठा कुछ चंट लोग मुफ्त के पानी को केन में भर पैसा कमाने में लगे हुए थे। 

अब तो मुसीबत सचमुच सामने आन खड़ी हुई है ! पर तस्वीर अभी भी उतनी भयावह नहीं है कि हताश-निराश हो बैठ जाया जाए ! असंख्य लोग लगे हुए हैं इस युद्ध में जीत हासिल करने को, सफल भी हो रहे हैं ! हालांकि दायरा अभी सिमित है पर शुरुआत तो हो ही चुकी है। यह कामअकेले सरकारों के बस का भी नहीं है, समाज को भी साथ खड़े होना पड़ेगा। इस दानव से मुक्ति पाने के लिए अपने-अपने स्टार पर सभी को कोशिश करनी है।हरेक नागरिक को, बच्चे-बच्चे के जागरूक होने का समय है। बचत ही उपलब्धि जरूर है, पर क्यों ना चादर को ही इतना बड़ा कर लें कि पैर पसारने के लिए सोचना ही ना पड़े ! 

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