शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

डर, कैसे कैसे

अंधेरी, सुनसान रात। आकाश मेघाच्छन। किसी भी समय बरसात शुरू हो सकती थी। बियाबान पड़ा हाई-वे। दूर-दूर तक रोशनी का नामो निशान नहीं। ऐसे में विशाल अपनी बाईक दौड़ाते हुए घर की तरफ चला जा रहा था। बाईक की रोशनी जितनी दूर जाती थी, बस वहीं तक दिखाई पड़ता था, बाकी सब अंधेरे की जादूई चादर में गुम था।
इतने में बूंदा-बांदी शुरु हो गयी। कुछ दूर आगे एक मोड़ पर एक टपरे जैसी दुकान पर गाड़ी रोक कर विशाल ने अपना रेन कोट निकाल कर पहना और दुकान से एक पैकट सिगरेट ले जैसे ही गाड़ी स्टार्ट कर चलने को हुआ, पता नहीं कहां से एक मानवाकृति निकल कर आई और विनम्र स्वर में लिफ़्ट देने की याचना करने लगी। विकास ने नजरें उठा कर देखा, सामने एक उंचे-पूरे कद का, काला रेन कोट पहने, जिसका आधा चेहरा हैट के नीचे छिपा हुआ था, एक आदमी खड़ा था। उसको हां कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। पर बिना कारण और इंसानियत के नाते ना भी नहीं कह पा रहा था। मन मार कर उसने उस को पीछे बैठा लिया। पर अब गाड़ी से भी तेज विशाल का मन दौड़ रहा था। उसने लिफ़्ट तो दे दी थी पर चित्रपट की तरह अनेकों ख्याल उसके दिमाग में कौंध रहे थे। अखबारों की कतरने आंखों के सामने घूम रहीं थीं। अभी पिछले हफ्ते ही इसी सड़क पर एक कार को रोक नव दम्पत्ति की हत्या कर गाड़ी वगैरह लूट ली गयी थी। तीन दिन पहले की ही बात थी एक मोटर साईकिल सवार घायल अवस्था में सड़क पर पाया गया था। वह तो अच्छा हुआ एक बस वाले की नज़र उस पर पड़ गयी तो उसकी जान बच गयी। इसी तरह आये दिन लूट-पाट की खबरें आती रहती थीं। प्रशासन चौकसी बरतने का सिर्फ आश्वासन देता था, क्योंकी विशाल को अभी तक सिर्फ आठ-दस वाहन ही आते जाते दिखे थे। पुलिस गस्त नदारद थी।
शहर अभी भी पांच-सात किलो मीटर दूर था। अचानक विशाल को अपने पीछे कुछ हरकत महसूस हुई। इसके तो देवता कूच कर गये। तभी पीछे वाले ने गाड़ी रोकने को कहा। विशाल समझ गया कि अंत समय आ गया है। बीवी, बच्चों, रिश्तेदारों के रोते कल्पते उदास चेहरे उसकी आंखों के सामने घूम गये। पर मरता क्या ना करता। उसने एक किनारे गाड़ी खड़ी कर दी। बाईक के रुकते ही पीछे वाला विशाल के पास आया और अपने रेन कोट का बटन खोल अंदर हाथ डाल कुछ निकालने लगा। विशाल किसी चाकू या पिस्तौल को निकलते देखने की आशंका से कांपने लगा। तभी पीछेवाले आदमी ने एक सिगरेट का पैकट विशाल के आगे कर दिया और बोला, सर क्षमा किजिएगा, बहुत देर से तलब लगी हुई थी। बैठे-बैठे निकाल नहीं पा रहा था। सच कहूं तो मैंने लिफ़्ट तो ले ली थी पर इस सुनसान रास्ते में मैं बहुत डरा हुआ था कि पता नहीं चलाने वला कौन है, कैसा है, तरह तरह की बातें दिमाग में आ रहीं थीं। पर मेरा जाना भी बहुत जरूरी था। बड़ी देर बाद अपने को संयत कर पाया हूं। यह सब सुन विशाल की भी जान में जान आयी। दोनो ने सिगरेट सुलगायीं, अब दोनों काफी हल्कापन महसूस कर रहे थे।
बरसात भी थम चुकी थी। दूर शहर की बत्तियां भी नज़र आने लग गयीं थीं।

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

न्याय, परम पिता का

परम पिता की नज़रों में तो सब बराबर हैं ! ना ऊँच-नीच, ना धर्म-अधर्म, ना जात-पात ! ना रंग-भेद ! फिर हमने क्यों कहीं दीवारें खड़ी कर दीं ! कहीं खाइयां खोद दीं ! कहाँ से ले आए हम इतना भेद-भाव, अहम्, द्वेष 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
सावन-भादों की एक शाम। आकाश में घने बादल गहराते हुए रौशनी को विदा करने पर आमदा थे। दामिनी एक सिरे से दूसरे सिरे तक लपलपाती हुई माहौल को और भी डरावना बना रही थी। जैसे कभी भी कहीं भी गिर कर तहस-नहस मचा देगी। हवा तूफान का रूप ले चुकी थी।

ऐसे में उस सुनसान इलाके में, एक जर्जर अवस्था में पहुंच चुके खंडहर में, एक आदमी ने दौड़ते हुए आकर शरण ली। तभी दो सहमे हुए मुसाफिरों ने भी बचते बचाते वहां आ कर जरा चैन की सांस भरी। फिर एक व्यापारी अपने सामान को संभालता हुआ आ पहुंचा। धीरे-धीरे वहां सात-आठ लोग अपनी जान बचाने की खातिर इकट्ठा हो गये। बरसात शुरु हो गयी थी। लग रहा था जैसे प्रलय आ गयी हो। इतने में एक फटे हाल बच्चा अपने सूकर के साथ अंदर आ गया। उसके आते ही मौसम ने प्रचंड रूप धारण कर लिया। बादलों की कान फोड़ने वाली आवाज के साथ-साथ ऐसा लगने लगा जैसे बिजली जमीन को छू-छू कर जा रही हो। सबको लगने लगा कि अपने पालतू समेत उस बच्चे के आने से ही प्रकृति का कहर बढ़ा है। यदि यह इस जगह रहेगा तो ऊपर वाले के कोप से बिजली जरूर यहीं गिरेगी। इस पर सबने एक जुट हो, उस डरे, सहमे बच्चे को जबर्दस्ती धक्के दे कर बाहर निकाल दिया। डरते-रोते हुए बच्चे ने कुछ दूर एक घने पेड़ के नीचे शरण ली।

उसके वहां पहुंचते ही जैसे आसमान फट पड़ा हो, बादलों की गड़गड़ाहट से कान बहरे हो गये। बिजली इतनी जोर से कौंधी कि नजर आना बंद हो गया। एक पल बाद जब कुछ दिखाई पड़ने लगा, तब तक उस खंडहर का नामोनिशान मिट चुका था। प्रकृति भी धीरे-धीरे शांत होने लगी थी। बच्चा अपने पालतू के साथ अपने घर की ओर दौड़ा चला जा रहा था !

बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

हसाईंयां, पूंछ वाली

उपदेश :- जिंदगी में खुश रहना है तो सदा खुदा और बीवी से डर कर रहना चाहिए।
सार :- खुदा को भी कभी किसीने देखा है?
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विज्ञापन :- कैंसर का इलाज़ हमसे करवाएं।
खुलासा :- इसका इलाज़ तो असली डाक्टरों के पास भी नहीं है। पर हम सस्ते में मारते हैं।
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तलाश :- बाबा, कोई ऐसा वशीकरण-मंत्र दो, जिससे मैं अपनी झगड़ालू बीवी को बस में कर सकुं। बच्चा, ऐसा कोई मंत्र मेरे पास होता तो मैं साधू ही क्यों बनता।
सच्चाई :- वैरागी बनने का कारण आस-पास भी हो सकता है।

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

अनदेखे 'अपनों' को दीप-पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं

इस विधा यानि ब्लागिंग से आप सब से जो स्नेह, अपनापन, हौसला मिला है, उससे मन अभिभूत है। यह कैसी अजीब बात है कि जब तक एक बार रोज सबके नाम ना देख लिए जाएं तो कुछ खाली-खाली सा लगता है। तीन चार दिनों तक किसी की उपस्थिति न दिखे तो मन बरबस उसकी ओर लगा रहता है। ये जो "अनदेखे अपनों" से लगाव है उसे क्या नाम दिया जाए? इन रिश्तों को कैसे प्रभासित किया जाए? आज तक samajh में naheen aa paayaa है। in तीन सालों में apnii kuupamandukataa ke kaaran bahut kam logon से aamane-saamane milanaa ho paayaa है। sabhii se milane की ichchhaa मन me hone ke baawajuud किसी न किसी kaaran से waisaa sambhaw nahiin ho sakaa। khair yah aapasii स्नेह aise ही banaa rahe yahii kaamanaa है।
इस दीपोत्सव पर आप सभी को सपरिवार मेरी ओर से हार्दिक शुभकामनाएं।

आने वाले दिन और बेहतर हों। सभी जने सदा सुखी, स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें।

यही प्रभू से प्रार्थना है।

रविवार, 26 अक्तूबर 2008

कैसी रही

एक गडेरिया अपना रेवड़ चरा रहा था कि एक बड़ी सी गाड़ी उसके पास आ कर रुकी। उसमें से कीमती कपड़े पहने हुए एक युवक उतरा और गड़ेरिये के पास आ बोला, कि मैं यदि तुम्हारे रेवड़ में कितनी भेड़ें हैं , बतला दूं तो क्या तुम मुझे एक भेड़ दोगे? गड़ेरिए के मान जाने पर युवक ने अपना लैप टाप निकाला, सैटेलाईट से कनेक्शन जोड़ा, उस जगह को स्कैन किया, जटिल आंकड़ों को जोड़ा घटाया, फिर गड़ेरिये को बताया कि तुम्हारे पास 1352 भेड़ें हैं। गड़ेरिए के सही है, कहने पर युवक ने अपनी पसंद का जानवार उठा कर अपनी गाड़ी में रख लिया। तब चरवाहे ने कहा कि यदि मैं बता दूं कि तुम्हारा पेशा क्या है, तो क्या तुम मेरा जानवर वापस कर दोगे? युवक ने भी उसकी बात मान ली। इस पर चरवाहे ने कहा कि तुम प्रबंधन सलाहकार हो। युवक आश्चर्यचकित हो बोला, अरे! तुम्हें कैसे पता चला? चरवाहे ने जवाब दिया, यह तो बहुत आसान था। तुम बिना बुलाए मेरे पास आए। बिना मेरे मांगे अपनी सलाह दी, ऐसे सवाल का जवाब दिया जिसका उत्तर मुझे मालुम था, और इस सब की कीमत भी ली, जब की तुम मेरे काम के बारे में कुछ भी नहीं जानते।
"लाओ मेरा कुत्ता वापस करो"
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तीन पागलों को उनके चेक-अप के लिए एक खाली पड़े स्विमिंग पूल के पास ले जाकर डाक्टर ने कहा, कूदो। दो पागल तुरंत कूद गये और चोट खा बैठे। तीसरे की तरफ देख कर डाक्टर ने कहा, अरे वाह, तुम तो ठीक हो गये हो। अच्छा बताओ तुम क्यों नहीं कूदे?
उसने जवाब दिया "मुझे तैरना कहां आता है"

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

''स्वयंप्रभा'', रामायण का एक उपेक्षित पात्र

थके-हारे, निश्चित समय में सीता माता को ना खोज पाने के भय से व्याकुल, वानर समूह को उचित मार्गदर्शन दे, लंका का पता बताने वाली सिद्ध तपस्विनी "स्वयंप्रभा" को वाल्मीकि रामायण के बाद कोई विशेष महत्व नहीं मिल पाया। हो सकता है, श्री राम से इस पात्र का सीधा संबंध ना होना इस बात का कारण हो।

#हिन्दी_ब्लागिंग 
शबरी की तरह ही स्वयंप्रभा भी श्री राम की प्रतीक्षा, एकांत और प्रशांत वातावरण में संयत जीवन जीते हुए कर रही थी। परन्तु ये शबरी से ज्यादा सुलझी और पहुंची हुई तपस्विनी थीं। इनका उल्लेख किष्किंधा कांड के अंत में तब आता है, जब हनुमान, अंगद, जामवंत आदि सीताजी की खोज में निकलते हैं। काफी भटकने के बाद भी सीताजी का कोई सुराग नहीं मिल पाता है। सुग्रीव द्वारा दिया गया समय भी स्माप्ति पर आ जाता है। थके-हारे दल की भूख प्यास के कारण बुरी हालत होती है। सारे जने एक जगह निढ़ाल हो बैठ जाते हैं। तभी हनुमानजी को एक अंधेरी गुफा में से भीगे पंखों वाले पक्षी बाहर आते दिखते हैं। जिससे हनुमानजी समझ जाते हैं कि गुफा के अंदर कोई जलाशय है। गुफा बिल्कुल अंधेरी और बहुत ही डरावनी थी। सारे जने एक दूसरे का हाथ पकड़ कर अंदर प्रविष्ट होते हैं। वहां हाथ को हाथ नहीं सूझता था। बहुत दूर चलने पर अचानक प्रकाश दिखाई पड़ता है। वे सब अपने आप को एक बहुत रमणीय, बिल्कुल स्वर्ग जैसी जगह में पाते हैं। पूरा समूह आश्चर्य चकित सा खड़ा रह जाता है। चारों ओर फैली हरियाली, फलों से लदे वृक्ष, ठंडे पानी के सोते, हल्की ब्यार सब की थकान दूर कर देती है। इतने में सामने से प्रकाश में लिपटी, एक धीर-गंभीर साध्वी, आती दिखाई पड़ती है। जो वल्कल, जटा आदि धारण करने के बावजूद आध्यात्मिक आभा से आप्लावित लगती है। हनुमानजी आगे बढ़ कर प्रणाम कर अपने आने का अभिप्राय बतलाते हैं, और उस रहस्य-लोक के बारे में जानने की अपनी जिज्ञासा भी नहीं छिपा पाते हैं। साध्वी, जो कि स्वयंप्रभा हैं, करुणा से मंजुल स्वर में सबका स्वागत करती हैं तथा वहां उपलब्ध सामग्री से अपनी भूख-प्यास शांत करने को कहती हैं। उसके बाद शांत चित्त से बैठ कर वह सारी बात बताती हैं।

यह सारा उपवन देवताओं के अभियंता मय ने बनाया था। इसके पूर्ण होने पर मय ने इसे देवराज इंद्र को समर्पित कर दिया। उनके कहने पर, इसके बदले कुछ लेने के लिए जब मय ने अपनी प्रेयसी हेमा से विवाह की बात कही तो देवराज क्रुद्ध हो गये, क्योंकि हेमा एक देव-कन्या थी और मय एक दानव। इंद्र ने मय को निष्कासित कर दिया, पर उपवन की देख-भाल का भार हेमा को सौंप दिया। हेमा के बाद इसकी जिम्मेदारी स्वयंप्रभा पर आ गयी।

इतना बताने के बाद, उनके वानर समूह के जंगलों में भटकने का कारण पूछने पर हनुमानजी उन्हें सारी राम कथा सुनाने के साथ-साथ समय अवधी की बात भी बताते हैं कि यदि एक माह स्माप्त होने के पहले सीता माता का पता नहीं मिला तो हम सब की मृत्यु निश्चित है। स्वयंप्रभा उन्हें कहती हैं कि घबड़ायें नहीं, आप सब अपने गंतव्य तक पहुंच गये हैं। इतना कह कर वे सबको अपनी आंखें बंद करने को कहती हैं। अगले पल ही सब अपने-आप को सागर तट पर पाते हैं। स्वयंप्रभा सीताजी के लंका में होने की बात बता वापस अपनी गुफा में चली जाती हैं। आगे की कथा तो जगजाहिर है।

यह सारा प्रसंग अपने-आप में रोचक तो है ही, साथ ही साथ कहानी का महत्वपूर्ण मोड़ भी साबित होता है। पर पता नहीं, स्वयंप्रभा जैसा इतना महत्वपूर्ण पात्र उपेक्षित क्यूं रह गया।

हाय, कितने गरीब हैं हम

अखिल भारतीय जेम्स एंड ज्वैलरी ट्रेड फेडरेशन के सर्वे की मानें तो दीवाली से पहले अक्टूबर के दौरान सिर्फ बीस दिनों में पांच टन सोने की बिक्री हुई इस गरीब देश में। जो पिछले आंकड़ों से 66 फीसदी ज्यादा है। इस साल दुकानों में पहुंचने वाले ग्राहकों की संख्या में भी 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी। और यह सब तब है जबकि सोने की कीमतों में पिछले पांच सालों की तुलना में 160 प्रतिशत उछाल आ चुका है।

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

टिप्पणीयों को खुले दिल से स्वीकार करें

टिप्पणी देना और पाना किसे अच्छा नहीं लगता। हरेक को अपनी पोस्ट की प्रशंसा पा खुशी होती है। उत्साहित हो वह भी किसी और को भी प्रोत्साहित करना चाहता है। इसी उमंग में किसी अच्छे लेख की प्रशंसा में जब अपने विचार व्यक्त करता है तो वे, टिप्पणी माडरेशन सक्षम किया होने की वजह से, तुरंत प्रकाशित नहीं होते। ऐसा लगता है कि किसी के घर गये हों और चौकीदार अंदर जाने से यह कह कर रोक दे कि पूछ कर आता हूं कि अंदर आने दूं कि नहीं।
ऐसा क्यूं है। क्या लिखने वाला सिर्फ अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है, अपनी जरा सी आलोचना उसे पसंद नहीं। क्या यह डर है कि मैंने जो लिखा है उससे बहुत से लोग नाराज हो जायेंगे और उल्टी-सीधी बातें लिख मारेंगे, या और कुछ। यह तो सर्वविदित है कि सब को खुश नहीं किया जा सकता, मुंड़े-मुंड़े मत्रिभिन्ना, और जो लिखा गया है वह वैसा लिखने वाले को ठीक लगा इसलिये लिखा गया, यह पूर्णतया अपने विचार हैं। तो पढ़ने वाले को भी पूरी आजादी होनी चाहिए कि वह भी अपने विचारों से सबको अवगत करा सके, सबको यानी सबको। ऐसा मुझे लगता है।
अक्सर कहा जाता है कि ब्लागर परिवार में संदेशों का आदान-प्रदान होते रहना चाहिये। किसी को प्रोत्साहित करना बहुत अच्छी बात है। नवागत की झिझक मिटती है, हौसला बढ़ता है। पर सिर्फ टिप्पणी देनी है इसलिए टिप्पणी दे देने से लगता है कि सिर्फ औपचारिकता पूरी कर दी गयी हो। पर टिप्पणी निष्पक्ष होनी चाहिए। जरूरी तो नहीं कि कटु आलोचना कर द्वेष पैदा किया जाए। पर लेख के बारे में अपने विचार बिना ठेस पहुंचाए कहे जाएं तो सामने वाले को और अच्छा लिखने में मदद मिलेगी, ऐसा मेरा सोचना है। अपने बारे में सिर्फ अच्छे ही अच्छे कमेंट पा कर अपनी गल्तियों की तरफ ध्यान नहीं जाता। इसलिए दरवाजे हर्रक के लिए खुले होने चाहियें। सबका स्वागत होना चाहिए। ऐसा नहीं कि मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू।
मैंने अपने विचार रखे हैं, अन्यथा ना लिजियेगा।

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

सनकी, कैसे कैसे

दुनिया का इतिहास तरह-तरह के सनकियों से भरा पड़ा है। आईये दो-एक का जायजा लें।

मुहम्मद बिन तुगलक को पता नहीं क्या सूझी, अच्छी भली अपनी राजधानी दिल्ली को छोड़ कर वहां से 600 मील दूर दौलताबाद में नयी राजधानी बसाने की सनक ने करीब तीस हज़ार परिवारों को बेसहारा भटकने के लिए मजबूर कर दिया था। वह जानता था कि उसके इस कदम से लोग खुश नहीं हैं, ऐसे लोग आने से इंकार ना कर दें, इसलिए उसने दिल्ली के घरों-दुकानों में आग लगवा कर नष्ट करवा दिया। सैकड़ों लोग मौत के मुंह में चले गये। जले पर नमक तब छिड़का गया, जब 15 वर्ष बाद फिर प्रजा सहित राजधानी को उठवा कर वापस दिल्ली ले आया गया।
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रूस का ईवान चतुर्थ तो तुगलक से भी एक कदम आगे निकला। उसने अपने परिवार, नौकरों-चाकरों, सैनिकों और खजाने के साथ अपनी राजधानी मास्को छोड़ दी, और एक बीहड़, सुनसान इलाके की ओर रवाना हो गया। कुछ दिनों बाद उसने वहां से संदेश भेजा कि राज्य की परिस्थितियों से दुखी होकर वह अपनी गद्दी का अधिकार छोड़ रहा है। सबको लगा कि वह गद्दी छोड़ रहा है। पर असल में वह देखना चाहता था कि उसके राज्य छोड़ने से कौन-कौन खुश होता है। पर उसकी यह चाल उसके मंत्री व अधिकारी समझ गये थे। वे सब मिल कर उसके पास गये और उससे प्रार्थना की कि वह राज-पाट ना छोड़े, क्योंकि वही एकमात्र इस लायक है, जो यह भार संभाल सके। इवान खुश हो गया और वापस आ गया। परन्तु आते ही उसने प्रार्थना करने वाले मंत्रियों के सर यह कह कर कटवा डाले कि वे राज्य भार कुछ समय तक संभालने में भी समर्थ नहीं हैं।
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हंगरी की कौन्टेस एलिजाबेथ बाथोरी अत्यंत रूपवती थी और चाहती थी कि उसका रूप सदा वैसा ही बना रहे। कुछ तांत्रिकों ने उसे विश्वास दिला दिया था कि यदि वह कुवांरी कन्याओं का रक्त पियेगी व उनके रक्त से स्नान करेगी तो उसका रूप-रंग कभी खत्म नहीं होगा। उसकी शादी एक अधिकारी से हुई थी। पर धीरे-धीरे उसने अपनी पहुंच शाही दरबार तक बना ली थी। वह एक तानाशाह किस्म की औरत थी। दरबार में प्राप्त अपनी शक्तियों का उसने खूब दुरुपयोग किया। कहा जाता है कि अपने पागलपन में उसने करीब 600 से अधिक कुंवारी लड़कियों का रक्त पिया और उनके रक्त से स्नान किया। लेकिन एक दिन उसके खून पीने का रहस्य खुल गया। उसको कठोर दंड दिया गया। जहां छिप कर वह खून पीती थी उसी जगह उसे कैद कर रखा गया। वहीं एक दिन उसकी मौत हो गयी।

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

कमजोर केन्द्र का नतीजा

वर्षों पहले, ताऊ ने भी अपना वर्चस्व बनाने के लिए ऐसी ही हरकत की थी। अपने भड़काउ भाषणों के द्वारा महाराष्ट्र की जनता को दो फाड़ कर वहां अपना एकाधिकार जमाने की। पर उस समय दिल्ली में एक मजबूत सरकार के हाथों में देश की बागडोर थी, एक निडर और दबंग महिला के नेतृत्व में। एक सिर्फ एक घुड़की मिली थी और तथाकथित शेर अपनी मांद में दुबक गया था। हिम्मत नहीं हुई थी कि कोई जवाब भी दे पाता। पर आज मामला बिल्कुल उल्टा है। कोई भी आता है आंख दिखा कर चला जाता है। सरकार को अपनी ही भसूड़ी पड़ी हुई है। अपने आप को बचाएं या देश को देखें। हिमाकत इतनी बढ़ गयी है, छुटभैइयों तक की, कि चोरी भी करते हैं फिर सीनाजोरी भी दिखाते हैं। महाराष्ट्र सरकार की तो छोड़ीए केन्द्र ही हिम्मत नहीं जुटा पा रहा कोई सख्त कदम उठाने का। एक कमजोर, हताश, हिचकोले खाते नेतृत्व से आशा करना भी बेवकूफी ही है।

यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरे बिहार, यू.पी. के निवासियों के धैर्य और संयम की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। इनकी चुप्पी इनकी कमजोरी नहीं समझदारी है। प्रभू से यही प्रार्थना है कि इनकी बनाए रखे और उनकी लौटा दे।

सोमवार, 20 अक्तूबर 2008

बिना शीर्षक के

ठंड़ के दिन थे। एक गिद्ध पहाड़ की चोटी पर बैठा गुनगुनी धूप का आनंद ले रहा था। इतने में उधर से यमराज गुजरे। वहां गिद्ध को बैठा देख उनकी भृकुटी में बल पड़ गये। उन्होंने कुछ कहा नहीं, बस अपने रस्ते चले गये। पर इधर गिद्ध महाराज के तो देवता ही कूच कर गये। सही भी था जिसको साक्षात यमराज ही टेढ़ी नज़र से देख गये हों, उसका तो भगवान ही मालिक है। गिद्ध बेचारा डर के मारे कांपे जा रहा था, उसे आज अपना अंत साफ दिखाई पड़ रहा था। इतने में उधर से नारद मुनि निकले। गिद्ध की ऐसी बुरी दशा देख उन्होंने उससे पूछा, गिद्ध राज, क्या हुआ ऐसे क्यूं कांप रहे हो। गिद्ध की तो आवाज ही नहीं निकल रही थी। बड़ी मुश्किल से उसने सारी बात नारद जी को बताई। नारद जी बोले तुम डरो मत। यमराज तो धर्मराज हैं, बिना बात वे किसी को भी दंडित नहीं करते। फिर भी तुम सुरक्षा की दृष्टि से यहां से सौ योजन दूर मलय पर्वत पर चले जाओ, वहां एक गुफा है, उसके अंदर जा कर बैठ जाना। मैं यमराज जी से तुम्हारे बारे में बात करता हूं।
इस तरह गिद्ध को सुरक्षित जगह भेज नारद जी यमराज जी के पास गये और उनसे पूछा, महाराज, उस बेचारे गिद्ध से क्या भूल हो गयी, जो आप उस पर क्रुद्ध हो गये। यमराज जी बोले, नहीं तो, मैं क्रोधित नहीं इस बात को लेकर आश्चर्यचकित था, कि उस गिद्ध की मौत तो सौ योजन दूर मलय पर्वत की गुफा में होनी है। वह यहां कैसे बैठा हुआ है।

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

उसे अपनी माँ से विवाह करना पड़ा था, दुनिया की दर्दनाक कहानियों में से एक

कहते हैं कि विधि का लेख मिटाए नहीं मिटता। कितनों ने कितनी तरह की कोशीशें की पर हुआ वही जो निर्धारित था। राजा लायस और उसकी पत्नी जोकास्टा। इन्होंने भी प्रारब्ध को चुन्नौती दी थी, जिससे जन्म हुआ संसार की सबसे दर्दनाक कथा का।

यूनान में एक राज्य था थीबिज। इसके राजा लायस तथा रानी जोकास्टा के कोई संतान नहीं थी। कफी मिन्नतों और प्रार्थनाओं के बाद उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई थी। पर खुशियां ज्यादा दिन नहीं टिक सकीं। एक भविष्यवक्ता ने भविष्वाणी की कि उनका पुत्र, पित्रहंता होगा और अपनी ही मां से विवाह करेगा। यह जान दोनो आतंकित हो गये और अपने नवजात शिशु के हाथ पैर बंधवा कर उसे सिथेरन पर्वत पर फिंकवा दिया। पर बच्चे की मृत्यु नहीं लिखी हुई थी। जिस आदमी को यह काम सौंपा गया था, वह यह अमानवीय कार्य ना कर सका। उसने पहाड़ पर शिशु को पड़ोसी राज्य, कोरिंथ, के चरवाहे को दे बच्चे की जान बचा दी। उस चरवाहे ने अपने राजा 
पोलिबस, जिसकी कोई संतान नहीं थी, को खुश करने के लिए बच्चे को उसे सौंप दिया। रस्सी से बंधे होने के कारण शिशु के पांव सूज कर कुछ टेढे हो गये थे, जिनको देख कर पोलिबस के मुंह से निकला “ईडिपस” याने सूजे पैरोंवाला और यही नाम पड़ गया बच्चे का।     

समय बीतता गया। ईडिपस जवान हो गया। होनी ने अपना रंग दिखाया। एक समारोह में एक अतिथी ने उसका यह कह कर मजाक उड़ाया कि वह कोई राजकुमार नहीं है। वह तो कहीं पड़ा मिला था। ईडिपस के मन में शक घर कर गया। एक दिन बिना किसी को बताए वह अपोलो के विश्वप्रसिद्ध भविष्य वक्ता से मिलने निकल पड़ा। मंदिर की पुजारिन ने उसे स्पष्ट उत्तर तो दिया नहीं पर एक चेतावनी जरूर दी कि वह अपने पिता की खोज ना करे नहीं तो वह तुम्हारे हाथों मारा जाएगा और तुम अपनी ही मां से शादी करोगे।

ईडिपस यह सुन बहुत डर गया। उसने निर्णय लिया कि वह वापस कोरिंथ नहीं जाएगा। जब इसी उधेड़बुन में वह चला जा रहा था उसी समय सामने से लेयस अपने रथ पर सवार हो उधर से गुजर रहा था। लेयस का अंगरक्षक रास्ते से सबको हटाता जा रहा था। ईडिपस के मार्ग ना देने पर, अंगरक्षक से उसकी तकरार हो गयी, जिससे खुद को अपमानित महसूस कर ईडिपस ने उसकी हत्या कर दी। यह देख लेयस ने क्रोधित हो उस पर वार कर दिया, लड़ाई में लेयस मारा गया। अनजाने में ही सही ईडिपस के हाथों उसके पिता की हत्या हो ही गयी। इसके बाद भटकते-भटकते वह थीबिज जा पहुंचा। वहां जाने पर उसे मालुम पड़ा कि वहां के राजा की मौत हो चुकी है। जिसका फायदा उठा कर स्फिंक्स नामक एक दैत्य वहां के लोगों को परेशान करता रहता है। उसने एक शर्त रखी हुई थी कि जब तक कोई मेरी पहेली का जवाब नहीं देगा तब तक मैं यहां से नहीं जाऊंगा। उसकी उपस्थिति का मतलब था मौत, अकाल और सूखा। राज्य की ओर से घोषणा की गयी थी कि इस मुसीबत से जो छुटकारा दिलवाएगा उसे ही यहां का राजा बना दिया जाएगा तथा उसीके साथ मृत राजा की रानी की शादी भी कर दी जाएगी। ईडिपस ने यह घोषणा सुनी, उसने वापस तो लौटना नहीं था, एक अलग राज्य पा जाने का अवसर मिलते देख उसने पहेली का उत्तर देने की इच्छा जाहिर कर दी। उसे स्फिंक्स के पास पहूंचा दिया गया। डरावना स्फिंक्स उसे घूर रहा था पर इसने बिना डरे उससे सवाल पूछने को कहा। स्फिंक्स ने पूछा कि वह कौन सा प्राणी है जो सुबह चार पैरों से चलता है, दोपहर में दो पैरों से और शाम को तीन पांवों पर चलता है और वह सबसे ज्यादा शक्तिशाली अपने कम पांवों के समय होता है। ईडिपस ने बिना हिचके जवाब दिया कि वह प्राणी इंसान है। जो अपने शैशव काल में चार पैरों पर, जवानी यानि दोपहर में दो पैरों पर और बुढ़ापे में लकड़ी की सहायता से यानी तीन पैरों से चलता है। इतना सुनना था कि स्फिंक्स वहां से गायब हो गया। थीबिज की जनता ने राहत की सांस ली। घोषणा के अनुसार ईडिपस को वहां का राजा बना दिया गया और रानी जोकास्टा से उसका विवाह कर दिया गया।

होनी का खेल चलता रहा। दिन बीतते गये। ईडिपस सफलता पूर्वक थीबिज पर राज्य करता रहा। प्रजा खुशहाल थी। पूरे राज्य में सुख-शांति व समृद्धि का वातावरण था। यद्यपि रानी जोकास्टा ईडिपस से उम्र में काफी बड़ी थी फिर भी दोनों में अगाध प्रेम था। इनकी चार संतानें हुयीं। बच्चे जब जवान हो गये तो समय ने विपरीत करवट ली। राज्य में महामारी फैल गयी। लोग कीड़े-मकोंड़ों की तरह मरने लगे। तभी देववाणी हुई कि इस सब का कारण राजा लेयस का हत्यारा है। दुखी व परेशान जनता अपने राजा के पास पहुंची। ईडिपस ने वादा किया कि वह शीघ्र ही लेयस के हत्यारे को खोज निकालेगा। उसने राज्य के प्रसिद्ध भविष्यवक्ता टाइरसीज को आमंत्रित कर समस्या का निदान करने को कहा। टाइरसीज ने कहा, राजन कुछ चीजों का पता ना लगना ही अच्छा होता है। सच्चाई आप सह नहीं पायेंगें। पर ईडिपस ना माना उसने कहा प्रजा की भलाई के लिए मैं कुछ भी सहने को तैयार हूं । जब टाइरसीज फिर भी चुप रहा और ईडिपस के सारे निवेदन बेकार गये तो ईडिपस को गुस्सा आ गया और उसने टाइरसीज और उसकी विद्या को ही ठोंग करार दे दिया। इससे टाइरसीज भी आवेश में आ गया। उसने कहा कि आप सुनना ही चाहते हैं तो सुनें, आप ही राजा लेयस के हत्यारे हैं। वर्षों पहले आपने मार्ग ना छोड़ने के कारण जिसका वध किया था वही राजा लेयस आपके पिता थे। ईडैपस को सब याद आ गया। उसने चिंतित हो रानी से पूछ-ताछ की तो उसने विस्तार से अपनी बीती जिंदगी की सारी बातें बताईं कि राजा की मौत अपने ही बेटे के हाथों होनी थी। पर आप चिंता ना करें हमारा एक ही बेटा था जिसे राजा ने उसके पैदा होते ही मरवा दिया था। जोकास्टा ने ईडिपस को आश्वस्त करने के लिए उस आदमी को बुलवाया जिसे शिशु को मारने की जिम्मेदारी दी गयी थी। पर इस बार वह झूठ नहीं बोल पाया और उसने सारी बात सच-सच बता दी। रानी जोकास्टा सच जान पाप और शर्म से मर्माहत हो गयी। इतने कटु सत्य को वह सहन नहीं कर पायी। उसने उसी वक्त आत्महत्या कर ली। ईडिपस देर तक रानी जोकास्टा के शव पर यह कह कर रोता रहा कि तुमने तो अपने दुखों का अंत कर लिया, लेकिन मेरी सजा के लिए मौत भी कम है। उसी समय ईडिपस ने अपनी आंखें फोड़ लीं और महल से निकल गया। कुछ ही समय में उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया क्योंकि वह भी उसी पाप की उत्पत्ति था, जो भाग्यवश अनजाने में हो गया था।

शायद यह दुनिया की सबसे दर्दनाक कहानी है।

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

हंसाईयां

एक बार, एक नाई और एक जाट में बहस हो गयी। बतों-बातों में नाई ने कह दिया, जाट रे जाट तेरे सर पर खाट। जाट को इसका कोई उत्तर नहीं सूझा। वह चुप-चाप घर आ गया। रात भर वह सोचता रहा पर ऐसी कोई तुकबंदी उससे नहीं बन पायी। दूसरे दिन फिर दोनों का आमना-सामना हुआ। नाई जाट को देख व्यंग पूर्वक मुस्कुराने लगा तो जाट को ताव आ गया। उसने नाई से कहा, नाई रे नाई तेरे सर पर कोल्हू। नाई बोला, तुक नहीं मिला, तुक नहीं मिला। जाट ने जवाब दिया, तुक नहीं मिला तो क्या हुआ, खाट से भारी तो है।
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कूड़ा बिनने वाले संता और बंता को एक दिन कूडेदान में तीन बम मिल गये। आपस में सलाह कर वे बमों को थाने में जमा कराने चल पड़े। रास्ते में बंता ने पूछा कि यार इनमें से कोई फट गया तो?संता ने कुछ देर सोच कर जवाब दिया, कह देंगें कि दो ही मिले थे।
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पांच सितारा होटल में काम करते संता को कामचलाउ अंग्रेजी सिखाने के लिए बास ने उसे कोचिंग क्लास में भेजने का इंतजाम करवा दिया। एक महीने बाद उन्होंने अपने सहयोगियों को बताया कि कल मैंने संता की प्रोग्रेस की जानकारी के लिए उससे कहा कि अंग्रेजी की वर्णमाला सुनाओ, तो संता पूछने लगा कि सर बड़ी A B C D सुनाऊं या छोटी। यह सुन सारे जनों को हंसता देख बंता भी हंसने लगा। सारे जनों के जाने के बाद बंते ने बास से पूछा, सर फिर संते ने बड़ी A B C D सुनाई कि छोटी वाली।

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

'उपहार' जिसे लेने में अमेरीका हिचकता रहा

ऐसा ही हुआ था। अमेरीका अपनी स्वाधीनता की शताब्दी बड़े धूमधाम से मना रहा था। उनकी खुशी में खुद को शामिल करते हुए और अपनी मैत्री को मजबूत करने के लिए फ्रांस ने एक बेहतरीन तोहफा पेश करने की पेशकश की। परन्तु अमेरीका उसे स्वीकारने से हिचकिचाता रहा। कारण था उस तोहफे की स्थापना पर आनेवाला एक लाख डालर का खर्च। तोहफा था, स्वातंत्र्य प्रतिमा "Statue of Liberty"
इस प्रतिमा को फ्रांसीसी शिल्पकार फ्रैडरिक आगस्ट बार्थोल्डी ने बनाया था। इस पर लागत आयी थी करीब 2,50,000 डालर। जिसकी व्यवस्था फ्रांसीसी जनता ने स्वेच्छा से चंदा देकर की थी। फ्रांस ने इसके गढ़ने का खर्च उठाया था, पर इसकी स्थापना की जिम्मेदारी अमेरीकियों पर थी। न्यूयार्क के गवर्नर ने इस मैत्री प्रतीक को गले का फंदा ही कह दिया था। वहीं एक प्रमुख दैनिक ने इसे ऊल-जलूल रचना करार दिया तो एक दूसरे पत्र ने तो इसको बेच कर कुछ रकम कमाने की नसीहत ही दे डाली थी। अर्से तक यह प्रतिमा, जो आज अमेरीका का गौरव है, उपेक्षित सी पेरिस में ही पड़ी रही। लेकिन जोजेफ पुलित्जर ने, जो न्यूयार्क वर्ल्ड के प्रकाशक थे, इस कलात्मक प्रतिमा को अमेरीका लाने के उद्देश्य से एक कोष की स्थापना की, जिसमें देखते ही देखते लाखों डालर जमा हो गये। इसी बीच अमेरीकी कांग्रेस ने इसकी स्थापना के लिए बेडलोज टापू के उपयोग की स्वीकृति भी दे दी। जिसे सन 1960 में 'लिबर्टी आइलैंड' का नाम दिया गया।
सारी बाधाएं दूर होने पर May 1885 में, प्रतिमा को विखंडित कर, 214 बक्सों में बंद कर, इसेरो नामक जहाज में लाद कर बेडलोज टापू पर लाया गया और 4 जुलाई 1886 को अपने स्थान पर स्थापित कर दिया गया। 151 फीट ऊंची, तांबे की सवा तीन इंच मोटी चादर से बनी इस प्रतिमा का कुल वजन 4,50,000 पौंड है। इसकी दहिनी भुजा की लंबाई 42 फीट है, जो 29 फीट 2 इंच बड़ी मशाल थामे हुए है। इसके बायें हाथ में 23 फीट की एक चौकोर पट्टिका है, जिस पर 4 जुलाई 1886 अंकित है। अपने आधार स्तंभ, जिसकी ऊंचाई 149 फीट है, को लेकर इस प्रतिमा की कुल ऊंचाई 300 फीट है।
सन 1924 में इसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया। आज इसे देखने के लिए दुनिया के कोने-कोने से भीड़ उमड़ती है और कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब बैट्री पार्क से यात्रियों को ले जाने वाले स्टीमर को कुछ आराम मिल पाता हो।

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

नोबेल फाउंडेशन ने ग्यारह बार अनदेखी की थी नेहरूजी की

यह तो सभी जानते हैं कि पुर्वाग्रहों के चलते, शांति पुरस्कार के लिए, नोबेल फाउंडेशन ने गांधीजी की अनदेखी की थी। बाद में नोबेल समिति ने अपनी भूल मान भी ली थी। हालांकि सारी कार्यवाही गोपनीय होती है। लेकिन अभी इस समिति ने 1901 से 1956 तक का पूरा ब्योरा सार्वजनिक किया है, जिससे पता चलता है कि इस फाउंडेशन ने भारत के पहले प्रधान मंत्री के नाम को भी गंभीरता से नहीं लिया। वह भी एक-दो बार नहीं, पूरे ग्यारह बार उनके नाम को खारिज किया गया।
1950 में नेहरुजी के नाम से दो प्रस्ताव भेजे गये थे। उन्हें अपनी गुटनिरपेक्ष विदेश नीति और अहिंसा के सिद्धांतो के पालन करने के कारण नामांकित किया गया था। पर उस समय राल्फ बुंचे को फिलीस्तीन में मध्यस्थता करने के उपलक्ष्य में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। 1951 में नेहरूजी को तीन नामांकन हासिल हुए थे। पर उस बार फ्रांसीसी ट्रेड यूनियन नेता लियोन जोहाक्स को चुन लिया गया था। 1953 में भी नेहरुजी का नाम बेल्जियम के सांसदों की ओर से प्रस्तावित किया गया था, लेकिन इस वर्ष यह पुरस्कार, द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिकी सेनाओं का नेतृत्व करनेवाले जार्ज सी. मार्शल के हक में चला गया। 1954 में फिर नेहरुजी को दो नामांकन प्राप्त हुए, पर फिर कहीं ना कहीं तकदीर आड़े आयी और इस बार यह पुरस्कार किसी इंसान को नहीं, बल्कि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय के पक्ष में चला गया। अंतिम बार नेहरुजी का नाम 1955 में भी प्रस्तावित किया गया था। परन्तु इस बार यह खिताब किसी को भी ना देकर इसकी राशि पुरस्कार संबंधी विशेष कोष में जमा कर दी गयी थी।
ऐसा तो नहीं था कि गोरे-काले का भेद भाव या फिर एक ऐसे देश, जो वर्षों गोरों का गुलाम रहा हो, का प्रतिनिधित्व करनेवाले इंसान को यह पुरस्कार देना उन्हें नागवार गुजरा हो।

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

हसने का कोई समय होता है क्या?

बंताजी ने अपने घर के ऊपर का हिस्सा एक फौजी को किराए पर दे दिया। फौजी ठहरा फौजी। रोज आधी रात को अपने भारी-भरकम जूतों के साथ धम-धम करता सीढ़ियां चढ़े, अपने कमरे में जा, अपने जूतों को खोल एक को इधर फेंके दूसरे को उधर, रात को भारी जूतों की आवाज से बंता परिवार परेशान। एक दिन हिम्मत कर बंताजी ने फौजी को कहा कि आप रात को अपने जूते फेंकें नहीं, आवाज से बच्चे डर जाते हैं। फौजी ने कहा कि आज से आवाज नहीं होगी, आप आराम से सोयें। रात को फौजी लौटा, कमरे में जा उसने एक जूता उतार कर फेंका तो उसे सबेरे की बात याद आ गयी। उसने दूसरा जूता धीरे से उतार कर रखा और सो गया। सबेरे उठ उसने बंताजी से पूछा, क्योंजी रात ठीक से नींद आई? बंताजी बोले कहांजी हम तो रात भर दूसरे जूते के गिरने का इंतजार करते रह गये।
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चर्च में पादरी शराब की बुराईयों को उदाहरण दे कर समझा रहा था, यदि शराब पैर से भी छू जाए तो नरक जाना पड़ता है। डेविड बताओ क्या समझे?फ़ादर, ऐसी चीज को जो पैर लगायेगा, वह नरक में जायेगा।
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संता गंभीर अपराध में पकड़ा गया। उसने वकील से कहा कि चाहे लाखों रुपये लग जायें, मुझे सजा नहीं होनी चाहिये। वकील ने सांत्वना दी, इतने रुपये रहते मैं सजा नहीं होने दूंगा। सचमुच संता के पास जबतक एक भी पैसा रहा, वकील ने सजा नहीं होने दी।

आस्था ने चमत्कार दिखाया

आज के मशीनी युग में आस्था, विश्वास, चमत्कार जैसी बातें दकियानुसी लगती हैं। पर कभी-कभी कुछ ऐसा हो जाता है, जिसे आस्थावान चमत्कार, पर भोतिकवादी संयोग कह कर संतुष्ट हो जाते हैं। बिना लाग-लपेट के एक सच्ची घटना बता रहा हूं। अब इसे चाहे संयोग माने चाहे आस्था का चमत्कार।
राजस्थान के मेंहदीपुर जिले में हनुमानजी के बाल रूप की पूजा “बालाजी महाराज” के रूप में होती है। मान्यता है कि दुनिया भर की अलाओं-बलाओं का निवारण यहां होता है। वह भी स्वयं बालाजी द्वारा। किसी पण्डे, पुजारी या झाड़-फूंक करनेवाले की कोई भूमिका यहां नहीं होती। हजारों मरीज ठीक हो कर जाते हैं यहां से, जिनमें डाक्टर, इंजिनियर, वकील, सरकारी अफसर, अमीर-गरीब सभी शामिल हैं।
यहां बिना टिप्पणी, एक घटना का जिक्र करना चाहता हूं। बात सात-आठ साल पहले दिल्ली की है। मेरी एक दूर के रिश्ते की मामीजी हैं, वह फरिदाबाद में रहती हैं। उनकी हनुमानजी में अटूट श्रद्धा है। बहुत कम लोगों में ऐसी आस्था देखी है मैंने। एक बार उन्हीं के जोर देने के कारण मुझे, मेंहदीपुर जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मैं, मेरे दो कजिन, मामीजी तथा उनका पुत्र, पांचो जने मंदिर की संगत के साथ, हनुमानजी के दर्शन करने वहां गये थे। वहां का दस्तूर है कि मंदिर पहुंचते ही सबसे पहले बालाजी की मुर्ती के सामने, जिसे दरबार कहते हैं, अपनी हाजिरी लगवानी होती है। उसी तरह लौटते समय उनकी इजाजत लेने का नियम है। इजाजत लेते समय प्रभू से प्रार्थना करनी पड़ती है कि वे अपना गण हमारे साथ भेजें ,जिससे हम सहीसलामत अपने घर वापस पहुंच सकें। हो सकता है कि वर्षों पहले जब वहां घना जंगल हुआ करता था, तो ऐसी प्रार्थना , यत्रियों को अतिरिक्त मनोबल प्रदान करती हो। अब तो सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं। बसों, गाड़ियों की भरमार है। फ़िर भी प्रथा चली आ रही है।
पूजा-अर्चना कर दूसरे दिन दोपहर बाद साढे तीन बजे हमने दिल्ली के लिए बस पकड़ी। जिसने करीब दस बजे हमें दिल्ली के, धौला कुआं बस टर्मिनल पर उतार दिया। यहां से हमें जनकपुरी जो मुश्किल से आठ-दस किमी है, जाना था और मामीजी को फरिदाबाद, जो दिल्ली यू.पी. के बार्डर पर स्थित है, जहां जाने के लिए उस समय उन्हें तीन बार वाहन बदलना पड़ना था। धौला कूआं से आश्रम, आश्रम से फरिदाबाद मोड़ तथा वहां से उनके घर तक। क्योंकि उस समय फरिदाबाद के लिए अंतिम बस जा चुकी थी। आम समय में ही उतनी दूर जाने में ड़ेढ एक घंटा लग जाता है। रात गहराते देख हमने बहुत जोर लगाया कि रात आप जनकपुरी में ही रुक जाएं, पर उन्होंने हमारी एक ना सुनी। उसी समय उन्हें पहले पड़ाव की बस मिली और वे दोनो मां बेटा उसमें चले गये। हमे करीब आधे घंटे के बाद बस मिली। हम तकरीबन सवा ग्यारह बजे घर पहुंच गये। अभी बैठे कुछ ही देर हुए थी कि फरिदाबद से मामीजी के घर पहुंचने का फोन आ गया। इतनी जल्दि उनके पहुंचने का सुन जहां मन चिंता मुक्त हुआ वहीं आश्चर्य से ही भर गया।
सुबह उन्होंने विस्तार से जो जानकारी दी वह मैं संक्षेप में आप को बता रहा हूं। धौला कूआं से जब वह आश्रम वाले स्टाप पर उतरीं तो वहां बिल्कुल सुनसान था। फरिदाबाद की तरफ़ जानेवाली बस के स्टाप पर भी कोई नहीं था। आंच मिनट बाद पता नहीं कहां से एक लड़का आया, हमें वहां खड़े देख, उसके पूछने पर, जब हमने अपनी बात बताई तो उसने कहा कि फरिदाबाद की बस तो जा चुकी है पर आप घबड़ायें नहीं कुछ ना कुछ इंतजाम हो जायेगा। थोड़ी देर बाद पता नहीं कहां से एक थ्री व्हिलर लेकर आया और बोला कि वैसे तो इन वाहनों का बार्डर पार करना मना है, पर आपको यह फरिदाबाद मोड़ तक छोड़ आयेगा। इसके पहले की उसे हम धन्यवाद के दो शब्द कह पाते, वह अंधेरे में गायब हो गया। रात को मन थोड़ा घबरा रहा था, पर मुझे अपने बालाजी पर पूर्ण विश्वास था, सो तनिक भी डर नहीं लग रहा था। स्कूटर ने जब हमें मोड़ पर उतारा, ग्यारह के ऊपर बज चुके थे और वहां भी सन्नाटा छाया हुआ था। उसी समय वहां से एक टेम्पो निकल रहा था, हमें खड़े देख हमारा गंत्व्य पूछ बोला, कि उधर तो नहीं जा रहा हूं, पर इतनी रात में आप परेशान होंगी सो आपको घर पहुंचा कर चला जाऊंगा। इसतरह बालाजी की कृपा से मैं आपलोगों के साथ-साथ ही घर पहुंच गयी।
अब सोचता हूं कि क्या वह सब संयोग था? उस भद्र महिला का कैसा अटूट विश्वास था, जिसने उनका मनोबल बनाये रखा? या सचमुच अदृष्य शक्तियां होती हैं जो अपने पर पूरी आस्था रखनेवालों का सदा साथ देती हैं। क्या कोई जवाब है इसका?

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

शिबु रिक्शेवाला

आजकल जब स्कूल जाते बच्चों को रिक्शे पर लदे हुए देखता हूं तो अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं। तब रिक्शे में लदा नहीं बैठा जाता था। हां यदि मां-बाप के साथ छोटे बच्चे होते थे तब तो एक ही रिक्शे से काम चल जाता था। परन्तु बड़े बच्चों के लिए अलग से रिक्शा किया जाता था। यही अघोषित परंपरा थी। शायद ही कभी दो की जगह तीन सवारियां किसी रिक्शे पर दिखाई पड़ती थीं। अपने वाहन बहुत कम होते थे। रिक्शों का चलन आम था। उन्हीं दिनों मैं और मेरा हम-उम्र सहपाठी मंजीत सिंह, दोनो करीब दस-ग्यारह साल के, एक रिक्शे में स्कूल जाया करते थे। स्कूल कोई सात-आठ किमी दूर था। स्कूलों में भी आजकल जैसी अफरातफरी का माहौल नहीं हुआ करता था। सही मायनों में शिक्षा देने की परंपरा अभी जीवित थी। गर्मियों में बच्चों का ध्यान रखते हुए स्कूल सुबह के हो जाते थे, सात से ग्यारह। बाकी महिनों में वही दस से चार का समय रहता था। स्कूल की तरह ही रिक्शेवाले भी वर्षों वर्ष एक ही रहते थे, लाने-ले-जाने के लिए। इससे बच्चे भी उन्हें परिवार का ही अंग समझने लगते थे। उनसे जिद्द, मनुहार आम बात होती थी। आपको बात बतानी थी, अपने रिक्शेवाले की। वह उड़िसा का रहनेवाला था, जितना याद पड़ता है, उम्र ज्यादा नहीं थी, कोई पच्चिस-छब्बीस साल का होगा। उसको सब शिबु कह कर पुकारते थे। नाम तो शायद उसका शिव रहा होगा, पर जैसा कि बंगला या उड़िया उच्चारणों में होता है, वह शिवो और शिवो से शिबु हो गया होगा। जैसा अब समझ में आता है। उसके हम पर स्नेह के कारण शायद उसका नाम मुझे अभी तक याद है। जैसा कि होता है, एक ही दिशा से स्कूल की तरफ कयी रिक्शा वाले अपनी-अपनी बच्चा सवारियों के साथ आते थे। कयी बार अपने रिक्शे से किसी और रिक्शे को आगे होते देख बाल सुलभ इर्ष्या के कारण हम शिबु को और तेज चलने के लिए उकसाते थे और इस तरह रोज ही ‘रेस-रेस खेल’ हो जाता था। स्कूल आने-जाने के दो रास्ते थे। एक प्रमुख सड़क से तथा दूसरा घुमावदार, कुछ लंबा। शिबु अक्सर हमें लंबे रास्ते से वापस लाया करता था। उस रास्ते पर एक बड़ा बाग हुआ करता था। बाग में एक खूब बड़ी फिसलन-पट्टी भी थी। हमारे हंसने-खेलने के लिए वह अक्सर वहां घंटे-आध-घंटे के लिए रुक जाता था। जब तक हम वहां धमा-चौकड़ी मचाते थे तब तक वह पीपल के पेड़ के पत्ते में पीपल का सफेद दूध इकट्ठा करता रहता था। एक-एक बूंद से अच्छा खासा द्रव्य इकट्ठा कर वह दोने को हमें पकड़ा देता था उसी के साथ पत्ते की नाल को मोड़ एक रिंग नुमा गोला भी थमा देता था। उसने हमें बताया हुआ था कि उस से बुलबुले कैसे बनाये जाते हैं। आजकल साबुन के घोल से जैसे बनाते हैं वैसे ही। उन दिनों यह सब सामान्य लगता था। पर आज के परिवेश को देखते हुए जब सोचता हूं तो अचंभा होता है। क्या जरूरत थी शिबु को सिर्फ हमारी खुशी के लिए लंबा चक्कर काटने की? अपना समय खराब कर धैर्य पूर्वक पीपल का रस इकट्ठा करने की? हमें हंसता खुश होता देखने की? हमारी खुशी के लिए अपना पसीना बहा रोज रेस लगाने की? खूद गीले होने की परवाह ना कर बरसातों में हमें भरसक सूखा रखने की? जबकी इसके बदले नाही उसे अलग से पैसा मिलता था नाही और कोई लाभ। कभी देर-सबेर की कोयी शिकायत नहीं। क्या ऐसी बात थी कि उसके रहते हमारे घरवालों को कभी हमारी चिंता नहीं रहती थी। शायद उसके इसी स्नेह से हम रोज स्कूल जाने के लिए भी उत्साहित रहते थे। आज वह पता नहीं कहां होगा। पर जहां भी होगा, खुश रह कर खुशियां बांट रहा होगा, क्योंकि दूसरों को खुश रखने वालों के पास दुख नहीं फटका करता।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

पौराणिक काल में यदि पशु-पक्षी संरक्षण जैसी कोई संस्था होती तो ?

दूसरी ओर बेचारे असुर पैदल, दौड़ते-भागते रह कर ही युद्ध लड़ने को मजबूर थे। उनमें कोई बड़ा ओहदेदार हुआ तो उसे स्वचालित रथ वगैरह मिल जाते थे। अब यदि आज जैसी कोई संस्था होती तो सारे पशु-पक्षियों को भार मुक्त कर दिया जाता ! लड़ाईयां बराबरी पर लड़ी जातीं । सभी जानते हैं कि अधिकतम बार असुर, सुरों पर भारी पड़ते रहते थे ! तब देवताओं की तो बोलती बंद होती और असुरों की तूती का शोर मचा होता। किस्से-कहानियां, कथाएं-ग्रंथ सब, प्रथानुसार विजेता का ही स्तुति गान करते और हम सब भी अपने उन्हीं पूर्वजों का गुण-गान कर गौरवान्वित होते रहते..........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
जरा सोचिए, यदि एनिमल वेलफेयर एसोसिएशन या पशु-पक्षी संरक्षण समिति जैसी संस्थाएं पौराणिक काल में ही अस्तित्व में आ जातीं तो इस संसार की तो छोड़िए हमारे देश का परिदृष्य कैसा होता ? हमारे दोनों महान ग्रंथों की कथाएं कैसी होतीं ? वे लिखे भी जा पाते या नहीं ? इनके लेखकों को अभिव्यक्ति की कितनी भी आजादी होती पर क्या वे स्वतंत्र रूप से कुछ रच भी पाते ? जरा सोचिए ! यदि ऐसा हो गया होता तो आज हम क्या पढ़ रहे होते ? पता नहीं पढ़ भी रहे होते कि नहीं !

रामायण काल की बात करें तो शायद आज हम राक्षसराज रावण की पूजा कर रहे होते। क्योंकि महर्षि वाल्मिकी हिरण जैसे मासूम जीव का वध करवा नहीं पाते ! जब हिरण वध के लिए राम आश्रम छोड़ते ही नहीं तो सीता हरण हो ही नहीं पाता ! और जब सीता हरण ही नहीं होता तो फिर युद्ध किस बात का ? यदि युद्ध का कोई और बहाना खोजा जाता तो रामजी  सेना कहाँ से लाते ? वानर, भालुओं की सेना तो बनने नहीं दी जाती। हनुमानजी किसी भी तरह साथ हो भी लेते तो उन बेचारे को तो तरह-तरह के आरोपों से परेशान कर दिया जाता ! सोच कर देखिए, उत्तरांचल के लोग संजीवनी के लिए द्रोणगिरी पर्वत हटाने के कारण उनसे आज तक खफा हैं। वैसा कुछ होता तो क्या होता ! लंका की अशोक वाटिका में हजारों पेड़-पौधों के तहस नहस करने का हिसाब साफ़ करने के लिए पता नहीं कितनी सफाई देनी पड़ती ! मान लीजिए यदि किसी भी तरह यदि सेना बन भी जाती तो सेतु-बंध के नाम पर सागर किनारे की पहाड़ियों के पत्थर सागर में डाल कर वहां की भूमि का समतलीकरण कर दिया गया ! हजारों-लाखों वृक्ष, पेड़ उखड़ने से वहाँ के पर्यावरण पर जो असर पड़ा, इतने सारे वृक्ष, पेड़, पौधे, पर्वत शिलाओं को सागर में फेंकने से जो प्रकृति का संतुलन बिगड़ा, उसका तो जांच आयोग के सामने जवाब देना मुश्किल हो जाता कि इसका जवाबदार कौन है ? क्या लगता है कि इन सब पचड़ों के बीच युद्ध हो पाता ? और अगर वह महासमर ना होता तो कल्पना की ही जा सकती है रावण के साम्राज्य की।
  
उधर यदि बात करें श्री कृष्ण जी की तो उन्होंने तो बचपन में ही अनगिनत खतरनाक लुप्तप्राय जीवों को दूसरे लोक भेजने में अहम् भूमिका निभाई थी। यदि उनको संरक्षण मिल गया होता तो आज हमारे यहां दानवी शक्तियों का ही बोल-बाला होता। हमारे धर्म-ग्रन्थों की तस्वीर तो कुछ अलग होती ही, शायद धरा पर असुरों का ही राज होता। क्योंकि सारे देवी-देवताओं ने अपने वाहनों के रूप में पशु-पक्षियों को ही प्रमुखता दे रखी है। तीनों महाशक्तियों को देखिए, शिवजी के परिवार में, बैल शंकरजी का वाहन है, मां पार्वती का वाहन सिंह है, कार्तिकेयजी मोर पर सवार हैं तो गणेशजी को चूहा पसंद है। विष्णुजी का भार गरुड़जी उठाते हैं तो मां लक्ष्मी की सवारी उल्लू है। ब्रह्माजी तथा मां सरस्वती हंस पर आते-जाते हैं। इंद्र को हाथी प्यारा है तो सूर्यदेव ने सात-सात घोड़े अपने रथ में जोड़ रखे हैं। कहां तक गिनायेंगे।

दूसरी ओर बेचारे असुर पैदल, दौड़ते-भागते रह कर ही युद्ध लड़ने को मजबूर थे। उनमें कोई बड़ा ओहदेदार हुआ तो उसे स्वचालित रथ वगैरह मिल जाते थे। अब यदि आज जैसी कोई संस्था होती तो सारे पशु-पक्षियों को भार मुक्त कर दिया जाता ! लड़ाईयां बराबरी पर लड़ी जातीं । सभी जानते हैं कि अधिकतम बार असुर, सुरों पर भारी पड़ते रहते थे ! तब देवताओं की तो बोलती बंद होती और असुरों की तूती का शोर मचा होता। किस्से-कहानियां, कथाएं-ग्रंथ सब, प्रथानुसार विजेता का ही स्तुति गान करते और हम सब भी अपने उन्हीं पूर्वजों का गुण-गान कर गौरवान्वित होते रहते ! 

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

क्या रावण सच में निंदा का पात्र है ? आगे--------------

रावण ने धैर्य नहीं खोया। उस समय यदि वह चाहता तो अपने इन्द्र को जीतनेवाले बेटे तथा महाबली भाई कुम्भकर्ण के साथ अपनी दिग्विजयी सेना को भेज दोनो भाईयों को मरवा सकता था। हालांकि राम-लक्ष्मण ने खर दूषण का वध किया था, पर उनकी सेना और रावण की सेना में जमीन आसमान का फर्क था। जब हनुमानजी तथा और वानर वीरों के रहते युद्ध के दौरान इन दोनों पर घोर संकट आ सकता था तो उस समय तो दोनो भाई अकेले ही थे। पर रावण यह भी जानता था कि ये दोनो भाई साधारण मानव नहीं हैं और युद्ध की स्थिति में लंका को और उसके निवासियों को भी खतरा था। इसलिए रावण ने युद्ध टालने के लिए सीता हरण की योजना बनाई। उसका विश्वास था कि सीताजी के वियोग में यदि राम प्राण त्याग देते हैं तो लक्ष्मण का जिंदा रहना भी नामुमकिन होगा। सीताजी के हरण के पश्चात उसने उन्हें अपने महल में ना रख, अशोक वाटिका में महिला निरिक्षकों की निगरानी में ही रखा और कभी भी उनके पास अकेला बात करने नहीं गया।
वैसे भी सीता हरण उसकी मजबूरी थी। एक विश्व विजेता की बहन का सरेआम अपमान हुआ और वह चुप्पी साध कर बैठा रहता तो क्या इज्जत रह जाती उसकी। इसके अलावा सिर्फ दो मानवों को मारने के लिए यदि वह अपनी सेना भेजता तो यह भी किसी तरह उसकी ख्याति के लायक बात नहीं थी। यह काम भी उसके अपमान का सबब बनता।
पर रावण की योजना उस समय विफल हो गयी जब हनुमानजी ने राम-सुग्रीव की मैत्री का गठबंधन करवा दिया। उसके बाद अलंघ्य सागर ने भी राम की सेना को मार्ग दे दिया। फिर भी वह महान योद्धा विचलित नहीं हुआ। एक-एक कर अपने प्रियजनों की मृत्यु पर भी उसने बदले की भावना के वश सीताजी को क्षति पहुंचाने का उपक्रम नहीं किया।
विभिन्न कथाकारों ने रावण को कामी, क्रोधी, दंभी तथा निरंकुश शासक निरुपित किया है। पर ध्यान देने की बात है कि जिसमें इतने अवगुण हों वह क्या कभी देवताओं द्वारा पोषित उनके कोष के रक्षक कुबेर को परास्त कर अपनी लंका वापस ले सकता था? शिवजी के महाबली गण नंदी को परास्त करना क्या किसी कामी-क्रोधी का काम हो सकता था? शिवजी को प्रसन्न कर उनका चंद्रहास खड़्ग लेना क्या किसी अधर्मी के वश की बात थी? देवासुर संग्राम में जब मेघनाद ने इंद्र को पराजित किया, उस समय युद्ध में भगवान विष्णु और शिवजी ने भी भाग लिया था। वे भी क्या रावण को रोक पाये थे? ऐसा महाबली क्या भोग विलास में लिप्त रहनेवाला हो सकता है?
युद्ध के दौरान दोनों पक्षों ने शक्ति की पूजा की थी। मां ने दोनों को दर्शन दिये थे। पर राम को वरदान मिला, विजयी भव का, और रावण को कल्याण हो। रावण का कल्याण असुर योनी से मुक्ति में ही था। सबसे बड़ी बात यदि रावण बुराइयों का पुतला होता तो क्या सर्वज्ञ साक्षात विष्णु के अवतार, अपने ही अंश लक्ष्मण को रावण से ज्ञान लेने भेजते?
हमारे ऋषि-मुनिओं ने सदा अहंकार से दूर रहने की चेतावनी दी है। यह किसी भी रूप में हो सकता है, शक्ति का, रूप का, धन का यहां तक की भक्ति का भी। ऐसा जब-जब हुआ है, उसका फल अभिमानी को भुगतना पड़ा है। फिर वह चाहे इंद्र हो, नारद हो, कोई महर्षि हो या रावण हो। पर शायद रावण के साथ ही ऐसा हुआ है कि प्रायश्चित के बावजूद, सदियां गुजर जाने के बाद भी बदनामी ने उसका पीछा नहीं छोड़ा है। आज भी उसे बुराईयों का पर्याय माना जाता है।
पर क्या यह उचित है ???

क्या रावण सच में निंदा का पात्र है ?

महर्षि वाल्मिकी एक कवि तथा कथाकार के साथ-साथ इतिहासकार भी थे। राम और रावण उनके समकालीन थे। इसलिए उनके द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामायण’ यथार्थ के ज्यादा करीब माना जाता है। बाकी जितनों ने भी राम कथा की रचना की है, उस पर समकालीन माहौल, सोच तथा जनता की भावनाओं का प्रभाव अपनी छाप छोड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तुलसीदास कृत राम चरित मानस है। तुलसी दास के आराध्य श्री राम रहे हैं तो उनके चरित्र का महिमामंडित होना स्वाभाविक है। परन्तु वाल्मिकीजी राम और रावण के समकालीन थे सो उन्होंने राम के साथ-साथ रावण का भी अद्भुत रूप से चरित्र चित्रण किया है। उनके अनुसार ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य और पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की चार संतानों में रावण अग्रज था। इस प्रकर वह ब्रह्माजी का वंशज था।
महर्षि कश्यप की पत्नियां, अदिति जो देवताओं की जननी थीं और दिति जिन्होंने दानवों को जन्म दिया था, आपस में बहनें थीं। इस प्रकार सुर और असुर सौतेले भाई थे। विचारों, परिवेश तथा माहौल इत्यादि के अलग होने के कारण उनका कभी भी मतैक्य नहीं हो पाया। जिससे सदा अनबन बनी रहती थी जिसके फलस्वरूप युद्ध होते रहते थे। जिनमें ज्यादातर दैत्यों की पराजय होती थी। दैत्यों के पराभव को देख कर रावण ने दीर्घ तथा कठोर तप कर ब्रह्माजी से तरह-तरह के वरदान प्राप्त कर लिए थे एवं उन्हीं के प्रभाव से शक्तिशाली हो अपने नाना की नगरी लंका पर फिर से अधिकार कर लिया था। उसने लंका को स्वर्ग से भी सुंदर, अभेद्य तथा सुरक्षित बना दिया था। उसके राज में नागरिक सुखी, संपन्न तथा खुशहाल थे। लंका के वैभव का यह हाल था कि जब हनुमानजी सीताजी की खोज में वहां गये तो उन जैसा ज्ञानी भी वहां का वैभव और सौंदर्य देख ठगा सा रह गया था।
वाल्मिकी रामायण में रावण एक वीर, धर्मात्मा, ज्ञानी, नीति तथा राजनीति शास्त्र का ज्ञाता, वैज्ञानिक, ज्योतिषाचार्य, रणनीति में निपुण, स्वाभिमानी, परम शिव भक्त तथा महान योद्धा निरुपित है। उसका एक ही दुर्गुण था अभिमान, अपनी शक्ति का अहम जो अंतत: उसके विनाश का कारण बना। यदि निष्पक्ष रूप से कथा का विवेचन किया जाए तो साफ देखा जा सकता है कि रावण का चरित्र उस तरह का नहीं था जैसा कालांतर में लोगों में बन गया या बना दिया गया।
श्री राम ने लंका की तरफ बढ़ते हुए तेरह सालों में अनगिनत राक्षसों का वध किया था पर कभी भी आवेश में या क्रोधावश रावण ने राम से युद्ध करने की कोशिश नहीं की। जब देवताओं ने देखा कि कोई भी उपाय रावण को उत्तेजित नहीं कर पा रहा है तो उन्होंने शूर्पणखा कांड की रचना की। वह अभागिन, मंद बुद्धि राक्षस कन्या अपने भाई के समूचे परिवार के नाश का कारण बनी। उसको बदसूरत किया जाना रावण को खुली चुन्नौती थी। पर रावण ने फिर भी धैर्य नहीं खोया था।
*बाकी कल दशहरे के दिन---------

"मां सिद्धिदात्री" देवी दुर्गा का नौवां स्वरूप

नवरात्र-पूजन के नवें दिन "मां सिद्धिदात्री" की पूजा का विधान है।मार्कण्डेयपुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व , ये आठ प्रकार की सिद्धियां होती हैं। मां इन सभी प्रकार की सिद्धियों को देनेवाली हैं। इनकी उपासना पूर्ण कर लेने पर भक्तों और साधकों की लौकिक-परलौकिक कोई भी कामना अधुरी नहीं रह जाती। परन्तु मां सिद्धिदात्री के कृपापात्रों के मन में किसी तरह की इच्छा बची भी नही रह जाती है। वह विषय-भोग-शून्य हो जाता है। मां का सानिध्य ही उसका सर्वस्व हो जाता है। संसार में व्याप्त समस्त दुखों से छुटकारा पाकर इस जीवन में सुख भोग कर मोक्ष को भी प्राप्त करने की क्षमता आराधक को प्राप्त हो जाती है। इस अवस्था को पाने के लिए निरंतर नियमबद्ध रह कर मां की उपासना करनी चाहिए।
मां सिद्धिदात्री कमलासन पर विराजमान हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। ऊपरवाले दाहिने हाथ में गदा तथा नीचेवाले दाहिने हाथ में चक्र है। ऊपरवाले बायें हाथ में कमल पुष्प तथा नीचेवाले हाथ में शंख है। इनका वाहन सिंह है। देवी पुराण के अनुसार भगवान शिव को भी इन्हीं की कृपा से ही सारी सिद्धियों की प्राप्ति हुई थी। इनकी ही अनुकंपा से शिवजी का आधा शरीर देवी का हुआ था और वे "अर्धनारीश्वर" कहलाये थे।
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सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि ।
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।।
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देखते-देखते मां की विदाई का समय आ गया। आज अपने बच्चों पर आशिषों की वर्षा कर वे अपने धाम चली जाएंगी। भक्तों की आखों में आंसू होंगे पर ऐसा लगेगा जैसे मां कह रही हों कि मैं तुमसे दूर भला कहां हूं। मां अपने बच्चों से अलग कहां रह सकती है। बच्चे ही मां को याद नहीं रखते मां कहां भूल पाती है किसी को।
आईए हम सब मिलकर प्रार्थना करें, कि मां इसी तरह हर साल आ कर हमें स्वस्थ, सुखी, शान्तियुक्त पाती रहें। हम कभी उनके चरणों के ध्यान को ना बिसराएं। आमीन।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

आविष्कार की मां का नाम आवश्यकता है

इस शीर्षक को जापानियों ने सही ठहराया है, अपने मछली प्रेम से।

जापानियों का मछली प्रेम जग जाहिर है। परन्तु वे व्यंजन से ज्यादा उसके ताजेपन को अहमियत देते हैं। परन्तु आज कल प्रदुषण के कारण समुद्री तट के आसपास मछलियों का मिलना लगभग खत्म हो गया है। इसलिए मछुवारों को गहरे समुद्र की ओर जाना पड़ता था। इससे मछलियां तो काफी तादाद में मिल जाती थीं, पर आने-जाने में लगने वाले समय से उनका ताजापन खत्म हो जाता था। मेहनत ज्यादा बिक्री कम, मछुवारे परेशान। फिर इसका एक हल निकाला गया। नौकाओं में फ्रिजरों का इंतजाम किया गया, मछली पकड़ी, फ्रिजर में रख दी, बासी होने का डर खत्म। मछुवारे खुश क्योंकि इससे उन्हें और ज्यादा शिकार करने का समय मिलने लग गया। परन्तु वह समस्या ही क्या जो ना आए। जापानिओं को ज्यादा देर तक फ्रिज की गयी मछलियों का स्वाद नागवार गुजरने लगा। मछुए फिर परेशान। पर मछुवारों ने भी हार नहीं मानी। उन्होंने नौका में बड़े-बड़े बक्से बनवाए और उनमें पानी भर कर मछलियों को जिन्दा छोड़ दिया। मछलियां ग्राहकों तक फिर ताजा पहुंचने लगीं। पर वाह रे जापानी जिव्हो, उन्हे फिर स्वाद में कमी महसूस होने लगी। क्योंकि ठहरे पानी में कुछ ही देर मेँ मछलियां सुस्त हो जाती थीं और इस कारण उनके स्वाद में फ़र्क आ जाता था। पर जुझारु जापानी मछुवारों ने हिम्मत नहीं हारी और एक ऐसी तरकीब इजाद की, जिससे अब तक खानेवाले और खिलानेवाले दोनों खुश हैं। इस बार उन्होंने मछलियों की सुस्ती दूर करने के लिए उन बड़े-बड़े बक्सों में एक छोटी सी शार्क मछली डाल दी। अब उस शार्क का भोजन बनने से बचने के लिए मछलियां भागती रहती हैं और ताजी बनी रहती हैं। कुछ जरूर उसका आहार बनती हैं पर यह नुक्सान मछुवारों को भारी नहीं पड़ता।

है ना, तीन इंच की जबान के लिए दुनिया भर की भाग-दौड़।

"महागौरी", महाशक्ति का आठवां स्वरूप

आज नवरात्रों का आठवां दिन है। आज के दिन दुर्गा माता के "महागौरी" स्वरूप की पूजा होती है। पुराणों के अनुसार मां पार्वती ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए घोर तपस्या की थी जिसके कारण इनके शरीर का रंग एकदम काला पड़ गया था। शिवजी ने इनकी भक्ति से प्रसन्न होकर खुद इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से धोया जिससे इनका वर्ण विद्युत-प्रभा की तरह कांतिमान, उज्जवल व गौर हो गया। तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा।
इनकी आयु आठ वर्ष की मानी जाती है। इनके समस्त वस्त्र, आभूषण आदि भी श्वेत हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। ऊपर का दाहिना हाथ अभय मुद्रा में है और नीचेवाले दाहिने हाथ में त्रिशुल है। ऊपरवाले बायें हाथ में डमरू और नीचे का बायां हाथ वर मुद्रा में है। मां शांत मुद्रा में हैं। ये अमोघ शक्तिदायक एवं शीघ्र फल देनेवालीं हैं। इनका वाहन वृषभ है।
भक्तजनों द्वारा मां गौरी की पूजा, आराधना तथा ध्यान सर्वत्र किया जाता है। इस कल्याणकारी पूजन से मनुष्य के आचरण से सयंम व दुराचरण दूर हो परिवार तथा समाज का उत्थान होता है। कुवांरी कन्याओं को सुशील वर तथा विवाहित महिलाओं के दाम्पत्य सुख में वृद्धि होती है। इनकी उपासना से पूर्व संचित पाप तो नष्ट होते ही हैं भविष्य के संताप, कष्ट, दैन्य, दुख भी पास नहीं फटकते हैं। इनका सदा ध्यान करना सर्वाधिक कल्याणकारी है।
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श्वेते वृषे समारूढा श्वेताम्बरधरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा ।।
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सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

"मां कालरात्रि," देवी दुर्गा का सातवां स्वरुप

माँ दुर्गा जी की सातवीं शक्ति "कालरात्रि" के नाम से जानी जाती हैं। इनके शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह एकदम काला है। सर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। नासिका से अग्नी की भयंकर ज्वालायें निकलती रहती हैं। इनके चार हाथ हैं। उपरवाला दाहिना हाथ वरमुद्रा के रूप में उठा हुआ है तथा नीचेवाला अभयमुद्रा में है। उपरवाले बांयें हाथ में कांटा तथा नीचेवाले हाथ में खड़्ग धारण की हुई हैं। इनका स्वरूप अत्यंत भयानक है। परन्तु ये सदा शुभ फल देनेवाली हैं। इसी के कारण इनका एक नाम "शुभंकरी" भी है। इनका वाहन गर्दभ (गधा) है।
मां कालरात्रि दुष्टों का दमन करनेवाली हैं। इनके स्मर्ण मात्र से ही दैत्य, दानव, भूत-प्रेत आदि बलायें भाग जाती हैं। इनकी आराधना से अग्निभय, जलभय, जंतुभय, शत्रुभय यानि किसी तरह का डर नही रह जाता है।
इस दिन साधक को अपना मन 'सहस्त्रार चक्र में अवस्थित कर आराधना करने का विधान है। इससे उसके लिए ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों के द्वार खुल जाते हैं। उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है और अक्षय पुण्यों की प्राप्ति होती है।
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एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता । लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी ।। वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा। वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रीर्भयंकारी।।
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रविवार, 5 अक्तूबर 2008

चलते क्या हरिद्वार

चलिए इस बार हरिद्वार चलते हैं। छुट्टियां हैं, मौसम भी अच्छा है तथा सब से बड़ी बात, यहां जाना बाकि के तीर्थों से सबसे सुगम है। यह सड़क मार्ग से देश के प्राय: सभी नगरों से जुड़ा हुआ तो है ही, रेल मार्ग भी इसे देश के बहुतेरे हिस्सों से जोड़ता है। यहां रहने-खाने की हर तरह की व्यवस्था है। पर्यटन की दृष्टि से सितम्बर मध्य से अप्रैल अंत तक का समय उम्दा रहता है।
हरिद्वार का पौराणिक नाम 'मायापुर है। इसे सप्तपुरियों में स्थान प्राप्त है। हर बारहवें वर्ष, जब सूर्य और चंद्रमा मेष राशि में तथा बृहस्पति कुंभ राशि में आते हैं, तब यहां कुंभ का मेला लगता है। हिमालय की तराई में स्थित हरिद्वार में ही गंगा, पहली बार समतल जमीन पर बहना शुरु करती है। पुराणों के अनुसार गंगा स्नान का सर्वाधिक महत्व गंगोत्री, हरिद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर में होता है। यहीं से उत्तराखंड की यात्रा प्रारंभ की जाती है।
हरिद्वार का पर्याय है 'हर की पौडी'। इसी विश्वप्रसिद्ध घाट पर कुंभ का मेला लगता है। यह एक विशाल कुंड सा है, जिसमें सदा कमर तक पानी रहता है। गंगा की मुख्य धारा से अलग हो उसकी एक शाखा इस कुंड से होकर प्रवाहित होती है। इसे ब्रह्मकुंड के नाम से भी जाना जाता है। इसी के निकट गंगा देवी का तथा अन्य कुछ मंदिर भी हैं। सूर्यास्त के समय यहां रोज गंगाजी की आरती की जाती है, उस समय नदी में प्रवाहित किए जाने वाले दीपक एक अलौकिक दृश्य उत्पन्न करते हैं। जिसका अनुभव सुन कर नहीं देख कर ही किया जा सकता है।
हरिद्वार या हरद्वार अपने आप में ही पूर्ण दर्शनीय स्थान है। फिर भी यहां पुराने और नये बहुत से स्थल देखे बिना नहीं लौटना चाहिए। इनमेँ प्रमुख हैं :- मनसा देवी का मंदिर, भीमगोड़ा तालाब , माया देवी का मंदिर, गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय, चंडी देवी का मंदिर, सप्तऋषि आश्रम, दक्ष प्रजापति का मंदिर, परमार्थ आश्रम, भारत माता मंदिर इत्यादि-इत्यादि-इत्यादि। योग गुरु स्वामी रामदेवजी का विशाल सर्वसुविधायुक्त, आयुर्वेदिक चिकित्सा केन्द्र 'पतंजलि योगपीठ' भी यहीं स्थित है।
जैसे-जैसे आवागमन आसान तथा सुलभ होता गया है वैसे-वैसे शहरीपन भी इस धार्मिक स्थल पर अपनी छाप छोड़ने लगा है। पहले लोग धार्मिक कर्म-कांडों के लिए या तीर्थ का लाभ पाने के लिए यहां जाया करते थे। परन्तु अब लोगों के हनीमून मनाने के स्थानों में भी इसका नाम शुमार हो गया है। बढ़ती आबादी का असर यहां भी अपने पैर पसार रहा है। वही भीड़-भाड़, शोर- शराबा, हल्ला-गुल्ला यहां के रोजमर्रा के अंग बनते जा रहे हैं। फिर भी इसका प्राकृतिक सौंदर्य अपनी जगह है। इसलिए जब कभी भी मौका मिले तो जाने से मत चूकिएगा।

"मां कात्यायनी", देवी दुर्गा का छठवां स्वरुप

पुराणों के अनुसार महर्षि 'कत' के पुत्र 'ऋषि कात्य' के गोत्र में महान 'महर्षि कात्यायन' का जन्म हुआ था। इन्होंने मां भगवती की कठोर तपस्या की थी। जब दानव महिषासुर का संहार करने के लिये, त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ने अपने तेज का एक-एक अंश देकर देवी को उत्पन्न किया था तब महर्षि कात्यायन ने ही सर्वप्रथम इनकी पूजा की थी। इसी कारणस्वरूप ये कात्यायनी कहलायीं।
इनका स्वरूप अत्यंत हीभव्य व दिव्य है। इनका वर्ण सोने के समान चमकीला तथा तेजोमय है। इनकी चार भुजाएं हैं। मां का उपरवाला दाहिना हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचेवाला वरमुद्रा में है। बायीं तरफ के उपरवाले हाथ में तलवार और नीचेवाले हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।
मां कात्यायनी अमोघ फल देनेवाली हैं। इनकी आराधना करने से जीवन में कोई कष्ट नहीं रहता। इस दिन साधक मन को 'आज्ञा चक्र' में स्थित कर मां की उपासना करते हैं। जिससे उन्हें हर तरह के संताप से मुक्त हो परमांनंद की प्राप्ति होती है।
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चन्द्रहासोज्वलकरा शार्दूल वरवाहना ।
कात्यायनी शुभ दद्याद्देवी दानवघातिनी ।।
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शनिवार, 4 अक्तूबर 2008

मां दुर्गा का पांचवां स्वरुप "स्कन्दमाता"

नवरात्रि के पांचवें दिन मां दुर्गा के "स्कन्दमाता" स्वरुप की आराधना की जाती है। स्कन्द, भगवान कार्तिकेय का ही एक नाम है। इन्हीं की माता होने के कारण मां दुर्गा को स्कन्दमाता के नाम से भी जाना जाता है। इनकी चार भुजाएं हैं। अपनी दाहिनी भुजा में इन्होंने भगवान् कार्तिक को बाल रुप में उठा रखा है, दुसरी भुजा अभय मुद्रा में उठी हुई है तथा बाकि दोनों हाथों में कमल-पुष्प है। इनका वर्ण शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। सिंह भी इनका वाहन है।
इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं तथा उसे परम शांति और सुख की प्राप्ति होती है। स्कन्दमाता की आराधना से बालरुप स्कन्द भगवान की भी उपासना अपने आप हो जाती है। नवरात्रि की पंचमी को स्कन्दमाता की आराधना करते समय साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित होना चाहिए। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक भी अलौकिक तेज व कांति से संपन्न हो जाता है।
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सिंहासनम्ता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया ।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।।
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शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2008

'मां कूष्माण्डा', दुर्गा माता का चौथा स्वरूप

जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, चारों ओर सिर्फ़ अंधकार ही अंधकार था, तब "मां कूष्माण्डा" के सहयोग से ही ब्रह्माण्ड की रचना संभव हो पायी थी। इनकी मंद हंसी द्वारा ब्रह्माण्ड के उत्पन्न होने के कारण इनका नाम कूष्माण्डा देवी अभिहित किया गया। यही सृष्टि की आदि शक्ति हैं। इनका निवास सूर्य लोक में माना जाता है। इनके शरीर की कांति, रंगत व प्रभा सूर्य के समान ही तेजोमय है। कोई भी देवी-देवता इनके तेज और प्रभाव की समानता नहीं कर सकता। इन्हीं के तेज से दसों दिशाएं प्रकाशमान होती हैं। इनके आठ हाथ हैं, जिनमें कमण्डल,धनुष, बाण, कमल, कलश, चक्र तथा गदा हैं। आठवें हाथ में सिद्धियां प्रदान करने वाली जप माला है। इनका वाहन सिंह है।
इनकी आराधना से यश,बल आयु तथा आरोग्य प्राप्त होता है। सभी प्रकार की सिद्धियां इनके आशिर्वाद से सुलभ हो जाती हैं। चूंकि ये ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का कारण हैं इसलिए संतान प्राप्ति की कामना रखने वाले को मां कूष्माण्डा की पूजा अर्चना करने से लाभ होता है। इस दिन साधक का मन 'अनाहत चक्र' में अवस्थित होता है। सच्चे मन से इनकी शरण में जाने से मनुष्य को परमपद प्राप्त हो जाता है।
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सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च ।
दधाना हरतपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे।।
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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

छोटे कद पर विराट व्यक्तित्व के धनी शास्त्रीजी

एक ही दिन जन्मदिन होने के कारण छोटे कद पर विराट व्यक्तित्व के धनी शास्त्रीजी को वह सम्मान नहीं मिल पाता, जिसके वह हकदार रहे हैं। वैसे भी वह चमकदार मेहराबों के बनिस्पत नींव का पत्थर होना ज्यादा पसंद करते थे। उनकी सादगी को दर्शाते ये दो संस्मरण उस समय के हैं, जब वे प्रधान मंत्री थे।
एक बार देश की एक बड़ी कपहा बनाने वाली कंपनी ने ललिताजी के लिए कुछ सिल्क की साड़ियां उपहार स्वरुप देने की पेशकश की। साड़ियां काफी खुबसूरत तथा मुल्यवान थीं। शास्त्रीजी ने उनकी कीमत पूछी, जब काफी जोर देने पर उन्हें कीमत बताई गयी तो उन्होंने यह कह कर साफ मना कर दिया कि मेरी तन्ख्वाह इतनी नहीं है कि मैं इतनी मंहगी साड़ी ललिताजी के लिए ले सकूं, और अपने निर्णय पर वे अटल रहे।
एक बार उनके बड़े बेटे हरिकिशनजी को एक ख्याति प्राप्त घराने से अच्छे पद का प्रस्ताव मिला, उन्होंने शास्त्रीजी से अनुमती चाही, तो उन्होंने जवाब दिया कि यह नौकरी मेरे प्रधान मंत्री होने के कारण तुम्हें दी जा रही है, यदि तुम समझते हो कि तुम इस पद के साथ न्याय कर पाओगे और तुम इस के लायक हो तो मुझे कोई आपत्ती नहीं है। हरिकिशनजी ने भी वह प्रस्ताव तुरंत नामंजूर कर दिया।इन्हीं आदर्शों की वजह से चाहे अंत समय तक उनका अपना कोई घर नहीं था नही ढ़ंग की गाड़ी थी, पर वे याद किए जाएंगें, जब तक भारत और उसका इतिहास रहेगा।
आज के वंशवादी, सत्ता पिपासु तथाकथित नेता क्या ऐसा सोच भी सकते हैं। जिनमें कुछ एक को छोड़ उनके राज्य के बाहर ही कोई उन्हें नहीं जानता और ना जानना चाहता है.

नवरात्रि का तीसरा दिन

नवरात्रि के तीसरे दिन, मां दुर्गा की तीसरी शक्ती "मां चंद्रघण्टा" की आराधना की जाती है। इनका यह स्वरुप परम शांति तथा कल्याण प्रदान करने वाला है। इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान है तथा मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसीसे इनका नाम "मां चंद्रघण्टा" पड़ा। इनके दस हाथ हैं जिनमें अस्त्र-शस्त्र विभुषित हैं। इनका वाहन सिंह है।
आज के दिन साधक का मन मणिपुर चक्र में प्रविष्ट होता है। मां की कृपा से उसे अलौकिक वस्तुओं के दर्शन तथा दिव्य ध्वनियां सुनाई देती हैं। पर इन क्षणों में साधक को बहुत आवधान रहने की जरुरत होती है। मां चंद्रघण्टा की दया से साधक के समस्त पाप और बाधाएं दूर हो जाती हैं। इनकी आराधना से साधक में वीरता, निर्भयता के साथ-साथ सौभाग्य व विनम्रता का भी विकास होता है। मां का ध्यान करना हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिए परम कल्याणकारी और सद्गति देनेवाला होता है।
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पिण्डजप्रवरारूढा चण्कोपास्त्रकैर्युता ।
प्रसादं तनुते मह्मां चंद्रघण्टेति विश्रुता।।
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बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

भगवान् का एड्रेस / आबादी के लिए रेल दोषी

एक भिखारी को सबेरे से शाम हो गयी पर उसे एक पैसा भी नहीं मिला। उसने सोचा था कि त्योहार के दिन हैं, तो पहले वह मंदिर में घंटों बैठा रहा, फिर दोपहर में मस्जिद के दरवाजे पर आस लगाये रहा, वहां से निराश हो गुरुद्वारे फिर चर्च। पर कहीं भी उसको एक रुपया ना मिल पाया। अंत में वह थक हार कर एक बार के सामने बैठ गया। उसका बैठना था कि अंदर से एक शराबी झूमते-झामते निकला और भिखारी के बिना मांगे ही एक सौ का नोट उसकी झोली में डाल गया।
भिखारी आश्चर्यचकित हो बोला, "हे भगवान तू रहता कहां है और एड्रेस कहां का दिया हुआ है।"
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नेताजी परिवार नियोजन के सिलसिले में एक सुदूर देहात में पहुंचे तो पाया कि घरों के हिसाब से लोग बहुत ज्यादा हैं। उन्होंने मुखिया से पूछा कि गांव में घर इतने कम हैं पर आबादी इतनी ज्यादा क्यूं है? मुखिया ने जवाब दिया, मालिक यह सब रेलवे वालों का दोष है। नेताजी चकराए कि आबादी और जनसंख्या का क्या मेल। उन्होंने फिर पूछा, भाई ऐसा कैसे? मुखिया बोला, उन्होंने रेल लाईन बिल्कुल गांव के पास से निकाली है। नेताजी की समझ में कुछ नहीं आया, बोले तो?
मुखिया ने समझाया, जनाब, रात में दो बजे एक गाडी सीटी बजाते हुए यहां से निकलती है, जिससे सारे गांव वालों की नींद टूट जाती है।

नवरात्र का दूसरा दिन

पहले एक बात कहना चाहता हूं। आम लोगों की तरह, वही कुछ रटे-रटाए श्लोकों को छोड़ (उन्हें भी लिखना पड़े तो शायद पसीना आ जाए) संस्कृत में मेरा हाथ तंग ही है। सो इन नौ दिनों के "संकलन" में यदि कोई गल्ती, गल्ती से हो जाए तो क्षमा करेंगे।
नवरात्र के दूसरे दिन "माँ ब्रह्मचारिणी" की आराधना की जाती है। पुराणों के अनुसार पर्वत राज हिमालय के घर जन्म लेने के बाद नारद मुनी के उपदेश से इन्होंने भगवान शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। पहले कंद मूल फिर शाक और फिर सिर्फ़ जमीन पर टूट कर गिरे बेलपत्रों को ग्रहण करते हुए अहर्निश भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद उन्होंने पत्रों का भी त्याग कर दिया, जिससे उनका एक नाम "अपर्णा" भी पड़ा। हजारों साल तक चली इस साधना के कारण तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था। उनके इस कृत्य से चारों ओर उनकी सराहना होने लगी थी। इस पर ब्रह्माजी ने उन्हें मनोकामना पूरी होने का वरदान दिया। इसी दुष्कर तपस्या के कारण इनका नाम तपकारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी पड़ा।
माँ दुर्गा का यह रूप भक्तों और सिद्धों को अनंतफल देने वाला है। जीवन के कठिन समय में भी हतोत्साहित ना होने देने वाली, वैराग्यवत साहस देने वाली, सदाचार से जीवन व्यतीत करने वालों का साथ देने वाली, अपने कर्तव्य पथ से विचलित ना होने देने वाली अति दयालु माता हैं।
इस दिन साधक का मन "स्वाधिष्ठान चक्र" में स्थित होता है। योगी उनकी कृपा तथा भक्ती पूर्ण रूप से प्राप्त करता है।
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दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
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