महर्षि वाल्मिकी एक कवि तथा कथाकार के साथ-साथ इतिहासकार भी थे। राम और रावण उनके समकालीन थे। इसलिए उनके द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामायण’ यथार्थ के ज्यादा करीब माना जाता है। बाकी जितनों ने भी राम कथा की रचना की है, उस पर समकालीन माहौल, सोच तथा जनता की भावनाओं का प्रभाव अपनी छाप छोड़ता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तुलसीदास कृत राम चरित मानस है। तुलसी दास के आराध्य श्री राम रहे हैं तो उनके चरित्र का महिमामंडित होना स्वाभाविक है। परन्तु वाल्मिकीजी राम और रावण के समकालीन थे सो उन्होंने राम के साथ-साथ रावण का भी अद्भुत रूप से चरित्र चित्रण किया है। उनके अनुसार ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य और पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की चार संतानों में रावण अग्रज था। इस प्रकर वह ब्रह्माजी का वंशज था।
महर्षि कश्यप की पत्नियां, अदिति जो देवताओं की जननी थीं और दिति जिन्होंने दानवों को जन्म दिया था, आपस में बहनें थीं। इस प्रकार सुर और असुर सौतेले भाई थे। विचारों, परिवेश तथा माहौल इत्यादि के अलग होने के कारण उनका कभी भी मतैक्य नहीं हो पाया। जिससे सदा अनबन बनी रहती थी जिसके फलस्वरूप युद्ध होते रहते थे। जिनमें ज्यादातर दैत्यों की पराजय होती थी। दैत्यों के पराभव को देख कर रावण ने दीर्घ तथा कठोर तप कर ब्रह्माजी से तरह-तरह के वरदान प्राप्त कर लिए थे एवं उन्हीं के प्रभाव से शक्तिशाली हो अपने नाना की नगरी लंका पर फिर से अधिकार कर लिया था। उसने लंका को स्वर्ग से भी सुंदर, अभेद्य तथा सुरक्षित बना दिया था। उसके राज में नागरिक सुखी, संपन्न तथा खुशहाल थे। लंका के वैभव का यह हाल था कि जब हनुमानजी सीताजी की खोज में वहां गये तो उन जैसा ज्ञानी भी वहां का वैभव और सौंदर्य देख ठगा सा रह गया था।
वाल्मिकी रामायण में रावण एक वीर, धर्मात्मा, ज्ञानी, नीति तथा राजनीति शास्त्र का ज्ञाता, वैज्ञानिक, ज्योतिषाचार्य, रणनीति में निपुण, स्वाभिमानी, परम शिव भक्त तथा महान योद्धा निरुपित है। उसका एक ही दुर्गुण था अभिमान, अपनी शक्ति का अहम जो अंतत: उसके विनाश का कारण बना। यदि निष्पक्ष रूप से कथा का विवेचन किया जाए तो साफ देखा जा सकता है कि रावण का चरित्र उस तरह का नहीं था जैसा कालांतर में लोगों में बन गया या बना दिया गया।
श्री राम ने लंका की तरफ बढ़ते हुए तेरह सालों में अनगिनत राक्षसों का वध किया था पर कभी भी आवेश में या क्रोधावश रावण ने राम से युद्ध करने की कोशिश नहीं की। जब देवताओं ने देखा कि कोई भी उपाय रावण को उत्तेजित नहीं कर पा रहा है तो उन्होंने शूर्पणखा कांड की रचना की। वह अभागिन, मंद बुद्धि राक्षस कन्या अपने भाई के समूचे परिवार के नाश का कारण बनी। उसको बदसूरत किया जाना रावण को खुली चुन्नौती थी। पर रावण ने फिर भी धैर्य नहीं खोया था।
*बाकी कल दशहरे के दिन---------
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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3 टिप्पणियां:
सही लिखा।सहमत।
आप की बात से सहमत हू , लेकिन अब तो भारत मे हर जगह रावण ही रावण है ओर वह भी बेबकुफ़ टाईप के जिन्हे ना तो बोलना आता है, ओर धन्यवाद
शूर्पनखा कांड के बहाने ही सही रावण मर्यादा पुरूषोत्तम राम के उस झूठ मे फस गए जिसमे लक्ष्मण को कुंवारा बताकर शूर्पनखा को शादी के प्रस्ताव के लिए भेजा गया था जिसका खामियाजा शूर्पनखा के नाक कट गएा मैंने ये वाल्िमिकी रामायण के खंड मे ब्राम्हण के मुख से सुना है
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