मंगलवार, 30 नवंबर 2010

ब्लॉग जगत अब एक परिवार न हो ऐसा मोहल्ला बन गया है जहां अधिकाँश दूसरे को फूटी आँख देख नहीं सुहाते

चाहे हम लाख कहें पर सच्चाई यही है कि ब्लाग जगत एक परिवार ना हो कर एक मध्यम वर्गीय मोहल्ला है। जो तरह-तरह के स्वयंभू उस्तादों, गुरुओं, आलोचकों, छिद्रान्वेषियों का जमावड़ा होता जा रहा है। जहां एक दूसरे की टांग खीचने या नीचा दिखाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहता। मुस्कान की नकाब तो सबके चेहरे पर है पर बहुतों का अधिकांश समय अपने नाखूनों को तीक्ष्ण करने में जाया जाता है।

एक मोहल्ले में रहने वाले, जैसे एक दूसरे की तरक्की, खुशहाली, उन्नति पर अपने दिल को कबाब बनाते रहते हैं वैसे ही इस ब्लागी मोहल्ले में होना शुरु हो गया है। शुरु तो खैर शुरु से ही था पर जरा संकोच, आंखों की शर्म जैसा कुछ बचा हुआ था जो 'बेनामी' जैसा बुर्का ओढवा देता था। अब तो खुले आम 'खुला खेल फर्रुखाबादी' की शुरुआत हो चुकी है। जिसमें दूसरे का दूध भी छाछ और अपना पानी भी शर्बत नजर आने लगा है। अपनी कैसी भी रचना से उतना ही लगाव है जितना एक काले भुजंग, आड़ी-टेड़ी, नालायक संतान से उसकी माँ को होता है। ठीक है आपका 'उत्पादन' अच्छा है आपकी नजर में पर दूसरे के को तो कमतर ना आंकें।

ज्यादातर कुढन यहां दी जाने वाली टिप्पणियों के कारण हैं। किसी के खाते में रोजाना 25-50 दर्ज हो जाती हैं तो किसी के यहां 2-3 आकर नमक छिड़क जाती हैं। यह नहीं समझ आता कि इससे पहले के चारों ओर कौन से चार चांद घूमने लग जाते हैं या उसके यहां 1000-1000 के लाट्टू 'चसने' लगते हैं और दूसरे के यहां मोमबत्ती जलती रह जाती है। अरे भाई आई, आई नहीं तो ना सही। पर उस मुए अहम का कोई क्या करे जो सीधा दिमाग में घुस उसे उस टिप्पणिधिराज को अपना दुश्मन मानने को मजबूर करने लगता है? उसकी हर अच्छी बुरी पोस्ट या बात सीधे कलेजे पर वार करने लगती है।

एक "बोन आफ कंटेंशन" और है। चिट्ठाजगत का सक्रियता क्रमांक। जिसमें उपस्थित चालिस नाम हजारों 'होनहारों' के दिल पर सांप लोटवाते रहते हैं। वे अपना काम धाम छोड़ उसी क्रमांक पर नजर गड़ा अपना रक्त-चाप बढवाते रहते हैं। उस चालिसे में नाम आ जाने से पता नहीं कौन सा साहित्य अकादमी या बुकर का ईनाम मिल जाता है जो कुछ लोगों की हवा बंद कर देता है।

अभी कुछ दिनों पहले हम सब एक और शर्मनाक दौर से गुजरे हैं जब कुछ लोगों के मिल बैठने पर ही लोगों की ऊंगलियां उठने लग गयीं थीं। क्या अपराध कर दिया गया था जो अभद्र भाषा के प्रयोग का भी खुल कर प्रदर्शन किया गया। जब अनदेखे अंजाने एक साथ मिल बैठेंगे तभी तो अपनत्व की भावना जोर पकड़ेगी। इसमें बुराई क्या थी? यह कोई राजनीतिक पार्टी का माहौल अपने पक्ष में करने की दावत तो थी नहीं कि उसकी भर्त्सना की गयी। पता नहीं क्यूं सही को भी गलत ठहराने की हमारी आदत खत्म नहीं होती।

मोहल्ले में सभी ऐसे हैं यह बात भी नहीं है। सैंकड़ों ऐसे शख्स हैं जो बिना किसी राग-द्वेष, तेरी-मेरी या अच्छे-बुरे के पचड़े में पड़े बगैर 'स्वांत सुखाय' के लिए अपना काम करे जा रहे हैं और सराहना भी पा रहे हैं। क्यों ना उनसे ही हम कुछ सीखें क्योंकि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और ना ही उससे बड़प्पन कम होता है।

शनिवार, 27 नवंबर 2010

कौन बेचारा है पति या पत्नी :-)

पत्नी खर्च पूरा ना पड़ने और पति की अल्प कमाई से परेशान थी।एक दिन रहा नहीं गया बोली, "मैं शर्म के मारे अपना सर नहीं उठा पाती हूं। मेरी मां हमारे घर का किराया देती है। मेरी मौसी के यहां से कपड़े आते हैं। मेरी बहन हमारा राशन भरती है। कब हमारी हालत सुधरेगी?
" पति बोला, "शर्म तो आनी ही चाहिए। तुम्हारे दो-दो चाचा हैं जो एक पैसा भी नहीं भेजते।"

संता तथा बंता अपना दर्द बांट रहे थे।संता, "अरे यार पिछले हफ्ते मेरी बीवी की आंख में एक बालू का कण समा गया था। डाक्टर को पूरे पांच सौ देने पड़ गये।
"बंता, "यार तू तो भाग्यशाली रहा। परसों मेरी पत्नी की आंख में एक सोने का हार समा गया था पूरे दस हजार देने पड़े।"

पति गुस्से से, "तुम हर दरवाजे पर आ खड़े हुए भिखारी को खाना देती रहती हो। इससे तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है।"
"जानती हूं। पर यह देख मुझे बड़ी शांति मिलती है कि कोई तो है जो मेरे हाथ का बना खाना बिना उसकी बुराई किए खा लेता है।"

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

पुलिस वाला, पुलिस वाला ही होता है :-)

आज हंगरी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार 'फर्ज करंथी' की एक रचना पढने को मिली। अच्छी लगी सोचा आप सब को भी शायद पसंद आ जाए :

आज सबेरे दफ्तर जाते समय जरा लेट हो गया था सो दफ्तर के आगे बिना ट्राम के रुके ही कूद पड़ा था। इसके पहले कि मैं मुंह के बल जमीन पर लंबायमान होता एक सिपाही ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे संभाल लिया। उसने मुझे स्नेह से देखा और बोला "घबराइए नहीं आप बिल्कुल सुरक्षित हैं। मैं ना पकड़ता तो आप घायल हो सकते थे।" उसने मधुर स्वर में मुझसे कहा।

उसकी दयालुता देख मेरी आंखों में पानी आ गया।
मैंने कहा "लोग नाहक ही पुलिस वालों को निर्मम, अत्याचारी, उद्दंड और अहंकारी समझते हैं, आप तो दया के साक्षात रूप हैं।"

मैंने गरमजोशी और भावुकता से उसका हाथ देर तक पकड़े रखा। फिर बोला "आपका एक बार फिर बहुत-बहुत धन्यवाद मैं आज की घटना और आपको कभी नहीं भूलूंगा। आपका शुभ नाम ?

"जीनस वार्गा.....श्रीमान।"
पर अजीब बात थी वह मेरा हाथ छोड़ नहीं रहा था। जब मैंने छुड़वाना चाहा तो उसने कहा "ठहरिए श्रीमान... अभी हमारी बात खत्म नहीं हुई है। क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं?"
इसी बीच उसने अपनी नोट बुक निकाल ली और पुछने लगा
"हां श्रीमान...आपका पता?....उम्र?...जन्म तिथि?....शरीर पर कोई शिनाख्ति निशान?

"अरे!!! तो तुम क्या मेरी रिपोर्ट करना चाहते हो?" मैंने विस्मय से पूछा।

"तो आपका क्या ख्याल था कि मैं आपसे मनोविनोद कर रहा था इतनी देर से, क्योंकि आप चलती ट्राम से छलांग मार कर उतरे थे ?"

बुधवार, 24 नवंबर 2010

कहते हैं कि भगवान जो करता है वह अच्छे के लिए करता है, पर यह कैसी अच्छाई है

छत्तीसगढ़ के रायपुर शहर में एक सवा दो साल के मासूम बच्चे की दरिंदों ने अपनी मन्नत पूरी करने के लिए बलि चढ़ा दी। ऐसी हैवानियत कहाँ से इंसान के अन्दर प्रवेश कर जाती है। किस तरह दिल करता है एक निश्छल, मासूम बच्चे का, जिसका कोई कसूर नहीं, जिसे दुनियादारी की कोई समझ नहीं, जिसकी किसी से कोई दुश्मनी नहीं , क़त्ल करने को। कैसी बुद्धि हो जाती है, कैसे कोई समझ लेता है कि इस तरह के पाप से ऊपरवाला खुश हो इस घृणित कर्म करने वाले से खुश हो जाएगा। यदि भगवान कहीं है और वह सबका भला चाहते हैं तो फिर वह कौन है जो इस तरह के कुकर्म करने के लिए इंसान को उकसाता है उसकी बुद्धि भ्रष्ट कर किसी के घर की रौनक को मातम में बदलवा कर रख देता है ? क्या उसके सामने प्रभू भी बेबस हैं ?

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

खबर पर शक बिल्कुल न करें

खबर बिल्कुल सच्ची है। पर विश्वास नही होगा कि ऐसा कैसे हो सकता है। पर अब तो वैज्ञानिकों ने भी इस पर अपनी मोहर लगा दी है। खबर आपके सामने है और फ़ैसला आपके हाथ में।

देव उठनी अमावस्या के समय मेघा नक्षत्र के उदय होने के पूर्व एक मुहूर्त बनता है जिसमे प्रभू का दरबार धरती वासियों के लिए कुछ देर के लिये खोला जाता है। इसका पता अभी-अभी साईंस दानों को लगा है । पहले सिर्फ पहुंचे हुए साधू-महात्मा लोग ऊपर जा अपना जीवन धन्य कर लेते थे. पर अब कोई भी इस अवसर का फ़ायदा उठा सकता है। पर यह बात खुल जाने से भीड़ इतनी बढ़ गयी कि संभालना मुश्किल हो गया । तब लाटरी का सहारा लेना पडा।

इस बार भारत, अमेरीका तथा जापान के तीन नुमांईदों को उपर जाने का वीसा मिला था। वहाँ तीनों को एक जैसा ही सवाल पूछने की इजाजत थी। पहले अमेरीकन ने पूछा कि मेरे देश से भ्रष्टाचार कब खत्म होगा, प्रभू ने जवाब दिया कि सौ साल लगेंगे। अमेरीकन की आंखों मे आंसू आ गये। फिर यही सवाल जापानी ने भी किया उसको उत्तर मिला कि अभी पचास साल लगेंगे। जापानी भी उदास हो गया कि उसके देश को आदर्श बनने मे अभी समय लगेगा। अंत मे भारतवासी ने जब वही सवाल पूछा तो पहले तो प्रभू चुप रहे फिर फ़ूट-फ़ूट कर रो पड़े।

अब आज के जमाने मे कौन ऐसी बात पर विश्वास करता है, पर जब सर्वोच्च न्यायालय की ओर से कहा गया कि इस देश को भगवान भी नही बचा सकते, तो आप क्या कहेंगे ? देख, पढ़ और सुन तो रहे ही हैं न रोज-रोज।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

जब दुनिया की मशहूर कार 'रोल्स रायस' में कूड़ा ढ़ोया गया.

देशभक्ति तो नहीं पर अपनी ठसक और अहम् के कारण कई बार देसी राजाओं और नवाबों ने अंग्रेजों को उनकी औकात दिखाने में गुरेज नहीं किया था। ऐसे ही दो वाकये हाजिर हैं :-

भरतपुर के महाराजा राम सिंह एक बार इंग्लैंड गये तो प्रसिद्ध रोल्स रायस के शो रूम मे भी चले गये। अंग्रेज मैनेजर उनकी तरफ ज्यादा ध्यान ना दे अपने किसी अंग्रेज ग्राहक को ही गाड़ी दिखाता रहा। यह देख महाराजा ने अपने सेक्रेटरी से वहां कितनी कारें हैं बिकने के लिए और उनकी कीमत पता करने को कहा। मैनेजर ने उपेक्षित लहजे में बताया कि तीन कारें हैं और प्रत्येक की कीमत एक लाख रुपये है। उसे लग रहा था कि इन लोगों की हैसियत कहां होगी इतनी मंहगी कार खरीदने की। पर जब महाराजा ने उसी समय तीनों गाड़ियां खरीद लीं तो वहां खड़े सारे अंग्रेज सकपका गये। कुछ दिनों बाद जब तीनों गाड़ियां भरतपुर पहुंची तो महाराजा राम सिंह ने बड़े आराम से आज्ञा सुनाई कि तीनों गाड़ियों को कूड़ा ढोने के काम में लगा दिया जाए। उस समय रोल्स रायस एक बहुत ही प्रतिष्ठित नाम था। जब उसके निर्माता को यह बात पता चली तो उन्होंने महाराजा को मनाने की बहुत कोशिश की पर आन के धनी महाराजा नहीं माने। तब वाइसराय तक बात पहुंची उनके आग्रह पर महाराजा ने कारों को कूड़ा ढोने से तो हटवा लिया पर कहा कि हम इस कूड़ा गाड़ी में तो बैठेंगे नहीं, सो उन तीनों गाड़ियों को औनी-पौनी कीमत में बेच दिया गया।

अंग्रेजों की अक्ल ठिकाने लगाने वाले राजाओं, महाराजाओं की कमी अपने यहां कभी भी नहीं रही। हैदराबाद के निजाम अफजुलुद्दौला को अपने सामने किसी का भी ऊंचे आसन पर बैठना गवारा नहीं था। सारे दरबारी जमीन पर कालीन के ऊपर बैठा करते थे। वहां आए रेजीडेंट को यह अपनी तौहीन लगी। उसने अपने लिए कुर्सी की मांग की जिसे नवाब ने सिरे से नकार दिया। रेजीडेंट ने फिर अपनी चुस्त पतलून का हवाला देते हुए कहा कि ऐसे में उससे पैर मोड़ कर नहीं बैठा जाएगा। नवाब ने तुरंत दरबार के एक हिस्से का फर्श खोद कर रेजीडेंट को पांव लटका कर बैठने की सुविधा दे उसे निरुत्तर कर दिया।

रविवार, 21 नवंबर 2010

एक श्लोक जिसमे पूरी रामायण का सार है.

एकश्लोकि रामायणम् :

आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं,
वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसम्भाषणम् ।
बालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लकांपुरीदाहनं,
पश्चाद्रावणकुम्भकर्णहननमेतद्धि रामायणम् ।।

शनिवार, 20 नवंबर 2010

केले के पेड़ से अब कपडे भी बनेंगे.

रूई और जूट के बाद अब केले के पेड़ से धागा बनाने पर शोध जारी है।
नेशनल रिसर्च सेंटर फ़ार बनाना {एन आर सी बी} में केले के पेड़ की छाल से धागा और कपड़ा बनाने पर काम जारी है। केले के तने की छाल बहुत नाजुक होती है, इसलिए उससे लंबा धागा निकालना मुश्किल होता है। सेंट्रल इंस्टीट्युट आफ़ काटन टेक्नोलोजी के सहयोग से केले की छाल मे अहानिकारक रसायन मिला कर धागे को लंबा करने की कोशिश की जा रही है। अभी संस्थान ने फ़िलीपिंस और मध्य पूर्व देशों से केले के पौधों की खास प्रजातियां मंगाई हैं, जिनसे केवल धागा ही निकाला जाता है। इनसे फ़लों और फ़ूलों का उत्पादन नहीं किया जाता है। धागे से तैयार कपड़े को बाजार मे पेश करने से पहले उसकी गुणवत्ता को परखा जाएगा। वैज्ञानिक पहले देखेंगे कि धागा सिलाई के लायक है या नहीं या उस पर पक्का रंग चढ़ता है कि नहीं, इस के बाद ही उसका व्यावसायिक उत्पादन हो सकेगा।
तब तक के लिए इंतजार। आने वाले दिनों में केले का पेड़ बहुपयोगी सिद्ध होने जा रहा है।
एन आर सी बी, केले के तने के रस से एक खास तरह का पाउड़र बना रहा है, जो किड़नी स्टोन को खत्म करने के काम आएगा। इसके पहले इस संस्थान का केले के छिलके से शराब बनाने का प्रयोग सफ़ल रहा है और उसका पेटेंट भी हासिल कर लिया गया है।
केले के इतने सारे उपयोगों से अभी तक दुनिया अनजानी थी जो अब सामने आ रहे हैं।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

कौन बनेगा करोडपति में हफ्तों से चली आ रही गलती पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है.

आश्चर्य है कि हफ्तों निकल जाने के बाद भी "कौन बनेगा करोड़पति" में चली आ रही एक गल्ती पर अयोजकों, संचालकों, उपस्थित दर्शकों, प्रतिभागियों यहां तक कि अमिताभ बच्चन जी का भी ध्यान नहीं गया है। जबकि ऐसे प्रोग्राम काफी जांच-पड़ताल के बाद प्रस्तुत किए जाते हैं।

जैसा कि बहुत से लोग जानते ही होंगे कि इस खेल की 'गरम कुर्सी' पर बैठने वाले को सही उत्तर ना मालुम होने पर सहायता के रूप में शुरु में तीन "हेल्प लाईनों" की सुविधा दी जाती है जिनमें से एक है "आडियंस पोल" इसके लिए दर्शकों को उत्तर देने के लिए दस सेकेण्ड का समय दिया जाता है। पर अमिताभ जी हर बार "इसके लिए आपको मिलेंगे तीस सेकेण्ड" कहते आ रहे हैं।

पता नहीं कैसे ऐसी चूक अभी तक जारी है।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

कंजूसी में ऐसा भी होता है

स्काटिश लोगों की कंजूसी पर बहुत सारे चुटकुले प्रचलित हैं। उनमें से एक :-

एक स्काटिश व्यक्ति जिसकी दाढी-मूंछ साफ थी बहुत दिनों बाद अमेरिका से जब अपने घर लौटा तो बड़ी मुश्किल से अपने बेतरतीब बढी हुई दाढियों वाले भाईयों को पहचान पाया। उसने उनसे पूछा कि तुम लोगों ने दाढियां क्यों बढा रखी हैं ? तो उनमें से एक ने जवाब दिया, तुम जाते समय दाढी बनाने वाला रेजर जो साथ ले गये थे।

एक सज्जन अपने मित्र से अपनी पत्नी की शिकायत कर रहे थे, क्या कहूं भाई मेरी पत्नी नये कपड़ों के लिए पागल हो रही है। अभी परसों नयी ड्रेस लाने का तकाजा किया था, आज फिर मांगने लगी। दोस्त उसका भी बाप था, पूछने लगा वह इतने नये कपड़ों का करती क्या है? मुझे क्या पता मैने कौन से ला कर दिए हैं। पहले ने जवाब दिया।

एक कंजूस एक दावत में अपने बेटे के साथ भोजन करने गया। संयोगवश दोनों आमने-सामने बैठे थे। खाते-खाते बेटे ने बीच में पानी पी लिया। घर आकर बाप ने बेटे को एक झापड़ मारा और बोला, बेवकूफ खाते समय पानी ना पीता तो चार पूड़ी और खा सकता था। बेटा कसमसाया और बोला, बापू वह तो मैंने खाने की तह जमाने के लिए पिया था, जिससे और जगह बन सके। बाप ने फिर एक झापड़ रसीद किया और बोला, बेवकूफ यह बात मुझे नहीं बता सकता था

बुधवार, 17 नवंबर 2010

राधाजी के मायके "बरसाना" जाएं तो मंदिर तक गाड़ी से नहीं सीढियों से पहुंचें

पहले कभी “राधा जी” के मायके बरसाना जाना नहीं हो पाया था। इस बार वृंदावन जाने का मौका मिला तो बरसाना देखने की हसरत पूरी हो गयी। पर वृंदावन से बरसाना जाने वाली सडक गाड़ी चालक के लिए किसी सजा से कम नहीं है, यदि गति 15 से 20 की भी मिल जाती थी तो लगता था कि सडक ठीक है। फिर वह सडक भी बरसाने के पिछली तरफ जा कर मिलती है। गांव की तंग गलियों में मंदिर का रास्ता पूछते-पूछते आगे बढते हुए पता चला कि पहाड़ी पर बने मंदिर के लिए दो रास्ते हैं एक पैदल पथ और दूसरा वाहनों के लिए। वैसे तो मेरा विश्वास है कि धार्मिक स्थलों पर पैदल ही जाना चाहिए पर समय के टोटे के कारण गाड़ी वाले मार्ग को प्राथमिकता दी गयी। और यही गल्ती हो गयी। जिसका बाद में जा कर एहसास हुआ। तो गाड़ी धीरे-धीरे संकरी गलियों को पार कर एक ऐसी जगह आ गयी जहां एक उबड़-खाबड़, ऊंचे-नीचे बेतरतीब पत्थरों से ढका, करीब सात-आठ फुट चौड़ा, दोनों ओर दो-ढाई फुट की उचाईयों से घिरा, पालिथिन के कचड़े, धूल-मिट्टी तथा घरों के कूड़े से भरा एक सर्पीला सा मार्ग जैसा कुछ पहाड़ी पर ऊपर उठता जा रहा था। पता चला कि यही वाहन पथ है। इतने में गांव के बच्चों ने कार को घेर लिया और आवाजें आने लगीं ‘गाड़ी रोकूं ? गाड़ी रोकूं ? ज्ञान में इजाफा हुआ कि उस नाले रूपी मार्ग से चूंकी एक बार में एक ही गाड़ी निकल सकती है इसलिए नीचे से या ऊपर जाकर गाड़ियों को रास्ते में दाखिल होने के पहले एक छोर खाली रखना होता है नहीं तो बीच में फंस जाने पर बहुत दिक्कत होती है। बच्चों को इस काम में मजा आता है ऊपर से तीस-चालीस रुपयों की कमाई हो जाती है। खैर नुकीले पत्थरों पर गाड़ी के दुख में दुखी होते ऊपर प्रांगण में जा पहुंचे।

राधा मंदिर एक विशाल हवेली में स्थित है जो राधाजी के बचपन, किशोरावस्था की साक्षी है। मुख्य भवन दिवार से घिरा हुआ है, जिनमें कमरे बने हुए हैं उनमें बहुत से परिवारों का निवास है जो अपने आप को राधा जी के पिता वृषभान जी का वंशज बताते हैं। भवन में प्रवेश करने पर एक बड़ा सा हाल है जिसमें राधा-कृष्ण की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। शाम घिर रही थी दिल्ली वापस लौटना था सो कुछ भी मालूमात हासिल नहीं कर पाया। माथा टेक उसी सर्पीले मार्ग से वापसी शुरु हुई। इस बार ऊपर पहले से पहुंची पांच एक गाड़ियां और थीं। जैसे ही समतल पर आने को हुए सामने की दो गाड़ियों के रुकने से सारा काफिला रुक गया। पांच मिनट, दस मिनट हो गये, मैं अपने लिए रास्ता बनाने वाले बच्चे को साथ ही ले आया था उसे ही कहा कि क्या हुआ है देख कर आए उसने बताया कि सामने ‘पशुओं’ को पानी पिला रहे हैं। मुझसे रहा नहीं गया। सामने जाकर देखा एक घुंघट धारी महिला घर के बाहर बाल्टी में भैंसों को पानी दे रही है। जिससे वह गली रुपी रास्ता बंद हो गया है। उसे वहीं के एक आदमी ने कहा भी कि गाड़ी निकल जाने दे पर उसने जैसे सुना ही नहीं। वहीं और कहीं से अपनी सायकिल पर आता एक और माणस खड़ा हो हमारे तमाशे का आनंद ले रहा था। उसे ही मैंने कहा कि इनसे कहो कि दो मिनट भी नहीं लगेंगे हमें निकल जाने दें फिर बिना किसी चिल्ल-पौं के पानी पिलवा दें। वह उस महिला को कनखियों से देख बोला जी पशु प्यासे हैं पहले वे पानी पीयेंगे। मेरे दिमाग में कुछ गर्म-गर्म हुआ पर फिर भी संयत स्वर में मैंने उसी से कहा (महिला तो निर्विकार थी जैसे वहां हो ही नहीं) कि बाहर से यहां आने वाले लोग आपके मेहमान जैसे हैं। वैसे भी इधर कम ही लोग आते हैं ऊपर से तुम्हारी ऐसी हरकतों से तो गांव की बदनामी ही तो होगी। अच्छे बर्ताव का अनुभव ले कर जाएंगे तो तुम्हारा और गांव का भला ही होगा। गाड़ियां निकल जाएंगी तो बिना शोर-शराबे के निश्चिंत हो पशू भी आराम से पानी पी सकेंगे। सिर्फ जिद के कारण तमाशा मत बनाओ। शायद राधाजी ने उसको सद्बुद्धी दी उसने उस महिला को कुछ कहा और भैंसें किनारे कर दी गयीं। सबने राहत की सांस ली पर आधा घंटा तो खराब हो ही गया था। इस बार लौटने का रास्ता दूसरा था जो मथुरा से करीब 40 की मी पहले मुख्य मार्ग में आकर मिलता है। साफ सुथरी बढिया सडक फिर भी घर पहुंचते-पहुंचते 9 बज ही गये थे।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

पुराने दोस्त सोने जैसे होते हैं और नए दोस्त हीरे की तरह

पुराने दोस्त कंचन यानि सोने की तरह होते हैं और नये दोस्त हीरे की तरह। पर यदि हीरे जैसे दोस्त मिलें तो भी पुराने दोस्तों को नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि हीरा भी सोने में ही जड़ा जा कर शोभा पाता है।

जब हम दूसरों के लिए प्रार्थना करते हैं तो भगवान हमारी पुकार सुन उनकी मदद करते हैं। इसलिए जब हम सुख-शांतिमय समय बिताते हैं तो याद रखना चाहिए कि कोई हमारे लिए प्रार्थना कर रहा है।

चिंता आने वाले कल की मुसीबतें तो दूर नहीं ही करती उल्टे आज की शांति भी छीन लेती है।

कार का आगे का शीशा काफी बड़ा होता है, जबकि पीछे देखने वाला बहुत छोटा, जो बताता है कि भूतकाल में जो हो चुका उसे भूल कर भविष्य सुधारने का प्रयास करो।
"बीती ताही बिसार दे, आगे की सुध ले"

जब भगवान हमारी परेशानियां दूर करते हैं तो हमारा उनकी सक्षमता पर विश्वास और ज्यादा पुख्ता हो जाता है। पर जब वे हमारी परेशानियां दूर नहीं करते तो इसका सीधा अर्थ है कि उन्हें हमारी सक्षमता पर विश्वास है।

दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है यह सभी जानते हैं। इसलिए जब सुख, स्मृद्धी का दौर चल रहा हो तब उसका भरपूर आनंद उठाएं क्योंकि वह स्थायी नहीं है। पर जब सामने मुसीबतें आ खड़ी हों तब भी हौसला बनाए रखें क्योंकि वह भी कहां स्थायी हैं।

शनिवार, 13 नवंबर 2010

सागर में तैरने वाले को तरण-ताल में वह सुख कहाँ मिल पाता है

नमस्कार,
पंजाबी में एक कहावत है "मुड़, मुड़ खोती बोड़ हेंठा" यानि घूम फिर कर वहीं लौटना। (अब पूरा ट्रांसलेशन ना करवाएं :-) )

तो लब्बोलुआब यह है कि पूरे 26 दिनों बाद लौटना हुआ है। पूरे प्रवास के दौरान अपने अस्त्र-शस्त्र साथ ना होने से कितनी परेशानी होती है यह मैं ही जानता हूं। चाह कर भी आप किसी से बात नहीं हो पा रही थी। ना ढंग से दुआ सलाम हुई ना ठीक से आपके स्नेह का उत्तर दे पाया। इस सारे समय में तीन बार "कैफे" में जा कर कुछ करने की कोशिश की भी थी पर आप समझ सकते हैं कि सागर में तैरने वालों को तरण-ताल में क्या मजा आयेगा।

तो देर तो हुई है जिसके लिए क्षमाप्रार्थी हूं। पर फिर भी मेरी तरफ से हरेक प्रिय जन को बीते पर्वों की तहे दिल से शुभकामनाएं तथा मेरे इस दुनिया में टपकने वाले दिन पर याद करने का बहुत-बहुत धन्यवाद।

बुधवार, 3 नवंबर 2010

एक मासूम सी जिज्ञासा

सभी जानते हैं कि पेड़-पौधे सूर्य की रौशनी में आक्सीजन छोड़ते हैं और रात को कार्बन डाई आक्साइड। इसी लिए रात को पेड़ों के नीचे सोने को मना किया जाता है।
पर जंगलों में और उन घने जंगलों में जहां दिन में भी सूर्य की किरणें बमुश्किल पहुँच पाती हैं वहाँ जंगली जानवर और सारे पशु-पक्षी जिन्हें आक्सीजन की जरूरत होती है, रात को कैसे रह पाते हैं? जब कि वहाँ कार्बन डाई आक्साइड अपनी पूरी प्र्चन्ड़ता से उपस्थित होती होगी।

मंगलमय समय आप सब के लिए खुशियाँ, समृद्धि और शान्ति ले कर आए।
मेरे लिए भी :-)

विशिष्ट पोस्ट

अवमानना संविधान की

आज CAA के नियमों को लेकर जैसा बवाल मचा हुआ है, उसका मुख्य कारण उसके नियम नहीं हैं बल्कि हिन्दू विरोधी नेताओं की शंका है, जिसके तहत उन्हें लग...