सोमवार, 23 अगस्त 2021

गोरखधंधा, एक प्रतिबंधित शब्द

किसी जटिल, पेचीदा, बहुत उलझे हुए काम को, जो समझ में ना आए पर पूरा भी हो जाए, गोरखधंधा कहा जाने लगा था। दरअसल गोरखनाथ जी अपने बनाए एक यंत्र का प्रयोग किया करते थे, जिसे धनधारी या धंधाधारी कहा जाता था। यह लोहे या लकड़ी की सलाइयों से बना एक चक्र होता था, जिसके बीचोबीच के छेद में धागे से बंधी एक कौड़ी डाली जाती थी जिसे बिना धागे को उलझाए या किसी अन्य वस्तु को छुए सिर्फ मंत्रों के प्रयोग से ही निकालना होता था ! गोरखपंथियों का मानना था कि जो भी इस कौड़ी को सही तरीके से बाहर निकाल लेता था उस पर गुरु गोरखनाथ की विशेष कृपा होती थी............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

कभी-कभी किसी शब्द का अर्थ समय के साथ बदल, कैसे विवादित हो जाता है, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है शब्द ''गोरखधंधा'' ! पता नहीं कब और कैसे धीरे-धीरे इस का प्रयोग गलत कार्यों की व्याख्या के लिए होने लग गया। यह शब्द चर्चा में तब आया जब हरियाणा सरकार ने इसके अर्थ को अनुचित मान इस पर प्रतिबंध लगा दिया ! गोरखनाथ संप्रदाय से जुड़े एक प्रतिनिधिमंडल ने मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से मुलाकात कर आग्रह किया था कि 'गोरखधंधा' शब्द के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दें क्योंकि इस शब्द के नकारात्मक प्रयोग व उसके अर्थ के कारण संत गोरखनाथ के अनुयायियों की भावनाएं आहत होती हैं और उन्हें ठेस पहुंचती है। 

गुरु गोरखनाथ मध्ययुग के एक योग सिद्ध योगी तथा तंत्र के बहुत बड़े ज्ञाता थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम हठयोग परंपरा को प्रारंभ किया था। उनके अनुयायियों द्वारा उन्हें भगवान शिव का अवतार माना जाता है। उन्होंने धर्म प्रचार हेतु सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था और अनेकों ग्रन्थों की रचना भी की थी।गोरखनाथ जी का मन्दिर आज भी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है। उन्हीं के नाम पर इस शहर का नाम गोरखपुर पड़ा है। गोरख-धंधा नाथ, योगी, जोगी, धर्म-साधना में प्रयुक्त एक पावन आध्यात्मिक मंत्र योग विद्या है जो नाथ-मतानुयायियों की धार्मिक भावना से जुडी हुए है !

गोरखनाथ मंदिर, गोरखपुर 
गोरखधंधा शब्द गुरु गोरखनाथ जी की चमात्कारिक सिद्धियों के कारण सकारात्मक अर्थ के साथ प्रयोग में आया था। किसी जटिल, पेचीदा, बहुत उलझे हुए काम को, जो समझ में ना आए पर पूरा भी हो जाए, गोरखधंधा कहा जाने लगा था। दरअसल गोरखनाथ जी अपने बनाए एक यंत्र का प्रयोग किया करते थे, जिसे धनधारी या धंधाधारी कहा जाता था। यह लोहे या लकड़ी की सलाइयों से बना एक चक्र होता था, जिसके बीचोबीच के छेद में धागे से बंधी एक कौड़ी डाली जाती थी जिसे बिना धागे को उलझाए या किसी अन्य वस्तु को छुए सिर्फ मंत्रों के प्रयोग से ही निकालना होता था ! गोरखपंथियों का मानना था कि जो भी इस कौड़ी को सही तरीके से बाहर निकाल लेता था उस पर गुरु गोरखनाथ की विशेष कृपा होती थी और वह जीवन भर किसी भी किस्म के जंजाल में नहीं उलझता था।   

                                            
पर धीरे-धीरे संभवत: अंग्रेजों के समय से इस शब्द का प्रयोग भ्रम में डालने वाले नकारात्मक तथा बुरे कार्यों, जैसे मिलावट, धोखा-धड़ी, छल-कपट, चोरी-छिपे भ्रष्ट कामों के लिए होने या करवाया जाने लगा। क्योंकि अंग्रेज अपनी कुटिल निति के तहत भारतीय संस्कृति और सभ्यता को हीन बनाने के लिए उसके साथ छेड़छाड़ कर ही रहे थे साथ ही साधु-संन्यासियों को भी धूर्त और कपटी बता हिन्दू धर्म को भी नीचा दिखाने की पुरजोर कोशिश में लगे हुए थे ! इसमें आम जनता का अल्प ज्ञान बहुत बड़ा करक था, जिसके अनुसार धंधा शब्द का सिर्फ एक ही अर्थ होता था, व्यापार या पेशा ! उसके दूसरे अर्थ, वृत्ति या प्रवृत्ति से वे बिल्कुल अनभिज्ञ थे। यही अनभिज्ञता इस शब्द के पराभव का कारण बनी !

भजन एल्बम 
विद्वान और धार्मिक मामलों के जानकारों के अनुसार गुरु गोरखनाथ जी ने मनुष्य के मानसिक, बौद्धिक और सामाजिक विकास के लिए इतनी सारी विधियां आविष्कृत कीं कि अशिक्षित लोग उलझ कर रह गए और समझ नहीं पाए कि उनमें किस के लिए कौन सी पद्यति ठीक है, कौन सी नहीं ! इसमें कौन सी करें और कौन सी नहीं की उलझन सुलझ नहीं पाई ! शायद इस से भी गोरखधंधा शब्द प्रचलन में आ गया। यानी जो समझा ना जा सके या कोई जटिल काम जिसका निराकरण करना सहज न हो, वो गोरखधंधा !

अब इस शब्द पर प्रतिबंध तो लग गया ! जबकि व्यापक स्तर पर इस शब्द का सही अर्थ बताया जाना चाहिए था ! प्रतिबंध लगने से तो एक तरह से उसके नकारात्मक अर्थ पर मोहर सी ही लग गई ! अब देखना यह है कि वर्षों से कव्वालियों और भजनों में प्रयुक्त होता आया यह शब्द, अपने सकारात्मक अर्थ को कब फिर से पा सकेगा ! क्या लोग इस शब्द के सही अर्थ को समझ इसे फिर से चलन में ला सकेंगे ! गुरु गोरखनाथ जी के ही शब्दों में, कोई बाहरी रोक-टोक तो कर सकता है पर अंदरूनी रोक खुद ही करनी पड़ती है ! अपने अंतस की बात खुद ही सुननी पड़ती है ! 

रविवार, 15 अगस्त 2021

अब स्वतंत्रता दिवस, निपटाना नहीं मनाना है

वर्षों तक लोग स्वंय-स्फुर्त हो घरों से निकल आते थे। पूरे साल जैसे राष्ट्रीय दिवस का इंतजार रहता था ! पर अब लोग इनसे  जुडे समारोहों में खुद  नहीं आते, उन्हें बरबस वहां लाया जाता है। दुःख होता है, यह देख कर कि इन पर्वों  को मनाया नहीं, बस  किसी तरह निपटाया  जाता है। इससे भी इंकार नहीं है कि देश-दुनिया का माहौल,  अराजकता, आतंक, असहिष्णुता जैसे  कारक भी इनसे  दूरी बनाने के कारण हैं, पर कटु सत्य यही है कि लोगों की भावनाएं अब पहले जैसी नहीं रहीं ............!

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15 अगस्त, वह पावन दिवस जब देशवासियों ने एकजुट हो आजादी पाई थी। कितनी खुशी, उत्साह और उमंग थी तब। वर्षों तक लोग स्वंय-स्फुर्त हो घरों से निकल आते थे, पूरे साल जैसे इस दिन का इंतजार रहता था। पर धीरे-धीरे आदर्श, चरित्र, देश प्रेम की भावना का छरण होने के साथ-साथ यह पर्व महज एक अवकाश दिवस के रूप मे परिवर्तित होने पर मजबूर हो गया। इस कारण और इसी के साथ आम जनता का अपने तथाकथित नेताओं से भी मोह भंग होता चला गया। 
   
अब लोग इससे जुडे समारोहों में खुद नहीं आते उन्हें बरबस वहां लाया जाता है। अब इस पर्व को मनाया नहीं निपटाया जाता है। आज हाल यह है कि संस्थाओं में, दफ्तरों में और किसी दिन जाओ न जाओ आज जाना बहुत जरूरी होता है, अपने-आप को देश-भक्त सिद्ध करने के लिए। खासकर विद्यालयों, महाविद्यालयों में जा कर देखें, पाएंगे मन मार कर आए हुए लोगों का जमावड़ा, कागज का तिरंगा थामे बच्चों को भेड़-बकरियों की तरह घेर-घार कर संभाल रही शिक्षिकाएं ! साल में सिर्फ दो या तीन बार निकलती गांधीजी की तस्वीर ! नियत समय के बाद आ अपनी अहमियत जताते खास लोग। फिर मशीनी तौर पर सब कुछ जैसा चला आ रहा है वैसा ही निपटता चला जाता है ! झंडोत्तोलन, वंदन, वितरण, फिर दो शब्दों के लिए चार वक्ता, जिनमे से तीन आँग्ल भाषा का उपयोग कर उपस्थित जन-समूह को धन्य करते हैं और लो हो गया सब का फ़र्ज पूरा। कमोबेश यही हाल सब जगह है।
 
खुदा ना खास्ता यदि ये राष्ट्रीय दिवस रविवार को पड़ जाएं तो बाबू लोगों के मुंह का स्वाद और भी कड़वा हो जाता है ! लगता है जैसे उनकी कोई प्रिय चीज लूट ली गई हो ! चौबीस घंटे में पैंतालीस बार इस बात का दुखड़ा आपस में रो कर मातम मनाऐंगे ! कारण भी तो है ! हमें काम करने की आदत ही नहीं रह गई है ! साल शुरू होते ही हम कैलेण्डर में पहले छुट्टियों की तारीखें देखते हैं ! हर समय कुछ मुफ्त में पाने की फिराक में रहते हैं ! इसमें दोष अवाम का भी नहीं है ! कहावत है जैसा राजा वैसी प्रजा ! आज जापान को देखिए वहां सौ में नब्बे आदमी ईमानदार है ! क्योंकि उन्हें वैसा ही नेतृत्व मिला ! हमारे यहां उसका ठीक उलट, सौ में नब्बे बेईमान हैं ! ऐसा क्यों हुआ, कहने की कोई जरुरत ही नहीं है ! अवाम को जैसा दिखा वैसा ही उसने सीखा ! पचासों साल से आम आदमी ने लूट-खसोट, भ्रष्टाचार, बेईमानी, मनमानी, उच्चश्रृंखलता का राज देखा ! वह भी वैसा ही हो गया ! 
आजादी के शुरु के वर्षों में सारे भारतवासियों में एक जोश था, उमंग थी, जुनून था। प्रभात फ़ेरियां, जनसेवा के कार्य और देश-भक्ति की भावना लोगों में कूट-कूट कर भरी हुई थीं। चरित्रवान, ओजस्वी, देश के लिए कुछ कर गुजरने वाले नेताओं से लोगों को प्रेरणा मिलती थी। यह परंपरा कुछ वर्षों तक तो चली फिर धीरे-धीरे सारी बातें गौण होती चली गयीं। देश सेवा एक व्यवसाय बन गई ! सत्ता हासिल करने की होड़ लग गई !  पहले जैसी भावनाएं, उत्साह, समर्पण सब तिरोहित हो गए ! इसका असर आम आदमी पर पडना ही था, पड़ा,और वह भी देशप्रेम की भावना से दूर होता चला गया ! उसमें भी ''मैं और मेरा'' का भाव गहरे तक पैठ गया ! धीरे-धीरे यह बात कुटेव बन गई ! अब यदि इसे सुधारने की कोशिश की जाती है तो उसमें भी लोगों को बुराई नजर आती है ! उसका भी विरोध होता है ! सामने वाले की मंशा पर शक होने लगता है ! 
जब चारों ओर हताशा, निराशा, वैमनस्य, खून-खराबा, भ्रष्टाचार बुरी तरह हावी हों तो यह भी कहने में संकोच होता है कि आइए हम सब मिल कर बेहतर भारत के लिए कोई संकल्प लें। पर संकल्प तो लेना ही पडेगा ! देश है तभी हम हैं ! हम रहें ना रहें देश को रहना ही है ! यदि कोई देश के उत्थान की बात करता है, यदि किसी की आँखों में देश को फिर से जगतगुरु बनाने के सपने हैं, यदि कोई देश को दुनिया का सिरमौर बनाना चाहता है, यदि कोई देश के गौरव उसके सम्मान के लिए कुछ भी कर गुजरने को उतारू है तो हमें उसके पीछे खड़ा होना है ! उसका उत्साह बढ़ाना है ! उसके मार्ग में आने वाले हर कटंक को दूर करने ने उसकी सहायता करनी है !  
प्रकृति के नियमानुसार कुछ भी स्थाई नहीं है ! जो है वह खत्म भी होता है, भले ही उसमें कुछ समय लगे ! तो इतने दिनों से एकत्रित हुई बुराइयों को भी ख़त्म होना ही है ! दिन बदलने ही हैं ! बेहतर समय को आना ही है ! देश को फिर स्वर्णिम युग में प्रवेश करना ही है ! इसी विश्वास के साथ सबको इस दिवस की, जिसने हमें भरपूर खुश होने का मौका दिया है, ढेरों शुभकामनाएं। वंदे मातरम, जय हिंद, जय हिंद  की सेना !  

गुरुवार, 12 अगस्त 2021

नाग पंचमी, आभार क्षेत्रपाल का

नाग, दुनिया का शायद सबसे ज्यादा रहस्यमय जीव ! पौराणिक कथाओं में नागों का निवास धरती के नीचे, सोने और रत्नों से बने, भोगवती नामक क्षेत्र को माना जाता है ! जहां सुख-समृद्धि व  खुशहाली का सदा वास रहता है। मान्यता है कि इसका प्रवेश मार्ग दीमक की बांबियों से हो कर गुजरता है। शायद इसीलिए यह आम धारणा बन गई है कि जहां सांप का निवास होता है, वहां भूमिगत खजाना भी होता है। जिसकी रक्षा के लिए वहां सर्प तैनात रहते हैं .................!

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हमारे ऋषि-मुनियों ने जब समस्त जगत को एक कुटुंब माना तो उनकी सोच में सिर्फ मानव जाति ही नहीं थी, उन्होंने पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति यानी समस्त चराचर के साथ आत्मीय संबंध जोड़ने का प्रयत्न किया था। प्रकृति की छोटी-बड़ी हर चीज का रक्षण, संरक्षण और संवर्धन ही उनका ध्येय था। क्योंकि उनका मानना था कि संसार में कोई भी चीज अकारण या महत्वहीन नहीं होती ! इसीलिए उनके द्वारा पेड़-पौधों के साथ-साथ जीव-जंतुओं के सम्मान और पूजा-अर्चना का विधान भी बनाया गया था। जीव-जंतुओं को धर्म और भगवान के साथ जोड़ा गया, जिससे मानव के मन में उनके लिए भी दया भाव बना रहे ! फिर वह चाहे अदना सा चूहा हो, विशालकाय हाथी हो, हिंस्र शेर हो या जहरीला नाग ही क्यों ना हो !

नाग की बात करें तो यूरोपियन कथाओं में उसे शैतान का नकारात्मक रूप दिया गया है ! जो अपने पपड़ीदार शरीर के साथ जमीन पर रेंगता है ! वहीं कृषिप्रधान हमारे देश के ग्रंथों में उसे कृषिरक्षक का महत्वपूर्ण सम्मान प्रदान कर क्षेत्रपाल और ज्ञान के साथ जोड़ा गया है ! क्योंकि जीव-जंतुओं से फसल की रक्षा कर वह हमारे खेत को हराभरा रखता है, जिससे हमें धन-धान्य की कमी नहीं होती ! इसीलिए उसके धन्यवाद स्वरुप सावन की शुक्लपक्ष की पंचमी को नागपंचमी के रूप में मनाया जाता है। वैसे भी सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित है। इस मास में मनाए जाने वाले महत्वपूर्ण त्योहारों में नाग पंचमी भी शामिल है। एक ऐसा त्योहार जो भगवान शिव और नाग देवता दोनों का सम्मान करता है। शिवजी को नाग है भी बहुत प्रिय ! ऐसा माना जाता है कि नाग पंचमी को मनाने से शिवजी का आशीर्वाद मिलता है, जिससे सारे पापों से छुटकारा मिल जाता है। ऐसे में नाग हमारी संस्कृति का हिस्सा बन पूजनीय हो गए ! उन्हीं के पूजन का दिन होता है नागपंचमी !
वैसे तो हमारे यहां सर्पों की बहुत सी प्रजातियां पाई जाती हैं पर इनमें सबसे श्रेष्ठ नागों को माना जाता है ! ऋषि कश्यप की कद्रू नामक पत्नी से नागवंशकी उत्पत्ति हुई. जिसे नागों का प्रमुख अष्टकुल कहा जाता है।  नाग और सर्प में फर्क होता है। सभी नाग कद्रू के पुत्र थे जबकि सर्प ऋषि कश्यप की दूसरी पत्नी क्रोधवशा की संतानें हैं। इस दिन नाग की पूजा की जाती है। इनके बारे में अनगिनत प्रचलित कथाओं में से एक में वर्णन है कि एक बार मातृ श्राप के कारण नागलोक जलने लगा था। तब इस दाहपीड़ा की निवृत्ति के लिए दूध से स्नान करवा कर नागों की जलन शांत की गई थी ! उस दिन पंचमी तिथि थी ! इसीलिए यह दिन नागों को बहुत प्रिय है और इस दिन पूजन करने से भक्तों को सर्पभय से मुक्ति भी मिलती है !
पूजन 
पता नहीं कब और कैसे सांप को दूध पिलाने की भ्रामक धारणा लोगों के दिमाग में घर कर गई, जिसे हमारी बेतुकी फिल्मों ने भी बहुत सहारा दिया ! जबकि शास्त्रों में दूध पिलाने की नहीं बल्कि दूध से स्नान करवाने की बात कही गई है ! जबरदस्ती का दुग्धपान इस जीव के लिए हानिकारक होता है। जितनी कथाएं, कहानियां, किंवदंतियां, मान्यताएं इससे जुडी हुई हैं, दुनिया में शायद ही ऐसा कोई और जीव हो, जो इतनी रहस्यमयता का आवरण लपेटे हुए भी पूजनीय हो !    

नागों का हमारी कथा-कहानियों से बहुत पुराना नाता है। अनगिनत कहानियों में इनका वर्णन है ! समुद्र-मंथन में वासुकि नाग का महत्वपूर्ण योगदान ! विष्णु जी की शेषशैय्या ! शिवजी के गले में कंठहार ! रामायण में युद्ध के समय नागपाश ! श्री कृष्ण जी द्वारा कालिया मर्दन ! रामायण तथा महाभारत में शेषनाग जी का लक्ष्मण व बलदेव के रूप में अवतार ! वहीं महाभारत में खांडव वन की घटना, जिसने काल और इतिहास दोनों को बदल कर रख दिया ! उस घटना के बाद नागों ने पांडवों को कभी माफ़ नहीं किया और इसी के कारण वर्षों बाद अर्जुन के पोते, परीक्षित की जान गई ! खांडव वन के विनाश के पश्चात ही नाग, देश के उत्तरी भाग को छोड़ दक्षिणी हिस्से में चले गए थे। इसीलिए आज भी दक्षिणी भारत में नाग मंदिरों की बहुतायद है। 

मनसा देवी 
पौराणिक कथाओं में नागों का निवास धरती के नीचे सोने और रत्नों से बने भोगवती नामक क्षेत्र को माना जाता है ! जहां सुख-समृद्धि व खुशहाली का सदा वास रहता है। मान्यता है कि इसका प्रवेश मार्ग दीमक की बांबियों से हो कर गुजरता है। शायद इसीलिए यह आम धारणा बन गई है कि जहां सांप का निवास होता है, वहां भूमिगत खजाना भी होता है। जिसकी रक्षा के लिए वहां सर्प तैनात रहते हैं ! वासुकी को नागों का राजा माना जाता है ! ऐसी मान्यता है कि इनकी एक मनसा नामक बहन है, जिसकी सर्पदंश से सुरक्षित रहने के लिए बंगाल सहित देश  के कई पूर्वोत्तर भागों में पूजा की जाती है।   

सोमवार, 9 अगस्त 2021

गेपरनाथ, जहां शिव जी सपरिवार कुछ समय गुजारते हैं

ताल के हरे रंग के पारदर्शी पानी में कई लोग नहाने का आनंद ले अपनी थकावट दूर कर लेते हैं । जमीन का ढलाव यहां भी ख़त्म नहीं होता, बल्कि घाटी नीचे और नीचे होते हुए घने जंगल में विलीन होती चली जाती है। दर्रे की दूसरी दिवार पर भी कुछ कुटियानुमा कंदराएं नज़र आती हैं। जिनके बारे में बताया जाता है कि पहुंचे हुए साधू-संत वहां रह कर अपनी साधना पूरी किया करते थे............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

सावन का पावन महीना ! हर जगह हर-हर महादेव की गूँज ! सारा देश शिवमय ! शिव शंकर भोलेनाथ के देश भर में स्थित हजारों देवस्थानों में उत्सव का माहौल ! शिवालय छोटा हो या बड़ा, भगतों को कोई फर्क नहीं पड़ता ! उन्हें सिर्फ प्रभु का सानिध्य चाहिए होता है ! देव स्थान का मार्ग जितना दुर्गम होता है, लोगों के मन में उसकी प्रमाणिकता उतनी ही बढ़ जाती है। खासकर पहाड़ों के दुर्गम रास्तों के बाद अपने गंतव्य पर जा अपने इष्ट के दर्शन मिलने पर आस्था और विश्वास दोगुना हो जाता है। कष्ट सह कर पहुँचने पर जिस अलौकिक आनंद की अनुभूति मिलती है वह वर्णनातीत होती है। वैसे पहाड़ों के अलावा भी हमारे देश में कई ऐसे स्थान हैं, जहां पहुंचना कुछ कष्ट-साध्य ही माना जाएगा। 

प्रवेश द्वार 




ऐसा ही राजस्थान के कोटा शहर के पास, चम्बल की गहरी कंदराओं में प्रकृति की गोद में स्थित एक अनोखा, रहस्यमय, कुछ अनजाना सा शिवालय है, बाबा गेपरनाथ ! यहां का मार्ग दुर्गम तो नहीं है पर रोमांचक जरूर है ! कोटा बूंदी के रावतभाटा मार्ग पर रथ कांकरा के पास शहर से करीब 24-25 कि.मी. की दूरी पर एक सड़क दायीं ओर मुड़ती है, जो करीब दो कि.मी. के बाद चम्बल की घाटी और उस पर बने प्राकृतिक पहाड़ी, संकरे दर्रे पर जा कर ख़त्म होती है। ऊपर से घाटी की गहराई 800 से 1000 फिट तक की है। वहीं से पहाड़ी की एक दिवार से जुडी हुई सीढ़ियों की श्रृंखला नीचे तक चली गयी है। करीब चार सौ सीढ़ियां उतरने के बाद, भूतल से करीब 100 फिट पहले एक चबूतरे पर खोह नुमा जगह पर शिव जी का छोटा सा लिंग स्थापित है जिस पर पहाड़ी के अंदर से लगातार अटूट जलधारा आ कर उसका अभिषेक करती रहती है। मंदिर के अंदर जगह इतनी कम और संकरी है कि बमुश्किल दो लोग ही झुक कर बैठ सकते हैं। 






ऐसा माना जाता है कि पूर्व काल में यह क्षेत्र भील राजाओं के आधीन था, उन्हीं  भीलों के शैव मतावलंबी गुरु ने इस मंदिर की स्थापना करवाई थी। यहां के शिवलिंग की विशेषता है कि यह दोहरी योनि में स्थित है ! ऐसा उदाहरण बहुत कम देखने को मिलता है। स्थानीय लोग बाबा गेपरनाथ के रूप में यहां शिवजी को पूजते हैं। ऐसी मान्यता है कि शिवरात्रि के आस-पास शिव जी अपने पूरे परिवार के साथ कुछ समय यहां गुजारते हैं। इस जगह को करीब पांच सौ साल पुराना बतलाया जाता है। यह स्थान साधू-संतों की तपस्थली भी रहा है। 




मंदिर से कुछ नीचे, पहाड़ी से गिरी हुई छोटी-बड़ी शिलाओं से घिरा, एक ताल है, जिसमें पहाड़ों से आ-आ कर पानी एकत्र होता रहता है। हरे रंग के पारदर्शी पानी में कई लोग नहाने का आनंद ले अपनी थकावट दूर कर लेते हैं । जमीन का ढलाव यहां भी ख़त्म नहीं होता, बल्कि घाटी नीचे और नीचे होते हुए घने जंगल में विलीन होती चली जाती है। दर्रे की दूसरी दिवार पर भी कुछ कुटियानुमा कंदराएं नज़र आती हैं। जिनके बारे में बताया जाता है कि पहुंचे हुए साधू-संत वहां रह कर अपनी साधना पूरी किया करते थे।आज तो दस तरह की सहूलियतें उपलब्ध हैं। पर देख सुन कर आश्चर्य होता है कि जब इतने साधन नहीं थे, तब इतने दुर्गम, निर्जन, सुनसान, दुरूह इलाके की खोज कैसे हुई होगी। कैसे पहुंचा गया होगा यहां !



सुरम्य घाटी 
जो भी हो ! अद्भुत जगह है यह ! नीचे उतरने के पश्चात किसी दूसरे लोक में होने का अनुभव होने लगता है ! दिन की रौशनी में प्रकृति की अपूर्व छटा साल भर लोगों को लुभा कर प्रभू के दर्शन के अलावा युवाओं को पिकनिक के लिए भी आमंत्रित करती रहती है। इसीलिए दिन ब दिन लोगों की आवक बढती ही जा रही है ! 2008 में एक हादसे में सीढ़ियों के धंस जाने की वजह से पचासों लोग यहां फंस गए थे ! जिन्हें बड़ी मुश्किल और जद्दोजहद के बाद निकाला जा सका था ! उसके बाद ही पक्की-मजबूत सीढ़ियां बनाई गईं। पर अभी भी अभी बहुत सी मूलभूत सहूलियतों और सुरक्षात्मक उपायों की जरुरत है ! फिर भी यदि कभी मौका मिले तो ऐसी अद्भुत जगह के दर्शन करने का सुयोग छोड़ना नहीं चाहिए। 

गुरुवार, 5 अगस्त 2021

छाता-छतरी-अम्ब्रेला

बरसात का मौसम है ! ऐसे में छातों के बारे में बात ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता ! हालांकि बारिश से बचाव के लिए बरसाती  यानी  रेन कोट भी उपलब्ध है, पर छाते का  रोमांस ही  कुछ अलग होता है ! सबसे ज्यादा सुंदर, कलात्मक और  आधुनिक छाते चीन में बनाए जाते हैं जहां इसको  बनाने वाले हजारों कारखाने दिन-रात काम करते हैं. पर इसकी इसकी बिक्री में अमेरिका सबसे आगे है जहां लाखों छाते हर साल खरीदे-बेचे जाते हैं ! हमारे यहां बंगाल में बंगाली भद्र लोक का इस मौसम में छाता अभिन्न अंग होता है............! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 

काफी इंतजार करवाने के बाद दिल्ली में बरखा रानी मेहरबान हुई हैं। अब जब वह अपना जलवा बिखेर रही है तो हमें अपनी  बरसातियां, छाते याद आने लगे हैं।  बरसातियां तो  खैर बहुत बाद में मैदान में आईं, पर छाते तो सैंकड़ों सालों से हम पर छाते रहे हैं। छाता, जिसे दुनिया में ज्यादातर  "Umbrella"  के नाम से जाना जाता है, उसे यह नाम लैटिन भाषा के  "Umbros"  शब्द, जिसका अर्थ छाया होता है, से मिला है।  समय के साथ  इसका चलन कुछ कम जरूर हुआ है। क्योंकि पहले ज्यादातर लोग पैदल आना-जाना किया करते थे ! तब धूप और बरसात में इसकी सख्त जरुरत महसूस होती थी।  पर फिर बरसातियों के आगमन से या कहिए कि मोटर गाड़ियों की सर्वसुलभता के कारण इसकी पूछ परख कुछ कम हो गयी।  वैसे मौसम साफ होने पर यह एक भार स्वरूप भी तो लगने लगता था। फिर भी हजारों सालों से यह हमारी आवश्यकताओं में शामिल रहने के लिए जी-तोड़ कोशिश करता रहा और इसमें सफल भी रहा ही है।

      


खोजकर्ताओं  का मानना  है कि मानव ने आदिकाल से ही अपने  को तेज धूप से बचाने  के लिए वृक्षों के  बड़े-बड़े पत्तों इत्यादि का उपयोग करना शुरू कर दिया होगा। आज के छाते के पर-पितामह का जन्म कब हुआ यह कहना कठिन है, फिर भी जो जानकारी मिलती है, वह हमें 4000 साल पहले तक ले जाती है। उस समय छाते सत्ता और धनबल के प्रतीक हुआ करते थे और राजा-महाराजाओं की शान बढ़ाने का काम करते थे। शासकों और धर्मगुरुओं के लिए छत्र एक अहम जरूरत हुआ करती थी। धीरे-धीरे इसे आम लोगों ने भी अपनाना शुरू कर दिया। 
ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले चीन ने करीब तीन हजार साल पहले पानी से बचाव के लिए जलरोधी छतरी बनाई थी ! फिर समय के साथ-साथ छोटे छातों का चलन शुरू हुआ तो उसमें भी फैशन ने घुस-पैठ कर ली, खासकर  ग्रीस और रोम की महिलाओं के छातों में, जो उनके लिए एक जरूरी वस्तु का रूप इख्तियार करती चली जा रही थी. उस समय छाते को महिलाओं के फैशन की वस्तु ही समझा जाता था. ऎसी मान्यता है कि किसी पुरुष द्वारा सार्वजनिक स्थान पर सबसे पहले इसका उपयोग अंग्रेज पर्यटक और मानवतावादी "जोनास हानवे" ने करना आरंभ किया था. जिसकी देखा-देखी अन्य लोगों ने भी पहले इंग्लैण्ड और बाद में सारे संसार में इसका उपयोग करना शुरू कर दिया।    
 

लोगों की पसंद और इसकी उपयोगिता को देखते हुए इस पर तरह-तरह के प्रयोग भी होने शुरू हो गए । इसका रंग-रूपबदलने लगा। इसके कई तरह के "फोल्डिंग" प्रकार भी बाजार में छा गए, जिनका आविष्कार 1969 में हुआ।  इसकी यंत्र-रचना और इसमें उपयोग होने वाली चीजों में सुधार तथा बदलाव आने लगा।  सबसे ज्यादा ध्यान इसके कपडे पर दिया गया जिसे आजकल टेफ्लॉन की परत चढ़ा कर काम में लाया जाता है, जिससे कपड़ा पूर्णतया जल-रोधी हो जाता है।
   
धीरे-धीरे छाता जरुरत के साथ-साथ फैशन की चीज भी बनता चला गया। आजकल इसके विभिन्न रूप यथा पारम्परिक, स्वचालित, फोल्डिंग, क्रच  (जिसे चलते समय छड़ी की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है) इत्यादि,  तरह-तरह के आकारों तथा रंगों में उपलब्ध हैं । इसके  साथ ही इसका  उपयोग  नाना प्रकार के अन्य  कार्यों जैसे  फोटोग्राफी,  सजावट या किसी  वस्तु की तरफ ध्यान आकर्षित करवाने के लिए भी किया जाने लगा है ! सबसे ज्यादा सुंदर, कलात्मक और आधुनिक छाते चीन में बनाए जाते हैं जहां इसको बनाने वाले हजारों कारखाने दिन-रात काम करते हैं. पर  इसकी बिक्री में अमेरिका सबसे आगे है. जहां लाखों छाते हर साल खरीदे-बेचे जाते हैं। अब तो उमस से राहत देने के लिए छोटे पंखे और अँधेरे से बचाव के लिए एल.ई.डी. बल्ब  वाले छाते भी बाजार में उपलब्ध हैं !

     
अपने यहां छाते की लोकप्रियता बंगाल में 80 के दशक तक चरम पर थी, जब दफ्तर जाते समय बंगाली बाबू यानी भद्रलोक के पास एक थैले, छाते और अखबार का होना निश्चित सा होता था।   

@ चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

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