गुरुवार, 30 जुलाई 2020

तब मैं भी उतने में बेचता हूँ

शीत युग की आहट से आशंकित गांव के सरपंच ने पूरे गांव की सुरक्षा के लिए फर्रुखाबाद का जरदोजी रफ़ल (शॉल) लेने की सोची। एक विश्वसनीय दूकान से 1670/- की दर से उसने अपनी जरुरत के हिसाब से खरीदी कर ली, जिसमें अतिरिक्त कलाकारी, कीटों से सुरक्षा तथा घर-पहुंच सेवा जैसी कई सुविधाएं भी सम्मिलित थीं..............!

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एक समय कहीं एक सुखी, समृद्ध व खुशहाल गांव हुआ करता था। पर वक्त की मार और अपनों की रार ने उसे बदहाली के रास्ते पर धकेल दिया। फिर समय ने करवट ली ! लोगों में जागरूकता आई ! अपने पैरों पर खड़े होने की ठानी गई ! परिवेश सुधरने लगा ही था कि प्राकृतिक व ईर्ष्यालु और द्वेषी पड़ोसियों जनित संकट सर पर आ खड़े हुए ! ऐसी घडी में भी कुछ बार-बार मुंहकी खाए, समाज से नकार दिए गए कुंठित लोग, अपनी धरती और अपने लोगों की सहायता करने की बजाए अपनी नाजायज हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे। उन्हीं की एक आत्मघाती हरकत की बानगी !

''शीत युग'' की आहट से आशंकित गांव के सरपंच ने पूरे गांव की सुरक्षा के लिए फर्रुखाबाद का जरदोजी रफ़ल (शॉल) लेने की सोची। एक विश्वसनीय दूकान से 1670/- की दर से उसने अपनी जरुरत के हिसाब से खरीदी कर ली, जिसमें अतिरिक्त कलाकारी, कीटों से सुरक्षा तथा घर-पहुंच सेवा जैसी कई सुविधाएं भी सम्मिलित थीं। पर वर्षों से उसके एक दिग्भ्रमित विरोधी को, अपनी आदतानुसार इस सौदे में भी ठगाई और मूर्खता की बू आने लगी ! उसने हो-हल्ला मचाया कि रफ़ल की कीमत सिर्फ 526/- होनी चाहिए थी। सरपंच गड़बड़ कर रहा है ! अपनी बात सिद्ध करने वह उस दुकानदार के पास गया और पूछा कि कुछ दिनों पहले तुम्हारे बगल वाला विक्रेता इसे 526/- में बेच रहा था तुम तिगुनी कीमत ले रहे हो ! विक्रेता ने पलट कर पूछा, तो आपने उसी समय उससे क्यों नहीं ले लिया था ? वह बोला, उस समय उसके पास माल नहीं था ! दुकानदार ने हस कर कहा, ''सर जी ! जब मेरे पास भी माल नहीं होता तो मैं भी 526/- में ही बेचता हूँ !'' बार-बार लज्जित होने और हास्य का पात्र बनने के बावजूद ऐसे लोग अपनी कुंठा और पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते ! द्वेषवश, अपने मान-सम्मान की चिंता छोड़ दूसरे को बदनाम करने के लिए कोई नया शगूफा तलाशने लगते हैं।  काश, ये अपनी बुद्धि, कौशल और अनुभवों को जनहित के लिए उपयोग में ला अपने गुम होते नाम, सम्मान और स्थान को फिर से पाने में अपने समय का सदुपयोग कर पाते !!  

सोमवार, 27 जुलाई 2020

शिव जी और उनका बाघम्बर

भगवान शिव का रूप-स्वरूप जितना आकर्षक है उतना ही रहस्यमय और विचित्र भी है। वे चाहे किसी भी रूप में रहें कुछ चीजें वे सदा धारण किए रहते हैं; जैसे, जटा, भस्म, चंद्र, सर्पमाल, डमरू, त्रिशूल, रुद्राक्ष, तथा  बाघम्बर ! उनका कुछ भी अकारण नहीं है। इन सब वस्तुओं की अपनी-अपनी खासियत और महत्व है। इनमें से बाघम्बर को छोड़ सभी की विशेषताएं तकरीबन सर्वज्ञात हैं ! पर यह व्याघ्रचर्म किसका है और कैसे प्राप्त हुआ यह कुछ अल्पज्ञात है, पर इसका उल्लेख पौराणिक कथाओं में उपलब्ध है..........!  

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सावन, भोलेनाथ का प्रिय समय ! इसी समय आकाश से अमृत और कैलाश से कृपा बरसती है ! देश-परिवेश, चहूँ ओर भक्ति से सराबोर हरियाली, खुशहाली, उल्लास का वातावरण ! प्रभु की कृपा पर जन-मानस भाव-विभोर हो उनकी वंदना-पूजा-अर्चना कर अपनी कृतज्ञता प्रदान करता है। सारा देश शिवमय हो उठता है ! उन्हीं की गाथा, उन्हीं की पूजा, उन्हीं का महिमा गान, उन्हीं की स्तुति ! भोले इतने कि ज़रा सी भक्ति पर खुश हो सबको कृतार्थ कर दें ! वरदान देते समय सुर-असुर-मानव-अमानव का भेद नहीं करते ! वे सभी देवी-देवताओं से हट कर हैं। उनका सौम्य और रौद्र, दोनों रूप सुप्रसिद्ध और पूजनीय हैं। ग्रंथों में उनका विस्तार पूर्वक वर्णन उपलब्ध है। 
भगवान शिव का रूप-स्वरूप जितना आकर्षक है उतना ही रहस्यमय और विचित्र भी है। वे चाहे किसी भी रूप में रहें, कुछ चीजें वे सदा धारण किए रहते हैं; जैसे, जटा, भस्म, चंद्र, सर्पमाल, डमरू, त्रिशूल, रुद्राक्ष, तथा बाघम्बर ! उनका कुछ भी अकारण नहीं है। इन सब वस्तुओं की अपनी-अपनी खासियत और महत्व है। इनमें से बाघम्बर को छोड़ सभी की विशेषताएं तकरीबन सर्वज्ञात हैं ! पर यह व्याघ्रचर्म किसका है और कैसे प्राप्त हुआ यह कुछ अल्पज्ञात है पर इसका उल्लेख पौराणिक कथाओं में उपलब्ध है। 

अति प्राचीन समय में जब अभी पृथ्वी के विकास का काम प्रगति पर था, तब शिव जी निरक्षण के लिए अक्सर भ्रमण पर निकला करते थे। वे ठहरे फक्कड़, भोले, तपस्वी, निर्लिप्त, निरपेक्ष ! तो वे दिगंबरावस्था में ही घूमते रहते थे। उनका वसन तो शुभ्र आकाश था। ऐसे ही में एक बार वे दारूकावन जा पहुंचे। जहां कुछ कर्म-कांडी लोग अपने परिवारों सहित वास करते थे। उनकी कर्त्वयपरायण पत्नियां उनकी दिनचर्या और उनके कर्मकांडों को पूरा करने में पूरी तरह समर्पित थीं। एक दिन उन स्त्रियों ने जंगल में ध्यानरत शिव जी को देख लिया ! उनके मोहक, बलिष्ठ, तेजोमय, दिव्य रूप को देख वे सब मोहग्रस्त हो गईं। आठों पहर वे शिव जी का ही ध्यान करने लगीं। उनके पास जाने और उन्हें देखने के लोभ में घर-द्वार सब भूल गईं। शिव जी इन सब बातों से पूरी तरह अनभिज्ञ थे ! वैसे भी उन्हें इन सब से कोई लेना-देना नहीं था। उधर जब घर के पुरुषों को अपनी स्त्रियों में आए बदलाव का कारण जंगल में निवस्त्र घूमते युवक के रूप में मिला तो वे सब आपे से बाहर हो गए। बिना सोचे-विचारे और जाने  कि वह युवक कौन है, क्रोध में मतिभ्रष्ट हो, उसे मारने के लिए उन्होंने जंगल की पगडंडी में एक गहरा गड्ढा खोद डाला और अपनी मंत्र शक्ति से एक विकराल शेर को उत्पन्न कर उसमें छोड़ दिया। पर शिव जी को उस शेर को मारने में पल भर का भी समय नहीं लगा। मरते हुए शेर ने, जो पूर्व जन्म में यक्ष था, शिव जी से सदा उनके पास रहने की याचना की ! शिव जी ठहरे औघड़ दानी ! उन्होंने उसे शिवलोक भेज उसके चर्म को अपना वसन बना लिया। तभी से वह व्याघ्रचर्म, बाघम्बर बन वसन और आसन के रूप में शिव जी द्वारा अपना लिया गया। 

इस घटना के बाद दारुका वनवासियों को शिव जी की असलियत का पता चला। उन सब ने उनकी शरण में जा अपनी गलतियों की क्षमा मांगी। भोले भंडारी ने सब को क्षमा कर भय मुक्त किया और अगली योनि में श्रेष्ठ मुनि-कुल में जन्म लेने का आशीर्वाद दे कैलाश की ओर प्रस्थान किया।   

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

आदमी तो पहले से ही कन्फ्युजियाया हुआ है

पुराने मुहावरों लोकोक्तियों या उद्धरणों को, जो अलग-अलग समय में अलग-अलग विद्वानों द्वारा अलग-अलग समय और परिस्थितियों में दिए गए थे, यदि अब एक साथ पढ़ा जाए, तो कई बार विरोधाभास तो हो ही जाता है साथ ही कुछ हल्के-फुल्के मनोरंजन के पल भी उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे ही कुछ उद्धरण, बिना किसी पूर्वाग्रह या कुंठा के, उन आदरणीय व सम्मानित महापुरुषों से क्षमा चाहते हुए पेश हैं ! आशा है सभी इसे निर्मल हास्य के रूप में ही लेंगे ...........................!

#हिन्दी_ब्लॉगिंग     
''तूने रात बिताई सोय कर, दिवस बितायो खाय,......जन्म अमोल था कौड़ी बदले जाए !''   
* डॉक्टर कहते हैं कि स्वस्थ रहने के लिए सोना बहुत जरुरी है ?
:
"साईं इतनी दीजिए, जा में कुटुंब समाए, मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।"
वसुधैव कुटुम्बकम् ! तो कितने में कुटुंब समाएगा ? 
:
''करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान।''
* पता नहीं कौन सुजान हुआ, सिल या रस्सी ?   
:
''काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब।"
* जल्दी का काम तो शैतान का कहलाता है ?
:
"धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब-कुछ होए, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए।"
* फिर बहुरी कब होगी ?
:
"जो। ...उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग. चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।''
* जैसी संगति वैसा ही फल ! ओछे का संग तो अंगार जैसा होता है जो जलाता भी है और दाग भी छोड़ जाता है ? 
:
''बूढे तोते भी कहीं पढ़ते हैं।''
* सीखने की कोई उम्र नहीं होती ?
:
''भूखे भजन न होय गोपाला।''
* भगवान भी पेट भरा होने पर सूझता है ?
:
"बूँद-बूँद से घड़ा भरता है।''
* समय कहां है, इंसान का जीवन तो बुलबुले के समान है ?
:
''You are what you eat.''
* आलू, प्याज, पालक, पनीर ?
:
''It takes two to make a quarrel.'' 
* एक से दो भले ?
:
''A honey tongue, a heart of gall.''
* मीठी बानी बोलिए ?
:
''Cut your coat according to your cloth."
* बे-माप, पहना कैसे जाएगा ?
:
''Silence is the best.''
* बिना रोए तो माँ भी दूध नहीं पिलाती ?
:
''A Little Knowledge Is a Dangerous thing."
* ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए ?

बुधवार, 22 जुलाई 2020

व्यवसाय, डर व भय का

अलग-अलग समय या आयु में डर भी तरह-तरह का होता है। बचपन में शरारत, हठ या कहना ना मानने पर ''आने दो पापा को'' कह कर अनजाने में पहली बार रोपित किया गया ! किशोरावस्था में कुछ खो जाने, पिछड़ जाने, माँ-बाप से बिछुड़ने का या अवचेतन में दफ़न किसी बात का ! युवावस्था में अनिश्चितता का, रोज़गार का, परिवार की खुशहाली का, माँ-बाप की सेहत का, अंधविश्वासों का ! और फिर प्रौढ़ा या वृद्धावस्था में तो जैसे भय, खौफ, आशंकाओं की बाढ़ सी ही आ जाती है, जिसमें मृत्यु की अवधारणा सबसे बड़ा डर होता  है  ..................! 
 
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डर ! एक भावना है। किसी संभावित खतरे की उपस्थिति या आभास की वजह से दिलो-दिमाग व शरीर पर भी असर डालने वाले ख्यालों या विचारों की श्रृंखला को डर कहा जा सकता है। जो अन्य भावनाओं की तरह जन्म के साथ प्राणियों को नहीं मिलती, उसका रोपण समय के साथ-साथ होता या करवाया जाता है ! जो जन्म भर किसी संभावित खतरे की आशंका के रूप में सभी प्राणियों में स्थाई रूप से दिलो-दिमाग में स्थापित हो जाता है और अधिकतर जीवन इस पर पार पाने में ही गुजर जाता है। इंसान डरता ही रहता है कभी अनहोनी से, कभी परिवार के अनिष्ट से, कभी आर्थिक संकट से पर मृत्यु की अवधारणा उसका सबसे बड़ा डर होता है।

इंसान को जब किसी चीज से जोखिम महसूस होता है तो डर की भावना बढ़ जाती है ! जोखिम की आशंका किसी भी रूप में हो सकती है, चाहे वह स्वास्थ्य हो, धन हो या अपनी या परिवार की सुरक्षा हो ! वैसे अलग-अलग समय या आयु में डर भी तरह-तरह का होता है। बचपन में शरारत, हठ या कहना ना मानने पर ''आने दो पापा को'' कह कर अनजाने में पहली बार रोपित किया गया ! किशोरावस्था में कुछ खो जाने, पिछड़ जाने, माँ-बाप से बिछुड़ने का या अवचेतन में दफ़न किसी बात का ! युवावस्था में अनिश्चितता का, रोज़गार का, परिवार की खुशहाली का, माँ-बाप की सेहत का, अंधविश्वासों का ! और फिर प्रौढ़ा या वृद्धावस्था में तो जैसे भय, खौफ, आशंकाओं की बाढ़ सी ही आ जाती है ! 

दुनिया में शायद ही कोई ऐसा शूरवीर हो जो किसी भी चीज से ना डरता हो। पर ऐसे लोग बेशुमार हैं जो अपने डर को दरकिनार कर दूसरों की इस कमजोरी का भरपूर लाभ उठाते हैं। आज के समय में समाज के हर तबके में भोले-भाले लोगों को बेवकूफ बना ऐसे लोग अपना उल्लू सीधा करने में जुटे हुए हैं। बच्चों को फेल होने का भय दिखला, कोचिंग जैसे व्यापार में लगे ''गुरु'' ! मौत का डर दिखा अपनी जिंदगी संवारते ''डॉक्टर'' ! भगवान का, काल्पनिक सुख का या यंत्रणाओं का खौफ दिखा भोले-भाले लोगों को बरगलाते, धार्मिकता का चोला पहने, अपने को ऊपरवाले का प्रतिनिधि बताते ''ढोंगी'' ! मानव की कमजोरियों का फ़ायदा उठा उल्टे-सीधे-गैर जरुरी उत्पाद बेचते मौकापरस्त-अवसरवादी व्यापारी ! सभी तो लगे हुए हैं डरे हुओं को और डराने में ! मनुष्य की एक छोटी सी कमजोरी ''डर'' दुनिया में अरबों-खरबों का व्यवसाय बन चुकी है ! आम इंसान डर-डर के इतना डर गया है कि अपने को लूटने वालों की असलियत जानने में भी डरने लगा है ! उसके डर को भुना चंट लोग उसे ही डराने में लगे हुए हैं। डरना एक आम इंसान की फितरत बन चुकी है ! अभी तो राजनीती और न्याय व्यवस्था वाला डर अलग ही खड़ा हुआ है, उसकी तो बात ही नहीं की गई !

ज्यादातर किसी भय का कारण बीते समय में हुई किसी अप्रिय घटना का ही परिणाम होता है, इसी लिए बच्चों में इसका अभाव रहता है। पर डर सिर्फ अप्रिय या नकारात्मक भावना ही नहीं है। इसकी अच्छाई भी है। इसी के कारण व्यक्ति या अन्य प्राणी समय-समय पर अपनी रक्षा भी कर पाते हैं।इसीलिए जीवन के बहुमुखी विकास के लिए व्यक्तित्व में आटे में नमक बराबर डर का होना भी जरूरी है। पर समस्या तब शुरू हो जाती है जब इंसान बिना किसी वजह के डरने लगता है। तब उसकी इस कमजोरी से उसका सारा परिवेश ही प्रभावित हो जाता है। अति तो हर चीज की खराब ही होती है ! फिर चाहे वह आक्सीजन ही क्यूँ ना हो !

डर से छुटकारा पाने या बचने के उपाय तो अनुभवी चिकित्सक, योगगुरु या चिंतक बताते ही रहते हैं। उन्हीं में से किसी एक की सलाह मान अपने ''अतिरिक्त भय'' से छुटकारा पाया जा सकता है। पर सबसे अच्छा उपाय इससे भागना नहीं बल्कि सामना करना ही है। क्योंकि अधिकतर डर बेबुनियाद ही होते हैं। 

बुधवार, 15 जुलाई 2020

जहां ना-लायक भी लायक सिद्ध हो जाते हैं

राजनीति हमारे देश में एक ऐसा व्यवसाय बन गई है, जहां ना-लायक को भी लायक सिद्ध कर उसका जीवन सुरक्षित और संवारा जा सकता है ! नैतिकता, मर्यादा, विवेकता, सहिष्णुता, गरिमा, आदर-भाव सब सिर्फ संविधान की पुस्तक के लिए छोड़ दिए गए हैं, ऐसे अनेकों उदहारण हैं ! इन सब से अवाम ने झटका तो खाया, पर दिलो-दिमाग पर वर्षों से काबिज सम्मोहन का कोहरा फिर भी पूरी तरह छंट नहीं पाया ! इसीलिए वह परिवारों के झूठे-सच्चे इतिहास, कुर्बानियों की कपोल कल्पित कथाओं, नेताओं के थोथे वादों और उनके छद्म प्रभामंडलों के आलोक में अपना भविष्य टटोलने में लगा ही रहा ! पर फिर साक्षरता से कुछ समझ, समझ से कुछ जागरूकता आई ! धर्म, जाति, भाषा, इतिहास के नाम पर बिछाए गए इंद्रजाल छिन्न-भिन्न हुए ! सच्चाई का सूरज तपा तो कुछ जर्जर छत्रप भी ढहे ! लोगों को भी समझ आया कि देश है तभी हम हैं, देश नहीं तो कुछ भी नहीं....................!

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एक वह भी समय था, जब अदना सा कार्यकर्ता भी अपनी पार्टी के प्रति पूरी तरह समर्पित और अपने नेता के लिए निष्ठावान हुआ करता था। यह स्वस्फूर्त भावना होती थी। जो अपने नेता के त्याग, समर्पण, निस्वार्थ और सच्चरित्रता जैसे गुणों को देख स्वत: उत्पन्न होती थी। दल बदलने का तो सपने में भी ख्याल नहीं आ पाता था। आम जन को जब लगता था कि अमुक इंसान देश और समाज की भलाई के लिए कुछ भी कर सकता है तो वह उसका मुरीद हो जाता था। उसकी गलतियों, उसकी कमियों को नजरंदाज कर दिया जाता था। सारी जिम्मेवारी उसे सौंप निश्चिन्त हो लिया जाता था। पर कोई भी चीज स्थाई कहां होती है ! समय भी बदला, लोग भी बदले, तो सोच बदलनी ही थी !  

राजनीति हमारे देश में एक ऐसा व्यवसाय बन गया है, जहां ना-लायक को भी लायक बना उसका जीवन सुरक्षित और संवारा जा सकता है ! इसलिए सत्ता देश की भलाई के बदले परिवारों के उसरने का, पीढ़ियों को तारने का जरिया बन गई ! येन-केन-प्रकारेण उसे हथियाया जाने लगा। तरह-तरह के लोग नेता बन गए ! नैतिकता, मर्यादा, विवेकता, सहिष्णुता, गरिमा, आदर-भाव सब संविधान की पुस्तक के पन्नों में जा दुबके ! अवाम को झटका तो लगा पर वर्षों से दिलो दिमाग पर काबिज सम्मोहन पूरी तरह छंट नहीं पाया ! बार-बार हताशा, निराशा, धोखा पाने के बावजूद वह, परिवारों के झूठे-सच्चे इतिहास, कुर्बानियों की कपोल कल्पित कथाओं, नेताओं के थोथे वादों और उनके छद्म प्रभामंडलों के आलोक में अपना भविष्य टटोलने में लगी रही ! पर कब तक !     

समय के साथ पीढ़ीयां बदलीं। साक्षरता से समझ, समझ से जागरूकता आई ! लोगों को अपने भले-बुरे का ज्ञान होने लगा ! धर्म, जाति, भाषा, इतिहास के नाम पर रोटियां सेकने वालों के ढाबे बंद होने लगे ! कई-कई इंद्रजाल छिन्न-भिन्न हो गए ! अच्छाई का सूरज तपा तो जर्जर छत्रप ढहने शुरू हो गए ! लोगों को भी समझ आ गया कि देश है तो हम हैं, देश नहीं तो कुछ भी नहीं ! 

पर अभी भी सपूर्ण क्रान्ति नहीं हुई थी ! कुछ जरासीम समूल नष्ट नहीं हुए थे ! उनके थके-हारे, लुटे-पिटे, हाशिए पर धकेल दिए गए मठाधीश पूरा जोर लगा रहे हैं, अवाम को बरगलाने के लिए ! उधर वर्षों की राजशाही का खुमार उतारे नहीं उतर रहा ! अभी भी अवाम और अपने कार्यकर्ताओं को निजी सम्पत्ति ही माना जा रहा है। किसी का ज़रा सा भी विरोध या महत्वाकांक्षा उसको नेस्तनाबूद करवाने का जरिया बन गया है। धीरे-धीरे हर अच्छे-बुरे कर्मों के राजदार, खुर्राट, मौकापरस्त, मतलबी, अवसरवादी, उम्रदराज दरबारी हावी होते चले जा रहे हैं ! कर्मठ, समर्पित, निष्ठावान लोगों को अपमानित-प्रताड़ित कर बाहर का रास्ता दिखाया जाने लगा है ! क्योंकि ऐसे कर्मशील लोग ही आगे जा कर इन लोगों की असलियत का पर्दा फाश कर जनता के प्रिय बन सकते थे। इनके सरपरस्त भी इन जैसे खुदगर्जों, चारणों, पिछलग्गुओं की चारदीवारी में खुद को घिरवा अपने को सुरक्षित, पाक-साफ़ मान बैठे हैं ! हकीकत से दूर घेरे के अंदर वे वही देखते-सुनते हैं जो दिखलाया, सुनाया, समझाया जा रहा है ! जो कर्णप्रिय हो, सुहाता हो, मन लायक हो ! इतिहास गवाह है कि यह स्थिति सदा विनाश करवा कर ही हटी है।  

समय को अपना गुलाम समझ ऐसा करने वाले इस तरह के खुर्राट लोग यह भी जानते हैं कि यह सब ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है, सो अपनी आने वाली नसलों के लिए जितना लाभ उठाया जा सकता है उठाए जा रहे हैं ! पर यह भूल जाते हैं इनके पहले भी जब ऊपर वाले की लाठी पड़ी थी तो उसमें भी आवाज नहीं आई थी ! पर यदि कोई सबक लेना ही ना चाहे तो..............!! 

रविवार, 12 जुलाई 2020

स्टेशन; आधे पर भाई, आधे पर भाऊ

यह तो अच्छा है कि स्टेशनों का रख-रखाव भी रेलवे के ही जिम्मे है, नहीं तो पता नहीं आपसी लड़ाई में राजनीती ऐसी धरोहरों का क्या हाल कर के धर देती ! आधे में रौशनी होती, आधे में अंधकार ! आधा रंग-रोगन से चमकता, तो आधा बेरंगत फटे हाल ! आधे में साफ़-सफाई, तो आधा बदबूदार ! आधे के कर्मचारी उसके, आधे के इसके ! ना आपस में समन्वय, ना कोई भाईचारा ! इन सबके बीच मुसाफिर बेचारा रहता आफत का मारा ............!!

#हिन्दी_ब्लागिंग    
रेल सदा ही अबाल-वृद्ध में उत्सुकता, अचरज व लोकप्रियता का मुद्दा रही है। हमारी रेल व्यवस्था दुनिया के रेल तंत्र में चौथे स्थान पर है। साढ़े बारह हजार से भी ऊपर हमारी यात्री गाड़ियां रोज दो करोड से भी ज्यादा लोगों को अपने मुकाम पर पहुंचाने में लगी रहती हैं। इनको लाने ले जाने के पड़ाव के रूप में तकरीबन साढ़े आठ हजार के लगभग स्टेशन कार्यरत हैं। इनमें से कई अपनी अजीबोगरीब खासियतों के कारण मशहूरी पा चुके हैं। कोई अपनी ऊंचाई, कोई लम्बाई, कोई व्यस्तता, कोई अपने परिवेश, कोई अपने नाम को ही ले कर कौतुक का विषय बन चुका है। यदि ऐसे सारे अजूबों की बात की जाए तो अच्छा-खासा मोटा ग्रंथ बन जाएगा। इसलिए आज सिर्फ ऐसे दो रेलवे स्टेशनों की बात जो बात ही बात में दो राज्यों के बीच बंट कौतुक की बात बनने के बावजूद अवाम में गुमनाम सी बात बन कर रह गए हैं।


पहला है, नवापुर का स्टेशन !  पश्चिम रेलवे के सूरत-भुसावल मार्ग पर पड़ने वाला यह स्टेशन दो राज्यों में बंटा हुआ है ! इसका आधा हिस्सा महाराष्ट्र में और आधा गुजरात में पड़ता है। जब यह स्टेशन बनाया गया था तब महाराष्ट्र और गुजरात अलग-अलग प्रांत नहीं थे। तब इसे बाम्बे प्रेसीडेंसी में बनाया गया था। परन्तु जब 1961 में राज्यों का बंटवारा हो महाराष्ट्र और गुजरात अलग हुए तो नवापुर दोनों के हिस्से में आ गया। तब ज्यादा बखेड़ा न कर इसे यथावत रख दोनों राज्यों के बीच बांट दिया गया। स्टेशन की कुल लंबाई 800 मीटर है जिसके 300 मीटर का हिस्सा महाराष्ट्र में पड़ता है तथा 500 मीटर का हिस्सा गुजरात में ! यदि स्टेशन पर कोई रेलगाड़ी महाराष्ट्र से आ रही है तो उसका इंजन गुजरात में होता है और यदि गुजरात से ट्रेन आ रही है तो उसका इंजन महाराष्ट्र में होता है। इसके रेलवे पुलिस स्टेशन, जलपान गृह, टिकट घर, महाराष्ट्र राज्य के नंदूरबार जिले के नवापुर में आते हैं और स्टेशन मास्टर, वेटिंग रूम, पानी की टंकी और शौचालय गुजरात राज्य के तापी जिले के उच्छल में पड़ते हैं। इस स्टेशन पर आने वाली रेलगाड़ियों का एक हिस्सा महाराष्ट्र और दूसरा हिस्सा गुजरात में खड़ा होता है। दोनों राज्यों की सीमाओं को दिखाने के लिए इस स्टेशन के बीचो-बीच एक बेंच लगाई गई है, जिस पर बाकायदा पेंट कर दोनों राज्यों की सीमाओं के बारे में बताया गया है। इसमें एक तरफ गुजरात व दूसरी ओर महाराष्ट्र लिखा हुआ है। इसका उल्लेख एक बार रेल मंत्री भी कर चुके हैं। अलग-अलग भाषाओं के राज्य होने के कारण रेलों के आने-जाने की जानकारी भी चार भाषाओं हिंदी-अंग्रेजी-मराठी व गुजराती में दी जाती है ! एक और मजे की बात ! सुरा प्रेमी और गुटका-मसाला के चहेतों को यहां थोड़ा सजग रहने की भी जरुरत है ! ऐसी कोई भी लत लात खाने का कारण बन सकती है ! क्योंकि गुजरात में शराब बंदी है तो महाराष्ट्र में गुटका बैन है !
ऐसा ही एक दूसरा रेलवे स्टेशन है, भवानी मंडी ! जो भारतीय रेलवे के अनोखे स्टेशनों की फेहरिस्त में शामिल है ! रेलवे के वेस्ट सेन्ट्रल जोन के कोटा रेलवे डिवीजन के अंतर्गत आने तथा राजस्थान के झालावाड़ जिले में पड़ने वाले इस स्टेशन का उत्तरी हिस्सा मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में तथा दक्षिणी भाग राजस्थान के झालावाड़ में पड़ता है। इसलिए आधी गाडी एक राज्य में खड़ी होती है तो आधी दूसरे राज्य में ! चालक एक राज्य में होता है तो गार्ड दूसरे प्रांत में ! दो राज्यों की मिलकियत बना यह स्टेशन, दो राज्यों को रेलवे के जरिए एक भी करता है। इस स्टेशन पर भी दोनों राज्यों की सीमाओं को दिखाने के लिए बोर्ड लगाए गए हैं। नवापुर स्टेशन की तरह ही भवानी मंडी स्टेशन का टिकट बुकिंग काउंटर मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में पड़ता है तो स्टेशन में आने का रास्ता और इसका प्रतीक्षालय राजस्थान के झालावाड़ जिले के अंतर्गत आते हैं। इसीलिए वह मजेदार मंजर बनता है जहां टिकट मध्य प्रदेश से दिया जाता है और लिया राजस्थान में जाता है ! 

यह तो अच्छा है कि स्टेशनों का रख-रखाव भी रेलवे के ही जिम्मे है, नहीं तो पता नहीं आपसी लड़ाई में राजनीती ऐसी धरोहरों का क्या हाल कर के धर देती ! आधे में रौशनी होती, आधे में अंधकार ! आधा रंग-रोगन से चमकता, तो आधा बेरंगत फटे हाल ! आधे में साफ़-सफाई, तो आधा बदबूदार ! आधे के कर्मचारी उसके, आधे के इसके ! ना आपस में समन्वय, ना कोई भाईचारा ! इस सबके बीच रहता मुसाफिर आफत का मारा ! 

@चित्र अंतरजाल के सौजन्य से 

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

सब का अपना चेहरा है और अपनी नजर है ! सानूं की !!

इसी कड़ी में अगला नाम आता है, राहुल गांधी का  ! राजनीति को परे कर बात की जाए तो इनके मुख पर भी मासूमियत की छाप थी। अच्छा-खासा हसमुख चेहरा। आकर्षक व्यक्तित्व। उम्र की कलम भी कोई ख़ास असर नहीं डाल पा रही थी। कैमरे के सामने एक जिंदादिल व खुशगवार उपस्थिति दर्ज करवाने वाले इंसान ने अचानक पता नहीं किस ''हितैषी'' की सलाह पर अपने पर बदलाव का प्रयोग कर डाला। अजीब सा केश-विन्यास, ओढ़ी हुई सी गंभीरता, अलग सी पोषाक, उदास सा मुखमंडल, परिपक्वता कम अस्वस्थ होने का आभास ज्यादा देता है...........................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
पुराने किस्से कहानियों में वर्णित ''गैजेट्स'', ''ट्रिक्स'', ''अजूबे'', ''कलाऐं'' जैसी रहस्यमयी, अज्ञान की चिलमन से ढकी हैरतंगेज बातों को विज्ञान ने काले परदे के पीछे से उठा-उठा कर सामने ला एक साधारण सी आम जानकारी बना कर रख दिया है। उसी विधाओं में एक है, भेष या रूप-रंग बदलना। आज की जुबान में इसे प्लास्टिक सर्जरी या मेकओवर कहा जा सकता है। जो ईश्वर प्रदत्त रूप-रंग, बनावट आदि को बदलने के लिए किया जाता है। वर्तमान में यह शो बिजनेस या अवाम से नजदीकियां रखने वालों में ज्यादा प्रचलित है। प्लास्टिक सर्जरी खतरनाक, दुष्प्रणामित व मंहगी होने के बावजूद महिलाओं में खासी लोकप्रिय है। पुरुष भी इसे अपनाने में बहुत पीछे नहीं हैं, पर ज्यादातर अपने चेहरे का मेक-ओवर करवा संतुष्ट हो जाते हैं। वैसे तो अपने को बेहतर दिखाने के लिए हजारों लोगों ने इसे अपनाया है पर आज सिर्फ तीन-चार लोगों की बात। 
शेखर सुमन - का नाम सबसे पहले इस क्रम में लिया जा सकता है। जिन्होंने अपनी उम्र को वास्तव में कम ''दिखलवाने'' में काफी सफलता पाई। प्रयोग सफल भी रहा और अच्छा भी लगा। ऐसा करवाने वाली पहली बीस हस्तियों में शायद वे अकेले पुरुष हैं। पर अगले तीन प्राणी पता नहीं क्या सोच कर क्या बन गए !

शाहिद कपूर - भोला-भाला, मासूमियत भरा प्यारा सा चेहरा ! सिने-दर्शकों को पसंद भी था ! फ़िल्में सफल भी हो रही थीं। पर पता नहीं बंदे को क्या सूझी ! ''ही मैन'' रफ-टफ दिखने के चक्कर में अपना व्यक्तित्व ऐसा बदलवाया कि मरीज सा दिखने लगा। अरे भई ! ज्यादा पीछे न जा कर, अशोक कुमार से ले कर अभी तक के आयुष्मान जैसे सफल कलाकारों को ही देख लेते ! सैकड़ों या कहो, तक़रीबन सारे नायक ऐसे ही हुए हैं जिन्होंने बिना कुदरत की रचना में फेर-बदल कर अपनी मेहनत के दम पर अपार सफलता पाई। उनकी बिना मार-कुटाई वाली फ़िल्में भी बहुत सफल रहीं।
ऋतिक रौशन -  सुंदर, स्मार्ट, हर दृष्टि से कसौटी पर खरा ! पुरुषोचित सुंदरता के चलते ग्रीक गॉड कहलवाने वाले इस अभिनेता ने भी अपना कुछ ऐसा काया-कल्प करवाया, जो रफ-टफ भले ही लगे सुंदर तो कतई नहीं लगता ! अब सुंदरता की परिभाषा अलग-अलग हो सकती है। हो सकता हो विदेशी फिल्मों की चाह और वहां के उम्रदराज नायकों की तर्ज पर इन्होंने ऐसा बदलाव करवा लिया हो ! पर वहां और यहां में फर्क भी तो है ! फिर भी औरों से ठीक है, उम्र का भी तो असर पड़ता ही है। 

राहुल गांधी - इस कड़ी में अगला नाम ! राजनीति को परे कर बात की जाए तो इनके मुख पर भी मासूमियत की छाप थी। अच्छा-खासा हसमुख चेहरा। आकर्षक व्यक्तित्व। उम्र की कलम भी कोई ख़ास असर नहीं डाल पा रही थी। कैमरे के सामने एक जिंदादिल व खुशगवार उपस्थिति दर्ज करवाने वाले इंसान ने अचानक पता नहीं किस ''हितैषी'' की सलाह पर अपने पर बदलाव का प्रयोग कर डाला। अजीब सा केश-विन्यास, ओढ़ी हुई सी गंभीरता, अलग सी पोषाक, उदास सा मुखमंडल, परिपक्वता कम अस्वस्थ होने का आभास ज्यादा देता है।  
अब जब हम जैसे आम इंसानों को यह बदलाव कुछ अजीब से लगते हैं तो सोचने की बात है कि जिन पर यह सब प्रयोग किए गए उनको क्यों नहीं इस बात का एहसास होता। अवाम के सामने आना है ! उस पर अपना प्रभाव डालना है ! उसको आकर्षित करना है ! लुभाना है तो अपना रूप-रंग भी तो लुभावना होना चाहिए ! इस मामले में राजीव गांधी जी का उदाहरण आदर्श है। खैर सबका अपना-अपना ख्याल है ! अपना-अपना नजरिया है ! अपना-अपना ख्वाब है ! अपना ही चेहरा है और अपनी ही नजर है ! सानूं की !!

गुरुवार, 2 जुलाई 2020

हमारी दादी ! ऐसे होते थे स्वतंत्रता सेनानी

यदि दादी से किसी ने मजाक में ही कह दिया कि माताजी, चाचे से (नेहरू जी से) किसी घर-वर की बात कर लो: तो हत्थे से उखड जातीं ! खूब डांट-डपट-लानत-मलानत होती ! फिर शांत होने पर समझातीं कि देश को बनाना है, संवारना है, दुनिया में उसका नाम रौशन करना है। हर तरह से, तन-मन से उसकी सहायता करनी है, ना कि उससे ले-ले कर उसे कमजोर बनाना है ! आज समय बहुत बदल गया है ! कुछ लोग सिर्फ अपने पुरखों के नाम और कर्मों की बदौलत हितग्राही बन, वह भी अनधिकृत रूप से, सुख-सुविधा भोगते और उसका दुरुपयोग करते दिखते हैं ! ऐसा होते देख मन में कई सवाल तो जरूर उठते हैं, पर कभी भी अपनी दादी माँ की भावना और उनके द्वारा लिया गया निर्णय गलत नहीं लगता ..........!

#हिन्दी_ब्लॉगिंग    
देश को आजाद करवाने के लिए सालों लड़ाइयां लड़ी गईं। जुल्म सहे गए ! कुर्बानियां दी गईं ! उस समय एक ही लक्ष्य, एक ही उद्देश्य, एक ही जज्बा था, किसी भी तरह गुलामी से मुक्ति ! धीरे-धीरे समय आगे बढ़ता रहा। देश-विदेश की परिस्थितियां बदलती रहीं। फिर एक समय ऐसा आ गया कि आजादी सामने दिखने लगी। ऐसे में कई चतुर लोग मौका भांप, जान-माल के खतरे की नगण्यता को सूँघ इस अभियान में शामिल हो स्वतंत्रता सेनानी का ओहदा पा गए। ऐसे लोगों को देश की हालत से कोइ मतलब ना था ! ये अपनी तिकड़मों के चलते परतंत्रता में भी संपन्न और खुशहाल थे। पर इनकी पारखी आँखों ने आजादी के बाद की लूट-खसोट का जायजा ले लिया था। इनकी ''कुर्बानियां'' गजब का रंग लाईं और आने वाले समय का भाग्य-विधाता बना गईं। 

हमारी दादी, पूरा परिवार उन्हें माताजी के नाम से संबोधित करता था। प्रेमिल भी बहुत थीं पर परिवार पर रुआब भी था। कलकत्ते के आर्यसमाज की अग्रणी कार्यकर्ता ! अंग्रेजों के विरोध में दसियों बार जेल गईं ! आजादी के कुछ महीनों पहले, अलीपुर जेल में आभा मायती जी, जो आजादी के बाद में बंगाल में मंत्री बनी, के साथ तिरंगा चढ़ाने की सजा के रूप में दी गई प्रतारणा स्वरुप अपनी आँखों की रौशनी भी गंवा दी ! उन दिनों भले ही घर की माली हालत अच्छी नहीं थी ! फिर भी आजादी के बाद सरकार से कभी किसी भी तरह की अपेक्षा या लाभ का सोचा भी नहीं ! वैसी इच्छा को कभी पनपने ही नहीं दिया ! एक ही मूल मंत्र ''देश से कुछ पाने के लिए हमने लड़ाइयां नहीं लड़ीं,'' ऐसा कहते हुए चुपचाप गुमनामी की चादर ओढ़ जिंदगी गुजार दी ! 
हमारी दादी माँ 
उम्र कम होने के कारण उस समय हमें क्या पता था कि आजादी क्या होती है और गुलामी क्या ! पर वे तकरीबन रोज महापुरुषों की गाथाएं सुनाया करती थीं। जेहन में गहराई तक पैबस्त एक-दो वाकये कभी नहीं भूलते। जैसे अबुल कलाम आजाद जी के देहावसान के दिन घर में खाना नहीं बना था ! शोक ग्रस्त रहीं थीं दिन भर। पंद्रह अगस्त के दिन काफी खुश रहती थीं। सुबह से नहा-धो कर खादी की साड़ी पहन, हारमोनियम पर भजन-तराने गाया-सुनाया करती थीं। जब हम कुछ बड़े हुए तो यदि मजाक में ही कह दिया कि माताजी, चाचे से (नेहरू जी से) किसी घर-वर की बात कर लो: तो घर में तूफान का उठना लाजिमी था ! हत्थे से उखड जातीं ! खूब डांट-डपट-लानत-मलानत होती ! प्यार बहुत करती थीं, इसलिए कभी उनसे ठुकाई नहीं मिली ! फिर शांत होने पर समझातीं कि देश को बनाना है, संवारना है, दुनिया में उसका नाम रौशन करना है। हर तरह से, तन-मन से उसकी सहायता करनी है, ना कि उससे ले-ले कर उसे कमजोर बनाना है ! 
 
कभी-कभी साक्षात अपने साथ हो चुकी उन सब बातों पर आश्चर्य भी होता है, कि क्या सचमुच ऐसे लोग हुए थे ! पर हुए थे तब ही तो देश आजादी पा सका ! आज समय बहुत बदल गया है ! उस समय के लोग बहुत कम बचे हैं ! जो बचे भी हैं वे अप्रासंगिक हो चुके हैं। मान्यताएं बदल गयी हैं ! देश हाशिए पर सिमट गया है ! मैं और मेरा परिवार प्रमुख हो गए हैं ! ज्यादातर सत्ता उन लोगों के हाथ में चली गई है जिनकी पिछली पीढ़ी ने भी स्वतंत्रता की लड़ाई के बारे में किताबों में ही पढ़ा होगा ! बहुतों ने तो पढ़ने की जहमत भी नहीं उठाई होगी ! इसीलिए आज जब कुछ लोग सिर्फ अपने पुरखों के नाम और कर्मों की बदौलत हितग्राही बन, वह भी अनधिकृत रूप से, सुख-सुविधा भोगते और उसका दुरुपयोग करते दिखते हैं, तो मन में कई सवाल तो जरूर उठते हैं, पर कभी भी अपनी दादी माँ की भावना और उनके द्वारा लिया गया निर्णय गलत नहीं लगता ! हाँ, उनके बारे में सोचते हुए या उनकी याद आने पर आँखें जरूर नम हो जाती हैं ! 

बुधवार, 1 जुलाई 2020

कुछ तो विवेक होना ही चाहिए

समय बदलेगा तो हर जगह शुचिता आएगी ! तब शायद शासक को सही दिशा दिखाने के लिए ही विरोध हो ! देश के अवरोध के लिए नहीं ! विरोध हो गलत नीतियों का ! गलत फैसलों का ! गलत व्यक्ति का ! तब शायद सम्मानीय पद की प्रतिष्ठा बनी रहे ! देश की मर्यादा, उसकी गरिमा, उसकी अखंडता अक्षुण्ण रहे ! उस पर आक्षेप करने वाला दस बार सोच कर भी हिम्मत ना जुटा पाए कुछ अनर्गल बोलने की ! निरपेक्ष संस्थाओं को आदर मिले ! जवानों को भारत रत्न माना जाए ! शायद वह सुबह आ ही जाए.........!

#हिन्दी_ ब्लागिंग  
यदि मुझे जीवन में सफल होना है, अपना लक्ष्य प्राप्त करना है, अपने आप को साबित करना है, परंतु इसके साथ ही मुझे अपने पुराने कारनामे, हरकतें, करतूतों का कच्चा चिठ्ठा भी याद और मालूम हो; तो मैं यही कोशिश करूंगा कि वह मेरी और लोगों की यादों में ही दफ़न रहे। बचूंगा ऐसे कारगुजारियों से जिनसे मेरा विगत फिर लोगों के जेहन में सर उठा, मेरी परेशानी का सबब बने। पहचानूंगा और दूरी बना कर रखूंगा ऐसे लोगों से जो मेरे कंधों का इस्तेमाल कर अपना हित साधना चाहते हों ! नाहक दूसरों की बखिया उधेड़ने से पहले अपने खटिए के नीचे सोटी जरूर घुमा लूंगा। पर यह सब तो तभी संभव है जब प्रकृति-प्रदत मेरी समझदानी खाली ना हो ! मेरा विवेक मेरे साथ हो ! मुझे अच्छे-बुरे की पहचान हो ! मेरा मन द्वेष, ईर्ष्या, अहम, लालसा, कुंठा, पूर्वाग्रहों आदि व्याधियों से मुक्त हो !   
 
आज हो ठीक इसका उल्टा रहा है। लोगों ने अपने चारों ओर खुदगर्जों, चारणों, पिछलग्गुओं  की चारदीवारी घिरवा खुद को सुरक्षित, पाक-साफ़ मान लिया है। हकीकत से दूर घेरे के अंदर वे वही देखते-सुनते हैं जो दिखलाया, सुनाया, समझाया जा रहा है ! जो कर्णप्रिय हो, सुहाता हो, मन लायक हो ! उसी के अनुसार बिना परिणाम जाने ये लोग आकाश की तरफ मुंह उठा थूके जा रहे हैं ! कीचड़ में पत्थर मारे जा रहे हैं ! लियाकत नहीं, चेहरे-मोहरे, पहरावे, चाल-ढाल की बदौलत खुद को अपने पूर्वजों के समकक्ष लाने की व्यर्थ कोशिश कर मजाक के पात्र बने जा रहे हैं। पूर्वजों की उपलब्धियों को गिना कर खुद को महान कहलवाने की जुगत हो रही है। उपलब्धियां भी कैसी जो समय के साथ अब ''ब्लंडर्स'' सिद्ध होने लगी हैं। 

अब सीधी व सच्ची बात ! देश के तीन सर्वोच्च नेताओं की अकाल मृत्यु को सदा देश के लिए दी गई कुर्बानी के तौर पर प्रचारित कर भुनाया गया ! हालांकि हम सब उनकी बहुत इज्जत करते हैं। देश के लिए उनके योगदान को किसी भी तरह नकारा नहीं जा सकता। पर ऐसा लगता है कि तीनों मौतें, अदूरदर्शिता, अति-आत्मविश्वास और दूसरों के आकलन में हुई भयंकर भूलों का परिणाम थीं। पर आखिर थे तो वे भी इंसान और इंसान से भूल होती ही है ! पर उसको अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अस्त्र बनाना कतई उचित नहीं है। हमारी प्रथा है कि दिवंगतों का सदा आदर ही किया जाता है ! उन के लिए ऐसा लिखना बिलकुल अच्छी बात नहीं है ! पर जब संबंधित जिम्मेदार लोग ही रोज खुद अपना ही तमाशा बनवाने पर उतारू हों तो ना चाहते हुए भी...............!    

पहला देहावसान, खुद को जगत्प्रिय, शांतिदूत, महान समझने की गलतफहमी और आत्मसम्मोहन का दुखद परिणाम था ! जो पड़ोसी की कुटिलता, उसकी दगाबाजी के सदमे और युद्ध में करारी हार के कारण आवाम के बीच अपनी छवि बुरी तरह ध्वस्त होने के कारण हुआ था ! दूसरा हादसा, व्याघ्र को पाल-पोस कर पनपाने और फिर उसको पालतू और वफादार समझने की भयंकर भूल का परिणाम रहा ! सारा देश पहली ऐसी घटना का साक्ष्य बन स्तब्ध रह शोकसागर में डूब गया था ! चेतावनी के बावजूद यहां भी अति-आत्मविश्वास जिंदगी के आड़े आ गया था। जिसकी प्रतिक्रिया को भुलाने में समय को भी समय लग जाएगा ! तीसरी बार खुद के प्रवासी देशवासियों की मुसीबतों को नजरंदाज कर पड़ोसी के घाव पर मरहम लगाने का प्रयास, वह भी विशेषज्ञों की सलाह के बगैर, जानलेवा सिद्ध हुआ।  

उस समय तक आपस में इतनी वितृष्णा नहीं हुआ करती थी ! हालांकि तीनों बार देश संकटग्रस्त हुआ, उस पर विपदा के बादल छाए और प्रगति थम सी गई। आम इंसान सच में दुखी हुआ ! सभी को लगा जैसे गमी उसके घर में ही हुई हो ! पर इसको भी सदा के लिए ब्रह्मास्त्र बना के रख लिया गया। दल के ''रामु काकाओं' ने आवाम को भरमा, इन हादसों को गर्व का विषय बनाने में कोई कसर ना छोड़ रखी। कसर तो तब भी नहीं छूटी थी, जब इस दल की नेता ने, दस पार्टियों की सहायता से बन रही सरकार को ना संभाल पाने का ख़तरा भांप, सर्वोच्च पद स्वीकार नहीं किया था और उसे चमचों ने त्याग का चोला पहना एक अलग छवि गढ़ने की नाकाम कोशिश कर दी थी ! 

आजादी  के बाद से अब तक दुनियावी मंच पर नौ रसों, चारों विधियों, सोलह कलाओं सहित ऐसा और कोई भी क्षेत्र नहीं है, जिसमें इन्हें विशेषता हासिल ना हो ! तब से आज तक ऐसा कुछ भी नहीं घट पाया, जिसमें अपना मतलब ना सिद्ध कर लिया गया हो ! देश में घटी हर आडी-टेढ़ी बात में इनकी मौजूदगी दर्ज है। पर वह सब भूल, यह समझने की गलतफहमी पाल, कि किसी को सच्चाई का क्या पता ! अपने आप को अभी भी सामयिक या देश की जरुरत बताने के लिए, बिना किसी संकोच के, कुछ भी बोल दिया जाता है चाहे वह निरा झूठ ही क्यों ना हो ! आज बढ़ते वैमनस्य, घटती सहिष्णुता और व्यक्ति पूजन के कारण छुटभैय्यों तक को बोलने की खुली छूट दे दी गई है ! आज चुप रहना अपनी हेठी और बोलना शेखी समझा जाने लगा है ! अब विषय, समय या स्थान नहीं देखा जाता ! अब बोलना मुख्य उद्देश्य हो गया है ! कभी भी, कहीं भी, कुछ भी बोलो ! झूठ बोलो ! बार-बार बोलो ! पर दृढ़ता के साथ बोलो ! विश्वास करने वाले हजारों मिल जाएंगे ! क्योंकि आवाम यह नहीं देखती कि क्या बोला जा रहा है, वह यह देखती है कि कौन बोल रहा है !    

आज हालांकि व्यक्तिगत हित, अपने स्वार्थ, अपनी महत्वकांक्षाओं के सामने सब कुछ....सब कुछ गौण  हो गया है, पर कहते हैं ना, कि कोई भी चीज स्थाई नहीं होती ! हर चीज का अंत होता है ! इतिहास अपने को दोहराता है ! अच्छा परिवेश, माहौल नहीं रहा, तो बुरा भी नहीं रहेगा ! समय बदलेगा तो हर जगह शुचिता आएगी ! तब शायद शासक को सही दिशा दिखाने के लिए ही विरोध हो ! देश के अवरोध के लिए नहीं ! विरोध हो गलत नीतियों का ! गलत फैसलों का ! गलत व्यक्ति का ! तब शायद सम्मानीय पद की प्रतिष्ठा बनी रहे ! देश की मर्यादा, उसकी गरिमा, उसकी अखंडता अक्षुण्ण रहे ! उस पर आक्षेप करने वाला दस बार सोच कर भी हिम्मत ना जुटा पाए कुछ अनर्गल बोलने की ! निरपेक्ष संस्थाओं को आदर मिले ! जवानों को सर्वोपरि व भारत रत्न माना जाए ! शायद वह सुबह आ ही जाए !

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