मनोरंजन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मनोरंजन लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 29 अप्रैल 2024

कारनामे सिर्फ एक वोट के

हम व्यवस्था को उसकी नाकामियों की वजह से कोसने में कोई ढिलाई नहीं बरतते पर कभी भी अपने कर्तव्य को नजरंदाज करने का दोष खुद को नहीं देते ! वर्षों बाद आने वाले सिर्फ एक दिन के कुछ पलों के लिए भी हम अपने आराम में खलल डालने से बचते हैं ! कभी विपरीत मौसम, कभी लंबी कतारों का हवाला दे खुद को सही ठहराने लगते हैं ! देश में अनगिनत ऐसे  लोग मिल जाएंगे जो अपनी मौज-मस्ती के लिए वोट वाले दिन मिले इस  अवकाश को, अपने मनोरंजन में खर्च करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते..........! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 

यदि मैं किसी दिन बिजली ना होने की वजह से पानी का पंप न चल पाने के कारण सिर्फ हाथ मुंह पौंछ कर भुनभुनाता हुआ घर से काम पर निकलता हूँ ! बाहर टूटी-फूटी गड्ढों भरी सड़क पर रेंगती गाड़ियां मुझे देर पर देर करवाती हैं ! गर्मी बेहाल करती है ! वातावरण धूँए-गुबार से अटा पड़ा होता है ! सांस लेते ही गले में जलन और खांसी आने लगती है तो मैं आपा खो कर सीधे-सीधे सरकार और व्यवस्था को कोसना शुरू कर देता हूँ ! उस समय मैं यह भूल जाता हूँ कि पिछली बार के चुनाव में मेरी वोटिंग वाले दिन सोमवार था, शनि से सोम तक की उन तीन दिनों की छुट्टियों के सदुपयोग के लिए मैं शुक्रवार की शाम को ही सपरिवार नैनीताल के लिए निकल गया था, बिना अपने और पत्नी के वोट के बेकार हो जाने की परवाह किए ! तो आज यह मेरा हक नहीं बनता कि मैं व्यवस्था को कोसूं ! क्योंकि इस सब की कहीं ना कहीं, किसी ना किसी तरह मेरी गफलत भी तो कारण बनती ही है !   

EVM
हम व्यवस्था को उसकी नाकामियों की वजह से कोसने में कोई ढिलाई नहीं बरतते पर कभी भी अपने कर्तव्य को नजरंदाज करने का दोष खुद को नहीं देते ! वर्षों बाद आने वाले सिर्फ एक दिन के कुछ पलों के लिए भी हम अपने आराम में खलल डालने से बचते हैं ! कभी विपरीत मौसम, कभी लंबी कतारों का हवाला दे खुद को सही ठहराने लगते हैं ! देश में अनगिनत ऐसे  लोग मिल जाएंगे जो अपनी मौज-मस्ती के लिए वोट वाले दिन मिले अवकाश को, अपने मनोरंजन में खर्च करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते ! उन्हें कभी भी अपनी इस भूल के कारण हो सकने वाले नुक्सान का ख्याल नहीं आता !  

कतारें 
एक वोट की कीमत को कुछ ना समझने वालों को हमें याद दिलाना है कि सिर्फ एक वोट की कमी के कारण क्या से क्या हो चुका है ! एक वोट ने लोगों के साथ-साथ देशों की तकदीर बदल दी है ! यह इतिहास में दर्ज है फिर भी हम सबक नहीं लेते ! 

* 1917 में सरदार पटेल जैसे नेता सिर्फ एक वोट से म्युनिसिपल कार्पोरेशन का चुनाव हार गए थे !

* कर्नाटक विधानसभा के 2004 के चुनाव में जनता दल सेक्युलर के उम्मीदवार  ए.आर.कृष्णमूर्ति विधानसभा चुनाव में एक वोट से हारने वाले पहले शख्स बन गए थे !

*  2008 के राजस्थान विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सी.पी.जोशी सिर्फ एक वोट से हार गए थे। विडंबना यह रही कि उनकी माताजी, उनकी पत्नी तथा उनका ड्राइवर वोट डालने गए ही नहीं थे ! 

* 17 अप्रैल 1999 के उस एक वोट को कौन भूल सकता है, जिसने बाजपेई जी की सरकार को पलट कर रख दिया था ! अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 270 और खिलाफ 269 वोट पड़े थे !

* 2017 में राज्यसभा की सीट के लिए हुए एक कड़े मुकाबले में कांग्रेस के अहमद पटेल सिर्फ आधे वोट से जीते थे !

* अभी कुछ ही दिनों पहले हिमाचल की राज्यसभा सीट का परिणाम, वोट बराबर होने की वजह से लॉटरी से निकाला गया था !

वैसे यह वोट ना देने की बिमारी जगत व्यापी है ! वर्षों-वर्ष से ! विदेशों में भी सिर्फ एक वोट ने कहर बरपाया है !

* 1775 में अमेरिका की राष्ट्रभाषा के लिए जर्मन और इंग्लिश के बीच चुनाव हुआ सिर्फ एक वोट से वहां अंग्रेजी को मान्यता मिल गई, जो आज तक टिकी हुई है !

* अमेरिका में 1800, 1824 व 1876 में हुए चुनावों में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार सिर्फ एक-एक वोट से जीते थे  !

* अमेरिका के राष्ट्रपति पद के चुनावों में करोड़ों वोट पड़ने के बावजूद बुश और कैनेडी कुछ सौ मतों से ही विजयी हुए थे !

* 1875 में फ्रांस की राजशाही एक वोट से खत्म हो गई थी ! जब आराम परस्त शाही परिवार गफलत में पड़ कर्तव्य से चूक गया था ! उस एक भूल के कारण तब से आज तक फ्रांस में लोकतंत्र कायम है !

* 1979 में इंग्लॅण्ड में विपक्ष की नेता थैचर ने एक अविश्वास प्रस्ताव में सत्ताधारी प्रधानमंत्री जेम्स कैलहैन को सिर्फ एक वोट से पदच्युत करवा दिया था !  

अपना प्रत्याशी 
सदा की तरह निष्कर्ष तो यही निकलता है कि हमें अपने एक वोट की ताकत को याद रखना है ! हमारे विचार जिस किसी से भी मिलते हों, हम जिस किसी को भी पसंद करते हों, अपना मत उसे देना ही है ! हमारे अकेले से क्या फर्क पड़ता है इस सोच को खत्म करना ही है, क्योंकि हम अकेले ही नहीं सैंकड़ों लोग इस तरह की सोच की गिरफ्त में हैं और इस तरह सैकड़ों वोटों का विपरीत फर्क हर बार पड़ता रहता है !

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

आदमी तो पहले से ही कन्फ्युजियाया हुआ है

पुराने मुहावरों लोकोक्तियों या उद्धरणों को, जो अलग-अलग समय में अलग-अलग विद्वानों द्वारा अलग-अलग समय और परिस्थितियों में दिए गए थे, यदि अब एक साथ पढ़ा जाए, तो कई बार विरोधाभास तो हो ही जाता है साथ ही कुछ हल्के-फुल्के मनोरंजन के पल भी उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे ही कुछ उद्धरण, बिना किसी पूर्वाग्रह या कुंठा के, उन आदरणीय व सम्मानित महापुरुषों से क्षमा चाहते हुए पेश हैं ! आशा है सभी इसे निर्मल हास्य के रूप में ही लेंगे ...........................!

#हिन्दी_ब्लॉगिंग     
''तूने रात बिताई सोय कर, दिवस बितायो खाय,......जन्म अमोल था कौड़ी बदले जाए !''   
* डॉक्टर कहते हैं कि स्वस्थ रहने के लिए सोना बहुत जरुरी है ?
:
"साईं इतनी दीजिए, जा में कुटुंब समाए, मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाए।"
वसुधैव कुटुम्बकम् ! तो कितने में कुटुंब समाएगा ? 
:
''करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, रसरी आवत जात ते, सिल पर पड़त निसान।''
* पता नहीं कौन सुजान हुआ, सिल या रस्सी ?   
:
''काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में परलय होएगी, बहुरी करोगे कब।"
* जल्दी का काम तो शैतान का कहलाता है ?
:
"धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब-कुछ होए, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए।"
* फिर बहुरी कब होगी ?
:
"जो। ...उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग. चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।''
* जैसी संगति वैसा ही फल ! ओछे का संग तो अंगार जैसा होता है जो जलाता भी है और दाग भी छोड़ जाता है ? 
:
''बूढे तोते भी कहीं पढ़ते हैं।''
* सीखने की कोई उम्र नहीं होती ?
:
''भूखे भजन न होय गोपाला।''
* भगवान भी पेट भरा होने पर सूझता है ?
:
"बूँद-बूँद से घड़ा भरता है।''
* समय कहां है, इंसान का जीवन तो बुलबुले के समान है ?
:
''You are what you eat.''
* आलू, प्याज, पालक, पनीर ?
:
''It takes two to make a quarrel.'' 
* एक से दो भले ?
:
''A honey tongue, a heart of gall.''
* मीठी बानी बोलिए ?
:
''Cut your coat according to your cloth."
* बे-माप, पहना कैसे जाएगा ?
:
''Silence is the best.''
* बिना रोए तो माँ भी दूध नहीं पिलाती ?
:
''A Little Knowledge Is a Dangerous thing."
* ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए ?

सोमवार, 15 जून 2020

गुलाबो-सिताबो खूब लड़े हैं, आपस मा

किसी समय घुमंतू जातियों के लोगों के उपार्जन के विभिन्न जरियों में कठपुतली का तमाशा भी एक करतब हुआ करता था। इसमें ज्यादातर दो महिला किरदारों के आपसी पारिवारिक झगड़ों के काल्पनिक रोचक किस्से बना अवाम का मनोरंजन किया जाता था। किरदारों को कभी सास-बहू, कभी ननद-भौजाई, कभी देवरानी-जेठानी या फिर कभी सौतों का रूप दे दिया जाता था। उन किरदारों को ज्यादातर गुलाबो-सिताबो के नाम से बुलाया जाता था..........!


#हिन्दी_ब्लागिंग  

अभी पिछले दिनों अमिताभ-आयुष्मान की एक फिल्म प्रदर्शित हुई है, नाम है गुलाबो-सिताबो। फिल्म चाहे जैसी भी बनी हो पर उसने दो महत्वपूर्ण कार्यों को तो अंजाम दिया ही है। इस फिल्म ने OTT (Over The Top) पर प्रदर्शित होने वाली पहली हिंदी फिल्म के रूप में अपना नाम तो दर्ज करवाया ही साथ ही साथ गुमशुदगी के अंधेरे में विलोपित होती उस कठपुतली कला का नाम भी आमजन को याद दिलवा दिया, जिसे कम्प्यूटर गेम्स जैसे साधनों के आने के बाद लोग तकरीबन भूल ही गए थे। गुलाबो-सिताबो इसी कला की दो महिला दस्ताना कठपुतलियों (Glove Puppets) के नाम हैं, जिन्होंने एक समय उत्तर प्रदेश में धूम मचा रखी थी और वहां की कला व संस्कृति में पूरी तरह रच-बस गयी थीं।   

गुलाबो-सिताबो, किसी समय घुमंतू जातियों के लोगों के उपार्जन के विभिन्न जरियों में कठपुतली का तमाशा भी एक करतब हुआ करता था। इसमें ज्यादातर दो महिला किरदारों के आपसी पारिवारिक झगड़ों के काल्पनिक रोचक किस्से बना अवाम का मनोरंजन किया जाता था। किरदारों को कभी सास-बहू, कभी ननद-भौजाई, कभी देवरानी-जेठानी या फिर कभी सौतों का रूप दे दिया जाता था। उन किरदारों को ज्यादातर गुलाबो-सिताबो के नाम से बुलाया जाता था। इनके किस्से प्रदेश में एक लम्बे अरसे तक छाए रहे थे। 

निरंजन लाल श्रीवास्तव और उनकी कठपुतलियां 

नवाब वाजिद अली शाह के समय ये कठपुतलियां कला का पर्याय बन गईं थीं। गुलाबो-सिताबो का सफर भले ही आजादी से पहले शुरू हुआ था, लेकिन इन्हें पुख्ता पहचान 1950 के दशक में जा कर मिल पाई, जब प्रतापगढ़ निवासी राम निरंजनलाल श्रीवास्तव, बी.आर. प्रजापति और जुबोध लाल श्रीवास्तव सरीखे कलाकारों ने कठपुतली कला का भलीभांति प्रशिक्षण ले उसे नई ऊंचाइयों पर पहुंचा, उसका देश के विभिन्न नगरों में प्रदर्शन कर उसे व्यापक ख्याति दिलवाई। हालांकि इनकी कठपुतलियों के पहरावे, रंग-रोगन में काफी बदलाव आया था पर उन किरदारों का नाम स्थाई रूप से गुलाबो-सिताबो कर दिया गया। कारण भी था, इन नामों की प्रसिद्धि और लोकप्रियता लगातार बढ़ती ही जा रही थी। लोग उन्हीं नामों को देखना-सुनना पसंद करने लगे थे। इनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गई थी कि गुलाबो-सिताबो के जरिए सरकारी योजनाओं का प्रचार-प्रसार होने लगा था। यहां तक कि अग्रिम मोर्चों पर तैनात जवानों के मनोरंजन के लिए भी इनको भेजा जाने लगा था।


शूजित सरकार द्वारा निर्देशित इस फिल्म का नाम गुलाबो-सिताबो प्रतीतात्मक है, क्योंकि इसमें झगड़ने वाले पात्र महिला न हो कर पुरुष हैं और उनकी भाषा भी व्यंग्यात्मक होने के बावजूद बहुत संयमित और सधी हुई है। पर क्या यह मात्र एक संयोग है या कुछ और कि उत्तर प्रदेश के जिस प्रतापगढ़ जिले के एक कायस्थ परिवार ने गुलाबो-सिताबो को देश-विदेश में व्यापक पहचान और प्रसिद्धि दिलवाई; उन्हीं किरदारों के नाम से जब एक फिल्म बनी तो उसमें मुख्य किरदार निभाने वाले कायस्थ कलाकार के पूर्वजों का संबंध भी उसी जिले से है ! चलो चाहे जो हो मतलब तो गुलाबो-सिताबो की नोक-झोंक और उनकी तनातनी से है, -

''जहां साग लायी पात लायी और लायी चौरैया, दूनौ जने लड़ै लागीं, पात लै गा कौआ'' 

शुक्रवार, 15 मई 2020

एक अनोखा कीर्तिमान, दारा सिंह और पुनीत इस्सर के नाम

एक ही कलाकार द्वारा किसी अति लोकप्रिय कथा के अहम् पात्र का किरदार, उस कथानक पर बनने वाली दो विभिन्न फिल्मों या टी.वी. सीरियलों में, चाहे संयोगवश या किसी और कारण के तहत, निभाया हो ऐसे उदाहरण बहुत कम या ना के बराबर ही हैं। पर दारा सिंह जी और पुनीत इस्सर को ऐसे कीर्तिमान गढ़ने का मौका मिल चुका है............!    

#हिन्दी_ब्लागिंग 
रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की मूल रचना में हजारों साल का फासला था। जो अलग-अलग युगों में रचा गया था।  कथानक का स्वरुप भी भिन्न था। उनके रचयिताओं के परिवारों में भी दूर-दूर तक कोई आपसी संबंध नहीं था। फिर भी एक महान पात्र की अहम् मौजूदगी दोनों ही ग्रंथों में दर्ज है ! वे हैं पवनपुत्र श्री हनुमान ! रामायण तो उनके बिना अधूरी है ही ! महाभारत में भी उनका प्रसंग पांडवों के वनवास काल में अपने छोटे भाई भीम के गर्व को मिटाने के लिए आता है ! इन दोनों कथाओं पर बने सीरियलों में हनुमान जी की भूमिका दारा सिंह जी ने निभाई थी, इस तरह दोनों सीरियलों में काम करने वाले वो एकमात्र अभिनता बन गए थे। 

महाभारत में भीम और हनुमान 
इसके अलावा बी. आर. चोपड़ा द्वारा 1988 में निर्मित महाभारत सीरियल के बाद 2013 में फिर एक बार महाभारत कथा को टी.वी. सीरियल के रूप में स्वास्तिक प्रोडक्शंस के सिद्धार्थ तिवारी द्वारा भव्य रूप में पेश किया गया। दोनों महाभारत सीरियलों में काम करने का अवसर सिर्फ एक कलाकार पुनीत इस्सर को ही प्राप्त हुआ था। बी.आर. चोपड़ा वाले पहले महाभारत सीरियल में तो उन्होंने दुर्योधन के किरदार को उसके अवगुणों, उसकी लालसा, उसकी छटपटाहट, उसके आक्रोश को एक तरह से जीवंत बना दिया था। करीब पच्चीस साल बाद जब महाभारत को दोबारा बनाया गया तो यह उनके डील-डौल, असरदार अभिनय और गहरी आवाज का ही परिणाम था कि उन्हें इस बार उन्हें परशुराम जी के किरदार के लिए चुना गया। जिसमें वे कर्ण का पात्र निभाने वाले अपने साथी अभिनेता पर बीस ही साबित हुए।    

महाभारत में पुनीत इस्सर 
दूसरी बार परशुराम के किरदार में 



ये चाहे संयोग हो या कोई और कारण ! इस तरह के उदाहरण फिल्म या टी.वी. जगत में बहुत कम या कहें कि ना के बराबर ही मिलेंगे।                                                                                                                  

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

बंगाल में शतरंज के खेल में घटी थी एक अप्रत्याशित घटना

कोलकाता के श्याम बाजार इलाके से बी. टी. रोड पकड दक्खिनेश्वर पहुंच, डनलप ब्रिज पार करने के उपरांत आता है चिड़िया मोड़ का चौराहा। जहां से एक सड़क दायीं ओर निकल जाती है दमदम एयर पोर्ट की तरफ। यहीं से बाएं मुड़ने पर करीब साढ़े तीन सौ मीटर दूर भीम चंद्र नाग की मिठाई की दूकान से लगी सर्पाकार गली, जो गंगा किनारे तक चली गई है, के बीचो-बीच स्थित है छेनू बाबू का मोहल्ला ! जिसके मुहाने पर पंडित जी की चाय और देबू की छुट-पुट चीजों के खोखे से चार मकान छोड़ एक दुमंजिला इमारत के दालान को घेर कर एक बड़े कमरे का रूप दे उसी को क्लब का नाम दे दिया गया है। इसी मोहल्ले के इसी क्लब में घटी थी वह घटना, जो बंगाल के शतरंज के खेल के इतिहास में अनोखे शब्दों में दर्ज हो गयी............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
शतरंज  बड़ा अजीब खेल है ! इसमें खेलने वाले से ज्यादा, देखने वालों को चालें सूझती हैं। 
:
बंगाल, यहां के बारे में मशहूर था कि बंगाल बाकी देश के पहले ही भविष्य भांप लेता है ! इसीलिए हर बंगवासी में एक उत्कृष्टता का भाव बना ही रहता था। 
:
उन दिनों कलकत्ता (आज का कोलकाता) और उपनगरीय इलाकों के तक़रीबन हर ''पाड़े'' में एक क्लब हुआ करता था, जिसमें कैरम, ताश, शतरंज जैसे अंतरदरवाजीय खेलों के साथ ही हर प्रकार की बहस-मुसाहिबी का भी इंतजाम रहता था। जहां शाम घिरते ही इलाके के दादा (मुंबइया अर्थ से ना जोड़ें), दिन भर की एकरूपता से ऊबे भद्रलोक, समाज की विसंगतियों से आक्रोशित युवा,  विवाह रूपी बंधनों से मुक्त अधेड़, दिशाहीन कुंठित युवक, तथाकथित छुटभइए नेता आदि उस छोटे से कमरे में उधार की चाय पीने के लिए आ  जुटते थे। दुनिया भर की बातों पर धुंआधार गोष्ठियां होतीं, तीखी बहसें आग उगलने लगती, व्यवस्था के विरोध में तकरीरें सामने आने लगतीं। कभी-कभी तो लगता कि आज देश को नई दिशा और नेतृत्व मिल कर ही रहेगा। ऐसा माहौल तकरीबन बंगाल के सारे अड्डों में पाया जाता था। भड़ास निकल जाने के बाद बाबू लोग निकल पडते अपने-अपने घरों की ओर, भात खा, सुबह के दफ्तर की चिंता में चश्मा, छाता, सुंघनी, रुमाल, धोती-कमीज को सरिया, सोने के लिए ! यह दिनचर्या भी करीब-करीब सब जगह कमोबेस ऐसी ही होती थी। 
 पर इन सब के बीच कुछ लोग हर तरफ से निस्पृह रह, सिर्फ और सिर्फ अपने मनपसंद खेलों में ही आपाद-मस्तक डूबे रहते थे ! उन्हें आस-पास के शोर-शराबे से कोई मतलब नहीं हुआ करता था। लोकप्रियता में कैरम और ताश के बाद शतरंज का नंबर आता था। इसे चाहने वाले भी बहुत होते थे। पर एक समय में खेल सिर्फ दो जने ही सकते थे ! सो पहले आओ, पहले पाओ की तर्ज पर दो जने हक़ जमा लेते थे बिसात पर ! अपने को सर्वोपरि, विलक्षण, विश्वनाथन आनंद के समकक्ष मानने वाले बाकी लोग न खेल पाने की कुंठा लिए सिर्फ घेर पाते थे मेज को चारों ओर से दर्शक बन। ऐसा भी तक़रीबन सभी क्लबों में होता था। पर जो कभी किसी जगह नहीं हुआ, वह हो गया बेलघरिया के एक पाड़े के एक क्लब में ! जहां और जगहों की बनिस्पत शतरंज लोकप्रियता में पहले स्थान पर था। सुस्त व जोश रहित होने के बावजूद वहां इसकी जटिलता, सैंकड़ों व्यूह रचनाओं, त्वरित सोची जाने वाली हजारों-हजार चालों से बनते-बिगड़ते नक्शों की भूल-भुलैया के इंद्रजाल में गाफिल आत्मश्लाघि दिग्गजों और समर्पित आशिकों की मात्रा भी बेहिसाब थी।  
कोलकाता के श्याम बाजार इलाके से बी.टी. रोड पकड़ दक्खिनेश्वर पहुंच, डनलप ब्रिज पार करने के उपरांत आता है चिड़िया मोड़ का चौराहा। जहां से एक सड़क दायीं ओर निकल जाती है दमदम एयर पोर्ट की तरफ। यहीं से बाएं मुड़ने पर करीब साढ़े तीन सौ मीटर दूर भीम चंद्र नाग की मिठाई की दूकान से लगी सर्पाकार गली, जो गंगा किनारे तक चली गई है, के बीचो-बीच स्थित है छेनू बाबू का मोहल्ला ! जिसके मुहाने पर पंडित जी की चाय और देबू की छूट-पुट चीजों के खोखे से चार मकान छोड़ एक दुमंजिला इमारत के दालान को घेर कर एक बड़े कमरे का रूप दे उसी को क्लब का नाम दे दिया गया है। इसी मोहल्ले के इसी क्लब में घटी वह घटना, जो बंगाल के शतरंज के खेल के इतिहास में अनोखे शब्दों में दर्ज हो गयी। 

विश्व के शतरंज के खेल में विश्वनाथन के पदार्पण की धमक सुनाई देने लगी थी। जिसकी आहट से उसके कोच, साथी खिलाड़ीयों के साथ-साथ विश्व के दिग्गज भी अचंभित थे। जाहिर है इसका असर देश के सिखिए-नौसिखिए खिलाड़ियों पर पडना ही था सो पड़ा ! और ऐसा पड़ा कि गली-कूचे-मौहल्ले के सभी शतरंजिए अपने आप में आनंदित हो अपने को विश्वविजेता ही समझने लग गए। इसका असर हमारे छेनू बाबू वाले क्लब पर भी तो पड़ना ही था। सो वहां खेलने वाले दो और उन्हें चाल समझाने वाले पचीसों हो गए। खेल के दौरान तरह-तरह की सलाहें दी जाने लगीं। कभी-कभी तो सलाहकारों में आपस में ही अपनी सलाह और उसकी सटीकता पर बहसबाजी हो जाती। दिन ब दिन दर्शकों का हस्तक्षेप बढ़ता ही चला जाने लगा। ऐसे में खेलने वालों की एकाग्रता पर असर पड़ना ही था ! धीरे-धीरे खेलना दूभर होता जाने लगा। अति हो जाने पर किसी कड़े नियम के प्रावधान के होने की जरुरत शिद्दत से महसूस की जाने लगी ! इसीलिए एक दिन सभी मेम्बरों की आपात बैठक बुला कर इस समस्या पर विचार किया गया ! काफी  जद्दो-जहद के बाद सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास कर दिया गया कि खेल के दौरान यदि कोई अनावश्यक हस्तक्षेप करेगा तो उसकी नाक क्षत कर दी जाएगी। प्रस्ताव की गंभीरता को दिखाने के लिए एक नया, तेज, नोकीला चाक़ू भी ला कर कप बोर्ड पर सजा दिया गया। 

उक्ति काम कर गई ! लोग कुलबुलाते तो बहुत थे पर सलाह देने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। खिलाड़ी शांति के साथ, बिसात पर अपने हुनर का प्रदर्शन करने का सुख पाने लगे। पर वह जादू ही क्या, जो सर चढ़ कर ना बोले ! अभी महीना भी नहीं गुजरा था, पंद्रह-बीस दिन ही हुए थे कि एक शाम शांतनु चटर्जी और बिमल दा, जोकि यहां के बेमिसाल और सर्वमान्य विजेता थे और इसी कारण कुछ लोगों की ईर्ष्या का वायस भी, की बाजी फंस गई ! आज पहली बार शांतनु को बढ़त प्राप्त थी ! पर काफी देर से उसे खेल ख़त्म करने का रास्ता नहीं सूझ रहा था। घडी की सूई लोगों का रक्तचाप बढ़ाए जा रही थी। तभी एक अप्रत्याशित घटना घट गई ! अचानक कन्हाई ने आगे बढ़ कर कहा, भले ही मेरी नाक क्षत हो जाए पर यह शह और यह मात ! इतना कह उसने शांतनु के घोड़े से बिमल दा के ऊँट को विस्थापित कर दिया !

वहां फिर जो हुआ सो हुआ ! क्या हुआ इसका अंदाजा लगाते रहिए ! पर यह स्थापित हो गया कि शतरंज एक अजीबो-गरीब खेल था ! है ! और रहेगा !   

विशिष्ट पोस्ट

त्रासदी, नंबर दो होने की 😔 (विडियो सहित)

वीडियो में एक  व्यक्ति रैंप  पर स्नोबोर्डिंग  करने  की  कोशिश  करता  है, पर असफल  हो  जाता है।  यूट्यूब पर जावेद करीम के दुनिया के पहले  वीड...