सोमवार, 31 जनवरी 2011

यह एवरेस्ट कौन थे ?

माउंट एवरेस्ट, दुनिया की सबसे ऊंची पहाड़ी चोटी। पर यह एवरेस्ट कौन थे जिनके नाम पर इस चोटी का नाम रखा गया ?

1830 से 1843 तक भारत के सर्वेयर जनरल रहे थे कर्नल सर जार्ज एवरेस्ट। आधुनिक भूगणितीय सर्वेक्षण की नींव भारत में उन्होंने ही रखी थी। दक्षिण की कन्याकुमारी से लेकर उत्तर की मसूरी तक हिमालयी पर्वत श्रेणी के वृत्तांश (meridional ark)को मापने जैसा असंभव सा कार्य सर्वप्रथम उन्होंने ही किया था। उनके इसी बहुमूल्य तथा मौलिक कार्य के कारण हिमालय के सर्वोच्च शिखर का नाम उनके नाम पर रखा गया था।

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

एक और राष्ट्रीय दिवस "निपटा" सब लौट गए छुट्टी मनाने

एक और राष्ट्रीय दिवस निपटा घर लौट गये सब छुट्टी मनाने। जिस संस्था से जुडा हूं, वहां और किसी दिन जाओ न जाओ आज जाना बहुत जरूरी होता है। अपने को देश-भक्त सिद्ध करने के लिए। मन मार कर आए हुए लोगों का जमावड़ा, कागज का तिरंगा थामे बच्चों को भेड़-बकरियों की तरह घेर-घार कर संभाल रही शिक्षिकाएं, एक तरफ साल में दो-तीन बार निकलती गांधीजी की तस्वीर, नियत समय के बाद आ अपनी अहमियत जताते खास लोग। फिर मशीनी तौर पर सब कुछ जैसा होता आ रहा है वैसा ही निपटता चला जाना। झंडोत्तोलन, वंदन, वितरण, फिर दो शब्दों के लिए चार वक्ता, जिनमे से तीन ने आँग्ल भाषा का उपयोग कर उपस्थित जन-समूह को धन्य किया और लो हो गया सब का फ़र्ज पूरा। कमोबेश यही हाल सब जगह हैं।

आजादी के शुरु के वर्षों में सारे भारतवासियों में एक जोश था, उमंग थी, जुनून था। प्रभात फ़ेरियां, जनसेवा के कार्य और प्रेरक देशभक्ति की भावना सारे लोगों में कूट-कूट कर भरी हुई थी। यह परंपरा कुछ वर्षों तक तो चली फिर धीरे-धीरे सारी बातें गौण होती चली गयीं। अब वह भावना, वह उत्साह कहीं नही दिखता। लोग नौकरी के ड़र से या और किसी मजबूरी से, गलियाते हुए, खानापूर्ती के लिए इन समारोहों में सम्मिलित होते हैं। ऐसे दिन, वे चाहे गणतंत्र दिवस हो या स्वतंत्रता दिवस स्कूल के बच्चों तक सिमट कर रह गये हैं या फिर हम पुराने रेकार्डों को धो-पौंछ कर, निशानी के तौर पर कुछ घंटों के लिए बजा अपने फ़र्ज की इतिश्री कर लेते हैं। क्या करें जब चारों ओर हताशा, निराशा, वैमनस्य, खून-खराबा, भ्रष्टाचार इस कदर हावी हों तो यह भी कहने में संकोच होता है कि आईए हम सब मिल कर बेहतर भारत के लिए कोई संकल्प लें। 

फिर भी प्रकृति के नियमानुसार कि जो आरंभ होता है वह खत्म भी होता है तो एक बेहतर समय की आस में सबको इस दिवस की ढेरों शुभकामनाएं। क्योंकि आखिर इस दिवस ने किसी का क्या बिगाड़ा है।

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

औरों के लिए घुसपैठिए हमारे लिए भगवान

दुनिया वैसे चाहे जितनी छोटी होती जा रही हो पर फिर भी बटी पड़ी है तरह-तरह की सीमाओं में। जगह-जगह तरह-तरह की वर्जनांऐं मौजूद हैं। ऐसा नहीं है कि कोई किसी भी देश में ऐसे ही मनमर्जी से चला जाए और लौट आए। ठीक भी है, भाई उनका घर है ऐसे ही कैसे कोई मुंह उठाए चला जा सकता है। इसीलिए किसी भी देश में जाने-आने के लिए वहां की इजाजत लेना बहुत जरूरी होता है। लुके-छिपे, गैर कानूनी रूप से किसी भी देश में घुसने की कोशिश करने पर तरह-तरह के दंड़ों की व्यवस्था कर रखी है सभी ने।

जैसे :-

उत्तरी कोरिया की सीमा लांघने पर 12 साल के सश्रम कारावास का प्रावधान है। वह भी किसी सुनसान इलाके में।

ईरान में ऐसा करते पकड़े जाने पर उस व्यक्ति को असीमित समय के लिए कारावास में ठूंस दिया जाता है।

अफगानिस्तान में तो सीधे गोली मार दी जाती है।

अरबियन देशों में सश्रम कारावास सुना दिया जाता है।

चीन में जिसने ऐसा दुस्साहस किया वह तो ऐसा गायब कर दिया जाता है जिसका फिर कभी पता ही नहीं चलता।

वेनेजुएला में ऐसा करनेवाले को जासूस समझा जाता है और सीधे जेल की हवा खिला दी जाती है।

क्यूबा तो ऐसे ही खासा बदनाम रहा है। वहां ऐसे व्यक्ति को जेल में अमानुषिक यत्रंणाएं दी जाती हैं।

योरोप के देशों में जेल में रख कर मुकदमा चलाया जाता है।

चूँकि हम "अतिथि" को भगवान मानते हैं इसीलिए अपने देश में यदि कोई ऐसी हरकत करता है और थोड़ा सा भी 'चंट' होता है तो देखिए उसे क्या-क्या मिलता है -

*राशन कार्ड़, *पास पोर्ट, *पूरे देश में घूमने के लिए ड़्रायविंग लायसेंस, *वोटर आई.डी.,*क्रेडिट कार्ड़, *धार्मिक यात्राओं में किराए में भारी छूट, *नौकरी में आरक्षण, *सरकार द्वारा मुफ्त शिक्षा, दवा-दारू, घर, *कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता, *अपने वोट द्वारा भ्रष्ट लोगों को चुनने की सहूलियत, जो जीत कर उनके हितों की रक्षा कर सकें।

क्या कुछ कहना चाहेंगे आप, इस बारे में ?

बुधवार, 26 जनवरी 2011

यहाँ प्रयुक्त "आप" को आप अन्यथा न लें

किसी से बात करते समय किसी का चेहरा भले ही सपाट रहे पर उसके हाव-भाव तथा "शारीरिक भाषा" उसकी बातों की सच्चाई व्यक्त कर ही देते हैं।

* क्या आप किसी से बात करते समय अनजाने में अपने मुंह या गर्दन को छूते रहते हैं ?

* क्या किसी से बात करते हुए आप अक्सर हकला जाते हैं ?

* क्या सामने वाले से बतियाते समय आप जबरन मुस्कुराने तो नहीं लग जाते ?

* क्या किसी को कुछ कहते हुए आपका गला तो नहीं रुंध जाता ?

* क्या सामने वाले को कोई बात बताते हुए आप उससे आंखें नहीं मिला पाते ?

* क्या किसी से बात करते हुए आप बार-बार अपने कंधे तो नहीं उचकाते ?

* क्या किसी से बात करते समय आपको अपना रक्त चाप बढ़ा हुआ लगता है ? या पसीना तो नहीं आ जाता ?

* किसी से बात करते हुए क्या आपकी आवाज तेज हो जाती है ?

* क्या आप किसी को कुछ बताते समय अपनी बात बार-बार दोहराते हैं ?

यदि ऐसा है तो माफी चाहूंगा :-) आप सामने वाले से झूठ बोल रहे हैं ।

वैसे झूठ बोलना हर समय गलत नहीं होता। किसी की रक्षा के लिए इसका उपयोग देवता भी करते आए हैं।
कहा भी गया है, प्रिय सत्य बोलिए। अप्रिय सत्य न बोलिए।
ऐसा शायद ही कोई इंसान होगा जिसने इसका सहारा न लिया हो। खोज बताती है कि राजनीति से जुड़े लोग इस मामले में सबसे आगे होते हैं। उसके बाद सेल्समैनों, वकीलों तथा अभिनेता/त्रियों की बारी आती है। कभी-कभी डाक्टर भी अपने मरीज के हित में झूठ बोल लेते हैं। सबसे कम इस विधा का उपयोग करने वालों में वैज्ञानिकों, स्थापत्यकारों और इंजीनियरों को शामिल किया गया है। इसका कारण भी है कि इनके मिथ्याभाषण को आसानी से पकड़ा जो जा सकता है।
एक बात और, विशेषज्ञों का कहना है कि स्त्रियाँ ज्यादा झूठ बोलती हैं ।
माफ कीजिएगा यह मैं नही न कह रहा हूँ :-)

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

पेहोवा या पृथूदक, एक प्राचीन तीर्थ स्थल

पेहोवा, भारत के प्राचीनतम स्थानों में से एक 'कुरुक्षेत्र' जहां महाभारत का युद्ध लड़ा गया था, के पास का एक कस्बा है जो अब धीरे-धीरे छोटे शहर में तब्दील होता जा रहा है। कुरुक्षेत्र से 27 की. मी. तथा 'थानेसर' से 12 की.मी. की दूरी पर स्थित अपने धार्मिक मुल्यों के कारण यह तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात है। ऐसी धारणा है कि यहां प्राण त्यागने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसीलिए देश भर से लोग हरिद्वार में अस्थी विसर्जन करने के पश्चात यहां पिंड़-दान करने आते हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि किसी की मौत किसी दुर्घटना में, अस्पताल में या बिस्तर पर हुई हो तो उसकी क्रिया यहां करनी जरूरी होती है। यहां का नजदीकी रेल-स्टेशन कुरुक्षेत्र का है। सड़क मार्ग से ने.हाईवे ६५ द्वारा यह सारे देश से जुड़ा हुआ है।

कनिंघम ने इसे 882 ई.पू. का बताया है जबकि यहीं के एक मंदिर के शिलालेख में इसके 895 ई.पू. के होने का उल्लेख मिलता है।

ऋगवेद के अनुसार यहां का नामकरण राजा पृथू के नाम पर "पृथूदक" किया गया था। जो बदलते-बदलते अब "पेहोवा" के नाम से जाना जाता है। राजा पृथू ने अपने पिता की अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए उनका अंतिम संस्कार यहीं पर किया था। जिससे उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो सके। तभी से सद्गति के लिए लोग यहां अपने पूर्वजों का पिंड़ दान करते आ रहे हैं।

वामन पुराण और महाकाव्य महाभारत में भी इस स्थल की अपार महिमा का वर्णन मिलता है। यहां पर समय-समय पर किए गये उत्खनन और मंदिरों में लगे अभिलेखों से भी इस जगह के अति प्राचीन होने का प्रमाण मिलता रहा है।

विदेशी आतातायियों के आक्रमणों और विध्वसों का यहां के मंदिरों और पूजा स्थलों को भी सामना करना पड़ा था। पृथ्वीराज चौहान की महमूद गजनी के हाथों पराजय के बाद यह क्षेत्र पूरी तरह से मुसलमानों के कब्जे में चला गया था। पर मराठों के आगमन से यहां की स्थिति में फिर परिवर्तन आया। उसी दौर में सही मायनों में पृथूदक के धार्मिक महत्व की पुनर्स्थापना हो पाई। मराठों ने ही पृथूकेश्वर, सरस्वती तथा कार्तिकेय मंदिरों का जिर्णोद्धार करवाया।

पहले लोग सिर्फ कर्मकांड़ करवाने यहां जाते थे पर अब कुरुक्षेत्र जाने वाले लोग पृथूदक यानि पेहोवा भी पहुंचने लगे हैं।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

जब मेरे पास ख़त्म हो जाते हैं तो मैं भी पचास में देता हूँ

गांव का एक लड़का अपनी नयी-नयी साईकिल ले, शहर मे नये खुले माल में घूमने आया। स्टैंड में सायकिल रख जब काफ़ी देर बाद लौटा तो अपनी साईकिल को काफ़ी कोशिश के बाद भी नहीं खोज पाया। उसको याद ही नहीं आ रहा था कि उसने उसे कहां रखा था। उसकी आंखों में पानी भर आया। उसने सच्चे मन से भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभू मेरी साईकिल मुझे दिलवा दो, मैं ग्यारह रुपये का प्रसाद चढ़ाऊंगा। दैवयोग से उसे एक तरफ़ खड़ी अपनी साईकिल दिख गयी। उसे ले वह तुरंत मंदिर पहुंचा, भगवान को धन्यवाद दे, प्रसाद चढ़ा, जब बाहर आया तो उसकी साईकिल नदारद थी।

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नमस्ते सर, मैं आपका पियानो ठीक करने आया हूं। पर मैने तो आप को नहीं बुलवाया। नहीं सर, आपके पडोसियों ने मुझे बुलवाया है।

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अरे भाई, ये सेव कैसे दिये। सर साठ रुपये किलो। पर वह तुम्हारा सामने वाला तो पचास में दे रहा है। तो सर उसीसे ले लिजीए। ले तो लेता पर उसके पास खत्म हो गये हैं। सर जब मेरे पास खत्म हो जाते हैं तो मैं भी पचास में देता हूं ।

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बेटे की नौकरी चेन्नाई मे लग गयी। अच्छी पगार थी, सो उसने पांच हजार की एक साडी माँ के लिये ले ली। पर वह माँ का स्वभाव जानता था, सो उसने साडी के साथ एक पत्र भी भेज दिया कि पहली पगार से यह साडी भेज रहा हूं, दिखने में मंहगी है पर सिर्फ़ दो हजार की है, कैसी लगी बतलाना।
अगले हफ़्ते ही माँ का फोन आ गया, बेटा खुश रहो। साडी बहुत ही अच्छी थी। मैने उसे तीन हजार में बेच दिया है, तुरंत वैसी दस साडियां और भिजवा दे, अच्छी मांग है।

रविवार, 23 जनवरी 2011

हम देसी घी को छोड़ कर हर विदेशी चीज पसंद करते हैं.

हम भारतीयों की एक विशेषता है कि हम देसी घी को छोड़ हर विदेशी चीज का आंख मूंद कर स्वागत, उपयोग तथा आदर करते हैं फिर चाहे वह विदेशी वस्तु, विचार या इंसान "रीडायरेक्ट" हो कर ही क्यूं ना हमारे पास आया हो।

हमारे ऋषी-मुनियों तथा विद्वानों ने अवाम की जिंदगी को सुंदर, सुखमय, निरोग बनाए रखने के लिए जितने उपाय हो सकते थे उन्हें खोज कर हमें सौंप दिया था। पर समय के साथ-साथ हमारी निष्ठा व सोच विदेशों की चकाचौंध में गुम होती चली गयी और हम राम में नहीं रामा में, कृष्ण में नहीं कृष्णा में, योग में नहीं योगा में, राग में नहीं रागा में सुख खोजने में खोते चले गये।

"बाजार" की ताकतें पुराने स्वरुपों को नये-नये "डिजाइनर" आवरणों में लपेट-लपेट कर फिर हमारे सामने पेश करती गयीं और हम आंख मूंद कर उन्हें अपनाने में गौरव महसूस करने लगे।

योरोप और अमेरिका की तो छोड़ें कल तक का अफीमची देश चीन भी आज हमारी इस कमजोरी का फायदा उठा अपने वतन वासियों को समृद्ध बनाने पर तुला हुआ है। खुद कम्युनिस्ट विचारधारा का होते हुए भी उसने हमारे पर्वों पर हमारे देवी-देवताओं की मुर्तियां बना-बना कर हमें बेच ड़ालीं और हम सस्ते में मिलते भगवान खुशी-खुशी घर ले आए। वहीं की एक देन है 'फेंगशुई'। जिसके पीछे आज हजारों लोग पागलों की तरह पड़ कर पता नहीं क्या-क्या सस्ती मंहगी चीजें ला-ला कर अपने घर को भरे जा रहे हैं।

इस चीनी ज्योतिष के कुछ नियम यहां दे रहा हूं आप बताएं कि इसमें ऐसा क्या है जो आप को पहले पता नहीं था या उस हिदायत का हम पालन ना करते हों।

फेंगशुई के अनुसार पांच तत्व होते हैं जिन्हें घर में ला कर रखना चाहिए, वे हैं - पृथ्वी, पानी, आग, धातु और लकड़ी। हमारे पंच तत्व में धातु और लकड़ी की जगह आकाश और वायु सम्मलित हैं। तो कौन ज्यादा प्रकृति के नजदीक हुआ।

फेंगशुई के अनुसार कुड़ा-कचरा इकट्ठा नहीं होना चाहिए, घर में चीजें व्यवस्थित होनी चाहिए, बेकार की वस्तुएं नहीं रखनी चाहिएं, रसोई घर तथा चुल्हा साफ-सुथरा होना चाहिए, वहां रोशनी तथा सामग्री प्रयाप्त मात्रा में होनी चाहिए। बाथरूम तथा टायलेट के दरवाजे सदा बंद रखने चाहिए। इत्यादि-इत्यादि।

मुद्दा यह है कि घर साफ सुथरा तथा व्यवस्थित हो। माहौल उल्लासमय हो। घर के दरो-दिवार खुशनुमा हों जिससे दिलो-दिमाग परेशानियों से मुक्ति पा सके, सोच सकारात्मक हो सके। ऐसी सोच ही हर बाधा से लड़ने की ताकत प्रदान करती है।

यह सब कहने का मेरा अभिप्राय फेंगशुई विधा को नीचा या बेकार ठहराना नहीं है। बाहर की किसी भी संस्कृति या ज्ञान की अच्छाईयों को अपनाना बुरी बात नहीं है। पर आंख मूंद कर आधी अधूरी जानकारी ले किसी के भी पीछे चल देना कोई अक्लमंदी भी नहीं है।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

हृदयहीन, फिल्मजगत की मायानगरी

आज खबरों में पढा कि वयोवृद्ध सिनेकर्मी, पूर्व स्वतंत्रता सैनानी 95 वर्षीय श्री अवतार कृष्ण हंगल जो, ए.के. हंगल के नाम से ज्यादा जाने जाते हैं, बहुत बिमार हैं और काफी दिनों से बिस्तर पर हैं। वे अपने पुत्र विजय के साथ रह रहे हैं जो खुद 74 साल के हैं। इस जानलेवा मंहगाई के दौर में पूरा परिवार तंगदस्ती से गुजर रहा है। हंगल जी के इलाज के लिए हर महीने करीब 10 से 15 हजार रुपयों की आवश्यकता पड़ती है जिसके अभाव में उनका उचित इलाज नहीं हो पा रहा है।
यह चकाचौंध भरे, खुशहाली की तस्वीर बने, मौज-मस्ती के पर्याय फिल्म जगत और उसके सितारों के रजत पट के पीछे के घने अंधकार, मतलब परस्ती तथा तंग दिली की सच्चाई है।

पार्टियों में एक ही रात में लाखों रुपये उड़ा देने वाले, छोटे-बड़े पर्दे पर नकली मुस्कान बिखेरते बड़ी-बड़ी बातें बनाने वाले, कुत्ते-बिल्लीयों, जंगलों के लिए दिखावे की मुहिमों में फोटो खिचवाने वाले, मानवाधिकार के लिए विवादाग्रस्त लोगों के पक्ष में देश के भी विरुद्ध बोल कर अपने को मानव समर्थक कहलाने की लालसा वाले, यहां-वहां के मंदिरों में पैदल घूम-घूम कर करोंड़ों रुपयों को मुर्तियों पर अर्पण करने वाले, छोटे पर्दे पर आयोजित-प्रायोजित इनामी तमाशों में भाग लेकर कहां-कहां के N.G.O. को लाखों देने की बात करने वाले चर्चित चेहरे अपने ही व्यवसाय के एक साथी को इस बूरी दशा में नजरंदाज कर अपनी असलियत का ही पर्दाफाश कर रहे हैं।

ऐसा भी नहीं है कि इस विशाल व्यवसाय का श्री हंगल कोई एक अनजान पुर्जा हों। वे एक जानी मानी हस्ती रहे हैं। उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। अपने उत्कर्ष में जरुरतमंदों के काम आने वाले इंसान का यह हश्र तकलीफदेह है।

पहले भी अनेकों बार फिल्म जगत की निर्मम मायानगरी अपने सरल ह्रदय सदस्यों के साथ ऐसा खेल खेल चुकी है, उनकी ढलती शामों में। ऐसे समर्पित कलाकारों की आड़े समय मे क्यों किसी को सुध नहीं आती यह दुखद और विचारणीय प्रश्न अक्सर दिल को कचोटता है।

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

शायद प्रारब्ध की हर घटना का स्थान और समय निश्चित होता है.

इस बार जैसी ठंड तब भी पड़ी थी। क्या इंसान क्या पशू-पक्षी सभी बेहाल हो गये थे। ऐसे ही में एक गिद्धराज अपनी सर्दी दूर करने के लिए धूप में एक वृक्ष की फुनगी पर बैठे थे। उसी समय उधर से यमराज का निकलना हुआ। उनको जैसे ही पेड़ पर बैठा गिद्ध नजर आया उनकी भृकुटी पर बल पड़ गये पर उन्होंने कहा कुछ नहीं और अपनी राह चले गये। वे तो अपनी राह चले गये पर उनके तेवर देख गिद्ध की जान सूख गयी। उसके सारे के सारे देवता कूच कर गये। अब वह ठंड से नहीं ड़र से कांप रहा था। इतने में उधर से 'नारायण-नारायण' उच्चारते नारद जी आ पहुंचे। नारद जी ने कांपते हुए गिद्ध को देखा तो रुक कर पूछने लगे, गिद्धराज तबीयत तो ठीक है? बहुत बुरी तरह से कांप रहे हो, क्या बात है? किसी सहायता की जरूरत हो तो मुझसे कहें।
ड़र से लरजते गिद्ध ने बड़ी मुश्किल से बताया कि अभी-अभी इधर से यमराज निकले थे। मैंने तो जाने-अनजाने कोई भूल भी नहीं की फिर भी वे बड़ी टेढी नजर से मुझे देखते हुए गये हैं। बहुत गुस्से मे लग रहे थे। इसीसे मुझे बड़ा ड़र लग रहा है। नारद जी ने दो मिनट विचार कर कहा कि तुम एक काम करो। यहां से सौ योजन की दूरी पर रामटेक नामक पहाड़ी है। उसकी कंदरा में जा कर छिप जाओ तब तक मैं यमराज से बात कर उनकी नाराजगी का कारण पूछता हूं।
गिद्ध ने उनकी बात मान रामटेक की पहाड़ी में शरण ले ली। इसी बीच नारद जी ने यमराज के पास जा पूछा कि महाराज आज क्या बात हो गयी जो सबेरे-सबेरे उस गरीब गिद्ध पर आपकी कोप दृष्टी जा पड़ी थी। यमराज बोले, अरे कुछ नहीं, जैसे ही मैं बाहर निकला तो सामने वह गिद्ध नजर आ गया। आज रात उसकी जिंदगी का समापन है जिसे सौ योजन दूर रामटेक की पहाड़ियों में सम्पन्न होना है। मैं यह सोच रहा था कि इसे तो वहां होना चाहिए यहां क्या कर रहा है।

नारद जी को यह समझ नहीं आ रहा था कि उन्होंने अच्छा किया या बुरा।

सोमवार, 17 जनवरी 2011

यात्रा में कभी आपका ऐसे "कैरेक्टर" से सामना हुआ है ?

हर किसी को कभी ना कभी कहीं न कहीं के लिए यात्रा करनी ही पड़ती है। चाहे लम्बी दूरी की हो चाहे नजदीक की। माध्यम चाहे कोई सा भी हो पर हर बार यात्रा एक नया अनुभव प्रदान कर ही देती है। कभी मनोरंजक कभी तल्ख। इस बार एक अजीब से "कैरेक्टर" से सामना हुआ था।

पिछले दिनों अचानक आ उपस्थित हुई अप्रिय परिस्थिति के कारण दिल्ली जाना पड़ गया था। साल के अंतिम दिनों की छुट्टियों के दिन थे बड़ी मुश्किल से किसी तरह दो बर्थ मिल पाई थी। गाड़ी करीब-करीब समय पर ही आ गयी थी। अंदर बर्थ एक और दो पर एक युगल था। तीन पर एक युवक। चार व पांच मेरे और मेरे बेहतर अर्ध के हिस्से आई थी तथा छह पर सात और आठ वाले परिवार का एक बच्चा था। गाड़ी अपने गंतव्य की ओर दौड़ी जा रही थी। इधर सब अपने आप में खोए हुए। किसी भी तरह की कोई बातचीत नहीं। बोरियत भरे भारी माहौल को पत्रिका वगैरह भी हल्का नहीं कर पा रही थी जिसकी वजह से निठल्ले बैठे-बैठे थकान सी होने लगी तो कमर सीधी करने का काम मैंने अपनी बर्थ को दे दिया। सामने वाला युगल अपने लैपटाप मे मग्न एक ही बर्थ पर था। युवक ऊपर ऊंघ रहा था। बच्चा अपने परिवार के साथ था।
यात्रा के दौरान गाड़ी में मुझसे घोड़े नहीं बिक पाते। चेतन अवचेतन की अवस्था में झूलते हुए सफर कट जाता है। ऐसे ही काफी समय निकल गया। रात के नौ बजे होंगे कुछ अजीब सी हलचल से आंख खोली तो पाया एक दबंग सा लम्बा-चौड़ा इंसान इधर अंदर खड़ा हुआ है। उसके हुलिए और व्यवहार से कुछ रासायनिक परिवर्तन हुए मेरे अंदर जिसकी वजह से तल्ख हो गये मेरे लहजे से पूछे सवाल के जवाब में उसने कहा कि ऊपर वाली बर्थ मुझे मिली है, यहां मैं अपने जूते रख रहा हूं। जूते इतनी अंदर ? मैंने पूछा। वो क्या है ना सर, एक बार ऐसे ही गाड़ी में हमरा जूता चोरी हो गया था इसीलिए अब छिपा कर रखता हूं। उसके भोलेपन ने सारा गुस्सा और शक दूर कर दिया। अगला ऊपर अपनी जगह चढ गया। मैंने भी आंख फिर बंद कर ली। पर 15-20 मिनट बाद फिर बंदा नीचे। मैंने पूछा अब क्या हुआ? बोला ऊपर बहुत ठंडा है, एक छेदा से बहुत जोर का हवा जा रहा है, हमारा चदरा भी उधर खेंचा रहा था तो हम नीचे आगये। एटेंडेंट को बोलने के वास्ते।

ऊपर ए.सी. के वैंटीलेशन से उसे तकलीफ हो रही थी। सामने वाला दंपत्ति भी उठ बैठा था। मैंने भी अपनी बर्थ खोल दी और उस महाशय के बैठने की जगह बनाई। इलैक्ट्रीशियन ने आ इधर का वैंटिलेशन बंद कर दूसरी तरफ का चला दिया। यह सब दस-बीस मिनट में निबट गया पर हमारे इस चरित्र जिसका नाम अविनाश था और जो रांची का रहने वाला था उसकी सामने वालों से पांच मिनट भी 'देखा-देखी' नहीं हुई थी बात-चीत तो दूर की बात है। उसी समय सामने वाले युवक ने एक ठंडे पेय की बोतल खरीदी, अभी वह उसे खोल भी नहीं पाया था कि अविनाश ने एक बम्ब फोड़ा, बोला ई सब चीज आप जैसे लोग के कारण ही बिकता है। सामने वाला क्या सारे लोग सन्न। बिना जान-पहचान के किसी को ऐसी बात कह देना, बहुत अजीब सा था। वे दोनों उसका मुंह देखें श्रीमती जी मेरा। सामने वाले ने पूछा, क्या मतलब? अविनाश जी बोले, इतना ठंडा में कोई ठंडा पीता है? आप जैसे लोग पीते हैं तभी तो यह सब बिकता है। माहौल में आए हल्के तनाव को दूर करने के लिए मैंने कहा, भाई दिल्ली में तो लोग सर्दी में भी कंबल ओढ कर आइसक्रीम खाने बाहर जाते हैं। किसी तरह बात आई गयी हो गयी। पर इससे एक फायदा जरूर हुआ कि अब सब एक दूसरे से बातचीत करने लग गये थे। पाया गया कि देखने में विकट अविनाश बहुत भोला बंदा है। ज्यादातर अपने बारे में ही वह बताता रहा। पढा लिखा नहीं होने के बावजूद प्रभू की फुल कृपा से सराबोर वह हर जरूरतमंद की सहायता करने की इच्छा रखता है। इसी बीच खाना-पीना भी हुआ बातें चलती रहीं बीच बीच में अविनाश की 'मृदुलता' से खिंचाई भी होती रही। रात के करीब एक बजे सबने सरकार द्वारा निर्धारित अपना-अपना कोटा संभाल लिया।

सबेरा हुआ दिल्ली अब दूर नहीं थी। उतरने की तैयारियों के बीच सामने वाली युवती, मधु, ने हल्का सा मेक-अप करना शुरु किया ही था कि अविनाश से फिर नहीं रहा गया और उसने फिर एक धमाका कर दिया, आप ये सब जो कर रहीं हैं वो हमरी समझ में बिलकुल नहीं आ रहा है। और कोई होता तो पता नहीं क्या होता पर मधु समझदार निकली उसने मुस्कुराते हुए श्रीमती जी की ओर इशारा कर कहा कि आंटी और मेरी समझ में आ रहा है कि मैं क्या कर रही हूं।

इस डर से कि यह भोले महाशय कहीं और कोई लड़ी ना फोड़ डाले मैंने अविनाश के कंधे पर हाथ रख कहा कि उतरना है तो जरा चेहरा साफ सुथरा ना होना चाहिए। जाइये आप भी थोड़ा मुंहवा धो ना लीजिए। सभी हंस पड़े और तभी गाड़ी निजामुद्दीन का प्लेटफार्म नापने लगी थी।

रविवार, 16 जनवरी 2011

नोबेल पुरस्कार और जवाहरलाल नेहरू

यह तो सभी जानते हैं कि पुर्वाग्रहों के चलते, शांति पुरस्कार के लिए, नोबेल फाउंडेशन ने गांधीजी की अनदेखी की थी। बाद में नोबेल समिति ने अपनी भूल मान भी ली थी। हालांकि सारी कार्यवाही गोपनीय होती है। लेकिन कुछ समय पहले इस समिति ने 1901 से 1956 तक का पूरा ब्योरा सार्वजनिक किया है, जिससे पता चलता है कि इस फाउंडेशन ने भारत के पहले प्रधान मंत्री के नाम को भी गंभीरता से नहीं लिया। वह भी एक-दो बार नहीं, पूरे ग्यारह बार उनके नाम को खारिज किया गया।

1950 में नेहरुजी के नाम से दो प्रस्ताव भेजे गये थे। उन्हें अपनी गुटनिरपेक्ष विदेश नीति और अहिंसा के सिद्धांतो के पालन करने के कारण नामांकित किया गया था। पर उस समय राल्फ बुंचे को फिलीस्तीन में मध्यस्थता करने के उपलक्ष्य में नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया। 1951 में नेहरूजी को तीन नामांकन हासिल हुए थे। पर उस बार फ्रांसीसी ट्रेड यूनियन नेता लियोन जोहाक्स को चुन लिया गया था। 1953 में भी नेहरुजी का नाम बेल्जियम के सांसदों की ओर से प्रस्तावित किया गया था, लेकिन इस वर्ष यह पुरस्कार, द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिकी सेनाओं का नेतृत्व करनेवाले जार्ज सी। मार्शल के हक में चला गया। 1954 में फिर नेहरुजी को दो नामांकन प्राप्त हुए, पर फिर कहीं ना कहीं तकदीर आड़े आयी और इस बार यह पुरस्कार किसी इंसान को नहीं, बल्कि संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त कार्यालय के पक्ष में चला गया। अंतिम बार नेहरुजी का नाम 1955 में भी प्रस्तावित किया गया था। परन्तु इस बार यह खिताब किसी को भी ना देकर इसकी राशि पुरस्कार संबंधी विशेष कोष में जमा कर दी गयी थी।

ऐसा तो नहीं था कि गोरे-काले का भेद भाव या फिर एक ऐसे देश, जो वर्षों गोरों का गुलाम रहा हो, का प्रतिनिधित्व करनेवाले इंसान को यह पुरस्कार देना उन्हें नागवार गुजरा हो।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

क्या था महाभारत काल में अक्षौहिणी सेना का अर्थ

जैसे आजकल सेनाओं की क्षमता या गिनती स्कवैड्रन या बैटैल्यैन से आंकी जाती है उसी तरह महाभारत काल में "अक्षौहिणी" से सेना की क्षमता का आकलन होता था। अक्षौहिणी, सेना की एक संपूर्ण इकाई को कहा जाता था। इसके चार अभिन्न अंग होते थे। पदाति यानि पैदल सैनिक, अश्वारोही यनि घुड़सवार सैनिक, गजारूढ यानि हाथी पर सवार योद्धा और रथारूढ यानि रथ पर सवार योद्धा।

अक्षौहिणी की पहली इकाई होती थी 'पतंग'। इसमें एक रथ, एक गज, तीन अश्व और पांच पैदल सैनिक होते थे। इसके बाद होता था 'सेनामुख, जो तीन पतंगों से मिल कर बनता था। तीन सेनामुखों का एक 'गुल्म' होता था। इसी प्रकार तीन गुल्मों का एक 'गण' बनता था। तीन ही गणों की एक वाहिनी और तीन वाहिनियों का एक 'प्रत्ना'। तीन प्रत्नों का एक 'चमू' और तीन ही चमुओं की एक 'अनीकिनी' बनती थी। इस प्रकार दस अनीकिनियों को मिला कर एक अक्षौहिणी सेना तैयार होती थी।

इसमें चारों अंगों के 218700 सैनिक बराबर-बराबर बंटे हुए होते थे। प्रत्येक इकाई का एक प्रमुख होता था जैसे पतंग पति, सेनामुख नायक, गुल्म नायक, वाहिनीपति, प्रत्नापति, चमुपति और अनीकिकीपति ये नायक रथी हुआ करते थे।

अक्षौहिणी सेना की रचना धनुर्वेद के अनुसार की जाती थी। यह महाभारत के युद्ध की सबसे बड़ी इकाई थी। महाकाव्य महाभारत के अनुसार इस युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेना ने भाग लिया था, जिसमें सात अक्षौहिणी सेना पांड़वों की थी जिसका नियंत्रण युधिष्ठिर के पास था तथा ग्यारह अक्षौहिणी कौरवों की जिसे दुर्योधन का नेतृत्व प्राप्त था।

इस प्रकार देखें तो पांडवों के पास - 153090 रथ, 153090 गज, 459270 अश्व और 765270 पैदल सैनिक थे।
इसी प्रकार कौरवों के पास - 240570 रथ, 240570 हथी, 721710 घोड़े तथा 1202850 पैदल सैनिकों की ताकत थी।

सोमवार, 10 जनवरी 2011

आंसू , प्रकृति का एक उपहार.

आंसू, दुख के, पीड़ा के, ग्लानी के, परेशानी के या फिर खुशी के। मन की विभिन्न अवस्थाओं पर शरीर की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप आंखों से बहने वाला जल। जब भावनाएं बेकाबू हो जाती हैं तो मन को संभालने, उसको हल्का करने का काम करता है "अश्रु"। इसके साथ-साथ ही यह हमारी आंखों को साफ तथा कीटाणुमुक्त रखता है।

आंसू का उद्गम "लैक्रेमेल सैक" नाम की ग्रन्थी से होता है। भावनाओं की तीव्रता आंखों में एक रासायनिक क्रिया को जन्म देती है, जिसके फलस्वरुप आंसू बहने लगते हैं। इसका रासायनिक परीक्षण बताता है कि इसका 94 प्रतिशत पानी तथा बाकी का भाग रासायनिक तत्वों का होता है। जिसमें कुछ क्षार और लाईसोजाइम नाम का एक यौगिक रहता है, जो कीटाणुओं को नष्ट करने की क्षमता रखता है। इसी के कारण हमारी आंखें जिवाणुमुक्त रह पाती हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार आंसूओं में इतनी अधिक कीटाणुनाशक क्षमता होती है कि इसके छह हजार गुना जल में भी इसका प्रभाव बना रहता है। एक चम्मच आंसू, सौ गैलन पानी को कीटाणु रहित कर सकता है।
ऐसा समझा जाता है कि कभी ना रोनेवाले या कम रोनेवाले मजबूत दिल के होते हैं। पर डाक्टरों का नजरिया अलग है, उनके अनुसार ऐसे व्यक्ति असामान्य होते हैं। उनका मन रोगी हो सकता है। ऐसे व्यक्तियों को रोने की सलाह दी जाती है।

तो जब भी कभी आंसू बहाने का दिल करे (प्रभू की दया से मौके खुशी के ही हों) तो झिझकें नहीं।

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

खून, कितना जानते हैं हम इसके बारे में ?

रक्त, खून, लहू, रुधिर कितने नाम हैं इस जीवनदायी तरल के, जो जन्म से लेकर मृत्यु प्रयंत हमारे शरीर में अनवरत दौड़ता रहकर हमें जिन्दगी प्रदान करता रहता है। फिर भी हम इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते {डाक्टरों के अलावा}। मेरे पास कुछ जानकारियां हैं जिन्हें बांटना चाहता हूं। इनके अलावा यदि आपके पास हों तो सबको जरूर बतायें---

हमारे शरीर में करीब पाँच लीटर रक्त विद्यमान रहता है। इसकी आयु कुछ दिनों से लेकर 120 दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तील्ली में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थी-मज्जा {बोन मैरो} में इसका उत्पादन भी होता रहता है। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित उत्तक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानीकारक पदार्थों को गुर्दे तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है।

रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल, सफ़ेद और प्लैटलैट्स। लाल कण फ़ेफ़ड़ों से आक्सीजन ले सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बनडाईआक्साईड को शरीर से फ़ेफ़ड़ों तक ले जाने का काम करते हैं। इनकी कमी से अनिमिया का रोग हो जाता है। सफ़ेद कण हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं।

मनुष्यों में रक्त ही सबसे आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। पर भिन्न-भिन्न रक्त कण तरह-तरह एटीजंस वाले होते हैं। इन्हीं एटीजंस से रक्त को विभिन्न वर्गों में बांटा गया है और रक्त दान करते समय इसी का ध्यान रखा जाता है। महत्वपूर्ण एटीजंस को दो भागों में बांटा गया है। पहला ए बी ओ तथा दुसरा आर-एच व एच-आर। जिन लोगों का रक्त जिस एटीजंस वाला होता है उसे उसी एटीजंस वाला रक्त देते हैं। जिन पर कोई एटीजंस नही होता उनका ग्रुप "ओ" कहलाता है। जिनके रक्त कण पर आर-एच एटीजंस पाया जाता है वे आर-एच पाजिटिव और जिनपर नहीं पाया जाता वे आर-एच नेगेटिव कहलाते हैं। ओ वर्ग वाले व्यक्ति को सर्वदाता और ए बी वाले को सर्वग्राही कहा जाता है। परन्तु ए बी रक्त वाले को ए बी रक्त ही दिया जाता है।

जहां स्वस्थ व्यक्ति का रक्त किसी की जान बचा सकता है, वहीं रोगी, अस्वस्थ व्यक्ति का खून किसी के लिये जानलेवा भी साबित हो सकता है। इसीलिए खून लेने-देने में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। वैसे अब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में भी कृत्रिम रक्त का निर्माण कर लिया है और आशा है कि निकट भविष्य में रक्त की अनुपलब्धता से किसी की जान नहीं जाएगी।

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

सपूत

दफ्तर जाने के पहले रवि रोज की तरह अपने बिमार पिता के कमरे में गया। पिता रोज की तरह आंखें बंद किए पड़े थे। दरवाजे से ही मुड़ कर वह अपने काम पर चल दिया।

अभी दफ्तर पहुंचा ही था कि पत्नि जया का फोन आ गया, पिताजी नहीं रहे। रवि जड़ सा रह गया। क्षण भर में ही सारे दफ्तर में खबर फैल गयी। लोग सांत्वना देने लगे। वह उठा कार निकाली और घर की ओर चल पड़ा। शरीर गाड़ी में बैठा था पर दिमाग भविष्य की सोच कर उलझन मेँ पड़ा हुआ था।

क्या सचमुच पिताजी चल बसे। साल दो साल और रह जाते तो........

उनकी बिमारी के बहाने ही तो इस बड़े शहर में तबादला करवा पाया था। आते ही उन्हीं के कारण फोन, गैस इत्यादि का कनेक्शन भी तुरंत मिल गया था। गाहे-बगाहे घर के या और किसी निजि काम के लिए उनकी बिमारी के बहाने छुट्टी मिल जाया करती थी। दफ्तर में जाने में देर सबेर हो जाने पर भी पिताजी ही काम आते थे और तो और इतने बड़े शहर में इस मंहगाई के जमाने में अपनी और बच्चों की अनाप-शनाप मांगों को पूरा करने के लिए उनकी पेंशन का जो सहारा था वह भी गया।

हे भगवान अब क्या होगा ?

रवि पिता के सिरहाने खड़ा फूट-फूट कर रो रहा था।

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

इस फोन काल से सचेत रहें

यदि आपके मोबाइल फोन पर किसी व्यक्ति द्वारा यह काल आती है कि आपकी लाईन चेक करने के लिए या आपको किसी इनाम का भागीदार बनाने के लिए आपको #90, #09 या ऐसा ही कोई नंबर दबाना है तो बिना देर किए आप अपना फोन बंद कर दें।

CNN web site पर यह बताया गया है कि पाकिस्तान में एक ऐसा ग्रुप सक्रिय है जो उसके द्वारा दिए गये नंबर को दबाते ही उस फोन की सिम को हैक कर उसका दुरुपयोग करना शुरु कर देता है वह भी आपके खर्चे पर।

इस बात की 'मोटोरोला' तथा 'नोकिया' ने भी पुष्टि कर दी है। करीब तीस लाख फोन इस गलत हरकत का शिकार हो चुके हैं।
इसलिए आप खुद सचेत रहें और अपने दोस्तों तथा प्रियजनों को भी आगाह कर दें।

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