मंगलवार, 28 जनवरी 2020

हर भावी जननी की पहली चाहत बेटी ही होती है

पहली बार जब कोई युवती माँ बनती है तो वह शिशु में अपनी छाया ही देखती है। उसको अगाध ख़ुशी महसूस होती है जब कोई बच्चे की शक्ल को उस जैसा बताता है ! सौभाग्य से यदि नवजात पुत्री हो तब तो वह अपने आप को उसमें देखने लगती है ! वापस अपने बचपन में पहुंच जाती है ! इसके साथ ही उसी क्षण से उसके भविष्य के सपनों का ताना-बाना  भी बुनने लगती है। यह तो प्रकृति की खूबी ही है कि कल तक जो खुद एक बेटी थी वह कैसे एक जिम्मेदार माँ का रूप धारण कर लेती है.................

#हिन्दी_ब्लागिंग 
मेरी यह धारणा है कि हर भावी जननी की अपनी प्रथम उपलब्धि की अभिलाषा कन्या ही होती है, हो सकता है मैं गलत होऊं पर मुझे यही लगता है। भले ही रूढ़िवादी सोच, समाज के पितृतात्मक विचार या परिवार की वंश-वृद्धि की आधारहीन लालसा के सम्मुख वह अपनी कामनाओं का गला घोट, खुद की इच्छा सार्वजनिक रूप से भले ही स्वीकार ना कर पाती हो पर प्रकृति ने जगत की संवर्धना, बढ़ोत्तरी, विकास की जो अहम जिम्मेवारी अपनी इस सर्वोत्तम कृति को सौंपी है, तो उसके विचार, उसकी मनोवृति उसकी प्राकृत सोच भी निश्चित रूप से उसी के अनुरूप ही होती होगी। 

पहली बार जब कोई युवती माँ बनती है तो वह शिशु में अपनी छाया ही देखती है। उसको अगाध ख़ुशी महसूस होती है जब कोई बच्चे की शक्ल को उस जैसा बताता है ! सौभाग्य से यदि नवजात पुत्री हो तब तो वह अपने आप को उसमें देखने लगती है ! वापस अपने बचपन में पहुंच जाती है ! इसके साथ ही उसी क्षण से उसके भविष्य के सपनों का ताना-बाना  भी बुनने लगती है। यह तो प्रकृति की खूबी ही है कि कल तक जो खुद एक बेटी थी वह कैसे एक जिम्मेवार माँ का रूप धारण कर लेती है ! पर इसके साथ ही समाज की भयावह बुराईयां भी उसे डराने लगती हैं ! चिंताग्रस्त हो जाती है वह अपनी बच्ची की सुरक्षा, उसकी परवरिश, उसके भविष्य को लेकर ! इसीलिए जैसे-जैसे बच्ची बड़ी होती है, बालिका से युवती का रूप अख्तियार करती है वैसे-वैसे माँ की चिंताएं भी विशाल दरख़्त जैसा रूप ले लेती हैं ! भूल जाती है वह अपने आप को, अपनी जरूरतों को ! दफ़न कर देती है वह अपनी इच्छाओं को अपनी कामनाओं को अपनी परी की बेहतरी के लिए ! उसके आँख-कान-मन जैसे सिर्फ अपनी बच्ची की सुरक्षा में तैनात हो जाते हैं। डरी-शंकित-भयभीत माँ हर क्षण उस पर नजर रखने लगती है ! उसके उठने-बैठने-चलने-बोलने, हर गतिविधि पर उसे समझाने, टोकने, डांटने लगती है ! उसके लिए उसकी पारी सदा छौना ही रहती है ! वह स्वीकार ही नहीं कर पाती कि उसकी बिटिया भी बड़ी हो चुकी है ! और यहीं कहीं शायद अति हो जाती है, गलती हो जाती है ! बिटिया को बार-बार की टोकाटाकी नागवार गुजरने लगती है और एक दिन वह पलट कर जवाब दे देती है ! माँ स्तंभित रह जाती है ! उसे समझ नहीं आता कि उसकी भूल क्या है ! जिसके भले के लिए उसने अपना सुख-चैन सब कुछ त्याग दिया, वही बेटी आज इतनी बड़ी हो गयी ! दिल धक्क से रह जाता है और आँखें पनीली हो जाती हैं ! पर मानवीय रिश्तों में माँ-बेटी का रिश्ता शायद सबसे अनूठा और अहम् होता है। ना माँ को बेटी के बिना चैन पड़ता है ना हीं बेटी को माँ के बिना करार आता है। कुछ ही देर में दोनों फिर गले लग जाती हैं।

पर माँ की चिंताएं कहां खत्म होती हैं कभी ! वह जानती है कि उसकी सोनचिरैया को एक नया घर बसाना है, नए परिवेश में जाना है, नए लोगों के बीच ढलना है अपनी पहचान बनानी है, इसीलिए वह उसे समझाती-सिखाती-संवारती रहती है। वह उसे बताती है कि उस नए घर परिवार में भी एक माँ है जिसके अपने विचार, अपनी मान्यताएं, अपने तरीके होंगे घर चलाने-संभालने के ! उन्हें समझना है। मेरे द्वारा सिखाए-बताए तौर-तरीकों का उनसे ठीक उसी तरह सांमजस्य बैठाना है जैसे दूध और चीनी का बनता है। तुम्हारी पहली प्राथमिकताएं उनके लिए होंगी। समय के साथ वही घर तुम्हारा कहलाएगा। 

आज विदेशों की देखा-देखी अपने देश में भी सामाजिक विघटन के दौर ने पैर पसार लिए हैं ! फिर भी ऐसे में माँ की नसीहतें, समझाइशें, सीखें ही हैं जो उस विघटन रूपी दानव के सामने दृढ़ता से खड़ी हो देश-समाज-परिवार की रक्षा हेतु कटिबद्ध हैं।   

सोमवार, 27 जनवरी 2020

शनि शिंगणापुर, भ्रमित करते दूकानदार

एक तो धर्मस्थल दूसरे शनि देव का सबसे बड़ा स्थान ! मेरे अलावा सभी ने अपने  जूते पार्किंग में ही छोड़ दिए ! अब विडंबना यह कि पार्किंग से मंदिर का फर्लांग भर का रास्ता पूरी तरह कच्चा, नुकीले पत्थरों के टुकड़ों, बजरी तथा टूटी-फूटी वस्तुओं से अटा पड़ा था ! एक-एक कदम चलना भी दूभर हो रहा था लोगों के लिए ! पांच मिनट की दूरी को पार करने में बीस मिनट लग रहे थे। जब तक पछताते हुए बाकी लोग पहुंचते मैंने अंदर जा यथास्थान जूते रख हाथ-मुंह धो लिया था। 
वापस आने पर दूकान वाले की क्लास ली......................! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
आप श्रद्धा-भक्ति के साथ धर्मस्थलों की यात्रा करते हैं। मन में विश्वास रहता है कि प्रभु न्यायशील हैं, उनके रहते कम से कम उनके दरबार में तो गलत काम कोई सोच भी नहीं सकता ! पर सच्चाई ठीक इसके विपरीत है, उन पवित्र स्थानों से जुड़े लोग बहेलियों की तरह घात लगाए रहते हैं, आगंतुक को लूटने के लिए ! श्रद्धालु-पर्यटक-यात्री ऐसी जगहों में जा कर अगाध श्रद्धा भाव से अभिभूत हो जाता है ! साथ ही वह अपने संस्कारों, मान्यताओं और धर्मभीरुता के कारण हर क्षण सशंकित रहता है कि कहीं प्रभु के प्रति उससे कोई चूक या भूल ना हो जाए ! इसी भावना का लाभ वहां के दुकानदार, बिचौलिए, तथा धर्मस्थल से किसी ना किसी रूप से जुड़े लोग उठाने से बाज नहीं आते। यह कहानी कमोबेस हर प्रसिद्ध जगह की है। जहां ऐसे गिरोह अपना काम बिना किसी रोक-टोक, डर-भय के अंजाम दे रहे हैं। 
अभी पिछले दिनों शनि शिंगणापुर जाने का अवसर मिला। काफी सुन रखा था इस जगह के बारे में ! शनिदेव के प्रभाव के बारे में, यहां के अपराध विहीन माहौल के बारे में ! सो एक अलग तरह की उत्सुकता दिलो-दिमाग में बनी हुई थी। शिर्डी से तक़रीबन अढ़ाई घंटे के सफर के बाद गाडी के गंतव्य तक पहुंचने के पहले ही गाडी वाहक ने रटे-रटाए तरीके से कुछ चेतावनी रूपी सलाहें थोप दीं। जिनमें जूते गाडी में छोड़ने, बेल्ट निकाल कर जाने, पूजा के बाद पीछे मुड कर ना देखने जैसी दसियों बातें थीं !
गाड़ी को तो अपनी जानी-पहचानी जगह ही ठहरना था सो वह अपने परिचित की दूकान के सामने ही रुकी ! रुकते ही दुकानदारी आरंभ ! फूल, प्रसाद इत्यादि चेपना शुरू और यहीं से मेरे देवता बिगड़ने शुरू हो जाते हैं ! मन में यही विचार आता है कि जब धोखाधड़ी से, भगवान का डर दिखा कर पैसा ऐंठने वाले को ऊपर वाला कुछ नहीं कहता तो फिर............! और ऐसे में ना चाहते हुए भी झड़प हो ही जाती है ! यहां भी ऐसा ही हुआ जब अधिकार की भाषा में यह सुनने को मिला कि जूते यहीं उतार दीजिए, मंदिर में जगह नहीं है ! मंदिर में पानी नहीं है, यही हाथ-मुंह धोना पडेगा ! बेल्ट हमारे पास छोड़ दीजिए ! पर्स ले जा सकते हैं ! प्रसाद ले कर जाइए, खाली हाथ नहीं जाना है इत्यादी, इत्यादी !
गाड़ियां आ रहीं थीं ! लोग उतर रहे थे ! निर्देश माने जा रहे थे ! इधर अपने साथ के लोगों से कहा भी कि जूता मत उतारो, ऐसा कोई मंदिर नहीं होता जहां प्रवेश द्वार के पहले जूते रखने की जगह ना हो ! वहीं जा कर उतारना। पर एक तो धर्मस्थल दूसरे शनि देव का सबसे बड़ा स्थान ! मेरे अलावा सभी ने जूते पार्किंग में ही छोड़ दिए ! प्रसाद लिया गया, वह भी देने वाले की मर्जी मुताबिक ! अब विडंबना यह कि पार्किंग से मंदिर का फर्लांग भर का रास्ता पूरी तरह कच्चा, नुकीले पत्थरों के टुकड़ों, रेट-मिटटी तथा टूटी-फूटी वस्तुओं से अटा पड़ा था ! एक-एक कदम चलना भी दूभर हो रहा था लोगों के लिए ! पांच मिनट की दूरी को पार करने में बीस मिनट लग रहे थे। जब तक पछताते हुए बाकी लोग पहुंचते मैंने अंदर जा यथास्थान जूते रख हाथ-मुंह धो लिया था। 
वापस आने पर दूकान वाले की क्लास ली ! मेरे पूछने पर कि जूते यहीं क्यों उतरवाते हो जबकि मंदिर के पास स्टैंड है ? 
बोला, सब उतार कर जाते हैं ! 
मैंने कहा, तुम जोर डालते हो तभी लोग उतारते हैं ! अच्छा यह बताओ बेल्ट क्यों उतरवाते हो ?
चमड़ा है इसलिए, समझाने के अंदाज में बोला !
तो फिर चमड़े का पर्स या बैग क्यों नहीं रखवाते ? क्योंकि वहां चढ़ावा चढ़ाना होता है इसलिए ? फिर उससे पूछा कि जब अंदर पानी की व्यवस्था है तो जबरन यहीं हाथ-मुंह धोने को क्यों कहते हो ? और फिर खाली हाथ जाना है कि नहीं, यह भक्त और भगवान का मामला है तुम बीच में यह बता कर एक तरह से ब्लैकमेल करते हो भक्तों को ! ये बताओ कि जो लोग इधर ना आकर सीधे मंदिर चले जाते हैं वे क्या जूते नहीं उतारते या हाथ-मुंह नहीं धोते ? अब इन सब का उसके पास कोई जवाब नहीं था ! मेरे साथी भी नई जगह में होती बहस को ले कुछ परेशान हो रहे थे, सो........!

तो लब्बोलुआब यही रहा कि यात्रा-सफर इत्यादि में अपना विवेक बनाए रखें। ज्यादा भावनाओं में ना बहें। धार्मिक रहें पर अंधविश्वासी नहीं। आँख-कान खुले रखें। बाकी जो है वो तो हइये है ! 

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

शिर्डी, सुविधाएं अनेक पर व्यवस्था में कमी

संस्थान का सारा जोर बाहरी रख-रखाव, दिखावे और प्रचार पर केंद्रित है ! और शायद धनोपार्जन मुख्य उद्देश्य ! जिसकी एक छोटी सी झलक पिछले दिनों साईं के जन्म स्थल के खबरों में आने पर यहां के लोगों में फैली चिंता के रूप में सामने आई ! इसके अलावा एक बात जो बहुत खटकती है, वह है यहां के कुछेक कर्मचारियों को छोड़ अधिकतर का बेहद रूखा और धृष्ट व्यवहार ! जो ऐसा है जैसे वे आगंतुकों पर एहसान कर रहे हों ! यह बात स्वागत कक्ष, भोजन कक्ष, चाय-कॉफी वितरण केंद्र हर जगह परिलक्षित होती है ! शायद वे भूल गए हैं कि इन्हीं श्रद्धालुओं की बनिस्पत ही उनकी रोजी-रोटी चलती है...........!    

#हिन्दी_ब्लागिंग
शिर्डी, इस धर्मस्थल की अचानक फैली कीर्ति ने बहुतों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। जिसकी वजह से यहां लोगों का आवागमन बेतहाशा बढ़ गया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस संस्थान में बहुत सारी सुविधाएं पर्यटकों के लिए उपलब्ध हैं पर इसके साथ ही कुछ ऐसा भी है जिससे यह आभास होता है कि कहीं ना कहीं श्रद्धालु, भक्तजन और पर्यटक अवहेलित किए जा रहे हैं ! हालांकि भवन के बाहर का ''आउट लुक'' मनमोहक छवि लिए हुए है, परिसर बहुत साफ़-सुथरा व आकर्षक है ! पर लगता है कि संस्थान का सारा जोर बाहरी रख-रखाव, दिखावे और प्रचार पर केंद्रित है और शायद धनोपार्जन मुख्य उद्देश्य ! जिसकी एक छोटी सी झलक पिछले दिनों साईं के जन्म स्थल के खबरों में आने पर यहां के लोगों में फैली चिंता के रूप में सामने आई !

अभी पिछले दिनों यहां की यात्रा का अप्रत्याशित अवसर मिला ! यहां के प्रबंधन के सुनियोजित प्रचार और कुछ दर्शनसुख प्राप्त लोगों के विचारों के कारण मन में एक सोच या ख्याल था कि संस्थान के निवासों में दूसरे होटल वगैरह की तुलना में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध होंगी ! इसी कारण सबसे पहले ''साईं आश्रम'' के वृहदाकार परिसर में पहुंचे। पर स्वागत कक्ष तक पहुंचने के पहले ही गार्ड ने रूखे स्वर में जगह ना होने की बात बता निरुत्साहित कर दिया। पर बाहर से आई बहन को NRI को दी जाने वाली सुविधा की जानकारी थी, उसी के तहत हमें ''द्वारावती" जाने की सलाह दी गयी, यहां के कमरे हमें पसंद नहीं आएंगे, यह बता कर ! 
अब तक टैक्सी वाला यह बता कर कि मेरे दोस्त के होटल चलेंगे तो वेट करूंगा अन्यथा नहीं, कह कर जा चुका था ! दोबारा लद-फंद कर ऑटो को दुगने पैसे दे द्वारावती पहुंचने पर वहां की भव्य इमारत, साफ़-सुथरा परिवेश देख जहां एक ओर सुखद अनुभूति हुई वहीं मुख्य द्वार पर ही ''no room'' का मुंह चिढ़ाता बोर्ड देख मन फिर सशंकित हो गया ! पर पिछले निवास पर हुई बातचीत का हवाला देने पर जगह मिल गयी। बाद में घूम कर देखा तो सैकड़ों कमरों वाले इस भवन में बीसियों कक्ष खाली पड़े दिखे ! पता नहीं क्यों रात के नौ बजे ठंड के मौसम में सहारा तलाशते लोगों से रूखा व्यवहार कर उन्हें जगह देने से इंकार किया जा रहा था !
इसके अलावा एक बात जो बहुत खटकती है, वह है यहां के कुछेक कर्मचारियों को छोड़ अधिकतर का बेहद रूखा और धृष्ट व्यवहार ! जो ऐसा है जैसे वे आगंतुकों पर एहसान कर रहे हों ! यह बात स्वागत कक्ष, भोजन कक्ष, चाय-कॉफी वितरण केंद्र हर जगह परिलक्षित होती है ! शायद वे भूल गए हैं कि इन्हीं श्रद्धालुओं की बनिस्पत ही उनकी रोजी-रोटी चलती है।
बढ़ती ठंड और घिरती रात में रहने की समस्या का हल मिल जाने पर तनाव तो कुछ कम हो गया पर दूसरे तल पर आवंटित कमरे का हाल देख मन में कई सवाल उठ खड़े हुए ! कमरा किसी भी तीसरे दर्जे की धर्मशाला का आभास दे रहा था ! चुंचुआते लोहे के फ्रेम के पर्यक पर मैले बिस्तरपोश तथा तकिए के खोल, ओढ़ने वाली चादरें और भी दुर्दशाग्रस्त ! ढीले बिजली के स्विच ! स्नानागृह तथा टॉयलेट के जर्जर दरवाजे, वह भी प्लास्टिक के ! उधर बड़ी सी कांच की खिड़की पर पड़ी धूल की परत अपनी कहानी खुद कह रही थी। ठंड से बचने का पर्याप्त इंतजाम ना होने के कारण फ्लोर निरीक्षक से अनुरोध पर जो कंबल मिले, वो रेलगाड़ियों में मिलने वाले कंबलनुमा मोटी चादरों जैसे ही थे ! पर हालत ऐसी जैसे वर्षों से काम में लाई जा रही हों ! रेशे उधड़े हुए, लाइनिंग फटी हुई। उस पर उन दाता महाशय का चाय वगैरह के लिए कुछ पा जाने की आकांक्षा !
यदि कोई एकाधिक बार यहां हो आया है तब तो ठीक है, पर पहली बार मंदिर के अंदर पहुंचे दर्शनाभिलाषी को जरा-जरा सी जानकारी के लिए भीड़ के धक्के खाने पड जाते हैं। जैसे वरिष्ठ नागरिकों के लिए द्वार न. तीन से जाने की सुविधा दी गयी है पर यह कोई नहीं बताता कि उसके लिए अनुमति पत्र दो न. के द्वार पर बनेगा ! यह भी वहीं जा कर पता चलता है कि उसके लिए कुछ कागजात भी जरुरी हैं या सत्तर के ऊपर की आयु वाले लोग अपने साथ एक सहायक ले जा सकते हैं ! कहीं और नहीं तो यह अनुमति पत्र संस्थान अपने तीनों भक्त-निवासों पर तो उपलब्ध करवा ही सकता है। यदि यह भी उन्हें भारी और नागवार लगता है तो कम से कम पूरी जानकारी तो उपलब्ध की ही जा सकती है।
यह सही है कि आम होटलों की बनिस्पत यहां कमरे का चार्ज कम है पर है तो सही ! फिर क्यों नहीं सफाई वगैरह के स्तर पर ध्यान दिया जाता ! यदि भोजन कक्ष में ''प्रसाद'' ग्रहण करने के पश्चात थाली को धुलते देख लें तो मन वितृष्णा से भर जाता है। गंदगी भरी जगह में एक बार इकट्ठी की गयी थालियों को पटक, तेज धार हॉज पाइप की धार मार एक टब के पानी से निकाल फिर प्रयुक्त कर दिया जाता है। क्यों नहीं धन की अनवरत वर्षा की कुछ बूंदों से कुछ स्वचालित मशीने लगा दर्शनार्थियों के स्वास्थ्य को भी सुरक्षित करने के बारे में सोचा जाता ! इसके अलावा एक बात जो बहुत खटकती है, वह है यहां के कुछेक कर्मचारियों को छोड़ अधिकतर का बेहद रूखा और धृष्ट व्यवहार ! जो ऐसा है जैसे वे आगंतुकों पर एहसान कर रहे हों ! यह बात स्वागत कक्ष, भोजन कक्ष, चाय-कॉफी वितरण केंद्र हर जगह परिलक्षित होती है ! शायद वे भूल गए हैं कि इन्हीं श्रद्धालुओं की बनिस्पत ही उनकी रोजी-रोटी चलती है।    

शनिवार, 11 जनवरी 2020

देश-समाज में अशांति फैलाती, फिल्म वालों की डर्टी ट्रिक्स

फिल्म निर्माण के दौरान ही बनाने वालों को उसकी कमियों का आभास हो जाता है। पर तब तक फिल्म इतना पैसा खा चुकी होती है कि उसको संभालने के लिए कुछ भी करना असंभव हो जाता है ! तब वही ''डर्टी ट्रिक'' अपनाई जाती है। अभी ऐसा ही एक सोचा-समझा षड्यंत्र रचा गया, जब छपास की नायिका दीपिका को एक विवादित यूनिवर्सिटी में ले जा खड़ा कर दिया गया ! बवाल मचना ही था; सो मचा ! दसियों लाख लोग ट्विटर युद्ध में शमिल हो गए ! हर जुबां पर फिल्म का नाम आ गया ! इधर आग लगा, शातिर लोग अपनी सफलता पर मुस्कुराते हुए अपने दड़बों में जा दुबके, देश-समाज का नुक्सान हुआ, उनकी बाला से ............!!

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हमारे देश में आज फिल्मों से जुड़े लोगों की एक नई जमात पैदा हो चुकी है। जो बाकी देशवासियों से बिल्कुल जुदा है। अवाम से अपने को इतर समझ इन लोगों ने अपने चारों ओर एक ऐसा आभामंडल रच डाला है, जिसकी चकाचौंध में चुंधियाई हुई वर्तमान पीढ़ी दिग्भर्मित हो उन्हें खुदा समझ बैठी है ! फ़िल्मी नायक-नायिकाओं की चाल-ढाल, हाव-भाव की नक़ल पहले भी होती थी पर अब तो जैसे अति ही हो चुकी है ! कुछ मतिहीनों ने उन्हें भगवान का दर्जा तथा उनके वचनों को पत्थर की लकीर बना डाला है। सौ साल से ऊपर की इस फ़िल्मी माया नगरी में कुछेक समर्पित लोगों को छोड़, तक़रीबन सभी का धर्म, ईमान, इंसानियत, रिश्ते-नाते, व्यवहार सभी कुछ सिर्फ पैसे से नियंत्रित होता है। इन सभी का भगवान पैसा ही है। उसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं ! कुछ भी !!

आज फिल्म बनाने का धंधा इतना मंहगा हो चुका है कि अपनी फिल्म की लागत वापस लाने के लिए निर्माता किसी भी हद तक जा सकता है। जान-बूझ कर लोगों की भावनाओं को भड़का कर देश-समाज में अशांति फ़ैलाने से भी ये बाज नहीं आते। इसके उदाहरण कुछेक अंतराल के बाद सामने आते ही रहते हैं। फिल्म के निर्माण के दौरान निर्देशक की नजर से सेट पर एक मक्खी तक नहीं बच सकती, तो यह कैसे संभव है कि उनकी मर्जी के बगैर विवादित संवाद या दृश्य फिल्मांकित हो जाएं। जान-बूझ कर ऐसी हरकतों को अंजाम दिया जाता है जिससे फिल्म को मुफ्त में प्रचार मिले ! जिस तरह किसी बावर्ची को खाना बनाते समय ही अपने द्वारा बनाए जा रहे खाद्य पदार्थ की गुणवत्ता या उसकी कमी का अंदाजा हो जाता है ठीक उसी प्रकार फिल्म निर्माण के दौरान ही बनाने वालों को उसकी कमियोंऔर गुणवत्ता का आभास हो जाता है। पर तब तक फिल्म इतना पैसा खा चुकी होती है कि उसको संभालने के लिए कुछ भी करना असंभव हो जाता है ! तब वही ''डर्टी ट्रिक'' अपनाई जाती है।

इधर कुछ समय से फिल्मों के प्रचार के लिए एक नया तरीका चलन में है जिसके तहत फिल्म के कलाकार टी.वी. पर या विभिन्न जगहों पर जा अपनी आने वाली फिल्म का प्रचार करते हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि जहां वे जा रहे हैं वह जगह ख्यात है या कुख्यात ! उनके लिए वह जगह सिर्फ चर्चित, ख़बरों में या लोकप्रिय होनी चाहिए, बस !

अभी ऐसा ही एक सोचा-समझा षड्यंत्र रचा गया, जब फिल्म छपाक की नायिका दीपिका को एक विवादित यूनिवर्सिटी में ले जा खड़ा कर दिया गया ! बवाल मचना ही था; सो मचा ! लाखों लोग ट्विटर युद्ध में शामिल हो गए, समाज दो फाड़ हो गया, देश-समाज का नुक्सान हुआ उनकी बला से ! उनका तो मनोरथ पूरा हो चुका था ! हर जुबां पर फिल्म का नाम आ चुका था ! फिल्म बनाने वाले और उनके सलाहकारों को शायद आभास हो गया था कि इस समय दो भारी-भरकम फिल्मों के साथ प्रदर्शित होने पर उनकी कृति हादसा सिद्ध होगी ! वैसे भी यदि दीपिका फिल्म से जुडी ना होती तो शायद इस फिल्म को स्क्रीन मिलने ही मुश्किल हो जाते, भले ही वह कितनी भी वास्तविकता के नजदीक हो, सच्चाई दर्शा रही हो। खबर तो यह भी थी कि पहले फिल्म यूनिट वालों की निर्भया के परिवार वालों से मिलने की बात थी पर फिर उन्हें ऐसा लगा कि वहां के ठंढाते माहौल में जाने से उतना प्रचार या ख्याति नहीं मिल पाएगी जितना कि जेएनयू जाने से ! वही हुआ ! इधर आग लगा, शातिर लोग अपनी सफलता पर मुस्कुराते हुए अपने दड़बों में जा दुबके !

अब यह तो हमें ही देखना और सोचना है कि हम चंट लोगों के हाथ की कठपुतली ना बन जाएं ! कोई अपने उद्देश्य की पूर्ती के लिए हमें औजार ना बना ले ! अपनी हित सिद्धि के लिए हमारी आहुति ही ना दे दे। क्योंकि ऐसे लोगों के लिए देश, समाज या अवाम कोई अर्थ नहीं रखता ! इनका एक और एकमात्र उद्देश्य सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है।  

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

पंजाब के नीम-पंडत

इन सब आयोजनों में जैसे खाना-पीना और चाय वगैरह होता है, वैसे ही घंटे भर के लिए ''पंडत जी'' का प्रवचन ! पंजाब भी विदेश बन गया है ! जैसे विदेशों में बसे प्रवासियों को अपने धार्मिक कार्यों के लिए एक अदद संस्कृत उवाचने वाले की जरुरत पड़ती है और उसके लिए कई ''रसूख'' वाले यहां से निर्यात हो चुके हैं, वैसे ही पंजाब के भीतरी हिस्सों में बसे इलाकों में तथाकथित पंडित आयात हो चुके हैं। जो अपनी वाक्पटुता से वहां के लोगों को प्रभावित कर लेते हैं .................! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
हिंदू धर्म में किसी की मृत्युपरांत भी बहुत से कर्मकांडों का निर्वाह किया जाता है। जैसे चौथा, पगड़ी, सोलहवां इत्यादि। इन सब का अपना-अपना महत्व तो है ही पर जहां अन्य रस्मों पर सिर्फ परिवार के सदस्यों के होने से ही काम हो जाता है। वहीं पगड़ी रस्म, जो मृत्यु के दसवें दिन निभाई जाती है, पर नाते-रिश्तेदारों, कुटुम्बियों और मित्रजनों की उपस्थिति आवश्यक होती है। यदि दिवंगत घर का मुखिया रहा हो तो उन्हीं की उपस्थिति और साक्षी में मृतक के पश्चात घर के बड़े सदस्य को पगड़ी बांध कर परिवार का मुखिया घोषित किया जाता है। सारी कार्यवाई किसी पंडित जी के मार्गदर्शन में ही की जाती है, जिसके लिए करीब एक घंटे का समय तय रहता है।   

इसी तरह की एक पगड़ी रस्म पर पंजाब के एक शहर बनते गांव में जाना हुआ। अब जैसा की चलन है, पगड़ी बांधने से पहले पंडित जी द्वारा कुछ प्रवचन, उपदेश तथा दिवंगत के बारे में जानकारी और श्रद्धांजलि दी जाती है। तयशुदा समय में पंडित जी नेअपना रटा-रटाया प्रवचन सुनाना शुरू कर दिया। उनके दो-चार वाक्यों के बाद ही अंदाज हो गया कि ये जनाब पंजाब के नहीं हैं। उनके उच्चारण किसी पहाड़ी या बंगाली से मिलते-जुलते थे। फिर उसमें व्याकरण और शाब्दिक अशुद्धियां भी महसूस हो रही थीं। हालांकि बीच-बीच में वे पंजाबी का भी भरपूर उपयोग कर रहे थे। मैं भी कोई संस्कृत का विद्वान नहीं हूँ, नाहीं इसका पूरा ज्ञान है, फिर भी गायत्री मंत्र, गणेश स्तुति या त्वमेव माता च पिता त्वमेव जैसे बेहद सरल, आम व बहु प्रचलित श्लोक में भी कुछ खटक सा गया ! वहां उपस्थित अढ़ाई-तीन सौ लोगों को इन सबसे कोई मतलब नहीं था। पूर्णतया पंजाबी भाषी इलाके में जहां हिंदी पर ही ध्यान नहीं दिया जाता वहां ऐसी बातों पर कौन ध्यान देता ! खैर, कार्यक्रम की समाप्ति पर मैं पंडित जी से मुखातिब हुआ और बिना लाग-लपेट के पूछ लिया कि आप कहां से हो ? 
उन्होंने कहा, यहीं से !
मैंने कहा, लगता तो नहीं !
उन्होंने गौर से एक बार मुझे देखा और कहा, मैं नेपाल से हूँ। 
ना चाहते हुए भी मैंने कह ही दिया कि भाषा पर और ध्यान देने की जरुरत है !
तब तक कुछ लोग उत्सुकता पूर्वक इकट्ठा हो गए थे, इसलिए वार्तालाप को वहीं ख़त्म कर पंडित जी को राहत की सांस लेने का मौका दे दिया। 

सारे वाकये का लब्बो-लुआब यह है कि इस तरह के धार्मिक कार्यक्रमों का संचालन किसी योग्य, ज्ञानी और जानकार इंसान के द्वारा होना चाहिए। इस तरह के नीम पंडित अपने अधूरे ज्ञान, अधूरी जानकारी और बिना भाषा पर नियंत्रण के, लोगों की निरपेक्षता, धर्मभीरुता और कुछ-कुछ अज्ञानता का लाभ उठाते हुए अपना काम बदस्तूर चलाए जा रहे हैं। अब कहां नेपाल और कहां पंजाब का एक सुदूर गांव ! गांव के लोग, जिनके लिए विदेश में बसे आपनजन की खबर और अपना जीविकोपार्जन ही सबसे बड़ा लक्ष्य हो उनके लिए यह सब बातें कोई मायने नहीं रखतीं ! चूँकि यह कर्मकांड करने जरुरी माने जाते हैं, इसी धारणा के तहत इन्हें निपटा दिया जाता है ! उनके लिए इन सब आयोजनों में जैसे खाना-पीना और चाय वगैरह होता है, वैसे ही घंटे भर के लिए ''पंडत जी'' का प्रवचन ! अब कैसे-कब-किस तरह ये पंडित जी यहां आए, कैसे लोगों को प्रभावित किया, कैसे स्थापित हो गए, वह एक अलग विषय है। यह कहानी पंजाब के अधिकांश ग्रामों की है, जहां ऐसे पंडत अपना अड्डा बना चुके हैं। पंजाब भी विदेश बन गया है ! जैसे विदेशों में बसे प्रवासियों को अपने धार्मिक कार्यों के लिए एक अदद संस्कृत उवाचने वाले की जरुरत पड़ती है और उसके लिए कई ''रसूख'' वाले यहां से निर्यात हो चुके हैं, वैसे ही पंजाब के भीतरी हिस्सों में बसे इलाकों में तथाकथित पंडित आयात हो चुके हैं। उनका भी शायद यही लक्ष्य है कि यहां लोगों के सामने प्रैक्टिस कर उनके प्रभाव से किसी तरह विदेश गमन हो सके !  

शनिवार, 4 जनवरी 2020

एक नजर ताल कटोरा पर

उस प्राकृतिक कटोरेनुमा ताल के बगल में दीवारों से घिरे एक बागीचे का निर्माण मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह (1719-1748) के शासन काल में करवाया गया था। आज इसकी ज्यादातर चारदीवारी गिर चुकी है। इसके अलावा इसकी पहचान उस जगह के रूप में भी की जाती है जब 1735 में यहां मराठों की सैनिक छावनी हुआ करती थी और इसी जगह 1738 में उन्होंने मुगल सेनाओं का सामना कर उनको शिकस्त दी थी। एक और पहचान भी है पर उसे ना जानना ही बेहतर है............!  

#हिन्दी_ब्लागिंग 
हर शहर में कुछ जगहें अपनी खासियत को लेकर प्रसिद्ध होती हैं। पर अधिकांश, स्थानीय लोगों की, नजदीक ही है, कभी भी देख लेंगे, सोच के तहत अनदेखी ही रह जाती हैं। फिर दिल्ली तो प्राचीन शहर है ! इसके तो गली-गली, कूचे-कूचे में ऐसी विरासतें भरी पडी हैं, जो आज अपनी प्राकृतिक सुंदरता से लोगों का मन तो मोह ही रही हैं, साथ ही उनकी डोर कहीं दूर इतिहास से भी जुडी हुई है। ऐसी ही एक जगह है ताल कटोरा उद्यान। आज जिसकी ख्याति यहां के आधुनिक इंडोर स्टेडियम की वजह से है। जहां कई तरह के खेलों, जैसे बैडमिंटन, तैराकी, टेबल टेनिस, कबड्डी इत्यादि की प्रतिस्पर्द्धाएं आयोजित की जाती हैं। इसके अलावा इसके परिसर में कई तरह के बागवानी से संबंधित और कल्चरल प्रोग्राम भी आयोजित होते रहते हैं। बच्चों को क्रिकेट के गुर सिखाने का भी इंतजाम है। आम पब्लिक के लिए यहां के शांत वातावरण में पिकनिक की भी सुविधा उपलब्ध है।







जैसा की इसके शिला लेख में उल्लेखित है, ऐसा माना जाता है कि उस प्राकृतिक ताल के बगल में दीवारों से घिरे एक बागीचे का निर्माण मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह (1719-1748) के शासन काल में करवाया गया था। आज इसकी ज्यादातर चारदीवारी गिर चुकी है। सिर्फ ऊँचे तल वाले हिस्से में ही कुछ अवशेष बचे हैं। जिसके कोनों में दो छतरीनुमा मंडप तथा एक-एक मेहराबदार द्वार बचा हुआ है। 




इसके अलावा इसकी पहचान उस जगह के रूप में भी की जाती है जब 1735 में यहां मराठों की सैनिक छावनी हुआ करती थी और इसी जगह 1738 में उन्होंने मुगल सेनाओं का सामना कर उनको शिकस्त दी थी।   


दिल्ली के बेहतरीन और खूबसूरत बगीचों में से एक, यह ऐतिहासिक मुग़ल कालीन उद्यान दिल्ली के विलिंग्डन क्रेसेंट, जिसे अब मदर टेरेसा मार्ग के नाम से जाना जाता है, पर स्थित है। इसका नामकरण पहले यहां स्थित कटोरे के प्राकृतिक आकार के सरोवर के कारण पड़ा था। सरोवर तो रहा नहीं पर नाम वैसे का वैसा ही चला आ रहा है। उस जगह अब एक आधुनिक तरण-ताल बना दिया गया है। दिल्ली रिज से जुड़े इस इलाके की देख-रेख का जिम्मा NDMC के पास है जो बखूबी अपने दायित्व को निभा रही है। इसका अंदाज उद्यान में प्रवेश करते ही मिल जाता है। इसके साफ़-सुथरे पथ, तरह-तरह के फूल-पौधे, रंग -बिरंगी लाइटों से सजे अनवरत पानी उछालते फव्वारे सहसा मन मोह लेते हैं। वसंत ऋतु में तो इसकी छटा ही निराली होती है। 



इतना सब होने के बावजूद कुछ ऐसा भी है जो इस जगह से जुडी हुई भयंकर, खतरनाक, अमानवीय यादों को जेहन में ला देता है। इसका पश्चिमी गुबंद सदा अपने को दोषी मान कर पछताता होगा, जब उसने कुख्यात अपराधियों रंगा और बिल्ला को अपने यहां शरण दी होगी। रिज का यह सुनसान इलाका और यहां के खंडहर ही उन कुकर्मी, वहशियों की शरणस्थली थे।   

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