पहली बार जब कोई युवती माँ बनती है तो वह शिशु में अपनी छाया ही देखती है। उसको अगाध ख़ुशी महसूस होती है जब कोई बच्चे की शक्ल को उस जैसा बताता है ! सौभाग्य से यदि नवजात पुत्री हो तब तो वह अपने आप को उसमें देखने लगती है ! वापस अपने बचपन में पहुंच जाती है ! इसके साथ ही उसी क्षण से उसके भविष्य के सपनों का ताना-बाना भी बुनने लगती है। यह तो प्रकृति की खूबी ही है कि कल तक जो खुद एक बेटी थी वह कैसे एक जिम्मेदार माँ का रूप धारण कर लेती है.................
#हिन्दी_ब्लागिंग
मेरी यह धारणा है कि हर भावी जननी की अपनी प्रथम उपलब्धि की अभिलाषा कन्या ही होती है, हो सकता है मैं गलत होऊं पर मुझे यही लगता है। भले ही रूढ़िवादी सोच, समाज के पितृतात्मक विचार या परिवार की वंश-वृद्धि की आधारहीन लालसा के सम्मुख वह अपनी कामनाओं का गला घोट, खुद की इच्छा सार्वजनिक रूप से भले ही स्वीकार ना कर पाती हो पर प्रकृति ने जगत की संवर्धना, बढ़ोत्तरी, विकास की जो अहम जिम्मेवारी अपनी इस सर्वोत्तम कृति को सौंपी है, तो उसके विचार, उसकी मनोवृति उसकी प्राकृत सोच भी निश्चित रूप से उसी के अनुरूप ही होती होगी।
पहली बार जब कोई युवती माँ बनती है तो वह शिशु में अपनी छाया ही देखती है। उसको अगाध ख़ुशी महसूस होती है जब कोई बच्चे की शक्ल को उस जैसा बताता है ! सौभाग्य से यदि नवजात पुत्री हो तब तो वह अपने आप को उसमें देखने लगती है ! वापस अपने बचपन में पहुंच जाती है ! इसके साथ ही उसी क्षण से उसके भविष्य के सपनों का ताना-बाना भी बुनने लगती है। यह तो प्रकृति की खूबी ही है कि कल तक जो खुद एक बेटी थी वह कैसे एक जिम्मेवार माँ का रूप धारण कर लेती है ! पर इसके साथ ही समाज की भयावह बुराईयां भी उसे डराने लगती हैं ! चिंताग्रस्त हो जाती है वह अपनी बच्ची की सुरक्षा, उसकी परवरिश, उसके भविष्य को लेकर ! इसीलिए जैसे-जैसे बच्ची बड़ी होती है, बालिका से युवती का रूप अख्तियार करती है वैसे-वैसे माँ की चिंताएं भी विशाल दरख़्त जैसा रूप ले लेती हैं ! भूल जाती है वह अपने आप को, अपनी जरूरतों को ! दफ़न कर देती है वह अपनी इच्छाओं को अपनी कामनाओं को अपनी परी की बेहतरी के लिए ! उसके आँख-कान-मन जैसे सिर्फ अपनी बच्ची की सुरक्षा में तैनात हो जाते हैं। डरी-शंकित-भयभीत माँ हर क्षण उस पर नजर रखने लगती है ! उसके उठने-बैठने-चलने-बोलने, हर गतिविधि पर उसे समझाने, टोकने, डांटने लगती है ! उसके लिए उसकी पारी सदा छौना ही रहती है ! वह स्वीकार ही नहीं कर पाती कि उसकी बिटिया भी बड़ी हो चुकी है ! और यहीं कहीं शायद अति हो जाती है, गलती हो जाती है ! बिटिया को बार-बार की टोकाटाकी नागवार गुजरने लगती है और एक दिन वह पलट कर जवाब दे देती है ! माँ स्तंभित रह जाती है ! उसे समझ नहीं आता कि उसकी भूल क्या है ! जिसके भले के लिए उसने अपना सुख-चैन सब कुछ त्याग दिया, वही बेटी आज इतनी बड़ी हो गयी ! दिल धक्क से रह जाता है और आँखें पनीली हो जाती हैं ! पर मानवीय रिश्तों में माँ-बेटी का रिश्ता शायद सबसे अनूठा और अहम् होता है। ना माँ को बेटी के बिना चैन पड़ता है ना हीं बेटी को माँ के बिना करार आता है। कुछ ही देर में दोनों फिर गले लग जाती हैं।
पर माँ की चिंताएं कहां खत्म होती हैं कभी ! वह जानती है कि उसकी सोनचिरैया को एक नया घर बसाना है, नए परिवेश में जाना है, नए लोगों के बीच ढलना है अपनी पहचान बनानी है, इसीलिए वह उसे समझाती-सिखाती-संवारती रहती है। वह उसे बताती है कि उस नए घर परिवार में भी एक माँ है जिसके अपने विचार, अपनी मान्यताएं, अपने तरीके होंगे घर चलाने-संभालने के ! उन्हें समझना है। मेरे द्वारा सिखाए-बताए तौर-तरीकों का उनसे ठीक उसी तरह सांमजस्य बैठाना है जैसे दूध और चीनी का बनता है। तुम्हारी पहली प्राथमिकताएं उनके लिए होंगी। समय के साथ वही घर तुम्हारा कहलाएगा।
आज विदेशों की देखा-देखी अपने देश में भी सामाजिक विघटन के दौर ने पैर पसार लिए हैं ! फिर भी ऐसे में माँ की नसीहतें, समझाइशें, सीखें ही हैं जो उस विघटन रूपी दानव के सामने दृढ़ता से खड़ी हो देश-समाज-परिवार की रक्षा हेतु कटिबद्ध हैं।
10 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-01-2020) को "तान वीणा की माता सुना दीजिए" (चर्चा अंक - 3595) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी
हार्दिक आभार, स्नेह बना रहे
बहुत ही भावपूर्ण रचना एक मां अपनी सोनचिरिया को बचपन से ही संभाल कर सिखाती है जीवन के हर पथ में किस तरीके से उसे आगे बढ़ना है हर राह को बताती है... स्त्री के संपूर्ण जीवन यात्रा को अपने बेहद खूबसूरती के साथ अपनी कलम के जरिए लिख डाला बहुत-बहुत धन्यवाद इतनी अच्छी रचना के लिए
Anita ji
आपका "कुछ अलग सा" पर सदा स्वागत है
बहुत ही शिक्षाप्रद लेख ,इस विषय से सम्बंधित मैं मैंने भी एक लेख लिखा हैं ,कभी फुर्सत हो तो एक नजर जरूर डालियेगा ,सादर नमस्कार
https://dristikoneknazriya.blogspot.com/2019/03/maa-beti-kal-aaj-aur-kal.html
कामिनी जी
जरूर¡इसमें फुर्सत की क्या बात है
Nice Info.. i like it
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शर्मा जी नमस्कार, आपने हमारे दिल की बात कैसे जानी कि पहली संतान बेटी होने की इच्छा होती है। बहुत खूब लिखा आपने
अलकनंदा जी
बहुत दिनों से कुछ ऐसा लग रहा था ! यह भी आभास हो रहा था कि चली आ रही पुरानी सामाजिक धारणाओं, मान्यताओं, विचारों, कुछ कमतरी इत्यादि के दवाब में मन की बात साझा करने, बोलने से हिचकती रहती हैं !
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