कांवड़ सांसारिक उत्तरदायित्व का प्रतीक है। शिव जी ने हलाहल पान कर सृष्टि की रक्षा की थी और भगवान कार्तिकेय ने देवताओं के सेनापति के रूप में संसार विरोधी ताकतों का शमन कर जगत को भय मुक्त किया था ! शिव और मुरुगन यानी पिता-पुत्र की उपासना से संबंधित ये दोनों यात्राऐं जहां देश की एकजुटता को तो दर्शाती ही हैं, साथ ही साथ सनातन की विशालता और व्यापकता का भी एहसास दिला जाती हैं.........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
सावन के पवित्र महीने में उत्तर भारत में हर साल शिव भक्त पदयात्रा कर, सुदूर स्थानों से नदियों का जल ला कर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं ! इस पारंपरिक यात्रा को कांवड़ यात्रा कहा जाता है। बांस की बनी जिस बंहगी के दोनों सिरों पर जलपात्र लटका कर लाया जाता है उसे कांवड़ कहते हैं !
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कावड़ी यात्रा |
उधर उत्तर भारत से बहुत दूर तमिलनाडु में भी इसी से मिलती-जुलती एक यात्रा निकलती है ! इसमें भगवान शिव और माता पार्वती के बड़े पुत्र कार्तिकेय, जिन्हें वहां मुरुगन और अयप्पा भी कहा जाता है, उनसे जुड़े त्योहार थाईपुसम में इनके भक्त कांवड़ समान कावडी, जिसे छत्रिस भी कहते हैं, अपने कंधों पर उठाकर चलते हैं। कावडी मोर पंखों, फूलों तथा अन्य चीजों से सुसज्जित होती है, पर कांवड़ की तरह इसमें पानी के मटके नहीं टंगे होते। .jpeg)
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दक्षिण के कावड़िए |
कार्तिकेय जी की पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिलनाडु में की जाती है इसके अतिरिक्त विश्व में जहाँ कहीं भी तमिल प्रवासी रहते हैं, वहां भी इनकी बहुत मान्यता है ! तमिल भाषा में इन्हें तमिल कडवुल यानि कि तमिलों के देवता कह कर संबोधित किया जाता है। तमिलनाडु में पलानी शहर में शिवगिरी पर्वत नामक दो पहाड़ियों की ऊंची चोटी पर मौजूद भगवान मुरुगन का प्रमुख मंदिर है, जिसे पंचामृत का पर्याय माना जाता है, ऐसी मान्यता है कि मूल मूर्ति बोग सिद्धर द्वारा जहरीली जड़ी-बूटियों का उपयोग करके बनाई गई है।
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पलानी में थाईपुसम उत्सव |
हर साल हजारों भक्त पवित्र थाईपुसम उत्सव के दौरान विशेष रूप से छत्रिस उठा कर, नाचते-गाते, 'वेल वेल शक्ति वेल' का जाप करते पलानी मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं। कुछ भक्त कावंड़ के रूप में दूध का एक बर्तन लेकर भी चलते हैं।
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श्रद्धा व विश्वास |
थाईपुसम त्योहार भगवान मुरुगन के प्रति समर्पण का उत्सव है ! इस त्योहार में सबसे कठिन तपस्या वाल कांवड़ है। वाल कांवड़ लगभग दो मीटर लंबा और मोर पंखों से सजा हुआ होता है। इसे भक्त अपनी शरीर से जोड़ लेते हैं। ये भक्त भगवान की भक्ति में इतने लीन रहते हैं कि इन्हें किसी भी तरह की दर्द, तकलीफ का अहसास तक नहीं होता। वहीं इस क्रिया में ना हीं खून निकलता है और ना हीं बाद में शरीर पर कोई निशान बचा रहता है !
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आस्था व समर्पण |
कांवड़ सांसारिक उत्तरदायित्व का प्रतीक है। शिव जी ने हलाहल पी कर सृष्टि की रक्षा की थी और भगवान कार्तिकेय ने देवताओं के सेनापति के रूप में संसार विरोधी ताकतों का शमन कर जगत को भय मुक्त किया था ! शिव और मुरुगन यानी पिता-पुत्र की उपासना से संबंधित ये दोनों यात्राऐं जहां देश की एकजुटता को तो दर्शाती ही हैं, साथ ही साथ सनातन की विशालता और व्यापकता का भी एहसास दिला जाती हैं !
@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से
4 टिप्पणियां:
व्वाहहहह
पहली बार पढ़ा , देखा और सुना भी
साधुवाद
जय हो मुरुगन स्वामी की
वंदन
सुन्दर
दिग्विजय जी
सदा स्वागत है आपका, स्नेह बना रहे 🙏
सुशील जी
अनेकानेक धन्यवाद 🙏
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