शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

सैनिकों का मजाक उडाता एक विज्ञापन

पूरा विज्ञापन सैनिकों के जज्बे का मजाक उडाता प्रतीत होता है। युद्ध के समय तो सैनिक को किसी और चीज का होश ही नहीं रहता और यही बात उसे ‘सिविलियन’ से अलग करती है।

कुछ दिनों से एक विज्ञापन टी वी पर आ रहा है, जिसमे एक सैनिक को सीमा पर हो रही भीषण गोलाबारी के बीच भी बेहद तन्मयता से एक पैकेट से कुछ खाते हुए दिखाया गया है। इतना ही नहीं जब उसके साथी का हाथ गोली खा कर मरते हुए उसके पैकेट पर आ जाता है तो वह निरपेक्ष भाव से उसका हाथ परे कर फिर खाने मे तल्लीन हो जाता है। पर उसी समय जब एक गोली आ उसके पैकेट के चिथड़े उडा देती है तो वह गुस्से से पागल हो चिल्लाते हुए गोलीबारी के बीच खडा हो जाता है और अपनी जान गवां पैकेट के पीछे-पीछे “दफा” हो जाता है।

देख कर ही लगता है कि यह विज्ञापन एक निहायत गैर जिम्मेदाराना, अपरिपक्व, अधकचरे दिमाग की उपज है। जिसे यह नहीं मालुम कि सैनिक, चाहे वह किसी भी देश का हो उसमे यह भावना कूट-कूट कर भरी होती है कि उसके लिए सबसे अहम देश होता है और खास कर देश पर विपत्ति के समय तो उसे अपने वतन की रक्षा के सिवाय और कुछ नहीं सूझता। उसका प्रथम कर्तव्य सिर्फ देश के लिए मर-मिटना होता है।

देश में अपने विचारों को, अपनी सोच को, अपने मनोभावों को उजागर करने की आजादी है। इस पर बहुत बार चिल्लपौं भी मचती रही है। पर इस तरह की संवेदनहीन, दिमागी दिवालिएपन, स्वाभाविकता और असलियत से कोसों दूर ऐसी सोच का क्या, जिसे सिर्फ कमाई और पैसे से मतलब हो?

पूरा विज्ञापन सैनिकों के जज्बे का मजाक उडाता प्रतीत होता है। युद्ध के समय तो सैनिक को किसी और चीज का होश ही नहीं रहता और यही बात उसे ‘सिविलियन’ से अलग करती है।

इस को देख लगता है कि यह किसी ऐसे दिमाग का फितूर है जिसे देश, समाज या नैतिक मुल्यों से कोई मतलब नहीं है। उसका उद्देश्य है घटिया और फूहड़ तरीके से ध्यान आकर्षित कर कमाई करना।

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

अधजल गगरियों को छलकने से रोकने की आवश्यकता है.

हद तो तब हो जाती है जब इस आदत के चलते कोई भी कहीं भी जा कर रौब दिखाते हुए अपने भाई, दोस्त या किसी रिश्तेदार का सम्बंध किसी रसूखदार जगह या उसके नुमांयदों से होना बता, रियायत पाना चाहता है। उसे इस बात की जरा भी चिंता नहीं होती कि उसकी इस हरकत से उस संस्था या उससे जुडे लोगों की बदनामी हो रही होती है।

हर क्षेत्र, संस्था या कार्य स्थल की एक मर्यादा होती है। पर कुछ लोग अपने अहम की तुष्टि के लिए या फिर अपने को आम से कुछ खास दिखाने के लिए या फिर यार-दोस्तों पर रौब डालने के लिए अक्सर इस हद को पार करते रहते हैं। वैसे तो ऐसे लोग हर जगह मिल जाते हैं पर मीडिया, पुलिस या राजनीतिज्ञों से जरा सा भी जुडे लोगों में यह प्रवृति कुछ ज्यादा ही दिखाई दे जाती है। बहुतेरी बार ऐसे लोगों से आम इंसान या संस्था को दो-चार होना पड ही जाता है। इनकी खासियत होती है कि कहीं भी अपना काम निकलवाने के लिए पहुंचते समय इनके तेवर कुछ ऐसे होते हैं जैसे किसी बहुत बडे षडयंत्र का भंडाभोड करने आए हों। जबकि इनका उद्देश्य अपना या अपने किसी निहायत गैरजिम्मेदराना साथी का गलत तरीके से कोई काम निकलवाने का होता है। बिना किसी तरह की रोक-टोक की परवाह किए सीधे सम्बंधित अधिकारी के पास जा, अपना नहीं अपने कार्यस्थल का परिचय दे, रौब गालिब कर अपना काम करवाने की मांग रखते हैं। ज्यादातर संस्थाएं, बला टालने या किसी बखेडे मे पडने की बजाए वह छोटा-मोटा काम करने से गुरेज नहीं करतीं और इतने से ही उनके साथी पर उनके रुतबे का रौब पड जाता है।
बात यहीं से बिगडती है। वह साथ आया गैरजिम्मेदराना इंसान हर बार नियमानुसार काम ना कर किसी के सहारे इसी तरह अपना काम इसी तरीके से करवाने का आदी हो जाता है। फिर चाहे समय निकल जाने के बावजूद अपना काम निकलवाने की जिद हो, चाहे नियम-कायदों को ताक पर रख अपने को खास मानने का गुमान।

ऐसे लोगों को यदि ना सुननी पड जाती है तो तुरंत अपने आकाओं को फोन लगा ऐसा अहसास करवाते हैं जैसे बस कमिश्नर या कलेक्टर तुरंत इनकी सहायता को खडे होंगें। पर खुदा ना खास्ता यदि किसी 'पहाड' के नीचे इन्हें ला शीशा दिखा दिया जाता है तो फिर ऐसों को मुंह छुपाने की जगह खोजने मे भी देर नहीं लगती।

हद तो तब हो जाती है जब इस आदत के चलते कोई भी कहीं भी जा कर रौब दिखाते हुए अपने भाई, दोस्त या किसी रिश्तेदार का सम्बंध किसी रसूखदार जगह या उसके नुमांयदों से होना बता, रियायत पाना चाहता है। उसे इस बात की जरा भी चिंता नहीं होती कि उसकी इस हरकत से उस संस्था या उससे जुडे लोगों की बदनामी हो रही होती है।

इसके लिए हर जिम्मेदार संस्था को नये लोगों को जिम्मेदारी सौंपते हुए यह दिशा-निर्देश जरूर देने चाहिए कि उनके द्वारा जाने-अंजाने कोई ऐसा काम ना हो जिससे लोगों में कोई गलत संदेश जाए। यदि कभी ऐसी बात का पता चले तो तुरंत उन अधजल गगरियों को छलकने से रोका भी जाए। तब ही इस तरह की प्रवृति पर कुछ अंकुश लग सकता है।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

एक होता है बाघ. कुछ जानकारियाँ.

इसके दांत और जबड़े इतने मजबूत होते हैं कि यह अपने से दुगने आकार के जानवर को कुचल कर रख देता हैपर उन्हीं दांतों से जब अपने नवजात शिशु को उठा कर इधर से उधर ले जाता है तो उसके शरीर पर खरोंच तक नहीं आती

बाघ। सुन्दर, सजीला, ताकत का पर्याय, जंगल का राजा, हमारा राष्ट्रीय पशू। यह अपने-आप में कई खासियतें समेटे है, जो इसे और भी विशिष्ट बनाती हैं -

# बहुत कम जाना तथ्य है कि जैसे किन्हीं दो इंसानों की उँगलियों के निशान आप में मेल नहीं खाते वैसे ही बाघ के शरीर पर की धारियां, जिनकी संख्या लगभग सौ के आस-पास होती है, वह भी किन्हीं दो बाघों में एक जैसी नहीं होतीं

# किन्हीं दो बाघों के पदचिन्ह भी कभी आपस में मेल नहीं खाते।

# बाघ के कानों के पीछे दो सफेद धब्बे जैसे चिन्ह होते हैं, जो आखों जैसे दिखाई पड़ते हैंधारणा है कि नन्हे शावक शुरू में इन्हीं से अपनी माँ को पहचानते हैं

# बाघ के पैरों के निशान से उनके नर या मादा होने का अनुमान लग जाता है। यहाँ तक कि उनकी उम्र तथा भार का भी।

# तेज भागते समय कई बार उसका एक ही पैर जमीन से टकरा कर उसे गति देता है।

# इसकी गर्जना तीन कि मी तक सुनी जा सकती है।

# इसके दांत और जबड़े इतने मजबूत होते हैं कि यह अपने से दुगने आकार के जानवर को कुचल कर रख देता है पर उन्हीं दांतों से जब अपने नवजात शिशु को उठा कर इधर से उधर ले जाता है तो उसके शरीर पर खरोंच तक नहीं आती।

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इसकी आँखें दुनिया के किसी भी जानवर से ज्यादा चमकीली होती हैं।

# यह मांसाहारी जीव अपने पाचन-तंत्र को ठीक रखने के लिए कभी-कभी वनस्पति का उपयोग भी कर लेता है।

# यह कभी-कभी १८ घंटे की नींद भी ले लेता है। ऐसा ज्यादातर किसी बेहद थकाऊ अभियान के बाद ही होता है।

# मुग़ल सम्राट जहांगीर के महल में बाघ बिना किसी बंधन के घूमते रहते थे।

# भारत
में सफेद बाघ मध्य प्रदेश के रीवा इलाके के जंगलों में पहली बार पाया गया था। इसे "मोहन" नाम दिया गया था और इसे ही देश के सारे सफेद बाघों का जनक माना जाता है।


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बाघों का सफेद रंग का होना उनकी 'जींन' में किसी कमी के कारण होता है।

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

अजब-गजब

प्रकृति ने हमारे चारों ओर अजब-अनोखे, विचित्रताओं से भरे खूबसूर किरदार रचे हुए हैं। पर हम अपने-आप में खोए उन की खूबसूरती, अनोखेपन और विचित्रता का आनंद नहीं ले पाते। ऐसे ही कुछ अजूबे पेश हैं -

# साही (Porcupine), जिससे शेर भी घबडाता है, के शरीर पर उसकी रक्षा के लिए करीब तीस हजार कांटे होते हैं, जो हर साल बदल जाते हैं।# जिराफ की जीभ इतनी लम्बी होती है कि वह उससे अपने कान साफ कर लेता है। इसकी लम्बाई २१इन्च तक हो सकती है।

# अमेजन नदी में करीब एक हजार नदियाँ मिलती या गिरती हैं।

# शार्क के जीवन काल में सैंकड़ों बार उसके दांत उगते और टूटते रहते हैं।
# बाघ के शरीर पर करीब सौ धारियां होती हैं, पर ये किसी भी दो बाघों में सामान नहीं होतीं ना ही दो बाघों के पदचिन्ह एक से होते हैं।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

उल्लूओं के समूह को पार्लियामेंट कहते हैं.

मेरा विचार किसी की बेकदरी करना नहीं है, यह तो एक भाषा जो 'हमें ' बहुत प्यारी है, उसका एक पहलू है

एक भाषा है, अंग्रेजी। प्यारी भाषा है। इसीलिए शायद अंग्रेजों से भी ज्यादा यह हमें प्रिय है। इसकी बहुत सारी खासियतें हैं, जैसे लिखते कुछ हैं, पढते कुछ और हैं। किसी शब्द का उच्चारण अपनी सहूलियत के अनुसार कहीं कुछ और कहीं कुछ करने की आजादी है। कुछ अक्षर, शब्द या वाक्य बनते-बनाते गुमसुम हो जाते हैं, वगैरह, वगैरह। चलो ठीक है जैसी भी है, है। पर एक बात समझ में नहीं आती कि इसे बनाने वाले महानुभावों को शब्दों की कमी क्यों पड गयी। एक संज्ञा को दो अलग-अलग जगहों पर इस्तेमाल करने की क्या मजबूरी थी। चलो ठीक है भाषा उतनी समृद्ध नहीं थी तो कम से कम मिलते-जुलते चरित्र, भाव या अंदाज का तो ख्याल रखना था। जरा नीचे के उदाहरणों पर गौर करें कि किसे क्या कहा जाता है, और फिर अपनी राय दें -

उल्लूओं के समूह को :- पार्लियामेंट

मेढकों के समूह को :- आर्मी

चीटियों के समूह को :- कालोनी

कोवों के झुंड को :- मर्डर

कंगारुओं के समूह को :- मोब

बबून के झुंड को :- कांग्रेस

मछलियों के जमावडे को :- स्कूल

आफिसरों की रिहाईश को :- मेस कहा जाता है।

ये तो कुछ उदाहरण हैं, खोजने जाएं तो ढेरों विसंगतियां मिल जाएंगी।
चलो ठीक है यदि ये सब पहले हो गया था तो बाद में आने वालों का ही जरा ख्याल कर लेते या फिर जान-बूझ कर ही ऐसा :-)

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

'ट्रेन्स' विद लव :-)

आज सिर्फ रेलगाड़ियों से जुड़े कुछ हल्के -फुल्के क्षण

नेताजी परिवार नियोजन के सिलसिले में एक सुदूर देहात में पहुंचे तो पाया कि घरों के हिसाब से लोग बहुत ज्यादा हैं। उन्होंने मुखिया से पूछा कि गांव में घर इतने कम हैं पर आबादी इतनी ज्यादा क्यूं है? मुखिया ने जवाब दिया, मालिक यह सब रेलवे वालों का दोष है। नेताजी चकराए कि आबादी और जनसंख्या का क्या मेल। उन्होंने फिर पूछा, भाई ऐसा कैसे? मुखिया बोला, उन्होंने रेल लाईन बिल्कुल गांव के पास से निकाली है।
नेताजी की समझ में कुछ नहीं आया, बोले तो?
मुखिया ने समझाया, जनाब, रात में दो बजे एक गाडी सीटी बजाते हुए यहां से निकलती है, जिससे सारे गांव वालों की नींद टूट जाती है।
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ट्रेन कभी धीमी हो कभी तेज, फिर कभी इतनी धीमी हो जाए कि लगे रुकने वाली है। फिर पता नहीं क्या हुअ कि पूरी गाडी डगमगाने लगी, यात्री एक दूसरे पर गिरने लगे, सारा सामान ऊपर नीचे हो गया, लगा जोर का भूंकंप आ गया हो। फिर अचानक ट्रेन खडी हो गयी। लोगों ने देखा गाडी पटरी से उतर खेतनुमा जगह में खडी है। गुस्से से भरे लोगों ने उतर कर ड़्राईवर को घेर लिया और इस दुर्घटना का कारण पूछने लगे। ड़्राईवर बोला, अरे साहब पता नहीं कहां से एक पागल पटरियों पर आ गया था, कभी चलने लगता, कभी दौड़ने, कभी नाचने। परेशान कर रख दिया। भीड चिल्लाई, तो गाडी चढ़ा देनी थी उसके ऊपर।
ड्राईवर बोला 'वही तो कर रहा था'।
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दो चलाकू टाईप के आदमी दिल्ली से पटना जाने के लिए रात में जब ट्रेन के डिब्बे में चढ़े, तो पाया कि कहीं बैठने तक की जगह नहीं है। तभी उनमें से एक चिल्लाने लगा, सांप-साप, भागो-भागो। इतना सुनना था कि सारे यात्री सर पर पैर रख भाग लिए। दोंनो ने एक दूसरे को मुस्करा कर देखा और ऊपर की बर्थ पर चादर बिछा कर सो गये। सबेरे नींद खुलने पर उन्होने पाया कि गाड़ी कहीं खड़ी है, उन्होनें बाहर झाड़ु देते आदमी से पूछा कि भाई कौन सा स्टेशन है? उसने जवाब दिया, दिल्ली। अरे दिल्ली तो कल रात में थी, इन्होंने पूछा। तो जवाब मिला, साहब, कल रात इस डिब्बे में सांप निकल आया था तो इस डिब्बे को काट कर अलग कर बाकी गाडी चली गयी थी।
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संताजी का स्टेशन रात दो बजे आता था, सो वे अटैंडेंट को रात में उठाने को कह सो गये। पर जब आंख खुली तो सबेरा हो चुका था। इनका पारा गरम, जा कर अटैंडेंट का गला पकड लिया और दुनिया भर की सुना उस की ऐसी की तैसी कर दी। अटैंडेंट को चुप देख संताजी दहाडे कि बोलता क्यूं नहीं कि मुझे क्यों नहीं जगाया? अटैंडेंट बोला क्या बोलुं सर, आप तो फिर भी ट्रेन में हैं, मैं तो उस बेचारे का सोच कर परेशान हूं, जिसको मैने जबरदस्ती रात को सुनसान स्टेशन पर उतार दिया है।

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

आज हमें बधाई दे ही दीजिए

आज हमारे परिणय बंधन की सैंतिसवीं वर्ष-गाँठ है

आज वह दिन है जिसके लिए कुंवारे दोस्त-मित्र लड्डू का सहारा ले कुछ कुछ कहते रहते हैं, जबकि मौका मिलते ही वे भी खाने को ही लपकते हैंदेखते-देखते सैंतीस साल निकल गएअभी भी कल की बात लगती हैहालांकि इंसान की फितरत है कि वह किसी बंधन में बंधना नहीं चाहता पर यह बंधन प्रिय भी लगता हैयह अलग बात है कि मनोरंजन के लिए तरह-तरह के "पंच" या कहें कहावतें मशहूर हैं शादी को लेकर, जो ज्यादातर पुरुष को मद्देनजर रख बनी या बनाई गयीं हैंपर दूसरा पक्ष तो ज्यादा जोखिम उठाता है, नई जगह, नए बन्दों को लेकर

यह कहने की बात नहीं है सभी जानते हैं कि जिन्दगी उतार-चढाव भरी होती है, तो उन उतरावों में मेरी जीवन-संगिनी, कदमजी ने जो मेरा साथ दिया उसके लिए आज पहली बार सार्वजनिक रूप से मैं उनका शुक्रगुजार हूँयह उन्हीं की हिम्मत, हौसला और जिजीविषा थी कि आज भी हम खुश रहते हैं, हर हाल और परिस्थिति में

इसीलिए आप-सब से बधाई अपेक्षित है :-)

रविवार, 4 दिसंबर 2011

देव आनंद नहीं रहे

देवानंद, एक युग का अंत, पर सरकारी "चैनल" अपने ढर्रे पर

देवानंद
नहीं रहे। सुबह-सुबह इस खबर पर विश्वास ही नहीं हो पा रहा। एक ऐसा इंसान जिसने थकना ना जाना हो, हताशा-निराशा जिसके पास ना फटकती हो, जो कभी पीछे मुड़ कर ना देखता हो, जिसने हिंदी सिनेमा को एक अलग-अनोखा रंग दिया हो, अस्सीवें दशक में भी जो युवाओं के दम-खम को चुन्नौती देता रहा हो वह ऐसे कैसे जा सकता है। वह तो जीवन भर जिंदगी का साथ निभाने को जैसे वचनबद्ध था पर अंतत: जिंदगी ने ही उनका साथ छोड दिया। फिर भी यह इंसान जब तक जीया अपनी शर्तों को जिंदगी पर थोप कर जीया, कभी किसी तरह का समझौता किए बगैर। इस धरती पर ऐसे इंसान कभी-कभी वर्षों मे एक बा जन्म लेते हैं।

पहले शम्मी कपूर और अब देव आनंद। दो ऐसे अभिनेता जिन्होंने हिंदी सिनेमा को एक अलग पहचान दी, एक-एक कर अपना रोल निभा रंगमंच छोड गये। शम्मीजी ने उम् और स्वास्थ्य के चलते अपने-आप को काफी दिनों से अलग-थलग कर लिया था। पर देवांनद तो कर्मयोगी का पर्याय थे। वर्षों से चुपचाप बिना हश्र की चिंता किए अपने कर्म को मूर्त-रूप देते चले रहे थे। लाभ-हानि की चिंता से काफी ऊपर उठ चुके इस इंसान को शायद पता ही नहीं था कि थकान, निराशा, हताशा क्या होती है। उसको सिर्फ पता था कि मुझे काम करते जाना है और वही वह करता रहा मरत्युपर्यंत। किसी प्रशंसा या आलोचना की परवाह किए बिना। ऐसा इंसान भगवान के दरबार में भी निष्क्रीय नहीं रहेगा वहां भी अपनी सृजनकला का उपयोग करता रहेगा।
उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजली।


पर दुख: हुआ यह देख कि सरकारी चैनल पर "रंगोली" मे इस खबर का कोई असर नहीं था। वह अपने पुराने ढर्रे पर दूसरे प्रेमगीत बजाता जा रहा था।

रविवार, 27 नवंबर 2011

क्या ऐसा सोचा भी जा सकता है?

क्या ऎसी दोस्ती संभव है ? एक तरफ खुंखारता का पर्याय और दूसरी तरफ कोमलता का प्रतीक।





गुरुवार, 24 नवंबर 2011

उस दिन तो भगवान ने ही स्कूटर चलाया

घटना करीब तीस साल पुरानी है। मेरी शादी को अभी सात एक महीने ही हुए थे। तब हम दिल्ली के राजौरी गार्डेन में रहते थे। उन्हीं दिनों मेरी चचेरी बहन का रिश्ता हरियाणा के करनाल शहर में तय हुआ था। उसी के सिलसिले मे वहां जाना था। मैने नया-नया स्कूटर लिया था, जो अभी तक दो सौ किमी भी नहीं चला था, सो शौक व जोश में स्कूटरों पर ही जाना तय किया गया। हम परिवार के आठ जने चार स्कूटरों पर सवार हो सबेरे सात बजे करनाल के लिए रवाना हो लिए। यात्रा बढ़िया रही, वहां भी सारे कार्यक्रम खुशनुमा माहौल में संपन्न होने के बाद हम सब करीब पांच बजे वापस दिल्ली के लिए चल पड़े। मैं सपत्निक तीसरे क्रम पर था।। सब ठीकठाक ही चल रहा था कि अचानक दिल्ली से करीब 35किमी पहले मेरा स्कूटर बंद हो गया। मेरे आगे दो स्कूटर तथा पीछे एक स्कूटर था , आगे वालों को तो जाहिर है कुछ पता नहीं चलना था सो वे तो चलते चले गये। पर मन में संतोष था कि पीछे दो लोग आ रहे हैं, सहायता मिल जाएगी। पर देखते-देखते, मेरे आवाज देने और हाथ हिलाने के बावजूद उनका ध्यान मेरी तरफ नहीं गया, एक तो शाम हो चली थी दूसरा हेल्मेट और फिर उनकी आपसी बातों की तन्मयता की वजह से वे मेरे सामने से निकल गये। इधर लाख कोशिशों के बावजूद स्कूटर चलने का नाम नहीं ले रहा था। जहां गाडी बंद हुए थी, उसके पास एक ढ़ाबा था वहां किसी मेकेनिक के मिलने की आशा में मैं वहां तक स्कूटर को ढ़केल कर ले गया, परंतु वहां सिर्फ़ ट्रक ड्राइवरों का जमावड़ा था। अब कुछ-कुछ घबडाहट होने लगी थी। ढ़ाबे में मौजूद लोग सहायता करने की बजाय हमें घूरने में ज्यादा मशरूफ़ थे। मैं लगातार मशीन से जूझ रहा था। मेरी जद्दोजहद को देखने धीरे-धीरे तमाशबीनों का एक घेरा हमारे चारों ओर बन गया था। कदमजी मन ही मन (जैसा कि उन्होंने मुझे बाद में बताया) लगातार महामृत्युंजय का पाठ करे जा रहीं थीं। हम दोनो पसीने से तरबतर थे, मैं स्कूटर के कारण और ये घबडाहट के कारण। अंधेरा घिरना शुरु हो गया था कि अचानक एक स्पार्क हुआ और इजिन में जान आ गयी। मैने उसी हालत में ही स्कूटर को कसा-ढ़का, और प्रभू को याद कर हम घर की ओर चल पड़े। उन दिनों यमुना में बाढ़ आई हुई थीजगह-जगह पानी भरा हुआ थाकिसी भी तरह का जोखिम लेते हुए मैं लम्बे रास्ते से होता हुआ रात करीब दस बजे जब घर पहुंचा तो पाया कि घर वालों की हालत खस्ता थी। उन दिनों मोबाइल की सुविधा तो थी नहीं और गाडी फिर ना बंद हो जाए इसलिए रास्ते से मैने भी फोन नहीं किया। जैसा भी था हमें सही सलमात देख सबकी जान में जान आई।
दूसरे दिन मेकेनिक ने जब स्कूटर खोला तो सब की आंखे फटी की फटी रह गयीं क्योंकी स्कूटर की पिस्टन रिंग टुकड़े-टुकड़े हो चुकी थी जो कि नये स्कूटर के इतनी दूर चलने का नतीजा था। ऐसी हालत में गाडी कैसे स्टार्ट हुई कैसे उसने दो जनों को 50-55किमी दूर तक पहुंचाया कुछ पता नहीं। यह एक चमत्कार ही था। उस दिन को और उस दिन के माहौल के याद आने पर आज भी मन कैसा-कैसा हो जाता है।

कोई माने या ना माने मेरा दृढ़ विश्वास है कि उस दिन सच्चे मन से निकली गुहार के कारण ही प्रभू ने हमारी सहायता की थी। प्रभू कभी भी अपने बच्चों की अनदेखी नहीं करते और यह मैने सुना नहीं देखा और भोगा है।

रविवार, 20 नवंबर 2011

रहस्य के कोहरे में लिपटे दो जीव

दुनिया के सैकड़ों-हजारों जीव- जंतुओं मे कुछ ऐसे प्राणी हैं जिनके अस्तित्व पर मनुष्य ने रहस्य और ड़र का कोहरा फैला रखा हैइनमे दो प्रमुख हैं पहला है बिल्ली और दूसरा सांप। वैसे इस मामले में बिल्ली सांप से कहीं आगे है। इसी की जाति के शेर, बाघ, तेंदुए आदि जानवर ड़र जरूर पैदा करते हैं पर रहस्यात्मक वातावरण नहीं बनाते। पर अफ्रीकी मूल के इस प्राणी, "बिल्ली" को लेकर विश्व भर के देशों में अनेकों किस्से, कहानियां और अंधविश्वास प्रचलित हैं।
जहां जापान मे इसे सम्मान दिया जाता है, क्योंकि किसी समय इसने वहां चूहों के आतंक को खत्म कर खाद्यान संकट का निवारण किया था। वहीं दूसरी ओर इसाई धर्म में इसे बुरी आत्माओं का साथी समझ नफ़रत की जाती रही है। फ्रांस मे तो इसे कभी जादूगरनी तक मान लिया गया था। हमारे यहां भी इसको लेकर तरह-तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। एक ओर तो इसके रोने की आवाज को अशुभ माना जाता है। आज के युग मे भी यदि यह रास्ता काट जाए तो अच्छे-अच्छे पढे-लिखे लोगों को ठिठकते देखा जा सकता है। रात के अंधेरे में आग के शोलों कि तरह दिप-दिप करती आंखों के साथ यदि काली बिल्ली मिल जाए तो देवता भी कूच करने मे देर नहीं लगाते। संयोग वश यदि किसी के हाथों इसकी मौत हो जाए तो सोने की बिल्ली बना दान करने से ही पाप मुक्ति मानी जाती है। दूसरी ओर दिवाली के दिन इसका घर में दिखाई देना शुभ माना जाता है। पता नहीं ऐसा विरोधाभास क्यों?
दुनिया भर की ड़रावनी फिल्मों मे रहस्य और ड़र के कोहरे को घना करने मे सदा इसकी सहायता ली जाती रही है। यह हर तरह के खाद्य को खाने वाली है, पर इसका चूहे और दूध के प्रति लगाव अप्रतिम है। इसे पालतू तो बनाया जा सकता है पर वफादारी की गारंटी शायद नहीं ली जा सकती।

सांपों
को लेकर भी तरह-तरह की भ्रान्तियां मौकापरस्तों द्वारा फैलाई जाती रही हैं। जैसे इच्छाधारी नाग-नागिन की विचित्र कथाएं। जिन पर फिल्में बना-बना कर निर्माता अपनी इच्छायें पूरी कर चुके हैं। एक और विश्वास बहुत प्रचलित है, नाग की आंखों मे कैमरा होना, जिससे वह अपना अहित करने वाले को खोज कर बदला लेता है। चाहे वह दुनिया के किसी भी कोने मे हो। सपेरों और तांत्रिकों द्वारा एक और बात फैलाई हुई है कि सांप आवश्यक अनुष्ठान करने पर अपने द्वारा काटे गये इंसान के पास आ अपना विष वापस चूस लेता है। पर सच्चाई तो यह है कि दूध ना पीने वाला यह जीव दुनिया के सबसे खतरनाक प्राणी, इंसान, से ड़रता है। चोट करने या गलती से छेड़-छाड़ हो जाने पर ही यह पलट कर वार करता है। उल्टे यह चूहे जैसे जीव-जंतुओं को खा कर खेती की रक्षा ही करता है। जिससे इसे किसान मित्र भी कहा जाता है।

दुनिया के दूसरे प्राणियों की तरह ये भी प्रकृति की देन हैं। जरूरत है उल्टी सीधी अफवाहों से लोगों को अवगत करा अंधविश्वासों की दुनिया से बाहर लाने की।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

क्या कभी कंकडों से भी पानी ऊपर आता है?


बकरी का मीडिया में काफी दखल था। उसने कौवे की दरियादिली तथा बुद्धिमत्ता का चारों ओर जम कर प्रचार किया। सो आज तक कौवे का गुणगान होता रहा है।


पशु-पक्षियों में कौवे की बड़ी धाक थी। उसने कुछ ऐसी भ्रान्ति फैला रखी थी कि उस जैसा समझदार पूरे जंगल में कोई नहीं है। तकदीर तेज थी मौके-बेमौके उसका सिक्का चल ही जाता था। ऐसे ही वक्त बीतता गया। समयानुसार गर्मी का मौसम भी आ खड़ा हुआ अपनी पूरी प्रचंडता के साथ। सारे नदी-नाले, पोखर-तालाब सूख गए। पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच गई। ऐसे ही एक दिन हमारा कौवा पानी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था। उसकी जान निकली जा रही थी, पंख जवाब दे रहे थे, कलेजा मुहँ को आ रहा था। तभी अचानक उसकी नजर एक झोंपडी के बाहर पड़े एक घडे पर पड़ी। उसमे पानी तो था पर एक दम तले में , पहुँच के बाहर। उसने इधर-उधर देखा तो उसे पास ही कुछ कंकड़ों का ढेर नजर आया। कौवे ने अपनी अक्ल दौड़ाई और उन कंकडों को ला-ला कर घडे में डालना शुरू कर दिया। परन्तु एक तो गरमी दुसरे पहले से थक कर बेहाल, ऊपर से प्यास , कौवा जल्द ही पस्त पड़ गया । अचानक उसकी नजर झाडी के पीछे खड़ी एक बकरी पर पड़ी जो न जाने कब से उसका क्रिया-कलाप देख रही थी। यदि बकरी ने उसकी नाकामयाबी का ढोल पीट दिया तो ? कौवा यह सोच कर ही काँप उठा। तभी उसके दिमाग का बल्ब जला और उसने अपनी दरियादिली का परिचय देते हुए बकरी से कहा कि कंकड़ डालने से पानी काफी ऊपर आ गया है तुम ज्यादा प्यासी लग रही हो सो पहले तुम पानी पी लो। बकरी कौवे कि शुक्रगुजार हो आगे बढ़ी पर जैसा जाहिर था वह खड़े घडे से पानी ना पी सकी। कौवे ने फिर राह सुझाई कि तुम अपने सर से टक्कर मार कर घडा उलट दो इससे पानी बाहर आ जायेगा तो फिर तुम पी लेना। बकरी ने कौवे के कहेनुसार घडे को गिरा दिया। घडे का सारा पानी बाहर आ गया, दोनों ने पानी पी कर अपनी प्यास बुझाई।

बकरी का मीडिया में काफी दखल था। उसने कौवे की दरियादिली तथा बुद्धिमत्ता का चारों ओर जम कर प्रचार किया। सो आज तक कौवे का गुणगान होता आ रहा है।

नहीं तो क्या कभी कंकडों से भी पानी ऊपर आया है ?

सोमवार, 7 नवंबर 2011

नाक कटने से बचाने का कोई उपाय है क्या?

करीब डेढ़-दो साल पहले प्राणायाम करते समय नाक के बाएँ नथुने में 'कुछ' होने जैसा महसूस किया था। ऐसे ही होगा ठीक हो जाएगा की सोच के साथ समय और वह दोनों अपनी गति से बढ़ते गए। पतंजलि से संपर्क किया तो जैसी की आशा थी उन्होंने इसे किसी और कारण से होने का बताया, साथ ही कुछ घरेलू उपाय बताए पर उन्हें और अपने तौर पर कुछ न कुछ करते रहने के बाद भी जब 'उसने' अवैध कब्जा न छोड़ा और धीरे-धीरे बायाँ छिद्र पूर्णतया बंद हो गया। फिर एलोपैथी से सहायता की गुजारिश की। पता चला कि यह "पोलिप" कहलाता है, इलाज शुरू हुआ पर कोई फ़ायदा नहीं मिल पाया। हाँ 'प्रकृति-विरुद्ध' दवाओं से कुछ अलग सी समस्याएँ और जरूर हो गयीं। फिर कुछ दिनों बाद होम्योपैथी की शरण ली, बातों-बातों में डाक्टर साहब ने बताया कि वह भी इससे जूझ चुके हैं। उनका मस्सा तो नाक के बाहर आ जाता था। यहाँ कुछ आशा बंधी। दवा-दारू चालू हुई, थोड़ा असर दिखने भी लगा, पर एक जगह आ 'उसकी' हठधर्मिता के सामने कोई बात नही बन पाई। इसी बीच दाएं नथुने पर भी असर शुरू हो गया था। रात सोते समय दोनों छिद्र बंद हो हवा को अन्दर आने से रोकने में पूरी तरह सफल हो गए थे। मजबूरी में सहानुभूतिवश मूंह अपना द्वार खोल सांस लेने की क्रिया को सुचारू रूप देने का प्रयास करता रहता था। पर उससे जीभ, तालू, गला बुरी तरह सूख जाते थे। सर भी भारी रहने लगा था। इन सब को लिए-दिए फिर दिल्ली आना हुआ और फिर एक बार एलोपैथी की सरकार से इस नाजायज कब्जे की शिकायत की। इस बार उन्होंने अपना अंतिम निर्णय लेते हुए शल्य-चिकित्सा करवाने को कह दिया। हालांकि आजकल बिना पूर्ण बेहोश किए लेज़र की सहायता से यह उपचार संभव है, फिर भी यदि कोई इसका भुगत-भोगी हो तो उनके विचारों, ख्यालों और तजुर्बे का सदा स्वागत है।

आखिर नाक की इज्जत का सवाल है भाई।

शनिवार, 5 नवंबर 2011

पांच करोड़ जीतने के साथ मुसीबतें मुफ्त

अभी-अभी संपन्न हुए 'पंचकोटी महा-मनी' के विजेता बने सुशील कुमार की समस्याएँ शुरू होती हैं ........अब

अभी ज्यादा दिन नहीं हुए। पिछले हफ्ते की ही बात है, बिहार के मोतीहारी जिले के सुशील कुमार ने टी.वी. के 'कौन बनेगा करोड़पति' के माध्यम से शायद देश की सबसे बडी इनामी राशि जीतने का गौरव लाखों लोगों के सामने हासिल किया।दुनिया के सामने रातों-रात मिले धन और प्रसिद्धि ने जहां ढेरों खुशियां झोली में डाल दीं वहीं कुछ अनपेक्षित समस्याएं भी बिन बुलाए आ खड़ी हुईं हैं।


उस समय उनकी माली हालत को देखते हुए बहुत से लोगों की सहानुभूति उनके साथ रही होगी, बहुतों को अच्छा लगा होगा, बहुतेरे मन मसोस कर रह गये होंगे, कुछ निरपेक्ष रहे होंगें और कुछ समय के बाद ऐसे सभी लोग अपने-अपने काम में मशगूल हो गये होंगें। पर असली खेल या कहिए सुशील की मुश्किलात का समय शुरु होता है अब;


सुनने में आ रहा है कि जीतने के बाद खेल में भाग लेने गये लोग वापस अपने घर जाने में हिचकिचा रहे हैं। वे ही नहीं उधर मोतीहारी में बैठे घर के सदस्य भी अपनी और सुशील की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। जिसकी वजह है बिहार के पुराने हालात, जहां छोटी-छोटी रकमों के लिए ही लोगों का अपहरण कर लिया जाता था और यह तो बहुत बड़ी धन-राशि है। हालात पहले से बहुत सुधरे हैं पर फिर भी ड़र बना हुआ है।


यह सारा कुछ उस कहावत की याद दिलाता है कि पैसा ना हो तो मुश्किल और हो तो भी मुश्किल। इतना ही नहीं सुशील कुमार के इतनी बड़ी रकम जितने के बाद उनके नजदीकी भाई-बंधुओं, दोस्त-मित्रों, सगे-सम्बंधियों ने अपने-अपने स्तर पर बहुतेरी आशाएं संजो ली होंगी और यदि किसी कारणवश वे पूरी नहीं हो पातीं तो रिश्तों में भी खटास आने की संभावना बढ जाएगी।


इन सबके अलावा बहुत सारे बीमा एजेंट, बैंकों के प्रतिनिधी, रियल एस्टेट वाले और भी ना जाने कितने ढेरों लोग अपने-अपने धंधों की स्कीमों को लेकर सुशील की राह में पलक-पांवड़े बिछाए इस मोतीहारी के नायक का बेसब्री से इंतजार कर रहे होंगें। भले ही इन सारे लोगों की नियत में खोट ना भी हो तो भी रोज-रोज उनकी जिंदगी में दखलंदाजी कर और कुछ नहीं तो तनाव का तोहफा तो जरूर पूरे परिवार को देंगें ही। खैर जब लक्ष्मीजी आईं हैं तो इतना सब तो सहना ही पड़ेगा।


अब तो यही है कि यदि भगवान ने जिंदगी में सुखद समय लाने का प्रबंध किया है तो वह सही मायनों में सुखद हो।



































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