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सोमवार, 27 जनवरी 2020

शनि शिंगणापुर, भ्रमित करते दूकानदार

एक तो धर्मस्थल दूसरे शनि देव का सबसे बड़ा स्थान ! मेरे अलावा सभी ने अपने  जूते पार्किंग में ही छोड़ दिए ! अब विडंबना यह कि पार्किंग से मंदिर का फर्लांग भर का रास्ता पूरी तरह कच्चा, नुकीले पत्थरों के टुकड़ों, बजरी तथा टूटी-फूटी वस्तुओं से अटा पड़ा था ! एक-एक कदम चलना भी दूभर हो रहा था लोगों के लिए ! पांच मिनट की दूरी को पार करने में बीस मिनट लग रहे थे। जब तक पछताते हुए बाकी लोग पहुंचते मैंने अंदर जा यथास्थान जूते रख हाथ-मुंह धो लिया था। 
वापस आने पर दूकान वाले की क्लास ली......................! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 
आप श्रद्धा-भक्ति के साथ धर्मस्थलों की यात्रा करते हैं। मन में विश्वास रहता है कि प्रभु न्यायशील हैं, उनके रहते कम से कम उनके दरबार में तो गलत काम कोई सोच भी नहीं सकता ! पर सच्चाई ठीक इसके विपरीत है, उन पवित्र स्थानों से जुड़े लोग बहेलियों की तरह घात लगाए रहते हैं, आगंतुक को लूटने के लिए ! श्रद्धालु-पर्यटक-यात्री ऐसी जगहों में जा कर अगाध श्रद्धा भाव से अभिभूत हो जाता है ! साथ ही वह अपने संस्कारों, मान्यताओं और धर्मभीरुता के कारण हर क्षण सशंकित रहता है कि कहीं प्रभु के प्रति उससे कोई चूक या भूल ना हो जाए ! इसी भावना का लाभ वहां के दुकानदार, बिचौलिए, तथा धर्मस्थल से किसी ना किसी रूप से जुड़े लोग उठाने से बाज नहीं आते। यह कहानी कमोबेस हर प्रसिद्ध जगह की है। जहां ऐसे गिरोह अपना काम बिना किसी रोक-टोक, डर-भय के अंजाम दे रहे हैं। 
अभी पिछले दिनों शनि शिंगणापुर जाने का अवसर मिला। काफी सुन रखा था इस जगह के बारे में ! शनिदेव के प्रभाव के बारे में, यहां के अपराध विहीन माहौल के बारे में ! सो एक अलग तरह की उत्सुकता दिलो-दिमाग में बनी हुई थी। शिर्डी से तक़रीबन अढ़ाई घंटे के सफर के बाद गाडी के गंतव्य तक पहुंचने के पहले ही गाडी वाहक ने रटे-रटाए तरीके से कुछ चेतावनी रूपी सलाहें थोप दीं। जिनमें जूते गाडी में छोड़ने, बेल्ट निकाल कर जाने, पूजा के बाद पीछे मुड कर ना देखने जैसी दसियों बातें थीं !
गाड़ी को तो अपनी जानी-पहचानी जगह ही ठहरना था सो वह अपने परिचित की दूकान के सामने ही रुकी ! रुकते ही दुकानदारी आरंभ ! फूल, प्रसाद इत्यादि चेपना शुरू और यहीं से मेरे देवता बिगड़ने शुरू हो जाते हैं ! मन में यही विचार आता है कि जब धोखाधड़ी से, भगवान का डर दिखा कर पैसा ऐंठने वाले को ऊपर वाला कुछ नहीं कहता तो फिर............! और ऐसे में ना चाहते हुए भी झड़प हो ही जाती है ! यहां भी ऐसा ही हुआ जब अधिकार की भाषा में यह सुनने को मिला कि जूते यहीं उतार दीजिए, मंदिर में जगह नहीं है ! मंदिर में पानी नहीं है, यही हाथ-मुंह धोना पडेगा ! बेल्ट हमारे पास छोड़ दीजिए ! पर्स ले जा सकते हैं ! प्रसाद ले कर जाइए, खाली हाथ नहीं जाना है इत्यादी, इत्यादी !
गाड़ियां आ रहीं थीं ! लोग उतर रहे थे ! निर्देश माने जा रहे थे ! इधर अपने साथ के लोगों से कहा भी कि जूता मत उतारो, ऐसा कोई मंदिर नहीं होता जहां प्रवेश द्वार के पहले जूते रखने की जगह ना हो ! वहीं जा कर उतारना। पर एक तो धर्मस्थल दूसरे शनि देव का सबसे बड़ा स्थान ! मेरे अलावा सभी ने जूते पार्किंग में ही छोड़ दिए ! प्रसाद लिया गया, वह भी देने वाले की मर्जी मुताबिक ! अब विडंबना यह कि पार्किंग से मंदिर का फर्लांग भर का रास्ता पूरी तरह कच्चा, नुकीले पत्थरों के टुकड़ों, रेट-मिटटी तथा टूटी-फूटी वस्तुओं से अटा पड़ा था ! एक-एक कदम चलना भी दूभर हो रहा था लोगों के लिए ! पांच मिनट की दूरी को पार करने में बीस मिनट लग रहे थे। जब तक पछताते हुए बाकी लोग पहुंचते मैंने अंदर जा यथास्थान जूते रख हाथ-मुंह धो लिया था। 
वापस आने पर दूकान वाले की क्लास ली ! मेरे पूछने पर कि जूते यहीं क्यों उतरवाते हो जबकि मंदिर के पास स्टैंड है ? 
बोला, सब उतार कर जाते हैं ! 
मैंने कहा, तुम जोर डालते हो तभी लोग उतारते हैं ! अच्छा यह बताओ बेल्ट क्यों उतरवाते हो ?
चमड़ा है इसलिए, समझाने के अंदाज में बोला !
तो फिर चमड़े का पर्स या बैग क्यों नहीं रखवाते ? क्योंकि वहां चढ़ावा चढ़ाना होता है इसलिए ? फिर उससे पूछा कि जब अंदर पानी की व्यवस्था है तो जबरन यहीं हाथ-मुंह धोने को क्यों कहते हो ? और फिर खाली हाथ जाना है कि नहीं, यह भक्त और भगवान का मामला है तुम बीच में यह बता कर एक तरह से ब्लैकमेल करते हो भक्तों को ! ये बताओ कि जो लोग इधर ना आकर सीधे मंदिर चले जाते हैं वे क्या जूते नहीं उतारते या हाथ-मुंह नहीं धोते ? अब इन सब का उसके पास कोई जवाब नहीं था ! मेरे साथी भी नई जगह में होती बहस को ले कुछ परेशान हो रहे थे, सो........!

तो लब्बोलुआब यही रहा कि यात्रा-सफर इत्यादि में अपना विवेक बनाए रखें। ज्यादा भावनाओं में ना बहें। धार्मिक रहें पर अंधविश्वासी नहीं। आँख-कान खुले रखें। बाकी जो है वो तो हइये है ! 

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

शिर्डी, सुविधाएं अनेक पर व्यवस्था में कमी

संस्थान का सारा जोर बाहरी रख-रखाव, दिखावे और प्रचार पर केंद्रित है ! और शायद धनोपार्जन मुख्य उद्देश्य ! जिसकी एक छोटी सी झलक पिछले दिनों साईं के जन्म स्थल के खबरों में आने पर यहां के लोगों में फैली चिंता के रूप में सामने आई ! इसके अलावा एक बात जो बहुत खटकती है, वह है यहां के कुछेक कर्मचारियों को छोड़ अधिकतर का बेहद रूखा और धृष्ट व्यवहार ! जो ऐसा है जैसे वे आगंतुकों पर एहसान कर रहे हों ! यह बात स्वागत कक्ष, भोजन कक्ष, चाय-कॉफी वितरण केंद्र हर जगह परिलक्षित होती है ! शायद वे भूल गए हैं कि इन्हीं श्रद्धालुओं की बनिस्पत ही उनकी रोजी-रोटी चलती है...........!    

#हिन्दी_ब्लागिंग
शिर्डी, इस धर्मस्थल की अचानक फैली कीर्ति ने बहुतों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। जिसकी वजह से यहां लोगों का आवागमन बेतहाशा बढ़ गया है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस संस्थान में बहुत सारी सुविधाएं पर्यटकों के लिए उपलब्ध हैं पर इसके साथ ही कुछ ऐसा भी है जिससे यह आभास होता है कि कहीं ना कहीं श्रद्धालु, भक्तजन और पर्यटक अवहेलित किए जा रहे हैं ! हालांकि भवन के बाहर का ''आउट लुक'' मनमोहक छवि लिए हुए है, परिसर बहुत साफ़-सुथरा व आकर्षक है ! पर लगता है कि संस्थान का सारा जोर बाहरी रख-रखाव, दिखावे और प्रचार पर केंद्रित है और शायद धनोपार्जन मुख्य उद्देश्य ! जिसकी एक छोटी सी झलक पिछले दिनों साईं के जन्म स्थल के खबरों में आने पर यहां के लोगों में फैली चिंता के रूप में सामने आई !

अभी पिछले दिनों यहां की यात्रा का अप्रत्याशित अवसर मिला ! यहां के प्रबंधन के सुनियोजित प्रचार और कुछ दर्शनसुख प्राप्त लोगों के विचारों के कारण मन में एक सोच या ख्याल था कि संस्थान के निवासों में दूसरे होटल वगैरह की तुलना में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध होंगी ! इसी कारण सबसे पहले ''साईं आश्रम'' के वृहदाकार परिसर में पहुंचे। पर स्वागत कक्ष तक पहुंचने के पहले ही गार्ड ने रूखे स्वर में जगह ना होने की बात बता निरुत्साहित कर दिया। पर बाहर से आई बहन को NRI को दी जाने वाली सुविधा की जानकारी थी, उसी के तहत हमें ''द्वारावती" जाने की सलाह दी गयी, यहां के कमरे हमें पसंद नहीं आएंगे, यह बता कर ! 
अब तक टैक्सी वाला यह बता कर कि मेरे दोस्त के होटल चलेंगे तो वेट करूंगा अन्यथा नहीं, कह कर जा चुका था ! दोबारा लद-फंद कर ऑटो को दुगने पैसे दे द्वारावती पहुंचने पर वहां की भव्य इमारत, साफ़-सुथरा परिवेश देख जहां एक ओर सुखद अनुभूति हुई वहीं मुख्य द्वार पर ही ''no room'' का मुंह चिढ़ाता बोर्ड देख मन फिर सशंकित हो गया ! पर पिछले निवास पर हुई बातचीत का हवाला देने पर जगह मिल गयी। बाद में घूम कर देखा तो सैकड़ों कमरों वाले इस भवन में बीसियों कक्ष खाली पड़े दिखे ! पता नहीं क्यों रात के नौ बजे ठंड के मौसम में सहारा तलाशते लोगों से रूखा व्यवहार कर उन्हें जगह देने से इंकार किया जा रहा था !
इसके अलावा एक बात जो बहुत खटकती है, वह है यहां के कुछेक कर्मचारियों को छोड़ अधिकतर का बेहद रूखा और धृष्ट व्यवहार ! जो ऐसा है जैसे वे आगंतुकों पर एहसान कर रहे हों ! यह बात स्वागत कक्ष, भोजन कक्ष, चाय-कॉफी वितरण केंद्र हर जगह परिलक्षित होती है ! शायद वे भूल गए हैं कि इन्हीं श्रद्धालुओं की बनिस्पत ही उनकी रोजी-रोटी चलती है।
बढ़ती ठंड और घिरती रात में रहने की समस्या का हल मिल जाने पर तनाव तो कुछ कम हो गया पर दूसरे तल पर आवंटित कमरे का हाल देख मन में कई सवाल उठ खड़े हुए ! कमरा किसी भी तीसरे दर्जे की धर्मशाला का आभास दे रहा था ! चुंचुआते लोहे के फ्रेम के पर्यक पर मैले बिस्तरपोश तथा तकिए के खोल, ओढ़ने वाली चादरें और भी दुर्दशाग्रस्त ! ढीले बिजली के स्विच ! स्नानागृह तथा टॉयलेट के जर्जर दरवाजे, वह भी प्लास्टिक के ! उधर बड़ी सी कांच की खिड़की पर पड़ी धूल की परत अपनी कहानी खुद कह रही थी। ठंड से बचने का पर्याप्त इंतजाम ना होने के कारण फ्लोर निरीक्षक से अनुरोध पर जो कंबल मिले, वो रेलगाड़ियों में मिलने वाले कंबलनुमा मोटी चादरों जैसे ही थे ! पर हालत ऐसी जैसे वर्षों से काम में लाई जा रही हों ! रेशे उधड़े हुए, लाइनिंग फटी हुई। उस पर उन दाता महाशय का चाय वगैरह के लिए कुछ पा जाने की आकांक्षा !
यदि कोई एकाधिक बार यहां हो आया है तब तो ठीक है, पर पहली बार मंदिर के अंदर पहुंचे दर्शनाभिलाषी को जरा-जरा सी जानकारी के लिए भीड़ के धक्के खाने पड जाते हैं। जैसे वरिष्ठ नागरिकों के लिए द्वार न. तीन से जाने की सुविधा दी गयी है पर यह कोई नहीं बताता कि उसके लिए अनुमति पत्र दो न. के द्वार पर बनेगा ! यह भी वहीं जा कर पता चलता है कि उसके लिए कुछ कागजात भी जरुरी हैं या सत्तर के ऊपर की आयु वाले लोग अपने साथ एक सहायक ले जा सकते हैं ! कहीं और नहीं तो यह अनुमति पत्र संस्थान अपने तीनों भक्त-निवासों पर तो उपलब्ध करवा ही सकता है। यदि यह भी उन्हें भारी और नागवार लगता है तो कम से कम पूरी जानकारी तो उपलब्ध की ही जा सकती है।
यह सही है कि आम होटलों की बनिस्पत यहां कमरे का चार्ज कम है पर है तो सही ! फिर क्यों नहीं सफाई वगैरह के स्तर पर ध्यान दिया जाता ! यदि भोजन कक्ष में ''प्रसाद'' ग्रहण करने के पश्चात थाली को धुलते देख लें तो मन वितृष्णा से भर जाता है। गंदगी भरी जगह में एक बार इकट्ठी की गयी थालियों को पटक, तेज धार हॉज पाइप की धार मार एक टब के पानी से निकाल फिर प्रयुक्त कर दिया जाता है। क्यों नहीं धन की अनवरत वर्षा की कुछ बूंदों से कुछ स्वचालित मशीने लगा दर्शनार्थियों के स्वास्थ्य को भी सुरक्षित करने के बारे में सोचा जाता ! इसके अलावा एक बात जो बहुत खटकती है, वह है यहां के कुछेक कर्मचारियों को छोड़ अधिकतर का बेहद रूखा और धृष्ट व्यवहार ! जो ऐसा है जैसे वे आगंतुकों पर एहसान कर रहे हों ! यह बात स्वागत कक्ष, भोजन कक्ष, चाय-कॉफी वितरण केंद्र हर जगह परिलक्षित होती है ! शायद वे भूल गए हैं कि इन्हीं श्रद्धालुओं की बनिस्पत ही उनकी रोजी-रोटी चलती है।    

शनिवार, 4 जनवरी 2020

एक नजर ताल कटोरा पर

उस प्राकृतिक कटोरेनुमा ताल के बगल में दीवारों से घिरे एक बागीचे का निर्माण मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह (1719-1748) के शासन काल में करवाया गया था। आज इसकी ज्यादातर चारदीवारी गिर चुकी है। इसके अलावा इसकी पहचान उस जगह के रूप में भी की जाती है जब 1735 में यहां मराठों की सैनिक छावनी हुआ करती थी और इसी जगह 1738 में उन्होंने मुगल सेनाओं का सामना कर उनको शिकस्त दी थी। एक और पहचान भी है पर उसे ना जानना ही बेहतर है............!  

#हिन्दी_ब्लागिंग 
हर शहर में कुछ जगहें अपनी खासियत को लेकर प्रसिद्ध होती हैं। पर अधिकांश, स्थानीय लोगों की, नजदीक ही है, कभी भी देख लेंगे, सोच के तहत अनदेखी ही रह जाती हैं। फिर दिल्ली तो प्राचीन शहर है ! इसके तो गली-गली, कूचे-कूचे में ऐसी विरासतें भरी पडी हैं, जो आज अपनी प्राकृतिक सुंदरता से लोगों का मन तो मोह ही रही हैं, साथ ही उनकी डोर कहीं दूर इतिहास से भी जुडी हुई है। ऐसी ही एक जगह है ताल कटोरा उद्यान। आज जिसकी ख्याति यहां के आधुनिक इंडोर स्टेडियम की वजह से है। जहां कई तरह के खेलों, जैसे बैडमिंटन, तैराकी, टेबल टेनिस, कबड्डी इत्यादि की प्रतिस्पर्द्धाएं आयोजित की जाती हैं। इसके अलावा इसके परिसर में कई तरह के बागवानी से संबंधित और कल्चरल प्रोग्राम भी आयोजित होते रहते हैं। बच्चों को क्रिकेट के गुर सिखाने का भी इंतजाम है। आम पब्लिक के लिए यहां के शांत वातावरण में पिकनिक की भी सुविधा उपलब्ध है।







जैसा की इसके शिला लेख में उल्लेखित है, ऐसा माना जाता है कि उस प्राकृतिक ताल के बगल में दीवारों से घिरे एक बागीचे का निर्माण मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह (1719-1748) के शासन काल में करवाया गया था। आज इसकी ज्यादातर चारदीवारी गिर चुकी है। सिर्फ ऊँचे तल वाले हिस्से में ही कुछ अवशेष बचे हैं। जिसके कोनों में दो छतरीनुमा मंडप तथा एक-एक मेहराबदार द्वार बचा हुआ है। 




इसके अलावा इसकी पहचान उस जगह के रूप में भी की जाती है जब 1735 में यहां मराठों की सैनिक छावनी हुआ करती थी और इसी जगह 1738 में उन्होंने मुगल सेनाओं का सामना कर उनको शिकस्त दी थी।   


दिल्ली के बेहतरीन और खूबसूरत बगीचों में से एक, यह ऐतिहासिक मुग़ल कालीन उद्यान दिल्ली के विलिंग्डन क्रेसेंट, जिसे अब मदर टेरेसा मार्ग के नाम से जाना जाता है, पर स्थित है। इसका नामकरण पहले यहां स्थित कटोरे के प्राकृतिक आकार के सरोवर के कारण पड़ा था। सरोवर तो रहा नहीं पर नाम वैसे का वैसा ही चला आ रहा है। उस जगह अब एक आधुनिक तरण-ताल बना दिया गया है। दिल्ली रिज से जुड़े इस इलाके की देख-रेख का जिम्मा NDMC के पास है जो बखूबी अपने दायित्व को निभा रही है। इसका अंदाज उद्यान में प्रवेश करते ही मिल जाता है। इसके साफ़-सुथरे पथ, तरह-तरह के फूल-पौधे, रंग -बिरंगी लाइटों से सजे अनवरत पानी उछालते फव्वारे सहसा मन मोह लेते हैं। वसंत ऋतु में तो इसकी छटा ही निराली होती है। 



इतना सब होने के बावजूद कुछ ऐसा भी है जो इस जगह से जुडी हुई भयंकर, खतरनाक, अमानवीय यादों को जेहन में ला देता है। इसका पश्चिमी गुबंद सदा अपने को दोषी मान कर पछताता होगा, जब उसने कुख्यात अपराधियों रंगा और बिल्ला को अपने यहां शरण दी होगी। रिज का यह सुनसान इलाका और यहां के खंडहर ही उन कुकर्मी, वहशियों की शरणस्थली थे।   

शनिवार, 7 दिसंबर 2019

"फैंटम" के निवास की याद दिलाती, देहरादून की गुच्चुपानी गुफा

किसी किले जैसी दुर्गम बनावट वाली गहरी प्राकृतिक गुफा में दस मीटर की ऊंचाई से एक झरना गिरते हुए एक अद्भुत दृश्य की रचना करता है। इसे देख कर बचपन में पढ़ी कॉमिक्स में ''फैंटम'' और उसके निवास की याद आ जाती है, बीहड़ का वैसा ही रहस्यमयी वातावरण, उसी से मिलती-जुलती गुफा, वैसा ही झरना..............! 

#हिन्दी_ब्लागिंग  
गुच्चुपानी ! नाम सुन कर ऐसा लगता है जैसे गुपचुप यानी पानीपुरी के चटपटे पानी की बात हो रही हो। पर यह नाम है देहरादून के प्रसिद्ध पिकनिक स्पॉट का। मसूरी मार्ग पर देहरादून चिड़िया घर के पास, शहर से सात-आठ की.मी. की दूरी पर स्थित इस 650 मीटर, किले जैसी बनावट वाली गहरी प्राकृतिक गुफा में दस मीटर की ऊंचाई से एक झरना गिरते हुए एक अद्भुत दृश्य की रचना करता है। इसे देख कर बचपन में पढ़ी कॉमिक्स में ''फैंटम'' और उसके निवास की याद आ जाती है। इस जगह प्रकृति का एक अनोखा कारनामा भी घटित होता है जिसके तहत पानी की एक लहर उठती है और फिर गायब हो कुछ दूर जा कर फिर दिखने लगती है शायद इसी वजह से इसका नाम गुपचुप पानी पड़ा होगा जो समय के साथ बदल गुच्चुपानी हो गया होगा।



अंग्रेजों के समय में लुटेरे शासन से बचने के लिए इस जगह को खुद और अपने लूट के सामान को छिपाने के काम में लाते थे। इसके रास्तों का खतरनाक और बीहड़ होने के कारण वे पुलिस से बच निकलने में कामयाब हो जाते थे। इसीलिए इसे गुच्चुपानी के अलावा रॉबर्स केव यानी डाकुओं की गुफा के नाम से भी जाना जाता है। यह आज भी उतनी ही रहस्यमय है जितनी तब थी पर अब यह एक पर्यटन स्थल का रूप ले चुकी है जहां सैंकड़ों लोग रोज तफरीह करने आते हैं।





गाड़ियों के स्टैंड के पास पानी की धारा के साथ ही सीढ़ियों के साथ एक चबूतरा सा बना हुआ है जिसके आगे पानी में जूते ले जाने की मनाही है। वहीं से पानी में होते हुए करीब सौ मीटर की दूरी पर गुफा का प्रवेश मार्ग है। दूर से यह अहसास होता है कि सामने की पहाड़ियां जुडी हुई हैं, जबकि ऐसा नहीं है। उन्हीं के बीच से निकल उस झरने के अद्भुत दृश्य के दर्शन होते हैं। पानी में चलते हुए सावधानी आवश्यक है। छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े, फिसलन और जलीय जंतुओं का ध्यान रख कर बिना जल्दीबाजी के आगे बढ़ना ही ठीक रहता है। 



धीरे-धीरे यहां भी व्यवसायिकता अपने पैर पसारने लगी है जिसके तहत खाने-पीने की दुकानों के साथ-साथ किराए पर स्लीपर और कपडे भी मिलने लगे हैं। और तो और गीले कपडे बदलने के लिए ''बूथ'' जैसी जगहें भी किराए पर दी जाने लगी हैं। डर यही है कि कहीं सहस्त्र धारा की तरह ही इस जगह का प्राकृतिक सौंदर्य भी कहीं नष्ट ना कर दिया जाए।        

बुधवार, 4 दिसंबर 2019

वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून का अप्रतिम, बेजोड़ भवन

हमारे घटते प्राकृतिक संसाधनों, बढ़ते प्रदूषण, कम होती हरियाली और बढ़ते कंक्रीट के जंगलों का मुख्य कारण बेलगाम बढ़ती आबादी ही है। लोग बढ़ेंगे तो उनके लिए जगह भी चाहिए ! रोटी-पानी भी चाहिए ! गाडी-घोडा भी चाहिए ! और यह सब चाहिए तो फिर उपरोक्त कमियां तो सामने आएंगी ही ! पहले बड़े शहरों में ही दवाब नजर आता था, पर अब तो देश के छोटे शहर-कस्बे भी अछूते नहीं बचे हैं। मैदानों को तो छोड़ें, पर्वतीय इलाके भी अपनी नैसर्गिक सुंदरता खोने लगे हैं................!  

#हिन्दी_ब्लागिंग 
पिछले दिनों चिर लंबित लाखामंडल की यात्रा का मौका बन पाया तो ''बेस'' देहरादून को ही ठहराया। जब वहां रुकना था तो लाजिमी था कि शहर को भी देखा-परखा जाए ! पर कभी अपने सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध यह अर्ध-पहाड़ी शहर भी व्यावसायिकता के बाज़ार के लौह शिकंजों में जकड़ता जा रहा है। हर वह दर्शनीय स्थल जिसे देखने की अभिलाषा लिए पर्यटक यहां पहुंचते हैं उन्हें घोर निराशा ही होती है ! फिर चाहे वह सहस्त्र धारा हो, चाहे गुच्चूपानी हो या प्रकाशेश्वर मंदिर ! हर जगह अतिक्रमण और गंदगी का बोलबाला ! शहर के मर्म-स्थल घंटाघर या पल्टन बाजार की भीड़-भाड़, प्रदूषण, अफरा-तफरी, बेकाबू यातायात का जिक्र नाहीं किया जाए तो भला ! ऐसे में भी अभी वहां एक-दो जगहें ऐसी हैं, जहां जा कर दिल को सकून मिलता है। जिनमें एक धर्मस्थली, टपकेश्वर महादेव मंदिर और दूसरी कर्मस्थली, वन विभाग का रिसर्च इंस्टीट्यूट प्रमुख हैं। आज पहले FRI याने भारतीय वन अनुसंधान संस्थान की बात -



चांदबाग, आज जहां दून स्कुल है, वहां 1878 में अंग्रेजों द्वारा स्थापित ब्रिटिश इंपीरियल फॉरेस्ट स्कूल को 1906 में इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट का रूप प्रदान किया गया था। फिर 1923 में आज के विशाल भूखंड पर सी.जी. ब्लूमफील्ड द्वारा निर्मित एक नई ईमारत में 1929 में इसका स्थानांतरण कर दिया गया। जिसका उद्घाटन उस समय के वायसराय लॉर्ड इरविन द्वारा किया गया था। शहर के ह्रदय-स्थल से करीब सात की.मी. की दूरी पर देहरादून-चकराता मार्ग पर यह ग्रीको-रोमन वास्तुकला की शैली वाला भव्य, सुंदर, शानदार, अप्रतिम, बेजोड़ भवन अपना सर उठाए बिना प्रयास ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इसमें एक बॉटनिकल म्यूजियम भी है तरह-तरह के पेड़-पौधों की जानकारी प्रदान करता है। इसके लिए अलग से प्रवेश शुल्क लिया जाता है।



2000 एकड़ में फैला एफ.आर.आई. में 7 संग्रहालय और तिब्बत से लेकर सिंगापुर तक के तरह-तरह के पेड़-पौधे यहां पर संग्रहित हैं। इसका मुख्य भवन राष्ट्रीय विरासत घोषित किया जा चुका है। सबसे बड़े ईंटों से बने इस भवन का नाम एक बार गिनीज बुक में भी दर्ज हो चुका है। वन शोध के क्षेत्र में प्रसिद्ध, एशिया में अपनी तरह के इकलौते संस्थान के रूप में यह दुनिया भर में प्रख्यात है। इसीलिए इसे देहरादून की पहचान और गौरव के रूप में देखा जाता है। देहरादून आने वाला शायद ही कोई पर्यटक हो जो इसे देखने ना आता हो। हर रोज यहां सैंकड़ों दर्शकों का तांता लगा रहता है। उनकी सुविधा के लिए एक कैंटीन तथा उत्तराखंड के लिबासों की बिक्री के लिए एक छोटा सा शो रूम भी यहां उपलब्ध है।     

शनिवार, 16 नवंबर 2019

देहरादून का प्रकाशेश्वर महादेव मंदिर, जहां किसी भी तरह के चढ़ावे या दान की मनाही है

मंदिर में चढ़ावा तो प्रतिबंधित है, तो लगता है कि शायद आय की आपूर्ति के लिए संबंधित लोगों का सारा ध्यान मंदिर के बाहर और अंदर की दुकानों की बिक्री पर केंद्रित हो गया है ! नहीं तो चारों ओर फैलती गंदगी पर ध्यान न जाए ये तो असंभव सा ही है। इसके साथ ही एक और विडंबना भी दिखी कि दर्शनार्थ आने वाले भगत और श्रद्धालुगण सिर्फ किसी तरह कूड़े-पानी-गंदगी से बचते हुए अंदर जाने की जुगत में ही रहते हैं इस परेशानी को नजरंदाज करते हुए ! कभी-कभी मन में आता है कि क्या हमारे धर्मस्थलों की नियति ही है गंदा रहना ...............?

#हिन्दी_ब्लागिंग 
देहरादून दूसरा दिन ! जैसा की तय किया गया था, सुबह साढ़े नौ बजते-बजते शहर भ्रमण का दौर शुरू हो गया। सबसे पहले मसूरी रोड पर, घंटाघर से करीब बारह कि.मी. दूर. कुठाल गेट के पास सड़क के किनारे स्थित #प्रकाशेश्वर_महादेव_मंदिर पर रुकना हुआ। भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर देहरादून के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। हर रोज मंदिर को फूलों से सजाया जाता है। स्फटिक का शिवलिंग यहां का मुख्य आकर्षण है। यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां किसी भी तरह के चढ़ावे या दान की मनाही है। लाल और नारंगी  रंगों से सजे इस मंदिर की छत पर शिव जी के त्रिशूल सजे हुए हैं। मंदिर की दीवारों को लाल और नारंगी रंग में चित्रित किया गया है। आने वाले श्रद्धालुओं को दिन भर खीर का प्रसाद मिलता है। किसी शिव भक्त के द्वारा निर्मित इस मंदिर का इतिहास फिलहाल अज्ञात है। हालांकि मुख्य द्वार पर बंगला भाषा में सूचना पट पर एक "फरमान" जरूर लिखा हुआ है जिसमें किसी भी तरह के चढावे की मनाही का निर्देश दिया गया है। 

मंदिर के अंदर किसी पूजा सामग्री या मिठाई वगैरह की दूकान नहीं है। अलबत्ता मोती-रत्नों-रुद्राक्ष-माला वगैरह की बिक्री के लिए खासी बड़ी जगह घेर कर बिक्री की जाती है। उसी तरह मंदिर के प्रवेश द्वार के साथ ही खाने-पीने की दूकान खोल दी गयी है। वहीं एक बात और महसूस हुई कि मंदिर से जुड़े अधिकांश लोग तनावग्रस्त से लगे बाहर की दूकान पर उपस्थित सज्जन तो जैसे ग्राहकों पर एहसान सा कर रहे थे। सच कहूं तो किसी धर्मस्थल के अंदर जाते समय जो एक श्रद्धा की भावना उपजती उसका यहां तनिक अभाव सा लगा ! 

इस प्रसिद्ध मंदिर को देखने की लालसा लिए जैसे ही मंदिर के मुख्य द्वार के सामने उतरे वैसे ही मन खिन्नता से भर उठा। मुख्य द्वार के सामने ही दो बड़े-बड़े ऊपर तक कूड़े से भरे कूड़ा पात्र रखे हुए थे ! जिनके पूरे भरे होने की वजह से कूड़ा निकल-निकल कर मंदिर के अंदर-बाहर गंदगी फैला रहा था। मंदिर के अंदर भी एक कूड़ादान रखा हुआ था ! ऊपर से रही-सही कसर वहां घूमते बंदर पूरी कर रहे थे। दरवाजे पर ही एक नल भी लगा हुआ था जिसकी वजह से जूते उतारने की जगह भी गीली थी। कूड़ा और पानी दोनों मिल कर गंदगी का कहर ढा रहे थे। जबकि मंदिर के सामने जहां गाड़ियां खड़ी होती हैं वहां अफरात जगह है। वैसे भी मंदिर की काफी बड़ी जगह है, कूड़ेदान कहीं और भी बिना परेशानी रखे जा सकते हैं। 


उस समय तो संकोचवश किसी से कुछ नहीं कहा पर लौटते समय रहा ना गया ! श्रीमती जी की भी इच्छा थी एक बार और दर्शन करने की ! सो इस बार पुजारी जी से अति नम्रता से अपने मन की बात कही ! पहले तो वे मेरा मुंह ही देखते रह गए ! फिर उन्होंने सारा इल्जाम बंदरों पर थोप दिया ! जिस पर मैंने कहा कि चूँकि कूड़ादान ठीक दरवाजे पर मंदिर के सामने है तो बंदर तो आऐंगे ही और वे यहीं गंदगी फैलाएंगे, इसमें जानवरो का क्या कसूर है ? कूड़ादान को ही कहीं और रखा जाए तो ही बात बनेगी। मेरी बात कुछ समझ में आने पर उन्होंने मुझे प्रबंधक से बात करने को कहा। ये महोदय भी कुछ असमंजस में घिर गए ! बोले इस ओर ध्यान ही नहीं गया ! फिर आपकी बात पर जरूर कार्यवाही करेंगे, ये आश्वासन जरूर दिया। 


ये सब देख यही लगता है कि मंदिर में चढ़ावा तो प्रतिबंधित है, तो आय की आपूर्ति के लिए संबंधित लोगों का सारा ध्यान मंदिर के बाहर और अंदर की दुकानों की बिक्री पर केंद्रित हो गया है ! नहीं तो इतनी बड़ी बात पर ध्यान न जाए ये तो असंभव सा ही है। इसके साथ ही एक और विडंबना भी दिखी कि दर्शनार्थ आने वाले भगत और श्रद्धालुगण सिर्फ किसी तरह कूड़े-पानी-गंदगी से बचते हुए अंदर जाने की जुगत में ही रहते हैं इस परेशानी को नजरंदाज करते हुए ! कभी-कभी मन में आता है कि क्या हमारे धर्मस्थलों की नियति ही है गंदा रहना ? 

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