हमारे घटते प्राकृतिक संसाधनों, बढ़ते प्रदूषण, कम होती हरियाली और बढ़ते कंक्रीट के जंगलों का मुख्य कारण बेलगाम बढ़ती आबादी ही है। लोग बढ़ेंगे तो उनके लिए जगह भी चाहिए ! रोटी-पानी भी चाहिए ! गाडी-घोडा भी चाहिए ! और यह सब चाहिए तो फिर उपरोक्त कमियां तो सामने आएंगी ही ! पहले बड़े शहरों में ही दवाब नजर आता था, पर अब तो देश के छोटे शहर-कस्बे भी अछूते नहीं बचे हैं। मैदानों को तो छोड़ें, पर्वतीय इलाके भी अपनी नैसर्गिक सुंदरता खोने लगे हैं................!
#हिन्दी_ब्लागिंग
पिछले दिनों चिर लंबित लाखामंडल की यात्रा का मौका बन पाया तो ''बेस'' देहरादून को ही ठहराया। जब वहां रुकना था तो लाजिमी था कि शहर को भी देखा-परखा जाए ! पर कभी अपने सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध यह अर्ध-पहाड़ी शहर भी व्यावसायिकता के बाज़ार के लौह शिकंजों में जकड़ता जा रहा है। हर वह दर्शनीय स्थल जिसे देखने की अभिलाषा लिए पर्यटक यहां पहुंचते हैं उन्हें घोर निराशा ही होती है ! फिर चाहे वह सहस्त्र धारा हो, चाहे गुच्चूपानी हो या प्रकाशेश्वर मंदिर ! हर जगह अतिक्रमण और गंदगी का बोलबाला ! शहर के मर्म-स्थल घंटाघर या पल्टन बाजार की भीड़-भाड़, प्रदूषण, अफरा-तफरी, बेकाबू यातायात का जिक्र नाहीं किया जाए तो भला ! ऐसे में भी अभी वहां एक-दो जगहें ऐसी हैं, जहां जा कर दिल को सकून मिलता है। जिनमें एक धर्मस्थली, टपकेश्वर महादेव मंदिर और दूसरी कर्मस्थली, वन विभाग का रिसर्च इंस्टीट्यूट प्रमुख हैं। आज पहले FRI याने भारतीय वन अनुसंधान संस्थान की बात -
चांदबाग, आज जहां दून स्कुल है, वहां 1878 में अंग्रेजों द्वारा स्थापित ब्रिटिश इंपीरियल फॉरेस्ट स्कूल को 1906 में इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट का रूप प्रदान किया गया था। फिर 1923 में आज के विशाल भूखंड पर सी.जी. ब्लूमफील्ड द्वारा निर्मित एक नई ईमारत में 1929 में इसका स्थानांतरण कर दिया गया। जिसका उद्घाटन उस समय के वायसराय लॉर्ड इरविन द्वारा किया गया था। शहर के ह्रदय-स्थल से करीब सात की.मी. की दूरी पर देहरादून-चकराता मार्ग पर यह ग्रीको-रोमन वास्तुकला की शैली वाला भव्य, सुंदर, शानदार, अप्रतिम, बेजोड़ भवन अपना सर उठाए बिना प्रयास ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इसमें एक बॉटनिकल म्यूजियम भी है तरह-तरह के पेड़-पौधों की जानकारी प्रदान करता है। इसके लिए अलग से प्रवेश शुल्क लिया जाता है।
2000 एकड़ में फैला एफ.आर.आई. में 7 संग्रहालय और तिब्बत से लेकर सिंगापुर तक के तरह-तरह के पेड़-पौधे यहां पर संग्रहित हैं। इसका मुख्य भवन राष्ट्रीय विरासत घोषित किया जा चुका है। सबसे बड़े ईंटों से बने इस भवन का नाम एक बार गिनीज बुक में भी दर्ज हो चुका है। वन शोध के क्षेत्र में प्रसिद्ध, एशिया में अपनी तरह के इकलौते संस्थान के रूप में यह दुनिया भर में प्रख्यात है। इसीलिए इसे देहरादून की पहचान और गौरव के रूप में देखा जाता है। देहरादून आने वाला शायद ही कोई पर्यटक हो जो इसे देखने ना आता हो। हर रोज यहां सैंकड़ों दर्शकों का तांता लगा रहता है। उनकी सुविधा के लिए एक कैंटीन तथा उत्तराखंड के लिबासों की बिक्री के लिए एक छोटा सा शो रूम भी यहां उपलब्ध है।
8 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 04 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
यशोदा जी,
सम्मिलित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद
नमस्ते,
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरूवार 5 दिसंबर 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
रविंद्र जी
सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (05-12-2019) को "पत्थर रहा तराश" (चर्चा अंक-3541) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी,
हार्दिक आभार, रचना के चयन हेतु
देहरदून दर्शन बड़ा ही मनभावन हैं ,मुझे भी एक दो बार ये शहर देखने का मौका मिला हैं ,सादर नमन आप को
कामिनी जी
"कुछ अलग सा" पर सदा स्वागत है
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