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बुधवार, 1 नवंबर 2023

बाजार की गिद्ध दृष्टि एक मासूम से त्योहार पर

आज सोची-समझी साजिशों के तहत हमारे हर त्योहार, उत्सव, प्रथा को रूढ़िवादी, अंधविश्वास, पुरातनपंथी, दकियानूसी कह कर ख़त्म करने की कोशिशें हो रही हैं। रही सही कसर पूरी करने को "बाजार" उतारू है जिसने इस मासूम से त्योहार को भी एक फैशन का रूप देने के लिए कमर कस ली है। आज समय की जरुरत है कि हम अपने ऋषि-मुनियों, गुणी जनों द्वारा दी गयी सीखों  उपदेशों का सिर्फ शाब्दिक अर्थ ही न जाने उसमें छिपे गूढार्थ को समझने की कोशिश भी करें...............!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

करवा चौथ, हिंदू विवाहित महिलाओं का एक महत्वपूर्ण त्योहार। जिसमें पत्नियां अपने पति की लंबी उम्र के लिए दिन भर कठोर उपवास रखती हैं। यह खासकर उत्तर भारत में खासा लोकप्रिय पर्व है, वर्षों से मनता और मनाया जाता हुआ पति-पत्नी के रिश्तों के प्रेम के प्रतीक का एक त्योहार। सीधे-साधे तरीके से बिना किसी ताम-झाम के, बिना कुछ या जरा सा खर्च किए, सादगी से मिल-जुल कर मनाया जाने वाला एक छोटा सा उत्सव, जो कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है ! करवा उस मिटटी के पात्र को कहते हैं, जो इस व्रत का एक अहम हिस्सा है, इसमें पानी की निकासी के लिए एक टोंटी बनी होती है, व्रत पश्चात् करवे से ही चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है ! इसलिलिए दोनों को मिला कर करवाचौथ नामकरण हुआ !   

इसकी शुरुआत को पौराणिक काल से जोड़ा जाता रहा है। इसको लेकर कुछ कथाएं भी प्रचलित हैं। जिसमें सबसे लोकप्रिय रानी वीरांवती की कथा है जिसे पंडित लोग व्रती स्त्रियों को सुनवा, संध्या समय  जल ग्रहण करवाते हैं। इस गल्प में सात भाइयों की लाडली बहन वीरांवती का उल्लेख है जिसको कठोर व्रत से कष्ट होता देख भाई उसे धोखे से भोजन करवा देते हैं जिससे उसके पति पर विपत्ति आ जाती है और वह माता गौरी की कृपा से फिर उसे सकुशल वापस पा लेती है। महाभारत में भी इस व्रत का उल्लेख मिलता है जब द्रौपदी पांडवों की मुसीबत दूर करने के लिए शिव-पार्वती के मार्ग-दर्शन में इस व्रत को कर पांडवों को मुश्किल से निकाल चिंता मुक्त करवाती है।  कहीं-कहीं सत्यवान और सावित्री की कथा में भी इस व्रत को सावित्री द्वारा संपंन्न होते कहा गया है जिससे प्रभावित हो यमराज सत्यवान को प्राणदान करते हैं। ऐसी ही एक और कथा करवा नामक स्त्री की  भी है जिसका पति नहाते वक्त नदी में घड़ियाल का शिकार हो जाता है और बहादुर करवा घड़ियाल को यमराज के द्वार में ले जाकर दंड दिलवाती है और अपनें पति को वापस पाती है।

कहानी चाहे जब की हो और जैसी भी हो हर कहानी में एक बात प्रमुखता से दिखलाई पड़ती है कि स्त्री, पुरुष से ज्यादा धैर्यवान, सहिष्णु, सक्षम, विपत्तियों का डट कर सामना करने वाली, अपने हक़ के लिए सर्वोच्च सत्ता से भी टकरा जाने वाली होती है। जब कि पुरुष या पति को सदा उसकी सहायता की आवश्यकता पड़ती रहती है।उसके मुश्किल में पड़ने पर उसकी पत्नी अनेकों कष्ट सह, उसकी मदद कर, येन-केन-प्रकारेण उसे मुसीबतों से छुटकारा दिलाती है। हाँ इस बात को कुछ अतिरेक के साथ जरूर बयान किया गया है। वैसे भी यह व्रत - त्योहार  प्राचीन काल से चले आ रहे हैं, जब महिलाएं घर संभालती थीं और पुरुषों पर उपार्जन की जिम्मेवारी होती थी।पर आज इसे  कुछ तथाकथित आधुनिक नर-नारियों द्वारा पिछडे तथा दकियानूसी त्योहार की संज्ञा दे दी गयी है।  

आज कल आयातित कल्चर, विदेशी सोच तथा तथाकथित आधुनिकता के हिमायती कुछ लोगों को महिलाओं का दिन भर उपवासित रहना उनका उत्पीडन लगता है। उनके अनुसार यह पुरुष  प्रधान समाज द्वारा महिलाओं को कमतर आंकने का बहाना है। अक्सर उनका सवाल रहता है कि पुरुष क्यों नहीं अपनी पत्नी के लिए व्रत रखते ? ऐसा कहने वालों को शायद व्रत का अर्थ सिर्फ भोजन ना करना ही मालुम है। जब कि कहानियों में व्रत अपने प्रियजनों को सुरक्षित रखने, उनकी अनिष्ट से रक्षा करने की मंशा का सांकेतिक रूप भर है। यह तो  इस तरह के लोग एक तरह से अपनी नासमझी से महिलाओं की भावनाओं का अपमान ही करते हैं। उनके प्रेम, समर्पण, चाहत को कम कर आंकते हैं और जाने-अनजाने महिला और पुरुष के बीच गलतफहमी की खाई को पाटने के बजाए और गहरा करने में सहायक होते हैं। वैसे देखा जाए तो पुरुष द्वारा घर-परिवार की देख-भाल, भरण-पोषण भी एक तरह का व्रत ही तो है जो वह आजीवन निभाता है ! आज समय बदल गया है, पहले की तरह अब महिलाएं घर के अंदर तक ही सिमित नहीं रह गई हैं। पर इससे उनके अंदर के प्रेमिल भाव, करुणा, परिवार की मंगलकामना जैसे भाव खत्म नहीं हुए हैं।

आज सोची-समझी साजिशों के तहत हमारे हर त्योहार, उत्सव, प्रथा को रूढ़िवादी, अंधविश्वास, पुरातनपंथी, दकियानूसी कह कर ख़त्म करने की कोशिशें हो रही हैं। रही सही कसर पूरी करने को "बाजार" उतारू है ! उसे तो सिर्फ अपने लाभ से मतलब होता है। उसने महिलाओं की दशा को भांपा और उनकी भावनाओं को ''कैश'' करना शुरू कर दिया। देखते-देखते साधारण सी चूडी, बिंदी, टिकली, धागे सब "डिजायनर" होते चले गए। दो-तीन-पांच रुपये की चीजों की कीमत 100-150-200 रुपये हो गई। अब सीधी-सादी प्लेट या थाली से काम नहीं चलता, उसे सजाने की अच्छी खासी कीमत वसूली जाने लगी ! कुछ घरानों में छननी से चांद को देखने की प्रथा घर में उपलब्ध छननी से पूरी कर ली जाती थी पर अब उसे भी बाजार ने साज-संवार, दस गुनी कीमत कर, आधुनिक रूप दे, महिलाओं के लिए आवश्यक बना डाला। चाहे फिर वह साल भर या सदा के लिए उपेक्षित घर के किसी कोने में ही पडी रहे। पहले शगन के तौर पर हाथों में मेंहदी खुद ही लगा ली जाती थी या आस-पडोस की महिलाएं एक-दूसरे की सहायता कर देती थीं, पर आज यह लाखों का व्यापार बन चुका है। उसे भी पैशन और फैशन बना दिया गया है ! कल के एक घरेलू, आत्म केन्द्रित, सरल, मासूम से उत्सव, एक आस्था, को खिलवाड का रूप दे दिया गया। करोड़ों की आमदनी का जरिया बना दिया गया ! आज समय की जरुरत है कि हम अपने ऋषि-मुनियों, गुणी जनों द्वारा दी गयी सीखों, उपदेशों का सिर्फ शाब्दिक अर्थ ही न जाने, उसमें छिपे गूढार्थ को समझने की कोशिश भी करें।   
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@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से   

गुरुवार, 5 अगस्त 2021

छाता-छतरी-अम्ब्रेला

बरसात का मौसम है ! ऐसे में छातों के बारे में बात ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता ! हालांकि बारिश से बचाव के लिए बरसाती  यानी  रेन कोट भी उपलब्ध है, पर छाते का  रोमांस ही  कुछ अलग होता है ! सबसे ज्यादा सुंदर, कलात्मक और  आधुनिक छाते चीन में बनाए जाते हैं जहां इसको  बनाने वाले हजारों कारखाने दिन-रात काम करते हैं. पर इसकी इसकी बिक्री में अमेरिका सबसे आगे है जहां लाखों छाते हर साल खरीदे-बेचे जाते हैं ! हमारे यहां बंगाल में बंगाली भद्र लोक का इस मौसम में छाता अभिन्न अंग होता है............! 

#हिन्दी_ब्लागिंग 

काफी इंतजार करवाने के बाद दिल्ली में बरखा रानी मेहरबान हुई हैं। अब जब वह अपना जलवा बिखेर रही है तो हमें अपनी  बरसातियां, छाते याद आने लगे हैं।  बरसातियां तो  खैर बहुत बाद में मैदान में आईं, पर छाते तो सैंकड़ों सालों से हम पर छाते रहे हैं। छाता, जिसे दुनिया में ज्यादातर  "Umbrella"  के नाम से जाना जाता है, उसे यह नाम लैटिन भाषा के  "Umbros"  शब्द, जिसका अर्थ छाया होता है, से मिला है।  समय के साथ  इसका चलन कुछ कम जरूर हुआ है। क्योंकि पहले ज्यादातर लोग पैदल आना-जाना किया करते थे ! तब धूप और बरसात में इसकी सख्त जरुरत महसूस होती थी।  पर फिर बरसातियों के आगमन से या कहिए कि मोटर गाड़ियों की सर्वसुलभता के कारण इसकी पूछ परख कुछ कम हो गयी।  वैसे मौसम साफ होने पर यह एक भार स्वरूप भी तो लगने लगता था। फिर भी हजारों सालों से यह हमारी आवश्यकताओं में शामिल रहने के लिए जी-तोड़ कोशिश करता रहा और इसमें सफल भी रहा ही है।

      


खोजकर्ताओं  का मानना  है कि मानव ने आदिकाल से ही अपने  को तेज धूप से बचाने  के लिए वृक्षों के  बड़े-बड़े पत्तों इत्यादि का उपयोग करना शुरू कर दिया होगा। आज के छाते के पर-पितामह का जन्म कब हुआ यह कहना कठिन है, फिर भी जो जानकारी मिलती है, वह हमें 4000 साल पहले तक ले जाती है। उस समय छाते सत्ता और धनबल के प्रतीक हुआ करते थे और राजा-महाराजाओं की शान बढ़ाने का काम करते थे। शासकों और धर्मगुरुओं के लिए छत्र एक अहम जरूरत हुआ करती थी। धीरे-धीरे इसे आम लोगों ने भी अपनाना शुरू कर दिया। 
ऐसा माना जाता है कि सबसे पहले चीन ने करीब तीन हजार साल पहले पानी से बचाव के लिए जलरोधी छतरी बनाई थी ! फिर समय के साथ-साथ छोटे छातों का चलन शुरू हुआ तो उसमें भी फैशन ने घुस-पैठ कर ली, खासकर  ग्रीस और रोम की महिलाओं के छातों में, जो उनके लिए एक जरूरी वस्तु का रूप इख्तियार करती चली जा रही थी. उस समय छाते को महिलाओं के फैशन की वस्तु ही समझा जाता था. ऎसी मान्यता है कि किसी पुरुष द्वारा सार्वजनिक स्थान पर सबसे पहले इसका उपयोग अंग्रेज पर्यटक और मानवतावादी "जोनास हानवे" ने करना आरंभ किया था. जिसकी देखा-देखी अन्य लोगों ने भी पहले इंग्लैण्ड और बाद में सारे संसार में इसका उपयोग करना शुरू कर दिया।    
 

लोगों की पसंद और इसकी उपयोगिता को देखते हुए इस पर तरह-तरह के प्रयोग भी होने शुरू हो गए । इसका रंग-रूपबदलने लगा। इसके कई तरह के "फोल्डिंग" प्रकार भी बाजार में छा गए, जिनका आविष्कार 1969 में हुआ।  इसकी यंत्र-रचना और इसमें उपयोग होने वाली चीजों में सुधार तथा बदलाव आने लगा।  सबसे ज्यादा ध्यान इसके कपडे पर दिया गया जिसे आजकल टेफ्लॉन की परत चढ़ा कर काम में लाया जाता है, जिससे कपड़ा पूर्णतया जल-रोधी हो जाता है।
   
धीरे-धीरे छाता जरुरत के साथ-साथ फैशन की चीज भी बनता चला गया। आजकल इसके विभिन्न रूप यथा पारम्परिक, स्वचालित, फोल्डिंग, क्रच  (जिसे चलते समय छड़ी की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है) इत्यादि,  तरह-तरह के आकारों तथा रंगों में उपलब्ध हैं । इसके  साथ ही इसका  उपयोग  नाना प्रकार के अन्य  कार्यों जैसे  फोटोग्राफी,  सजावट या किसी  वस्तु की तरफ ध्यान आकर्षित करवाने के लिए भी किया जाने लगा है ! सबसे ज्यादा सुंदर, कलात्मक और आधुनिक छाते चीन में बनाए जाते हैं जहां इसको बनाने वाले हजारों कारखाने दिन-रात काम करते हैं. पर  इसकी बिक्री में अमेरिका सबसे आगे है. जहां लाखों छाते हर साल खरीदे-बेचे जाते हैं। अब तो उमस से राहत देने के लिए छोटे पंखे और अँधेरे से बचाव के लिए एल.ई.डी. बल्ब  वाले छाते भी बाजार में उपलब्ध हैं !

     
अपने यहां छाते की लोकप्रियता बंगाल में 80 के दशक तक चरम पर थी, जब दफ्तर जाते समय बंगाली बाबू यानी भद्रलोक के पास एक थैले, छाते और अखबार का होना निश्चित सा होता था।   

@ चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

सब का अपना चेहरा है और अपनी नजर है ! सानूं की !!

इसी कड़ी में अगला नाम आता है, राहुल गांधी का  ! राजनीति को परे कर बात की जाए तो इनके मुख पर भी मासूमियत की छाप थी। अच्छा-खासा हसमुख चेहरा। आकर्षक व्यक्तित्व। उम्र की कलम भी कोई ख़ास असर नहीं डाल पा रही थी। कैमरे के सामने एक जिंदादिल व खुशगवार उपस्थिति दर्ज करवाने वाले इंसान ने अचानक पता नहीं किस ''हितैषी'' की सलाह पर अपने पर बदलाव का प्रयोग कर डाला। अजीब सा केश-विन्यास, ओढ़ी हुई सी गंभीरता, अलग सी पोषाक, उदास सा मुखमंडल, परिपक्वता कम अस्वस्थ होने का आभास ज्यादा देता है...........................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
पुराने किस्से कहानियों में वर्णित ''गैजेट्स'', ''ट्रिक्स'', ''अजूबे'', ''कलाऐं'' जैसी रहस्यमयी, अज्ञान की चिलमन से ढकी हैरतंगेज बातों को विज्ञान ने काले परदे के पीछे से उठा-उठा कर सामने ला एक साधारण सी आम जानकारी बना कर रख दिया है। उसी विधाओं में एक है, भेष या रूप-रंग बदलना। आज की जुबान में इसे प्लास्टिक सर्जरी या मेकओवर कहा जा सकता है। जो ईश्वर प्रदत्त रूप-रंग, बनावट आदि को बदलने के लिए किया जाता है। वर्तमान में यह शो बिजनेस या अवाम से नजदीकियां रखने वालों में ज्यादा प्रचलित है। प्लास्टिक सर्जरी खतरनाक, दुष्प्रणामित व मंहगी होने के बावजूद महिलाओं में खासी लोकप्रिय है। पुरुष भी इसे अपनाने में बहुत पीछे नहीं हैं, पर ज्यादातर अपने चेहरे का मेक-ओवर करवा संतुष्ट हो जाते हैं। वैसे तो अपने को बेहतर दिखाने के लिए हजारों लोगों ने इसे अपनाया है पर आज सिर्फ तीन-चार लोगों की बात। 
शेखर सुमन - का नाम सबसे पहले इस क्रम में लिया जा सकता है। जिन्होंने अपनी उम्र को वास्तव में कम ''दिखलवाने'' में काफी सफलता पाई। प्रयोग सफल भी रहा और अच्छा भी लगा। ऐसा करवाने वाली पहली बीस हस्तियों में शायद वे अकेले पुरुष हैं। पर अगले तीन प्राणी पता नहीं क्या सोच कर क्या बन गए !

शाहिद कपूर - भोला-भाला, मासूमियत भरा प्यारा सा चेहरा ! सिने-दर्शकों को पसंद भी था ! फ़िल्में सफल भी हो रही थीं। पर पता नहीं बंदे को क्या सूझी ! ''ही मैन'' रफ-टफ दिखने के चक्कर में अपना व्यक्तित्व ऐसा बदलवाया कि मरीज सा दिखने लगा। अरे भई ! ज्यादा पीछे न जा कर, अशोक कुमार से ले कर अभी तक के आयुष्मान जैसे सफल कलाकारों को ही देख लेते ! सैकड़ों या कहो, तक़रीबन सारे नायक ऐसे ही हुए हैं जिन्होंने बिना कुदरत की रचना में फेर-बदल कर अपनी मेहनत के दम पर अपार सफलता पाई। उनकी बिना मार-कुटाई वाली फ़िल्में भी बहुत सफल रहीं।
ऋतिक रौशन -  सुंदर, स्मार्ट, हर दृष्टि से कसौटी पर खरा ! पुरुषोचित सुंदरता के चलते ग्रीक गॉड कहलवाने वाले इस अभिनेता ने भी अपना कुछ ऐसा काया-कल्प करवाया, जो रफ-टफ भले ही लगे सुंदर तो कतई नहीं लगता ! अब सुंदरता की परिभाषा अलग-अलग हो सकती है। हो सकता हो विदेशी फिल्मों की चाह और वहां के उम्रदराज नायकों की तर्ज पर इन्होंने ऐसा बदलाव करवा लिया हो ! पर वहां और यहां में फर्क भी तो है ! फिर भी औरों से ठीक है, उम्र का भी तो असर पड़ता ही है। 

राहुल गांधी - इस कड़ी में अगला नाम ! राजनीति को परे कर बात की जाए तो इनके मुख पर भी मासूमियत की छाप थी। अच्छा-खासा हसमुख चेहरा। आकर्षक व्यक्तित्व। उम्र की कलम भी कोई ख़ास असर नहीं डाल पा रही थी। कैमरे के सामने एक जिंदादिल व खुशगवार उपस्थिति दर्ज करवाने वाले इंसान ने अचानक पता नहीं किस ''हितैषी'' की सलाह पर अपने पर बदलाव का प्रयोग कर डाला। अजीब सा केश-विन्यास, ओढ़ी हुई सी गंभीरता, अलग सी पोषाक, उदास सा मुखमंडल, परिपक्वता कम अस्वस्थ होने का आभास ज्यादा देता है।  
अब जब हम जैसे आम इंसानों को यह बदलाव कुछ अजीब से लगते हैं तो सोचने की बात है कि जिन पर यह सब प्रयोग किए गए उनको क्यों नहीं इस बात का एहसास होता। अवाम के सामने आना है ! उस पर अपना प्रभाव डालना है ! उसको आकर्षित करना है ! लुभाना है तो अपना रूप-रंग भी तो लुभावना होना चाहिए ! इस मामले में राजीव गांधी जी का उदाहरण आदर्श है। खैर सबका अपना-अपना ख्याल है ! अपना-अपना नजरिया है ! अपना-अपना ख्वाब है ! अपना ही चेहरा है और अपनी ही नजर है ! सानूं की !!

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