आज सोची-समझी साजिशों के तहत हमारे हर त्योहार, उत्सव, प्रथा को रूढ़िवादी, अंधविश्वास, पुरातनपंथी, दकियानूसी कह कर ख़त्म करने की कोशिशें हो रही हैं। रही सही कसर पूरी करने को "बाजार" उतारू है जिसने इस मासूम से त्योहार को भी एक फैशन का रूप देने के लिए कमर कस ली है। आज समय की जरुरत है कि हम अपने ऋषि-मुनियों, गुणी जनों द्वारा दी गयी सीखों उपदेशों का सिर्फ शाब्दिक अर्थ ही न जाने उसमें छिपे गूढार्थ को समझने की कोशिश भी करें...............!
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करवा चौथ, हिंदू विवाहित महिलाओं का एक महत्वपूर्ण त्योहार। जिसमें पत्नियां अपने पति की लंबी उम्र के लिए दिन भर कठोर उपवास रखती हैं। यह खासकर उत्तर भारत में खासा लोकप्रिय पर्व है, वर्षों से मनता और मनाया जाता हुआ पति-पत्नी के रिश्तों के प्रेम के प्रतीक का एक त्योहार। सीधे-साधे तरीके से बिना किसी ताम-झाम के, बिना कुछ या जरा सा खर्च किए, सादगी से मिल-जुल कर मनाया जाने वाला एक छोटा सा उत्सव, जो कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है ! करवा उस मिटटी के पात्र को कहते हैं, जो इस व्रत का एक अहम हिस्सा है, इसमें पानी की निकासी के लिए एक टोंटी बनी होती है, व्रत पश्चात् करवे से ही चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है ! इसलिलिए दोनों को मिला कर करवाचौथ नामकरण हुआ !
इसकी शुरुआत को पौराणिक काल से जोड़ा जाता रहा है। इसको लेकर कुछ कथाएं भी प्रचलित हैं। जिसमें सबसे लोकप्रिय रानी वीरांवती की कथा है जिसे पंडित लोग व्रती स्त्रियों को सुनवा, संध्या समय जल ग्रहण करवाते हैं। इस गल्प में सात भाइयों की लाडली बहन वीरांवती का उल्लेख है जिसको कठोर व्रत से कष्ट होता देख भाई उसे धोखे से भोजन करवा देते हैं जिससे उसके पति पर विपत्ति आ जाती है और वह माता गौरी की कृपा से फिर उसे सकुशल वापस पा लेती है। महाभारत में भी इस व्रत का उल्लेख मिलता है जब द्रौपदी पांडवों की मुसीबत दूर करने के लिए शिव-पार्वती के मार्ग-दर्शन में इस व्रत को कर पांडवों को मुश्किल से निकाल चिंता मुक्त करवाती है। कहीं-कहीं सत्यवान और सावित्री की कथा में भी इस व्रत को सावित्री द्वारा संपंन्न होते कहा गया है जिससे प्रभावित हो यमराज सत्यवान को प्राणदान करते हैं। ऐसी ही एक और कथा करवा नामक स्त्री की भी है जिसका पति नहाते वक्त नदी में घड़ियाल का शिकार हो जाता है और बहादुर करवा घड़ियाल को यमराज के द्वार में ले जाकर दंड दिलवाती है और अपनें पति को वापस पाती है।
कहानी चाहे जब की हो और जैसी भी हो हर कहानी में एक बात प्रमुखता से दिखलाई पड़ती है कि स्त्री, पुरुष से ज्यादा धैर्यवान, सहिष्णु, सक्षम, विपत्तियों का डट कर सामना करने वाली, अपने हक़ के लिए सर्वोच्च सत्ता से भी टकरा जाने वाली होती है। जब कि पुरुष या पति को सदा उसकी सहायता की आवश्यकता पड़ती रहती है।उसके मुश्किल में पड़ने पर उसकी पत्नी अनेकों कष्ट सह, उसकी मदद कर, येन-केन-प्रकारेण उसे मुसीबतों से छुटकारा दिलाती है। हाँ इस बात को कुछ अतिरेक के साथ जरूर बयान किया गया है। वैसे भी यह व्रत - त्योहार प्राचीन काल से चले आ रहे हैं, जब महिलाएं घर संभालती थीं और पुरुषों पर उपार्जन की जिम्मेवारी होती थी।पर आज इसे कुछ तथाकथित आधुनिक नर-नारियों द्वारा पिछडे तथा दकियानूसी त्योहार की संज्ञा दे दी गयी है।
आज कल आयातित कल्चर, विदेशी सोच तथा तथाकथित आधुनिकता के हिमायती कुछ लोगों को महिलाओं का दिन भर उपवासित रहना उनका उत्पीडन लगता है। उनके अनुसार यह पुरुष प्रधान समाज द्वारा महिलाओं को कमतर आंकने का बहाना है। अक्सर उनका सवाल रहता है कि पुरुष क्यों नहीं अपनी पत्नी के लिए व्रत रखते ? ऐसा कहने वालों को शायद व्रत का अर्थ सिर्फ भोजन ना करना ही मालुम है। जब कि कहानियों में व्रत अपने प्रियजनों को सुरक्षित रखने, उनकी अनिष्ट से रक्षा करने की मंशा का सांकेतिक रूप भर है। यह तो इस तरह के लोग एक तरह से अपनी नासमझी से महिलाओं की भावनाओं का अपमान ही करते हैं। उनके प्रेम, समर्पण, चाहत को कम कर आंकते हैं और जाने-अनजाने महिला और पुरुष के बीच गलतफहमी की खाई को पाटने के बजाए और गहरा करने में सहायक होते हैं। वैसे देखा जाए तो पुरुष द्वारा घर-परिवार की देख-भाल, भरण-पोषण भी एक तरह का व्रत ही तो है जो वह आजीवन निभाता है ! आज समय बदल गया है, पहले की तरह अब महिलाएं घर के अंदर तक ही सिमित नहीं रह गई हैं। पर इससे उनके अंदर के प्रेमिल भाव, करुणा, परिवार की मंगलकामना जैसे भाव खत्म नहीं हुए हैं।
आज सोची-समझी साजिशों के तहत हमारे हर त्योहार, उत्सव, प्रथा को रूढ़िवादी, अंधविश्वास, पुरातनपंथी, दकियानूसी कह कर ख़त्म करने की कोशिशें हो रही हैं। रही सही कसर पूरी करने को "बाजार" उतारू है ! उसे तो सिर्फ अपने लाभ से मतलब होता है। उसने महिलाओं की दशा को भांपा और उनकी भावनाओं को ''कैश'' करना शुरू कर दिया। देखते-देखते साधारण सी चूडी, बिंदी, टिकली, धागे सब "डिजायनर" होते चले गए। दो-तीन-पांच रुपये की चीजों की कीमत 100-150-200 रुपये हो गई। अब सीधी-सादी प्लेट या थाली से काम नहीं चलता, उसे सजाने की अच्छी खासी कीमत वसूली जाने लगी ! कुछ घरानों में छननी से चांद को देखने की प्रथा घर में उपलब्ध छननी से पूरी कर ली जाती थी पर अब उसे भी बाजार ने साज-संवार, दस गुनी कीमत कर, आधुनिक रूप दे, महिलाओं के लिए आवश्यक बना डाला। चाहे फिर वह साल भर या सदा के लिए उपेक्षित घर के किसी कोने में ही पडी रहे। पहले शगन के तौर पर हाथों में मेंहदी खुद ही लगा ली जाती थी या आस-पडोस की महिलाएं एक-दूसरे की सहायता कर देती थीं, पर आज यह लाखों का व्यापार बन चुका है। उसे भी पैशन और फैशन बना दिया गया है ! कल के एक घरेलू, आत्म केन्द्रित, सरल, मासूम से उत्सव, एक आस्था, को खिलवाड का रूप दे दिया गया। करोड़ों की आमदनी का जरिया बना दिया गया ! आज समय की जरुरत है कि हम अपने ऋषि-मुनियों, गुणी जनों द्वारा दी गयी सीखों, उपदेशों का सिर्फ शाब्दिक अर्थ ही न जाने, उसमें छिपे गूढार्थ को समझने की कोशिश भी करें।
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@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से
11 टिप्पणियां:
सटीक
सुन्दर प्रस्तुति
व्याख्यात्मक सटीक लेख।ा
यथार्थ
आभार सुशील जी 🙏
रवीन्द्र जी,
सम्मिलित करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद 🙏
हरीश जी,
अनेकानेक धन्यवाद 🙏
कुसुम जी,
हार्दिक आभार आपका 🙏
ज्योत्स्ना जी,
सदा स्वागत है आपका 🙏
सार्थक एवं चिंतनपरक लेख
हार्दिक आभार मनोज जी🙏🏻
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