दूसरी ओर बेचारे असुर पैदल, दौड़ते-भागते रह कर ही युद्ध लड़ने को मजबूर थे। उनमें कोई बड़ा ओहदेदार हुआ तो उसे स्वचालित रथ वगैरह मिल जाते थे। अब यदि आज जैसी कोई संस्था होती तो सारे पशु-पक्षियों को भार मुक्त कर दिया जाता ! लड़ाईयां बराबरी पर लड़ी जातीं । सभी जानते हैं कि अधिकतम बार असुर, सुरों पर भारी पड़ते रहते थे ! तब देवताओं की तो बोलती बंद होती और असुरों की तूती का शोर मचा होता। किस्से-कहानियां, कथाएं-ग्रंथ सब, प्रथानुसार विजेता का ही स्तुति गान करते और हम सब भी अपने उन्हीं पूर्वजों का गुण-गान कर गौरवान्वित होते रहते..........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
जरा सोचिए, यदि एनिमल वेलफेयर एसोसिएशन या पशु-पक्षी संरक्षण समिति जैसी संस्थाएं पौराणिक काल में ही अस्तित्व में आ जातीं तो इस संसार की तो छोड़िए हमारे देश का परिदृष्य कैसा होता ? हमारे दोनों महान ग्रंथों की कथाएं कैसी होतीं ? वे लिखे भी जा पाते या नहीं ? इनके लेखकों को अभिव्यक्ति की कितनी भी आजादी होती पर क्या वे स्वतंत्र रूप से कुछ रच भी पाते ? जरा सोचिए ! यदि ऐसा हो गया होता तो आज हम क्या पढ़ रहे होते ? पता नहीं पढ़ भी रहे होते कि नहीं !
रामायण काल की बात करें तो शायद आज हम राक्षसराज रावण की पूजा कर रहे होते। क्योंकि महर्षि वाल्मिकी हिरण जैसे मासूम जीव का वध करवा नहीं पाते ! जब हिरण वध के लिए राम आश्रम छोड़ते ही नहीं तो सीता हरण हो ही नहीं पाता ! और जब सीता हरण ही नहीं होता तो फिर युद्ध किस बात का ? यदि युद्ध का कोई और बहाना खोजा जाता तो रामजी सेना कहाँ से लाते ? वानर, भालुओं की सेना तो बनने नहीं दी जाती। हनुमानजी किसी भी तरह साथ हो भी लेते तो उन बेचारे को तो तरह-तरह के आरोपों से परेशान कर दिया जाता ! सोच कर देखिए, उत्तरांचल के लोग संजीवनी के लिए द्रोणगिरी पर्वत हटाने के कारण उनसे आज तक खफा हैं। वैसा कुछ होता तो क्या होता ! लंका की अशोक वाटिका में हजारों पेड़-पौधों के तहस नहस करने का हिसाब साफ़ करने के लिए पता नहीं कितनी सफाई देनी पड़ती ! मान लीजिए यदि किसी भी तरह यदि सेना बन भी जाती तो सेतु-बंध के नाम पर सागर किनारे की पहाड़ियों के पत्थर सागर में डाल कर वहां की भूमि का समतलीकरण कर दिया गया ! हजारों-लाखों वृक्ष, पेड़ उखड़ने से वहाँ के पर्यावरण पर जो असर पड़ा, इतने सारे वृक्ष, पेड़, पौधे, पर्वत शिलाओं को सागर में फेंकने से जो प्रकृति का संतुलन बिगड़ा, उसका तो जांच आयोग के सामने जवाब देना मुश्किल हो जाता कि इसका जवाबदार कौन है ? क्या लगता है कि इन सब पचड़ों के बीच युद्ध हो पाता ? और अगर वह महासमर ना होता तो कल्पना की ही जा सकती है रावण के साम्राज्य की।
उधर यदि बात करें श्री कृष्ण जी की तो उन्होंने तो बचपन में ही अनगिनत खतरनाक लुप्तप्राय जीवों को दूसरे लोक भेजने में अहम् भूमिका निभाई थी। यदि उनको संरक्षण मिल गया होता तो आज हमारे यहां दानवी शक्तियों का ही बोल-बाला होता। हमारे धर्म-ग्रन्थों की तस्वीर तो कुछ अलग होती ही, शायद धरा पर असुरों का ही राज होता। क्योंकि सारे देवी-देवताओं ने अपने वाहनों के रूप में पशु-पक्षियों को ही प्रमुखता दे रखी है। तीनों महाशक्तियों को देखिए, शिवजी के परिवार में, बैल शंकरजी का वाहन है, मां पार्वती का वाहन सिंह है, कार्तिकेयजी मोर पर सवार हैं तो गणेशजी को चूहा पसंद है। विष्णुजी का भार गरुड़जी उठाते हैं तो मां लक्ष्मी की सवारी उल्लू है। ब्रह्माजी तथा मां सरस्वती हंस पर आते-जाते हैं। इंद्र को हाथी प्यारा है तो सूर्यदेव ने सात-सात घोड़े अपने रथ में जोड़ रखे हैं। कहां तक गिनायेंगे।
दूसरी ओर बेचारे असुर पैदल, दौड़ते-भागते रह कर ही युद्ध लड़ने को मजबूर थे। उनमें कोई बड़ा ओहदेदार हुआ तो उसे स्वचालित रथ वगैरह मिल जाते थे। अब यदि आज जैसी कोई संस्था होती तो सारे पशु-पक्षियों को भार मुक्त कर दिया जाता ! लड़ाईयां बराबरी पर लड़ी जातीं । सभी जानते हैं कि अधिकतम बार असुर, सुरों पर भारी पड़ते रहते थे ! तब देवताओं की तो बोलती बंद होती और असुरों की तूती का शोर मचा होता। किस्से-कहानियां, कथाएं-ग्रंथ सब, प्रथानुसार विजेता का ही स्तुति गान करते और हम सब भी अपने उन्हीं पूर्वजों का गुण-गान कर गौरवान्वित होते रहते !
2 टिप्पणियां:
शायद आज हम राक्षसराज रावण की पूजा कर रहे होते। शर्मा जी हम आज रावण की ही तो पुजा कर रहै है, सभी राज्यो मे कितने रावाण हे दिल्ली का नाम तो लकां ही रख देना चाहिये, हम इन रावणॊ को हर पांच साल बाद अपना खुन पीने के लिये आम्त्रित करते है, यह भी तो एक रावण पुजा है, इन रावणो के आगए गिड्गिडाते है, जेसे रामलीला मेदान मे रावण का पुतला देखने जाते है, जब यह रावण भी आते है तो हम सब कितनी ऊत्सुकता से इन की एक झलक देखने के लिये तडपते है.
धन्यवाद
Satya kah rahe hai, es post ko padh kar main es chintan par bhi akagra hua. Aabhar.
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