शुक्रवार, 29 मई 2020

वे भी मेरी निष्पक्षता और मंतव्य को समझते थे।

आजकल लॉकडाउन में बिटिया ऋद्धिमा, पुत्रवधु, जिसे घर में रिद्धि या रिद्दु कह कर ही बुलाते हैं, अक्सर कुछ नया व्यंजन बना उसे ''लॉक'' कर, मेरी राय जानना चाहती है ! उस पदार्थ का उसके हाथों पहली बार धरा पर अवतरण होने के कारण उसकी ऐसी जिज्ञासा का होना स्वाभाविक भी है ! जब उसे सकारात्मक प्रतिक्रिया मिल जाती है तब उसकी मांग मुझसे  ''आउट ऑफ़ टेन'' कुछ नंबर पाने की हो जाती है जो मेरे द्वारा सात-साढ़े सात से ऊपर नहीं जा पाता !


कुछ सालों पहले रायपुर में बी.एड. के छात्र-छात्राओं के पुष्प सज्जा, मूर्तिकला व रंगोली इत्यादि की स्पर्धा में अक्सर मुझे जज की भूमिका निभाने का अवसर मिलता रहता था। छात्रों को मुझसे हौसलाअफजाई और सलाह तो मिल जाती थी पर स्पर्द्धा के दौरान उन्हें मुझसे औरों की बजाय कुछ कम ही नंबर मिल पाते थे। पर वे भी शायद मेरी निष्पक्षता और मंतव्य को समझते थे।  


अब एक कहानी - किसी नगर में एक बहुत ही निष्णात और निपुण शिल्पकार रहता था।  जिसकी ख्याति देश-विदेश में दूर-दूर तक फैली हुई थी। उसका एक ही लड़का था। अपनी कला की विरासत को ज़िंदा रखने के लिए शिल्पी ने अपने बेटे को शिल्प की बारीकियां समझा उसे हर तरह से निपुण कर दिया था। लड़के की कला भी मशहूर हो चुकी थी। अलग-अलग राज्यों से उसे बुलावा आने लगा था। सराहना के साथ-साथ दिनों-दिन पारितोषिकों में भी इजाफा होता चला जा रहा था। पर वह युवक जब भी अपने पिता से अपनी कलाकृति के बारे में पूछता तो पिता हर बार उसमें कोई ना कोई कमी निकाल देता था। लड़का और मनोयोग से अपनी कला को निखारने में जुट जाता था। एक बार उसने अपना सब कुछ झोंक कर एक बेहतरीन प्रतिमा बनाई ! लोग उसे देख दांतों तले उंगलियां दबाने लगे ! सभी ने यहां तक कि राजा ने भी उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा की। पर इस बार भी युवक कलाकार का पिता नाखुश ही रहा। उसके इस बर्ताव से युवक को दुःख के साथ-साथ क्रोध भी बहुत आया और उसने अपने पिता से कहा कि लगता है आप मेरी सफलता से ईर्ष्या करते हैं ! मेरी यशो-कीर्ति आपको अच्छी नहीं लगती। आप किसी दुर्भावना के तहत मेरी हर कृति में खामियां निकाल देते हैं ! ऐसा क्यों ? आज आपको बताना ही पडेगा ! अपने पुत्र की बात सुन शिल्पकार गंभीर हो गया ! पर आज समय आ पहुंचा था सच बताने का ! उसने अपने बेटे को शांत हो जाने को कहा और बोला कि मैं तुम्हें अपने से भी बड़ा शिल्पकार बनता हुआ देखना चाहता हूँ ! इसीलिए मैं तुम्हारी हर कलाकृति में मीन-मेख निकाला करता हूँ और इसीलिए अब तक तुम अपनी कला को और बेहतर करने के लिए जुट जाते थे। मुझे पता था कि जिस दिन मैंने तुम्हारी कला की प्रशंसा कर दी; उसी दिन तुम संतुष्ट हो जाओगे ! और जब भी कोई कलाकार अपने काम से संतुष्ट हो जाता है उसी समय उसकी कला का एक तरह से अंत हो जाता है ! उसकी और बेहतर करने की भूख ख़त्म हो जाती है ! उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है ! ऐसा तुम्हारे साथ ना हो, तुम विश्व के महान शिल्पकार बन सको इसीलिए मेरा ऐसा व्यवहार हुआ करता था। पिता की बात सुन पुत्र की आँखों से आंसू बह निकले ! वह क्षमा माँगते हुए अपने पिता के चरणों में झुक गया। 


पता नहीं क्यों जब भी ऐसा कोई ''क्षण''  सम्मुख होता है तो यह पुरानी कहानी भी सामने आ खड़ी हो जाती है ! 

13 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सार्थक पोस्ट।

Sweta sinha ने कहा…

बहुत सार्थक संदेश सर।
मेरा मानना है आलोचनात्मक समीक्षा किसी भी संदर्भ में और अच्छा करने को प्रेरित करती है।
जो आपका भला चाहते हैं वो सिर्फ तारीफ ही नहीं करते बल्कि त्रुटियों से भी अवगत अवश्य कराते हैं।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी
हार्दिक आभार ! यूँ ही स्नेह बना रहे

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

श्वेता जी
बिलकुल सही ! इधर ब्लॉग पर आने वाली टिप्पणियों के बारे में, जो सिर्फ प्रशंसात्मक ही होती हैं, भी कई बार कह चुका हूँ कि औपचारिकतावश सिर्फ सकारात्मक विचार ही ना रखें, यदि कोई खामी नजर आए तो उसे भी बताएं ! पर शायद शिष्टता आड़े आ जाती है

kuldeep thakur ने कहा…


जय मां हाटेशवरी.......

आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
31/05/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......

अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद

kuldeep thakur ने कहा…


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गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कुलदीप जी
सम्मिलित करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हलचल में शामिल करने हेतु आभार

Sawai Singh Rajpurohit ने कहा…

इस कहानी से बहुत अच्छी सीख मिलती है में खुद मानता हूं जब व्यक्ति के काम की तारीफ होती है तो उसके काम करने की शक्ति कम हो जाती है जब तक आपके काम की तारीफ नहीं होती आप काम को और लगन से करने जाते हैं

विश्वमोहन ने कहा…

हौसलाफ़जाई और आलोचना दोनों दो चीज़ें हैं। आज दोनों अतिवादिता के शिकार हैं। कारण पाठकों में गंभीरता का अभाव है। 'तू मेरी पीठ ठोक(या कपड़े उतार!), और मैं तेरी!' की महामारी फैली है।

Onkar ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राजपुरोहित जी
बिल्कुल सही। स्वागत है सदा

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

विश्वमोहन जी
सहमत हूँ, पर निष्पक्ष रह कर सही मींमासा होना भी जरुरी है ! सच भले ही कड़वा हो चखना/चखवाना चाहिए !

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