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शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

प्रयोग, इस दीपावली पर, कुछ अलग सा

मैं क्या सोच रहा था कि अपुन भी तो वर्षों-वर्ष इस दिखावे की अंधी दौड़ में शामिल रहे ! हर साल इस मौके पर नए-नए कपड़े ला-लाकर आलमारी को भरते गए ! बाटा कंपनी के स्लोगन ''पूजोय चाई नोतून जूतो'' से प्रभावित हो पता नहीं कितने जूते, चप्पल, सैंडिल खरीद मारे ! सफाई, रौशनी, दीया-बाती-लड़ी-पटाखे, मिठाइयां सब कुछ तो हुआ, माँ का ध्यान पाने के लिए ! पर वे मेहरबान होती रहीं, फिलिप्स, बाटा, रेमंड, ड्यूलक्स, हल्दीराम पर, जिन्होंने हमारा ही धन समेट मारा.......!   

#हिन्दी_ब्लागिंग 

दीपावली की धूम-धाम ! हजारों-लाखों दीए, मोमबत्तियां, रंग-बिरंगे बल्बों की लड़ियां ! अमीर-गरीब सबके घर, अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार रौशनी में नहाए हुए ! साल की इस सबसे घनेरी रात में भी दिन के उजाले का भ्रम ! नए, रंग-बिरंगे वस्त्रों में सजे नागरिक ! गहने-आभूषणों की दुकानों में ना समा सकने वाली भीड़ ! पकवानों की महक ! शोर-शराबा ! हँसते-गाते, तोहफे बांटते लोग ! क्या इनको देख अपने सालाना भ्रमण पर निकली माँ लक्ष्मी भ्रमित नहीं हो जाती होंगी ! जब वे यहां के रौनक-मेले, पानी से बहते धन और माया की बदौलत उत्पन्न स्वर्गिक छटा देखती होंगी तो यह सोच कि यहां तो मेरे सभी भक्त आनंद के सागर में आकंठ डूबे हैं, सुखी हैं ! उलटे पांव लौट ना जाती होंगी..........!   

वैसे तो माँ अन्तर्यामी हैं ! कौन कैसा है, सब पता है उनको ! पर कुछ अहं ब्रह्मास्मि का अहम् पाले लोगों के आख्यानों से वे गफलत में भी पड़ जाती होंगी कि कहीं सचमुच कोई भूखा तो नहीं रह रहा ! कोई ऐसा तो नहीं जो हाड़-तोड़ मेहनत करने पर भी दो जून की रोटी का जुगाड़ ना कर पा रहा हो ! कोई कल की चिंता में आज बिसूरता बैठा हो ! कोई जीवन-यापन नहीं, कठिनाई से जीवन काट रहा हो ! किसी के अथक कर्म करने के बावजूद भाग्य साथ ना दे रहा हो ! इसी आशंकाओं के कारण वे चली आती हैं, हर बार ! माँ जो ठहरीं !  


माँ
तो सर्वज्ञाता हैं ! ऐसा भी हो सकता कि वे यहां आती ही ना हों ! सीधे वहीं चली जाती हों, जहां उनकी सचमुच जरुरत है ! क्योंकि अब इस तरह का कुछ-कुछ आभास होने लगा है कि सर्वहारा के जीवन में भी कुछ-कुछ बदलाव आने लगा है, भले ही धीमी गति से ही सही ! माँ तो माँ हैं, ममत्व भरी, दयालु, सबकी पीड़ा हरने वाली, पर उनके भी अपने नियम-कायदे होंगे ! एक दम आमूलचूल परिवर्तन करना तो शायद उनके लिए भी संभव नहीं होगा ! पर फिर भी गरीब-गुरबों पर माँ की कृपा हो रही है, इसके संकेत मिलने लगे हैं ! कृपा होनी भी चाहिए सब पर ! जब मनुष्य जीवन दिया है तो उसमें पशु-भाग्य क्यों ?

बचपन में एक कहानी पढ़ी थी, जिसका सार था कि दिवाली की रात घूमते हुए माँ लक्ष्मी को एक गरीब ब्राह्मण की कुटिया दिखाई पड़ी, जिसमें एक छोटा सा दीपक जल रहा था और ब्राह्मण दंपत्ति अधपेट खा कर भी प्रभु का आभार मान रहे थे ! उनको देख माँ का हृदय पसीज गया और उन्होंने उनके शेष जीवन को सुखमय बना दिया ! 

इधर मैं क्या सोच रहा था कि अपुन भी वर्षों-वर्ष इस दिखावे की अंधी दौड़ में शामिल रहे ! हर साल इस मौके पर नए-नए कपड़े ला-लाकर आलमारी को भरते गए ! बाटा कंपनी के स्लोगन ''पूजोय चाई नोतून जूतो'' से प्रभावित हो पता नहीं कितने जूते, चप्पल, सैंडिल खरीद मारे ! सफाई, रोशनी, दिया-बाती-लड़ी-पटाखे, मिठाइयां सब कुछ तो हुआ माँ का ध्यान पाने के लिए पर वे मेहरबान होती रहीं, फिलिप्स, बाटा, रेमंड, ड्यूलक्स, हल्दीराम पर, जिन्होंने हमारा ही धन समेट मारा !

वैसे उस कहानी के ब्राह्मण जितनी मुश्किलात अपनी हरगिज नहीं हैं ! सदन-वाहन-वसन सब कर्मों के अनुसार सुलभ हैं ! अब किसी तरह की चाहत भी नहीं है ! गुजारा हो रहा है ! पर बाटा-रेमंड जैसी सहूलियतें भी तो नहीं हैं ! एक ''वो'' वाली फिलिंग भी नहीं आ पा रही ! तो इस बार कुछ अलग करने की धुन में ऊपर-नीचे-दाएं-बाएं रोशनियों के समुद्र में अपना लैगून, सिर्फ रोजमर्रा की लाइट के साथ रहा ! नो धूम-धड़ाका, नो हल्ला-गुल्ला ! सिर्फ घर के देवस्थान पर दीप दान ! 

अब देखना यह है कि आज रात ऊपर से अवतरित होते हुए, इस चकाचौंधी रौशनी, धूम-धड़ाके, शोर-शराबे के बीच मैं और मुझ ब्राह्मण का, कुछ अलग सा, आवास-निवास उन्हें नजर आ पाते भी हैं कि नहीं.........!

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से                

सोमवार, 12 अगस्त 2024

सरसों का साग, मक्के की रोटी के लिए तब कई पापड़ बेलने पड़ते थे

सुबह के निकले हम यदि कलकत्ते में पिक्चर देखने का लोभ संवरण कर लेते, तो अपरान्ह तक घर पहुंच जाते थे नहीं तो रात हो जाती थी ! घर पहुंच रिक्शे से उतरते-उतरते सभी पंद्रह-सोलह परिवारों में खबर लग जाती थी कि साग आ गया है ! कई मुस्कुराते चेहरे आमने-सामने की खिड़कियों-बालकनियों में टंग जाते !  सुबह माँ जुट जातीं तैयारी में ! कुछ कमी ना रह जाए इसलिए बिना किसी की सहायता लिए खुद ही काटतीं-छांटतीं !  एक अलग अंगीठी सुलगाई जाती सिर्फ साग के लिए ! फिर घंटो के इंतजार, गलने-पकने-दलने के पश्चात उसमें ढ़ेर सा घी पड़ता और फिर जो व्यंजन सामने आता उसकी दूर-दूर तक फैलती दैवीय सुगंध बार-बार मुंह को पानी से भर जाती ! कुछ ही देर में यह अड़ोस-पड़ोस के हर घर में पहुंच, टेबल पर सज, अपनी महक से उसे सुवासित कर रहा होता ! माँ के हाथों के कमाल और निपुणता की चर्चा कई दिनों तक होती रहती.............! 

#हिन्दी_ब्लागिंग           

आज बाजार ने हमें जितनी सहूलियतें प्रदान कर दी हैं उनके बारे में 20-25 साल पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था और इधर आज की पीढ़ी उस समय की होने वाली खरीद-फरोख्त का अंदाज भी नहीं लगा सकती है ! आज तो किसी भी चीज की इच्छा जाहिर कीजिए कुछ ही देर में वह दरवाजे पर हाजिर दिखेगी, पर पहले ऐसा नहीं होता था, तब अपनी इच्छित वस्तु को ढूंढ कर उस तक पहुंचना होता था ! पर उसका भी अपना एक अलग मजा और तसल्ली होती थी ! कभी-कभी वे दिन याद आ जाते हैं ! 

सरसों के पत्ते 
ऐसी ही एक स्मृति को आपके साथ साझा कर रहा हूँ ! बात है सत्तर के दशक की ! पिताजी कोलकाता, तब के कलकत्ता, से करीब 35 किमी दूर, नॉर्थ 24 परगना के एक उपनगर, भाटपारा में स्थित रिलांयस जूट मिल  (इस रिलांयस का उस रिलांयस से कोई भी संबंध कभी नहीं रहा) में कार्यरत थे ! वहां देश के हर हिस्से से आए लोग एक परिवार की तरह रहते थे। कोई भेद-भाव नहीं, जैसे सभी एक ही कुटुंब के सदस्य हों ! एक अजब ही माहौल हुआ करता था जो अखंड भारत की छवि प्रस्तुत करता था !
घर 
अपुन का परिवार ठहरा पंजाबी, सो कभी-कभी पंजाबियत जोर मार कर मक्की की रोटी की मांग कर ही देती थी ! पर सहज उपलब्ध ना होने के कारण, उसे पूरा करना तब उतना सरल नहीं था ! सरसों के साग का जुगाड़ कलकत्ते के सुदूर भवानीपुर इलाके के थोक सब्जी बाजार से करना पड़ता था और मक्की के आटे का इंतजाम खासतौर से अपने लिए मक्की के दानों को पिसवा कर किया जाता था ! मक्के का आटा उतना सर्वसुलभ नहीं होता था ! तो जब कभी इन व्यंजनों की इच्छा ज्यादा जोर मारने लगती, जो सिर्फ हमारे ही नहीं वहां के अधिकांश परिवारों की कामना होती थी, तो उसको फलीभूत करने के लिए मेरे मामाजी सामने आते ! जिनके साथ होता बालक रूपी मैं ! 
साग 
इस नेमत को, जिसके रसास्वादन के लिए कई-कई लोग इंतजार में रहते थे, पाने के लिए अच्छा-खासा उद्यम करना पड़ता था ! मिल के रिहाइशी क्षेत्र से रेलवे स्टेशन, जिसका नाम कांकिनाड़ा था (काकीनाडा नहीं), की दूरी करीब एक किमी होगी, जिसे मौके के अनुसार पैदल या रिक्शे से नापा जाता था ! स्टेशन से कलकत्ते का सियालदह स्टेशन करीब 35 किमी था, बीच में उस समय ग्यारह स्टेशन पड़ते थे ! इस दूरी को पार करने में लोकल ट्रेन तकरीबन घंटे भर का समय ले लेती थी। सियालदह के जन सैलाब को पार कर बाहर आ कर शहर के भवानीपुर इलाके के लिए बस ली जाती थी। फिर बस छोड़ सब्जी बाजार तक जाना पड़ता था। जहां से अपनी इच्छित मात्रा मुताबिक सरसों का साग मिल जाना भी एक उपलब्धि ही होती थी ! फिर उसी क्रम में वापसी होती थी फर्क सिर्फ इतना होता था कि बाजार से सियालदह तक का सफर बस की बजाय टैक्सी पूरा करवाती थी और स्टेशन से मिल के अंदर घर तक रिक्शा !
मौजां ई मौजां 
सुबह के निकले हम यदि कलकत्ते में पिक्चर देखने का लोभ संवरण कर लेते, तो अपरान्ह तक घर पहुंच जाते थे नहीं तो रात हो जाती थी ! घर पहुंच रिक्शे से उतरते-उतरते सभी पंद्रह-सोलह परिवारों में खबर लग जाती थी कि साग आ गया है ! कई मुस्कुराते चेहरे आमने-सामने की खिड़कियों-बालकनियों में टंग जाते ! सहायकों द्वारा साग के पत्तों की आवभगत रात तक हो जाती ! सुबह माँ जुट जातीं तैयारी में ! कुछ कमी ना रह जाए इसलिए बिना किसी की सहायता लिए खुद ही काटतीं-छांटतीं ! उन दिनों अभी गैस आई नहीं थी सो एक अलग अंगीठी सुलगाई जाती सिर्फ साग के लिए ! साग के अनुपात के अनुसार पता नहीं क्या-क्या और कुछ उसमें मिलाया जाता ! फिर घंटो के इंतजार, गलने-पकने-दलने के पश्चात उसमें ढ़ेर सा घी पड़ता और फिर जो व्यंजन सामने आता उसकी दूर-दूर तक फैलती दैवीय सुगंध बार-बार मुंह को पानी से भर जाती ! बेसब्री से किया जा रहा इंतजार खत्म होता ! कुछ ही देर में यह हर घर में पहुंच, टेबल पर सज, अपनी महक से उसे सुवासित कर रहा होता ! माँ के हाथों के कमाल और निपुणता की चर्चा कई दिनों तक होती रहती ! 

रविवार, 12 मई 2024

गांव से माँ आई है

अक्सर हम सुनते हैं कि अपनी ही संतानों द्वारा बूढ़े माँ-बाप की बेकद्री, अवहेलना, बेइज्जती की जाती है ! ऐसी ही बातों को मुद्दा बना कर ज्यादातर कथाएं गढ़ी जाती रही हैं। हैं, ऐसे नाशुक्रे लोग, तभी तो देश में वृद्धाश्रमों की तादाद बढ़ती जा रही है ! पर आज की विषम परिस्थितियों में  कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो चाह कर भी अपने माँ-बाप से अलग रहने को बाधित होते हैं, सिर्फ इसलिए कि उनके माँ-बाप को आज के परिवेश में  कोई असुविधा ना हो , कोई कष्ट ना हो , उनसे अलग रहने को मजबूर होते हैं ! मातृ दिवस पर एक पुरानी रचना का पुन: प्रकाशन ..........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

गांव से माँ आई है। गर्मी पूरे यौवन पर है। गांव शहर में बहुत फर्क है। पर माँ को यह कहां मालुम है। माँ तो शहर आई है, अपने बेटे, बहू और पोते-पोतियों के पास, प्यार, ममता, स्नेह की गठरी बांधे। माँ को सभी बहुत चाहते हैं पर इस चाहत में भी चिंता छिपी है कि कहीं उन्हें किसी चीज से परेशानी ना हो। खाने-पीने-रहने की कोई कमी नहीं है, दोनों जगह न यहां, न वहां गांव में। पर जहां गांव में लाख कमियों के बावजूद पानी की कोई कमी नहीं है, वहीं शहर में पानी मिनटों के हिसाब से आता है और बूदों के हिसाब से खर्च किया जाता है ! यही बात दोनों जगहों की चिंता का वायस है। भेजते समय वहां गांव के बेटे-बहू को चिंता थी कि कैसे शहर में माँ तारतम्य बैठा पाएगी ! शहर में बेटा-बहू इसलिए परेशान कि यहां कैसे माँ बिना पानी-बिजली के रह पाएगी ! पर माँ तो आई है प्रेम लुटाने ! उसे नहीं मालुम शहर-गांव का भेद। 

पहले ही दिन मां नहाने गयीं। उनके खुद के और उनके बांके बिहारी के स्नान में ही सारे पानी का काम तमाम हो गया। बाकी सारे परिवार को गीले कपडे से मुंह-हाथ पोंछ कर रह जाना पडा। माँ तो गांव से आई है। जीवन में बहुत से उतार-चढाव देखे हैं पर पानी की तंगी !!! यह कैसी जगह है ! यह कैसा शहर है ! जहां लोगों को पानी जैसी चीज नहीं मिलती। जब उन्हें बताया गया कि यहां पानी बिकता है तो उनकी आंखें इतनी बडी-बडी हो गयीं कि उनमें पानी आ गया।

माँ तो गांव से आई हैं उन्हें नहीं मालुम कि अब शहरों में नदी-तालाब नहीं होते जहां इफरात पानी विद्यमान रहता था कभी। अब तो उसे तरह-तरह से इकट्ठा कर, तरह-तरह का रूप दे तरह-तरह से लोगों से पैसे वसूलने का जरिया बना लिया गया है। माँ को कहां मालुम कि कुदरत की इस अनोखी देन का मनुष्यों ने बेरहमी से दोहन कर इसे अब देशों की आपसी रंजिश तक का वायस बना दिया है। उसे क्या मालुम कि संसार के वैज्ञानिकों को अब नागरिकों की भूख की नहीं प्यास की चिंता बेचैन किए दे रही है। मां तो गांव से आई है उसे नहीं पता कि लोग अब इसे ताले-चाबी में महफूज रखने को विवश हो गये हैं। 

माँ जहां से आई है जहां अभी भी कुछ हद तक इंसानियत, भाईचारा, सौहाद्र बचा हुआ है। उसे नहीं मालुम कि शहर में लोगों की आंख तक का पानी खत्म हो चुका है। इस सूखे ने इंसान के दिलो-दिमाग को इंसानियत, मनुषत्व, नैतिकता जैसे सद्गुणों से विहीन कर उसे पशुओं के समकक्ष ला खडा कर दिया है।

माँ तो गांव से आई है जहां अपने पराए का भेद नहीं होता। बडे-बूढों के संरक्षण में लोग अपने बच्चों को महफूज समझते हैं ! पर शहर के विवेकविहीन समाज में कोई कब तथाकथित अपनों की ही वहिशियाना हवस का शिकार हो जाए कोई नहीं जानता।

ऐसा नहीं है कि बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उन्हें उनका आना-रहना अच्छा नहीं लगता। उन्हें भी मां के सानिध्य की सदा जरूरत रहती है पर वे चाहते हैं कि माँ इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दी वापस चली जाए  उतना ही अच्छा........!!
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@चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

रविवार, 9 मई 2021

गांव से माँ का आना

अधिकतर संतान द्वारा बूढ़े माँ-बाप की बेकद्री, अवहेलना, बेइज्जती इत्यादि को मुद्दा बना कर कथाएं गढ़ी जाती रही हैं ! होते होंगे ऐसे नाशुक्रे लोग ! पर कुछ ऐसे भी होते हैं जो आज की विषम परिस्थितियों में, जीविकोपार्जन की मजबूरियों के चलते चाह कर भी संयुक्त परिवार में नहीं रह सकते ! अलग रहने को मजबूर होते हैं ! ऐसी ही एक कल्पना है यह ! जहां ऐसा नहीं है कि अलग रहते हुए बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उसका आना-जाना अच्छा नहीं लगता ! वे तो उन्हें बेहद प्यार करते हैं ! उन्हें सदा माँ के सानिध्य की जरूरत रहती है ! पर फिर भी वे चाहते हैं कि माँ  इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दी वापस चली जाए  उतना ही अच्छा ! पर क्यूँ ...........?

(मातृदिवस पर एक पुरानी रचना का पुन: प्रकाशन)

#हिन्दी_ब्लागिंग 
गांव से माँ आई है। गर्मी पूरे यौवन पर है। गांव शहर में बहुत फर्क है। पर माँ को यह कहां मालुम है। माँ तो शहर आई है, अपने बेटे, बहू और पोते-पोतियों के पास, प्यार, ममता, स्नेह की गठरी बांधे। माँ को सभी बहुत चाहते हैं पर इस चाहत में भी चिंता छिपी है कि कहीं उन्हें किसी चीज से परेशानी ना हो। खाने-पीने-रहने की कोई कमी नहीं है, दोनों जगह न यहां, न वहां गांव में। पर जहां गांव में लाख कमियों के बावजूद पानी की कोई कमी नहीं है, वहीं शहर में पानी मिनटों के हिसाब से आता है और बूदों के हिसाब से खर्च किया जाता है ! यही बात दोनों जगहों की चिंता का वायस है। भेजते समय वहां गांव के बेटे-बहू को चिंता थी कि कैसे शहर में माँ तारतम्य बैठा पाएगी ! शहर में बेटा-बहू इसलिए परेशान कि यहां कैसे माँ बिना पानी-बिजली के रह पाएगी ! पर माँ तो आई है प्रेम लुटाने ! उसे नहीं मालुम शहर-गांव का भेद। 

पहले ही दिन मां नहाने गयीं। उनके खुद के और उनके बांके बिहारी के स्नान में ही सारे पानी का काम तमाम हो गया। बाकी सारे परिवार को गीले कपडे से मुंह-हाथ पोंछ कर रह जाना पडा। माँ तो गांव से आई है। जीवन में बहुत से उतार-चढाव देखे हैं पर पानी की तंगी !!! यह कैसी जगह है ! यह कैसा शहर है ! जहां लोगों को पानी जैसी चीज नहीं मिलती। जब उन्हें बताया गया कि यहां पानी बिकता है तो उनकी आंखें इतनी बडी-बडी हो गयीं कि उनमें पानी आ गया।

माँ तो गांव से आई हैं उन्हें नहीं मालुम कि अब शहरों में नदी-तालाब नहीं होते जहां इफरात पानी विद्यमान रहता था कभी। अब तो उसे तरह-तरह से इकट्ठा कर, तरह-तरह का रूप दे तरह-तरह से लोगों से पैसे वसूलने का जरिया बना लिया गया है। माँ को कहां मालुम कि कुदरत की इस अनोखी देन का मनुष्यों ने बेरहमी से दोहन कर इसे अब देशों की आपसी रंजिश तक का वायस बना दिया है। उसे क्या मालुम कि संसार के वैज्ञानिकों को अब नागरिकों की भूख की नहीं प्यास की चिंता बेचैन किए दे रही है। मां तो गांव से आई है उसे नहीं पता कि लोग अब इसे ताले-चाबी में महफूज रखने को विवश हो गये हैं। 

माँ जहां से आई है जहां अभी भी कुछ हद तक इंसानियत, भाईचारा, सौहाद्र बचा हुआ है। उसे नहीं मालुम कि शहर में लोगों की आंख तक का पानी खत्म हो चुका है। इस सूखे ने इंसान के दिलो-दिमाग को इंसानियत, मनुषत्व, नैतिकता जैसे सद्गुणों से विहीन कर उसे पशुओं के समकक्ष ला खडा कर दिया है।

माँ तो गांव से आई है जहां अपने पराए का भेद नहीं होता। बडे-बूढों के संरक्षण में लोग अपने बच्चों को महफूज समझते हैं ! पर शहर के विवेकविहीन समाज में कोई कब तथाकथित अपनों की ही वहिशियाना हवस का शिकार हो जाए कोई नहीं जानता।

ऐसा नहीं है कि बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उन्हें उनका आना-रहना अच्छा नहीं लगता। उन्हें भी मां के सानिध्य की सदा जरूरत रहती है पर वे चाहते हैं कि माँ  इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दी वापस चली जाए  उतना ही अच्छा........!!

रविवार, 10 मई 2020

माँ एक शब्द नहीं पूरी दुनिया है

वैसे माँ को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके लिए कोई ख़ास दिन बनाया गया है कि नहीं। उसे न तोहफों की लालसा होती है नाहीं उपहारों की ख्वाहिश। मिल जाएं तो ठीक, ना मिलें तो और भी ठीक। भगवान से भले ही वह नाखुश हो जाए पर अपने बच्चों के लिए उसके मुख पर सदा आशीष ही रहती है। इसीलिए  ऊपर वाले से कुछ मांगना हो तो सदा हमें अपनी माँ की सलामती मांगनी चाहिए, हमारे लिए तो माँ हर वक़्त दुआ मांगती ही रहती है...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
माँ एक शब्द नहीं पूरी दुनिया है, जो सिर्फ देना जानती है, लेना नहीं ! उसकी ममता का, निस्वार्थ प्रेम कोई ओर-छोर नहीं होता। सागर से गहरे, धरती से सहनशील और आकाश से भी विशाल उसके स्नेहसिक्त आँचल में तो तीनों लोक समाए रहते हैं। मनुष्य को प्रकृति प्रदत्त यह सबसे बड़ी नेमत है, जिसका कोई सिला नहीं ! माँ इस धरती पर ईश्वर का प्रत्यक्ष रूप है। जिस घर में माँ खुश रहती है, वहां खुशियों का खजाना कभी खाली नहीं होता। कोई कष्ट, कोई व्याधि, कोई मुसीबत नहीं व्यापति ! अपने बच्चों को खुश देख खुश रह लेने वाली माँ अपनी ख़ुशी के एवज में भी बच्चों की ख़ुशी ही मांगती है !
माँ, पिकासो की अमर कृति 
जिस माँ के बिना इस दुनिया की कल्पना नहीं की जा सकती; उसी के लिए हमने एक दिन निर्धारित कर दिया....! माँ या उसका ममत्व कोई चीज या वस्तु नहीं है कि उसके संरक्षण की जरुरत हो ! नाहीं वह कोई त्यौहार या पर्व है कि चलो एक दिन मना लेते हैं ! अरे ! जब भगवान के लिए कोई दिन निर्धारित नहीं है; तो फिर माँ के लिए क्यों ? भगवान भी माँ से बड़ा नहीं होता ! वह तो खुद माँ के चरणों में पड़ा रह खुद को धन्य मानता है !
वैसे माँ को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके लिए कोई ख़ास दिन बनाया गया है कि नहीं। उसे न तोहफों की लालसा होती है नाहीं उपहारों की ख्वाहिश। मिल जाएं तो ठीक, ना मिलें तो और भी ठीक। वह तो निस्वार्थ रह बिना किसी चाहत के अपना प्यार उड़ेलती रहेगी। ख़ुशी में सबके साथ खुश और दुःख में आगे बढ़, ढाढस दे आंसू पोछंती रहेगी। भगवान से भले ही वह नाखुश हो जाए पर अपने बच्चों के लिए उसके मुख पर सदा आशीष ही रहती है। इसीलिए ऊपर वाले से कुछ मांगना हो तो सदा हमें अपनी माँ की सलामती मांगनी चाहिए, हमारे लिए तो माँ हर वक़्त दुआ मांगती ही रहती है।

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