गुरुवार, 19 अक्तूबर 2023

आँखों पर पट्टी बांधे बैठी कुर्सियां

सच तो यही है कि आँखों पर पट्टी बंधी होने से कभी भी न्याय नहीं हो पाता है ! हमारे हजारों साल पुराने ग्रंथ भी इस बात के गवाह हैं, उनमें भी इस बात की पुष्टि हुई है कि यदि आँखों पर पट्टी ना होती तो संसार का सबसे बड़ा विनाशकारी युद्ध भी शायद ना होता ! कहावत है कि कानों सुनी पर विश्वास नहीं करना चाहिए ! आज भी सत्य के पक्ष में खड़े युधिष्ठिर, अपनी बात ठीक से न रख पाने, सच्चाई को ठीक से उजागर ना कर पाने के कारण, अपना पक्ष कमजोर कर लेते हैं ! दूसरी ओर शकुनि जैसे लोग अपने वाक्चातुर्य से असत्य को सत्य का जामा पहना बंद आखों को धोखा देने में सफल हो जाते हैं.................!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

स्कूल में, चाहे वह विज्ञान हो, भूगोल हो, गणित हो, पढ़ाए गए विषयों की सत्यता सदा एक सी बनी रहती है ! यह नहीं होता कि स्कूल में पढ़ाया गया हो कि पृथ्वी गोल है और कॉलेज में आ कर वह चपटी हो जाए ! यदि स्कूल में बताया गया है कि पानी, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के संयोग से बनता है तो यह सच्चाई सदा ही बनी रहती है ! दो और दो चार ही होता है ! मनुष्य सामाजिक प्राणी ही बना रहता है, जैसा बताया गया था ! गुरु जी की कुर्सी पर बैठा इंसान विद्वान होता है ! कोई ऐरा-गैरा आ कर उसकी परीक्षा नहीं ले सकता ! ऐसा भी नहीं कि वह कुछ बोले और हेड मास्टर उसकी बात काट दे और उधर प्रिंसिपल हेडमास्टर को गलत करार कर उसकी बात बार-बार पलटता  रहे !

_______________________________________________________________________________

Ad'

नेत्र शल्य चिकित्सा का विश्वसनीय केंद्र 
________________________________________________________________________________

पर एक विधा ऐसी भी है जिसमें कुछ भी स्थाई नहीं है ! एक कुछ कहता है तो दूसरा उसको गलत सिद्ध कर जाता है तो तीसरा आ कर दूसरे की बात पलट जाता है ! निचले स्थान की कुर्सी को उच्चासीन हेय सिद्ध कर देता है तो इस उच्च को सर्वोच्च सत्ता वाला धरातल पर ला पटकता है ! पता नहीं....! किताबें तो सबने एक जैसी ही पढ़ी होती हैं ! पर हर कोई उनको अपनी मर्जी के अनुसार परभाषित करने लगता है ! यदि उसमें लिखा इतना जटिल है कि अधिकांश को वह समझ ही नहीं आता तो उसे सरल क्यों नहीं बनाया जाता ?  क्यों नहीं उसके ''लूप होल्स'' को सील कर दिया जाता ? उस जटिलता का खामियाजा भुगतना पड़ता है आम, मजलूम जनता को ! आज हालत ऐसे हैं कि बोलने वाला सुनने वाले पर हावी हो गया है ! यह ''सुना'' जाता है कि ''कौन'' बोल रहा है ना कि क्या बोला जा रहा है ! होता भी तो ऐसा ही आया है, जनता ने देखा भी है, दसियों ऐसे उदाहरण हैं जब भारी-भरकम लोग अपनी बात मनवा कर चल देते हैं ! अब तो तराजू वाली प्रतिमा को खुद ही अपनी आँखों पर बंधी पट्टी उतार फेंकनी होगी !

इस विधा के प्रतीक को रोमन देवी जस्टीशिया के रूप में जाना जाता है। जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी हुई है और एक हाथ में तराजू और दूसरे में तलवार है। कहते हैं पहले मूर्ति की आँखों पर पट्टी नहीं होती थी पर 16वीं शताब्दी में उसके सामने होने वाले अन्याय के प्रति उसे अंधा दिखाने के उद्देश्य के तहत, कुछ लोगों ने मूर्ति की आँखों पर पट्टी बाँध दी थी ! पर फिर न्यायालय की गरिमा को ध्यान में रखते हुए इसे न्याय की निष्पक्षता के प्रतीक के रूप में प्रचारित कर दिया गया ! पर सच तो यही है कि आँखों पर पट्टी बांध कभी भी कोई न्याय नहीं कर पाया है ! हमारे हजारों साल पुराने ग्रंथ भी इस बात के गवाह हैं, उनमें भी इस बात की पुष्टि की हुई है कि यदि आँखों पर पट्टी ना होती तो संसार का सबसे बड़ा विनाशकारी युद्ध भी ना होता ! कहावत है कि कानों सुनी पर विश्वास नहीं करना चाहिए ! सत्य के पक्ष में खड़े युधिष्ठिर, अपनी बात ठीक से न रख पाने, सच्चाई को ठीक से उजागर ना कर पाने के कारण, अपना पक्ष कमजोर कर लेते हैं ! दूसरी ओर शकुनि जैसे लोग अपने वाक्चातुर्य से असत्य को सत्य का जामा पहना बंद आखों को धोखा देने में सफल हो जाते हैं !

चलिए इन गुमानी कुर्सियों की तो आँखें बंद हैं पर हमारे पथ प्रदर्शक, हमारे धर्मगुरु, हमारा समाज यह सब क्यों चुप है ? कहाँ हैं वे लोग जो कहते हैं कि हम इंसान गढ़ते हैं ? उनकी आँखें तो खुली हैं, तो फिर क्या उन्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि आज कैसे इंसान घड़े जा रहे हैं ? क्यों है यह चुप्पी ? क्यों है यह उदासीनता ? हमें खुद भी सोचना होगा, क्यों निर्लिप्त हैं हम सब ?

इस विधा के मूल मंत्र को प्रचारित करते समय बार-बार कहा जाता है कि भले ही सौ दोषी छूट जाएं पर निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए ! पर विडंबना यह है कि अधिकांश मामलों में इसका उलट होता है ! पीड़ित अपनी आत्मा पर बोझ लिए मर-मर कर जीता है और अपराधी अपने रसूख, अपने धनबल, अपने बाहुबल और इस विधा की संकरी गलियों का सहारा ले, दुःखित को और दुखी करता, उसकी छाती पर मूंग दलता हुआ स्वच्छंद मंडराता रहता है ! लचर कानून और न्याय व्यवस्था हमेशा से ही आम नागरिक की परेशानी का सबब रही है ! आज भी सीधा-साधा गरब-गुरबा डरता है न्याय की गुहार लगाने को ! जब्त कर जाता है अपने ऊपर हुए अन्याय को ! यदि कोई हिम्मत करता है तो उसकी हालत "रागदरबारी के लंगड़" जैसी हो कर रह जाती है ! ज्यादातर आम नागरिकों को  काले कोट उन काली शक्तियों की तरह भयभीत करते हैं, जिनके चंगुल में एक बार फंस गए तो मौत ही मुक्ति दिला पाती है ! दूसरी तरफ इन्हीं खामियों का फायदा उठा अपराधी अक्सर कानून के शिकंजे से बच निकलते हैं ! 

_____________________________________________________________________________

Ad'

आपका प्रचार हम 8010953439 करेंगें 
_______________________________________________________________________________

यदि कुर्सी की आँखें खुली हों यानी वह कभी-कभी खुद भी संज्ञान लेने की जहमत उठा ले, तो सामने वाले की भाव-भंगिमा, चाल-ढाल, उसकी कुटिलता का आभास पा वस्तुस्थिति समझने में आसानी हो सकती है ! तब देखा तो जा सकेगा कि कोई बिमारी का बहाना बना जेल से छूट, घर पर तीमारदारी करवाने के बजाए पर्यटन पर कैसे निकल जाता है ! बीमार है पर खेल-कूद में सक्रीय भाग लेने लगता है ! देखा तो जा सकेगा कि करोड़ों के हेर-फेर में किसी के पास कुछ नहीं मिलता पर उसके बगल की खेती कैसे लहलहाने लगी है ! कानों को साक्ष्य ना भी सूझें पर आँखें तो देख पाएंगी कि कैसे डेढ़-डेढ़ दर्जन बच्चों की लाशें नालों में सड़ती हुई मिल रही हैं ! वे खुद तो जा कर मिटटी में दफ़न या नाले में नहीं कूदी होंगी ! कोई तो होगा जिसने ऐसी हैवानियत की होगी और वह ''कोई'' सिर्फ सुनी-सुनाई पर कैसे रिहा हो गया......! 

यह भी बिलकुल सच है कि आँखों पर पट्टी होने के बावजूद कई कुर्सियां बिना किसी दवाब में आए, अपनी जान तक की परवाह किए बगैर अपने कर्तव्य को अंजाम देती रहती हैं और उन्हीं के कारण आज भी इस व्यवस्था की साख कायम है ! यह भी सही है कि इस विधा में सिर्फ आँख की पट्टी का ही दोष नहीं है ! इसमें कुछ कुर्सियों पर उनका अहम, विचारधारा, परवरिश, दृष्टिकोण यह सब हावी हो जाता है जिससे अपने को श्रेष्ठ समझ एक अलग सोच बना ली जाती है ! पश्चिम की उच्श्रृखंलता, कुत्सित विचार, उनके मानदंड उन्हें सही लगने लगते हैं ! ऐसी कुर्सियां भूल जाती हैं कि हमारी सामाजिक व्यवस्था अलग है ! हमारे समाज की रीढ़ हमारे परिवार हैं ! परिवारों की एकजुटता हमारे संस्कार हैं, जिनमे विवाह का एक विशेष स्थान है ! माँ-बाप की अहमियत है बच्चों के लिए, उनकी परवरिश के लिए ! सिर्फ सुविधाएं जुटा देने से ही कर्तव्य की इति नहीं हो जाती ! खून के रिश्ते परिवारों को एक मजबूती देते हैं ! संस्कार हैं तो परिवार हैं, परिवार हैं तो समाज है और समाज है तभी देश भी है ! 

आजकल कुछ ऐसी ही बंद आँखों वाली कुर्सियां अप्राकृतिक संबंधों की पैरोकार बन जिस तरह वैवाहिक संस्कारों पर चोट करने की कोशिश में हैं उससे वे भविष्य के समाज के कैसे विनाश का आह्वान कर रही हैं, इसका शायद उन्हें गुमान भी नहीं है ! चलिए इन गुमानी कुर्सियों की तो आँखें बंद हैं पर हमारे पथ प्रदर्शक, हमारे धर्मगुरु, हमारा समाज यह सब क्यों चुप है ? कहाँ हैं वे लोग जो कहते हैं कि हम इंसान गढ़ते हैं ? उनकी आँखें तो खुली हैं, तो फिर क्या उन्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है कि आज कैसे इंसान घड़े जा रहे हैं ? क्यों है यह चुप्पी ? क्यों है यह उदासीनता ? हमें खुद भी सोचना होगा, क्यों निर्लिप्त हैं हम सब ?   

2 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सब अपना अपना देख रहे हैं :)

सुन्दर

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुशील जी
पता नहीं कैसा-कैसा समय आने वाला है

विशिष्ट पोस्ट

दीपक, दीपोत्सव का केंद्र

अच्छाई की बुराई पर जीत की जद्दोजहद, अंधेरे और उजाले के सदियों से चले आ रहे महा-समर, निराशा को दूर कर आशा की लौ जलाए रखने की पुरजोर कोशिश ! च...