सोशल मीडिया पर तो इसकी भरमार दिखती है, आज हमारे बेटे ने यह किया ! आज तो बेटू ने कमाल ही कर दिया ! मैं जो आज तक नहीं कर पाया, बेटेराम ने चुटकियों में कर डाला ! इस बात में दादियां, माएं, बुआएं भी पीछे नहीं हैं, उनकी बातों में ज्यादातर मोबाइल फोन का जिक्र रहता है कि हमें तो कुछ नहीं पता हम तो छुटकू के सहारे ही हैं ! बच्चों को खुश करने के लिए कही गई ऐसी सब बातों को सच मान बच्चा अपने को तीसमारखां समझने लगता है ! उसके मन में यह बातें गहरे तक पैठ जाती हैं कि बड़ों को कुछ नहीं आता ! उन्हें कुछ नहीं पता ! मैं ज्यादा बुद्धिमान हूँ..........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
अभी देश में एजिज्म यानी बुजुर्गों के प्रति बढ़ती युवाओं की असहिष्णुता, चर्चा का विषय बनी हुई है। उन्हें कमतर आंकना ! आधुनिक तकनीक के साथ जल्द सामंजस्य ना बैठा पाने के कारण मंदबुद्धि समझना ! शारीरिक अक्षमता के कारण कुछ कर ना पाना ! हारी-बिमारी पर होने वाले खर्च से आर्थिक बोझ बढ़ने से होने वाली परेशानियों को इसका कारण माना जा सकता है।
इसके अलावा उम्रदराज लोगों को हेय समझने का एक और कारण संतति मोह भी लगता है। बच्चे सभी को प्यारे होते हैं। पर कुछ लोग उनके लाड-दुलार में अति कर जाते हैं। हम में से बहुतों की आदत होती है कि अपने बच्चों की उलटी-सीधी, सही-गलत, छोटी-बड़ी हर बात को सार्वजनिक तौर पर बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर उसे अनोखा सिद्ध करने की ! सोशल मीडिया पर तो इसकी भरमार दिखती है। जिसे देखो वह अपने नौनिहालों के लिए कसीदे गढ़ रहा होता है, आज हमारे बेटे ने यह किया ! आज तो बेटू ने कमाल ही कर दिया ! मैं जो आज तक नहीं कर पाया, बेटेराम ने चुटकियों में कर डाला ! इस बात में दादीयां, माएं, बुआएं भी पीछे नहीं हैं, बलाएँ लेने में ! उनकी बातों में ज्यादातर मोबाइल फोन का जिक्र रहता है कि हमें तो कुछ नहीं पता हम तो छुटकू के सहारे ही हैं: इत्यादि,इत्यादि !
बच्चों को खुश करने के लिए कही गई ऐसी सब बातों को सच मान बच्चा अपने को तीसमारखां समझने लगता है ! उसके मन में यह बातें गहरे तक पैठ जाती हैं कि बड़ों को कुछ नहीं आता ! उन्हें कुछ नहीं पता ! मैं ज्यादा बुद्धिमान हूँ ! धीरे-धीरे यह बात अहम् में बदल जाती है और फिर वह सार्वजनिक तौर पर भी बड़ों का मजाक बनाना शुरू कर देता है कि तुम तो रहने ही दो ! तुम्हारे बस का नहीं है यह सब !! तब अभिभावक खिसियानी हंसी के अलावा और कुछ पेश नहीं कर सकता ! हो सकता है बड़े-बूढ़ों के प्रति यही नकारात्मक सोच आगे चल एजिज्म का कारण बन जाती हो।
ठीक है, आज बच्चे ज्यादा काबिल हैं ! पर इसका एक कारण उनको मिलने वाली सुविधाएं भी तो हैं। यदि 40-50 साल पहले कम्प्यूटर और मोबाईल आ गए होते तो क्या आज के बुजुर्ग उनसे कोई असुविधा महसूस करते ? अरे भई, जब कोई चीज किसी के पास हो ही नहीं तो उससे सहज होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है ! अब दूर-दूर तक नदी-तालाब-सागर नहीं है तो मैं तैरना कहां सीखूंगा ! हवाई जहाज है ही नहीं मेरे पास तो उड़ाना कैसे सीखूंगा ! पर एजिज्म जैसी प्रवृत्ति का बड़ा कारण है, बेरोजगारी !
समय बेहद बदल चुका है ! अब यह चल नहीं, भाग रहा है। आपाधापी मची हुई है ! बेहतर जीवन शैली और चिकित्सा से औसत आयु दर ऊँची हो गई है। जिससे आबादी बेलगाम बढ़ती जा रही है ! नौकरियां, काम-काज कम होते जा रहे हैं ! गला-काट प्रतिस्पर्द्धाएं चल निकली हैं ! परिवार टूटते चले जा रहे हैं ! इन सबके चलते इंसान तनाव ग्रस्त, असहिष्णु, आक्रोषित तथा परेशान रहने लगा है। उसे हर दूसरा आदमी अपना प्रतिद्वंदी नज़र आने लगा है। जाहिर है, ऐसे में अशक्त, लाचार, बीमार बुजुर्ग उसे बोझ लगने लगे हैं।
आज सेवानिवृत या अक्षम हो चुके लोगों का एक अच्छा-ख़ासा प्रतिशत ऐसा है, जिन्होंने अपने कार्यकाल में अपना दायित्व और फर्ज निभाते हुए अपने परिवार, अपने बच्चों के भविष्य, उनकी बेहतर जीवन वृत्ति के लिए अपनी पूरी जमा-पूँजी होम करने में गुरेज नहीं किया। कभी अपने लिए बचत का नहीं सोचा ! क्योंकि वे भूले नहीं थे कि उनके लिए भी कोई ऐसा कर चुका है। संस्कार ही ऐसे होते थे ! उन्हें भी अपने लिए वैसे ही भविष्य की कल्पना रहती थी कि हमारे लिए तो आने वाली पीढ़ी है ही ! पर बहुतेरे ऐसे लोग कहीं ना कहीं आज अपने आप को ठगा सा महसूस करने लगे हैं !
आज समय की मांग है कि जब तक इंसान सक्षम है, उसे कुछ ना कुछ उद्यम करते ही रहना चाहिए ! इससे कई लाभ हैं, एक तो आदमी अपने को लाचार और उपेक्षित नहीं समझेगा ! दूसरे कुछ ना कुछ आर्थिक सहयोग दे सकेगा परिवार को ! तीसरे शारीरिक और मानसिक रूप से भी स्वस्थ व सक्षम रहेगा !इसके अलावा युवाओं के जोश और बुजुर्गों के अनुभव में सामंजस्य की आवश्यकता है। दोनों को ही एक दूसरे की जरुरत है। शारीरिक शक्ति दौड़ में विजयी जरूर बनाती है पर अनुभव ही सिखाता है कि किधर, कैसे और कितना दौड़ना है !
19 टिप्पणियां:
यथार्थ के धरातल पर सार्थक विचारों से भरपूर लेख ।
मीना जी
कुछ बुराइयों के लिए तो हम दोषी हैं ही
शास्त्री जी
हार्दिक आभार । स्नेह बना रहे
सटीक
युवाओं के जोश और बुजुर्गों के अनुभव में सामंजस्य की आवश्यकता है। दोनों को ही एक दूसरे की जरुरत है। शारीरिक शक्ति दौड़ में विजयी जरूर बनाती है पर अनुभव ही सिखाता है कि किधर, कैसे और कितना दौड़ना है !
एकदम सही बात
सुशील जी
अनजाने में हुई गलतियां भी समस्या खड़ी कर देती हैं
कविता जी
सदा स्वागत है,आपका
सही कहा है आपने। असहमति की कोई गुंजाइश ही नही। संस्कारों की कमी बहुत खल रही है। अपने बच्चों में संस्कारों के बीज बोते रहना होगा। सादर।
वीरेंद्र जी
बहुत जरूरी है बच्चों को संस्कारवान बनाना पर आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा के काल में अभिभावकों को फुर्सत ही कहां मिल पाती है!
सेवानिवृत या अक्षम हो चुके लोगों का एक अच्छा-ख़ासा प्रतिशत ऐसा है, जिन्होंने अपने कार्यकाल में अपना दायित्व और फर्ज निभाते हुए अपने परिवार, अपने बच्चों के भविष्य, उनकी बेहतर जीवन वृत्ति के लिए अपनी पूरी जमा-पूँजी होम करने में गुरेज नहीं किया..बिलकुल सच..गगन जी..पुरानी पीढ़ी की अपेक्षा आज की पीढ़ी बहुत समझदार और अपने बारे में ज्यादा जिम्मेदार है बनिस्पत दूसरों के लिए..अतः वो पिछली पीढ़ी को कमतर आंकती है परंतु ऐसा नहीं है..बस वो ज्यादा कर्तव्य बोध में बंधी हुई पीढ़ी है..
बहुत सही
जिज्ञासा जी
इसी पीढ़ी के साथ स्नेह, त्याग, परमार्थ, परोपकार जैसी प्रवृत्तियां भी लोप ना हो जाएं यही डर है
मनोज जी
हार्दिक आभार
सुंदर प्रस्तुति
आभार, ओंकार जी
सार्थक और सटीक आलेख
बधाई
स्वागत है, खरे जी
नमस्कार शर्मा जी,
शक्ति और अनुभव का तालमेल ...आपने बखूबी समझा दिया है इस लेख में...कोशिश होगी कि हम इस तरह ही इसे साध सकें। धन्यवाद
अलकनंदा जी
आपका सदा स्वागत है
एक टिप्पणी भेजें