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सोमवार, 18 अगस्त 2025

शौक या अत्याचार 😢(विडियो सहित)

कभी  आपने पिजंड़े में   कैद जानवरों  के  चेहरों को ध्यान से देखा है  ? जहां  हर जीव के  चेहरे पर छटपटाहट, बेबसी, निराशा, उदासी, थकावट,  उकताहट जैसे भाव  स्थाई हो कर रह गए होते हैं ! यहां आहार तो  इन्हें बिना किसी उपक्रम व परिश्रम  के मिल जाता है ! इसीलिए बिना दौड़-भाग के सिर्फ खाने और सोने के कारण उनकी शारीरिक क्रियाऐं दिन ब दिन शिथिल होती चली जाती हैं और ये समय से पहले बूढ़े, बीमार होते चले जाते हैं.........!       

#हिन्दी_ब्लागिंग 

इंसान सदा से एक फितरती प्राणी रहा है ! वह अपने आप को संसार के सभी जीवों से उत्कृष्ट मानता आया है ! उसे लगता है कि वही इस जगत का स्वामी है, बाकी सारे जीव-जंतु उसकी मिल्कियत हैं ! इतना ही नहीं यदि वह सक्षम व सशक्त भी हो जाए तो वह तो निरीह इंसानों तक को नहीं बख्शता,उनको अपना दास बना लेता है, जानवर क्या चीज हैं ! 

शौक की कीमत 
सी मानसिकता के चलते कई लोग अपने शौक की पूर्ती के लिए जानवरों के बच्चों को पालते हैं ! जिनमें कई खूंखार जंगली नस्लें भी होती हैं ! शौक-शौक है ! बस, उसे पूरा करने की क्षमता होनी चाहिए ! संसार में ऐसे सक्षमों की कोई कमी नहीं है ! 

जानवरों को पालना कोई बुरी बात नहीं है ! देश-विदेश में ऐसा वर्षों से होता आया है ! यदि पशु-पक्षी बेसहारा हो, अपने परिवार से बिछुड़ा हुआ हो या उसकी जान को खतरा हो तो उसकी रक्षा करना, उसका जीवन बचाना पुण्य का काम माना जाता है ! परंतु सिर्फ अपने शौक को पूरा करने के लिए जंगली जानवरों के शावकों, पशु-पक्षियों या अन्य जीवों को सिर्फ अपने मनोरंजन के लिए बंदी बनाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता ! 

स्नेह 
शुरू-शुरू में पशु शावकों और इंसानों में सौहार्द बना रहता है, बच्चों को दुलार, प्यार, सेवा, सुरक्षा सब मिलता है, परंतु जब वही शावक कुछ बड़े हो जाते हैं और उनमें उनकी नैसर्गिक क्षमताएं, आदतें और प्रवित्तियां उभरने लगती हैं तो इंसानों को वे अपने लिए खतरा लगने लगते हैं और उन्हीं से डर कर उन्हें पिंजड़ों में बंदी बना नारकीय जीवन जीने पर मजबूर कर दिया जाता है ! 


प्रताड़ना 
चिड़ियाघर भी कुछ ऐसी ही जगह है ! फर्क इतना ही है कि वहां शौक नहीं बल्कि इंसान के जानने, समझने के नाम पर बेकसूर जीवों को छोटे-बड़े पिजरों में आजन्म कैद कर रखा जाता है ! जहां सबसे बड़ी मुसीबत सरीसृप जाति को होती है जो अपने आकार से कहीं छोटे कांच के बक्सों में कैद होते हैं ! भले ही कुछेक जानवरों के बाड़े बड़े होते हैं पर कैद, कैद होती है। आजादी, आजादी !

                                                 

पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं 
भी आपने इन कैदी जीवों के चेहरों को ध्यान से देखा है ? जहां हर जीव के चेहरे पर बेबसी, छटपटाहट, निराशा, उदासी, थकावट, उकताहट जैसे भाव स्थाई हो कर रह गए होते हैं ! यहां इन्हें आहार बिना किसी उपक्रम के मिल जाता है ! इसलिए बिना दौड़-भाग के सिर्फ खाने और सोने के कारण उनकी शारीरिक क्रियाऐं दिन ब दिन शिथिल होती चली जाती हैं और ये समय से पहले बूढ़े, बीमार होते चले जाते हैं ! 

                                                 

       
आजादी 
हालांकि हम सब में इस को लेकर थोड़ी बहुत जागरूकता तो आई है पर वह ना के बराबर है ! इन प्राणियों को भी प्रेम, प्यार, करुणा और आजादी की उतनी ही जरुरत है, जितनी कि हमें !  

@चित्र अनुज रंजन तथा अंतर्जाल के सौजन्य से  

गुरुवार, 3 अप्रैल 2025

मच्छरदानी, इंसान की एक छुद्र कीट से मात खाने की निशानी

एक तरफ दुनिया भर में जंगली, खतरनाक, दुर्लभ, मासूम, हर तरह के जानवरों को पिंजरों में बंद कर विश्व के सबसे खतरनाक जानवर इंसान के दीदार के लिए रखा जाता है ! दूसरी तरफ वही इंसान एक अदने से कीड़े से बचने के लिए खुद को मसहरी नुमा पिंजरे में बंद कर अपनी जान की हिफाजत करने पर मजबूर हो जाता है ! वह भले ही ग्रहों के पार जाने की जुगत भिड़ा चुका हो, पर मच्छर भाऊ ने उसके ग्रहों की दशा अभी भी दिशाहीन ही कर के रखी हुई है.................!  

#हिन्दी_ब्लागिंग 

कुछ सालों पहले तक बंगाल के भद्र-लोक के व्यक्तित्व का, रहन-सहन का जिक्र होते ही धोती-कुर्ता, छाता, सिगरेट, चाय, घर का अपना पोखर जैसी चीजों का उल्लेख भी प्रमुख रूप से हो ही जाता था ! परंतु ऐसी चर्चा करने वाले पता नहीं क्यों उस एक चीज को भुला देते थे जो वहां के तकरीबन हर घर में पाई जाती थी, जिसका नाम है मसहरी ! हो सकता है कि एक छुद्र कोटि के निम्न कीट से अपनी हार की निशानी को ज्यादा मशहूरी दे कर हम अपनी बची-खुची नाक की और बेइज्जती नहीं होने देना चाहते हों ! इसलिए उसका जिक्र ना करते हों !

मसहरी 

म सहरी, मच्छरदानी, मशारी, मॉस्किटो नेट ! एक अति छुद्र-कीट, मच्छर से बचने का एकमात्र फुलप्रूफ साधन ! मच्छर, विश्व भर में तकरीबन हर साल करीब 20-25 करोड़ लोगों को अपने खूनी पंजे में फंसा, उनमें से अधिकतर को जहन्नुम रसीद कर देता है ! और अब तो यह बात जग-जाहिर सी हो चुकी है कि इंसान माने या ना माने उससे एक तरह से हार स्वीकार कर चुका है ! इंसानी ईजाद की कोई भी चीज धुंआ, स्प्रे, केमिकल कुछ भी उस अस्थि विहीन, तकरीबन भार हीन कीट से पार नहीं पा सकी है ! उलटे यह अभी भी जमीनी आत्माओं का मिलन परमात्मा से बेहिचक करवाए जा रहा है ! इसने इतने लोगों को ऊपर पहुंचा दिया है, जितने मनुष्य के आपसी युद्ध भी नहीं कर पाए हैं ! इस खतरनाक बला के खौफ का आलम तो यह है कि इससे मुक्ति की परिकल्पना को साकार करने के लिए हमें वैश्विक स्तर पर हर साल 25 अप्रैल को विश्व मलेरिया दिवस मनाना पड़ता है !

 खतरनाक कीट 
ऐसे में यह मसहरी ही है जो हमें इस दुर्दांत शत्रु से किसी हद तक बचाती आ रही है ! मनुष्य जाति को तो इसके आविष्कारक के नाम कोई नोबल पुरुस्कार जैसा कुछ घोषित कर देना चाहिए ! वैसे इसका इतिहास सैकड़ों साल पुराना है ! कहते हैं कि क्लियोपेट्रा के शयन कक्ष में भी इसका उपयोग होता था ! भारत तथा ग्रीस के पुराने दस्तावेजों में भी इसका उल्लेख मिलता है ! समय के साथ-साथ इसके रूप-रंग-आकार-प्रकार में भी तरह-तरह के बदलाव आए हैं ! फैशन के अनुसार इसने भी अपने को ढाल लिया है !

डिजायनर 
एक तरफ दुनिया भर में जंगली, खतरनाक, दुर्लभ, मासूम, हर तरह के जानवरों को पिंजरों में बंद कर विश्व के सबसे खतरनाक जानवर इंसान के दीदार के लिए रखा जाता है ! दूसरी तरफ वही इंसान एक अदने से कीड़े से बचने के लिए खुद को मसहरी नुमा पिंजरे में बंद कर अपनी जान की हिफाजत करने पर मजबूर हो जाता है ! कहते हैं ना कि भगवान सभी को ठिकाने से लगाए रखता है !

बिना भेदभाव सुरक्षा 
जो भी हो मसहरी का तो हमें सदा अहसानमंद रहना होगा ! जो बिना भेदभाव अमीर-गरीब, आबालवृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी को बीमार पड़ने से बचाती है ! एक बार घर आ जाए तो वर्षों साथ निभाती है। सोने के पहले इसको लगाने की जरा सी जहमत जरूर होती है पर उसके बाद इसके अंदर परिवार ऐसे निश्चिंत हो सोता है, जैसे किसी किले में सुरक्षा प्राप्त हो

बेफिक्री की नींद 
सो चता हूँ, इंसान को मसहरी में सुरक्षित सोता देख मच्छर क्या सोचता होगा ? जाल की दीवारों पर सर पटक-पटक कर भिनभिनाता होगा, अरे मेरे पेट पर लात मार चैन से सो रहा है ! अच्छा बेटा अभी तो सो ले ! सुबह तो बाहर आएगा ! बहुत शौक है ना शाम को टहल कर सेहत बनाने का, तब देखूंगा तुझे ! देखता हूँ उस बराबर की जंग में कौन जीतता है !

कुछ भी हो इंसान भले ही ग्रहों के पार जाने की जुगत भिड़ा चुका हो, पर मच्छर भाऊ ने उसके ग्रहों की दशा अभी भी दिशाहीन ही कर के रखी हुई है !  

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से  

@मशक में कौन सा खतरनाक होता है, सभी जानते हैं 😀 

गुरुवार, 5 जनवरी 2023

बाजार के चक्रव्यूह में अभिमन्यु बनता उपभोक्ता

एक ऐसे ही बाल बढ़ाऊ और केश निखारू उत्पाद ने प्याज को ही अपना ब्रांड एम्बेस्डर बना डाला है ! चतुराई इतनी कि अपनी साख जमाने के लिए उसने प्याज के दो रंग के बीजों लाल और काले से एक का शैंपू और दूसरे का तेल बना बाजार में धकेल दिया ! जितनी बारीकी से उसने केश विहीनों के मनोविज्ञान पर काम किया उतना शोध तो सिर्फ रॉकेट साइंस में ही होता होगा ! कीमत ज्यादा ना लगे इस आशंका में नीचे लिख दिया 1ml सिर्फ तीन रूपए का............!

#हिन्दी_ब्लागिंग

जबसे बाबा रामदेव ने बाजार के समर में आयुर्वेद का परचम थामा है, तबसे जाने-माने नामों यथा तुलसी, आंवला, हल्दी, अदरक के साथ-साथ अन्य नामालूम से साग-सब्जियों-लता-गुल्मों-पौधे-पत्तियों के दिन भी फिर गए हैं ! हर कॉस्मेटिक ब्रांड अपने उत्पाद में किसी भी वनस्पति का नाम थोप खुद को प्रकृति का सगा सिद्ध करने पर तुला हुआ है साथ ही लोगों के रुझान और मौके को ताड़ते और आयुर्वेद के नाम को भुनाते हुए अपने उत्पाद की कीमत तिगुनी-चौगुनी कर दी है ! एक ऐसे ही बाल बढ़ाऊ और केश निखारू उत्पाद ने प्याज को ही अपना ब्रांड एम्बेस्डर बना डाला है ! चतुराई इतनी कि अपनी साख जमाने के लिए उसने प्याज के दो रंग के बीजों लाल और काले से एक का शैंपू और दूसरे का तेल बना बाजार में धकेल दिया ! जितनी बारीकी से उसने केश विहीनों के मनोविज्ञान पर शोध किया उतना तो सिर्फ रॉकेट साइंस में ही होता होगा ! लोगों की इस धारणा को भुनाते हुए कि अच्छी और खास चीज मंहगी ही होती है, कंपनी ने अपने 200ml तेल की कीमत रख दी 600/- रूपए ! कीमत ज्यादा ना लगे इस आशंका में नीचे लिख दिया 1ml सिर्फ तीन रूपए का ! यही हथकंडा शैंपू के लिए भी अपनाया गया ! जिससे उपभोक्ता को लगे कि बस इतनी सी कीमत ! इंसान की कमजोरियों का फायदा उठा उसे अपने काबू की  ''जकड़'' में कैसे बनाए रखना है, यह इसका ताजा उदाहरण है !    

बहुत से लोगों को याद होगा एक जमाने में, सस्ती के समय कम कीमत में ढेर सा सामान आ जाता था, इसलिए चार सेर की धड़ी या पांच सेर की पनसेरी का चलन था ! समय गुजरा, मन-सेर-छटांक को किनारे कर किलोग्राम का चलन शुरू हो गया ! फिर मंहगाई बढ़ी तो इंसान के मनोविज्ञान को समझते हुए बाजार ने जिंसों की कीमत को कम दर्शाने के लिए एक किलो की पैकिंग 900 ग्राम और 500 ग्राम की जगह 400 ग्राम कर सामान बेचना शुरू कर दिया ! एक किलो की कीमत की जगह कब एक पाव या 250 ग्राम के रेट बता ग्राहक को भुलावे में रखा जाने लगा, पता ही नहीं चला ! किसी चीज की कीमत चुपचाप दुगनी कर, उसके साथ एक-दो चीजें मुफ्त देने या उस चीज की कीमत में 50-60 प्रतिशत की छूट दिखा, आम इंसान को गुमराह कर उसे लूटने की ऐसी प्रथा शुरू हो गई, जिसमें लुटने वाला भी ख़ुशी महसूस करने लगा ! इंसान के दिमाग को जितनी खूबी से बाजार ने समझा है उतना तो शायद ही कोई समझ पाया हो ! कब, कहां, कैसे इसे अपने हिसाब से चलाना-समझाना है, इसे क्या दिखा-बता कर अपना मतलब निकल सकता है, इसमें बाजार की ताकतों को महारत हासिल है और इसमें सहायक होती हैं नामी-गिरामी, सामाजिक हस्तियां जो अपनी शख्शियत का लाभ उठा, पैसे लेकर आम इंसान को सच-झूठ कुछ भी समझा कर कंपनियों को लाभ पहुंचाती रहती हैं, भले ही उनका ड्राइवर भी उस वस्तु का इस्तेमाल ना करता हो ! 

डॉक्टर आर्थो से अनुबंध ख़त्म हो गया लगता है 

बाजार की भूख ने तो सुरसा को भी मात दे दी ! इससे पार पाने के लिए तरह-तरह की तरकीबें बेचने वाले करोड़पति बन गए ! पहले एक तरह के शैंपू-तेल-परफ्यूम आते थे ! फिर पुरुषों-महिलाओं-बच्चों के लिए क्यों अलग-अलग होने चाहिए यह समझा कर उत्पाद बढ़ाए ! आज आप क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे, किससे नहाएंगे, किससे सेहत बनाएंगें, सब बाजार ने अपने अधिकार में ले लिया है ! यह अलग बात है कि देश-विदेश में पदक जीतने वाले शायद ही हार्लिक्स-कॉम्पलान या बोर्नविटा जैसे उत्पादों से लाभान्वित हुए हों ! पर जो दिखता है वही बिकता है का सिद्धांत बदस्तूर जारी है ! यह भी सही है कि जब तक लोग भुलावे में आते रहेंगे तब तक गंजों को कंघी और पहाड़ों पर बर्फ बेची जाती रहेगी !     

गुरुवार, 16 जून 2022

मैं ही क्यों..!

इंसान की फितरत है कि उसे कभी संतोष नहीं होता ! किसी ना किसी चीज की चाह हमेशा बनी ही रहती है ! पर एक सच्चाई यह भी है कि हम अपनी जिंदगी से भले ही खुश ना हों पर हजारों ऐसे लोग भी हैं, जो हमारी जैसी जिंदगी जीना चाहते हैं, वैसे जीवन की कामना करते हैं ! इसलिए जो है, उसी में संतुष्ट हो ऊपर वाले को धन्यवाद देना चाहिए.....!  

#हिन्दी_ब्लागिंग 

समय के साथ-साथ मनुष्य के जीवन में तरह-तरह के उतार-चढ़ाव आते रहते हैं ! कभी ख़ुशी कभी गम, कभी ज्यादा कभी कम, कुछ ना कुछ घटता ही रहता है ! इंसान को सदा यही लगता है कि जो कुछ वह कर रहा है वह सही है ! अपने अनुचित कार्यों को भी सही ठहराने का तर्क वह खोज लेता है ! कभी-कभार अंतरात्मा के चेताने पर अपनी तसल्ली या अपराधबोध से उबरने के लिए, दान-पुण्य के नाम पर कुछ खर्च वगैरह भी करता है ! धर्मस्थलों का पर्यटन या दर्शन तो आम बात है ही ! पर यह सब सतही तौर पर ही होता है ! असल में वह कभी भी खुद को प्रभु के चरणों में पूरी तरह समर्पित नहीं करता ! उसके मन में एक अविश्वास, एक संदेह बना ही रहता है !  

ऐसे में यदि उस पर कोई विपत्ति आन पड़ती है या किसी बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ता है तो वह शिकायत स्वरूप अपने इष्ट की ओर मुखातिब हो यही पूछता है कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों ? क्योंकि उसे तो लगता है कि वह सदा नेक काम करता रहा है ! भगवान की पूजा-अर्चना, उनके दर्शन, दान-पुण्य-दक्षिणा भी भरपूर देता रहा है, फिर उसे दुःख-तकलीफ कैसे साल सकते हैं ? वो तो सदा सुख पाने का अधिकारी है !  

इसी संबंध में वर्षों पहले की एक बात फिर प्रासंगिक हो उठती है ! टेनिस के खेल के एक बहुत बड़े ख्यातनाम खिलाड़ी रहे है आर्थर ऐश ! 10, जुलाई, 1943 को अमेरिका मे जन्मे ऐश, अंतर्राष्ट्रीय टेनिस में सर्वोच्च स्तर पर खेलने वाले प्रथम अफ्रीकी अमेरिकन खिलाड़ी थे। उनके नाम 33 उपाधियाँ थीं, जिनमें एक-एक बार विम्बलडन, आस्ट्रेलियाई ओपन, अमेरिकी ओपन के साथ साथ दो बार की फ्रेंच ओपन भी शामिल हैं ! परंतु हृदय की दो बार तथा मस्तिष्क की एक बार शल्य चिकित्सा होने के बाद उन्होंने समय से पहले ही कोर्ट तो छोड़ दिया पर समाज को मानवाधिकार, जन स्वास्थ्य और शिक्षा से जुड़े कार्यों में अपना योगदान देते रहे ! अपने इलाज के दौरान संक्रमित रक्त चढ़ाए जाने के फलस्वरूप वे एचआईवी से संक्रमित हो गए थे ! इसका खुलासा अपने प्रशंसकों को उन्होंने खुद किया था !
बिमारी के दौरान उनके पास उनके चाहने वालों के अनगिनित पत्र आते थे ! ऐसे ही एक पत्र में उनके एक दुखी प्रशंसक ने लिखा था कि इस भयानक बिमारी के लिए भगवान ने आप को ही क्यों चुना ! उसके जवाब में ऐश ने जो लिखा वह उनके प्रति लोगों के आदर-सम्मान को और भी बढ़ा देने वाला था ! ऐश ने जवाब दिया, मेरे साथ ही करीब पांच करोड़ बच्चों ने टेनिस खेलना शुरू किया ! उनमें से करीब पचास लाख इस खेल को सीख पाए ! जिनमें से पांच लाख पेशेवर खिलाड़ी बन सके ! इनमें से पचास हजार इस खेल की प्रतियोगिताओं में नामजद हुए ! पांच हजार ग्रैंड स्लैम में पहुंचे ! 50 खिलाड़ी विम्बलडन में पहुंचे ! उसमें भी चार सेमी-फाइनल में आए ! फिर दो ने खेल के फाइनल में  जगह बनाई और फिर जब मैंने कप को हाथों में उठाया तब मैंने भगवान् से नहीं पूछा कि मैं ही क्यूँ ? तो अब जब मैं इस तकलीफ में हूँ तो मैं उनसे यह कैसे पूछ सकता हूँ कि मैं ही क्यूँ ?  
इस सारी बात का लब्बोलुआब यह है कि जब हम उस ऊपर वाले को अपनी खुशी का जिम्मेदार नहीं मान सारा श्रेय खुद ले लेते हैं तो दुःख में उसे उलाहना क्यों देना ! उसके द्वारा उत्पन्न की गईं तरह-तरह की परिस्थितियां, हालात हमें खुद को परखने, निखरने का मौका देते हैं ! इंसान की फितरत है कि उसे कभी संतोष नहीं होता ! किसी ना किसी चीज की चाह हमेशा बनी ही रहती है ! पर एक सच्चाई यह भी है कि आप अपनी जिंदगी से भले ही खुश ना हों पर हजारों ऐसे लोग भी हैं जो आप जैसी जिंदगी जीना चाहते हैं ! इसलिए जो है उसी में संतुष्ट हो ऊपर वाले को धन्यवाद दीजिए !
यह तो सभी जानते हैं कि यदि धन से ही खुशी मिलती तो हर अमीर सड़कों पर रोज नाच रहा होता ! पर यह खुशी गरीब के बच्चों के हिस्से आई है ! सबसे बड़ा धन संतोष है ! यह है तो सब कुछ है ! सो जो नहीं है उसका गम ना कर, जो है उसका नम्रता पूर्वक शुक्रिया अदा कर हमें खुद खुश रहनेऔर जहां तक हो सके औरों को भी खुश रखने का उपक्रम करना चाहिए ! शैलेन्द्र जी ने क्या खूब जीने की परिभाषा बताई है :-  

"किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, 

किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है.."

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

तीन पैरों वाला फ़ुटबाल खिलाडी

वह अपने तीनों पैरों से दौडने, कूदने, सायकिल चलाने, स्केटिंग करने के साथ-साथ बाल पर बेहतरीन ‘किक’ लगाने में पारांगत हो गया था। ऐसे ही उसके एक शो को देख एक नामी फुटबाल क्लब से उसे खेलने की पेशकश की गयी। फ्रैंक ने मौके को हाथ से नहीं जाने दिया। देखते-देखते वह सबसे लोकप्रिय खिलाडी बन गया। खेल के दौरान जब वह अपने दोनों पैरों को स्थिर कर तीसरे पैर से किक लगा, बाल को खिलाडियों के सर के उपर से दूर पहुंचा देता तो दर्शक विस्मित हो खुशी से तालियां और सीटियां बजाने लगते।  उसे अपने तीसरे पैर से किसी भी तरह की अड़चन नहीं थी। सिर्फ कपडे सिलवाते समय विशेष नाप की जरूरत पडती थी और रही जूतों की बात तो उसने उसका भी बेहतरीन उपाय खोज लिया था , वह दो जोडी जुते खरीदता और चौथे फालतू जूते को किसी ऐसे इंसान को भेंट कर देता जिसका एक ही पैर हो................!!


#हिन्दी_ब्लागिंग 

आज जब किसी इंसान की हाथ या पैर में एक छठी उंगली भी हो भले ही वह अंग क्रियाशील हो या ना हो उसे प्रकृति का अजूबा ही माना जाता है। कहीं-कहीं तो ऐसे अंग वाला भला आदमी हास्य का पात्र भी बन जाता है ! समाज में इसे एक तरह की चीज को विकलांगता के रूप में ही देखा जाता है। सालों पहले हमारे एक पहचान के  युवक को तो इसी ''कमी'' की वजह से रेलवे ने नौकरी भी दे दी थी !  हमारे फिल्म उद्योग में कई सितारे अपनी इन्हीं वजहों को सालों छिपाते रहे हैं। ऐसे में एकआदमी ! तीन पैरों वाला ! उस पर फ़ुटबाल का खिलाड़ी ! कपोल-कल्पना लगती है ! किसी किस्से-कहानी की काल्पनिक उड़ान ! सुन कर सहज ही विश्वास होना कठिन है !  



18 मई 1889, इटली में सिसली के पास, रोसोलिनि कस्बे के एक अस्पताल मे एक बच्चे का जन्म होता है। जिसको देखते ही नर्स जोरों से  लेते ही नर्स जोरों से चीख पडी ! मां घबडा कर रोने लगी ! नर्स की चीख सुन पूरे अस्पताल मे हडकंप मच गया। बात ही कुछ ऐसी थी ! उस नवजात  सवस्थ शिशु के पूर्ण विकसित तीन पैर थे ! उस समय के अंधविश्वासों के चलते उसे अपशगुनी मान लिया गया ! पर परिवार की ममता उसे किसी तरह की हानि पहुंचाने को तैयार नहीं थी। बच्चे के मां-बाप ने डाक्टरों से प्रार्थना की कि वे किसी भी तरह ऑपरेशन कर इस तीसरी टांग से बच्चे को मुक्ति दिलवा दें। पर डाक्टर विवश थे ! उन्हें लग रहा था कि ऑपरेशन से या तो बच्चे की मौत हो जाएगी या फिर वह जीवन भर के लिए लकवाग्रस्त हो जाएगा। बच्चे की इस अस्वाभाविक बात को छिपाने की हर मुमकिन कोशिश के बावजूद यह खबर सारे शहर मे फैल गई ! लोग उसे देखने के लिए उमड़ पड़े। 

समय कहां रुकता है, वह बीतता गया। उसके साथ ही फ्रैंक लेंटिनी पूरी तरह स्वस्थ रह कर बडा होता गया। बड़े आश्चर्य की बात थी कि उसे अपने इस तीसरे पैर से कभी कोई दिक्कत नहीं हुई । बस उसे इसका कुछ उपयोग समझ में नहीं आता था। वह उस पैर से शरीर को सहारा देने का काम लिया करता था। समय आने पर उसके पिता ने उसे एक स्कूल में दाखिल करवा दिया। पर वहां उसके सहपाठियों द्वारा उसका उपहास उडाने और उससे दूरी बनाए रखने के कारण फ्रैंक उदास रहने लगा। पिता ने कारण जान-समझ उसे वहां से हटवा कर एक विकलांगों के स्कूल में भर्ती करवा दिया। वहां के अन्य विकलांग बच्चों को देख उसे महसूस हुआ कि वह तो दूसरे बच्चों की तुलना में बहुत भाग्यशाली है। उसे लगने लगा कि भगवान का दिया यह जीवन बहुत खूबसूरत है। रही बात शारीरिक विकृति की तो उसको भी अपनी विशेषता बनाया जा सकता है। उसे तो अपने तीसरे पैर से किसी तरह की अड़चन ही नहीं है। सिर्फ कपडे सिलवाते समय विशेष नाप की जरूरत पडती है और रही जूतों की बात तो उसने उसका भी बेहतरीन उपाय खोज लिया। वह दो जोडी जुते खरीदता और चौथे फालतू जूते को किसी ऐसे इंसान को भेंट कर देता जिसका एक ही पैर हो।

सकारात्मक सोच से फ्रैंक का अपनी जिंदगी के प्रति दृष्टिकोण बदल गया। उसने अपने जीवन को बेहतर बनाने, उसमें कुछ करने की ठान ली। इसी सोच के कारण वह हर परीक्षा को विशेष योग्यता से पास करता गया। इतना ही नहीं उसने चार-चार भाषाओं का ज्ञान भी अर्जित किया जो उसके भविष्य में बडा काम आया। समय के साथ उसकी पढाई पूरी होते-होते उसके पास काम के प्रस्ताव भी आने शुरु हो गये थे। पर वह ज्यादातर सर्कस के क्षेत्र से थे । काफी सोच-विचार कर उसने एक नामी सर्कस में काम करना शुरु कर दिया। दैवयोग से वहां उसे काफी नाम और दाम तो मिला ही साथ ही साथ उसके मन से रही-सही हीन भावना भी खत्म हो गयी। वहां रहते हुए उसने अपने तीसरे पैर का भरपूर उपयोग करना भी सीख लिया। अब वह अपने तीनों पैरों से दौडने, कूदने, सायकिल चलाने, स्केटिंग करने के साथ-साथ बाल पर बेहतरीन ‘किक’ लगाने में पारांगत हो गया था। ऐसे ही उसके एक शो को देख एक नामी फुटबाल क्लब से उसे खेलने की पेशकश की गयी। फ्रैंक ने मौके को हाथ से नहीं जाने दिया। देखते-देखते वह सबसे लोकप्रिय खिलाडी बन गया। लोग बडे से बडे खिलाडी को नजरंदाज कर उसी पर निगाहें गडाए रहते। खेल के दौरान जब वह अपने दोनों पैरों को स्थिर कर तीसरे पैर से किक लगा बाल को खिलाडियों के सर के उपर से दूर पहुंचा देता तो दर्शक विस्मित हो खुशी से तालियां और सीटियां बजाने लगते।

फिर एक समय आया जब पैसा और शोहरत पाने के बाद फ्रैंक की इच्छा घर बसाने की हुई। उनकी जिजीविषा, जिंदगी के प्रति सकारात्मक दृष्टि, हाजिर जवाबी और सेंस ऑफ ह्यूमर से एक युवती थेरेसा मुरे काफी प्रभावित हुई। दोनों ने शादी कर ली और दोनों से चार स्वस्थ बच्चे पैदा हुए। फ्रैंक लेंटिनी का 40 साल से ज्यादा का करियर रहा।उन्होंने करीब-करीब हर बड़े सर्कस और साइड-शो के साथ काम किया। साथियों के बीच उनको काफी सम्मान मिलता था और साथी उनको 'द किंग' कहकर बुलाते थे। अपनी विकलांगता को अपनी शक्ति बनाने वाला, उत्कट जिजिविषा और प्रबल इच्छा शक्ति वाले उस इंसान का 22 सितंबर 1966 में 77 वर्ष की उम्र में निधन हो गया।

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से   

बुधवार, 6 जनवरी 2021

मानव खुद को जहान का मालिक ना समझ, सिर्फ रखवाला ही माने तभी बेहतरी है

सृष्टि की  सृजन क्रिया में  जीवाणु से  लेकर मनुष्य  तक, तथा  एल्गी-कवक से  लेकर वृक्ष-वनस्पतियों तक करोड़ों  तरह के उत्पाद  अस्तित्व में आए। जिनके संरक्षण के लिए जल-थल -आकाश-अग्नि -वायु का सहयोग लिया गया। इन सब में संतुलन बनाए रखने के लिए एक सुसम्बद्ध चक्र का निर्माण किया गया।  जिसके  लिए  अपने आप में  महत्वपूर्ण  करोड़ों  जीव-जंतुओं की श्रृंखला बनी। जिनमें सिरमौर रहा, इंसान !

#हिन्दी_ब्लागिंग 

कायनात ने इस धरा को खूबसूरत बनाने के लिए  कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। तरह-तरह के पशु-पक्षी, जीव-जंतु, पेड़-पौधे !  उनके  अनुसार हवा-पानी, खान-पान, रहन-सहन का पूरा इंतजाम !  हरेक अपने आप में  पूर्ण रूप से एक स्वतंत्र इकाई ! फिर भी सबकी अपनी  अहमियत,  खासियत  व  हैसियत ! सभी का इस वसुंधरा को सुरक्षित, खुशहाल, सुन्दर तथा पूर्ण बनाने में किसी ना किसी तरह का सहयोग। प्रकृति ने  मनुष्य, पशु, पक्षी, पौधे व पर्यावरण सब  को एक दूसरे का पूरक बनाया, जिससे संतुलन बना रहे। इस काम के लिए ईश्वर ने मनुष्य को सभी प्राणियों से  कुछ ज्यादा समझदार  बनाया और अपनी  बनाई हुई दुनिया की बागडोर उसके हाथों सौंप दी।  जिससे वह अपने ''साथियों'' की देख-भाल तो  कर ही सके, साथ ही उसकी बनाई इस अद्भुत कृति की भी ठीक तरह से सार-संभार हो सके।  

प्रकृति ने अपनी बगिया को सजाने के लिए तरह - तरह की  करोड़ों  नेमतों की रचना  की। विभिन्न  तरह के उत्पादों का सृजन किया। जिसके लिए छोटे से छोटे जीवाणु से लेकर मनुष्य, एल्गी-कवक से ले कर वृक्ष-वनस्पतियों तक अस्तित्व में आए। जिनके संरक्षण के लिए जल - थल - आकाश -अग्नि-वायु का सहयोग लिया गया। इन सब में संतुलन बनाए रखने के लिए एक ''सुसम्बद्ध चक्र'' का निर्माण किया गया। इसके लिए अपने आप में महत्वपूर्ण करोड़ों जीव-जंतुओं की श्रृंखला बनी: जिनमें सिरमौर रहा, इंसान !

इंसान कुदरत की बेहतरीन रचना तो है, पर संतुलन बनाए रखने के लिए, उसे दिमागी तौर पर तो सर्वश्रेष्ठ बनाया पर उतनी  शारीरिक क्षमता नहीं दी। समस्त चराचर  की जीवन प्रणाली देखी जाए तो  शायद ही कोई जीव अपने  सृजनकर्ताओं पर इतना  निर्भर होता है जितना कि इंसान !  जहां जन्म के कुछ  ही समय के बाद सब, अपने लिए ही सही, स्वछंद जिंदगी जीना आरंभ कर देते हैं ! वहीं  इसके उलट मानव को अपने पैरों पर खड़े होने, अपनी हिफाजत करने, सोचने - समझने लायक होने में वर्षों लग जाते हैं। परन्तु  इसीलिए वह एक पारिवारिक - सामाजिक जीव भी बन पाता है। जो  ता-उम्र अपनी  संतति की  चिंता में  अपने आप को डुबाए रखता है। पहले अपने बच्चों और फिर उनके बच्चों की परवरिश में अपने को उलझाए-उलझाए जीवन गुजार देता है। पर इन्हीं उलझावों से ही लगाव,  स्नेह जैसी भावनाएं ! प्रेम,  दया, करुणा,  ममता,  त्याग,  परोपकार, सहानुभूति,  जैसे सद्विचार भी पनप पाते हैं ! जो  मानव को उत्कृष्ट और सर्वोपरि बनाते हैं।  उसको दूसरों का सुख - दुःख समझने की  लियाकत देते हैं। उसे मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों, पेड़-पौधे, पर्यावरण को बचाने की भी समझ प्रदान करते हैं। सिर्फ अपने लिए ही नहीं समस्त जगत के लिए जीने का हौसला देते हैं।

यह सही है  कि जहां  अच्छाई होती है, वहां कुछ ना कुछ बुराई  भी होती है ! पर साथ ही यह भी सच्चाई है कि दुनिया में अच्छाई  की बहुलता है और उसी के प्रयासों से  ही यह संसार भी कायम है ! हालांकि कुछ भ्रष्ट लोगों ने पृथ्वी पर उपलब्ध  जल,  अनाज,  पशु-पक्षी,  पेड़-पौधे व ऊर्जा  के स्त्रोतों पर अपना मालिकाना हक़ समझ, उनका असंतुलित  दोहन कर लिया। जिसका  खामियाजा दुनिया भर के लोगों को अपने जान-माल से करना पड़ा !  प्रकृति से नसीहत मिलते ही आदमी  को अपनी औकात समझ में आ गई और वह आखिरकार अपनी भूल सुधारने के लिए मजबूर भी हुआ ! 

अब तो यही आशा करनी चाहिए कि हाल में आन पड़ी जानलेवा, बेकाबू आपदाओं से  सबक सीख समस्त मानव जाति अपने आप  को ही जहान भर का मालिक ना समझ, सिर्फ रखवाला  ही मानेगी और अपने साथ-साथ पृथ्वी और पृथ्वीवासियों  के हक़ का सम्मान  कर उन्हें भी अपनी तरह से जीने और रहने का हक़ प्रदान करेगी ।     

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