गुरुवार, 18 नवंबर 2021

लौटना गब्बर का फिर रामगढ़

धीरे-धीरे चल कर गब्बर अपने पुराने अड्डे के पास पहुंचा तो वहाँ का नक्शा भी बिलकुल बदला हुआ मिला ! लोगों ने प्लॉट काट-काट कर घर बनाने की तैयारियां कर रखी थीं ! फिलहाल वक्त, आशिकों ने उस महफूज जगह को अपना आशियाना बना डाला था। इक्का-दुक्का जोड़े तो इस भरी दुपहरिया में भी चट्टानों के पीछे दुबके नजर आ रहे थे ! गब्बर, जिसके नाम से पचास-पचास कोस दूर रोते बच्चे डरा कर चुप करवा दिए जाते था, उसी गब्बर की नाक के नीचे आज के छोकरे प्रेम का राग अलाप रहे थे....... !

#हिन्दी_ब्लागिंग    

रामगढ़ की एतिहासिक लड़ाई के बाद सब कुछ मटियामेट हो चुका था। अब ना डाकुओं का दबदबा रहा, ना वो हुंकार कि कितने थे ? आदमी ही ना रहे तो गिनती क्या पूछनी ! ले दे कर सिर्फ सांभा बचा था, वह भी चट्टान के ऊपर किसी तरह छिपा रह गया था, इसलिए ! 

वर्षों बाद जेल काट तथा बुढ़ापा ओढ़, गब्बर वापस आया था रामगढ़। मन में एक आशा थी कि शायद छूटा हुआ  लूट का माल हासिल हो ही जाए ! पर वह भौंचक सा रह गया था यहाँ आ कर ! बीते सालों में रामगढ़ खुशहाल हो चुका था ! अब वहाँ तांगे नहीं, तिपहिया और टैंपो चलने लग गए थे। सड़कें भी पक्की हो गई थीं ! बिजली आ चुकी थी। लालटेनें इतिहास का हिस्सा बन चुकी थीं। बीरू-बसंती के प्यार को विवाह के गठबंधन में बदलने में सहयोगी उस समय की बिना पाइप की पानी की टंकी में अब पाइप और पानी दोनों उपलब्ध हो गए थे ! पुलिस का थाना बन गया था। एक डिग्री कालेज भी खुल गया था, जिससे अब किसी अहमद को अपनी जान पर खेल, शहर जा पढाई नहीं करनी पड़ती थी ! यह सारा बदलाव यहां से ठाकुर के चुनाव जीतने का नतीजा था। 

बात हो रही थी गब्बर के लौटने की ! समय की मार, अपने समय के आतंक गब्बर को आज कोई पहचानने वाला ही नहीं था ! इक्के-दुक्के लोगों ने तो भिखारी समझ उसके हाथ में एक-दो रुपये तक पकड़ा दिए थे ! उसने उनको भी अपनी खैनी की पोटली के साथ अपनी कमीज की जेब में ठूंस लिया। उसे तो एक ही चिंता सता रही थी कि पुलिया, जिसे जय ने उड़ा दिया था, के बगैर वह खाई कैसे पार करेगा। पर कमजोर होती आँखों के बावजूद उसे उस सूखे नाले पर एक पक्का मजबूत पुल दिखाई पड़ गया ! दिल जल उठा गब्बर का, यह पुल उस समय होता तो...........! 

खैर धीरे-धीरे चल कर गब्बर अपने पुराने अड्डे के पास पहुंचा तो वहाँ का नक्शा भी बिलकुल बदला हुआ मिला ! लोगों ने प्लॉट काट-काट कर घर बनाने की तैयारियां कर रखी थीं ! फिलहाल वक्त, आशिकों ने उस महफूज जगह को अपना आशियाना बना डाला था। इक्का-दुक्का जोड़े तो इस भरी दुपहरिया में भी चट्टानों के पीछे दुबके नजर आ रहे थे ! गब्बर, जिसके नाम से पचास-पचास कोस दूर रोते बच्चे डरा कर चुप करवा दिए जाते था, उसी गब्बर की नाक के नीचे आज के छोकरे प्रेम का राग अलाप रहे थे ! 

थका-हारा, लस्त-पस्त गब्बर वहीं एक पत्थर पर बैठ जेब से खैनी निकाल हाथ पर रगड़ रहा था। तभी उसे एक चट्टान के पीछे से एक सिर नमूदार होते दिखा। माथे पर हाथ रख आँखे मिचमिचा कर ध्यान से देखा तो खुशी से चीख उठा "अरे सांभा !!!" उधर सांभा जो और भी सूख कर बेंत की तरह हो चुका था, अपने उस्ताद को सामने पा एक साथ परेशान, चिंतित और चिढ़ गया ! कारण भी जायज था ! वह अपने पेट को भरने का इंतजाम तो ठीक से कर नहीं पाता था, ऊपर से यह आ गया था ! पर किया भी क्या जा सकता था ! मन मार कर, गुस्सा दबा, कुशल-क्षेम पूछी ! फिर सबेरे मांग कर लाई रोटियों में से चार उसके सामने एक प्याज के साथ रख दीं ! भूखे गब्बर ने झट से उनका सफाया कर डाला। 

किसी तरह शाम ढली, रात बीती, सुबह हुई ! आदतानुसार गब्बर ने ऐसे ही पूछ लिया "होली कब है, कब है होली ?'' इतना सुनना था कि सांभा के तनबदन में आग सी लग गई  ! ऐसा लगा जैसे नेपोलियन को किसी ने वाटरलू याद दिला दिया हो ! एक तो वह तो इसके आने से वैसे ही परेशान हो रात भर सो नहीं पाया था ! ऊपर से फिर वही सवाल ! वह फूट पडा ! उस्ताद, होली, दिवाली सब भूल जाओ ! मंहगाई का कोई इल्म भी है तुम्हें ? अपनी टेंट में दो दाने दाल और पाव भर आटा खरीदने को भी कुछ नहीं है ! यहाँ ना कुछ खाने को है ना पकाने को !  एक-दो बार, इधर जो लौंडे-लफाड़िए आते हैं  उन्हें डरा-धमका कर कुछ ऐंठने की कोशिश की तो उलटा वे मुझे ही हड़का गए ! वह तो हफ्ते दस दिन में मंदिर, गुरुद्वारे के लंगर से चार-पांच दिन का बटोर लाता हूँ, तो जिंदा हूँ ! तुमसे तो वह भी नहीं होगा ! हमारे विगत को जानते हुए कोई हमारा हमारा स्मार्ट कार्ड या आधार कार्ड भी नहीं बनाएगा ! तुमने जो किया है, उससे बुढापे की पेंशन भी मिलने से रही ! इसलिए पर्वों-त्योहारों खासकर होली को तो  भूल ही जाओ, जिसने हमारी यह गत बना दी थी ! यह सोचो कि आज खाओगे क्या और कैसे ?

इतनी डांट तो गब्बर ने अपनी पूरी जिन्दगी में भी कभी किसी से नहीं खाई थी ! वह सांभा जो उसके डर के मारे कभी पहाड़ी से नीचे नहीं उतरता था, आज उसे नसीहत दे रहा था ! सब समय का फेर है ! पर यह भी सच है कि तभी से  गब्बर सब भूल-भाल कर अब सिर्फ भोजन जुगाड़-चिंतन  में जुटा हुआ है ! 

9 टिप्‍पणियां:

yashoda Agrawal ने कहा…

उव्वाहहहहहह
यादें ताजा कर दिए आज
गाहे-बगाहे इस फिल्म के गाने
विविध भारती सुना देता है
आभार
सादर..

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

यशोदा जी
हिंदी की सर्वकालिन श्रेष्ठ तो नहीं पर लोकप्रिय फिल्मों में से एक तो है ही

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(१९-११-२०२१) को
'प्रेम-प्रवण '(चर्चा अंक-४२५३)
पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुशील जी
हार्दिक आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अनीता जी
आपका और चर्चा मंच का बहुत बहुत धन्यवाद

Jyoti Dehliwal ने कहा…

वक्त वक्त की बात है गगन भाई।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सही बात है, ज्योति जी,
समय तो खुद को भी नहीं बख्शता

Kadam Sharma ने कहा…

बहुत ही सुंदर व मनोरंजक कल्पना

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कदम जी
अनेकानेक धन्यवाद

🙏😅

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